Wednesday, August 12, 2009

लोक भाषा में फिलीस्तिनी कविता



फिलीस्तिनी कवि ताहा मुहम्मद अली की कविताओं से हिन्दी पाठकों का परिचय यादवेन्द्र जी ने अपने हिन्दी अनुवादों से कराया है। झारखण्डी पहचान के लिए सचेत कार्रवाइयों में जुटे अश्विनी कुमार पंकज ताहा का परिचय नागपुरी में करा रहे है। उन्होने कविताओं का अनुवाद नागपुरी भाषा की पत्रिका- जोहार सहिया के लिए किया है। लोकभाषा को बचाने और देश-दुनिया से उस भाषा के लोगों को परिचित कराने की उनकी इस कोशिश का स्वागत करते हुए कविताओं के नागपुरी भाषा में किए गए अनुवाद प्रस्तुत हैं।

कविताओं को हिन्दी में पढने के लिए यहां क्लिक करें







ताहा मुहम्मद अली
फिलीस्तिनी कवि



मात्र प्राइमरी तक पढ़ल ताहा मुहम्मद अली इजरायल कर नाँव बाजल फिलीस्तिनी कबि हेकयँ। 1931 में इनकर जनम गलिली इलाका कर एगो सधारन किसान परिवार में सफ्फुरिया गाँव में होय रहे। 1948 में जोन बेरा इजरायल बनलक हजारों फिलीस्तिनी परिवार के अपन घर-गाँव से जबरन बेदखल होयक पड़लक। ताहा कर परिवार कटिक बछर तक लेबनान में बिस्थापित रहलक तसे नजारेथ आयके बसलक। आजीविका चलायक ले ताहा एगो छोट दोकान चलायँना। दिन में दोकान-दौरी आउर राइत में साहित कर पढ़इ। इनकर पहिल कबिता संग्रह 42 बछर कर उमिर में छपलक। एखन तक ताहा कर पाँचठो कबिता आउर एकठो कहनी कर किताब प्रकासित होय चुइक हे। अपन बेरा कर फिलीस्तिनी कबि महमूद दरवेश आउर सामिह अल कासिम तइर ताहा प्रतिरोध कर कबिता नइ लिखयँना, मुदा उनकर कबिता में बिस्थापन कर दुख-पीरा आउर उजड़ेक कर अवाज मुध हेके। ताहा मुहम्मद अली कर कबिता के हिंदी में उल्था कइर हयँ यादवेन्द्र। ताहा कर ई सउब कबिता हिंदी में पहिल बेर 'लिखो यहाँ वहाँ" ब्लॉग उपरे प्रकासित होहे। जिके नागपुरी में रउर ले लाइन हयँ ।


बेस तइर बिदाइयो नइ

हाम तो नि कांदली बिल्कुल
बिदा होयक बेरा
का ले कि नइ रहे फुरसत हमर ठिन जरिको
आउर नि रहे लोर -
बेस तइर हमिन कर बिदाइयो नइ होलक।

दूर जात रही हमिन
लगिन हमिन के कोनो मालूम नि रहे
कि हमिन बिछुड़े जात ही हर-हमेसा ले
तसे का तइर ढरकतलक इसन में
हमिन कर लोर?

जुदाइ कर ऊ गोटेक राइत रहे
आउर हमिन जागलो नइ रही
(आउर नइ बेहोसी में निंदाले रही)
जोन राइत हमिन बिछुड़त रही हर-हमेसा ले।

ऊ राइत
नि तो अंधरिया रहे
नि तो उजियार
आउर नि चांद हें असमान में उइग रहे।

ऊ राइत
हमिन से बिछुइड़ गेलक हमिन कर तरेगइन
दिया हमिन कर सामने खउब करलक नाटक
रतजगा करेक कर -
इसन में कहाँ से सजातली
जगायक वाला
अभियान।
----------------

होय सकेला

बीतल राइत
सपना में
देखली खुद के मोरत।

मिरतु ठाड़ा रहे हामर एकदम हेंठे
आँइख से आँइख मिलाय के
बड़ सिद्दत से महसूस करली हाम
कि सपना भितरेहें ही रहे ई मउवत।

सच तो एहे हय -
हामके नि मालूम रहे पहिले
कि हमर मिरतु
अनगिन सीढ़ी से
ढरइक आवी पानी लखे
जइसे उजर, सिमसिमाल
अगुवायक आउर मोहेक वाला काहिली
इया सुस्ती के उनींद कइर देक वाला अनुभूति आवेला।

सधारन गोईठ में कहु
तो इकर में कोनो पीरा नइ रहे
नि रहे कोनो भय;
होय सकेला
मउवत के लेइके
हामरे भय कर अतिरेक कर जड़मन
जिनगी कर लालसा कर उद्वेग में
धंसल होओक ढेइरे गहरा -
होय सकेला
कि इसने हें होय।

मुदा हमर मउवत में
एगो अनसुलझल पेंच हय
जेकर बारे में खउब बिस्तार से
अपसोस हय कि
हाम नइ गोठियायक पारब -
कि अचके उठेक लागेला गोटेक देह में सिहरन
जखन बेसे बोध होवेला
खुद के मोरेक कर -
कि एखने अइगला क्षण छयमान होय जाबयँ
हमिन कर सउब प्रियजन
कि हमिन नइ देखेक पारब अब कधियो ऊमन के
इया कि सोंचेक हों नइ पारब
अब कधियो ऊ मनक बारे में।


चेतावनी


सिकार पर निकलेक कर सउक रखेक वाला सउब झन
आउर सिकार उपरे झपट्टा मारेक कर ओर करेक वाला सउब झन
अपन बंदूक कर
मुँह कर निसाना मइत कर हमर खुसी बट
इ एतइ महँग ना लागे
कि इकर उपरे एको ठो गोली खरच करल जाओक
(ई एकदमे बरबादी हय)
तोयँ जे देखत हिस
हरिन कर छउवा तइर
बेस तेज आउर मनमोहना
डेगत-कूदत
इया तीतर तइर पाँइख के फड़फड़ाते -
ई मइत बुइझ लेबे कि
बस एहे खुसी हय
हमर बिसुवास कइर
मोर खुसी कर इकर से
कोनो लेना-देना नखे।


ओहे ठाँव

हाम तो घ्ाुइर आली फिन ओहे ठाँव
मुदा ठाँव कर मतलब
खाली माटी, पखना आउर मैदाने होवेला का?
कहाँ हय ऊ लाल पोंछ वाला चिरई
आउर जामुन कर हरियरी
कहाँ हय मिमियायक वाला छगरीमन
आउर कटहर वाला साइँझ?
केंइद कर सुगंध
आउर उकर ले उठेक वाला कुनमुनाहट कहाँ हय?
कहाँ गेलक सउब खिड़की
आउर चांदो कर बिखरल केंस?
कहाँ हेराय गेलक सउब बटेरमन
आउर चरका खुर वाला हिनहिनात सउब घ्ाोड़ामन
जिनकर सिरिफ दाहिना गोड़ हें खुला छोड़ल जाय रहे?
कहाँ चइल गेलक सउब बरातमन
आउर उनकर खाना-पीना?
सउब रीत-रेवाज आउर खस्सीवाला भात कहाँ चइल गेलक?
धन कर बाली से भरल-पूरल खेत कहाँ गेलक
आउर कहाँ चइल गेलक फूलवाला पौधामनक रोआँदार बरौनीमन?
हमिन खेलत रही जहाँ
लुकाछिपी कर खेइल खउब देइर-देइर तलक
ऊ खेतमन कहाँ चइल गेलक?
सुगंध से मताय देकवाला पुटुस कर झारमन कहाँ चइल गेलक?
स्वर्ग से सोझे छप्पर उपरे उतइर आवेकवाला
फतिंगामन कहाँ गेलयँ
जेके देखतेहें
बुढ़िया कर मुँह से झरेक लागत रहे गारी:
हामर चितकबरी मुरगी चोरायकवाला
तोहिन सउब कर सउब, बदमास लागिस -
हामके मालूम हय तोयँ उके पचायक नि पारबे
चल भाइग हिआँ से बदमास
तोयँ हमर मुरगी के कोनो रकम नि हजम करेक पारबे।



अनुवाद : अश्विनी कुमार पंकज

Tuesday, August 11, 2009

प्रतिरोध की एक मुहिम

कवि और पत्रकार अरूण आदित्य की यह टिप्पणी हबीब तनवीर के नाटक चरणदासचोर पर छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंध के प्रतिरोध में प्राप्त हुई है। पाठकों से अनुरोध है कि प्रतिरोध की इस मुहिम को आगे बढाएं।

अरूण आदित्य

सतनामी समाज बरसों से इस नाटक को देखता आ रहा है। इसमें कुछ सतनामी कलाकारों ने काम भी किया है। फिर अचानक आपत्ति क्यों हो गई ? इसके पीछे क्या कारण हैं ? और कौन इसे संचालित कर रहा है, इन सब चीजों की गहराई में जाना होगा। सतनामी समाज को विश्वास में लेकर ही यह लड़ाई लडऩी चाहिए, ताकि छत्तीसगढ़ सरकार की विभाजनकारी नीति की पोल खोली जा सके। सतनामी समाज की आपत्ति की आड़ लेकर चरणदास चोर को प्रतिबंधित करना अगर जायज है तो क्या इसी तर्क का आधार पर ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताडऩा के अधिकारी जैसी चौपाई पर स्त्रियों और शूद्रों की आपत्ति के कारण रामचरित मानस पर भी प्रतिबंध लगाया जा सकता है? क्या छत्तीसगढ़ सरकार ऐसा करने की हिमाकत कर सकेगी?
2007 में एक साक्षात्कार के दौरान हबीब साहब ने कहा था-‘सवाल सिर्फ मेरे नाटकों का नहीं है। सवाल अभिव्यक्ति की आजादी का है। आप कोई फिल्म बनाते हैं, तो बवाल हो जाता है। पेंटिंग बनाएं तो बवाल। लेखक को भी लिखने से पहले दस बार सोचना पड़ता है कि इससे पता नहीं किसकी भावना आहत हो जाए और जान-आफत में। दुख की बात यह है कि सरकार इस सब पर या तो चुप है, या उन्मादियों के साथ खड़ी नजर आती है।'
उनकी बात एक बार फिर सही साबित हो गई है।


Monday, August 10, 2009

कला-साहित्य का सलवा जुडुम



अपनी आक्रामक कार्रवाईयों को चालू रखने वाला और जन-प्रतिरोध की आंशका से घिरा प्रभु वर्ग किस कदर जनतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ा रहा है, उसको देखने और समझने के लिए जरूरी नहीं कि कहा जाए हबीब के नाटक चरणदास चोर पर प्रतिबंध लग गया।
हमारे देहरादून के साथी मुहम्मद हम्माद फारूखी के शब्दों में कहूं तो 19 अगस्त से दिल्ली में आयोजित होने जा रहे एक कला आयोजन, जिसे दिल्ली की सरकार और कुछ आर्ट गैलरियां मिल कर रही है, में भी एक अघोषित किस्म का प्रतिबंध जारी है, जहां हुसेन की पेंटिगों को प्रदर्शन के लिए रखा ही नहीं जाना है। वे बताते है कि यह तथ्य है कि पिछले वर्ष आयोजित उस कार्यक्रम का यह एजेंडा ही था जिसके विरोध में सहमत ने एक अन्य आयोजन किया।


यह कहने की जरूरत नहीं कि महत्वाकांक्षाओं की लिप्सा में डूबे रचनाकारों की भी भूमिका भी यहां चिहि्नत की जानी चाहिए जो प्रभु वर्ग की चालाकियों में फंसकर अपने प्रतिरोधी चरित्र को भी संदिग्ध बनाती है। पुरुस्कारों का मायाजाल और निहित राजनैतिक उद्देश्यों के लिए आयोजित होने वाले प्रभु वर्ग के ऐसे आयोजनों की चमक से हतप्रभ उनकी उपस्थितियां, साहित्य का सलमा जुडूम रचने में कैसे सहायक हो रही है, यह सवाल क्यों नहीं उठना चाहिए ? क्यों नहीं व्यापक एकता के दम पर ही ऐसी हिसंकता के प्रतिरोध को स्वर दिया जाना चाहिए ?

हबीब छत्तीसगढ़ की पहचान हैं। सतनामी संप्रदाय के बहाने चरणदास चोर की स्क्रिप्ट को बैन करना साहित्य का सलमा जुडुम ही है- मुहम्मद हम्माद फारूखी ।


सभी तस्वीरें इंटरनेट से साभार ली गई हैं। यदि किसी को आपत्ति हो तो दर्ज करें, जरूरी समझने पर हटा दी जाएंगी।

Friday, August 7, 2009

जब व्हेल पलायन करते है



संवाद प्रकाशन से
यूरी रित्ख्यू के प्रकाशनाधीन उपन्यास जब व्हेल पलायन करते हैं का हिन्दी अनुवाद कथाकार डॉ शोभराम शर्मा ने किया है।डॉ शोभाराम शर्मा की रचनाओं को इस ब्लाग पत्रिका में अन्यत्र भी पढ़ा जा सकता है।

उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल में 6 जुलाई 1933 को जन्मे डॉ। शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से हिंदी विभागाध्यक्ष के पदसेसेवानिवृत्त हुए हैं। 50 के दशक में डा।शोभाराम शर्मा ने अपना पहलालघुउपन्यास "धुमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा। शर्मा नेअपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, मानक हिंदी मुहावराकोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी मुहावराकोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी लोकोक्तिकोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं।
पूर्वी कुमांऊ तथा पश्चिमी नेपाल की राजी जनजाति (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध् प्रबंध) उनका एक महत्वपूर्ण काम है।क्रांतिदूतचे ग्वेरा" (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) एक ऐसी कृति है जो बुनियादी बदलावों के संघर्ष में उनकी आस्था और प्रतिबद्धता को रखती है। पिछलों दिनोंउन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेंगे। इसी कड़ी में "जब व्हेल पलायन करते हैं" एक महत्वपूर्ण कृति है। इसके साथ-साथ डॉ। शोभारामशर्मा ने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिसमें उत्तराखंड का जनजीवन और इस समाज के अंतर्विरोध बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए हैं। वनरावतों परलिखा उनका उपन्यास "काली वार-काली पार" जो प्रकाशनाधीन है नेपाल के बदले हुए हालात और उसके ऐसा होने की अवश्यमभाविता को समझने में मददगार है। उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिकऔर सामंतवाद के विरोध् की परंपरा परलिखी उनकीकहानियां पाठकों मेंलोकप्रिय हैं।
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पता: डी-21, ज्योति विहार, पोस्टऑपिफस- नेहरू ग्राम, देहरादून-248001, उत्तराखंड। फोन: 0135-2671476





डॉ. शोभाराम शर्मा


चुक्ची लोग परंपरा से कुल या गोत्र नाम का उपयोग नहीं करते थे। लेकिन जब सरकारी दस्तावेज में नाम अंकित करने का मौका आया तो यूरी ने एक परिचित गोत्र रूसी भू-वैज्ञानिक का गोत्र नाम अपना लिया और इस तरह "यूरी" यूरी रित्ख्यू हो गए।




यूरी रित्ख्यू का जन्म 8 मार्च 1930 को चुकोत्का की ऊएलेन नामक बस्ती में अल्पसंख्यक शिकारी चुक्ची जनजाति में हुआ। उनके परिवार का मुख्य पेशा रेनडियर पालना था। रेनडियर की खालों से बने तंबू-घर (यारांगा) में जन्मे यूरी रित्ख्यू ने बचपन में शामानों को जादू-टोना करते देखा, सोवियत स्कूल में प्रवेश लेकर रूसी भाषा सीखी, विशाल सोवियत देश के एक छोर से दूसरे छोर की यात्रा करके लेनिनग्राद पहुंचे, उत्तर की जातियों के संकाय में उच्च शिक्षा प्राप्त की और लेखक बने, चुक्ची जनजाति के पहले लेखक। यूरी वह पहले चुक्ची लेखक हैं जिसने हिमाच्छादित, ठंडे, निष्ठुर साइबेरिया प्रदेश की लंबी ध्रुवीय रातों और उत्तरी प्रकाश से दुनिया का परिचय कराया।
अनादिर तकनीकी विद्यालय में पढ़ने के दौरान ही "सोवियत चुकोत्का" पत्रिका में उनकी कविताएं व लेख छपने शुरू हो गए थे। 1949 में लेनिनग्राद स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान उनकी कुछ लघु कथाएं "ओगोन्योक" और "नोवी-मीर" पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। 1953 में उनका पहला लघु कथा-संग्रह "हमारे तट के लोग" सामने आया। 24 साल की उम्र में ही वह सोवियत लेखक संघ के सदस्य बन गए। यूरी या जूरी रित्ख्यू की रचनाओं का अंग्रेजी, जापानी, फ़िनिश, डेनिश, जर्मन और फ़्रैंच आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। "जब व्हेल पलायन करते हैं", "ध्रुवीय कोहरे का एक सपना", "जब बर्फ पिघलती है", "अचेतन मन का आईना" और "अंतिम संख्या की खोज" उनके सर्वोत्तम उपन्यासों में गिने जाते हैं। "जब बर्फ पिघलती है" उपन्यास 20वीं सदी में चुक्ची जनजाति के जीवन में आए वाले बदलावों का लेखा-जोखा है। एक रचनाकार के रूप में यूरी रित्ख्यू पर मैक्सिम गोर्की का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। "जब व्हेल पलायन करते हैं" पर गोर्की की आरंभिक भावुकता की छाप है तो "जब बर्फ पिघलती है" पर गोर्की की उपन्यास त्रयी "मेरा बचपन", "जीवन की राहों में" और "मेरे विश्वविद्यालय" का प्रभाव साफ झलकता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका से प्रकाशित "ध्रुवीय कोहरे का एक सपना" में ध्रुवीय जीवन और प्रकृति का ऐसा हृदयस्पर्शी विवरण है जो दूसरे रचनाकारों की कृतियों में कम ही मिलता है। यूरी की कृतियों में चुक्ची जाति के लोगों के आत्मत्यागी जीवन, कठोर श्रम, उनकी भोली दंत-कथाओं, प्राचीन परंपराओं-धरणाओं के साथ आधुनिकता और 20वीं सदी के विज्ञान एवं संस्कृति के विचि्त्र मिलाप और चुकोत्का के ग्राम्य-जीवन का अत्यंत काव्यमय एवं अभिव्यंजनात्मक भाषा में वर्णन किया गया है। "अंतिम संख्या की खोज" उपन्यास में रित्ख्यू ने खुद को कुछ नए ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है। इस उपन्यास में पश्चिमी संस्कृति, चुक्ची लोगों के भोले विश्वासों और महान बोल्शेविक विचारों का अंतर्द्वंद्व चित्रित है। 1918 में अमंडसेन नामक अन्वेषक का उत्तरी ध्रुव अभियान इस उपन्यास की केंद्रीय घटना है। जहाज के बर्फ में फंसने और जम जाने से अमंडसेन को पूरा कठिन ध्रुवीय शीतकाल वहां के स्थानीय लोगों के साथ बिताने पर मजबूर होना पड़ता है। उसे लगता है कि सदियों पुराने तौर-तरीकों के कारण ध्रुवीय लोगों का सभ्य होना संभव नहीं है। लेकिन "जियो और जीने दो" के अपने दृष्टिकोण की वजह से वह चुक्ची लोगों का विश्वास जीतने में सपफल रहता है। उसी साल लेनिन के महान विचारों से प्रेरित एक बोल्शेविक नौजवान अलेक्जेई पेर्शिन भी वहां पहुंचता है। वह वर्ग-संघर्ष के जरिए चुकोत्का में सोवियत-व्यवस्था की नींव डालना चाहता है। दैनंदिन जीवन संघर्ष से जूझते लोगों पर उसके भाषणों का कम ही असर होता है। वह लोगों को रूसी भाषा सिखाता है और अपनी ही एक शिष्या उमकेन्यू से शादी कर लेता है। उमकेन्यू खुद को उससे भी बड़ी बोल्शेविक दिखाने की कोशिश करती रहती है। उमकेन्यू का अंध पिता गैमिसिन भी बोल्शेविक सपनों की ओर खिंचता है और पेर्शिन के इस वादे पर विश्वास करने लगता है कि एक दिन कोई रूसी डॉक्टर आकर उसे अंधेपन से मुक्त कर देगा।
उपन्यास का केंद्रीय पात्रा चुक्ची शामान (ओझा) कागोट है जो अपने जनजातीय कर्त्तव्यों से विमुख हो चुका है। एक अमरीकी स्कूनर पर काम करते हुए अमंडसेन कागोट को रसोइया रख लेता है। अमंडसेन स्वयं कागोट के कामों की निगरानी करता है और प्रारंभिक नतीजों से खुश होता है। खोजी जहाज पर शामान कागोट व्यक्तिगत स्वच्छता का पाठ पढ़ता है जबकि चुक्ची सर्दियों में नहाते नहीं थे ताकि मैल की परत ध्रुवीय ठंड से उनकी रक्षा करती रहे। कागोट कलेवे के यूरोपियन परंपरा के मुट्ठे बनाने की कला में पारंगत हो जाता है। लेकिन जब उसे गणित का ज्ञान दिया जाता है तो अमंडसेन का प्रयोग गड़बड़ा जाता है। अनन्तता का विचार कागोट की समझ में नहीं आता। वह अंतिम संख्या को जादुई शक्ति का स्रोत समझ बैठता है और उसकी प्राप्ति के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देता है। उसकी अपनी दुनियां तो परिमित थी। हर चीज यहां तक कि आकाश के सितारे भी गिने जा सकते थे बशर्ते कोई हार न माने तो। अमंडसेन के दल द्वारा दी गई कापियों पर वह संख्या पर संख्या लिखता चला जाता है। अंतिम संख्या के लिए इस हठध्रमिता के कारण जब कागोट अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाता है तो अमंडसेन को उसकी मूर्खता का अनुभव होता है और वह शामान कागोट को निकाल बाहर करता है।
वस्तुत: कागोट की हठध्रमिता अमंडसेन से कुछ कम नहीं है जो दुसाध्य उत्तरी ध्रुव तक पहुंचने के प्रयास में नष्ट हो जाता है या पेर्शिन जैसे बोल्शेविकों का अपना परिमित विश्व-दृष्टिकोण जो अंतत: गुलाम और व्यक्ति पूजा की भेंट चढ़ जाता है। अपने इस उपन्यास में रित्ख्यू ने यह भी दिखाया है कि विज्ञान के सर्वग्रासी हमले के आगे चुक्ची संस्कृति अपने अस्तित्व की रक्षा में कितनी असुरक्षित सिद्ध हुई। अपनी सभी कृतियों में लेखक अपने सुदूर अतीत के पूर्वजों की संस्कृति को अपने कथांनक में इस तरह संयोजित करता है कि पाठक उस छोटे-से राष्ट्र की दुर्दशा से अभिभूत हो जाते हैं। वह रित्ख्यू द्वारा वर्णित किसी स्वर्ग का विनाश न होकर जीवन की उस पद्ध्ति की समाप्ति है जिसके द्वारा दुनियां के उस कठोरतम वातावरण में वे लोग अपने को बचा पाने में समर्थ हो सके थे।
यूरी रित्ख्यू की पिछली कृतियां समाजवादी और यर्थाथवादी कही जा सकती हैं। उनमें मुख्यत: सोवियत-व्यवस्था की सपफलताओं का चित्राण ही अधिक है। लेकिन "अंतिम संख्या की खोज" में बोल्शेविक प्रशासन के प्रारंभिक दिनों में चुक्ची समाज की जटिलताओं को ही संतुलित रूप में उकेरा गया है।
रित्ख्यू ने सोवियत-व्यवस्था के समय पूरब से पश्चिम तक संपूर्ण सोवियत संघ की यात्रा की थी। पिछले दशक में उन्होंने अमरीका के अनेक विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिए। बीसियों बार पेरिस की यात्रा की। उष्णकटिबंधीय जंगलों का भ्रमण किया। अनेक साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित यूरी रित्ख्यू की कृतियां सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस में छपनी बंद हो गई थीं। लेकिन यूनियन स्वेलाग नामक स्विट्जरलैंड निवासी प्रकाशक ने जर्मन और दूसरी यूरोपीय भाषाओं में उनकी रचनाओं की ढाई लाख प्रतियां छाप डालीं। इध्र यूरी रित्ख्यू साइबेरिया की अनादिर नदी के किनारे बसे अनादिर कस्बे में रह रहे थे। अनादिर चुकोत्का स्वायत्त क्षेत्रा का प्रशासनिक केंद्र है। रूस के धुर पूर्वी छोर पर बसी इस बस्ती की स्थापना 3 अगस्त 1889 को नोवोमारीइन्स्क के नाम से हुई थी। 5 अगस्त 1923 को इसका नया नाम अनादिर रख दिया गया। 12 जनवरी 1965 को अनादिर को नगर की मान्यता प्राप्त हुई। सोवियत-व्यवस्था में पले-बढ़े चुक्ची जनजाति के इस पहले उपन्यासकार यूरी रित्ख्यू का 20 मई 2008 को देहावसान हो गया। यूरी की गणना आज भी अत्यदधिक प्रसिद्दध व लोकप्रिय सोवियत लेखकों में की जाती है।

Thursday, August 6, 2009

सबी धाणी देहरादून, होणी खाणी देहरादून



उत्तराखण्ड की स्थायी राजधानी के सवाल पर गठित दीक्षित आयोग की रिपोर्ट जिस तरह से राजधानी के सवाल का हल ढूंढती है उससे यह साफ हो गया है कि राज्य का गठन ही उन जन भावनाओं के साथ नहीं हुआ जिसमें अपने जल, जंगल और जमीन पर यकीन करने वाली जनता के सपनों का संसार आकार ले सकता है।
गैरसैंण जो राज्य आंदोलन के समय से ही राजधानी के रूप में जनता की जबान पर रहा और रिपोर्ट के प्रस्तुत हो जाने के बाद भी है, उसको जिन कारणों से आयोग ने स्थायी राजधानी के लिए उपयुक्त नहीं माना, उत्तराखण्ड का राज्य आंदोलन वैसे ही सवालों का लावा था। भौगालिक विशिष्टता जो पहाड़ का सच है, यातायात के समूचित साधनों का होना और दूसरे उन स्थितियों का अभाव जो शहरी क्षेत्र के विकास की संभावनाओं को जन्म देने वाली होती हैं गैरसैंण का ही नहीं बल्कि उत्तराखण्ड के एक विशाल क्षेत्र का सच रहा। बावजूद इसके जनता ने गैरसैंण को ही राज्य की राजधानी माना तो तय है कि एक साफ समझ इसके पीछे रही कि यदि राजधानी किसी ठेठ पहाड़ी इलाके में बनेगी तो उन सारी संभावनाओं के रास्ते खुलेंगे। लेकिन विकास के टापू बनाने वाले तंत्र का हिमायती दीक्षित आयोग शुद्ध मुनाफे वाली मानसिकता के साथ देहरादून को ही स्थायी राजधानी के लिए चुन रहा है, जहां दूसरे पहाड़ी क्षेत्रों की अपेक्षा स्थिति कुछ बेहतर है। दूसरा गढ़वाल और कुमाऊ के दो बड़े क्षेत्रों में फैले उत्तराखण्ड राज्य का लगभग एक भौगोलिक केन्द्र होना भी गैरसैंण को राजधानी के लिए उपयुक्त तर्क रहा, जिसके चलते भी गैरसैंण जनता के सपनों की राजधानी आज भी बना हुआ है। नैनीताल समाचार के सम्पादक और सक्रिय राज्य आंदोलनकारी राजीवलोचन शाह के आलेख का प्रस्तुत अंश ऐसे ही सवालों को छेड़ रहा है।
-वि़.गौ.




राजीवलोचन शाह


देहरादून में अखबार कुकुरमुत्तों की तरह फैल रहे हैं। शराब के बड़े ठेकेदार और भू माफिया रंगीन पत्रिकायें निकाल रहे हें और उनके संवाददाता किसी भी आन्दोलनात्मक गतिविधि को उपहास की तरह देखते हैं। जब उनके मालिक अपने धंधे निपटा रहे हैं तो वे भी क्यों न मंत्रियों विधायकों के साथ गलबहिंयां डाले अपने लिए विलास के साधन जुटाने में लगें ? उनके लिए सिर्फ भगवान से प्रार्थना की जा सकती है कि उन्हें सदबुद्धि मिले।
लेकिन उन पुराने पत्रकारों,जो कि कभी राज्य आन्दोलन की रीढ़ हुआ करते थे,के पतन पर वास्तव में दुख होता है। क्या उनका जमीर इतना सस्ता था? क्या उनके लालच इतने छोटे थे कि नौ साल में प्राप्त छाटे माटे प्रलोभनों में ही वे फिसल गये? क्या उनके पास उाराखंड राज्य आन्दोलन की ही तरह इस नवोदित प्रदेश के लिए कोई सपना नहीं था? वे इतना भी नहीं जानते कि राजधानी शासन प्रशासन का एक केन्द्र होता हे, बाजार या स्वास्थ्य शिक्षा की सुविधाओं का नहीं। राजधानी एक विचार होता है और गैरसैंण तो हमारी कल्पनाशीलता ओर रचनात्मकता के लिए असीमित संभावनायें भी छोड़ता है। जिस तरह कुम्हार एक मिट्टी के लोंदे को आकार देता है हम दसियों मील तक फैले इस खूबसूरत पर्वतीय प्रांतर को गढ़ सकते हैं। मुगलों और अंग्रेजों ने इतने खूबसूरत शहर बसाये ,हम क्यों नहीं बसा सकते ? लेकिन नहीं, भ्रष्ट हो चुके दिमागों में सकारात्मक सोच आ ही नहीं सकती।
यह इस "बागी" हो चुके मीडिया और अपनी अपनी जगहों पर फिट हो चुके आन्दोलनकारियों के ही कुकर्म हैं कि उत्तराखंड आन्दोलन के मु्द्दे अब शहरों, खासकर देहरादून में भी उतनी भीड़ नहीं जुटा पाते। लेकिन आन्दोलन के मुद्दे तो अभी जीवित हैं। पहाड़ के दूरस्थ इलाके तो अभी भी उतने ही उपेक्षित उतने ही पिछड़े हैं,जितने उत्तराखंड राज्य बनने से पहले थे। वहां से कुछ चुनिन्दा लोग, जिनके पास कुछ था, बेच बाच कर देहरादून, ऋषिकेश, कोटद्वार,हल्द्वानी, टनकपुर या रामनगर में अवश्य आ बसे हैं लेकिन वहां की बहुसंख्य जनता तो अभी भी बदहाली में जी रही है । तो क्या वह अपने हालातों को अनन्त काल तक यूं ही स्वीकार किये रहेगी? कभी न कभी तो वह उठ खड़ी होगी और जब वह खड़ी होगी तो भ्रष्ट हुए आन्दोलनकारियों की भी पिटाई लगायेगी और मीडिया की भी। गैरसैण तो एक टिमटिमाते हुए दिये की तरह उनकी स्मृति में है ओर बना रहेगा---तब तक जब तक उत्तराखंड राज्य, बलिदानी शहीदों की आकांक्षाओं के अनुरूप एक खुशहाल राज्य नहीं बन जाता।





प्रस्तुति;
दिनेश चन्द्र जोशी
युगवाणी से साभार


शीर्षक: उत्तराखण्ड के लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी के गीत की पंक्ति