Sunday, July 18, 2010

उत्तराखंड में जंगल के परदेसी दुश्मन को न्योता

नैनीताल  के चाफी नामक स्थान में उगाई जा रही है खतरनाक  खरपबार यूरोपियन ब्लैक बेरी लैंटाना जैसी हमलावर प्रजाति है ब्लैक बेरी, आस्ट्रेलिया को भी इस झाड़ी ने कर रखा है परेशान

अरविंद शेखर
पूरा देश लैंटाना, गाजर घास जैसी जंगल की दुश्मन झाडि़यों से पहले से परेशान है, पर इन सभी चिंताओं को दरकिनार कर निर्यात और किसानों की आय बढ़ाने के ख्वाब के साथ उत्तराखंड में जंगल के एक नए परदेसी दुश्मन को न्योता दे दिया गया है। स्टेट इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड इंडस्टि्रयल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ऑफ उत्तराखंड लिमिटेड (सिडकुल) के पीपीपी मोड में चलने वाले एक फ्लोरिकल्चर पार्क में यूरोपियन ब्लैक बेरी को उगाया जा रहा है। लैंटाना की तरह की इस हमलावर प्रजाति की व्यावसायिक खेती की तैयारी चल रही है। योजना 200 से 400 स्थानीय किसानों को ब्लैक बेरी की पौध वितरित करने की है, ताकि वे यूरोपियन ब्लैक बेरी के पौधे अपने खेतों की मेढ़ों में उगा सकें। यूरोपियन ब्लैक बेरी ऐसी हमलावर विदेशी प्रजाति है जिसके प्रकोप से आस्ट्रेलिया जैसा देश परेशान है और इससे छुटकारा पाने के लिए तरह-तरह की योजनाएं चला रहा है। 1835 के आस-पास आस्ट्रेलिया पहुंची ब्लैक बेरी वहां के 88 लाख हेक्टेयर क्षेत्र यानी तस्मानिया से भी बड़े क्षेत्र पर प्रभुत्व स्थापित कर चुकी है। यह वहां की स्थानीय प्रजातियों का सफाया कर चुकी है। इसकी वजह से जंगलों के पेड़ कमजोर हो गए और उनसे मिलने वाली लकड़ी कम हो गई। 1998 की एक रिपोर्ट के मुताबिक आस्ट्रेलिया को जहां ब्लैकबेरी से छह लाख आस्ट्रेलियाई डॉलर का लाभ होता था, वहीं इसके मैनेजमैंट पर 421 लाख आस्ट्रेलियाई डॉलर खर्च हो जाते थे। 70 के दशक में ही आस्ट्रेलिया जैविक तरीकों से इसकी रोकथाम के उपाय खोज सका, मगर वे भी आज तक बहुत कामयाब नहीं हो पाए हैं। दून स्थित वन अनुसंधान संस्थान एफआरआई के वनस्पति प्रभाग के प्रमुख डॉ. सुभाष नौटियाल का कहना है कि यूरोपियन ब्लैक बेरी दो डिग्री से 30 डिग्री तापमान पर ही होती है। ठंडे पहाड़ी इलाके इसके लिए बहुत मुफीद हैं। ऐसे में यह पर्वतीय वनस्पति तंत्र के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। मजेदार बात यह है कि नैनीताल जिले में मुक्तेश्वर के पास चाफी नामक स्थान पर इंडो-डच संयुक्त प्रोजेक्ट के फ्लोरिकल्चर पार्क के निदेशक एवं कृषि विशेषज्ञ सुधीर चड्ढा बताते हैं कि प्रदेश में यूरोपियन ब्लैक बेरी उत्पादन की व्यापक संभावनाएं हैं। उत्तराखंड में ब्लैकबेरी यूरोप से दो माह पहले उगाई जा सकती है। ब्लैकबेरी को उत्तराखंड में उन दिनों उगाया जा सकता है, जब यूरोप में भारी बर्फबारी होती है। उस अवधि में ब्लैकबेरी फ्रीज करके यूरोपवासियों को निर्यात की जा सकती है। किसान भी इसे उगाकर अपनी आय में बढ़ोतरी कर सकते हैं।

“यह लैंटाना, गाजर घास की तरह विदेशी हमलावर प्रजाति है। इसलिए इसे कड़े नियंत्रण में ही उगाया जाना चाहिए। अगर इसे अनियंत्रित तरीके से उगाया गया तो यह भविष्य में बड़ी समस्या बन सकती है।’’ - डॉ. प्रफुल्ल सोनी (प्रमुख, पर्यावरण एवं पारिस्थिकीय तंत्र प्रभाग, एफआरआई

दूनघाटी पर परदेसी वनस्पतियों का कब्जा
37.61 प्रतिशत प्रजातियां अमेरिकी मूल की ,जबकि 11.46 फीसदी चीनी, 10.77 प्रतिशत अफ्रीकी, 8.02 फीसदी आस्ट्रेलियाई, 5.27 प्रतिशत यूरोपीय, 5.04 प्रतिशत मध्य सागरीय, 3.66 फीसदी जापानी और 2.75 फीसदी वेस्टइंडीज से आई किस्में
इनकी वजह से कई प्रजातियां गायब होने की कगार पर , लैंटाना ने तो राजाजी नेशनल पार्क के 48 फीसदी हिस्से पर कब्जा जमा लिया, गाजर घास आपको जंगल क्या सड़कों के किनारे भी आसानी से फैलती नजर आ सकती है

प्रदेश की राजधानी देहरादून के जंगलों पर परदेसी हमलावरों ने कब्जा जमा लिया है। जी हां, दून घाटी के जंगलों पर अब विदेशी वनस्पति प्रजातियों का कब्जा है। यह परिणाम है दून स्थित देश के जाने माने संस्थान वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के एक अध्ययन के।
वाडिया इंस्टीटूयूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी के इस अध्ययन के मुताबिक दून घाटी में 308 विदेशी पेड़ प्रजातियों और 128 परदेसी झाड़ियों और खरपतवारों का कब्जा है। रोचक तथ्य यह है कि इसमें से 37.61 प्रतिशत प्रजातियां अमेरिकी मूल की है जबकि 11.46 फीसदी चीनी, 10.77 प्रतिशत अफ्रीकी, 8.02 फीसदी आस्ट्रेलियाई, 5.27 प्रतिशत यूरोपीय, 5.04 प्रतिशत मध्य सागरीय, 3.66 फीसदी जापानी और 2.75 वेस्टइंडीज से आई किस्में हैं। इटली के टोरिनो विश्वविद्यालय से पर्वतीय पर्यावरण और जलवायु जैव विविधता में स्नातकोत्तर कोर्स करने वाले देश के पहले वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी का कहना है कि परदेसी प्रजातियों ने भले ही खुद को दून घाटी के वातावरण के अनुरूप ढाल लिया हो मगर ये स्थानीय प्रजातियों के लिए कतई ठीक नहींक्योंकि लैंटाना, गाजर घास, पॉपुलर, यूकिलिप्टस जैसी हमलावर ये प्रजातियां दून घाटी के जंगलों के मूल स्वरूप को ही बिगाड़ रही है। इतना ही नहीं, इनकी वजह से कई प्रजातियां गायब होने की कगार पर हैं लैंटाना ने तो राजाजी नेशनल पार्क के 48 फीसदी हिस्से पर कब्जा जमा लिया है। गाजर घास आपको जंगल क्या सड़कों के किनारे भी आसानी से फैलती नजर आ सकती है। यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार के नेशनल मिशन फॉर ग्रीन इंडिया में जंगलों की हमलावर परदेसी प्रजातियों के नियंत्रण और उन्मूलन पर खास ध्यान दिया गया है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत भी पिछले वित्तीय वर्ष के बजट में इसके लिए 30 करोड़ रुपये आवंटित किए गए लेकिन अब जब राज्य मिशन फॉर ग्रीन इंडिया के तहत अपने राज्य का एक्शन प्लान बनाएगा तब उसे इन हमलावर विदेशी प्रजातियों के विस्तार को रोकने और उनका उन्मूलन करने पर विशेष ध्यान देना होगा, नहीं तो जैव विविधता के सभी प्रयास बेकार हो जाएंगे। डॉ. नेगी का कहना है कि वन व उद्यान विभाग को दून घाटी में फैल रही इन विदेशी हमलावर प्रजातियों के बारे में गंभीरता से सोचना होगा और उनके उन्मूलन के लिए एक्शन प्लान बनाना होगा। अन्यथा एक दिन दून घाटी की स्थानीय जैव विविधता खत्म हो जाएगी।

Wednesday, July 14, 2010

इस से पहले भी यहाँ (नवम्बर २००८ के पोस्ट १० में) शेल सिल्वरस्टीन की भाषाओँ के विलुप्त होते जाने पर एक मार्मिक  कविता  प्रस्तुत की जा चुकी है...मेरी समझ में आम बोल चाल की भाषा में और बेहद मामूली विषयों पर लिखने वाले वे अमेरिका के एक बड़े कवि हैं.यहाँ उनकी तीन छोटी कवितायेँ फिर से प्रस्तुत हैं: 




शेल सिल्वरस्टीन  की कवितायेँ
   आवाज
तुम्हारे अन्दर बसी हुई है एक आवाज
पूरे दिन दबी जुबान दुहराती हुई...
...मुझे लगता है मेरे लिए यह ठीक है...
...मैं जानता हूँ ये गलत है...
कोई टीचर,ज्ञानी,माँ बाप 
दोस्त या सयाना ही क्यों न हो
तय नहीं कर सकता
क्या है सही तुम्हारे लिए...
बस तुम कान लगा कर सुनो
क्या कह रही है आवाज 
 तुम्हारे अन्दर बसी हुई है जो..


कोई तो होगा 
कोई तो होगा जिसे रगड़ रगड़ के
चमकाना होगा तारों को
उनकी चौंध धुंधली पड़ गयी है आजकल
कोई तो होगा जिसे रगड़ रगड़ के
चमकाना होगा तारों को
चीलों,फाख्तों और सागर के ऊपर मंडराने वाले परिंदों के लिए
उलाहने लिए आए हैं सब के सब
कि घिस पिट गए हैं और 
बदरंग हो गए हैं तारे...
सब को चाहिए नए नवेले तारे
पर हम इनको लायें कहाँ से?
इसलिए ढूँढो चीथड़े लत्ते
और दुरुस्त कर लो पालिश कि बोतलें ...
कोई तो होगा जिसे रगड़ रगड़ के
चमकाना होगा तारों को..
कितना??
कितनी पिचकन दिख रही है जर्जर दरवाजे पर
निर्भर करता है कितनी जोर से धक्का मार के इसको तुम बंद करते रहे हो...
कितनी परतें निकल सकतीं हैं  एक ब्रेड में
निर्भर करता है कितनी बारीकी से  काट रहे हो तुम...
कितनी अच्छाई समा सकती है एक दिन के गर्भ में
निर्भर करता है कितने अच्छे ढंग से इसको जीते हो तुम...
कितना प्यार भरा हो सकता है एक दोस्त के अन्दर
निर्भर करता है तुम आतुर हो कितने खुद इसे लुटाने के लिए ...  
         शेल सिल्वरस्टीन (१९३२-१९९९) अमेरिका के प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट,नाटककार,गायक,गीत लेखक  तो थे ही ,सबसे बढ़ कर दुनिया भर के बच्चों के प्यारे कवि थे.बाल कविताओं की उनकी डेढ़ करोड़ पुस्तकें बिक चुकी हैं...दर्जनों किताबें तो उनके जीवन कल में प्रकाशित हुई ही,अगले साल उनकी अ-प्रकाशित कविताओं की नयी पुस्तक धूम धाम से छपने जा रही है.आम तौर पर इंटरविउ देने से बचने वाले शेल ने एक बार कहा था कि उनमे ऐसा कुछ नहीं था जिस से लड़कियां आकर्षित हों,इस लिए वे बड़े उदास और सब से कटे कटे रहते थे.बाकी और कामों में नाकाम रहने के बाद मैंने चित्र बनाना और कवितायेँ लिखना शुरू किया...बस फिर तो लड़कियों के बीच मैं खूब लोकप्रिय होता गया.थोड़े समय के लिए वे सेना में भरती हुए.१९६३ में उनकी बाल कविताओं की पहली किताब छपी,इसके बाद तो उन्होंने पीछे मुड़ के नहीं देखा.उनकी बेहद प्रसिद्ध किताब है द गिविंग ट्री जिसका नायक एक वृक्ष है..एक उदास बच्चे को खुश करने के लिए इस वृक्ष ने एक एक कर के अपनी छाया,पत्तियां,फल,टहनियां और अंत में तना तक निछावर कर दिया..इस किताब ने शेल के जीवन में निर्णायक भूमिका निभाई.
     यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी लोकप्रिय कविताओं में से तीन कवितायेँ...चयन और प्रस्तुति: यादवेन्द्र    

Monday, July 12, 2010

जलसा-एक अनूठी किताब

इधर एक बहुत ही महत्वपूर्ण और दिलचस्प किताब आयी है-जलसा.साहित्य और विचार का अनियतकालीन आयोजन.पहले आयोजन को नाम दिया गया है-साल 2010 अधूरी बातें. इसका संपादन असद जैदी ने किया है. यह हिन्दी के अन्यतम कवि और अप्रतिम गद्यकार मंगलेश डबराल को बासठवें साल के लिये समर्पित है।

यह एक तरह से समानधर्मा रचनारत लोगों का विनम्र तोहफ़ा है.इसमें कुल सत्ताइस नक्षत्रों की ज्योतियां झिलमिला रही हैं.यहां कवितायें हैं(
विनोद कुमार शुक्ल,चन्द्रकांत देवताले,लीलाधर जगूड़ी,अशोक वाजपेयी,ग्यानेंद्रपति, वीरेन डंगवाल,नरेंद्र जैन,देवी प्रसाद मिश्र,लाल्टू,कुमार अंबुज,सत्यपाल सहगल,निर्मला गर्ग,अजन्ता देव, ज्योत्सना शर्मा,नीलेश रघुवंशी,पंकज चतुर्वेदी,शिरीष कुमार मौर्य और तरूण भारतीय). कविताओं के अनुवाद हैं( पाई चुइ यी का त्रिनेत्र जोशी द्वारा किया गया अनुवाद और तादेउश रूजेविच का उदय प्रकाश द्वारा किया गया अनुवाद),डायरी है(मनमोहन और शुभा ),रविन्द्र त्रिपाटी और प्रियम अंकित के विमर्श परक आलेख हैं.इन कवियों की कुछ गद्य रचनायें भी हैं(देवी प्रसाद मिश्र की कहानी,अल्पायु में दिवंगत हो गयीं जोत्सना शर्मा का गद्य-सहस्तर का फूल और नीलेश रघुवंशी की टिप्पणियां)जर्मन भाषा सीखते हुए शिव प्रसाद जोशी के सारगर्भित अनुभव हैं और योगेन्द्र आहुजा के मनमौजी गद्य का नायाब नमूना-परे हट, धूप आने दे और अन्य वाक्य.इस किताब की जान है-कृष्ण कल्पित का मंगलेशजी पर लिखा गया संस्मरण परक लेख!

इस किताब के आवरण पर हुसैन की प्रसिद्ध छतरियां हैं.किताब खोलते ही हमरा साक्षात्कार एक अद्भुत चित्र से होता है-इसमें मोहन थपलियाल खासे बुजुर्ग नजर आते हैं;उनकी बगल में खासे युवा जगूडीजी कैमरे को स्मित मुस्कन में तक रहे हैं और तरूण मंगलेश का हाथ सैल्यूट की मुद्रा में है-सूरज के लिये.किताब के पिछले पृष्ठ पर नजीर की कब्र का फोटो अशोक पाण्डॆ के सौजन्य से छापा गया है. इसकी सामग्री पर आगे चर्चा होती रहेगी। फ़िलहाल मनमोहन की डायरी से एक अंश

मनुष्य शरीर की रक्षा उस पुल की तरह भी की जानी चाहिये जिस पर बार बार चलना होत है.यह वो खामोश और जादुई पुल है जो हमें हर बार नई जगह ले जाता है.नई उपत्यकाओं में,नई अधिपत्यिकाओं में,नए शिखरों की ओर..

Friday, July 2, 2010

खलील जिब्रान की कविता

प्रेम
जब प्रेम तुम्हें बुलाये, उसके साथ जाओ,
चाहे उसका मार्ग कठोर और बेहद कठिन ही क्यों न हो।
और जब उसके पंख तुम्हें अपने में समेट लें ,उनमें समा जाओ.
हालांकि उसके पंखों में छिपी तलवार तुम्हें घायल कर सकती है।
और जब वो तुमसे मुखातिब हो , उस पर विश्वास करो
चाहे उसकी आवाज़ तुम्हारे सपनों को ऐसे बिखेर क्यों न दे
जैसे उत्तरी हवा बागीचे को बर्बाद कर देती है।

यदि प्रेम तुम्हे ताज पहनाता है तो यह तुम्हें सलीब पर भी लटकायेगा, यदि यह तुम्हें बड़ा करता है तो यह तुम्हारी काट-छांट भी करेगा।
जैसे यह तुम्हारी ऊँचाई तक पहुँच कर सूरज में कांप रही नर्म शाखाओं को सहलाता है,
वैसे ही यह तुम्हारी जड़ों तक उतर कर उन्हें ज़मीन से हिला भी देता है.

यह तुम्हें मक्के की पूलियों की तरह अपने में समेटता है,
निरावरण कर देने के लिये तुम्हें कूटता है।
यह तुम्हें तुम्हारे छिलकों से आज़ाद करता है।
यह तुम्हें पीसता है उजलेपन के लिये
यह तुम्हें तब तक गूंथता है जब तक तुम इकतार नहीं हो जाते।
और तब यह तुम्हें उसकी पवित्र आग में झोंक देगा, ताकि तुम भगवान की पवित्र दावत में उसकी पवित्र रोटी बनो।

यह सभी चीजें तुम्हें प्रेम देंगी ताकि तुम अपने दिल के राज़ जान सको, और यह ज्ञान ज़िन्दगी के दिल का टुकड़ा बनेगा।

पर यदि तुम अपने डर में सिर्फ प्रेम की शांति और प्रेम का सुख तलाशोगे,
तब फिर तुम्हारे लिये अच्छा होगा कि तुम अपनी नग्नता को ढक लो और प्यार की पिसने वाली ज़मीन से निकल जाओ।
मौसम-विहीन संसार में तुम हँसोगे, पर तुम्हारी सम्पूर्ण हंसी नहीं , और रोओगे, पर तुम्हारे सम्पूर्ण आंसू नहीं
प्रेम स्वयं के सिवा कुछ नहीं देगा और कुछ नहीं लेगा स्वयं से।
प्रेम नियंत्रण नहीं रखता न ही इसे नियंत्रित किया जा सकता है;
प्रेम के लिये प्रेम में होना काफी है।

जब तुम प्रेम में होगे तब तुम्हें नहीं कहना चाहिये ‘भगवान मेरे दिल में है’ तुम्हें कहना चाहिये ‘मैं भगवान के दिल में हूँ।’
और यह नहीं सोचो की तुम सीधा प्रेम तक जा सकते हो, प्रेम के लिये, यदि वह तुम्हें अमोल पायेगा तो सीधा तुम तक आ जायेगा।

प्रेम की स्वयं को सम्पूर्ण करने के सिवा कोई ख्वाहिश नहीं होती।
पर यदि तुम प्रेम करते हो और ख़्वाहिश करना जरूरी हो तो, इन्हें अपनी ख़्वाहिश बनाओ:
पिघलो और एक छोटी सी नदी की तरह बहो जो रात को अपना संगीत सुनाती है।
बहुत अधिक प्रेम का दर्द जानो।
स्वयं के प्रेम की समझ से स्वयं को घायल करो ;
और खुशी-खुशी अपने को लहूलुहान कर दो।
सुबह उठो खुले दिल के साथ और एक और अच्छे दिन के लिये शुक्रिया कहो ;
शाम को आराम करते हुए और प्रेम के आनन्द का ध्यान करते हुए ;
अहसान के साथ घर वापस लौटो ;
और फिर सो जाओ एक प्रार्थना के साथ उन प्रियजनों के लिये जो तुम्हारे दिलों में रहते हैं और अपने होंठों पर प्रेम का गाना गाते हुए।




अनुवाद: विनीता यशस्वी

Tuesday, June 22, 2010

प्राकृतिक और सामाजिक प्रबंधन हेतु सदियों से चली आ रही "बारी" व्यवस्था

पहाड़ हो चाहे मैंदान, मरूस्थल हो चाहे समुद्री किनारा- जल, जंगल, जमीन से बेदखल किए जाते स्थानीय निवासियों पर चलने वाले डण्डे की मार एक जैसी ही है। हरे चारागाहों के शिकारी पर्यावरण और पारिस्थितिकी संतुलन जैसे तर्कों से लदी भाषा के साथ न सिर्फ कानूनी रूप से बलपूर्वक, बल्कि जनसंचार के माध्यमों के द्वारा विभ्रम फैलाकार सामाजिक रुप से भी, खुद को दुनिया को खैरख्वाह और स्थानीय निवासियों को उसका दुश्मन करार देने की कोशिश में जुटे हैं। पहाड़ के एक छोटे से हिस्से लाता गांव में उत्तर चिपको आंदोलन के बाद शुरु हुए  छीनों-झपटो आंदोलन के प्रणेता धन सिंह राणा का यह खुला पत्र जिसका संपादन डॉ सुनील कैंथोला ने किया है, ऐसे ही सवालों से टकराता हुआ कुछ प्रश्न खड़े कर रहा है। पत्र मेल द्वारा भाई सुनील कैंथोला के मार्फत पहुंचा है जिसको एक स्थानीय पत्रिका में प्रकाशित होने के बाद यहां पुन: प्रकाशित किया जा रहा है।    


असकार का मतलब समझते हो प्रोफेसर सत्या कुमार?

सेवा में,
प्रो.सत्या कुमार
भारतीय वन्य जीव संस्थान
देहरादून, भारत

आदरणीय साहब,
आशा है कि आप स्वस्थ और राजी खुशी होंगे और आपका रिसर्च करने का धंधा भी ठीक-ठाक चल रहा
होगा। हम भी यहां गांव में ठीक-ठाक हैं। ऐसा कब तक चलेगा, ये तो ऊपर वाला ही जानता है लेकिन हमारा अभी तक भी बचे रहना किसी चमत्कार से कम नहीं है। क्योंकि गांव में सड़क से ऊपर पर्यावरण संरक्षण का शिकंजा है और सड़क से नीचे बन रहे डाम का डंडा हम सब पर बजना शुरू हो चुका है। यहां पिछले कई वर्षों से हम आपका बड़ी बैचेनी से इंतजार कर रहे हैं। हमें लगा कि जो व्यक्ति पर्यावरण का इतना बड़ा पुजारी है कि जिसके शोध के हिसाब से हमारी भेड़-बकरी के खुर पर्यावरण को हानि पहुंचाते हैं, जो नंदा अष्टमी के अवसर पर नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क में सदियों से चली आ रही दुबड़ी देवी की पूजा तक को बंद करवाकर इस आजाद देश में धार्मिक स्वतंत्रता के हमारे मौलिक अधिकार तक छीन ले, वह महान वैज्ञानिक हमारे गांव की तलहटी पर बन रहे डाम से होने वाली पर्यावरणीय क्षति को लेकर अवश्य चिंतित होगा और अपनी वैज्ञानिक रिपोर्ट के आधार पर बांध का निर्माण चुटकी बजाते ही रुकवा देगा। अब हमें लगने लगा है कि हो न हो दाल में जरूर कहीं कुछ काला है। अत: इस शंका के निवारण के लिए ही गांव के बड़े बुजुर्गों की सहमति से यह पत्र आपको लिख रहा हूं।
आदरणीय साहब,
आप तो हिमालय के चप्पे-चप्पे में घूमे हैं। आपकी शिव के त्रिनेत्र समान कलम ने हिमालय में निवास करने
वाले लाखों परिवारों की आजीविका और संस्कृति का संहार किया है। पूरे विश्व का बि(क समाज आपके इस
पराक्रम के आगे नत मस्तक है। ऐसे में हे! मनुष्य जाति के सर्वश्रेष्ठ संस्करण, आपकी ही कलम से ध्वस्त हुआ
मैं, धन सिंह राणा और उसका समुदाय, आपको, आपके जीवन के उन गौरवशाली क्षणों की याद दिलाना चाहते हैं, जब आपने हमारा आखेट किया था।

हे ज्ञान के प्रकाश पुंज,

नाचीज, ग्राम लाता का एक तुच्छ जीव है, जो पिछले जन्मों के पापों के कारण मनुष्य योनि में पैदा हुआ। मेरा
गांव उत्तराखंड के सीमांत जनपद चमोली की नीति घाटी में स्थित है। यह इलाका भारत में पड़ता है और पूरे विश्व में नंदा देवी बायोस्फेयर रिजर्व के नाम से जाना जाता है। यदि मेरी स्मृति सही है, तो हमारी भूमि पर आपके कमल रूपी चरण पहली बार संभवत: 1993 में पड़े थे। आप भारतीय सेना के एक अभियान दल के साथ नंदादेवी कोर जोन के भ्रमण पर आए थे, जिसमें सेना के सिपाहियों ने नंदा देवी कोर जोन से कचरा साफ किया था। आपसे दिल की बात कहना चाहता हूं, जिसे आप लोग कचरा कह रहे थे, उसमें अनेक चीजें ऐसी थी कि जिन्हें देखकर हमारी लार टपक रही थी। मुझे याद है कि जब अपने गांव से हम लोग पोर्टर बनकर नंदादेवी बेस कैंप जाते थे, तब महिलाओं का एक ही आग्रह होता था कि बेस कैंप से दो-चार खाली टिन के डिब्बे लाना मत भूलना। टिन के ये खाली डिब्बे हमारे नित्य जीवन में बड़ी सक्रिय भूमिका निभाया करते थे। अभियान दल की वापसी पर आप लोगों द्वारा ग्राम रैंणी के पुल पर एक मीटिंग का भी आयोजन किया था, जिसमें आपने फौज द्वारा लाए गए कचरे को हमारे सामने कुछ ऐसे प्रस्तुत किया था, जैसे कि वह हमारे द्वारा प्रकृति के साथ किए गए अपराध का ठोस सबूत हो।

हे! पर्यावरण के अखंड तपस्वी,

यही वह अवसर था, जब आपके साक्षात् दर्शन हुए थे। मैं अबोध और गंवार आपके हृदय में हिलोरे लेते प्रकृति प्रेम के सागर और उसमें पनप रहे उस तूफान से तब पूर्णत: अनभिज्ञ था, जो हमें समूचा लील जाने को अधीर था। इस नाचीज ने तब आपसे यह प्रश्न करने का साहस किया था कि इस कचरे का असली जिम्मेदार कौन
है? और आपने कहा था- इंसान। वह बड़ी अजीब स्थिति थी। एक तरफ मैं अपने समुदाय को इस अपराध से परे
रखने का तर्क रखना चाहता था और दूसरी तरफ, मां कसम, आपको चूम लेने की इच्छा भी हो रही थी। आपने
एक ही झटके में अमीर-गरीब, गोरा-काला, पोर्टर-मैंबर की सारी दीवारें गिरा दी थी और हमें भी इंसानों की श्रेणी में शामिल कर दिया था।

हे अपनी इंद्रियों को वश में रखने वाले विधियात्मा,

वर्ष 2003 में आपके द्वारा नंदादेवी बेस कैंप यात्रा का स्मरण करने की अनुमति चाहता हूं। संदेश मिला कि
प्रोफेसर सत्या कुमार साहब के साथ गए फौज के दस्ते का वायरलैस ऑपरेटर कोर जोन से लौटते समय बीमार
पड़ गया है। जैसे कि हमारे गांव की परंपरा रही है, सूचना मिलते ही मैं व अन्य ग्रामीण मदद पहुंचाने के उद्देश्य से तुरंत दुब्बल घाटी रवाना हो गए। आपके दल से मिलने पर पाया कि मरीज की जान खतरे में है और खराब मौसम के कारण हैलीकॉप्टर का उतरना असंभव है। आपको याद होगा कि दुब्बल घाटी से पोर्टर आप लोगों का सामान लेकर लाता खर्क निकल गए थे और उस भीषण वर्षा में थोड़े से राशन और तिरपाल की सहायता से मैंने भी आपके साथ दो रातें मात्र उस वायरलेस ऑपरेटर की जान की रक्षा के लालच में गुजारी थी। प्रोफेसर सत्या कुमार साहब थोड़ा और याद करेंगे तो आपको यह भी ध्यान आ जाएगा कि ये दो दिन और रात हम लोगों ने आस-पास की घास-पत्ती उबालकर और सूखी लकड़ियों को जलाकर बिताई थी। गांव लौटने पर जब इस घटना का जिक्र मैंने आपके साथ गए पोर्टरों से किया, तो वे आपको बुरा-भला कहने लगे। उनका कहना था कि ये आदमी पाखंडी है। बेस कैंप की यात्रा के दौरान बोझा ढोने वाला कोई पोर्टर यदि घास को पकड़कर सहारा लेने की कोशिश करता था, तो ये साहब जोर से चिल्लाने लगता था। जब तक इसके पास तंबू था, तो खराब मौसम में भी पत्थरों की आड़ में रात बिताने वाले पोर्टरों को आग जलाने की अनुमति न थी और जब अपनी जान पर बन आई तो सारे नियम-धर्म ताक पर रख दिए। बहरहाल! मैंने गांव वालों को यह कहकर शांत कर दिया था कि वे बड़े विद्वान पुरुष हैं। उन्हें परमात्मा ने वन्य जीवों के रक्षार्थ भेजा है। अत: मानवीय संवेदनाएं व सरोकार उनकी समझ के परे हैं।

हे संरक्षित क्षेत्रों के इष्ट गुरू!

मनुष्य होते हुए भी पशुवत् जीवन जीने वाला यह तुच्छ प्राणी क्या आपकी करूणा का पात्र नहीं है? हमारे पुराणों में रावण का उल्लेख है, जिसे दशानन अर्थात् दस सिर वाला भी बोलते थे। अपनी गंवार जड़ बुद्धि से मुझे
लगता है कि रावण के दस सिर जरूर दस किस्म की बात करते रहे होंगे। ऐसा ही उसकी दृष्टि के साथ भी रहा होगा।

हे! जैव विविधता के आराध्य देव,

क्या आपको कभी ऐसा प्रतीत हुआ है कि आप भी दशानन के एक मुख का प्रतिनिधित्व करते हैं? क्योंकि जो आप कहते और देखते हैं, वह आपके शरीर के दूसरे सिर को दिखाई नहीं देता! वन्य जीव संस्थान के रूप में
आप भी सरकार हैं और टी.एच.डी.सी.व एन.टी.पी.सी।
भी सरकार हैं। यह कैसा प्रभु का मायाजाल है कि आपके ज्ञान चक्षुओं से जहां जैव विविधता का भंडार है, जो ग्रामीणों के हगने-मूतने से भी नष्ट हो सकता है। उसी क्षेत्र में डाम विशेषज्ञों को कहीं कोई विविधता नजर नहीं आती और आप दोनों के ही सिर उस शरीर से जुड़े हैं, जिसे हम आदिवासी, 'सरकार’ कहते हैं। यह खेल गज़ब है। वन विभाग माणा से मिलम गांव तक बायोस्फेयर के नाम पर प्रतिबंध लगाता है और बांध के विशेषज्ञ नीति घाटी को नंदादेवी पार्क से बाहर बताते हैं। हमारे लिए इसका एक ही मतलब है यानि जो आपकी कलम का शिकार होने से बच गया, उसके लिए बांध के बुलडोजर की व्यवस्था है।

हे दुर्निग्रहम! अर्थात कठिनता से वश में होने वाले,

इस जगत में कीट-पतंगों से लेकर घास, कुशा और फूल-पत्तियों का भी अपना अस्तित्व है। ये सब एक-दूसरे
से जुड़े हैं। जैसे- हमारे घरों में होने वाली मधुमक्खियों का अस्तित्व मात्र मधु उत्पन्न करने के लिए नहीं, बल्कि फूलों के परागकणों की अदला-बदली के लिए भी था। मधुमक्खियां थीं, तो फूलों के प्रजनन की गारंटी थी। जैसे- फूल मधुमक्खियों के जिंदा रहने की अनिवार्य शर्त। मधुमक्ख्यां इसलिए थी, क्योंकि उन्हें हमारे घर में आश्रय मिलता था। यह आश्रय इसलिए मिलता था, क्योंकि हमें उनसे मधु मिलता था। अब न मुमक्खी है, न मधु। कदाचित आपका ध्यान इस ओर नहीं भी जाएगा, परंतु हे विद्या के मंदिर के गर्भगृह! हमारे समुदाय से मधुमक्खी की प्रजाति के नाश का आपकी जैव विविधता पर क्या प्रभाव पड़ा होगा, इस पर आप जैसे विद्वान की दृष्टि का न जाना सुनियोजित लगता है।

हे जैव विविधता के सचिन तेंदुलकर!

यह कैसा विरोधाभास है कि आप कंक्रीट की इमारत में रहकर भी प्रकृति की इबादत करते हैं और हम प्रकृति
के बीच रहकर भी उसके दुष्मन हैं। हमारे और आपके कार्बन उत्सर्जन में भले ही विराट असामानता हो, पर
प्रकृति की रक्षा का जिम्मा हमेशा आपकी ही बिरादरी का रहेगा। अंग्रेजों के जमाने से ही हमारे जंगलों का शोषण होता आ रहा है। ये अब जंगल भी कहां रहे। ये तो आप लोगों के खेत हैं। जिसमें आप अपनी आवश्यकता के हिसाब से पेड़ बोते हैं। हमारी जरूरतें और हमारे जंगलों में रहने वाले वन्य प्राणियों की जरूरतें आपकी जरूरतों से भिन्न हैं। मान्यवर, जंगलों में अब वन्य प्राणियों के लिए आहार बचा ही कहां है? भूख से बैचेन वन्य प्राणी जंगलों से बाहर आ रहे हैं और गांवों, बस्तियों व खेतों पर आफत ढा रहे हैं। इसमें भोले-भाले इंसान भी मर रहे हैं और बेजुबान वन्य जीव भी। इस सब के लिए कोई दोषी है, तो आप और आपकी बिरादरी द्वारा की जा रही शोध और उससे उपजा वन प्रबंधन।
विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कार्यशालाओं में गरजने वाले ओ मिट्टी के शेर, हमारे यहां एक कहावत है कि- जो सो रहा हो, उसे जगाया जा सकता है। पर जो सोने का नाटक कर रहा हो, उसे जगाना नामुमकिन है। चूंकि आप हमारे नीति नियंता हैं, तो यह पूछने का अधिकार तो हमारा बनता ही है कि मान्यवर क्या आप सो रहे हैं या फिर सोने का नाटक कर रहे हैं। प्रकृति हो या समाज, उस पर आधिपत्य जमाने की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति खत्म कहां हुई है? अंगुलि बंदूक के घोड़े पर हो या फिर अंगुलियों के बीच फंसी कलम को ही बंदूक बना दिया गया हो। निशाना लगने के बाद अनुभूति तो शिकारी की ही होती है न प्रोफेसर सत्या कुमार साहब! आज मेरा गांव जोशीमठ के बाजार के बिना जिंदा नहीं रह सकता। सदियों से किसानी करने वाला अब खेत के कम और बाजार के ज्यादा चक्कर काटता है। हमारी स्वावलंबी जीवन शैलियों से बलात्कार आपका संवैधानिक अधिकार है, पर यदि हम आपकी जीवनशैली पर अंगुलि उठाएं, तो वह आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के हनन का मामला बन जाता है। मैं इतना पढ़ा-लिखा नहीं हूं, पर यह सवाल मेरे दिमाग में हमेशा कौंधता है कि आखिर साहब लोग हमारी तरह हाथ से क्यों नहीं धोते? आपकी बिरादरी द्वारा सिर्फ टायलेट पेपर के इस्तेमाल को बंद कर देने से प्राकृतिक संसाधनों व बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को कितनी राहत मिलेगी, यह आपके शोध का विषय कब बनेगा? आदरणीय प्रोफेसर साहब! अपने अभिजात्य वर्ग के लालन-पालन के कारण यदि आप इस कौशल को सीखने से वंचित रह गए हैं, तो गांव लाता का कोई भी बच्चा आप लोगों को यह बिना कंस्लटैंसी या मानदेय के सिखाने को तैयार है।
हमारी स्वावलंबी जीवन शैलियों से बलात्कार आपका संवैधानिक अधिकार है, पर यदि हम आपकी जीवनशैली पर अंगुलि उठाएं, तो वह आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के हनन का मामला बन जाता है। मैं इतना पढ़ा-लिखा नहीं हूं, पर यह सवाल मेरे दिमाग में हमेशा कौंधता है कि आखिर साहब लोग हमारी तरह हाथ से क्यों नहीं धोते? आपकी बिरादरी द्वारा सिर्फ टायलेट पेपर के इस्तेमाल को बंद कर देने से प्राकृतिक संसाधनों व बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को कितनी राहत मिलेगी, यह आपके शोध का विषय कब बनेगा?

परम आदरणीय साहब,

हम लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं और साथ ही उस अलौकिक सत्ता में भी जिसने बिना किसी परियोजना अथवा विश्व बैंक की सहायता से इस जंगल का निर्माण किया। जब हम पर विपत्तियां आती हैं, तो हम दोनों के ही दरवाजे खटखटाते हैं, लोकतंत्र के भी और उस परम सत्ता के भी जिसने इस सृष्टि का निर्माण किया। इस मामले में तो मैं आपको कतई बदकिस्मत ही कहूंगा कि आप नंदादेवी विश्व धरोहर की जैव विविधता को समझने तो आए, पर हमारे क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर को समझने व आत्मसात करने से वंचित रह गए। अपने पूर्वाग्रहों के कारण आपने स्वयं अपनी ज्ञानप्राप्ति के वह दरवाजे बंद कर दिए, जो आपको एक स्वावलंबी सामाजिक-सांस्कृतिक इकाई के उसके प्राकृतिक वातावरण के साथ सदियों से स्थापित सतत सहजीवी संबंधों को समझने की दिशा प्रदान करते। आपके अधूरे शोधों ने लोकतंत्र के कानों को बंद और उसके दिमाग को दूषित कर दिया है। पर ऐसा करते हुए स्वयं आपके दूषित मंतव्य भी जग जाहिर हो गए हैं।
पर्यावरण अध्ययन से हुई कमाई को एन.टी.पी.सी, वेदान्ता और जी.वी.के जैसी कम्पनियों के शेयर में लगाने की बेशक़ आप लोगों को वैधानिक इजाजत है, पर यदि इस जगत में पाप करने की भी कोई कैरयिंग कैपेसिटि है, तो आप लोगों का घड़ा कब का भर चुका है!
क्योंकि बांधों से प्रकृति पर पड़ने वाले प्रभावों की लड़ाई में आप नदारद हैं। हमारे लोगों का यह भी मानना है कि संभवत: अपनी रोजी-रोटी और नौकरी के चलते आप दिल से चाहकर भी यह कदम उठा ना पा रहे हों। हमारे यहां प्राकृतिक और सामाजिक प्रबंधन हेतु सदियों से चली आ रही 'बारी" व्यवस्था है। इसके अंतर्गत हम आपकी व्यवस्था करने को प्रतिबद्ध रहेंगे। यदि आप यथोनाम तथो गुण को चरितार्थ करने का साहस करें। जाहिर है कि आप और आपकी कथित वैज्ञानिक बिरादरी के पास अपने तर्क होंगे, जिसमें अपनी नौकरी को बचाने और बाल-बच्चे पालने के भी सरोकार होंगे, जो कि स्वाभाविक भी है। पर आपके जूठे बर्तनों को धोने और नित्य फर्श पर पोचा लगाने जो आती है, उसके अस्तित्व को आप अपने पारिस्थितिकीय के समग्र ज्ञान में कहां रखते हैं प्रोफेसर साहब? कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक लाखों आदिवासी परिवारों को कहीं संरक्षण तो कहीं बांध अथवा खान के नाम पर बेदखल किया गया है, जो आप जैसे साहब लोगों के लिए सस्ती मजदूरी से लेकर मानवीय अंगों और विकृत मनोरंजन का मुख्य स्रोत बन जाते हैं। पर्यावरण अध्ययन से हुई कमाई को एन.टी.पी.सी, वेदान्ता और जी.वी.के जैसी कम्पनियों के शेयर में लगाने की बेशक़ आप लोगों को वैधानिक इजाजत है, पर यदि इस जगत में पाप करने की भी कोई कैरयिंग कैपेसिटि है, तो आप लोगों का घड़ा कब का भर चुका है! हमारे लोकगीतों में सृष्टि की रचना के गीत हैं, जिसमें निरंकार का भी जिक्र है और अहंकार का भी। आपके पास भी अपने ज्ञान का अहंकार है पर आपका ज्ञान अधूरा है और आपका अहंकार प्रकृति के अहंकार के सामने बौना है। इन्हीं रहस्यमयी रास्तों से हमारी व्यथा भी उस तक पहुंचती है, जिसके समग्र नियमों को समझने में आप
असफल रहे हैं। उसी के मायावी संसार में "हाय" अथवा "असकार" भी एक शब्द है, बल्कि पूरी व्यवस्था है। हम
मानते हैं कि यह अत्याचारियों और आतताईयों को सबक सिखाती है। यह हमारे हाथ के बाहर की बात है पर हमारा करुण रुदन और विलाप इसके कारण हो सकते हैं। फिर भी हम इतने घटिया या तुच्छ नहीं कि किसी
के अनिष्ट के बारे में सोचें। पर साथ ही हम यह भी मानते हैं कि हमारे साथ हुए अन्याय का 'असकार" जगत के
उन्हीं अनबूझे नियमों के तहत एक स्वाभाविक और अनिवार्य प्रक्रिया है। शांत मन से, बिना किसी पूर्वाग्रह के आंखों को बंद करके सोचेंगे तो इसी नतीजे के इर्द-गिर्द पहुंचेंगे कि जिस रास्ते से आप अपने संरक्षण के विषय को ले जाना चाहते हैं, वह वहां नहीं ले जाता, जहां उसे ले जाना चाहिए था। इसके बाद आईने में अपनी आंखों से आंखें ईमानदारी से मिलाएंगे तो आपको स्वत: यह अहसास हो जाएगा कि अब तक का जीवन व्यर्थ गया। यही "असकार" है, पर यह अंत नहीं! पश्चाताप करने का कोई समय या आयु सीमा नहीं होती।
बाकी फिर कभी
लाता से धन सिंह और उसके ग्रामवासी


धन सिंह राणा द्वारा लिखित एवं डॉ. सुनील कैंथोला
द्वारा संपादित-
खुला पत्र


भेड़ चरवाहे

ऊंचे पहाड़ों पर देवता नहीं
चरवाहे रहते हैं
भेड़ों में डूबी उनकी आत्मायें

खतरनाक ढलानों पर
घास चुगती हैं

पिघलती चोटियों का रस
उनके भीतर
रक्त बनकर दौड़ता है

उड्यारों में दुबकी काया
बर्फिली हवाओं के
धार-दार चाकू की धार को भी
भोंथरा कर देती है

ढंगारों से गिरते पत्थर या,
तेज उफनते दरिया भी
नहीं रोक सकते उन्हें आगे बढ़ने से
न ही उनकी भेड़ों को

ऊंचे- ऊंचे बुग्यालों की ओर
उठी रहती हैं उनकी निगाहें

वे चाहें तो
किसी भी ऊंचाई तक
ले जा सकते हैं भेड़ों को
पर सबसे वाजिब जगह
बुग्याल ही हैं
ये भी जाने हैं

ऊंचाईयों का जुनून
जब उनके सिर पर सवार हो
तो भी
भेड़ों को बुग्याल में ही छोड़
निकलता है उनमें से कोई एक
बाकि के सभी
बर्फ से जली चट्टानों की किसी खोह में
डेरा डाले रहते हैं
बर्फ के पड़ने से पहले तक

भेड़ों के बदन पर
चिपकी हुई बर्फ को
ऊन में बदलने का
खेल खेलते हुए भी
रहते हैं बेखबर
कि उनके बनाये रास्ते पर
कब्जा करती व्यवस्था जारी है,

ये जानते हुए भी कि
रुतबेदार जगहों पर बैठे
रुतबेदार लोग
उन्हें वहां से बेदखल करने पर आमादा हैं,
वे नये से नये
रास्ते बनाते चले जाते हैं
वहां तक
जहां, जिन्दगी की उम्मीद जगाती
घास है
और है फूलों का जंगल

बदलते हुए समय में
नक्शेबाज दुनिया ने
सिर्फ इतनी ही मद्द की
कि खतरनाक ढाल के बाद
बुग्याल होने का भ्रम अब नहीं रहा
जबकि समय की नक्शेबाजी ने
छीन लिया बहुत कुछ
जिस पर वे लिखने बैठें
तो भोज-पत्रों के बचे हुए जंगल भी
कम पड़ जाएंगे

भोज-पत्रों के नये वृक्ष रोपें जायें
पर्यावरणवादी सिर्फ यही कहेगें

उनके शरीर का बहता हुआ पसीना
जो तिब्बत के पठारों में
नमक की चट्टान बन चुका गवाह है
कि सुनी घाटियों को गुंजाते हुए भी
अनंत काल तक गाते रहेगें वे
दयारा बुग्याल हमारा है
नन्दा देवी के जंगल हमारे हैं
फूलों की घाटी में
पौधों की निराई-गुड़ाई
हमारे जानवरों ने
अपने खुरों से की है


-विजय गौड़