Friday, April 8, 2011

नियंत्रित अराजकता के विरोध में


जन लोकपाल बिल के सवाल पर अन्ना हजारे की मुहिम के समर्थन और भ्रष्टाचार के विरोध में देहरादून के रचनाकारों की संस्था संवेदना के तत्वाधान में आयोजित धरना इस मायने में सफल कहा सकता है कि उसने देहरादून के तमाम समाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को ही नहीं अपितु ट्रेड यूनियस्ट के साथ साथ विधा विशेष में सक्रिय कलाकारों को भी एक मंच पर लाकर एकजुटता की ऐतिहासिक मिसाल कायम की है। भ्रष्टाचार के सवाल पर संवेदना के राजेश सकलानी ने अपना मत रखते हुए कहा, हम एक कंट्रोल एनार्किज्म के दौर में है। एक नियंत्रित किस्म की अराजकता आज हमारे चारों ओर है जिसके बीच हमारा पूरा मध्यवर्ग स्थितियों के सही और गलत का आकलन करने में भी चूक कर देता है। संवेदना की ही ओर से अन्य वक्ताओं में प्रमोद सहाय, डॉ जितेन्द्र भारती, शकुन्तला सिंह, गीता गैरोला, गुरुदीप खुराना, विद्यासागर नौटियाल एवं सुभाष पंत ने अपने अपने अंदाज में अन्ना हजारे की वर्तमान मुहिम को उसी नियंत्रिक अराजकता के प्रतिरोध में एक कदम मानते हुए इस बात को रखा कि भ्रष्टाचार का उत्स मुनाफाखौर व्यवस्था है। मुनाफे पर कब्जे की गलाकाट होड़ ही भ्रष्टाचार की जननी है।

धरने में शिरकत करने पहुँचे अर्न्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पर्यावरणविद और वयोवृद्ध सुन्दर लाल बहुगुणा की उपस्थिति इस मायने में उल्लेखनिय रही कि अपनी मद्धिम आवाज में भी आंदोलन को चरणबद्ध रूप्ा से लगातार आगे बढ़ाने की दृढ़ता से भरा उनका वक्त्वय  आंदोलनरत जनमानस को प्रेरित करने वाला रहा। केन्द्रीय कर्मचारियों की समन्वय समिति के जगदीश कुकरेती ने स्वत:स्फूर्त किस्म के वर्तमान आंदोलन में पिछलग्गूपन की तरह से हिस्सेदारी करने की बजाय एक सार्थक हस्तक्षेप करने की बात पर बल दिया। अन्य वक्ताओं में समर भण्डारी, अद्गवनी त्यागी, डॉ बुद्धिनाथ मिश्र, अतुल शर्मा, भारती पाण्डे, एस बी मेहंदीरत्ता, संजय कोठियाल आदि सभी ने अपने अपने तरह से भ्रष्टाचार के विरुद्ध जारी मुहिम को सतत आगे बढ़ाने की बात कही। धरने में डेण्ड सौ से ज्यादा लोगों ने शिरकत की।

Thursday, April 7, 2011

पूँजीवादी व्यवस्था से भ्रष्टाचार को खत्म करना असंभव है






जन लोकपाल बिल के समर्थन और भ्रष्टाचार के विरोध में देहरादून के रचनाकारों की हलचल इसम मायने में एक सार्थक हस्तक्षेप कही जा सकती है कि उसका ध्येय मात्र तात्कालिक तरह से एक सीमित अर्थ वाली जन आजादी के बजाय एक वास्तविक जन आजादी  की मुहिम और उसके लिए निरंतर संघर्ष की अवश्यम्भाविता का पक्ष प्रस्तुत कर रही है। 8 अप्रैल 2011 को देहरादून के सभी रचनाकार संवेदना की पहल पर गांधी पार्क में एकजुट होकर जन लोकपाल बिल के समर्थन में अपना पक्ष रखते हुए अपनी भूमिका को बखूबी स्पष्ट कर रहे हैं।


भ्रष्टाचार कोई आज पैदा हुआ मुद्दा नहीं है। यह कई दशकों से हमारे जीवन को नारकीय जीवन बना रहा है। गरीब और कमजोर के हक की कोई सुनवाई नहीं है। दुखद है कि हमारे समाज का मध्यवर्गीय वर्ग विरोध की शक्ति पूरी तरह से खो चुका है। क्योंकि वह बाजार के प्रभाव में इस गलत फहमी में जी रहा है कि समाज की उन्नति में कभी भी और किसी भी तरीके से फायदे की स्थिति में पहुँच सकता है। इस कारण उसने अपने सामाजिक राजनैतिक विवेक को बिल्कुल खो दिया है और लूट-खसोट की इस राजनीति में हस्तक्षेप करने का अपना नैतिक आधार भी खो दिया है। देश के प्रति भी इस वर्ग की समझ स्वार्थपूर्ण और गलत है। वह वंचितों और गरीबों के अधिकार के प्रति थोड़ा भी संवेदनशील नहीं है और स्वंय शोषण के किसी न किसी रूप का हिस्सा बन चुका है।
आज भ्रष्टाचार कोई छिपा हुआ मुद्दा नहीं है। हरेक गाँव कस्बे और शहरों में ऐसी ताकतें साफ-साफ दिखाई देती है जो समाज के विरोध में कार्यरत हैं और सत्ता पर उनका कब्जा पूरी तरह से है। वे अपनी लूट का के हिस्से को गर्व से दिखाते हैं। यह उनके लिए कोई शर्म का विषय भी नहीं।
भ्रष्टाचार की इस तंत्र को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है। आजादी से पूर्व और बाद के वर्षों में इस देश के भीतर मिश्रित अर्थव्यवस्था लागू की गई और वर्ष 1990 से इसके अन्दर नई आर्थिक औद्योगिक नीतियों का व उदारीकरण को इस देश की जनता पर लादा गया। इस पूरे कालखण्ड में मुनाफे और अतिरिक्त मूल्य को हड़पने की भीषण होड़ निरंतर जारी रही। इसके परिणाम स्वरूप भ्रष्टाचार तीव्र गति से बढ़ता रहा। इसका उदाहरण है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की आवाम ने भीषण जन आंदोलन के जरिये वर्ष 1977 में भ्रष्ट सरकार को धाराशायी कर दिया। लेकिन कालान्तर में दिखायी दिया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले लोग ही भ्रष्टाचार के दोषि पाये गये एवं भ्रष्टाचार अपने ज्यादा आक्रामक रूप में पनपने लगा।
उत्तराखण्ड के बुद्धिजीवी अन्ना हजारे की इस मुहिम का समर्थन करते हैं और जन लोकपाल बिल का समर्थन करते हैं। लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम सिर्फ बिल पास होने तक ही नहीं है क्योंकि व्यवस्था के अन्दर मुनाफा कमाने की और अतिरिक्त मूल्य की लूट जब तक समाप्त नहीं होती तब तक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ी जाने वाली कोई भी लड़ाई मुक्कमिल जीत तक नहीं पहुँच सकती। प्रगतिशील और समाजवादी व्यवस्था ही इसका एक मात्र लक्ष्य हो सकती है और उसको हासिल करने तक संघर्ष में बने रहना ही हमारा ध्येय होना चाहिए। पूँजीवादी व्यवस्था से भ्रष्टाचार को खत्म करना असंभव है।


संवेदना के सभी साथी

Friday, March 25, 2011

चंडूखाने की

हमारे देहरादून में, खास तौर पर रायपुर गांव की ओर एक मुहावरा है - चंडूखाने की। यह चंडूखाने की हर उस बात के लिए कहा जा सकता है, जिस बात का कोई ओर छोर नहीं होता, वह सच भी हो सकती है और नहीं भी। पर उसकी प्रस्तुत सच की तरह ही होती है। एक और बात- वैसे तो "चंडूखाने की" यह विशेषण जब किसी कही गयी बात को मिल रहा होता है तो उसका मतलब बहुत साफ साफ होता है कि बात में दम है। चंडूखाने की मतलब कोई ऎसी बात जो किसी बीती घटना के बारे में भी हो सकती है। पर ज्यादतर इसका संबध भविष्यवाणी के तौर पर होता है या फिर ऎसा जानिये कि इतिहास में घटी किसी घटना का वो संस्करण जिसे प्रस्तुत करने की जरूरत ही इसलिए पड़ रही है कि वह निकट भविष्य का कोई गहरा राज खोल सकती है।  मैं कई बार सोचता रहा कि यह मुहावरा देहरादून और खासतौर पर रायपुर गांव के निवासियों की जुबा में इतना आम क्यों है, जबकि आस पास भी कोई चंडू खाना मेरी जानकारी में तो नहीं  ही है।
जहां तक जानकारी है चंडूखाना नशाखोरी की एक ऎसी जगह होती है जहां गुड़्गुड़ाते नशे को पाइप के जरिये वैसे ही पिया जाता है जैसे हुक्के को। पर हुक्के में सिर्फ़ एक पाइप होता है लेकिन चंडूखाने में कई पाइप बाहर को निकले होते हैं, ( यानी एक बड़ा हुक्का) जिसे एक साथ गुड़्गुड़ाते हुए हल्के हल्के चढ़्ते नशे की स्थिति में बातों का सिलसिला जारी रहता है।  हुक्का इतिहास की सी चीज हुआ जा रहा है। हुक्के का जिक्र मैं यहां इसलिए नहीं कर रहा कि मुझे चंडूखाने की हांकनी है कि बहुत सी पुरानी चीजें, जिनकी उपस्थिति समाज के सांस्क्रतिक मिजाज का हिस्सा होती थी, बहुत तेजी से गायब हो रही है और इस तरह से उनकों अपदस्थ करते हुए जो कुछ आ रहा है वह भी एक संस्क्रति को जन्म दे रहा है। मैं तो सचमुच बताना ही चाह रहा हूं कि सामूहिकता की प्रतीक हर जरूरी चीज के गायब कर दिये जाने की एक ऎसी मुहिम चारॊं ओर है कि यह समझना मुश्किल हो जाता है कि गायब हो गई चीज क्या सचमुच अप्रसांगिक हो गई थी या कुछ ओर ही बात है।
चलिए छोड़िये---यह बताइये कि दुनिया के तेल कुओं पर किये जा रहे कब्जे की बात करें या क्रिकेट वर्ल्ड कप के बारे में बतियायें ?
वैसे खबर है कि गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टीवल में जफ़र पनाही का जिक्र हो रहा है। जफ़र पनाही तो ईरानी है, फ़िर उनके नाम के साथ लीबिया, लीबिया क्यों सुना जा रहा है। वे तो बम भी नहीं बनाते, फ़िल्म बनाते हैं- जरूर कोई चंडू खाने की उड़ा रहा है कि जफ़र पनाही, माजिदी, बामन गोबाडी और बहुत से ऎसे लोग हैं इस दुनिया में, जिन्हें जोर जबरद्स्ती किये जा रहे आक्रमणों के  प्रतिरोध का प्रतीक माना जा सकता है और दुनिया उनसे ताकत हासिल करती है। आप ही बताइए क्या इक्के दुक्के ऎसे लोगों की कार्रवाई से कुछ होता हवाता है भला। अब गोरखपुर में बेशक यह छठा फ़िल्म समारोह हो, उससे कुछ हुआ ?  चंडूखाने की उड़ाने वाले तो उड़ाते रहते हैं जी कि प्रतिरोध की कोई बड़ी मुहिम बहुत छोटी छोटी गतिविधियों की सिलसिलेवार उपस्थिति से भी जन्म लेती है।


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Sunday, March 13, 2011

उत्तराखण्ड में भाषा-बोली

                               

दुनिया के पैमाने पर आज कितनी ही जनभाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं और कितनी ही विलुप्त हो चुकी हैं। दुनिया पर राज करती मुद्रा और भाषा के चौतरफा हमले के चलते सब कुछ इतनी तेजी से घट रहा है कि यह भी समझना मुश्किल हो जा रहा है कि कब और कैसे हम स्वंय भी हमले के षड़यंत्र के शिकार हो चुके हैं और अनजाने में ही उसके तर्कों के साथ खड़े हैं। बिना इस बात को ठीक तरह से जाने, सिर्फ अस्मिता के सवाल के साथ न तो किसी भाषा को बचाया ही जा सकता है और न ही ऐसा भाषायी आंदोलन खड़ा किया जा सकता जिसके व्यापक विस्तार की संभावना बने।
सामाजिक व्यवस्था की विसंगतियों को समग्रता में देखे बिना और समग्रता में ही मुखालफत किये बिना जन भाषाओं के बचाव के लिए की जा रही कोई भी पहल अधूरी साबित होने वाली है। फिर यह भी देखने और समझने की बात है कि ऐसी विकट स्थितियों में भाषायी सवाल पर गैर-सरकारी संस्थानिक आंदोलनों का बाजारू फंडा क्या है ? दुनिया के विकास का मौजूदा मॉडल किस तरह का वैश्विक ढांचा खड़ा करना चाहता है, गैर-सरकारी संस्थानों की भूमिका उसके बीच किस तरह की है ? शासन प्रशासन के पूंजीवादी मॉडल के भीतर गैर-सरकारी संस्थानों की दखल जिस तरह की सामाजिक विसंगति के सवालों को अपनी परियोजनओं का हिस्सा बनाती है, उसके निहितार्थ उस समग्रता को छू पाते हैं क्या ? यह भी देखना होगा कि जनभावनाओं के निरादर वाली पूंजीवादी मॉडल की शासन प्रणाली को बचाये रखने की चालाकियों के साथ जनभाषाओं को बचाए रखना क्या आज संभव रह गया है ? गैर-सरकारी संस्थानों का ढांचा ऐसी ही शासन-प्रणालियों से पोषित होता हुआ है, यह कोई छुपी हुई बात नहीं रह गया है। उसको ही बचाये रखने के ध्येय के साथ अनुदानों की आर्थिक मद्द से चलने वाले संगठन या सदस्यों के सहयोग से चलने वाली संस्थाओं की कार्यशैली में कोई ज्यादा फर्क है नहीं। देखा जा सकता है कि जनभावनाओं का निरादर ही नहीं अपितु उसे पूरी तरह से कुचलने की शासन प्रणालियों वाला यह मॉडल न सिर्फ अपनी प्रवृत्ति में षड़यंत्रकारी है बल्कि उसके तंत्र का जाल बेहद उलझा हुआ है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन से लेकर राज्य निर्माण की पूरी प्रक्रिया के सिलसिलेवार अध्ययन से एक सिरा जो हाथ लगता है उसमें दिखायी देता है कि जनआकांक्षाओं को शिकस्त प्रतीकात्मक तरह से भी दी जा सकती है। राज्य का नाम उत्तरांचल करने की घोषणा उसका एक नमूना है। परिणाम सीधा-सीधा यह रहा कि राज्य निर्माण की प्रक्रिया अपनाये जाने के बाद भी जनता खुद को ठगा हुआ पाती है - समझना मुश्किल हो जाता है कि जनता की जीत का राज्य निर्माण हुआ है या फिर राज्य के नाम पर एक और चोर जेब सा कुछ हाथ आया है। प्रतीक के तौर पर बदले गये नाम को ही सही और एकमात्र सही नाम बताने वाले एवं चोर जेब के तंत्र को स्थापित करने के बाद नाम बदलने की प्रक्रिया को अंजाम देने वालों की चालाकी भरी चुप्पी कोई छुपी हुई बात नहीं है। बहुत से जनतांत्रिक सवालों को छुपाये रखने की यह ऐसी षड़यंत्रकारी कार्रवाई रही,  जिसमें वास्तविक संघर्ष को दरकिनार रखते हुए- मात्र अस्मिता के सवाल के साथ नाम बदलने की लड़ाइयां ही सर्वोपरी मान ली जाती रही। जन विरोधि नीतियों के प्रतिरोध की वाष्प को मात्र नाम बदलने की कार्रवाई में झोंक देने को मजबूर कर और अंतत: उसे पूरा कर दिये जाने की प्रक्रिया, एक खेल खेलने जैसा ही रहा है। ऐसे में यह सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या जन भाषाओं के बचाव की लड़ाई संविधान की आठवीं अनुसूची तक की एक निरर्थक कोशिश है या उसकी यात्रा का उन पड़ावों से गुजरना है जहां जल, जंगल, जमीन और रोजी-रोजगार के ठिकाने मौजूद हैं ? उत्तराखण्ड में आज भाषा-बोली का जो सवाल जोर पकड़ता जा रहा उसके केन्द्र में सिर्फ गढ़वाली और कुमाऊंनी को ही तरजीह दी जा रही है। यदा-कदा जौनसारी का जिक्र भी हो जा रहा है। पंजाबी, गोरखाली और पश्चिमी उत्तर-प्रदेश की वह भाषा जो राज्य की राजधानी के एक बड़े भू-भाग में मौजूद है, उसका जिक्र बहुधा छूट जा रहा है। यहां सवाल यह नहीं है कि आंदोलन के केन्द्र में सिर्फ गढ़वाली, कुमाऊंनी को ही तरजीह क्यों दी जा रही है, बल्कि उस बिन्दु को छेड़ना है जो उत्तराखण्ड में सारे मुद्दों को, मात्र अस्मिता के नाम पर दरकिनार कर देना चाहता है। जरूरत है राज्य के भीतर व्याप्त विसंगतियों और रोजी रोजगार के दूसरे मसलों की रोशनी में ही जनभाषाओं के बचाव की मुहिम जारी हो। एक बड़े फलक पर बोली जाने वाली भाषा हिन्दी, जो कि देश और दुनिया के पैमाने पर वैसे ही उपेक्षित होने की स्थिति में है जैसे किसी भी राज्य में बोली जाने वाली दूसरी अन्य भाषाएं, उत्तराखण्ड राज्य में एक हद तक काम-काज की भाषा है। यह अपने आप में उल्लेखनीय है कि राज्य के बहुभाषी चरित्र को पूरी तरह से समेटने में ज्यादा स्वीकार्य भी है।   
          

Friday, March 11, 2011

• प्रेमचन्द और दलित समस्या

हिन्दी भाषी भौगोलिक क्षेत्र में दलित राजनीति का उभार और हिन्दी साहित्य में दलित धारा का उदय का आरम्भिक काल लगभग एक समान आक्रामकता का चरण कहा जा सकता है। राजनीति में तिलक, तराजू और--- की गूंज तो सत्ता की चौहदी के लिए बेशक चरदार गलियों में गलबहियां डालने को मजबूर हो गई पर संवेदनाओं के गहरे दंश को अपने लेखन का हिस्सा बनाने वाले रचनाकारों ने अपने संशयों से मुक्ति की रचना के साथ एक ठोस वैचारिक जमीन को आधार बनाया है और साहित्य के मूल्यांकन के कुछ ऐसे मानदण्डों को खड़ा करने का लगातार प्रयास किया है जिसकी रोशनी में भारतीय समाज व्यवस्था के सामंति ढांचे में बहुत भीतर तक पैठी हुई मानसिकता उदघाटित होती हुई है। हाल में जनसत्ता में प्रकाशित दलित धारा के चिंतक, रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि का आलेख जो कथादेश मासिक फरवरी में प्रकाशित आलोचक चमन लाल के आलेख के प्रत्युत्तर में है, उसकी एक बानगी कहा जा सकता है। कथाकार प्रेमचंद की रचनाओं के मूल्यांकन के सवाल पर यह आलेख दलित धारा के चिंतन के उस दृष्टिकोण को सामने रखता है जिससे एक बहस जन्म ले रही है। दलित धारा के साहित्य के शुरुआती समय में जो बहस कफन कहानी को लेकर समकालीन जनमत से शुरू हुई थी बिल्कुल एक अलग ही अंदाज में आज दुबारा जिन्दा होती हुई है। कथाकार और कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि का मूल आलेख बिना किसी भी तरह के संपादन के साथ यहां इसी उद्देश्य से प्रकाशित किया जा रहा है कि एक स्वस्थ बहस आकार ले। अपनी प्रतिक्रिया तो मैं अवश्य ही लिखूंगा, चाहता हूं कि इस ब्लाग के सचेत पाठक और जिम्मेदार लेख कइस बहस को आगे बढ़ाये। अपनी प्रतिक्रियाओं के टिप्पणी के अलावा विस्तार से भी मेल कर सकते हैं- vggaurvijay@gmail.com

वि.गौ.
प्रेमचन्द ने अछूत समस्या पर जो भी लिखा ,उसे लेकर हिन्दी साहित्य में दो विपरीत ध्रुव निर्मित हो चुके है.हाल ही में कथादेश (फरवरी,2011) के अंक मे चमनलाल का आलेख ‘प्रेमचन्द साहित्य में दलित विमर्श ‘के द्वारा उस विभेद को और ज्यादा पुख्ता करने की कोशिश की गयी है.
क्या दलित रचनाकारोँ को अपना स्वतंत्र –मत निर्मित्त करना साहित्य – विमर्श में गैर जरूरी है? क्या प्रेमचन्द का साहित्य भी धार्मिक –साहित्य की श्रेणी में स्थापित कर दिया गया है, कि उसकी आलोचना नहीं की जा सकती ? जिससे कुछ लोगों की धार्मिक भावंना को ठेस लगती है.
अपने आलेख के प्रारम्भ मे ही बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के हवाले से चमनलाल जी प्रेमचन्द के विरुद्ध बोलने वालों को चेतावनी देते है- ‘प्रेमचन्द के निन्दक मारे जायेंगे ,लेकिन प्रेमचन्द जीवित रहेंगे ,’चमन लाल जी की दृष्टि मे दलितों द्वारा प्रेमचन्द पर उठाये गये सवाल अतिवादी दृष्टि कोण है.साहित्य आलोचना और विमर्श के लिए जो स्पेस होता है ,उसे अतिवादी दृष्टिकोण कहकर खारिज करना ,क्या साहित्य की मूल भावना और उसके सामाजिक उत्तरदायित्व के पक्ष में जाता है? क्या दलित रचनाकारोँ को अपना स्वतंत्र –मत निर्मित्त करना साहित्य – विमर्श में गैर जरूरी है? क्या प्रेमचन्द का साहित्य भी धार्मिक –साहित्य की श्रेणी में स्थापित कर दिया गया है, कि उसकी आलोचना नहीं की जा सकती ? जिससे कुछ लोगों की धार्मिक भावंना को ठेस लगती है. बेहतर होगा प्रेमचन्द को धार्मिक आडम्बरों से मुक्त रखा जाये .आज यदि प्रेमचन्द जिन्दा हैं तो उन निरंतर और नयी –नयी आयामो से होने वाली चर्चा के कारण. बिना चर्चा के किसी भी रचनाकार की श्रेष्ठ रचनायें भी समय के गर्त में खो जाती हैं. उन्हें भूला दिया जाता है.किसी आलोचक ने यदि कोई स्थापना दे दी तो क्या आने वाली पीढ़ी को भी उस स्थापना को आँख मूँद कर मानते रहना चाहिए ?क्या यह प्रवृत्ति साहित्य के कालजयी होने के पक्ष में जाती है? ‌‌‌
प्रेमचन्द की अछूत-समस्याओं के सन्दर्भ में ,जो शंकाये और विचार दलित लेखकों के मन मे उठे ,उन्हें बेबाकी से रखा गया .जिसमें प्रेमचन्द की निन्दा करना ध्येय नहीं रहा ,बल्कि दलित दृष्टिकोण से तथ्यों को परखने की कोशिश की गयी .इस कोशिश को ‘अतिवादी’ कह कर खारिज करने वालो की वाणी और सोच पर अंकुश लगाने की न तो दलित लेखको की कोई मंशा रही है,न जिद्द .अपने पूर्व साहित्यकारो के कृतित्व ,उनकी प्रतिबद्धता ,उनके सामाजिक दायित्व और उनके जीवन अनुभवो को जानना,समझना यदि साहित्यिक दृष्टि से गलत है,तो यह गलती दलित लेखको ने की है,अपनी सामाजिक चेतना और दायित्व के निर्वाह के लिए .क्योंकि साहित्य ही एक माध्यम है ,मानवीय संवेदनाओँ और सरोकारो को जानने का.
73-74 वर्ष पूर्व प्रेमचन्द ने ‘क़फन ’ कहानी लिखी थी,जो मूल उर्दू मे थी.हिन्दी में यह कहानी बाद मे छपी.हिन्दी आलोचको ,विद्वानो ने इस कहानी को कला,शिल्प और विचार की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ कहानी कहा. तब से और आज तक यही भाव साहित्य मे मान्य रहा है.लेकिन हिन्दी मे दलित साहित्य के उभरने के साथ –साथ इस कहानी पर सवाल उठने लगे ,तो हाय तौबा मच गयी......’अब प्रेमचन्द दलित विरोधी हो गये ...जैसे शीर्षक छपने लगे.और साहित्य मे एक अजीब तरह का वातावरण निर्मित करने की कोशिशे शुरू हो गयी .कई प्रतिष्ष्ठित आलोचको ने यह भी कहने मे गुरेज नहीं किया – दलित लेखक प्रेमचन्द से अच्छा लिख कर दिखाएँ ...यानि प्रेमचन्द रूपी लाठी से दलित लेखको को डराया –धमकाया जाने लगा.जैसे दलित लेखक उनके अहम और वर्चस्व को खंडित करने ,उनके आरक्षित क्षेत्र मे घुसपैठ करने की कोशिश कर रहे थे.लेकिन विद्वानो ने दलित पक्ष को जानने ,समझने का प्रयास ही नही किया .क्योंकि यह उनके संस्कारो के विरुद्ध है. उन्हें सिखाने की आदत है ,सीखने की नहीं.
दलित का कोई वैचारिक पक्ष भी हो सकता है ,यह सच्चाई गले नहीं उतर रही है.ऎसे ही विद्वानों ने ‘क़फन’ को दलित पक्षधरता की कहानी सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क गढ लिए थे.और इस कहानी को पाठ्यक्रमो में ससम्मान शामिल करते रहे हैं .शिक्षक भी उन्ही तर्कों के सहारे भाव विभोर होकर इस कहानी को संवेदनशील (?) कह कर छात्रों के भीतर उतारते रहे हैं.यह वह समय था, जब हिन्दी में कुछ खास प्रवृत्ति और संस्कारों के लेखकों ,आलोचकों ,शिक्षा-तंत्र से जुडे विद्वानो क वर्चस्व था. लेकिन गत शताब्दी के उत्तरार्द्ध् में स्थिति बदल गयी. इस कहानी की संवेदना ,श्रेष्ठता ,शिल्प ,गठन ,और दलित पक्षधरता पर सवाल उठने लगे. यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि हिन्दी साहित्य प्रारम्भ से ही सनातनी मूल्यों का ध्वजवाहक रहा है.’क़फन ‘ कहानी इन ध्वजवाहकों ,जिनमे मार्क्सवादी आलोचक भी काफी मात्रा मे हैं, की दृष्टि मे यह कहानी कलात्मक हो सकती है,संवेदनशील भी हो सकती है.क्योंकि साहित्य के सृजन और विश्लेषण मे संस्कारों का बहुत बड़ा हाथ होता है.लेकिन जब दलित चेतना और अस्मिता के साथ इस कहानी को जोड़कर देखने के प्रयास होते हैं ,तब ‘अर्थ’ और ‘आशय’ बदलने लगते हैं. यहाँ यह कहना भी असंगत नहीं होगा कि भारतीय समाज में हज़ारों साल से शूद्र ,अंत्यज,अस्पृश्यों, चाण्डाल् ,डोम आदि के प्रति घृणा की भावना को आदर्श रूप में नैसर्गिकता के साथ स्वीकार किया जाता रहा है.जो आज भी पूर्वाग्रहों के रूप में मौजूद है.हिन्दू समाज मे मौजूद इन पूर्वाग्रहों को यह कहानी अपने पूरे सरोकारो के साथ सुदृढ करती है. इसी लिए संस्कारी मन को यह कहानी संवेदनशील लगती है.लेकिन जब एक दलित अपनी चेतना और अस्मिता के साथ इस कहानी को पढ़ता है ,तो उसे यह कहानी वैसी नहीं लगती जैसी नामवर सिह ,परमानन्द श्रीवास्तव ,काशीनाथ सिह,विश्वनाथ त्रिपाठी ,राजेन्द्र यादव, पी.एन.सिह, बच्चन सिह ,चमन लाल ......आदि को लगती है.
प्रेमचन्द ने अछूत –समस्या पर विपुल साहित्य रचा है.नि:सन्देह ,यह सही भी है, इस समस्या पर उनसे ज्यादा किसी प्रतिष्ठित स्थापित लेखक ने नहीं लिखा .
दलित लेखको ने इस कहानी को लेकर जो सवाल उठाये हैं, उनके उत्तर देना चमनलाल जी को जरूरी नहीं लगा .अपने आलेख में भरपूर उद्धरणो के द्वारा यही सिद्ध करते हैं कि प्रेमचन्द ने अछूत –समस्या पर विपुल साहित्य रचा है.नि:सन्देह ,यह सही भी है, इस समस्या पर उनसे ज्यादा किसी प्रतिष्ठित स्थापित लेखक ने नहीं लिखा . उन्होंने वैचारिक लेख ,टिप्पणियाँ ,सम्पादकीय ,कहानी उपन्यास अछूत – समस्या पर लिखे.उनकी सहानुभूति किसान,मजदूर और अछूतों के साथ थी.लेकिन जब उनके ही जीवन काल में एक निर्णायक मोड़ आया तो स्थितियाँ बदल गयी .प्रेमचन्द ही नहीं ,तमाम पारम्परिक स्थापित लेखक ,प्रगतिशील,जनवादी,मार्क्सवादी ,कहे जाने वाले रचनाकारों ,आलोचकों ,विद्वानों की भी,ऎसे निर्णायक मोड आते ही, भूमिकाएँ और प्राथमिकताएँ बदल जाती हैं. उस वक्त दलित उनकी प्राथमिकता से बाहर हो जाता है.यह पहले भी हुआ है और आज भी जारी है.
प्रेमचन्द के सामने भी ऎसा ही एक निर्णायक मोड़ आया था.जब दलितों ने सामाजिक वैमनस्य ,उत्पीडन ,शोषण ,और मौलिक अधिकारों से वंचित ,त्रस्त होकर डा. अम्बेडकर के नेतृत्व में ‘प्रथक –निर्वाचन’ की मांग रखी थी.जो उनके हज़ारों साल की दासता से मुक्त होने का सवाल था.यह निर्णायक मोड गाँधी जी को स्वीकार्य नहीं था, क्योंकि गाँधी जी की दृष्टि में यह हिन्दू धर्म के लिए खतरा था.इसी मुद्दे पर गाँधी जी गोलमेज –कांफ्रेंस से निराश और दुखी होकर लौटे थे. क्योंकि डा. अम्बेडकर ने यह ‘दलित –मुक्ति’ का सवाल अंतराष्ट्रीय मंच से उठाया था.इसी लिए गाँधी जी के लिए यह जीवन-मरण का सवाल बन गया था.और गाँधीजी ने भूख हड़ताल करके डा.अम्बेडकर पर दबाव बनाया कि वे इस सवाल और मांग को वापस लें. गाँधी जी इस में सफल रहे थे.पूना-पैक्ट के रूप में डा. अम्बेडकर को झुकना पडा. एक तरफा समझौता डा. अम्बेडकर की हार थी. ऎसे वक्त में प्रेमचन्द की भूमिका को भी जान लेना जरूरी है,कि इस निरणायक मोड पर वे किस ओर खडे़ थे.
‘प्रथक – निर्वाचन’ की मांग का मुद्दा गाँधी जी के लिए नैतिक और धार्मिक था.जबकि डा.अम्बेडकर के लिए ‘दलित –मुक्ति‘ और लोकतांत्रिक अधिकार पाने का सवाल था.प्रेमचन्द इस मुद्दे को गाँधी जी की दृष्टि से धार्मिक और राष्ट्रीय मान रहे थे.प्रेमचन्द भी दलितों की इस मांग को शंका की दृष्टि से ही देख रहे थे. यानि धर्म और राष्ट्र भी शोषितो .पीड़ितों की लाशों से ही फलते –फूलते हैं.’पूना –पैक्ट’ के बाद जहाँ डा.अम्बेडकर और दलितों में घोर निराशा थी,वहीं प्रेमचन्द इसे ‘राष्ट्रीयता की विजय ‘ कहकर ,इसी शीर्षक से 26,अक्टु,1932 ,के जागरण में सम्पादकीय लिख रहे थे- ‘.... शत्रू ने लक्ष्य भी उसी स्थान पर किया था ,जो कमजोर है,लेकिन गाँधी जी की तपस्या ने पासा पलट दिया और न जाने कितनी देवी शक्ति लेकर सामने आ गयी और शत्रूओं से घिरी हुई राष्ट्रीयता अपने मोरचे से निकल कर साम्प्रदायिकता का सहार कर रही है....’
‘प्रथक – निर्वाचन’ की मांग का मुद्दा गाँधी जी के लिए नैतिक और धार्मिक था.जबकि डा.अम्बेडकर के लिए ‘दलित –मुक्ति‘ और लोकतांत्रिक अधिकार पाने का सवाल था.प्रेमचन्द इस मुद्दे को गाँधी जी की दृष्टि से धार्मिक और राष्ट्रीय मान रहे थे.प्रेमचन्द भी दलितों की इस मांग को शंका की दृष्टि से ही देख रहे थे. यानि धर्म और राष्ट्र भी शोषितो .पीड़ितों की लाशों से ही फलते –फूलते हैं.’पूना –पैक्ट’ के बाद जहाँ डा.अम्बेडकर और दलितों में घोर निराशा थी,वहीं प्रेमचन्द इसे ‘राष्ट्रीयता की विजय ‘ कहकर ,इसी शीर्षक से 26,अक्टु,1932 ,के जागरण में सम्पादकीय लिख रहे थे- ‘.... शत्रू ने लक्ष्य भी उसी स्थान पर किया था ,जो कमजोर है,लेकिन गाँधी जी की तपस्या ने पासा पलट दिया और न जाने कितनी देवी शक्ति लेकर सामने आ गयी और शत्रूओं से घिरी हुई राष्ट्रीयता अपने मोरचे से निकल कर साम्प्रदायिकता का सहार कर रही है....’
यानि दलितों का हजारो साल की दासता से मुक्ति का संघर्ष प्रेमचन्द की दृष्टि में साम्प्रदायिक था,जिससे देश को दैविक शक्तियों ने बचाया .प्रेमचन्द की यह भूमिका और निर्णायक मोड पर आते ही अछूत – सहानुभूति अपना पाला बदल लेती है.’हंस’ के मुखपृष्ठ पर बाबा साहेब का चित्र तो छापते हैं,लेकिन उनकी प्राथमिकता में दलित पक्ष की जगह गाँधी जी का पक्ष ज्यादा महात्त्वपूर्ण था.जो पूना-पैक्ट के रूप में दलितों के हितों के खिलाफ ही गया.यह ऎतिहासिक सच्चाई है.और प्रेमचन्द उस वक्त भी डा.अम्बेडकर को शंका की दृष्टि से ही देख रहे थे.इस तथ्य को चमन लाल भी स्वीकार करते हैं- ‘..... दलित प्रश्न पर अधिक विचार मिलते हैं और ये विचार गाँधी और गाँधीवाद से प्रभावित हैं.’
अपने लेख में चमन लाल लिखते हैं – ‘..........पहली बार एक दलित को उपन्यास का नायक बनाने का सराहनीय समझा गया ,लेकिन उपन्यास छपने के अस्सी वर्ष बाद दलित नायकत्व स्थापित करने वाले उपन्यास को इस आधार पर ‘दलित विरोधी .कहा गया कि सूरदास क उल्लेख ‘जातिवाचक ‘नाम से किया गया है....” चमन लाल ही नहीं हिन्दी के स्वमनाम धन्य आलोचक इस बात से तो गदगद हैं कि एक दलित को नायकत्व प्रदान किया गया और अस्सी वर्षों तक इस नायकत्व पर किसी ने उंगली नहीं उठाई.लेकिन यह भूल जाते हैं कि उंगली उठाने वालों के हाथ में कलम कहाँ थी.और यदि थी भी तो उन्हें छापा नहीं जाता था.दूसरे प्रेमचन्द ने एक अछूत को नायकत्व प्रदान किया.लेकिन किस रूप में ?उस नायक के आदर्श क्या हैं ?एक दलित जो पैदा होते ही ‘जाति- उत्पीडन क दंश झेलते हुए बड़ा होता है,और घृणा के प्रति उसके मन में कहीं कोई प्रतिक्रिया न हो ,क्या यह सम्भव है?वहाँ कहीं कोई विरोध ,उस दंश की कोई छाया ,कोई अक्स, दिखाई नहीं पडता .उस पीडा ,दर्द को कहीँ किसी भी रूप में अभिव्यक्त नहीं करता ? हजारों साल के इस उत्पीडन पर यदि नायक चुप है,तो उस नायक के जीवन का उद्देश्य क्या है?नायक चेतना विहीन क्यों है?समाज ,धर्म ,व्यवस्था के प्रति उस नायक को कोई शिकवा नहीं ,कोई शिकायत नहीं ,ऎसे नायक पर गर्व किया जाये य उस पर शंर्मिन्दा हों ?सूरदास गाँधी जी के आदर्शों पर चलने वाला ‘दलित’ नहीं एक ‘हरिजन’ है.उसका सत्याग्रह भी गाँधी वादी आदर्शों की प्रतिछाया है. जबकि उस दौर में ,जब ‘रंगभूमि ‘उपन्यास ‘लिखा गया, डा. अम्बेडकर का ‘मुक्ति- आन्दोलन’समाज में चेतना पैदा कर रहा था.उ.प्र.में अछूतानन्द का आन्दोलन जारी था.पंजाब में मंगूराम ने अपने तरीके से दलितों को जागरुक करने का अभियान चलाया था.लेकिन प्रेमचन्द इन सभी आन्दोलनों को अनदेखा करके सिर्फ गाँधी जी के ‘अछूतोद्धार’ की सीमाओं में नायकत्व खड़ा कर रहे थे. इसी लिए सूरदास में दलित चेतना की शुन्यता है.
यही स्थिति ‘कफन’ कहानी की भी है.हजारों साल से हिन्दू समाज दलितों के प्रति नकारात्मक सोच रखता आ रहा है.यह सोच साहित्य के माध्यम से भी प्रचारित की गयी.और समाज में श्रेष्ठता भाव के साथ दलितों को दीन- हीन बनाने की मुहिम चलाई गयी.उनके लिए असभ्य,उज्जड,नीच,कमीन,ढेड,गंवार,निकम्मे,जाहिल जैसे शब्दों का प्रचलन जारी रहा है. बडे से बडे रचनाकारों आलोचकों ,विद्वानों ने इन शब्दों का प्रयोग दलितों के सन्दर्भ में किया है.दलित जातियों को गाली की तरह प्रयोग् करने की परम्परा आज भी समाज में मौजूद है.यही नकारात्मकता प्रेमचन्द के पात्रों ‘घीसू – माधो’ में भरपूर मात्रा में दिखाई देती है.जिसे प्रेमचन्द ने कुशलता से स्थापित किया है.यहाँ ‘कफन’ के शिल्प और संरचनात्मकता की बात नहीं कर रहे हैं .केवल ‘आशय’ की बात कर रहे हैं.क्योंकि चमन लाल जी के आलेख का केन्द्र बिन्दु भी यही है.
अक्सर ‘गोदान’ के मातादीन – सिलिया प्रसंग को आलोचक बहुत ऊंचे स्वर में रेखांकित करते हैं.इसी प्रसंग में प्रेमचन्द के अंतिम निष्कर्ष को भी देख लें .मातादीन और सिलिया का प्रेम-प्रकरण वियोगात्मक नहीं है.प्रेमचन्द उन दोनों के बीच होने वाले संवाद के जरिये बहुत कुछ ऎसा कहते हैं जिसे आलोचक अनदेखा करते रहे हैं –
‘......मैं डर रही हूँ,गांव वाले क्या कहेंगे ...’ ’जो भले आदमी हैं ,वह कहेंगे ,यही इसका धर्म था.जो बुरे हैं ,उनकी मैं परवाह नहीं करता.’ ’और तुम्हारा खाना कौन पकायेगा ?’ ’मेरी रानी ,सिलिया.’ ’तो ब्राह्मण कैसे रहोगे ?’ ’मैं ब्राह्मण नहीं ,चमार रहना चाहता हूँ .जो धरम का पालन करे ,वही ब्राह्मण ,जो धरम से मुँह मोडे़ ,वही चमार.’
सिलिया ने उसके गले में बाँहे डाल दी.( गोदान ,पृष्ठ -288-89 )
क्या प्रेमचन्द की उपरोक्त परिभाषा पूर्वाग्रहों पर आधारित नहीं है?इसी प्रकार के विरोधाभास प्रेमचन्द की अन्य रचनाओं में भी दिखाई देते हैं.मातादीन जिसके पूर्णत: बदल जाने का उल्लेख प्रेमचन्द करते हैं,उसके संवाद में श्रेष्ठता भाव जड़ जमाये बैठा है.मातादीन किस धर्म के पालन की बात कर रहा है,जो दलित का कभी हुआ ही नहीं.क्या एक चमार के लिए भी वह उतना ही स्वीकार्य है या नहीं ,इस बिन्दु पर प्रेमचन्द जैसे महान लेखक ने विचार करना क्यों जरूरी नहीं समझा ?क्या यह कथन् मानवीय गरिमा के अनुकूल है? इस वाक्य को जब एक चमार पढ़ता है ,तो क्या वह हीनता बोध का शिकार नहीं होगा ? यहाँ यह भी बताना जरूरी है कि ‘गोदान’ का रचनाकाल 1936 ई.है.प्रगतिशील् लेखक संघ अस्तित्व में आ चुका था.अम्बेडकर – आन्दोलन राष्ट्रीय पहचान बना चुका था.पूना- पैक्ट पर हस्ताक्षर हो चुके थे .उस दौर में प्रेमचन्द की यह टिप्पणी – जो धरम का पालन करे ,वही ब्राह्मण ,जो धरम से मुँह मोडे ,वही चमार.’, गले नहीं उतरती.चमनलाल जी विद्वान हैं ,किसी भी तर्क से प्रेमचन्द को सही सिद्ध कर सकते हैं.लेकिन एक दलित होने के नाते मुझे यह टिप्पणी पूर्वाग्रह से परिपूर्ण लगती है. यहाँ यह कहना भी जरूरी लगता है कि किसी भी रचना का मूल्यांकन ,विश्लेषण ,बौद्धिक शब्दजाल या आख्यान भर नहीं होता.इससे परे भी कुछ अर्थ होते हैं .जिनके सामाजिक सरोकार होते हैं.प्रेमचन्द की रचनाओं को एक दलित ठीक उसी तरह स्वीकार करे ,जैसे गैर दलित उन्हें समझा रहे हैं .क्या परिवेशगत ,पारिवारिक संस्कारों की मनुष्य की सामाजिक चेतना के निर्माण में कोई भूमिका नहीं होती?क्या उन समीक्षकों ,विद्वानों की स्थापनाओँ को आँख मूँद कर स्वीकार कर लेना चाहिए ,जो मंचो ,सभा गोष्ठियों में मार्क्सवादी हैं और घर की देहरी पर कट्टर सामंतवादी,ब्राह्मणवादी संस्कारो से लैस हैं ? जो वर्ण और जाति के समर्थक बने हुए हैं ? ऎसे लोगो को प्रेमचन्द के लेखन में अंतर्विरोध दिखाई नहीं देते हैं.क्योंकि उनके लिए यह सहज और सामान्य है.