Friday, April 22, 2011

पेशावर काण्ड

भारतीय इतिहास में पेशावर काण्ड एक ऐसी घटना है जिसने आजादी के संघर्ष की उस बानगी को पेश किया जिसमें देश प्रेम का वास्तविक मतलब देश के नागरिकों से प्रेम के रूप में परिभाषित हुआ है। पेशावर के इस सैनिक विद्रोह की गाथा है कि चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज की एक टुकड़ी ने निहत्थे नागरिकों पर हथियार उठाने से इंकार कर दिया था। 23 अप्रैल 1930 को घटी इस घटना का सुंदर काव्यात्मक जिक्र कथाकार और इतिहास के अध्येता शोभा राम शर्मा ने भी किया है। चन्द्र सिंह गढ़वाली के जीवन को केन्द्र में रखकर उन्होंने एक महाकाव्य लिखा है जो अभी तक अप्रकाशित है। इस अवसर पर महाकाव्य का वह अंश जिसमें पेशावर विद्रोह की पृष्ठभूमि और उसके लिए हुई आरम्भिक तैयारियां पुनसर्जित हुई है, यहां प्रस्तुत करते हुए वीर सिपाही चन्द्र सिंह गढ़वाली को याद करने की कोशिश की जा रही है।

अप्रैल 1930- पेशावर में जनता पर नहीं चली गोली। अंग्रेजी हुकूमत की खिलाफत फौज की एक टुकड़ी ने की, नेता कौन था? चन्द्र सिंह। संवत 1948(1891 ई।) पौष शुक्ल 15 को रौणसेरा गांव में पैदा होने वाला चन्द्र सिंह। जिसके बाप का बाप कमली चौहान, उसका बाप बनिया चौहान, उसका बाप गल्लू चौहान और उसका बाप दास चौहान। अपनी छ: पुश्तों का इतिहास जानने वाला- चन्द्र सिंह।

हरियाली से ढके ऊंचे पहाड़ों की सौम्यता, बुरांश का सुर्ख लाल रंग जिसके भीतर समाया रहा। प्रकृति के अनुपम सौंदर्य ने जिसके व्यक्तित्व को तराशा। अपने पूर्वजों के नाम के आगे लिखे दास शब्द का अर्थ क्या रहा, मालूम नहीं, पर चन्द्र सिंह जानता था- दासता के चिन्ह को उसके पिता जाथली सिंह ने ही उतार फेंका। 18वीं-19वीं सदी में दास प्रथा गढ़वाल और पूरे देश में रही। जो दास नहीं थे, वे भी अपने मालिकोंे-सामन्तों या राजाओं के सामने बहुत नीचे स्थिति रखते थे और उनका जीवन भी अर्द्ध दास जैसा ही था।
वि.गौ.

पंचवटी में प्राप्त प्रशिक्षण, शिक्षक बनकर आया था।
उसकी सैनिक प्रतिभा से भी, असर वहाँ पर छापा था।।
मार्टिन था कप्तान उसी ने, ट्रेनिंग का खुद भार दिया।
अभी निशानेबाजी पर वह, भाषण ही दे पाया था।।
गोरा अफसर आकर बोला-''आज तुम्हें कुछ बतलाऊँ।
गढ़वाली क्यों पेशावर में, भेद यही सब समझाऊँ।।
मुस्लिम भारी बहुमत में हैं, हिन्दू रहते आफत में।
धन-दौलत क्या औरत लूटें, इज्जत सारी साँसत में।।
दूकानों पर धरना देते, लूट न पाते जब उनको।
तुमको सारी बदमाशी का, सबक सिखाना है इनको।।
इसीलिए तो हिन्दू पलटन, सोच-समझकर भेजी है।
शायद कल बाजार चलोगे, जहाँ निपटना है तुमको।।''
इस पर कोई उठकर बोला-''हमको कुछ पहचान नहीं।
हिन्दू-मुस्लिम एक सरीखे, रंग वही परिधान वही।।''
''जो भी धरना देता होगा, याद रखो मुस्लिम होगा।
फिर भी अफसर साथ चलेंगे, पास तुम्हारे हम होगा।।''
फूट बढ़ाओ राज करो की, धूर्त चमक थी आँखों में।
धूल मगर वह झोंक न पाया, भड़ की निर्मल आँखों में।।
इन बातों की समझ उसे थी, आया नहीं छलावे में।
संकट में क्या करना होगा, भूला नहीं भुलावे में।।
गोरा तनकर चला गया तो, रोक न पाया वह मन को।
बोला-''यदि कुछ सुनना चाहो, राज बता दूँ सब तुमको।।
कहीं किसी से मत कह देना, अपनी भी लाचारी है।
हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न उठाना, साहब की मारी है।।
झगड़ा शासित-शासक का है, प्रश्न खड़ा आजादी का।
बीज इन्होंने बो डाला है, जन-जन की बर्बादी का।।
सात समुन्दर पार निवासी, बना हमारा स्वामी है।
चूस रहा जो खून हमारा, शोषक जोंक कुनामी है।।
यहाँ निकलसन1 लाइन है या, हरिसिंह नलवा लाइन है।
बैर-विरोध न मिटन पाए, सोची-समझी लाइन है।।
देश-धरम पर मिटने वाले, इनको गहरे दुश्मन हैं।
झूठे-सच्चे केस चलाकर, नरक बनाते जीवन हैं।।
अपने घ्ार में बन्द अभागे, आपस में हम लड़ते हैं।
खुलकर नाच नचाया जात, कठपुतले हम पिटते हैं।।
आज चुनौती दे डाली तो, हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न उठा।
हमें चलानी होगी गोली, सोच-समझ तो आँख उठा।।
सिर पर बाँधे कफन खड़े हैं, आजादी के मतवाले।
गद्दारों में गिनती होगी, मूढ़ रुकावट जो डाले।।
गोली दागो, अच्छा होगा, गोली खाकर मर जाओ।
खून निहत्थे जन का होगा, हाथ न अपने रंग जाओ।।
कुल का नाम कलंकित करना, कहो कहाँ की नीति भली।
नहीं नरक में ठाँव मिलेगा, हमसे गोली अगर चली।।
दुनिया को दिखलादो यारो, टुकड़ों के हम दास नहीं।
समझ हमें भी दुनिया की है, चरते केवल घ्ाास नहीं।।
देश-द्रोह फिर बन्धु हनन का, पाप कमाना लानत है।
उदर-दरी तक सीमित रहकर, जीवित रहना लानत है।।
अंग्रेजों का नमक नहीं है, जिस पर अपना पेट पले।
नमक-हलाली किसकी यारों, देश हमारा भारत है।।



जाकर देखा भीड़ खड़ी थी, सम्मुख सैनिक डटे हुए।
चित्र लिखे से सिर ही सिर थे, पथ के पथ ज्यों पटे हुए।।
पूरी पलटन आ धमकी फिर, भीत न लेकिन भीड़ घ्ानी।
गगनांगन पर यान उड़ाए, तोप शहर की ओर तनी।।
अंग्रेजों का शक्ति-प्रदर्शन, खेल बना दीवानों को।
जल जाते हैं लेकिन तन की, चिन्ता कब परवानों को।।
जमघ्ाट जुड़ता देख भयातुर, आगे बढ़ आदेश दिया।
संगीनों की नोंक दिखाकर, पट्ठानों को घ्ोर लिया।।
तभी अचानक सिक्ख दहाड़ा, उर्दू में कुछ पश्तों में।
मुर्दो तक में हरकत ला दे, ताकत थी उन शब्दों में।।
'अल्ला हू अकबर !" का नारा, गले हजारों बोल उठे।
जय गाँधी, जय जन्म-भूमि के, शत-शत नारे गूँज उठे।।
उधर तिरंगे लहराते थे, पठानों के वक्ष खुले।
उधर मनोबल तुड़वाने पर, अंग्रेजों के दास तुले।।
सीटी लम्बी बजा-बजाकर, जनता को चेताया था।
गोली दागी जाएगी अब, पढ़कर हुक्म सुनाया था।।
गोरा था कप्तान जिसे अब, अग्नि-परीक्षा देनी थी।
अपने खूनी आकाओं की,, इच्छा पूरी करनी थी।।
''गढ़वाली ! बढ़ गोली दागो'', उसके मुख से जब निकला।
चन्द्रसिंह भी सिंह सरीखा आगे बढ़कर कह उछला।।
''गढ़पूतों ! मत गोली दागो'', साथ सभी थे चिल्लाए।
निर्भय उसके पग-चिह्नों पर, हुक्म गलत सब ठुकराए।।

Friday, April 8, 2011

नियंत्रित अराजकता के विरोध में


जन लोकपाल बिल के सवाल पर अन्ना हजारे की मुहिम के समर्थन और भ्रष्टाचार के विरोध में देहरादून के रचनाकारों की संस्था संवेदना के तत्वाधान में आयोजित धरना इस मायने में सफल कहा सकता है कि उसने देहरादून के तमाम समाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को ही नहीं अपितु ट्रेड यूनियस्ट के साथ साथ विधा विशेष में सक्रिय कलाकारों को भी एक मंच पर लाकर एकजुटता की ऐतिहासिक मिसाल कायम की है। भ्रष्टाचार के सवाल पर संवेदना के राजेश सकलानी ने अपना मत रखते हुए कहा, हम एक कंट्रोल एनार्किज्म के दौर में है। एक नियंत्रित किस्म की अराजकता आज हमारे चारों ओर है जिसके बीच हमारा पूरा मध्यवर्ग स्थितियों के सही और गलत का आकलन करने में भी चूक कर देता है। संवेदना की ही ओर से अन्य वक्ताओं में प्रमोद सहाय, डॉ जितेन्द्र भारती, शकुन्तला सिंह, गीता गैरोला, गुरुदीप खुराना, विद्यासागर नौटियाल एवं सुभाष पंत ने अपने अपने अंदाज में अन्ना हजारे की वर्तमान मुहिम को उसी नियंत्रिक अराजकता के प्रतिरोध में एक कदम मानते हुए इस बात को रखा कि भ्रष्टाचार का उत्स मुनाफाखौर व्यवस्था है। मुनाफे पर कब्जे की गलाकाट होड़ ही भ्रष्टाचार की जननी है।

धरने में शिरकत करने पहुँचे अर्न्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पर्यावरणविद और वयोवृद्ध सुन्दर लाल बहुगुणा की उपस्थिति इस मायने में उल्लेखनिय रही कि अपनी मद्धिम आवाज में भी आंदोलन को चरणबद्ध रूप्ा से लगातार आगे बढ़ाने की दृढ़ता से भरा उनका वक्त्वय  आंदोलनरत जनमानस को प्रेरित करने वाला रहा। केन्द्रीय कर्मचारियों की समन्वय समिति के जगदीश कुकरेती ने स्वत:स्फूर्त किस्म के वर्तमान आंदोलन में पिछलग्गूपन की तरह से हिस्सेदारी करने की बजाय एक सार्थक हस्तक्षेप करने की बात पर बल दिया। अन्य वक्ताओं में समर भण्डारी, अद्गवनी त्यागी, डॉ बुद्धिनाथ मिश्र, अतुल शर्मा, भारती पाण्डे, एस बी मेहंदीरत्ता, संजय कोठियाल आदि सभी ने अपने अपने तरह से भ्रष्टाचार के विरुद्ध जारी मुहिम को सतत आगे बढ़ाने की बात कही। धरने में डेण्ड सौ से ज्यादा लोगों ने शिरकत की।

Thursday, April 7, 2011

पूँजीवादी व्यवस्था से भ्रष्टाचार को खत्म करना असंभव है






जन लोकपाल बिल के समर्थन और भ्रष्टाचार के विरोध में देहरादून के रचनाकारों की हलचल इसम मायने में एक सार्थक हस्तक्षेप कही जा सकती है कि उसका ध्येय मात्र तात्कालिक तरह से एक सीमित अर्थ वाली जन आजादी के बजाय एक वास्तविक जन आजादी  की मुहिम और उसके लिए निरंतर संघर्ष की अवश्यम्भाविता का पक्ष प्रस्तुत कर रही है। 8 अप्रैल 2011 को देहरादून के सभी रचनाकार संवेदना की पहल पर गांधी पार्क में एकजुट होकर जन लोकपाल बिल के समर्थन में अपना पक्ष रखते हुए अपनी भूमिका को बखूबी स्पष्ट कर रहे हैं।


भ्रष्टाचार कोई आज पैदा हुआ मुद्दा नहीं है। यह कई दशकों से हमारे जीवन को नारकीय जीवन बना रहा है। गरीब और कमजोर के हक की कोई सुनवाई नहीं है। दुखद है कि हमारे समाज का मध्यवर्गीय वर्ग विरोध की शक्ति पूरी तरह से खो चुका है। क्योंकि वह बाजार के प्रभाव में इस गलत फहमी में जी रहा है कि समाज की उन्नति में कभी भी और किसी भी तरीके से फायदे की स्थिति में पहुँच सकता है। इस कारण उसने अपने सामाजिक राजनैतिक विवेक को बिल्कुल खो दिया है और लूट-खसोट की इस राजनीति में हस्तक्षेप करने का अपना नैतिक आधार भी खो दिया है। देश के प्रति भी इस वर्ग की समझ स्वार्थपूर्ण और गलत है। वह वंचितों और गरीबों के अधिकार के प्रति थोड़ा भी संवेदनशील नहीं है और स्वंय शोषण के किसी न किसी रूप का हिस्सा बन चुका है।
आज भ्रष्टाचार कोई छिपा हुआ मुद्दा नहीं है। हरेक गाँव कस्बे और शहरों में ऐसी ताकतें साफ-साफ दिखाई देती है जो समाज के विरोध में कार्यरत हैं और सत्ता पर उनका कब्जा पूरी तरह से है। वे अपनी लूट का के हिस्से को गर्व से दिखाते हैं। यह उनके लिए कोई शर्म का विषय भी नहीं।
भ्रष्टाचार की इस तंत्र को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है। आजादी से पूर्व और बाद के वर्षों में इस देश के भीतर मिश्रित अर्थव्यवस्था लागू की गई और वर्ष 1990 से इसके अन्दर नई आर्थिक औद्योगिक नीतियों का व उदारीकरण को इस देश की जनता पर लादा गया। इस पूरे कालखण्ड में मुनाफे और अतिरिक्त मूल्य को हड़पने की भीषण होड़ निरंतर जारी रही। इसके परिणाम स्वरूप भ्रष्टाचार तीव्र गति से बढ़ता रहा। इसका उदाहरण है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की आवाम ने भीषण जन आंदोलन के जरिये वर्ष 1977 में भ्रष्ट सरकार को धाराशायी कर दिया। लेकिन कालान्तर में दिखायी दिया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले लोग ही भ्रष्टाचार के दोषि पाये गये एवं भ्रष्टाचार अपने ज्यादा आक्रामक रूप में पनपने लगा।
उत्तराखण्ड के बुद्धिजीवी अन्ना हजारे की इस मुहिम का समर्थन करते हैं और जन लोकपाल बिल का समर्थन करते हैं। लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम सिर्फ बिल पास होने तक ही नहीं है क्योंकि व्यवस्था के अन्दर मुनाफा कमाने की और अतिरिक्त मूल्य की लूट जब तक समाप्त नहीं होती तब तक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ी जाने वाली कोई भी लड़ाई मुक्कमिल जीत तक नहीं पहुँच सकती। प्रगतिशील और समाजवादी व्यवस्था ही इसका एक मात्र लक्ष्य हो सकती है और उसको हासिल करने तक संघर्ष में बने रहना ही हमारा ध्येय होना चाहिए। पूँजीवादी व्यवस्था से भ्रष्टाचार को खत्म करना असंभव है।


संवेदना के सभी साथी

Friday, March 25, 2011

चंडूखाने की

हमारे देहरादून में, खास तौर पर रायपुर गांव की ओर एक मुहावरा है - चंडूखाने की। यह चंडूखाने की हर उस बात के लिए कहा जा सकता है, जिस बात का कोई ओर छोर नहीं होता, वह सच भी हो सकती है और नहीं भी। पर उसकी प्रस्तुत सच की तरह ही होती है। एक और बात- वैसे तो "चंडूखाने की" यह विशेषण जब किसी कही गयी बात को मिल रहा होता है तो उसका मतलब बहुत साफ साफ होता है कि बात में दम है। चंडूखाने की मतलब कोई ऎसी बात जो किसी बीती घटना के बारे में भी हो सकती है। पर ज्यादतर इसका संबध भविष्यवाणी के तौर पर होता है या फिर ऎसा जानिये कि इतिहास में घटी किसी घटना का वो संस्करण जिसे प्रस्तुत करने की जरूरत ही इसलिए पड़ रही है कि वह निकट भविष्य का कोई गहरा राज खोल सकती है।  मैं कई बार सोचता रहा कि यह मुहावरा देहरादून और खासतौर पर रायपुर गांव के निवासियों की जुबा में इतना आम क्यों है, जबकि आस पास भी कोई चंडू खाना मेरी जानकारी में तो नहीं  ही है।
जहां तक जानकारी है चंडूखाना नशाखोरी की एक ऎसी जगह होती है जहां गुड़्गुड़ाते नशे को पाइप के जरिये वैसे ही पिया जाता है जैसे हुक्के को। पर हुक्के में सिर्फ़ एक पाइप होता है लेकिन चंडूखाने में कई पाइप बाहर को निकले होते हैं, ( यानी एक बड़ा हुक्का) जिसे एक साथ गुड़्गुड़ाते हुए हल्के हल्के चढ़्ते नशे की स्थिति में बातों का सिलसिला जारी रहता है।  हुक्का इतिहास की सी चीज हुआ जा रहा है। हुक्के का जिक्र मैं यहां इसलिए नहीं कर रहा कि मुझे चंडूखाने की हांकनी है कि बहुत सी पुरानी चीजें, जिनकी उपस्थिति समाज के सांस्क्रतिक मिजाज का हिस्सा होती थी, बहुत तेजी से गायब हो रही है और इस तरह से उनकों अपदस्थ करते हुए जो कुछ आ रहा है वह भी एक संस्क्रति को जन्म दे रहा है। मैं तो सचमुच बताना ही चाह रहा हूं कि सामूहिकता की प्रतीक हर जरूरी चीज के गायब कर दिये जाने की एक ऎसी मुहिम चारॊं ओर है कि यह समझना मुश्किल हो जाता है कि गायब हो गई चीज क्या सचमुच अप्रसांगिक हो गई थी या कुछ ओर ही बात है।
चलिए छोड़िये---यह बताइये कि दुनिया के तेल कुओं पर किये जा रहे कब्जे की बात करें या क्रिकेट वर्ल्ड कप के बारे में बतियायें ?
वैसे खबर है कि गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टीवल में जफ़र पनाही का जिक्र हो रहा है। जफ़र पनाही तो ईरानी है, फ़िर उनके नाम के साथ लीबिया, लीबिया क्यों सुना जा रहा है। वे तो बम भी नहीं बनाते, फ़िल्म बनाते हैं- जरूर कोई चंडू खाने की उड़ा रहा है कि जफ़र पनाही, माजिदी, बामन गोबाडी और बहुत से ऎसे लोग हैं इस दुनिया में, जिन्हें जोर जबरद्स्ती किये जा रहे आक्रमणों के  प्रतिरोध का प्रतीक माना जा सकता है और दुनिया उनसे ताकत हासिल करती है। आप ही बताइए क्या इक्के दुक्के ऎसे लोगों की कार्रवाई से कुछ होता हवाता है भला। अब गोरखपुर में बेशक यह छठा फ़िल्म समारोह हो, उससे कुछ हुआ ?  चंडूखाने की उड़ाने वाले तो उड़ाते रहते हैं जी कि प्रतिरोध की कोई बड़ी मुहिम बहुत छोटी छोटी गतिविधियों की सिलसिलेवार उपस्थिति से भी जन्म लेती है।


Send e-mail

Sunday, March 13, 2011

उत्तराखण्ड में भाषा-बोली

                               

दुनिया के पैमाने पर आज कितनी ही जनभाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं और कितनी ही विलुप्त हो चुकी हैं। दुनिया पर राज करती मुद्रा और भाषा के चौतरफा हमले के चलते सब कुछ इतनी तेजी से घट रहा है कि यह भी समझना मुश्किल हो जा रहा है कि कब और कैसे हम स्वंय भी हमले के षड़यंत्र के शिकार हो चुके हैं और अनजाने में ही उसके तर्कों के साथ खड़े हैं। बिना इस बात को ठीक तरह से जाने, सिर्फ अस्मिता के सवाल के साथ न तो किसी भाषा को बचाया ही जा सकता है और न ही ऐसा भाषायी आंदोलन खड़ा किया जा सकता जिसके व्यापक विस्तार की संभावना बने।
सामाजिक व्यवस्था की विसंगतियों को समग्रता में देखे बिना और समग्रता में ही मुखालफत किये बिना जन भाषाओं के बचाव के लिए की जा रही कोई भी पहल अधूरी साबित होने वाली है। फिर यह भी देखने और समझने की बात है कि ऐसी विकट स्थितियों में भाषायी सवाल पर गैर-सरकारी संस्थानिक आंदोलनों का बाजारू फंडा क्या है ? दुनिया के विकास का मौजूदा मॉडल किस तरह का वैश्विक ढांचा खड़ा करना चाहता है, गैर-सरकारी संस्थानों की भूमिका उसके बीच किस तरह की है ? शासन प्रशासन के पूंजीवादी मॉडल के भीतर गैर-सरकारी संस्थानों की दखल जिस तरह की सामाजिक विसंगति के सवालों को अपनी परियोजनओं का हिस्सा बनाती है, उसके निहितार्थ उस समग्रता को छू पाते हैं क्या ? यह भी देखना होगा कि जनभावनाओं के निरादर वाली पूंजीवादी मॉडल की शासन प्रणाली को बचाये रखने की चालाकियों के साथ जनभाषाओं को बचाए रखना क्या आज संभव रह गया है ? गैर-सरकारी संस्थानों का ढांचा ऐसी ही शासन-प्रणालियों से पोषित होता हुआ है, यह कोई छुपी हुई बात नहीं रह गया है। उसको ही बचाये रखने के ध्येय के साथ अनुदानों की आर्थिक मद्द से चलने वाले संगठन या सदस्यों के सहयोग से चलने वाली संस्थाओं की कार्यशैली में कोई ज्यादा फर्क है नहीं। देखा जा सकता है कि जनभावनाओं का निरादर ही नहीं अपितु उसे पूरी तरह से कुचलने की शासन प्रणालियों वाला यह मॉडल न सिर्फ अपनी प्रवृत्ति में षड़यंत्रकारी है बल्कि उसके तंत्र का जाल बेहद उलझा हुआ है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन से लेकर राज्य निर्माण की पूरी प्रक्रिया के सिलसिलेवार अध्ययन से एक सिरा जो हाथ लगता है उसमें दिखायी देता है कि जनआकांक्षाओं को शिकस्त प्रतीकात्मक तरह से भी दी जा सकती है। राज्य का नाम उत्तरांचल करने की घोषणा उसका एक नमूना है। परिणाम सीधा-सीधा यह रहा कि राज्य निर्माण की प्रक्रिया अपनाये जाने के बाद भी जनता खुद को ठगा हुआ पाती है - समझना मुश्किल हो जाता है कि जनता की जीत का राज्य निर्माण हुआ है या फिर राज्य के नाम पर एक और चोर जेब सा कुछ हाथ आया है। प्रतीक के तौर पर बदले गये नाम को ही सही और एकमात्र सही नाम बताने वाले एवं चोर जेब के तंत्र को स्थापित करने के बाद नाम बदलने की प्रक्रिया को अंजाम देने वालों की चालाकी भरी चुप्पी कोई छुपी हुई बात नहीं है। बहुत से जनतांत्रिक सवालों को छुपाये रखने की यह ऐसी षड़यंत्रकारी कार्रवाई रही,  जिसमें वास्तविक संघर्ष को दरकिनार रखते हुए- मात्र अस्मिता के सवाल के साथ नाम बदलने की लड़ाइयां ही सर्वोपरी मान ली जाती रही। जन विरोधि नीतियों के प्रतिरोध की वाष्प को मात्र नाम बदलने की कार्रवाई में झोंक देने को मजबूर कर और अंतत: उसे पूरा कर दिये जाने की प्रक्रिया, एक खेल खेलने जैसा ही रहा है। ऐसे में यह सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या जन भाषाओं के बचाव की लड़ाई संविधान की आठवीं अनुसूची तक की एक निरर्थक कोशिश है या उसकी यात्रा का उन पड़ावों से गुजरना है जहां जल, जंगल, जमीन और रोजी-रोजगार के ठिकाने मौजूद हैं ? उत्तराखण्ड में आज भाषा-बोली का जो सवाल जोर पकड़ता जा रहा उसके केन्द्र में सिर्फ गढ़वाली और कुमाऊंनी को ही तरजीह दी जा रही है। यदा-कदा जौनसारी का जिक्र भी हो जा रहा है। पंजाबी, गोरखाली और पश्चिमी उत्तर-प्रदेश की वह भाषा जो राज्य की राजधानी के एक बड़े भू-भाग में मौजूद है, उसका जिक्र बहुधा छूट जा रहा है। यहां सवाल यह नहीं है कि आंदोलन के केन्द्र में सिर्फ गढ़वाली, कुमाऊंनी को ही तरजीह क्यों दी जा रही है, बल्कि उस बिन्दु को छेड़ना है जो उत्तराखण्ड में सारे मुद्दों को, मात्र अस्मिता के नाम पर दरकिनार कर देना चाहता है। जरूरत है राज्य के भीतर व्याप्त विसंगतियों और रोजी रोजगार के दूसरे मसलों की रोशनी में ही जनभाषाओं के बचाव की मुहिम जारी हो। एक बड़े फलक पर बोली जाने वाली भाषा हिन्दी, जो कि देश और दुनिया के पैमाने पर वैसे ही उपेक्षित होने की स्थिति में है जैसे किसी भी राज्य में बोली जाने वाली दूसरी अन्य भाषाएं, उत्तराखण्ड राज्य में एक हद तक काम-काज की भाषा है। यह अपने आप में उल्लेखनीय है कि राज्य के बहुभाषी चरित्र को पूरी तरह से समेटने में ज्यादा स्वीकार्य भी है।