Tuesday, May 3, 2011

आदत हो चुके ढकोसले



अपने लिखे या कहे की सत्यता पर तर्क करना, दृढ़ रहना एक बात है लेकिन उसे अन्तिम सत्य मान लेना, दूसरी बात। यह दूसरी बात ही है जो विवादों को जन्म देती है। आरोप और प्रत्यारोप का मैदान इसी की चौहद्दी में फलता फूलता है। यह बात मैं उस कविता पर बात करने के लिए कह रहा हूं जिसे पिछले दिनों अशोक ने फेस बुक पर लगाया। कवि बोधिसत्व की कविता- अब जबकि जान गया हूं।  कविता के प्रस्तुतिकरण का शीर्षक और उस के पक्ष में दर्ज अशोक की टिप्पणी के आधार पर कविता के पाठ में आ रही दितों को असहमति के रूप में दर्ज करने का मन हुआ था। इधर हिन्दी साहित्य की बिगड़ैल प्रवृति में जो खतरा दिखाई देता है, उसका शिकार हो जाने की आशंकाओं ने बहुत संभलकर लिखने की हिदायत दी थी, जिसका अक्षरस: पालन न कर पाने का खामियाजा भुगतना ही पड़ा। टिप्पणी पर रचनाकार बोधिसत्व की व्यंग्योक्ति से भरी प्रतिक्रिया का जवाब फेस बुक में दिया जाना संभव न लगा।
 

चींटियों को पिसान्न डालने से मोक्ष का कोई द्वार नहीं खुलता
(कवि अग्रज बोधिसत्व की यह कविता मैंने असुविधा पर भी लगाई थी...इस कविता में मुझे जो खास लगा वह यह कि कोई प्रगतिशीलता मनुष्यता के बिना सम्पूर्ण नहीं. जो मानवीय गुणों और व्यवहार से च्युत है वह किसी समाज के लिए आधुनिक या क्रांतिकारी नहीं हो सकता. अक्सर परम्परा को आधुनिकता के नाम पर खारिज कर दिया जाता है...लेकिन यह कविता कबीर के सार-सार को गहि रहे वाले विवेक से परम्परा के मानवीय पक्षों को बचा ले जाने की वकालत करती है)
अब जबकि जान गया हूँ
 

जबकि जान गया हूँ
चींटियों को पिसान्न डालने से मोक्ष का कोई द्वार नहीं खुलता
तो क्या चींटियों को पिसान्न डालना रोक दूँ।

जबकि जान गया हूँ
बाझिन गाय को चारा न दूँ
खूंटे से बाँध कर रखूँ या निराजल हाँक दू दो डंडा मार कर
वध करूँ मनुष्य का या पशु का
कोई नर्क नहीं कहीं
तो क्या उठा लूँ खड्ग

जबकि जान गया हूँ कि क्या गंगा क्या गोदावरी
किसी नदी में नहाने से
सूर्य को अर्ध्य देने से
पेड़ को जल चढ़ाने से
खेत में दीया जलाने से कुछ नहीं मिलना मुझे
तो गंगा में एक बार और डूब कर नहाने की अपनी इच्छा का क्या करूँ
एक बार सूर्य को जल चढ़ा दूँ तो
एक बार खेत में दिया जला दूँ तो
एक पेड़ के पैरों में एक लोटा जल ढार दूँ तो


जबकि जान गया हूँ आकाश से की गई प्रार्थना व्यर्थ है
मेघ हमारी भाषा नहीं समझते
धरती माँ नहीं
तो भी सुबह पृथ्वी पर खड़े होने के पहले अगर उसे प्रणाम कर लूँ तो...
यदि आकाश के आगे झुक जाऊँ तो
बादलों से कुछ बूँदों की याचना करूँ तो

जबकि जान गया हूँ
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ
देवता तो क्या मनुष्य भी नहीं बचे हैं अब
तो भी यदि अपनी पत्नी को देवी मान कर पूजा कर दूँ तो
अपनी माँ को जगदम्बा कह दूँ तो

जबकि जान गया हूँ
अन्न कोई देव नहीं
उसे धरती को जोत-बो कर उगाते हैं लोग
किंतु यदि कौर उठाते शीश झुका दें तो

ऐसा बहुत कुछ है
जो न जानता तो पता नहीं क्या होता
लेकिन अब जो जान गया हूँ तो
क्या करूँ..... पिता
क्या करूँ गुरुदेव
क्या करूँ देवियों और सज्जनों
अपने इस जानने का
vijay: "क्या करूँ देवियों और सज्जनों
अपने इस जानने का" yahi tou sankat hai is duniya ka ki ek vaigyanik jo jaan raha hota hai ki chhoda ja raha upgrah yadi kinhi karano se apni kasha tak nahi pahunch paayega tou zaroor koi kharabi aajane ki wajah... se hi esa hua par use chhode jane se pahle nariyal phodne ka anushthan karte hue wah apni asfalta ke prarambh ke maafiname ke liye juta hota hai. mareej ka ilaj sirf marj ki pahchan aur sahi aushdhi se ho sakta hai yah jaane wale bhi upar wale ke bharoshe ki baat karta hai, na jane kitne uddaharna hai. aapka janna unse alag kahan hai bodhi ji, dekh nahi paa raha hu. sirf kavita me kah dene bhar se mukat ho jaana ek suvidha se jyada kuchh nahi. kavita ek kharab awdharna ko bhi pusht kar ahi hai, mujhe tou yahi lag raha hai. ummeed hai itni tareefo ke beech is ek asahamati ko anytha nahi lenge. jo laga kaha.

बोधिसत्वमैं क्या कह सकता हूँ.....विजय भाई. कमप्यूटर की दूकान का उदघाटन अगरबत्ती के धुएँ और आरती के बीच करनेवाले लोग हैं समाज में। गोर्की ने लिखा है कि ढाई हजार हार्सपावर का जहाज पादरी के आशीष और पूजादि के बाद पानी पर चलाया गया। यह कैसी वैज्ञानिकता ...है। और व्यक्तिगत रूप से मैं भी जानता हूँ कि भुना हुआ गेहूँ चाहे आप कहीं भी बो दें नहीं उगेगा। अगर कविता एक खराब अवधारणा को पुष्ट करती है तो बहुत अच्छा नहीं करती। आगे कोशिश करंगे कि किसी क्रांतिकारी अवधारणा की पुष्टि करने वाली कोई कविता लिख पाऊँ। आप का काव्यास्वाद इस कविता ने बिगाड़ा यह अपपराध क्षमा करें। आगे गलती न करने की कोशिश करूँगा....
बोधिसत्व: "आगे कोशिश करंगे कि किसी क्रांतिकारी अवधारणा की पुष्टि करने वाली कोई कविता लिख पाऊँ।" 
vijay:  jwab shraratpurna hai bodhi bhai, lagta hai dostana rai aapko pasand na aayi. Khair.
बोधिसत्व: सचमुच अच्छा लगा विजय भाई लेकिन खराब अवधारणा को पुष्ट करने वाली बात को थोड़ा सा समझा दें....मुझे सचमुच नहीं समझ आया....
मैं राह देख रहा हूँ...देखूँगा.....बिना नाराज हुए....
vijay:  kya zaroori hai abhi hi darj karu ? yadi kahenge tou vistar se likhunga
kavita ko save kiye le raha hu, dusri any rachnao par jinse asahmati ubharti rahi hai, baat karte hue jikar karne ki koshish karunga, aalekh aapko bhi mail kar dunga. kab likh payunga abhi nahi kah sakta, haa likhunga zaroor

 

बोधिसत्व: अगली गलती करूँ कि उसके पहले कुछ समझा दो भाई...यहाँ कुछ संक्षेप में ही कह दो...कौन जीता है तेरी जुल्फ सके सर होने तक...
vijay: "सूर्य को अर्ध्य देने से
पेड़ को जल चढ़ाने से
खेत में दीया जलाने से कुछ नहीं मिलना मुझे...

तो गंगा में एक बार और डूब कर नहाने की अपनी इच्छा का क्या करूँ
एक बार सूर्य को जल चढ़ा दूँ तो
एक बार खेत में दिया जला दूँ तो
एक पेड़ के पैरों में एक लोटा जल ढार दूँ तो" is tou ke baad ka rth
hai tou kya ho jayega, yahi na. yahi kya ho jayega tou wahan bhi hai ki "कमप्यूटर की दूकान का उदघाटन अगरबत्ती के धुएँ और आरती के बीच करनेवाले लोग हैं समाज में।" kahir aapke wyangy ko mai kinhi any artho me nahi le raha hu . wyangy se parhej nahi yadi usme wyaktigat aham aur dusre ko dhool chatane ki sweekarokti na ho tou. aapka wyangy dhool chatata hua. afsos hai mujhe jo tippni dene ki himakat ki. yah aap akele ki dikkat nahi hai bodhi bhai. apr mera aasay kabhi bhi vivad paida karne ka nahi raha hai. aapko lutf aaye tou bhi ab aage mujhe yahan kahna uchit nahi lag raha.
बोधिसत्व: मैं आपकी पहली बात से सहमत हूँ....वह व्यंग नहीं आपके कथन का समर्थन था....अगर आप कुछ न कहना चाहें तो बात अलग है....उसके लिए आप कोई भी राह चुन सकते हैं....

''मात्र आदत हो चुके ढकोसलों में लगभग विलुप्त हो चुकी भावना का सतर्क शोध करती" यह कविता जिस बिन्दु से शुरू होती है वहां स्पष्ट एक चुनौति है। एक ऐसी चुनौति जिसमें हुंकार है, गर्जना है और दम्भ। ये तीनों क्यों हो ? गर्वोक्ति से भरी इन पंक्तियों के उत्स क्या हैं ? उनके निहितार्थ क्या हैं ? ये कुछ सवाल हैं जिनके दायरे में ही पाठ को खोला जाना संभव हो सकता है।

जबकि जान गया हूं
चीटिंयों को पिसान्न डालने से मोक्ष का द्वार नहीं खुलता
तो क्या चीटिंयों को पिसान्न डालना रोक दूं।


कविता के उत्स का जो अपना तर्क शास्त्र है, स्पष्ट है कि जो कुछ आदत हो चुके ढकोसलों में किया जा रहा था, उसकी निरर्थकता को जान भी लिया है तो भी उसे दुनिया के बदलाव की किसी भी गतिविधि को आगे बढ़ाते रहने में क्या फर्क पड़ने वाला है। वैसे "क्या" यहां प्रश्न के रूप में नदारद है, बल्कि कहें कि निरर्थक कार्रवाइयों को जारी रखते हुए ही गतिविधियों का आगे बढ़ाते रहने की सैद्धान्तिकी की जिद्द है। कविता में जिस पड़ने वाले फर्क की बात हो रही है, संभवत: किन्हीं खास सकारात्मक स्थितियों की ओर इशारा जैसा ही कुछ होना चाहिए, ऐसा मान रहा हूं। कविता के प्रस्तोता अशोक की टिप्पणी भी ऐसे ही अर्थ तक पहुंचने की राह दिखाती है। बावजूद इसके कविता में तर्क की जगह एक कुतर्क मुझे क्यों दिखायी दे रहा है ? यदि कुतर्क न भी कहूं तो जो तर्क है उसमें दम्भ, हुंकार और गर्जना क्यों सुनायी दे रही है ? यानी एक ऐसा तर्क जो किसी तरह के अन्य तर्क की गुजांइश से परे मानने की अवधारणा को साथ लिए चलता है। तर्क वही जो अक्सर सुनायी देते हैं कि क्या फर्क पड़ता है यदि एक मंदिर और बन जाये तो। ईश्वर तरंग हैं और मंदिर रेडियो स्टेशन। ब्रहमाण्ड रूपी ब्रॉड कास्ट स्टेशन से छूटने वाली तरंगे हर रेडियों में उतर जाएंगी। बनाओ, बनाओ, खूब बनाओ मन्दिर। लड़ो उन सब खाली पड़ी जगहों के लिए, मचाओ मार-काट, जो मानवता की जरूरत के लिए भी इसलिए उपयोग में नहीं दी जा सकती कि उस पर किसी न किसी पुरखे का अधिकार है।

यह कहना उपयुक्त लग रहा है कि सिद्धान्त और व्यवहार की अस्पष्टता के चलते ही हावी होते मनोगतवाद से कवि संचालित दिखाई दे रहा है। स्पष्ट है कि मनोगतवाद जब हावी होने लगता है तो स्थितियों का समूचित मूल्यांकन इतना भ्रामक होता है कि दिखाई दे रही स्थितियों से निपटने के लिए कर्ता अनायास ही व्यवहार की उस चपेट में होता है जिसको सिद्धान्त: अस्वीकारे हुए हो। यानी सिद्धान्त और व्यवहार की भिन्नता में प्रतिक्रान्ति का भाष्य हो जाना एक प्रवृत्ति हो जाती है। बेशक क्रान्ति को बेहद स्थूल अर्थों में इस्तेमाल करते हुए कवि बोधिसत्व ने प्रतिक्रिया के जवाब में उस व्यंग्यात्मकता का सहारा लिया हो जिसमें क्रान्ति का मखौल उड़ाया जाना निहित हो, पर कविता के भाष्य में निहित शब्द "क्रान्ति" तो वहां मौजूद ही है। हां सिद्धान्त और व्यवहार की भिन्नता में "प्रतिक्रान्ति" का वाहक हो जाना उसकी स्वाभाविकता है। कविता में मौजूद गड़बड़ी जिसको इशारे में खराब अवधारणा को पुष्ट करती हुई है, कहकर, मैंने सिर्फ एक छोटी सी टिप्पणी भर करनी चाही थी। आशय बिल्कुल स्पष्ट था कि कविता के मूल विचार से सहमति नहीं बन रही है।

इस कविता पर बात करने के लिए एक सवाल मन में उठ रहा है कि रचनाकार का भौतिक जीवन और सास्कृतिक जीवन क्यों एक नहीं होना चाहिए ? रचनाकार के जीवन की सम्पूर्ण पदचाप क्यों उसकी रचनाओं में सुनायी नहीं देनी चाहिए ?
व्यवहार ज्ञान से बढ़कर है। यह मेरा कथन नहीं महान विचारक लेनिन कह गये। क्योंकि मानते थे कि उसमें न सिर्फ सर्वव्यापकता का गुण होता है बल्कि प्रत्यक्ष वास्तविकता का गुण भी होता है। प्रत्यक्ष वास्तविकता की व्याख्या के लिए आस-पास के आन्तरिक अन्तर्विरोधों की पड़ताल जरूरी होती है। तभी देखी-जानी स्थितियों से प्राप्त ज्ञान से उस सिद्धान्त का प्रतिपादन हो सकता है जो उन्न्त से उन्न्त की ओर अग्रसर होता है। व्यवहार और सिद्धान्त का संक्षिप्तिकरण या एकमेव हो जाना इससे अलग नहीं हो सकता। बोधिसत्व की कविता में वे अपने अपने जुदा रास्तों के साथ है।

जबकि जान गया हूं
जहां स्त्रियों की पूजा होती है वहां
देवता तो क्या मनुष्य भी नहीं बचे हैं अब
तो भी यदि पत्नी को देवी मान कर पूजा कर दूं तो
अपनी मां को जगदम्बा कह दूं तो

बहुत स्पष्ट श्ब्दों में जो स्वीकारोक्ति है वह सिद्धान्त के साथ है, जिसमें अभी तक के ज्ञान विज्ञान से बनी समझ के प्रति कोई संदेह नहीं लेकिन व्यवहार में उसके लागू करने के सवाल पर जो द्विविधा और असमंजस है वह एक तर्क बन जा रहा है- यदि ऐसा कर दूं तो
और इस "तो" से जो ध्वनी उठती है वह एक चुनौति भी है कि तो क्या हो जाएगा ?

यहां कहना पड़ रहा है कि अप्रत्यक्ष अनुभव से प्राप्त ज्ञान व्यवहारिक दिक्कतों का कारण हो जाता है। ज्ञान प्रत्यक्ष का दर्शन है। प्रत्यक्ष ही रूप की समस्या को हल करने में सहायक होता है और विषय वस्तु का सवाल सिद्धान्त से हल किया जा सकता है। लेकिन इन दोनों समस्याओं को व्यवहार से अलग कतई हल नहीं किया जा सकता। पर कविता व्यवहार के सवाल पर ही एक गलत समझ के साथ हो जाने की चुनौतियों को रख रही है। स्पष्ट है कि यह दम्भ भरी चुनौति अप्रत्यक्ष ज्ञान से ही हासिल हुई समझ का नमूना है। यह अप्रत्यक्षता कहां से आती है ? तय है कि इसका उत्स फेशन में मौजूद प्रगतिशीलता के मानक हैं जबकि भीतर जड़ जमायी संकीर्णता अवचेतन के बहाव में आ जाती है। यही कारण है कि उसका बहुत प्रकट रूप वहां ज्यादा साफ दिख रहा होता है जब रचनाकार के निजी जीवन और रचना से उदघाटित होते सत्य स्पष्ट होते हैं और साथ-साथ दिखाई देते हैं। अप्रत्यक्ष ज्ञान की यह दिक्कत ही है कि जब चाहे उस पर यकीन किया जा सकता है और जब मन हो भाषायी घुमेर देकर उस से हटा जा सकता है। विचलन की इस अवस्था को कई बार व्ववहार में लचीलेपन की संज्ञा वाली शब्दावली कह दिया जा रहा होता है। यहां लचीलेपन की वह प्राकृतिक व्याख्या अट नहीं पा रही होती है जो शहतूत की टहनी-सा मजबूती वाला वास्तविक लचीलापन होता है। व्यवहार में वास्तविक लचीलापन सिद्धान्त पर दृढ़ रहते हुए ही संभव हो सकता है। कला में वही यथार्थ को परिभाषित करता है, वहां यथार्थ की पूर्णता के लिए यथार्थ की जरूरत होती है। जोखिम उठाने की ललक होती है। विश्व के रूपान्तर में सक्रिय सहयोग का निर्धारण होता है। महज ज्ञान प्राप्त कर लेने और अमल में लाये बिना उसका जाप करते रहने से दुनिया के रूपान्तर की प्रक्रिया का एक भी कदम नहीं बढ़ सकता।
क्रांति सिर्फ मारकाट की कार्रवाइयां नहीं, जैसा कि बोधिसत्व जी की टिप्पणी इशारा करती है। सिद्धान्त और व्यवहार की सही समझ के साथ चरण बद्ध प्रक्रिया में अपनी निश्चित भूमिका के साथ मौजूद रहना भी क्रांति का हिस्सा हो जाना होता है। एक रचनाकार की भूमिका उसकी रचना के सत्य से ही निर्धारित होती है। सत्य को लागू करने में आ रही दितों को बेचारगियों की तरह जाहिर करने से सत्य कहीं अंधेरे कोनों में खो जाता है। व्यवहारिक दिक्कतों को ठीक से समझकर, लागू करने की अस्पष्टता को, बहस का हिस्सा बना देना कहीं ज्यादा सार्थक है। रही बात सामंती मूल्यों की, दक्षिपंथी मान्यताओं की, तो दुनिया के कई हिस्सों में आगे बढ़ चुके समाजों के अनुभव आज हमारे सामने हैं। उनकी सत्यता के सवाल पर संदेह न रहा है। उन्हें फिर-फिर परखने की कार्रवाइयां एक झूठ को स्थापित करने की चालाक कोशिशें हैं। मनोगत कारणों से उपजा एकांगीपन। वस्तुगत यथार्थ के आगे बढ़ जाने की स्थितियों से पिछड़ जाने पर ही कटटरपंथी मान्यताएं लुभाने लगती हैं। रचना के सत्य और जीवन के सत्य को अलग-अलग मानने की हठधर्मिता व्यवहार का हिस्सा हो जा रही होती है। रचना में कलावाद को इससे अलग नहीं माना जा सकता।

समाज को बदलने की प्रक्रिया और उसे बेहतर देखने की उम्मीदों भरी हमारी रचनाओं की पड़ताल की जाए तो देखेंगे कि उसकी सीमाएं वैज्ञानिकता और तकनालॉजी की सीमा भर नहीं है, बल्कि वस्तुगत यथार्थ से हमारे आत्म साक्षात्कार की श्रेणीबद्धता उसका एक कारण है। सामाजिक बदलाव में दर्शन की विशिष्टता आध्यात्मिक और भौतिकवादी अन्तर्विरोधों पर निर्भर होती है। विशिष्टता के इस पहलू के आधार पर ही दोनों की परस्पर निर्भरता तथा विरोधपूर्ण समग्र मूल्यांकन पर ही रचनात्मक कृति की वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार होती है। अन्तर्विरोधों की विशिष्टता और जटिलता पर विचार किए बगैर रचना के किसी एक धुर छोर तक पेंग मार जाने की अवस्था से बचा नहीं जा सकता। भाववादी रचनाओं के साथ यही दिक्कत होती है कि विशिष्टता से बचकर वे नितांत निजीपन की स्थितियों को सर्वोपरी मान लेने के साथ होती हैं। व्यवहार में एकांगीपन भी इन्हीं स्थितियों में जन्म लेता है। सिर्फ परम्परा और आधुनिकता का जिक्र भर कर देने से अन्तर्विरोधों की विशिष्टता उभर नहीं पाती है। मनोगत आग्रहों से मुक्त होकर ठोस धरातल पर टिका हमारा आत्म खुद की आलोचना का आधार दे सकता है। आत्म से साक्षात्कार की उन्नत अवस्था में ही स्वंय की रचना पर आलोचनात्मक टिप्पणी हमें तिलमनाने की बजाय फिर से पुनर्विचार करने का अवसर दे सकती है। तर्क की जमीन पर खड़े होकर तभी हम दोस्ताना संघर्ष के रास्ते को चुन सकते हैं।
 

विजय गौड़

ये तेरा कलाम गालिब

हुए हम जो मर के रुस्वा, हुए क्यों गर्के दरिया
कहीं मजार होता कभी जनाजा उठता

Sunday, May 1, 2011

पूछो,सवाल पूछो

 भ्रष्टाचार के खिलाफ़ पिछले दिनों शुरू हुई बहस अभी थमी नहीं है। अलिखित कानूनी स्वीकार्यता का दर्जा पा चुका भ्रष्टाचार संस्थागत रूप में है। न्याय की चौहद्दी के भीतर घुसते हुए, अनाप-शनाप रूप से लिखे एम.आर.पी मूल्यों पर माल को खरीदते हुए, बड़े-बड़े होर्डिंग टांगकर सेल सेल के हल्ला मचाऊ तरीके से माल को बेचते हुए, और भी न जाने कितने ही दूसरे रूपों में भ्रष्टताभरी कार्यवाहियों की स्वीकारोक्ति चारों ओर है। कानून के किसी दायरे में उसे समेटने की कोई भी कोशिश उसी मध्यवर्गीय मानसिकता के लिए, जो बहुत जोर शोर से भ्रष्टाचार की मुखालफ़त करने को खड़ी है,  नाक भौं सिकोड़ने वाली है।  भ्रष्टाचार कोई नैतिक व्यवहार का मामला नहीं एक राजनैतिक षड़्यंत्र है। बिना राजनैतिक सवाल उठाये उससे मुक्कमिल तौर पर टकराया नहीं जा सकता। लोकपाल विधेयक हो चाहे कोई भी दूसरा कानून जब तक उसके दायरे में ऎसे सवाल समेटने की कोशिश नहीं होती है तो तय है जीवन को दूभर बना देने वाला घटनाक्रम और ज्यादा चुस्त और आक्रामक होगा।
मेहनतकश आवाम की आवाज के दिन, मई दिवस के अवसर पर लिखा यह गीत जिसे अभी अभी मेरे मित्र अशोक कुमार पाण्डे ने लिखने के तुरन्त बाद  सिर्फ पढ़ने को भेजा था, ऎसे ही सवालों को उठा रहा है। लड़ने की ललक के साथ और कामयाबी की उम्मीदों से भरी आवाज में ऎसे सवालों को उठाने की कोशिश करने के लिए गीत की पंक्ति को दोहरायें- पूछो /सवाल पूछो /न चुप रहो /अब सवाल पूछो 

पूछो
सवाल पूछो 
न चुप रहो 
अब सवाल पूछो 

ये पूछो भूख आज भी है बस्तियों में क्यूं बसी?
ये पूछो कर रहे किसान किस लिए यूं खुदकशी 
ये पूछो क्या हुए वो वादे  रोज़गार के सभी?
ये क्या हुआ कि जिंदगी बाज़ार में यूं बिक रही.

बहुत हुआ
बहुत सहा 
न अब सहो ये बेबसी 

पूछो...

ये पूछो सारे मुल्क में आग सी है क्यूं लगी?
ये पूछो जाति-धर्म की दीवार क्यूं नहीं गिरी?
ये पूछो खून पी रहा क्यूं आदमी का आदमी?
ये क्या हुआ सिमट गयी क्यूं महलों ही में चांदनी?

कहाँ है वो 
कौन है 
कि जिसने लूट ली खुशी 

पूछो 

जो आग सीने में लगी वो कब तलाक दबाओगे 
न गर मिला जवाब फिर भी  सच तो जान जाओगे
जागोगे खुद जो नींद से तो औरों को जगाओगे 
चलो हमारे साथ तनहा कुछ भी कर न पाओगे 

कठिन तो 
राह है बहुत 
पर रौशनी भी है यहीं 

पूछो 

Thursday, April 28, 2011

तेहरान की सड़क पर


पिछले दिनों युवा हाना मखमलबाफ की एक फ़िल्म देखने का अवसर मिला- Budha collapsed out of shame। फ़िल्म की कहानी एक  रूपक कथा है। तालीबानी आक्रामकता को झेलने के बाद टूटी बोध गुफाओं में जीवन बीताते लोगों का जीवन और वहां के बच्चों के लिए तालीबानी आक्रमण भी कैसे एक खेल हो जाता है।  हाना की फ़िल्म पर विस्तार से आगे पढ़ियेगा, अभी तो हमारे मित्र यादवेन्द्र जी मोहसिन मखमलबाफ (Mohsen Makhmalbaf)
के बहाने आपसे मुखातिब हैं।  




मोहसिन मखमलबाफ इरान के बेहद चर्चित और विवादास्पद फ़िल्मकार हैं जिनकी ज्यादातर फिल्मों को विश्व स्तर पर प्रशंसित और पुरस्कृत किया गया.इरान की कट्टरपंथी सरकार ने उनकी फिल्मों की राह में तरह तरह से अड़ंगे लगाये,उन्हें प्रताड़ित किया...इन सब से तंग आकर उन्होंने देश छोड़ने का फैसला कर लिया.अब वे अमेरिका में रह कर एक फिल्म स्कूल चलाते हैं जिसमें उनके अलावा उनकी पत्नी,बेटियाँ और बेटा सब पढ़ते पढ़ाते हैं...अपनी अपनी तरह से यह पूरा परिवार ऎसे विषयों पर फ़िल्में बनाता है जो स्वस्थ बहस की मांग करते हैं.
पिछले राष्ट्रपति चुनाव में की गयी कथित धांधलियों के मुखर विरोधी रहे हैं मखमलबाफ.
उन्होंने कई साल पहले एक स्क्रिप्ट लिखी जिसका शीर्षक था एमनेसिया (स्मृति लोप).जैसा कि इरान का कानून है,उन्हें अपनी स्क्रिप्ट सरकार को अनुमति लेने के लिए जमा करानी पड़ी.इसमें इरान की इस्लामी क्रांति के सूत्रधार अयातोल्ला खोमेनी के एक अत्यंत निकट के सलाहकार (जो दृष्टिहीन थे, पर सांस्कृतिक मुद्दों पर अयातोल्ला के सबसे विश्वस्त परामर्शदाता और नीतिकार थे) के चरित्र को विकसित किया गया है जो देखे बगैर इरानी फिल्मकारों की फिल्मों की काट छाँट किया करता है...जैसा अनुमान था,इरान की सरकार ने अपने ही एक बड़े कारिंदे का मजाक बनाए वाली इस मुखर राजनैतिक विचारों से भरी फिल्म को बनाने की इजाज़त नहीं दी.संकीर्ण और तंग नजरिये से कलाकारों की वैचारिक और रचनात्मक क्रियाशीलता को कुचलने के इस निर्मम तानाशाही तंत्र की तस्वीर प्रस्तुत करने वाली इस फिल्म स्क्रिप्ट के कुछ सम्पादित अंश यहाँ प्रस्तुत हैं...साथी पाठक मेरी इस राय से इत्तेफाक करेंगे कि भूगोल बदल जाने से मानवीय बर्ताव और मनोविज्ञान नहीं बदलता...दुनिया के किसी भी कोने में जबतक बंदिशों और दमन की राज सत्ता रहेगी तो उसके प्रतिकार के लिए आगे बढ़ने वाले दिल दिमाग और हौसले भी रहेंगे...अरब देशों में कोई भी कीमत चुका कर उठाई जा रही आज़ादी की माँग से ज्यादा समीचीन और क्या उदाहरण होंगे :
तेहरान की सड़क पर दौड़ती हुई कार के अंदर:
अंधा आदमी: वहाँ तक पहुँचने में कितना समय लग जायेगा?
ड्राइवर: बहुत अधिक भीड़ है...कम से कम एक घंटा तो लगेगा ही.
अं.आ. : उनलोगों ने आफिस से रास्ते में सुनने के लिए कुछ भेजा है?
ड्रा : हाँ,म्यूजिक का एक टेप है.
ड्राइवर कार स्टीरियो स्टार्ट करता है.संगीत की स्वर लहरियां हवा में गूंजने लगती हैं..एक स्त्री का स्वर इनमें सबसे मुखर होकर उभरता है.
.अं.आ.: तुम्हारी गाड़ी में कितने स्पीकर्स हैं?
ड्रा: बारह.
अं.आ: इसमें से औरत की आवाज निकल दो.हमारा मजहब इसकी इजाज़त नहीं देता.
ड्राइवर एक बटन दबाता है और बज रहे संगीत से स्त्री स्वर गायब हो जाता है.अंधा आदमी थोड़ी देर तक बज रहे संगीत को खूब ध्यान लगा कर सुनता है.गौर करने पर उसको मालूम होता है कि मुख्य स्वर को संगत देने वाले समवेत स्वर में भी किसी स्त्री की आवाज शामिल है.
अं.आ: संगत करने वाली ध्वनि भी निकल दो...इसमें औरत की आवाज बहुत भड़कीली है.
ड्राइवर दूसरा बटन दबाता है और संगत करने वाले स्वर भी गायब हो जाते हैं.अब जो संगीत बजता है उसमें किसी व्यक्ति की आवाज शामिल नहीं है.
अं.आ: जरा स्पीकर का वाल्यूम तेज करो...मुझे तार वाले साजों की आवाज ठीक से सुननी है.
ड्राइवर वाल्यूम बढ़ाता है तो तार वाले साजों की आवाज साफ़ सुनाई देने लगती है.इनमें सबसे मुख्य स्वर कैचक का आता है.
अं.आ: इन तार वाले साजों की आवाज भी ख़तम कर दो.कहते हैं कि इस जनम में जो संगीत सुनता है वो जन्नत में जाने के बाद इनसे महरूम हो जाता है.
ड्राइवर एक बटन दबाता है और तार वाले साजों की आवाज भी गायब हो जाती है.अब सिर्फ म्यूजिक बेस या ड्रम बीट्स सुनाई पड़ते हैं.इसको सुन कर ऐसा लगता है जैसे युद्ध के लिए ललकारा जा रहा हो.
ड्रा: सर,जन्नत में संगीत होता है क्या?
अं.आ: जब मंद मंद बयार पेड़ों की पत्तियों को छू कर निकलती है तो ईश्वरीय संगीत का जन्म होता है.
ड्रा: अब जो संगीत बज रहा है इसके बारे में आपका क्या ख्याल है सर?
अं.आ; सिर्फ इसी संगीत की कानून इजाज़त देता है ..पर यदि इस से भी तौबा कर ली जाये तो खुदा ज्यादा खुश होगा.
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सेंसर आफिस के अंदर का दृष्य:

अं.आ.कई बड़े बड़े हाल पार कर के सेंसर आफिस के अंदर दाखिल होता है.
अं.आ: दोस्तों,सलाम वाले कुम.
दूसरा: हमेशा समय पर हाजिर रहने वाले जनाब,आपको भी वाले कुम सलाम.
अं.आ: माफ़ करना,मेरी बीवी बीमार थी और मुझे किसी को उसके पास रहने के लिए छोड़ कर आने के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ा.
प्रोजेक्शनिस्ट; मैं अपना काम शुरू करूँ सर?
अं.आ: बिलकुल शुरू करो..आगे बढ़ो.
कमरे में अँधेरा पसर जाता है और प्रोजेक्शन लाइट चारों ओर घूमते हुए वहाँ मौजूद लोगों के चेहरे पर भी बारी बारी से पड़ती है.प्रो.अपना काम शुरू करता है,अं.आ. के पास पहुँच कर स्क्रीन पर चल रही गतिविधियों के बारे में उसको बताने लगता है.
प्रो: एक औरत घर से बाहर कदम निकालती है..फिर अपने चेहरे पर एक मुखौटा लगा लेती है.
दूसरा: यह एक प्रतीकात्मक सीन है...डाइरेक्टर यह बतलाने की कोशिश कर रहा है कि इस समाज में आप साँस भी नहीं ले सकते.
प्रो: औरत आगे बढती जाती है..एक ऐसी गली में पहुँच जाती है जहाँ धुंआ ही धुंआ भरा हुआ है....हाथ के इशारे से वो एक टैक्सी वाले को बुलाती है.
अं.आ: किस दिशा में उठता है उसका हाथ?..बाँये या दाँये?
प्रो: दाँयी दिशा में सर.
दूसरा: नहीं भाई,वो बाँयी दिशा में इशारा कर रही है...गौर से देखो,उसका दाहिना हाथ हमारी बाँयी ओर पड़ता है.
अं.आ: जाहिर है डाइरेक्टर कहना चाहता है कि समाज का यदि उद्धार करना है तो हमें बाँयी तरफ रुख करना पड़ेगा...इस सीन को काट कर अलग करो.
प्रो: आस पास धुंआ इतना घना हो जाता है कि औरत लड़खड़ा कर गिर पड़ती है.. एक एम्बुलेंस आती है...दो नर्सें उनसे निकल कर बाहर आती हैं...दोनों के चेहरे पर मुखौटा..वे उस औरत को उठा कर एम्बुलेंस में डालती हैं.
दूसरा: डाइरेक्टर यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि हम उदारवादियों को जेल तक ले जाने के लिए एम्बुलेंस का उपयोग करते हैं.
अं.आ: नहीं नहीं...वह कहना चाहता है कि हमने सूप में इतना नामक झोंक दिया है कि रसोइया भी अब इस ज्यादती की शिकायत दर्ज करने लगा है.नर्सों ने मुखौटे क्यों लगा रखे हैं? इस लिए कि अब हुकूमत को भी इसका आभास होने लगा है कि हमारे समाज में सहज ढंग से साँस लेने की जगह अब नहीं बची है... हमें यह सीन भी काट कर अलग करना होगा.
दूसरा: इस सीन को भी काट कर अलग करना होगा...क्या कह रहें हैं जनाब आप?..आप कहना क्या चाहते हैं?...जनाब,इस पूरी फिल्म पर पाबन्दी लगायी जानी चाहिए...और डाइरेक्टर को जेल के अंदर ठूँस देना चाहिए..
अं.आ: ऐसी हड़बड़ी मत करो भाई...इसपर थोड़ा और गौर फरमा लेते हैं.
इसी बीच फोन की घंटी बजने लगती है,प्रोजेक्शनिस्ट फोन उठाता है..धीमी आवाज में कुछ बात करता है और अं.आ. को फोन थमा देता है.
प्रो; फोन आपके लिए है सर.
अं.आ: अच्छा.. तो आप हैं?...अभी?..मैं तो इस वक्त फिल्मों को रिव्यू कर रहा हूँ...क्या बहुत जरुरी है?..अच्छा,मैं आता हूँ.(वह उठ कर चलने लगता है)...माफ़ करना दोस्तों,मुझे इसी वक्त यहाँ से जाना पड़ेगा.

चयन और प्रस्तुति: यादवेन्द्र मो. 9411100294

Friday, April 22, 2011

पेशावर काण्ड

भारतीय इतिहास में पेशावर काण्ड एक ऐसी घटना है जिसने आजादी के संघर्ष की उस बानगी को पेश किया जिसमें देश प्रेम का वास्तविक मतलब देश के नागरिकों से प्रेम के रूप में परिभाषित हुआ है। पेशावर के इस सैनिक विद्रोह की गाथा है कि चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज की एक टुकड़ी ने निहत्थे नागरिकों पर हथियार उठाने से इंकार कर दिया था। 23 अप्रैल 1930 को घटी इस घटना का सुंदर काव्यात्मक जिक्र कथाकार और इतिहास के अध्येता शोभा राम शर्मा ने भी किया है। चन्द्र सिंह गढ़वाली के जीवन को केन्द्र में रखकर उन्होंने एक महाकाव्य लिखा है जो अभी तक अप्रकाशित है। इस अवसर पर महाकाव्य का वह अंश जिसमें पेशावर विद्रोह की पृष्ठभूमि और उसके लिए हुई आरम्भिक तैयारियां पुनसर्जित हुई है, यहां प्रस्तुत करते हुए वीर सिपाही चन्द्र सिंह गढ़वाली को याद करने की कोशिश की जा रही है।

अप्रैल 1930- पेशावर में जनता पर नहीं चली गोली। अंग्रेजी हुकूमत की खिलाफत फौज की एक टुकड़ी ने की, नेता कौन था? चन्द्र सिंह। संवत 1948(1891 ई।) पौष शुक्ल 15 को रौणसेरा गांव में पैदा होने वाला चन्द्र सिंह। जिसके बाप का बाप कमली चौहान, उसका बाप बनिया चौहान, उसका बाप गल्लू चौहान और उसका बाप दास चौहान। अपनी छ: पुश्तों का इतिहास जानने वाला- चन्द्र सिंह।

हरियाली से ढके ऊंचे पहाड़ों की सौम्यता, बुरांश का सुर्ख लाल रंग जिसके भीतर समाया रहा। प्रकृति के अनुपम सौंदर्य ने जिसके व्यक्तित्व को तराशा। अपने पूर्वजों के नाम के आगे लिखे दास शब्द का अर्थ क्या रहा, मालूम नहीं, पर चन्द्र सिंह जानता था- दासता के चिन्ह को उसके पिता जाथली सिंह ने ही उतार फेंका। 18वीं-19वीं सदी में दास प्रथा गढ़वाल और पूरे देश में रही। जो दास नहीं थे, वे भी अपने मालिकोंे-सामन्तों या राजाओं के सामने बहुत नीचे स्थिति रखते थे और उनका जीवन भी अर्द्ध दास जैसा ही था।
वि.गौ.

पंचवटी में प्राप्त प्रशिक्षण, शिक्षक बनकर आया था।
उसकी सैनिक प्रतिभा से भी, असर वहाँ पर छापा था।।
मार्टिन था कप्तान उसी ने, ट्रेनिंग का खुद भार दिया।
अभी निशानेबाजी पर वह, भाषण ही दे पाया था।।
गोरा अफसर आकर बोला-''आज तुम्हें कुछ बतलाऊँ।
गढ़वाली क्यों पेशावर में, भेद यही सब समझाऊँ।।
मुस्लिम भारी बहुमत में हैं, हिन्दू रहते आफत में।
धन-दौलत क्या औरत लूटें, इज्जत सारी साँसत में।।
दूकानों पर धरना देते, लूट न पाते जब उनको।
तुमको सारी बदमाशी का, सबक सिखाना है इनको।।
इसीलिए तो हिन्दू पलटन, सोच-समझकर भेजी है।
शायद कल बाजार चलोगे, जहाँ निपटना है तुमको।।''
इस पर कोई उठकर बोला-''हमको कुछ पहचान नहीं।
हिन्दू-मुस्लिम एक सरीखे, रंग वही परिधान वही।।''
''जो भी धरना देता होगा, याद रखो मुस्लिम होगा।
फिर भी अफसर साथ चलेंगे, पास तुम्हारे हम होगा।।''
फूट बढ़ाओ राज करो की, धूर्त चमक थी आँखों में।
धूल मगर वह झोंक न पाया, भड़ की निर्मल आँखों में।।
इन बातों की समझ उसे थी, आया नहीं छलावे में।
संकट में क्या करना होगा, भूला नहीं भुलावे में।।
गोरा तनकर चला गया तो, रोक न पाया वह मन को।
बोला-''यदि कुछ सुनना चाहो, राज बता दूँ सब तुमको।।
कहीं किसी से मत कह देना, अपनी भी लाचारी है।
हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न उठाना, साहब की मारी है।।
झगड़ा शासित-शासक का है, प्रश्न खड़ा आजादी का।
बीज इन्होंने बो डाला है, जन-जन की बर्बादी का।।
सात समुन्दर पार निवासी, बना हमारा स्वामी है।
चूस रहा जो खून हमारा, शोषक जोंक कुनामी है।।
यहाँ निकलसन1 लाइन है या, हरिसिंह नलवा लाइन है।
बैर-विरोध न मिटन पाए, सोची-समझी लाइन है।।
देश-धरम पर मिटने वाले, इनको गहरे दुश्मन हैं।
झूठे-सच्चे केस चलाकर, नरक बनाते जीवन हैं।।
अपने घ्ार में बन्द अभागे, आपस में हम लड़ते हैं।
खुलकर नाच नचाया जात, कठपुतले हम पिटते हैं।।
आज चुनौती दे डाली तो, हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न उठा।
हमें चलानी होगी गोली, सोच-समझ तो आँख उठा।।
सिर पर बाँधे कफन खड़े हैं, आजादी के मतवाले।
गद्दारों में गिनती होगी, मूढ़ रुकावट जो डाले।।
गोली दागो, अच्छा होगा, गोली खाकर मर जाओ।
खून निहत्थे जन का होगा, हाथ न अपने रंग जाओ।।
कुल का नाम कलंकित करना, कहो कहाँ की नीति भली।
नहीं नरक में ठाँव मिलेगा, हमसे गोली अगर चली।।
दुनिया को दिखलादो यारो, टुकड़ों के हम दास नहीं।
समझ हमें भी दुनिया की है, चरते केवल घ्ाास नहीं।।
देश-द्रोह फिर बन्धु हनन का, पाप कमाना लानत है।
उदर-दरी तक सीमित रहकर, जीवित रहना लानत है।।
अंग्रेजों का नमक नहीं है, जिस पर अपना पेट पले।
नमक-हलाली किसकी यारों, देश हमारा भारत है।।



जाकर देखा भीड़ खड़ी थी, सम्मुख सैनिक डटे हुए।
चित्र लिखे से सिर ही सिर थे, पथ के पथ ज्यों पटे हुए।।
पूरी पलटन आ धमकी फिर, भीत न लेकिन भीड़ घ्ानी।
गगनांगन पर यान उड़ाए, तोप शहर की ओर तनी।।
अंग्रेजों का शक्ति-प्रदर्शन, खेल बना दीवानों को।
जल जाते हैं लेकिन तन की, चिन्ता कब परवानों को।।
जमघ्ाट जुड़ता देख भयातुर, आगे बढ़ आदेश दिया।
संगीनों की नोंक दिखाकर, पट्ठानों को घ्ोर लिया।।
तभी अचानक सिक्ख दहाड़ा, उर्दू में कुछ पश्तों में।
मुर्दो तक में हरकत ला दे, ताकत थी उन शब्दों में।।
'अल्ला हू अकबर !" का नारा, गले हजारों बोल उठे।
जय गाँधी, जय जन्म-भूमि के, शत-शत नारे गूँज उठे।।
उधर तिरंगे लहराते थे, पठानों के वक्ष खुले।
उधर मनोबल तुड़वाने पर, अंग्रेजों के दास तुले।।
सीटी लम्बी बजा-बजाकर, जनता को चेताया था।
गोली दागी जाएगी अब, पढ़कर हुक्म सुनाया था।।
गोरा था कप्तान जिसे अब, अग्नि-परीक्षा देनी थी।
अपने खूनी आकाओं की,, इच्छा पूरी करनी थी।।
''गढ़वाली ! बढ़ गोली दागो'', उसके मुख से जब निकला।
चन्द्रसिंह भी सिंह सरीखा आगे बढ़कर कह उछला।।
''गढ़पूतों ! मत गोली दागो'', साथ सभी थे चिल्लाए।
निर्भय उसके पग-चिह्नों पर, हुक्म गलत सब ठुकराए।।