Sunday, October 9, 2011

हिन्दी कहानी का पाठक

कहानी
भटकुंइयाँ इनार का खजाना


कथादेश का सितम्बर अंक उस वक्त मेरे पास था जब कानपुर से इलाहाबाद जा रहा था। कहानी पढ़ लेने के बाद मैंने पत्रिका एक ओर रख दी और कहानी पर सोचने लगा। मेरे बगल में बैठे एक बुजुर्ग सज्जन ने पत्रिका उठायी- पन्ने दर पन्ने पलटते हुए इस कहानी पर आकर रुक गये और कहानी पढ़्ने लगे। शायद भाषा ही नहीं परिवेश ने भी उन्हें बांध लिया था, पूरी कहानी पढ़ गये। कहा कुछ नहीं लेकिन वे भी उसी मुद्रा में थे जैसी मुद्रा में मैं कहानी पढ़ने के बाद पहुंचा हुआ था- कहानी में दर्ज स्थितियों और उठते सवालों से टकराता हुआ। थोड़ी देर बाद पत्रिका एक युवा के हाथ में थी।वह नव युवक पुलिस इंस्पेक्टर की परिक्षा देकर लौट रहा था। शायद उसे खागा उतरना था। वह भी कई पन्नों को पलट्ने के बाद भटकुंइयाँ इनार का खजाना पर था और कहानी ठहर कर पढ़ रहा था। कहानी पढ़ने के बाद बहुत चुपके से उसने पूछा यह किताब ( पत्रिका) कहां मिलती है ?
वि. गौ.


Tuesday, October 4, 2011

पहाड़ की जख्मी देह पर नर्म हरे फाहे



  महेश चंद्र पुनेठा 
                                                                                          
 युवा कवि सुरे्श सेन नि्शांत के कविता संग्रह " वे जो लकड़हारे नहीं हैं' को पढ़ते हुए मुझे लोकधर्मी  कवि केशव तिवारी की " मेरा गॉव' कविता की ये पंक्तियॉ बार-बार याद आती रही - मेरा गॉव मेरी वल्दियत / जिसके बिना ला पहचान हो जाऊंगा मैं /मित्र कहते हैं /पॉच सितारा होटल में भी / झलक जाता है मेरा देशीपन / मुझे लगता है झलकना नहीं/ साफ दिखना चाहिए / जब मैं धनहे खेत से आ रहा हूं /तो मुझे दूर से ही गमकना चाहिए। कवि की  जिस पहचान तथा दूर से गमकने की बात केशव तिवारी अपनी इन पंक्तियों में करते हैं वो सुरे्श सेन नि्शांत की कविताओं में साफ-साफ दिखाई देती हैं।  नि्शांत की कविताओं का कथ्य हो या भाषा उससे गुजरते ही उनका पहाड़ीपन गमकने लगता है । उनकी कविता पहाड़ की पूरी पहचान के साथ हमारे सामने आती है। पहाड़ का रूप-रंग -रस-गंध उनके इंद्रियबोध में उतर आता है। अपनी धरती और अपने लोग उनमें बोलने लगते हैं। एक आम पहाड़ी के दु:ख-दाह ,ताप-त्रास व मुसीबतें-मजबूरियॉ  उनकी कविता की अंतर्वस्तु बनती हैं। पहाड़ की प्रकृति और पहाड़ का समाज जीवंत हो उठता है।वहॉ के लोगों की निर्दोष आस्थाएं और मासूम विश्वास कविता में स्थान पाते हैं। देखिए ये पंक्तियॉ- चुपचाप गुजरो / इस वृक्ष के पास से / प्रार्थना में रत है यहॉ एक औरत / उसे विश्वास है / इस वृक्ष में बसते हैं देवता/और वे सुन रहे हैं उसकी आवाज । पहाड़ की हरी-भरी देह भी और पहाड़ की जख्मी देह भी इन कविताओं में देखी जा सकती है। सुरेश की कविता उन पथरीले पहाड़ो की कविता है जहॉ उगती है ढेर सारी मुसीबतें -ही -मुसीबतें/ जहॉ दीमक लगे जर्जर पुलों को / ईश्वर के सहारे लॉघना पड़ता है हर रोज / जहॉ जरा-सा बीमार होने का मतलब है / जिंदगी के दरवाजे पर / मौत की दस्तक ।

Thursday, September 29, 2011

बीवी के नाम ख़त

नाजिम हिकमत तुर्की के महान कवि थे जिनकी कवितायेँ पूरी दुनिया में दमन और अत्याचार के खिलाफ लड़ने वाली जनता के बीच खूब लोकप्रिय हैं.उनके जीवन का अधिकांश समय जेल में(कुल तेरह साल) या निर्वासन में ही बीता.भारत में भी उनकी कविताओं के अनेक अनुवाद प्रकाशित हैं.
जेल से अपनी पत्नी को लिखी उनकी कवितायेँ मुझे बहुत पसंद हैं.उन्ही में से कुछ कवितायेँ यहाँ प्रस्तुत हैं:

यादवेन्द्र
                                                                                        -- नाजिम हिकमत

अपना वो ड्रेस अलमारी से निकालना जिसमें मैंने
तुम्हें देखा था पहली बार
दिखो आज अपने सबसे सुन्दर रूप में
आज दिखना है तुम्हें
जैसे गदराया लगता है वृक्ष बसंत के आगमन पर
अपने बालों में खोंसना
जेल से अपनी चिट्ठी में डाल के
जो भेजा था तुम्हारे लिए कारनेशन...
अपना चौड़ा धारीदार और चुम्बनीय माथा ऊँचा रखना
आज हताश और दुखियारी बिलकुल नहीं लगना
कोई सवाल ही नहीं...ना मुमकिन
आज तो नाजिम हिकमत की प्रिय को
दिखना है बला की खूबसूरत
बिलकुल बगावत के एक परचम की मानिंद...


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मेरी इकलौती और सिर्फ एक तुम ...
तुम्हारी पिछली चिट्ठी में लिखा था:
मेरा माथा फटा जा रहा है
और दिल डूब रहा है...
तुमने यह भी लिखा:
यदि उन्होंने तुम्हें फाँसी पर चढ़ा दिया
यदि मुझसे तुम बिछुड़ गए
तो मैं मर जाउंगी.
तुम्हें जीना पड़ेगा मेरी प्रिय..
मेरी स्मृतियाँ तो देखते देखते ऐसे तिरोहित हो जाएँगी
जैसे बिखर जाती है हवा में काली राख.
फिर भी तुम जिन्दा रहोगी
मेरे दिल की लाल बालों वाली मलिका..
बीसवीं सदी में
बिछोह का दुःख टिकता ही कितनी देर है
सिर्फ एक साल...ज्यादा नहीं.
मौत...
रस्सी से लटकती हुई एक लाश
मेरा दिल
ऐसी मौत को तो कतई स्वीकार नहीं करता.
पर
तुम बाजी लगा सकती हो
कि किसी गरीब जिप्सी के बालों से ढंके
काले और रोंये वाले हाथ
सरका भी देते हैं
यदि मेरी गर्दन में रस्सी
तो भी नहीं पूरी हो पायेगी उनकी उम्मीद
कि देखें नाजिम की नीली आँखों में
किसी प्रकार का खौफ.
पिछली रात के अंतिम प्रहर में
मैं
देखूंगा तुम्हें और अपने दोस्तों को
और खुद चल कर पहुंचूंगा
अपनी कब्र तक
और मेरे मन में अफ़सोस रहेगा तो सिर्फ ये कि
नहीं पूरा कर पाया मैं अपना अंतिम गीत.
मेरी प्रिय
नेक दिल इंसान
सुनहरे रंग वाली
मधु मक्खी की आँखों से भी सुन्दर
जिसकी आँखें हैं
मैंने आखिर क्यों लिख दिया तुम्हें
कि वो मुझे फाँसी पर चढाने की तैय्यारी कर रहे हैं?
अभी तो मुकदमा शुरू ही हुआ है
और वो किसी इंसान की गर्दन
वैसे तो तोड़ नहीं सकते
जैसे नोंच ली जाती है डाल से कोई कली
देखो...ये सब ऊल जलूल बातें भूल जाओ
तुम्हारे पास यदि कुछ पैसे हों
तो मेरे लिए फलानेल की एक चड्ढी खरीद दो...
मेरा साइटिका फिर से परेशान करने लगा है
और हाँ, ये मत भूलना
कि एक कैदी की बीवी को
हमेशा मन में अच्छे ख्याल ही लाने चाहियें.


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मैं चाहता हूँ
तुमसे पहले आये मेरी मौत
मेरी इच्छा है
कि मैं मरुँ तो तुमसे पहले मरुँ
क्या तुम्हें लगता है कि जो बाद में मरेगा
वो सीधा पहुँच जायेगा पहले वाले के पास?
मुझे तो इसका कोई इल्म नहीं
तुम तो ये करना
कि मुझे जला देना
और एक जार में डाल कर
अपने चूल्हे के ऊपर रख देना.
ध्यान रखना जार कांच का बना हुआ हो
पारदर्शी..साफ सुथरे कांच का बना हुआ
जिस से तुम अंदर देख सको
मुझे
और मेरी शहादत को
मैंने दुनिया ठुकरा दी
मैंने फूल बनने की चाहत ठुकरा दी
बस मैं सिर्फ तुम्हारा साथ चाहता हूँ.
मैं बनने को आतुर हूँ
धूल का कण
जिस से नसीब हो सके तुम्हारा साथ...
बाद में जब तुम्हारे मरने का पल आये
तो तुम भी समा सको
मेरे साथ इसी जार के अन्दर.
हम दोनों फिर से साथ साथ रह सकेंगे
मेरी राख मिली रहेगी तुम्हारी राख में
जब तक कि कोई नयी दुल्हन
या शरारती नाती पोता
लापरवाही से
हमें निकाल कर बाहर ही न फेंक दे...
पर ऐसा होने तक तो
हम एक दूजे के साथ साथ इस ढंग से
घुल मिल कर रह ही लेंगे
कि कूड़ेदानी में भी
हमारे कण आस पास गिरें
मिट्टी में साथ साथ पड़ेंगे हमारे पाँव
और एक दिन आएगा
कि धरती में उगे कोई जंगली पौध
तो इसमें बिना शक
खिलेंगे एक नहीं
दो दो फूल एक साथ:
एक तुम होंगी
एक मैं होऊंगा.
मुझे अभी अपनी मौत के बारे में कोई आभास नहीं
मुझे मन कहता है
कि मैं जनूँगा एक और बच्चा...
जीवन तो सैलाब की तरह मुझसे
बह कर बिखर रहा है
मेरा लहू खौल रहा है
मैं जियूँगा
खूब खूब लम्बे वक्त तक
और अकेला बिलकुल नहीं
तुम्हारे संग संग.
हांलाकि मौत का मुझे कोई डर नहीं
फिर भी लाश को जलाने का ढंग
मुझे रुचता नहीं जरा भी.
जब मैं मरुँ
तब तक उम्मीद है
थोड़ा बेहतर हो जायेगा अंत्येष्टि का ये ढब.
आजकल के हालात देख के क्या तुम्हें
लगता है कि तुम निकल पाओगे जेल से बाहर?
मेरे अंदर से आती है एक आवाज:
मुमकिन है, ऐसा ही हो जाये.


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क्या तुम जागे हुए हो?
कहाँ हो तुम इस वक्त?
घर पर.
पर अभी आदत नहीं पड़ी इसकी...
जागे या सोये...
अपने घर का एहसास अभी पूरा नहीं आया.
यह हो सकता है कोई अजूबा अचरज ही हो
तेरह साल से जेल के अंदर रहते रहते
जो मन के अंदर कौंध गया हो.
तुम्हारे बगल में कौन लेटा है?
हर बार की तरह अकेलापन नहीं
बल्कि यह तो तुम्हारी बीवी है
फ़रिश्ते की बख्शी गहरी नींद में
दुनिया से बेखबर होकर खर्राटे ले रही है.
गर्भ एकदम से बढ़ा देता है
देखो तो कैसे स्त्री की खूबसूरती.
अभी कितना बज रहा है?
आठ...
इसका मतलब यह हुआ कि शाम तक
तुम ठीक ठाक और सुरक्षित बचे हो
यहाँ तो पुलिस का रवैय्या ये होता है
कि दिन की गहमा गहमी में शांत बैठो
और अँधेरा हुआ नहीं कि बागियों की पकड़ धकड़ शुरू करो.

Sunday, September 18, 2011

नहर वाली गली




नहर वाली गली का किस्सा
सचमुच घंटों का किस्सा है हुजूर

कहां है नहर ?

नहर नहीं सड़क है हुजूर,
आप जहां खड़े हैं
क्यों छेड़ रहे हो नहर का इतिहास
छपाक-छपाक गोते खा-खाकर तैरने के लिए
पानी की जरूरत होने लगेगी, पर पाईएगा नहीं।

क्यों, कहां गया पानी ?

सूख गयी नहर,
सूखा दी गयी हुजूर
छपाक-छपाक तैरने के लिए
वो हौदी भी न बची
धारा बनकर जहां गिरती थी नहर
और पूरी लय के साथ जहां से बढ़ जाती थी आगे
एक ओर भैंसे गर्दन-गर्दन डूबकर नहा रही होतीं
और उनके बीच ही, या उनकी पीठ पर भी
वे बदमाश छपाक-छपाक तैर रहे होते जो
घाट पर कपड़ा फींचते धोबी को धोने ही नहीं देते कपड़े

बेचारा धोबी सुबह तड़के
जब चाकू की धार सी ठंडक के साथ
बह रहा होता था पानी
साईकिल के कैरियर पर लादकर
ले आता था गठरी कपड़ों की
उतर जाता था घुटनों-घुटनों
फच --- फच ----हश्श् -----हश्श्
फींचते कपड़ों के साथ ही चढ़ता था सूरज
वे बदमाश तो उछल-कूद मचाते हुए जब तक पहुंचते
साबुन का झाग भी बह चुका होता पानी बनकर

अब कहां, हुजूर अब तो बची ही नहीं है नहर
नहर वाय विभाग में हैं ही कहां अब बेलदार
जो समय से खोलते और बन्द करते थे पानी की धार
धारा पर गोता लगाने वाले भी तो नहीं रह गये
भैंसे! उनकी न पूछिये हुजूर
जब बैल ही नहीं रहे तो भैंसे कैसे पाले -
मंदिर के पीछे रहने वाले उन तैलियो से पूछे हुजूर
जिनकी लड़कियां भैसों को लेकर नहर पर पहुंचती थी
उनको नहलाने
कि भैस क्यों नहीं पालते हैं
टूटती हुई मटर के बाद
बर्सिम बोने के लिए जब बचे ही नहीं खेत
तो क्या खाक खिलायेगें हरा चारा
बिना हरे चारे के कितना तो देगी दूध -
किलो दो किलो
जानते हैं हुजूर भैंस की खिलायी
पॉंच किलो दूध की रकम है रोज

आप तो कुत्ता पालते हैं
सुबह शाम घुमाते भी होंगे ही
उसके चूतड़ों पर समय बे समय
बीमारियों से बचाव के इंजेक्शन भी ठोंकते ही हैं
पर इस नहर वाली गली में बैठे
उस मोची से मिल लीजिए हुजूर -
फटे हुए जूतों की मरम्मत करते हुए,
आंख से ठीक न दिखने के कारण
कितनी ही बार जिसकी उंगलियों में
घुस जाती है सुम्मी की नोंक और घाव कर देती है
गरम हल्दी तेल ही भरता है वो तो
हल्दी तेल भी कहां तो ठीक से भर पाता है अब वो हुजूर
तेल का सुना नहीं, ऐसा चढ़ा है रेट
कि बिना खाये ही धमनियों में जमने लगा है
कैसा तो आघात पड़ा है, अस्पताल में है बेहोश

नहरवाली सड़क पर आपने
मेरी इस छोटी सी दुकान का पता खोज लिया
तो नहर भी खोज ही लेगें, पूछते रहिये
आप नहर वाली सड़क पर आये, अच्छा लगा
संभल कर उतरिये,
बहाव तेज है हुजूर
वो वो देखिये हुजूर उधर,
नहर वाली गली जहां उस चौड़ी सड़क से मिल रही है
हां हां वही जिस पर अभी हाल ही में बने है मॉल,
उधर ही से बहता चला आ रहा है कुछ
ठहर जाईये थोड़ी देर ऊपर ही,
अभी ऐसा लबालब नहीं है कि यहां तक पहुंच पाये
ठहर जाईय,  ठहर जाईये
ढलान तेज है, निकल जायेगा
मैं तो वर्षों से ऐसे ही कर रहा हूं हंजूर
चिन्ता न कीजिए
कितना ही लबालब हो जाये और रुके ही न
तो भी दुकान बढ़ाकर मुझे भी तो निकलना ही है
आप साथ रहेगें तो मैं भी हिम्मत रख पाऊंगा
मेरे पास एक लम्बा डंडा है
उसी के सहारे डगमगाते हुए भी
एक दूसरे को हिम्मत बंधाते हो जायेगें पार
आप नहर वाली गली में हैं हुजूर
ऐसा हो ही नहीं सकता
कि नहर वाली गली का ग्राहक मुसिबत में हो
और दुकानदार ---
आरम से बैठिये हुजूर वैसे भी इस बाढ़ में कोई ग्राहक तो आना नहीं 
आप आये स्वागत है आपका
लीजिए मैं आपको ये आम का अचार खिलाता हूं 
अपना ही बनवाता हूं हुजूर
ये चटनी ! लहसुन की है हुजूर, खाकर देखिये न!     


Friday, September 16, 2011

धीरेन्द्र अस्थाना को छत्रपति शिवाजी पुरस्कार

 
संस्कृति राज्य मंत्री श्रीमती फौजिया खान से छत्रपति शिवाजी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार प्राप्त करते कहानीकार पत्रकार धीरेन्द्र अस्थाना। मंच पर मौजूद हैं संस्कृति मंत्री संजय देवतले, पत्रकार विश्वनाथ सचदेव, अकादमी कार्याध्यक्ष दामोदर खडसे और पत्रकार अनुराग चतुर्वेदी।

वरिष्ठ कहानीकार और प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा के मुंबई ब्यूरो प्रमुख धीरेन्द्र अस्थाना को महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ने छत्रपति शिवाजी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार से सम्मानित किया है। श्री अस्थाना को 51 हजार रुपए का यह सम्मान उनके समग्र साहित्यिक लेखन को देखते हुए दिया गया है। मुंबई के सचिवालय जिमखाना के खचाखच भरे सभागार में श्री अस्थाना को शॉल, श्रीफल, ट्रॉफी और 51 हजार रुपए की राशि का चेक महाराष्ट्र की संस्कृति राज्य मंत्री श्रीमती फौजिया खान ने प्रदान किया। श्री धीरेन्द्र अस्थाना की अब तक डेढ़ दर्जन से ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें उपन्यास, कहानी और साक्षात्कारों का समावेश है। उनकी कुछ प्रमुख पुस्तकें हैं - गुजर क्यों नहीं जाता, देशनिकाला, हलाहल, उस रात की गंध, नींद के बाहर और रू-ब-रू। श्री अस्थाना टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस और दैनिक जागरण समूह में काम कर चुके हैं। पिछले 9 वर्ष से वह सहारा समूह के साथ जुड़े हुए हैं। श्री अस्थाना के अलावा आबिद सुरती, दिनेश ठाकुर, नारायण दत्त, सलिल सुधाकर, डॉ। आनंद प्रसाद दीक्षित और मनोज सोनकर समेत महाराष्ट्र के कुल 27 हिंदी सेवियों को भी इस मौके पर विभिन्न क्षेत्रों में सम्मानित किया गया।

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