Friday, November 25, 2011

मुझे मालूम है



  
अरुण कुमार "असफल" ऐसे रचनाकार है जिन्हें बहुत मुखर होकर बोलते हुए कम लोगों ने ही सुना होगा। लेकिन आस पास के वातावरण, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों पर उनकी दृष्टि हमेशा बेबाक रही। हां उस आवाज को सुनने के लिए अक्सर हो सकता है कि आपको अरुण के बहुत करीब जाना पड़े। लेकिन इस बार उनका बोलना आप सुन सकें- अरुण की वह टिप्पणी जिसका जिक्र फेसबुक के माध्यम से अरुण ने किया था, यहां आप सभी के लिए सादर प्रस्तुत है।
बहुत चुपके चुपके घुमड़ने वाली असहमतियों को दर्ज करना हमारी कोशिश का एक ऐसा हिस्सा है जिसमें इस ब्लाग की सार्थकता भी साबित हो सकती है और पद, उम्र या श्रेष्ठता के दूसरे मानदण्डों के आगे असहमतियों को दर्ज न कर सकने की सामंति मानसिकता से मुक्ति का रास्ता भी बनता है। हमारा मानना है कि असमहति एक स्वस्थ बहस का आधार होती है। विश्वास है कि पाठकों तक हमारे मंतव्य सकारात्मक प्रभाव छोड़ेंगे।
 -वि. गौ.
  
सूप तो सूप चलनी भी बोली
-अरुण कुमार 'असफल"
 वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु खरे ने जनसत्ता के दिनॉक 09-10-2011 अंक में प्रकाशित अपने लेख ' सूत न कपास" में नोबेल पुरस्कार के बहाने  वरिष्ठ साहित्यकार विजयदान देथा पर जो अपमान जनक  टिप्पणियॉ की हैं उससे पूरा साहित्य समाज स्तब्ध है। लेख की भाषा और मिज़ाज से मालूम होता है कि लेखक ने कोई "पुराना हिसाब" चुकता करने के उद्देश्य से ही इसे लिखा है। एक ऐसे  वयोवृद्ध महान साहित्यकार, जो कि कूल्हे की हड्डी पर चोट की वजह से काफी समय से बिस्तर पर हो और सर में चोट लग जाने से जिनकी स्मरण क्षमता प्रभावित हुई हो, उन पर ऐसे फिकरे कसने का क्या मतलब था? बिज्जी की हालत इस समय ऐसी है कि वे इस लेख का जवाब देना तो दूर, अभी पढ़ने की भी स्थिति में नहीं हैं। एक जगह तो लेख में विष्णु खरे लिखतें हैं "यह (नोबेल पुरस्कार)  आलोचना या मूल्यॉकन का कोई मापदण्ड नहीं है " पर दूसरी जगह यह भी लिखतें हैं " नियम यह है कि खोटे सिक्के असली सिक्कों को बाहर कर देतें हैं " तथा "इन दो गिलट के रुपयों नें फिलहाल भारत में स्वीडी कलदार तोमस त्रॉस्त्रमार को चर्चा से बाहर कर दिया है---"। लेख में मूल्यॉकन के कोई अन्य तर्क रखे बगैर लेखक ने इन दो साहित्यकारों को गिलट के सिक्के और त्रॉस्त्रमार को खरा सिक्का साबित कर दिया। स्पष्ट है कि स्वयं लेखक के पास भी नोबेल पुरस्कार के अलावा मूल्यॉकन का कोई और तरीका नहीं है। निस्संदेह त्रॉस्त्रमार श्रेष्ठ कवि हैं लेकिन किसी की श्रेष्ठता साबित करते हुये किसी पर अपनी भड़ास निकालना आवश्यक है क्या? लेख में लेखक ने यह भी साबित करने की कोशिश की है कि इन दो भारतीय साहित्यकारों ने जमकर लॉबिंग की होगी। जहॉ तक विज्जी की बात है तो उनके बारे में ऊपर ही उल्लेख कर दिया गया हैं कि वे गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं। उनका लिखना पढ़ना तो स्थगित है ही, बोलना बतियाना भी सीमित है। न ही किसी साहित्यिक संस्था या साहित्यकार ने कोई उनकी सुध ली और न ही उनका किसी से सम्पर्क है। तब उन्होने लॉबिंग कैसे की? क्या विष्णु खरे को यह नहीं मालूम कि बिज्जी की कहानियॉ बहुत पहले ही विश्व की कई भाषाओं में अनूदित हों चुकीं हैं और  वि्श्व साहित्यिक परिदृश्य में विजयदान देथा एक जाना पहचाना नाम है। हिन्दी में भी लोग सत्तर के दशक से उन्हे जानने लगे थे। 1979 हिन्दी में अनूदित उनकी कहानियों का पहला संकलन "दुविधा तथा अन्य कहानियॉ" आया तथा 1982 में दूसरी किताब "उलझन" आईं। "दुविधा" पर मणिकौल ने फिल्म बनाई तथा "फितरी चोर" कहानी पर हबीब तनवीर ने नाटक खेला। उनकी कई कहानियों पर फिल्में बनी हैं तथा नाटक खेले गए हैं। पर उन्होने इसके लिए न अन्य कहानीकरों की तरह मुम्बई के बारंबार चर लगाये और न ही नाटककारों के दरवाजे खटखटाये (एक ख्यातिप्राप्त नाटककार तो काफी समय तक उनकी एक कहानी पर अपना नाम देकर नाटक खेलते रहे)। यह तो उनकी कहानियों की अर्न्तवस्तु में बसी लोकजीवन की  गन्ध है जो लोगों को अपनी ओर खींचती हैं। कहानियों को इस काबिल बनाना इतना आसान कार्य नहीं है। इसके लिये 'लोक" की यात्रा करनी पड़ती है। बिज्जी ने यह यात्रा पचास साठ के दद्गाक में आरंभ कर दी थी। जब रास्ते के नाम पर रेत के ढूहे और वाहन के नाम पर ऊंट गाड़ी ही सर्वत्र दिखतें थे तब लोक कथाओं को लुप्त होने से बचाने की अदम्य इच्छा लिये विज्जी ने गॉव गॉव की यात्रा की और बड़े बुजुर्गो की स्मृतियों में बची लोक कथाओं को अभिलेखित किया। इस कार्य के लिये उसे अचित पारिश्रमिक भी दिया और सन्दर्भ में उसका जिक्र भी किया , अर्थात पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता भी बरती।

स्पष्ट है , हमारे यहॉ  "जेनुइन" लेखकों" को हाशये पर डालने और माखौल उड़ाने  की जो पंरपरा है  विष्णु खरे का सन्दर्भित लेख उसका बखूबी से निर्वाह करता है। विष्णु खरे ही क्या एक बार तो राजस्थान में भी कुछ साहित्यकारों ने मौलिकता के नाम पर खारिज करने का अभियान चलाया था। कोई उनसे यह पूछे कि एक पैरा या एक पेज़ की लोक कथाओं को दस बीस या पचास पेज़् की कथाओं में पुर्नसृजन करने वाला दूसरा और कौन है? वे लोक कथाओं को ऐसी कथाओं में पुर्नसृजित करतें हैं जिसमें स्त्री अपने देह का स्वतन्त्र निर्णय लेती है, दलित और श्रमिक तर्क करतें हैं और राजा या प्रभावशाली लोगों को मुंह की खानी पड़ती है। सदियों पुरानी लोककथाओं का ऐसा रूप देना जो फिर कभी बासी न लगें। इसका अन्यत्र उदाहरण कहॉ हैं?  यह तो केवल साहित्य के क्षेत्र में योगदान है। बहुतों को तो यह नहीं मालूम होगा कि बिज्जी अपने महत्तम प्रयास से बोरून्दा में लड़कियों के लिये आवासीय महाविद्द्यालय खुलवाने में सफल रहे। एक ऐसे राज्य में जिस के कई क्षेत्र में अभी भी मध्यकालीन सामन्ती संस्कारों का ऐसा बोलबाला है कि लड़कियों के जन्म को अभिशप्त के रूप में लिया जाता है वहॉ के एक गॉव में लड़कियों के लिये इस उद्देश्य से महाविद्द्यालय खोलना कि लड़कियॉ घर से निकल कर बाहर तो निकलें, इससे बड़ा जनवादी और प्रगतिशील कार्य क्या होगा ? क्या नोबेल पुरस्कार से इसको नापा जा सकता है? क्या जिस व्यक्ति ने जीवनपर्यन्त बोरुन्दा को कर्मभूमि बनाया हो उससे यह उम्मीद की जा सकती है क्या कि वह नोबेलॉकाक्षी होगा? होता तो उसका कोई न कोई ठिकाना देश की राजधनी में अवश्य होता। चलिये देश नही तो प्रदे्श की राजधनी में अक्सर ही उसके पड़ाव होते। लेकिन फिल्मकारो नाटककारों और अन्य कलाकारों के तो उसके गॉव में ही पड़ाव लगतें हैं? दे्श के कितने साहित्यकारों के साहित्य में इतना दम है जो दे्श दुनिया को अपने पास खींच सकें। विपरीत इसके, लेख से ज़ाहिर होता है कि विष्णु खरे ही नोबेल पुरस्कार से काफी वास्ता रखतें होगें।इसलिए कई जगह "मुझे मालूम है" की रट लगाये से दिखतें हैं। मसलन "मुझे मालूम है कि कभी जर्मनी के हिंदी विशेषज्ञ लोठार लुत्से से भी अनुशंसाए मॅगाईं गईं थीं। मुझे यह भी मालूम है---"। गोया कि नोबेल पुरस्कार समिति से वैसा ही जुड़ाव है जैसा कि भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार समिति से। यह अलग बात है कि इस बार पुरस्कृत कवि को "हुड़ुकलुल्लु" की उपाधि न देकर पुरस्कार से वचिंत रह गये लोगो को ही कोसा है। जिनकी गलती सिर्फ इतनी ही है कि उनका नाम नोबेल सॅभावितों की सूची में आ गया है और इस तरह से वे नोबेलॉकाक्षियों की काली सूची में आ गयें हैं। जबकि विष्णु खरे एक जगह लिखतें हैं  "निर्णायक मंडल मुख्यत: जर्मन, फ्रेंच, इतालवी और इस्पानी भाषाओ के साहित्यिक अनुवादों पर निर्भर रहती है---" । तो क्या इसका यह अर्थ निकाल लिया जाये कि जिन साहित्यकारो ने इनमें से किसी देश की बारंबार यात्रा की है तो वे नोबेलॉकाक्षीं होगें या जो इनमें  से किसी भी दे्श की भाषा का जानकार है वह होगा नोबेलॉकाक्षीं? या यही  अर्थ निकाल लिया  जाये कि हिंदी के वे सम्राट नोबेलॉकाक्षी तो होगें ही जिन्होंने अपनी राजकुमारियों का ब्याह इन देशों के राजकुमारों से किया होगा। यदि ऐसा हो तो हो ! पर बिज्जी इस दंद-फंद से कोसों दूर हैं।

Tuesday, November 8, 2011

साफ़ ज़ाहिर है

कंवल ज़ियायी
उर्दू के सुप्रसिद्व शायर जनाब हरदयाल सिंह दत्ता  कंवल जियायी इस भैयादूज को, अर्थात दिनांक 28-10-2011 की सुबह, इस नश्वर संसार को अलविदा कह गये। वे चौरासी वर्ष के थे। कहा जाता है, कि केवल योगी ही चौरासी के होकर "चोला" बदला करते हैं।
    वे सचमुच योगी थे। उन्होंने जब पहले पहल पंडित लब्भुराम जोश मलसियानी की सरपरस्ती में शायरी का आगाज़ किया, उस वक्त उर्दू के अधिकांश शायर हुस्नोइश्क का इज़्हार अपनी शायरी के माध्यम से किया करते थे। मगर कंवल साहब ने उन दिनों भी जिस मौजूं को अपनी शायरी में लिया। वह ज़िंदगी की तल्ख हकीकत के बिल्कुल करीब था।
    पाकिस्तान के ज़िला सियालकोट के गांव कंजरूढ़ दत्ता में कंवल साहब का जन्म एक प्रतिष्ठित जमींदार घराने में हुआ। फिल्म अभिनेता पद्मश्री राजेन्द्र कुमार भी वहीं के थे और कंवल साहब के लंगोटिया यार थे। देश का बंटवार होने के बाद, ये दोनों पक्के दोस्त एक साथ पाकिस्तान से भारत (दिल्ली) चले आये। वहां से राजेन्द्र कुमार एक्टर बनने के लिये मुम्बई चले गये और कवंल साहब रक्षा-विभाग में लिपिक के तौर पर नौकरी करने लगे और उसी के साथ अपना रूझान साहित्य की और मोड़ा और शायरी के माध्यम से साहित्य सृजन में जुट गये।
    कंवल साहब एक बहुत ही मस्तमौला, फक्कड़, हँसमुख, स्प्ष्टवादी, संवदेनशील और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। बातें इतनी अच्छी करते, कि घंटों तक उनके पास बैठकर भी उठने को मन न होता। मगर वही कंवल साहब, जब शेर लिखने के लिये कलम हाथ में थामते, तो इस कद्र संजीदा हो जाते कि सामने मौजूदा प्राणी सहम कर रह जाता।
    उनकी शायरी जिंदगी के "कटुसत्य" से दोचार करने वाली संजीदा शायरी थी। बहुत ही सरल भाषा, या सीधे सादे शब्दों में, गहरी से गहरी बात कहने में उन्हें महारत हासिल थी। उसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि उन्होंने जीवन भर संघर्ष ही संघर्ष किया और जिंदगी को बेहद करीब से देखा, परखा और विचारा और तब जो कुछ महसूस किया, उसी को अपनी गज़लों, नज़मों या कतआत की शक्ल में उतारा।
    कंवल साहब एक उस्ताद शायर थे। उनके शागिर्दों की संख्या पर्याप्त है। कहा जाता है कि वे खुद एक "इंस्टीट्यू्शन" थे।
    कंवल साहब के अब तक केवल दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। "प्यासे जाम" सन् 1973 में राहुल प्रकाशन दिल्ली द्वारा देवनागरी लिपि में प्रका्शित हुआ। दूसरा काव्य संग्रह, "लफ्ज़ों की दीवार" 1993 में उर्दू लिपि में छपा। इन दोनों संग्रहों में कंवल साहब की चुनींदा गज़लों, नज़्मों और कतआत शामिल है।
    एक लम्बे अर्से से कंवल साहब अस्वस्थ चल रहे थे। इसलिये कहीं जाना आना न हो पा रहा था। इस दौरान वे और अधिक संजीदा रहने लगे थे। उन्हें निश्चित ही इस बात का एहसास हो चला था। कि उनके पास अब अधिक समय नहीं रहा। तभी उनके द्वारा लिखे अंतिम एशआर में दो शेर ये भी थे :-
        साफ़ ज़ाहिर है कि उम्र की आंधी
         इक दिया और बुझाने वाली है
       ज़िंदगी तखलिया कि पल भर में
       मौत तशरीफ़ लाने वाली है।

- मदन शर्मा 
9897692036
                                                         

Saturday, November 5, 2011

दिल्ली से रांची या चंडीगढ़ की दूरी



गुरशरण सिंह

राम दयाल मुंडा


सितम्बर माह के आखिरी दिनों में देश ने ऐसी दो  विभूतियाँ खोयी हैं जिनकी जड़ें अपने अपने समाज में बेहद गहरी थीं पर जिनके क्रियाकलाप  पूरे देश की सांस्कृतिक अस्मिता को क्रियाशील बनाये रखने के लिए  प्राणवायु का काम कर रहे थे.लम्बे सक्रिय जीवन के बाद इन दोनों का विदा होना जितना अप्रत्याशित नहीं था उस से ज्यादा चौंकाने वाला था हमारे राष्ट्रीय कहे जाने वाले मेनस्ट्रीम सूचना माध्यमों का उनका नाम लेने की जरुरत से इनकार.इनमें से एक गुरशरण सिंह पंजाबी गाँवों शहरों में पंजाबी भाषा में अपना काम करते हुए चंडीगढ़ में गुज़र गए तो दूसरे राम दयाल मुंडा झारखण्ड के आदिवासी समाज का कायापलट करने का स्वप्न लिए हुए पूरी दुनिया में अपनी योग्यता का झंडा गाड़ने के बाद रांची के एक अस्पताल में लगभग गुमनामी में चल बसे....क्या दिल्ली से इन इलाकों की दूरी इतनी ज्यादा है कि सन्देश पहुंचना मुमकिन नहीं?
गुरशरण सिंह
27 सितम्बर को अंतिम साँस लेने वाले तत्कालीन पाकिस्तान में पैदा हुए और पिछले पचास साल से भी ज्यादा समय से पंजाब के गाँव गाँव में निर्भीकता पूर्वक अलख जगाने  वाले 82 वर्षीय गुरशरण सिंह देश में नुक्कड़ नाटकों के भीष्म पितामह के रूप में जाने जाते हैं पर उनका कद ऐसा था कि राजनैतिक जागरण का माध्यम बने नुक्कड़ नाटकों को कलाविहीन कह कर नाक भौं सिकोड़ने वाले कला पंडितों को भी उन्हें संगीत नाटक अकादमी और कालिदास सम्मान  प्रदान करना पड़ा.बिजली विभाग में इंजिनियर की नौकरी परवाह न करते हुए उन्होंने शहीद भगत सिंह के संदेशों को गाँव गाँव में पहुँचाने का जो संकल्प लिया था उसको आखिरी दम तक पूरा  किया.इमरजेंसी की सख्त पाबंदियों को धता बताते हुए और हिंसक उग्रवाद के दिनों में भी अन्याय का प्रतिकार करने और आपसी भाईचारा बनाये रखने का सन्देश देते हुए उन्होंने अपनी नाटक मंडली को निरंतर सक्रिय रखा.वामपंथी सोच वाले संस्कृतिकर्मी देश के किसी भी कोने में क्यों न काम कर रहे हों गुरशरण सिंह के नुक्कड़ नाटक उनके प्रमुख हथियार रहे और ऐसे जत्थों में या तो ग़दर की शैली  में जनगीत गए जाते थे या फिर गुरशरण सिंह की शैली में...यहाँ तक कि उन्होंने प्रसिद्ध उद्बोधन गीत इंटरनेश्नल को भी ठेठ पंजाबी धुनों में प्रस्तुत किया.कहा जाता है कि पंजाब में हर सरकारी दस्तावेज में पिता के साथ साथ माँ का नाम अनिवार्य तौर पर लिखने की पहल उन्होंने ही की और खुले तौर पर मंचों से उनको कहते सुना गया कि सामाजिकरूप में स्त्री पुरुष की  बराबरी के बारे में बहुत सी बातें अपनी बेटी से सिखने को मिलीं.उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता ऐसी थी कि मृत्यु के बाद कोई धार्मिक कार्यक्रम नहीं किया गया और अंतिम तौर पर उनके अवशेष भगत सिंह के  शहादत  स्थल हुसैनीवाला  पर ले जाकर मिट्टी को सुपुर्द कर दिए गए.पर उनकी मृत्यु की खबर पंजाबी सूबे से बाहर सुर्कियों में नहीं आ पाई...कम से कम हिंदी की मुख्यधारा को तो इसमें प्रेरणादायक मसाला  दिखा नहीं...या गुरशरण सिंह को पंजाबी भाषा भाषियों की जिम्मेदारी पर ही छोड़ने का सद्विचार  उत्पन्न हो गया.           
 
  30 सितम्बर  को देश की आदिवासी संस्कृति के बड़े विद्वान और पैरोकार 72 वर्षीय प्रो. राम दयाल मुंडा का निधन हो गया पर राष्ट्रीय कहे जाने वाले  बड़े समाचार माध्यमों में इस घटना की कहीं कोई गूंज नहीं सुनाई दी.झारखण्ड प्रदेश की परिकल्पना को व्यवहारिक रूप देने वाले विचारकों में प्रो.मुंडा अग्रणी थे, बरसों अमेरिकी शिक्षा संस्थानों में अध्यापन करने के बाद रांची विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर भी रहे.  कहा जाता है कि प्रो. मुंडा का कमरा झारखण्ड के युवा नेतृत्व  का उदगम और प्रशिक्षण स्थल रहा.दुर्भाग्य यह कि आदिवासी समाज,संस्कृति और भाषाओं पर उनका काम देश में कम  और विदेशों में ज्यादा समादृत  था इसी लिए अमेरिका सहित अनेक देशों में वे   अध्यापन कार्य करते रहे. 'नाची से बांची" का जुमला बार बार दुहराने वाले प्रो.मुंडा  एक स्वतः स्फूर्त लोक  गायक और नर्तक के रूप में भी जाने जाते थे और 2004 में मुंबई संपन्न वर्ल्ड सोशल फोरम में उनकी शिरकत में यह पक्ष खुल कर सामने आया. .उनकी इन्ही विशेषज्ञताओं  की बदौलत उन्हें  पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी की सस्यता से सम्मानित किया गया.कुछ समय पहले उन्हें राज्य सभा के सदस्य के रूप में नामित किया गया था.अपने विचारों के प्रचार प्रसार के लिए पहले उन्होंने खुद अपना एक राजनैतिक दल बनाया पर संगठन का अनुभव  न होने के कारण उसको उन्हें शिबू सोरेन के दल झारखण्ड मुक्ति मोर्चा  में शामिल करना पड़ा.वहाँ भी उनको जब कोई सार्थक काम होता हुआ नहीं दिखा तो कांग्रेस में शामिल हो गए.
राम दयाल मुंडा
उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि आदिवासी समाज के दस करोड़ सदस्यों को(हिन्दू समुदाय के बाद दूसरा सबसे बड़ा समुदाय) जबरन हिन्दू या ईसाई समुदाय के अंदर समाहित करने की साजिश आजादी के बाद से की जाती रही है.पर आदिवासियों की आराधना पद्धति विशिष्ट तौर पर प्रकृति पूजा की है और उन्हें देश के छह धार्मिक समुदायों से अलग मान्यता मिलनी चाहिए...उनकी धार्मिक मान्यता को नयी पहचान प्रदान करने के लिए उन्होंने आदि धर्म का आन्दोलन शुरू किया था...इसी नाम से उन्होंने आदिवासियों की प्रचलित आराधना पद्धतियों को संकलित करते हुए एक किताब भी लिखी थी.प्रो.मुंडा की अनेक स्थापनाओं से हमारी असहमति हो सकती है पर अपनी माटी और बिरासत से गहन रूप से जुड़े हुए ऐसे  इतिहास पुरुष के बारे में जानना सिर्फ झारखंडी समाज के लिए जरुरी है? क्या ऐसे मनस्वी के निधन के बाद झारखण्ड से इतर समाज के अख़बारों और समाचार माध्यमों में उनको कुछ पंक्तियों का स्थान देना भी हमारे अ-सहिष्णु समाज को मंजूर नहीं?   
 
     प्रस्तुति:-       यादवेन्द्र
yapandey@gmail.com

Monday, October 24, 2011

लोक जीवन और आधुनिकता



आलोचक जीवन सिंह जी के साक्षात्कार को पढ़ते हुए आधुनिकता और लोक जीवन पर उभरी असहमति को दर्ज करते हुए यह आलेख प्रस्तुत है।
- विजय गौड़

आधुनिकता को यदि बहुत थोड़े शब्दों में कहना हो तो कहा जा सकता है कि नित नये की ओर अग्रसर होती दुनिया का चित्र। पर ''नित नये"" कहने से आधुनिकता वह वृहद अर्थ, जो समाज, संस्कृति, साहित्य और इसके साथ-साथ जीवन के कार्यव्यापार के विभिन्न क्षेत्रों में दखल देते हुए नयी दुनिया की तसवीर गढ़ रहा है, स्पष्ट नहीं होता। यहां आधुनिकता का वह अर्थ भी स्पष्ट नहीं होता जो एक दौर की आधुनिकता को परवर्ती समय में पुरातन की ओर धकेलने वाला है। नैतिकता, आदर्श और मूल्यों की बदलती दुनिया में आधुनिकता एक ऐसी सत्त प्रक्रिया है जिसमें रुढ़ियों और परम्पराओं से मुक्ति के द्वार खुलते हैं और तर्क एवं ज्ञान की स्थापना का मार्ग प्रस्शत होता है। निषेध और स्वीकार के द्वंद्व से भरा ऐसा मार्ग जो जरुरी नहीं कि आज की आधुनिकता पर भविष्य में प्रश्नचिहन न खड़ा करे। दरअसल, इस आधार पर कहा जा सकता है कि आधुनिकता अपने अन्तर्निहित अर्थों में प्रासंगिकता के भी करीब अर्थ ध्वनित करने लगता है। पृथ्वी को ब्रहमाण्ड का केन्द्र ( टालेमी का मॉडल) मानने वाली आधुनिकता को सैकड़ों सालों बाद, सूर्य ब्रहमाण्ड का केन्द्र है, जैसे विचारों ने आधुनिक नहीं रहने दिया। कोपरनिकस की विज्ञान की समझ ने टालेमी के विचार को, जो सर्वमान्य रुप से स्वीकार्य था, मौत का खतरा उठाकर भी, पुरातन ओर अवैज्ञानिक साबित कर दिया। ज्ञान विज्ञान की नयी से नयी खोजों ने आधुनिकता को नूतनता का वह आवरण पहनाया है जिसे समय-काल, के हिसाब से विचार, वस्तुस्थिति और यथार्थ की पुन:संरचना में प्रासंगिकता की कसौटी पर कसा जाने लगा।

तर्क और बुद्धि की सत्ता का उदय ऐसी ही आधुनिकता के साथ दिखायी देता है। वैज्ञानिक आधार पर घ्ाटनाओं के कार्य-कारण संबंध को ढूंढने की कोशिश ने अंध-विश्वास और रुढ़ियों पर प्रहार करते हुए आधुनिक दुनिया की तस्वीर गढ़नी शुरु की। ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि तार्किक परिणितियों के आधार पर घ्ाटनाओं के विश्लेषण करने के पद्धति पर, गैर-वैज्ञानिक समझ का प्रतिरोध करने वाली इस आधुनिकता को अप्रसांगिक मानने की कोई हठीली कोशिश भी आधुनिकता का नया रुप नहीं गढ़ सकती है। आधुनिकता के बरक्स उत्तर-आधुनिकता की गैर वैज्ञानिक अवधारणा के अपने उदय के साथ, अस्त होते जाने का इतिहास, इसका साक्ष्य है।

औद्योगिकरण की बयार के साथ योरोप में शुरु हुआ पुनर्जागरण वर्तमान दुनिया की आधुनिकता का वह आरम्भिक बिन्दु है जिसने मध्ययुग के अंधकारमय सामंती ढांचे को चुनौति दी। राजशाही की निरंकुशता के खिलाफ जन-प्रतिनिधित्व की शासन प्रणाली के महत्व पर बल दिया। मैगनाकार्टा का आंदोलन, जो सामंतशाही की पुच्च्तैनी व्यवस्था के खिलाफ मताधिकार के द्वारा नयी जनतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत चाहता रहा, आगे के समय तक भी आधुनिकता की उन आरम्भिक कोशिशों का महत्वपूर्ण पड़ाव बना रहा। अमेरिकी और फ्रांसिसी क्रांन्ति के साथ उसके  स्थापना की महत्वपूर्ण स्थितियां वे निर्णायक मोड़ है जिसने काफी हद तक आधुनिक दुनिया के एक स्पष्ट चेहरे को आकार दिया। इससे पूर्व औद्योगिकरण की शुरुआती मुहिम के साथ राष्ट्र-राज्यों के उदय की प्रक्रिया ने व्यापारिक गतिविधियों की एक ऐसी आधुनिकता को जन्म देना शुरु कर दिया था जो वस्तु विनिमय की पुरातन प्रणाली को स्थानान्तरित कर चुकी थी। श्रम के बदलते स्वरुप ने सामाजिक संबंधों के बदलाव की जो शुरुआत की, साहित्य की काव्यात्मक भाषा उसे पूरी तरह अटा पानो में संभव न रही। गद्य साहित्य का उदय हुआ। भाषा सत्त बहती, आम बोलचाल की लयात्मकता में, गद्याात्मक होती चली गयी। कहानी, संस्मरण, यात्रा वृतांत, रेखा चित्र, निबंध और उपन्यासों का नया युग आरम्भ हुआ। साहित्य इतिहास के तमाम अंधेरे कोनो से टकराने लगा। नयी दुनिया की खोज में निकले अन्वेषकों, मेगस्थनीज, हवेनसांग, फाहयान, के यात्रा वृतांत उस शुरुआती कोशिशों के दस्तावेज हैं।

साहित्य में आधुनिकता की यह शुरुआत सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया को स्वर देने में ज्यादा लचीलेपन के साथ दिखायी देने लगी। बदलते सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों की जटिलता ने स्वच्छंदतावाद को जन्म दिया जो अपने विकास के क्रम में यथार्थवाद की ओर अग्रसर होने लगा। राष्ट्रीय भाषाओं का विकास आरम्भ हुआ। मानवीय  संवेदना को वैचारिक मूल्यों ने परिपोषित करना शुरु किया। धार्मिक साहित्य और राजे रजवाड़ों की स्तुतिगान से भरे पुरातन साहित्य की बजाय आम मनुष्य के दुख-दर्दो को स्वर मिला।

समकालीन दुनिया की सर्वग्रासी बाजारु प्रवृत्ति, जो धार्मिक अंध विश्वास और नैतिक पतन की कोशिशों के साथ है उसे ही आधुनिक मानना और उसके प्रतिपक्ष में रहते हुए, जो कि जरूरी है, आधुनिकता के वास्तविक अर्थों से मुंह मोड़ लेना स्वंय को एक ढकोसले के साथ खड़ा कर लेना है। आधुनिकता की स्पष्ट पहचान किए बगैर गैर आधुनिक होते जाते इस दौर में बाजारु प्रवृत्ति का निषेध कतई  संभव नहीं। स्वस्थ प्रतियोगिता का भ्रम जाल रचता आज का बाजार विविधता की उस जन तांत्रिक प्रक्रिया के भी खिलाफ है जो एक सीमित अर्थ में ही आधुनिक कहा जा सकता है। स्वस्थ जनतंत्र के बिना स्वस्थ आधुनिकता का भी कोई स्पष्ट स्वरूप्ा नहीं उभर सकता। बाजार की गुलामी करता विज्ञान भी आज अपने पूरी तरह से आधुनिक होने की अर्थ-ध्वनि के साथ दिखाई नहीं दे रहा है।   

सामाजिक विकास का हर अगला चरण अपनी कुछ विशेषताओं के साथ होता है। इस अगले चरण की वस्तुगत स्थितियों के तहत ही आधुनिकता की परिभाषा भी अपना स्वरूप ग्रहण करती चली जाती है। बहुधा आधुनिकता के इस सोपान को समकालीन कह दिया जा रहा होता है। समकालीन और आधुनिकता का यह साम्य इसीलिए एक दूसरे को आपस में पर्याय बना देता है। समकालीनता, आधुनिकता और प्रासंगिकता ये तीन ऐसे शब्द हैं जिनके बीच किसी स्पष्ट विभाजक रेखा को खींच पाना इसीलिए संभव नहीं। अवधारणाओं की जटिलता के ऐसे निर्णायक बिन्दू पर बिना किसी ठोस विश्लेषण के अर्थ विभेद नहीं किया जा सकता। आधुनिकता के नाम पर सामाजिक और सांस्कृतिक पतन के आदर्शों से भरी व्यवस्था के चरित्र की पहचान बिना प्रासंगिकता के संभव नहीं। मौलिकता, साहस और बेबाकीपन के आधुनिक मुहावरों को तर्क का आधार बनाकर बहुत सस्ते में आधुनिक होने की यौनिक वर्जनाओं से भरी अभिव्यक्तियों को इसीलिए आधुनिक नहीं कहा जा सकता। संघ्ार्ष के बुनियादी स्वरूप को कुचलने को आमादा और सामाजिक विकास की हर जरुरी कार्रवाई को भटकाने का काम करती ऐसी समझदारी आधुनिकता का निषेध है।
आधुनिकता का सवाल लोक की जिस परिभाषा को वास्तविक अर्थों में व्याख्यायित करता है उसे स्थानिकता के साथ देख सकते हैं। स्थानिकता को छिन्न भिन्न करती कोई भी कार्रवाई आधुनिक कैसे कही जा सकती है। स्थानिकता का सवाल राष्ट्रीयता का सवाल है और राष्ट्रीयता का प्रश्न उसी आधुनिकता का प्रश्न है जो पुनर्जागरण से होती हुई अमेरिका, फ्रांस की क्रान्तियों के रास्ते आगे बढ़ती हुई पेरिस कम्यून की गलियों में भटकने के बाद रूस को सोवियत संघ्ा और चीन को आधुनिक चीन तक ले जाती है। लोक की अवधारणा में भी स्थानिकता समायी होती है। इसलिए लोक की अवधारणा को आधुनिकता से अलग करके परिभाषित करना ही पुरातनपंथी मान्यताओं का पिछलग्गू हो जाना है। पुरातनपंथी मान्यताऐं अस्मिता के किसी भी संघ्ार्ष को गैर जरूरी मानने के साथ होती होती हैं। भारतीय चिन्तन में आज दलित धारा की उपस्थिति और स्त्रि अस्मिता के प्रश्नों से उसे इसीलिए परहेज होता है। अस्मिता के संघ्ार्ष के मूल में भी राष्ट्रीय पहचान की तीव्रतम इच्छाऐं ही महत्वपूर्ण होती हैं। राष्ट्रीयता की मांग ही सामंती ढांचे को ध्वस्त करने की प्रगतिशील चेतना की संवाहक होती है लेकिन अपने चरम पर स्थायित्व के दोष से उसे मुक्त नहीं कहा जा सकता। यहीं पर आकर उसके गैर प्रगतिशील मूल्यों का पक्षधर हो जाना जैसा होने लगता है। क्षेत्रियता और दूसरे  ऐसे ही गैर प्रगतिशील  मूल्यों की गिरफ्त बढ़ने लग सकती है और आधुनिकता को ठीक से पहचाने बगैर वह सिर्फ लोक लोक की रट लगाने लगती है। स्थानिकता का नितांतपन उस सीमा के पार जाते हुए ही सार्वभौमिक हो सकता है जब वह बहुत आधुनिक होने के साथ हो। भौगोलिक, भाषायी और सांस्कृतिक विशिष्टता से हिलौर लेते समाज को सिर्फ कथ्य की विशिष्टता के लिहाज से विषय बनाती रचनाओं में दक्षिणपंथी भ्र्रामकता से ग्रसित होने की प्रवृत्ति होती है। ठहराव और दुहराव उसकी जड़वत प्रकृति के तौर पर होते हैं। स्पष्ट है कि उनसे पार जाने की कोशिशों से ही यथार्थ का उन्मूलन और वैश्विक जन समाज की चिन्ताओं का दायरा आकार लेता है। भूगोल और संस्कृति के बार-बार के दुहराव स्थानिकता को बचाए रखते हुए लोक के सर्जन में कतई सहायक नहीं हो सकते। दृश्यावलियों की समरूपता और सांस्कृतिक परिघ्ाटनाओं का एकांगी वर्णन कलावाद के करीब जाना ही है। जब प्रकृति अपने रूपाकार में गतिशील है तो उसके प्रस्तुति की दृश्यावलियां कैसे स्थिर हो सकती हैं ? साक्ष्यों के तौर पर स्थानिकता को प्रकट करती ऐसी दृश्यावलियां जिस मानसिकता से उपतजी हैं उसमें यथार्थ के हुबहू प्रस्तुतिकरण की चाह, जो संदेहों के परे हो, कारण होती है। यथार्थ के उन्मूलन में उनका योगदान इतना जड़वत होता है कि किसी नयी संभावना को खोजा नहीं जा सकता। निपट एकांतिक हो जाने वाली उनकी अनुभूति विशिष्टताबोध से भरी होने लगती है। छायावदी युगीन चेतना की कमजोरी इस सीमा के अतिक्रमण न कर पाने में ही रही है। संसाधनों के सार्थक उपयोग की बजाय प्रकृति से किसी भी तरह की छेड़-छाड़ यहां निषेध हो जाती है और विध्वंश की आततायी कार्रवाइयों के विरोध में नॉस्टेलजिक हो जाने की भावनात्मक अनुभूतियां विद्यमान होने लगती हैं। स्वस्थ मनुष्य और अवसाद में घिरे व्यक्ति के बीच के फर्क से समझा जा सकता है। अवसाद में घिरे व्यक्ति को कतिपय एक बार देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि वह अस्वस्थ है और उसकी अस्वस्थता का क्षेत्रफल सामाजिक उदासीनता के घेरे तक विस्तार ले सकता है। जो किसी भी निर्णायक संघर्ष तक प्रेरित करने की बजाय स्थितियों से नकार के रूपग में विकसित होता जाता है। तटस्थता की मुख-मुद्रा में भी वह निषेध के तत्वों का ही सर्जक हो सकता है।       




Wednesday, October 19, 2011

खिलंदड़ ठाट




जलती हुई बत्ती के साथ फड़-फड़ाते अंधेरे में दरवाजे, चौखटों और कमरे में भरे पड़े सामानों में किसी जीव के दुबक जाने की सरसराहट परेशान करने वाली होती। किचन के भूतहे अंधेरे में उड़ते हुए तिलचट्टों के प्रहार होते। कितनी ही 'लक्ष्मण रेखाएं", 'फ्लिट" की तीखी गंध से पस्त होते पंखों को समटेने की लिजलिजी कार्रवाई की थकान के बावजूद नींद गायब होती, पर सिर दुख रहा होता।
'फॉल्स सीलिंग" के भीतर किसी भारी भरकम जीव के दौड़ने की धमक भीतर घ्ाुस आये चोरों का अंदेशा पैदा करती। दहशत के मारे जागे हुए परिवार की मौन-सरसराहट में घनी काली रात का अंधेरा बेहद डरावना हो गया था। जाने कौन घ्ाुस आया है भीतर ? सीलिंग के भीतर से बाहर निकल, बस नीचे कूदने-कूदने को है। पांवों की सरसराहट से कांपती सीलिंग की धमक ऐसी कि कमरे की दीवारें तक भड़-भड़ा रही हों मानो।
- खुली हुई खाट की बाँहें कहाँ रखी हैं ?
धर के भीतर घुस चुके चोरों से निपटने का दायित्व मुखिया पर था। मरता क्या नहीं करता। बान की खुली हुई बाँहें तो संभाल कर फॉल्स सीलिंग में ही रखी गयी थी।
"बिना हथियार के कैसे निपटा जाएगा किसी हथियारबंद से ?" दबी-दबी और डरी-डरी आवाज में भी पत्नी को कोसना न छूटा था-
- अब निपट खुद--- बड़ी आई संभालने वाली। ले दे के डण्डे हथियार हो सकते थे, वो भी दुश्मनों के हवाले है तेरे कारण।