Friday, December 16, 2011

घेड़ गिंडुक की तेरहवीं


डा. शोभाराम शर्मा

ठाकुर बुथाड़ सिंह को बाप-दादों से वसीयत में जो कुछ मिला, उसमें से तीन चीजों का उल्लेख करना आवश्यक है। पहली चीज थी इलाके की थोकदारी¹, दूसरी लाइलाज बीमारी और तीसरी कोठे² के एक अंधेरे कमरे में पड़ा घेड़ गिंडुक³। सत्ता चाहे जो भी और जैसी भी हो, उसके प्राण तो लाठी में ही बसते हैं। यहां भी उधर की सत्ता ने अपना आतंक जमाने के लिए जो हथियार चुना वह घेड़ गिंडुक के रूप में सामने आया। हक-दस्तूरी⁴ की जां-बेजां वसूली के लिए वह कारगर हथियार साबित हुआ। उसके बूते उपजी दौलत, और दौलत से उपजी विलासिता। दौलत ने विलासिता को ऐसी हवा दी कि उसके असर से बच पाना आसान नहीं था। पहले शिकार बने ठाकुर बुथाड़ सिंह के अपने ही दादा। जिनकी रसिकता की चर्चा लोग आज भी चटखारे ले-लेकर करते हैं। एक से जी नहीं भरा तो चार-चार शादियां कर डालीं। एक को तो विवाह मंडप से ही उड़ा लाए। इलाके को जैसे सांप सूंघ गया। विरोध् में एक उंगली तक नहीं उठी। घेड़ गिंडुक के आगोश में मौत को गले लगाने की हिम्मत जुटाना भी तो खेल नहीं था। पिफर क्या था, वासना का ज्वार सारी सीमाएं लांघ गया। मां-बाप ने जिस बेचारी से पल्ला बांध वह तो पति की बेरुखी का अभिशाप जीवन भर भोगती रही। गनीमत हुई कि थोकदारी का वारिस उन्हीं की कोख से पैदा हुआ और इलाके के लोग 'जैजिया⁵ का संबोधन उन्हीं के सम्मान में करते थे। संतोष था तो बस इतना ही।
उधर महफिलें जमतीं, नृत्यांगनाओं के नखरे उठाए जाते, ऊपर से इलाके की सुंदरियों की टोह भी लेनी पड़ती। रखैलों का ध्यान भी गाहे-बगाहे रखना ही पड़ता। सुरा-सुंदरी के मोहपाश में ऐसे फंसे कि असमय ही बुढ़ापे के लक्षण प्रकट होने लगे। हल्का-सा ताप और ऊपर से खांसी की मार। लगता था कि एक हरे-भरे पेड़ को बेरहम काठ कीड़ा भीतर से खोखला करने में लगा हो। रोग बढ़ता गया और एक दिन खून उगलते-उगलते वे दुनियां ही छोड़ गए।
बेटे ने शादियां तो दो ही कीं लेकिन सुरा-सुंदरी के आकर्षण से बच पाना उसके बस में भी नहीं था। बाप की सौगात जल्दी ही ऐसा रंग लाई कि अधबीच जवानी में ही रोग ने धर दबोचा। आज तीसरी पीढ़ी के ठाकुर बुथाड़ सिंह उसी की चपेट में हैं। थोकदारी के साथ बीमारी भी खानदानी हो गई। खानदान पर लगे इस घुन से पीछा छुड़ाने के लिए क्या कुछ नहीं किया गया। देवी-देवता, पूजा-पाठ, जप-तप, तीरथ-व्रत, झाड़-फूंक और दवा-दारू सबकुछ तो किया लेकिन ढाक के वही तीन पात। अभी तक तो छुटकारा मिला नहीं। ठाकुर बुथाड़ सिंह को तो बस यही चिंता खाए जा रही थी कि उनका अपना तो जो कुछ हो लेकिन अगली पीढ़ी इस बला के चंगुल में न फंसे। ऊपर से एक मुसीबत और। गोरखों तक तो ऊपरवालों से तालमेल बिठाने में कोई अड़चन नहीं आई लेकिन इधर जब से सात समंदर पार के पिफरंगी मालिक बने थोकदारी पर भी संकट के बादल मंडराते नजर आने लगे। बड़े-बड़े नवाब और राजे-महाराजे तक जिस कंपनी बहादुर के आगे नहीं टिक पाए, उसका थोकदार जैसे बौने सामंत भला क्या बिगाड़ लेते? अपनी इस बेबसी पर ठाकुर बुथाड़ सिंह भीतर-ही-भीतर कसमसा रहे थे कि बाहर से किसी की पदचाप सुनाई दी। दरवाजा ठेलकर अपने ही कुलपुरोहित प्रकट तो हुए पर झिझकते हुए कुछ दूरी बनाकर बतियाने लगे। बोले- ''ठाकुर साहब! राजवैध की दवाइयों से कुछ लाभ हुआ कि नहीं?
''किसका लाभ और कहां का लाभ पंडित जी। लगता है अब ऊपर जाने के दिन नजदीक आ गए हैं। मायूस होकर ठाकुर बुथाड़ सिंह ने जवाब दिया।
''इतने निराश न हों ठाकुर साहब। हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहने से तो कुछ होगा नहीं। राजवैध यह भी तो सुझा गए थे कि मांसाहारी का मांस लाभ पहुंचा सकता है।
''तो आप चाहते हैं कि मैं गीदड़, कौवे और उल्लू आदि का मांस लेकर अपना अगला जनम भी अकारथ कर डालूं। नहीं पंडित जी मन नहीं मानता। आखिर अपने संस्कार भी तो कुछ हैं।
''आपका कहना भी सही है मन ही न माने तो उपाय भी व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन कुछ-न-कुछ तो करना ही होगा। आपकी जन्मकुंडली देखकर मैंने जो वर्षफल निकाला है उसके अनुसार शनि की साढ़े साती का अब एक ही साल शेष रह गया है। इस बीच अगर शनि-कोप-विमोचन-जाप किसी शिव मंदिर में शुरू कर दें तो रोग का प्रकोप अवश्य धीमा पड़ेगा और साल भर बाद अगर भगवान आशुतोष की कृपा हुई तो आप इस जानलेवा बीमारी के चंगुल से भी छुटकारा पा लेंगे।
''आप कहते हैं तो यही सही। लेकिन एक बात समझ में नहीं आती। यह साढ़े साती मेरे ही पीछे पड़ी है या मेरा पूरा खानदान ही इसकी चपेट में है। मैं तो तीसरी पीढ़ी में हूं। इसी रोग के मारे मेरे पुरखे भी असमय काल-कवलित हो गए। उन्होंने भी तो सारे उपाय किए थे। लेकिन हुआ क्या? जो कीड़ा खानदान की जड़ में लग गया वह तो छूटने का नाम ही नहीं लेता।
''देखिए ठाकुर साहब, शनि महाराज का कुछ स्वभाव ही ऐसा है कि किसी पर प्रसन्न हुए नहीं कि राज-योग बैठ गया और कहीं कुपित हो बैठे तो सालों-साल साढे़ साती के कोल्हू में पेर दिया। अति तो हर चीज की बुरी होती है। भगवान शनिदेव की कृपा से राजयोग बैठता तो है लेकिन विलास की अति उन्हें भी पसंद नहीं। राजयोग को राजयक्ष्मा में बदलते उन्हें देर नहीं लगती। कहते हैं कि अति विलासिता के कारण भगवान राम का वंश तक इसी रोग से समाप्त हो गया था। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हम भाग्य भरोसे बैठे रहें। मैं जिस जाप की सलाह दे रहा हूं, शायद वही काम कर जाए, कौन जाने?
''लेकिन मेरी सिथति क्या जाप करने की है?
''आपको नहीं, जाप तो मुझे करना है आपके लिए। आप तो बस संकल्प भर कर दें।
''तो ठीक है, जिस चीज की भी जरूरत हो आप निस्संकोच यहां से लेते रहें। हां … । ठाकुर बुथाड़ सिंह ने कुछ कहने के लिए गला सापफ करना चाहा तो खांसी उभर आई। कहीं थूक के छींटे उन तक न पहुंचे इस डर से पुरोहित ने मुंह फेर लिया। खांसी का वेग थमा तो बुथाड़ सिंह गहरी सांस छोड़कर बोले- ''पंडित जी, एक आप ही थे जो सामने आकर बतिया लेते थे। अब तो आप भी मुंह फेरने लगे हैं। खैर! आपको ही क्या दोष दूं जब अपने ही सामने आने से कतराते हैं। और-तो-और घरवाली तक छूने से परहेज करने लगी है। बस भोजन-पानी और दवा-दारू देकर कमरे से बाहर निकलने की जल्दी में रहती है। जबसे यह रोग लगा बेटे और बहू की एक झलक तक देखने को तरस जाता हूं। नाते-रिश्तेदार और इलाके के लोग बाहर-बाहर से हमदर्दी जताकर खिसक लेते हैं। एक तो बीमारी ऊपर से अकेलेपन का एहसास, इन दोनों ने तो मुझे भीतर से तोड़  दिया है। सोचता हूं इस दुनिया से जितनी जल्दी उठ जाउफं, उतना ही अच्छा।
''ठाकुर साहब! धीरज रखें एक ही साल की बात तो है। साढे साती निपटी नहीं कि आपको चंगा होने में देर नहीं लगेगी। हां, अगर चिंता ही करनी है तो थोकदारी को लेकर करें। पंडित जी ठाकुर की ओर मुखातिब होकर कह बैठे।
''क्यों? क्या कोई नई बात सामने आई है? बेगार और बरदाइश लेने का अधिकार हमसे तो छीन लिया लेकिन अपने अफसरों के लिए उसे कानून सम्मत मानने में कोई हिचक नहीं। गनीमत है अभी हक-दस्तूरी की ओर इस सरकार की नजर नहीं गई।
''बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी, ठाकुर साहब। थोकदारी के पर कुतरने का तो पुख्ता इंतजाम हो चुका। सारे मामले तो अब पटवारी और तहसीलदार जैसे सरकारी मुलाजिमों को देखने हैं। ऊपर से जमीन के बंदोबस्त की जो कवायद चल रही है उससे तो थोकदारी के हाशिए पर चले जाने का पूरा खतरा है। हिस्सेदार-तो-हिस्सेदार खैकरों और यहां तक सिरतावों को भी अब जमीन छिन जाने का भय नहीं रहेगा। रहे पायकाश्त तो उनकी संख्या ही कितनी है। डर के बिना तो लोग हक-दस्तूरी भी देने से रहे। लगान भी अब आगे से नकद जमा करने की बात सुनने में आई है। यह सुनकर ठाकुर साहब का चेहरा तो पीला पड़ा ही मुंह भी खुला-का-खुला रह गया। किसी तरह खांसी रोक कर बोले-''खटका तो मुझे भी था पंडित जी। आपने और भी आंखें खोल दीं। इन फिरंगियों के नियम-कानून कुछ समझ में नहीं आते। लगता है हम लोगों के दिन लद गए हैं। अंधेरा-ही-अंधेरा नजर आता है। दुख तो इस बात का है कि यह सब मेरी ही पीढ़ी के साथ होना था। बेटा ऐसा कि भविष्य की कोई चिंता नहीं। हर बात को मजाक में लेता है। सुनता हूं कि अब मनमानी पर भी उतर आया है। सात-सात खून माफ होने की बात उछालकर लोगों को धमकाने से भी बाज नहीं आता। ना-समझी तो मैंने भी की थी और उसका परिणाम भी भोग रहा हूं। पिफर भी जहां तक खानदान के हित का सवाल है, मैंने कभी अनदेखी नहीं की। लेकिन थोबू है कि इस ओर से बिल्कुल बेखबर। पिफरंगी सरकार के तौर-तरीकों से तालमेल नहीं बैठा तो अगली पीढि़यां भीखमंगों की जमात में शामिल होने से नहीं बचेंगी। सोचता हूं तो कलेजा मुंह को आता है।
तन और मन की दुहरी चिंता में घुलते थोकदार जी को सान्त्वना देने की गरज से पंडित जी बोले-''हरि इच्छा मानकर चिंता करना छोडि़ए ठाकुर साहब। उम्र की बढ़ती के साथ बेटा भी सब सीख जाएगा। जमाने के थपेडे़ उसे सही राह पर ले आएंगे। आप सोच-सोचकर क्यों जी हलकान करते हैं। मन को शांत रखिए और सबकुछ उफपर वाले पर छोड़ दीजिए वरना हालत और गंभीर हो सकती है।
''हां! और चारा भी क्या है पंडित जी, र्इश्वर की जो इच्छा।
''अच्छा तो मैं चलूं। कल से ही जाप शुरू कर देता हूं। यह कहकर पंडित जी कमरे से बाहर हो गए। भीतर बुथाड़ सिंह पिफर से खांसने लगे थे। खांसी के साथ-साथ कराहने का स्वर थोकदन⁶ के कानों में पड़ा तो वह नीचे चली आर्इ। कमरे में प्रवेश करते ही पूछ बैठी-''आपने दवा ली कि नहीं? थोकदार जी थूकदान में कपफ के साथ पहली बार खून के कतरे देखकर परेशान थे। उदास नजरों से थोकदन के चेहरे पर देखते हुए बुझे-बुझे स्वर में बोले-''जी कर ही क्या करूंगा जो दवा लूं।
''शुभ-शुभ बोलो जी! आप ही हिम्मत हार बैठे तो हमारा क्या होगा। थोकदन ने कहा।
''मन रखने को कुछ भी कहती रहो ठकुराइन लेकिन यहां मेरी चिंता ही किसको है। कारबारी हों या सिरताव-खैकर, नाते-रिश्तेदार हों या अपनी औलाद, सब-के-सब तो दूरी बरत रहे हैं। पास पफटकने में तो सबकी नानी मरती है। तुम तो अर्धंगिनी हो मेरी, सात पफेरे लिए हैं तुमने लेकिन जब से यह रोग लगा, पास आने में कतराती हो। बतियाने तक में कंजूसी बरतने लगी हो। ऐसे बच निकलती हो जैसे मैं आदमी न हुआ अजगर हो गया जो साबुत निगल जाउफंगा।
''हाय राम! यह सोच भी कैसे लिया आपने? कौन अभागिन होगी जो अपने सुहाग के बारे में ऐसा सोचे? कहते हैं इस रोग में दूरी बरतना ही सबके हित में है। यही सोचकर मैं अपने मन पर काबू रखने का प्रयास करती हूं। नहीं तो साथ निभाने की इच्छा किसकी नहीं होती।
घरवाली के मुंह से आत्म-नियंत्राण और संयम बरतने की बात सुनकर बुथाड़ सिंह के मुंह से बोल नहीं पफूटे। एकटक पत्नी के सुघड़ चेहरे पर देखते रहे। जवानी के दिन याद आने लगे तो बोले-''थोबू की मां! सोचता हूं देर-सवेर तो मरना ही है पिफर क्यों न जीवन का भरपूर आनंद उठाकर मरें। दूर क्यों खड़ी हो? पास आकर बैठो न। और वे पत्नी की ओर सरकने लगे। पत्नी ने बरजा-''छोड़ो भी। दादा-दादी की उम्र होने को आर्इ, उफपर से ऐसी बीमारी, कुछ तो खयाल करो।
लेकिन थोकदार जी अब कहां मानने वाले थे। झटके-से खड़े हुए और हिंसक पशु की तरह थोकदन की ओर लपके। आंखों में वासना के लाल डोरों की झलक देखकर थोकदन तेजी से बाहर निकल गर्इ। वह तो हाथ क्या चढ़ती, कमजोरी के कारण बुथाड़ सिंह की टांगे लड़खड़ार्इ और माथा दरवाजे से जा टकराया। आंखों के आगे चिनगारियां उड़ने लगीं और पिफर अंध्ेरा छा गया। लेकिन दिमाग की सुर्इ बीते दिनों के भूले-बिसरे परिदृश्यों पर जाकर अटक गर्इ। याद आया कि वे भी क्या दिन थे जब उनकी इच्छा ठुकराने का साहस किसी में नहीं था और आज अपनी ही घरवाली … । थोकदारी का आहत अहंकार जाग उठा और वे गुस्से में पास के उस अंध्ेरे कक्ष में घुस पड़े जहां बहुत दिनों से बेकार पड़ा घेड़ गिंडुक दीवार के सहारे खड़ा था।
आंखें मिचमिचाकर दीवार की ओर देखा तो घेड़ गिंडुक नजर आया। भारी-भरकम अजगरी आकार और सुरसा जैसा भयानक मुंह। यातना का वह राक्षसी औजार देखते ही ठाकुर को उफपर से नीचे तक झुरझुरी दौड़ गर्इ। कान भी बजने लगे। लगा कि जैसे घेड़ गिंडुक के भीतर कैद कोर्इ अभागा असहनीय यातना के मारे अपने भाग्य पर रो रहा हो। ठाकुर को घेड़ गिंडुक के मुंह से किसी आदमी का सिर बाहर लटकता नजर आया। बेतरतीब दाड़ी-मूछों वाला वह अजीब-सा चेहरा कभी सामने आया हो, ऐसा नहीं लगा। ठाकुर बुथाड़ सिंह यह नजारा देखकर किसी दूसरी ही दुनिया में खोते चले गए। देखते क्या हैं कि घेड़ गिंडुक से उछलकर वह दढि़यल सामने आकर मुंह चिढ़ा रहा है। उसने पहला व्यंग्य बाण छोड़ा-''अपमान पी जाना और गुस्सा थूक देना नागवंशी नागों ने कब से सीखा? कोर्इ प्रतिक्रिया होती न देखकर उसने पिफर कहा-''पुरखों के प्रताप का जाप झेल नहीं पाए क्या, जो आवाज तक नहीं निकलती। घबराहट में किसी तरह थूक निगलकर ठाकुर बुथाड़ सिंह बोले-''तुम हो कौन जो इस तरह बोल रहे हो?
''मैं … मैं तुम्हारे वंश का वह इतिहास हूं जो दगा-पफरेब, जालसाजी और लाठी के बल पर लिखा गया है। धूर्तता की जिस बुनियाद पर तुम्हारी थोकदारी टिकी है उसका पहला शिकार मैं हूं। सुनना चाहते हो? तो सुनो- बात उस समय की है जब खोहद्वार का यह इलाका मैदानी लुटेरों की शिकारगाह बना हुआ था। दरबार तक खबर पहुंची तो तुम्हारे दादा को इस आशय से भेजा गया कि वे लुटेरों को मार भगाएं। वे आठ-दस सैनिक लेकर यहां पहुंचे। पहली ही मुठभेड़ में दो सैनिक लुटेरों के हाथों मारे गए। एक बघेरे का शिकार हो गया। दूसरी मुठभेड़ में लुटेरों ने घात लगाकर दो और सैनिकों का काम तमाम कर डाला। उफपर से तुम्हारे परदादा और शेष तीन सैनिक मच्छरों के मारे जूड़ी-ताप के शिकार हो गए। निराश होकर वे किसी बस्ती की खोज में थे कि एक ओर अध्मरा सैनिक अजगर के पेट में समा गया। तुम्हारे पड़दादा और उनके दो साथी यहीं गध्ेरे⁷ के किनारे एक पत्थर की आड़ में अपनी मौत की बाट जोह रहे थे। मैंने उन्हें मरणासन्न अवस्था में देखा तो मुझसे रहा नहीं गया। मैं उन्हें अपने दो भाइयों की मदद से घर ले आया। हमारी सेवा-सुश्रुषा से वे कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गए। हां, तुम्हारे पड़दादा ध्ुन के तो सचमुच पक्के थे उन्होंने मुझे और गांव के दूसरे जवानों को भी अपनी मुहिम में शामिल कर लिया। एक मुठभेड़ में तुम्हारे पड़दादा के प्राण संकट में थे लेकिन मौके पर मेरी सूझबूझ ने पासा पलट दिया। खूंखार लुटेरा सरदार मारा गया। बाकी लुटेरे भाग खड़े हुए। इलाके को उनके आतंक से मुकित मिल गर्इ। लेकिन हमारे सरसब्ज गांव को देखकर तुम्हारे पड़दादा की आंखों में जो चमक पैदा हुर्इ उसका मतलब बाद में ही मालूम हो पाया।
हमारे पुरखों ने गांव की यह जमीन जंगल से छीनी थी। उसकी उर्वरता देखकर वे स्थायी बस्ती बसाने को प्रेरित हुए थे। गध्ेरे से गूल इस तरह निकाली गर्इ कि गांव की एक इंच भूमि भी असिंचित नहीं रह पार्इ। पूरा-का-पूरा गांव एक सेरे⁸ के रूप में उभर आया। गांव के नीचे भाबर का विशाल वन और सिर पर बांज-बुरांसों का शीतल जंगल। यह सब देखभाल कर तुम्हारे पड़दादा अपने दो साथियों के साथ राज-दरबार में अपनी कामयाबी की वाहवाही लूटने विदा हो गए। बात आर्इ-गर्इ हो गर्इ। लेकिन एक दिन वे घोड़े पर सवार हो थोकदारी का पटटा लेकर आ ध्मके। उनके साथ राज्य के दो सैनिक और एक पंडित जी भी थे। आते ही सबसे पहले मेरी पुकार हुर्इ। और जिस अकड़ के साथ मेरा चार नाली⁹ का खेत कोठे के लिए मांगा गया, सुनकर मैं तो हक्का-बक्का रह गया। कुछ कह नहीं पाया तो पंडित जी बोले-''देखो भार्इ! जमीन की तो कोर्इ कमी यहां है नहीं लेकिन वास्तुशास्त्रा के अनुसार तुम्हारा यह खेत कोठे के लिए सबसे शुभ ठहरता है। मैंने मिटटी का परीक्षण करके भी देख लिया है। देखो यह तो नागवंशी ठाकुर की भलमनसाहत है जो तुमसे जमीन का एक टुकड़ा मांगने की नम्रता बरत रहे हैं। मैं पिफर भी कुछ नहीं बोला तो नए-नए थोकदार जी ने पफरमाया- 'मैं तुम्हारा अहसान नहीं भूला हूं भार्इ। लेकिन पंडित जी का कहना है कि यही खेत कोठे के लिए सबसे उत्तम है तो क्या करें। इसके बदले तुम यहां चाहे जितनी जमीन ले लो मुझे कोर्इ आपत्ति नहीं।
इस पर मैंने कहा- 'इस खेत की उपज की भरपार्इ तो दूसरी जमीन शायद ही कर पाए। पिफर यहां आपकी कौन-सी जमीन है जो बदले में आप मुझे देने का सौजन्य बरत रहे हैं। उत्तर नहीं बन पाया तो पंडित जी यजमान की मदद को आगे आए। वे प्रश्न-पर-प्रश्न उछालते गए और खुद ही उत्तर भी देते गए। बोले-'यह ध्रती, यह दुनिया किसने बनार्इ? ईश्वर ने। तो पिफर यह दुनिया किसकी जागीर है? ईश्वर की। और ईश्वर ने इसकी देख-रेख का काम किसको सौंपा है? राजा को। और राजा ने किन लोगों में अपना दायित्व बांटा है? थोकदार-जमींदारों में। तो पिफर इलाके भर की जमीन किसकी हुई? थोकदार जी की। ध्र्मशास्त्रा तो यही कहते हैं भाई! वैसे तुम जानो। और मैं अनपढ़-गंवार भला क्या कहता। धर्मशास्त्र ने तो मेरी बोलती ही बंद कर दी थी।
दूसरे ही दिन मेरे उस खेत में कोठे के लिए नींव खुदने लगी। इलाके भर के सारे जवान मर्द-औरतों को प्रभु सेवा में जोत दिया गया। कुछ लोग चिनार्इ के पत्थर निकालने लगे। कुछ छवार्इ के पठाल¹⁰ तो कुछ लोग जंगल में इमारती लकड़ी तैयार करने में जुट गए। एक विशाल पेड़ के तने को घेड़ गिंडुक का आकार लेते भी हमने पहली बार देखा। इलाके भर के नामी ओड¹¹ भी धर लिए गए थे। थोकदार जी के कोठे की चिनार्इ साधरण बेजड़¹² से तो होनी नहीं थी सो इलाके भर से उड़द की ढेरों दाल इकटठा की गई। यहां तक कि शादी के लिए जमा उड़द भी छीन ली गर्इ। गांव की औरतों को उड़द की पीठी बनाने में जोत दिया गया। और इस तरह तुम्हारे पुश्तैनी कोठे ने आकार ग्रहण करना शुरू किया। पूरा होने पर परिवार भी आकर घेड़ गिंडुक के साथ यहां रहने लगा। लेकिन थोकदार जी परिवार के प्रति निष्ठावान होने के कायल कभी नहीं रहे। अपनी अमलदारी के चार अन्य गांवों में भी रखैलों के लिए प्रभु सेवा में घर बने। इन घरों में थोकदार जी का आना-जाना बारी-बारी लगा रहता। रखैलों में से किसी को उठा लाए थे तो कोर्इ उनके रौबदाब के मारे खुद ही गले पड़ गर्इ थी। खैर यहां तक तो गनीमत थी लेकिन जब एक बादिन¹ को कोठे में ही अपनी हवस का शिकार बना बैठे तो मुझसे नहीं रहा गया। बेचारा मंगतू बादी¹⁵ मेरे पास आया था। उसने बताया कि वह कुछ पाने की गरज से थोकदार जी की सेवा में हाजिर हुआ था लेकिन अपनी बादिन से ही हाथ धे बैठा है। थोकदार जी ने बलात उसे कोठे में बंद कर दिया है। विरोध् किया तो घेड़ गिंडुक की यातना भोगने से किसी तरह बचकर निकल आया है। मैंने उसे अपने साथ चलने को कहा लेकिन वह थोकदार जी के सामने जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। मैं अकेले ही थोकदार जी के पास जा ध्मका। पहुंचते ही पूछ बैठा-'ठाकुर साहब बादिन को आपने कहां छिपा रखा है? इस पर तुम्हारे पड़दादा ने जलती आंखों से मेरी ओर ताका और बोेले- 'खसिया की औलाद, तेरी इतनी हिम्मत! मंगतू बादी क्या तेरा रिश्तेदार लगता है? समझा, तू समझता है कि कभी एक लुटेरे के प्रहार से बचाकर तूने मुझ पर एहसान किया था, इसलिए जो चाहे मेरे मुंह पर कह सकता है। लेकिन एहसान किस बात का? राज-दरबार ने मुझे जो काम सौंपा था, प्रजा के नाते उसमें हाथ बंटाना क्या तुम्हारा पफर्ज नहीं था? आज तक मैं तुम्हारी हर गुस्तखी मापफ करता रहा लेकिन अब और नहीं। जानता है ये बेड़े-मेढ़े बड़े टेढ़े होते हैं। दबाकर न रखो तो सिर पर ता-थैया करने लगते हैं। इन कंगाल भिखमंगों की झोली में बिरमा जैसी नारी-रतन की बेकæी नहीं देखी जाती। मैं तो उसे दरबार तक पहुंचाना चाहता हूं, समझे!
इस पर मैं बोल उठा-'ठाकुर आप और यह ध्ंध! सुनना था कि उनकी आंखों में खून उतर आया। वे मुझे छज्जे से नीचे पफैंकने ही वाले थे कि 'जैजिया¹⁴ चंडी का रुप धरण कर बिरमा की बांह पकड़े नीचे उतर आर्इ। थोकदार जी सकपकाकर रह गए। देखते-ही-देखते बिरमा को लेकर ठाकुर और ठकुराइन में तू-तू मैं-मैं होने लगी। ठाकुर ने लताड़ा, बोेले-'बेहयार्इ की हद हो गर्इ। कल तक तो छज्जे से नीचे कदम नहीं रखे और आज एक पराए मर्द के सामने उघाड़े मुंह चली आर्इ। उफपर से जबान लड़ाती हो और वह भी एक कमजात बादिन जैसी नचनी के लिए। भला चाहती हो तो चुपचाप उफपर चली जाओ। मेरे काम में दखल देने की हिमाकत न करो तो अच्छा है, सरेआम कुल की इज्जत उछाल रही हो तुम।
''कुल की इज्जत! उँह, वह तो कब की नीलाम कर चुके नागवंशी ठाकुर। मैं आज तक सब सहती रही। रखैलों से तुम्हारे संबंध् तो जगजाहिर हैं ही, यहां गांव में भी कौन-सी ऐसी बहू-बेटी है जिसकी इज्जत से खिलवाड़ करने का प्रयास तुमने न किया हो। लाज-शरम के मारे कोर्इ कुछ नहीं बोले, तो तुम शेर बन गए। मैं कोर्इ रखैल नहीं ब्याहता पत्नी हूं तुम्हारी। अपने इस कोठे को मैं बार्इ का कोठा नहीं बनने दूंगी। इस बेचारी में तो मुझे अपनी बेटी नजर आती है और तुमने इसी से अपना मुंह काला किया।
इस पर थोकदार जी कुछ हतप्रभ होकर बोले- ''तुम हद पार कर रही हो ठकुराइन। नागवंशी ठाकुर ऐसा अपमान सहने के आदी नहीं। तुम सरासर इल्जाम थोप रही हो। आखिर मैं पति हूं तुम्हारा। इसने कहा और तुमने मान लिया। अरे, इनका तो यह पेशा ही है। यही तो एक हथियार है इनका जिससे ये अपना मतलब निकालने की कला बखूबी जानते हैं। मैंने तो इसकी कंगाली पर तरस खाकर राज-दरबार पहुंचाने की सोची थी। लेकिन कोर्इ किसी का भाग्य थोड़े ही बदल सकता है।
इस पर ठकुराइन बोल उठी- ''तो नागवंशी ठाकुर बहू-बेटियों का भाग्य भी बदलने लगे! सोचते होंगे दरबार को खुश करके और बड़ा इलाका हथिया लेंगे। हे भगवान! कैसे आदमी से पाला पड़ा। मैं यह सब देखने से पहले मर क्यों नहीं गर्इ। और ठकुराइन ने माथा पीट लिया। ठाकुर और ठकुराइन की इस कहा-सुनी के बीच मंगतू बादी आया और बिरमा का हाथ पकड़कर जाने लगा। ठाकुर ने हाथ आया शिकार जाते देखा तो बौखलाकर चीख उठा- ''बेड़े की औलाद ठहर। बिरमा अब तेरी घरवाली नहीं, दरबार को समर्पित इस इलाके की एक तुच्छ भेंट है। रोकने के लिए आगे बढ़ने का प्रयास किया तो ठकुराइन आड़े आ गर्इ। ठाकुर का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। बोेले-''ठकुराइन बहुत हो गया। हट जा मेरे आगे से वरना अच्छा नहीं होगा। ठकुराइन बोल उठी- ''क्या कर लोगे? बोलो! मैं भी कोर्इ ऐसी-वैसी नहीं जो घुड़की में आ जाउफँ। कत्यूरी खानदान की बेटी हूं मैं भी। मर जाउफंगी पर अपनी आँखों के आगे ऐसा अन्याय नहीं होने दूंगी।
और ठाकुर किंकत्र्तव्यविमूढ़ होकर रह गए। खिसियाकर मेरी ओर मुखातिब हुए और बोले- ''देखा तुमने, ठकुराइन पागल हो गर्इ है। कोर्इ पति का ऐसा विरोध् करता है भला। मैंने कहा-''जैजिया गलत नहीं है ठाकुर, जरा सोचकर तो देखें। इस पर ठाकुर ने त्यौरी चढ़ाकर मेरी ओर ताका और पिफर सीढि़यों से उफपर चढ़ती थोकदन को इस तरह घूरा जैसे निगल ही जाएंगे। मंगतू और बिरमा नजरों से ओझल हो चुके थे। अपने इरादों पर इस तरह पानी पिफरता देख ठाकुर तब तो हाथ मलते रह गए लेकिन उस अपमान को भूल नहीं पाए। मंगतू और बिरमा को खोज निकालने का प्रयास भी असपफल रहा। वे तो इलाका ही छोड़कर कहीं दूर जा छिपे थे। जल्दी ही ठाकुर के भीतर बैठी बदले की कुत्सा ने अपना खेल खेलना आरंभ कर दिया। पहली शिकार तो ठकुराइन ही हुर्इ। एक सुबह पता चला कि वे चल बसी हैं। मुझे उनके पफूल सिराने हरिद्वार जाने का आदेश हुआ। आदेश के पीछे ठाकुर के इरादे को भांपना मेरे बस में नहीं था। मैं हरिद्वार के लिए कुछ ही दूर निकल पाया था कि अचानक दो नकाबपोशों ने जंगल के एक मोड़ पर मुझे घेर लिया। एक ने पीछे से वार किया और ताबड़तोड़ इतने प्रहार हुए कि मैं बेहोश होकर गिर पड़ा। होश आया तो खुद को इस घेड़ गिंडुक के भीतर जकड़ा पाया। तुम्हारे पड़दादा सामने खड़े थे। भेदभरी मुस्कान के साथ बोले- ''क्यों रे, जैजिया तो गलत नहीं थी, पिफर भी दुनिया छोड़ गर्इ? हां, उफपरवाले को भी अच्छे लोगों की जरूरत होती है तो कोर्इ क्या करे। और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वे बाहर निकल गए। मैं अध्मरा इस घेड़ गिंडुक के भीतर कब तक जिंदा रहा, यह तो मुझे मालूम नहीं किंतु मेरी भटकती आत्मा ने ठाकुर की भूखी वासना का नंगा नाच बखूबी देखा है। ठकुराइन की मौत का भेद भी कोठे की दीवारों से बाहर नहीं जा सका। उनके न रहने पर बेलगाम ठाकुर आखिर राजरोग का शिकार हुआ और सौगात स्वरूप अपनी अगली पीढि़यों को भी सौंप गया। मेरी हत्या का रहस्य भी लोगों पर नहीं खुला। लोग तो यही जानते-मानते हैं कि हरिद्वार आते-जाते मैं किसी जंगली जानवर का शिकार बन गया। सुना है कि ठाकुर ने अपने कारिंदों से तब मेरी खोजबीन का नाटक भी करवाया था। इतना कहकर वह आÑति देखते-ही-देखते न जाने कहां तिरोहित हो गर्इ। उसकी जगह एक दूसरी ही आÑति उभर आर्इ। अपनी ओर इशारा करके वह आÑति बोल उठी- ''देख रहे हो ठाकुर, यह मेरा नीला पड़ा शरीर। यह तो कुछ भी नहीं, मेरी आत्मा में जो जहर घोला गया उसके असर का तो कोर्इ हिसाब ही नहीं। बात तब की है जब गोरखा-आंध्ी के आगे 'बोलंदा-बदरीश¹⁶ की सत्ता टिक नहीं पार्इ। हमारे कुछ खानदानी शेरों ने अनाचारियों के आगे घुटने ही नहीं टेके बलिक उनकी आड़ में अपनी कुतिसत इच्छाएं भी पूरी करने लगे। जाने कौन-सी अशुभ घड़ी थी जब अचानक पधन¹⁷ जी की तिबारी¹⁸ से मेरी बुलाहट हुर्इ। पधन जी के आंगन के एक ओर नारंगी के पेड़ पर थोकदार जी का घोड़ा बंध देखकर मैं न जाने कैसी-कैसी आशंकाओं में डूबने-उतराने लगा। तिबारी में पहुंचा तो वहां मौजूद लोगों के चेहरों पर मुर्दनी छार्इ देख मेरा रहा-सहा ध्ैर्य भी चूक गया। थोकदार जी मूछों पर ताव देकर मेरी ओर ताक रहे थे। उनके इशारे पर पधन जी बोले- ''चैतू भार्इ! थोकदार जी हम लोगाेंं की कितनी चिंता करते हैं आज पता चला। इतनी दूर से दौड़े चले आए कि हम लोग किसी मुसीबत में न पफंस जाएं। थोकदार जी को पता चला है कि गोरखा नायक तुम्हारी बेटी की पिफराक में हैं। अगर हम लोगों ने विरोध् किया तो पता नहीं क्या हो। हो सकता है गोरखे गांव के सभी जवान लड़के-लड़कियों को बतौर दास-दासियों के बेच देने की सोचें। इस टेढ़ी समस्या से निजात पाने की जो तरकीब थोकदार जी ने सोची है, मुझे तो उसी में गांव का भला नजर आता है। वैसे तुम जानो।
मुझे काटो तो खून नहीं। कुछ कहना ही नहीं आया। थोकदार जी ने खांसकर चुप्पी तोड़ी, बोले- ''गोरखे तो पिफलहाल कहीं दून की ओर गए हैं। सुना है वहां पिफरंगियों से खतरा पैदा हो गया है। कहीं लौट आए तो क्या होगा, यही सोचकर परेशान हूं। हमारी बहू-बेटियों की इज्जत पर कोर्इ बाहर वाला हाथ डाले, यह तो हमारे लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात होगी। सोचता हूं कि लड़की को मैं स्वयं अपने सरंक्षण में ले लूं। ऐसा होने पर गोरखे सौ बार सोचने को मजबूर होंगे। वे जानते हैं कि अगर हम जैसों ने उनका साथ नहीं दिया तो वे यहां टिक नहीं पाएंगे। सवाल एक घर की इज्जत का नहीं, पूरे गांव और इलाके की इज्जत का है। मेरी अमलदारी में ऐसा कुछ हो भला मैं यह कैसे सहन कर सकता हूं। मैं आज ही लड़की को अपने साथ ले जाने आया हूं।
थोकदार जी के मन की गहरार्इ में उतरकर झांका तो खून के आंसू पीकर रह गया। हाथों के तोते उड़ गए। दिल बैठ गया। रूंध्े गले से बस इतना भर बोल पाया- ''लेकिन अगले महीने तो उसके हाथ पीले करने हैं?
''तो क्या हुआ? मामला ठंडा पड़ने पर यह भी हो जाएगा। थोकदार जी स्वयं कन्यादान कर देंगे। चिंता किस बात की? पधन जी बोल उठे।
सभी की राय वही थी मैं क्या करता। एक उमरदार रोगी के साथ बेटी को जाते देखकर मेरी छाती दरककर रह गर्इ। उसकी मां तो रो-रोकर अपनी आंखें ही पफोड़ने पर तुल गर्इ थी। लेकिन हमारे पास चारा भी क्या था। छाती पर पत्थर न रखते तो क्या करते। समधियाने खबर पहुंचा दी कि लड़की पिफलहाल अपने ननिहाल गर्इ है। लेकिन कहीं उन्हें पता चल गया तो? इसी आशंका के मारे मैं एक दिन थोकदार जी के कोठे पर जा पहुंचा। सोचा था कि अगर लड़की को सकुशल वापिस ला सका तो इज्जत मिटटी होने से बच जाएगी। थोकदार जी बड़े प्यार से मिले। खुद ही बोले- ''गोरखों का खतरा तो टल गया। पिफरंगी उन्हें ध्ूल चटाकर आगे बढ़ रहे हैं लेकिन आपसे विनती है कि लड़की को वापस ले जाने की बात न करेंं। यहां ठकुराइन की तबीयत ठीक नहीं रहती। परिचर्या के लिए उन्हें एक जवान हाथ की जरूरत है। और आपकी बेटी इस काम को बखूबी निभा रही है। अगर वह यहीं रहे तो कैसा रहे?
''लेकिन उसकी तो शादी तय है। मैंने कहा।
''तो क्या हुआ? समझ लो कि उसके भाग्य में यही घर लिखा था। थोकदार जी बोले।
''यह क्या कह रहे हैं, ठाकुर। मेरी तो बिरादरी में नाक कट जाएगी। लोग थू-थू करेंगे। कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह पाउफंगा मैं। पिफर अपनी उमर तो देखो ठाकुर?
''अरे! अभी तो साठ पर भी नहीं पहुंचा। और मर्द तो साठे पर पाठा होता है। हमसे संबंध् जुड़ना क्या तुम्हें पसंद नहीं?
''नहीं! बिल्कुल नहीं! मैंने चीखकर कह तो दिया मगर विश्वास के पांव डगमगा रहे थे। ठाकुर ने एक व्यंग्य भरी मुस्कान मेरी ओर पफेंकी पिफर अपने कारिंदों को सुनाते हुए बोला- ''लगता है इनकी समझदारी का दायरा बहुत तंग है। कुछ ऐसा करो कि बात इनकी समझ में आ जाए। इतना कहकर थोकदार जी एक ओर हट गए। पिफर क्या था, उनके दो लठैत यमदूतों की तरह मुझे घेर बैठे। एक बोला- ''क्यों रे! बछिया के ताउफ! थोकदार जी बेटी का हाथ मांग रहे हैं और तू इनकार कर रहा है। दूसरे ने कहा- ''बौड़म है या पूरा पागल! इतने उफंचे खानदान से रिश्ता जुड़ा और तू है कि तोड़ने की बात कर रहा है।
''कहां का रिश्ता और कैसा रिश्ता? गुस्से में मैं चीखा।
''अरे! तू दुनिया को बेवकूपफ समझता है क्या? तब जवान बेटी को चुपचाप थोकदार जी के साथ क्या सोचकर भेजा था? रिश्ता तो उसी दिन तय हो गया था। बेटी क्या कुंवारी बैठी है अभी तक। वह तो कब की छोटी ठकुराइन बन चुकी। शेर की मांद में घुसकर उसके मुंह से शिकार छीन लेगा क्या? पहले ने ध्मकी भरा सवाल किया तो दूसरे ने जोड़ा- ''पिददी न पिददी का शोरबा! छोटी मालकिन को कहीं और ब्याहेगा? अकल के अंध्े! तूझे तो खुश होना चाहिए कि तेरी बेटी राज कर रही है। यह सब सुनने पर भी जब मैंने अपनी जिदद नहीं छोड़ी तो वे दोनों मुझे यहां ले आए। मार बांध्कर जबरन घेड़ गिंडुक में ठूंस दिया गया। बहुत दिनों से खाली पड़ा घेड़ गिंडुक चूहों का घर बन चुका था। नागराज को भनक लगी तो दावत उड़ाने उसके भीतर घुस आए थे। ठुंसा-ठांसी में मेरे पैरों का दबाव नागराज के गले पर पड़ा तो उसमें पफंसा चूहा बाहर निकल भागा और नागराज ने पलटकर मुझे ही काट खाया। पांव से सिर तक दर्द की ऐसी लहर उठी कि मैं घेड़ गिंडुक से न जाने कैसे बाहर छिटक पड़ा। नागराज भी पफन उठाए बाहर रेंग आए। दोनों लठैत चिल्लाए- ''सांप! सांप! मुझे नीला पड़ता देख उनके चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं। उनकी घबराहट भरी चिल्लाहट से कोठे में कुहराम मच गया। थोकदार जी खांसते, गिरते-पड़ते आए। नागराज अभी तक पफन पफैलाए घूरता नजर आया। मेरी आंखें मुंद रही थीं। उनमें मौत की छाया देखकर थोकदार जी सिथति भांप गए। मुझे घेड़ गिंडुक के पास से खींचकर सीढि़यों पर लिटा दिया गया। वे शायद मेरा हठ छुड़ाना चाहते थे, जान लेने का उनका इरादा नहीं था। और इसीलिए मेरे साथ जो कुछ घटा उसे एक दुर्घटना का रूप दे दिया गया। ठकुराइन के साथ बेटी आर्इ। बाप की दशा देखकर चीख मारकर गिर पड़ी। ठकुराइन ने उसे बड़ी मुशिकल से संभाला। कुछ और लोग भी जमा हो गए। भीड़ की बढ़ती नागराज को रास नहीं आर्इ और वह पफुपफकार छोड़ते हुए नीचे झाडि़यों में गायब हो गया। थोकदार जी ने जहर उतारने वाले तांत्रिक को तुरंत लाने का आदेश अपने लठैत को दिया तो सही लेकिन उसके रवाना होने से पहले ही मेरे प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। मेरे साथ जो कुछ बीती, वह आज तक किसी को पता नहीं है। हां, यह घेड़ गिंडुक ही उसका एकमात्रा साक्षी है।
उस आÑति के गायब होते ही एक और चेहरा सामने आ गया। बोला- ''ठाकुर, पहचाना? बचपन के दिन याद करो। तब तुम यही दस-ग्यारह साल के रहे होगे। तुम्हारे पिता को अल्मोड़ा पिफरंगी के पास जाना था। पिफरंगी सरकार का आदेश था कि सारे कमीण-थोकदार और अहलकार अपनी अमलदारी का सबूत लेकर अल्मोड़ा पहुंचे। उतनी दूर पैदल पांव नापने का तो सवाल ही नहीं था। डांडी¹⁹ बोकने के लिए आठ-दस तगड़े जवान छांटे गए और दुर्भाग्य उनमें मेरा अपना वह बेटा भी था जिसका विवाह उसी बीच होना तय था। मैंने थोकदार जी से विनती की लेकिन वे कब मानने वाले थे। बोले- 'तो क्या हुआ? तुम खसियों में तो वर की अनुपसिथति में भी विवाह संपन्न हो जाता है। दुल्हन से केले के सात पफेरे लिवा लिए और मुहर लग गर्इ। हम बाप-बेटे इसके लिए तैयार नहीं थे। बेटा कहीं दूर की रिश्तेदारी में चला गया। उसके भाग जाने की खबर थोकदार जी के कानों में पड़ी तो उनके लठैत मुझे ही पकड़ ले गए। लड़के को वापस बुलाने के लिए मुझ पर दबाव डाला गया। मैंने हाथ जोड़े, पैरों पड़ा और जोर देकर कहा कि वह बिना बताए ही कहीं चला गया है लेकिन थोकदारी हठ के आगे मेरी क्या चलती। मालिक थे, ठान ली तो ठान ली। जमीन छीन लेने और गांव से बेदखल कर देने की ध्मकी ही नहीं दी गर्इ बलिक मार-बांध्कर मुझे इस घेड़ गिंडुक के हवाले कर दिया गया। मेरी दुर्दशा का पता जब बेटे का लगा तो वह लौट आया। मैं तो घेड़ गिंडुक में पड़ा-पड़ा मौत की घडि़यां गिन रहा था। करवट बदलना तो दूर रहा, वहां तो टस-से-मस होना भी दूभर था। हाथ-पैर सीध्े तने हुए, पैरों से गरदन तक पसीने से तरबतर हाजत हुर्इ तो वहीं- विष्टा और मूत से सराबोर नरक की यातना भोग ही रहा था कि अचानक मुझे छोड़ देने का आदेश हो गया। लेकिन उतने दिनों सीध पड़े रहने का यह परिणाम निकला कि कमर से नीचे बिल्कुल बेजान होकर रह गया। टांगों ने काम करना बंद कर दिया और मैं एक अपाहिज की जिंदगी जीने पर मजबूर हो गया। जितने दिन जिंदा रहा रोते-कलपते ही बीते।
आप-बीती सुनाकर वह चेहरा भी न जाने कहां अन्तर्धन हो गया। उसके गायब होते ही एक के बाद एक कर्इ चेहरे सामने आए। उनकी शिकायतें भी लगभग एक जैसी थीं। उन्हें हक-दस्तूरी न चुका पाने या भेंट-पिठार्इ न पहुंचाने के आरोप में कुछ समय के लिए घेड़ गिंडुक का आतिथ्य स्वीकार करना पड़ा था। अंत में एक ऐसा चेहरा प्रकट हुआ जिसकी अंध्ी आंखों से निकलने वाली अदृश्य चिंगारियों को थोकदार जी सहन नहीं कर पाए। उसने कहा- ''ठाकुर मुझे तो मारने के बाद भी तुम शायद ही भुला पाओ। अपनी मान-मर्यादा पर पड़ने वाली चोट क्या होती है, यह अनुभव तो तुम्हें मेरे ही कारण हुआ था। हमारी बहू-बेटियों से मनमाना खेल खेलना तो तुम लोग अपना अधिकार समझते रहे। तुम्हारे लेखे हम खैकर-सिरतान और उफपर से खसिया भला किस बूते तुम्हारी बगिया में सेंध् लगाने का दुस्साहस करते। मेरा कसूर इतना ही तो था कि मैंने तुम्हारी बहन को डूबने से बचाया था। कान के कच्चे तो तुम जनम से ही थे। किसी ने कान भरे कि मैं उस पर बुरी नजर रखता हूं और तुमने सच मान लिया। घेड़ गिंडुक के हवाले कर जिस बेरहमी से मेरी आंखों की रोशनी छीन ली गयी, उसकी मिसाल शायद ही कहीं और मिले। अपनी अंध्ेरी दुनिया में मैंने जो कुछ भोगा, मेरी आत्मा आज तक भुला नहीं पार्इ। यह देखकर भी भीतर की आग शांत होने का नाम नहीं लेती कि मेरी दुनिया में अंध्ेरा करने वाला आज अपने नसीब पर आठ-आठ आंसू रो रहा है। ठाकुर, तुमने और तुम्हारे पुरखों ने जो कुछ किया उसका परिणाम यही तो होना था। बुरे काम का परिणाम बुरा नहीं तो क्या भला होगा?
उसकी अंध्ी आंखों ने ठाकुर का मन कुछ-का-कुछ कर दिया। करतूत याद आर्इ तो सोचने-समझने की सलाहियत भी जाती रही। बाहर-भीतर जैसे अंध्ेरा छा गया और लगा कि अब तक देखे सारे चेहरे उसे घेरकर बदला लेने पर उतर आए हाें। बाहर भागना चाहा तो घेड़ गिंडुक से ऐसी ठोकर लगी कि संभल नहीं पाए। दीमक खाए कमजोर आधर वाला घेड़ गिंडुक ऐसा लुढ़का कि घेड़ गिंडुक ऊपर और ठाकुर नीचे। उफपर से सिर इतनी जोर से दीवार से जा टकराया कि दर्द के मारे बेचारे ठाकुर का हाथ-पैर मारना भी किसी काम नहीं आया।
और ठीक उसी समय बेटे ने आकर उध्र झांका तो दंग रह गया। घेड़ गिंडुक के नीचे दबा ठाकुर एक भारी-भरकम मंेंढक की तरह पिचका हुआ कबका टें बोल चुका था। बेटे ने घेड़ गिंडुक को एक ओर हटाने का प्रयास किया लेकिन अकेले उसके बस की बात भी कहां थी। अपनी ही अमलदारी के एक गांव से वह बहुत गुस्से में लौटा था। दिमाग तो वैसे ही काम नहीं कर रहा था। बाप की सेहत के लिए किसी सिरतान ने बकरे की मांग ठुकरा जो दी थी। गांव के दूसरे लोग भी जब उसी सिरतान का साथ देने लगे तो वह बंदूक लेने आया था उन Ñतघिनयों को सबक सिखाने। लेकिन यहां तो बाप की सर-परस्ती से ही हाथ धे बैठा था। चिल्लाकर मां को आवाज दी। थोकदन आकर रोने-चिल्लाने लगी तो गांव को भी खबर हो गयी। लोग आए तो सही लेकिन छूत लगने के डर से कोर्इ लाश छूने को तैयार नहीं था। यहां तक कि अपने कारिंदे भी सिर झुकाए एक ओर खड़े थे। बेटे ने आव देखा न ताव, भीतर से बंदूक उठा लाया और लोगों की ओर तानकर घोड़ा दबाने ही वाला था कि किसी ने पीछे से आकर बंदूक छीन ली। वह कोर्इ और नहीं पटटी-पटवारी थे जो पड़दादा की किसी रखैल की तीसरी पीढी में से थे और उस नाते चाचा लगते थे। पटवारी जी बोले- ''पागल हो गया क्या थोबू? गोली चलाकर पफांसी चढने का शौक चर्राया है क्या? वे दिन हवा हुए जब हमारा वचन ही कानून था, क्यों कानून अपने हाथ में लेता है? लाश का निरीक्षण करते हुए पिफर बोले- ''लगता है भार्इ साहब मरे नहीं मारे गये हंै। हत्या की गयी है इनकी। पहले सिर पर चोट मारी गर्इ और पिफर घेड़ गिंडुक इनके उफपर गिरा दिया गया। जिसने भी यह अपराध् किया है वह सामने आए अन्यथा सारे गांव को बांध् ले जाउफंगा। यह सुनना था कि सारे लोग सकते में आ गए । सबको जैसे काठ मार गया। बोलती बंद हो गयी। मरघट के उस सन्नाटे को तोड़ते हुए पटवारी ने आंसू बहाती थोकदन से पूछ लिया- ''भाभी, आपने किसी को आते-जाते या भार्इ साहब से बतियाते तो नहीं देखा?
इस पर थोकदन ने बताया कि उसने न तो किसी को आते-जाते देखा और न बतियाते सुना। हां, कुछ ही देर पहले वह खुद दवा पिलाकर जब बाहर निकल रही थी तो थोकदार जी भी उसके पीछे हो लिए थे, वह तो उफपर अपने कक्ष की ओर चली आर्इ थी। छज्जे से नीचे आंगन पर थोकदार जी को इसी कोठरी की ओर बढ़ते देखा था। सोचा शायद यों ही मन बहलाने निकले हैं। उसके बाद क्या हुआ उसे कुछ पता नहीं।
पटवारी ने अब दूसरे कोण से सोचना आरंभ कर दिया। कहीं ऐसा तो नहीं कि अंध्ेरे कमरे में घेड़ गिंडुक से बुरी तरह टकरा जाने के कारण यह कांड घटा हो। लाश के ओर नजदीक जाकर देखा तो दायें पैर के जख्मी अंगूठे ने पटवारी के हत्या वाले शक का निवारण कर दिया। बोले- ''मैं नहीं चाहता कि मरने के बाद भार्इ साहब की मिटटी पलीद हो। मामला तो दुर्घटना का ही अधिक लगता है। किसी का हाथ होने की संभावना नजर नहीं आती। लेकिन आप लोग अभी तक चुपचाप खड़े तमाशा देख रहे हंै। थोकदार जी घेड़ गिंडुक के नीचे मरे पड़े हैं और किसी में कोर्इ हरकत नहीं। अपने सरपरस्त को इस दशा में देखकर भी आप लोग चुप हैं, ताज्जुब है।
इस पर कोर्इ पफुसपफुसाया- ''छूत का रोग जो है …
''छूत लगे या भूत, कंध तो देना ही होगा। अगर कहीं शव परीक्षण के लिए ले जाना पड़ता तो क्या तुम्हारे पुरखे आते? बहुत देर हो चुकी, जल्दी करो।
पटवारी के जोर देने पर लोग हरकत में आए और थोकदार जी का अंतिम संस्कार जैसे-तैसे संपन्न हो गया।
शव-दहन के बाद लोग कोठे पर लौटे ही थे कि रास्ते पर कुछ ढांकरी²⁰ बैठे दिखार्इ दिए। अपने बोझ खेत की मेड़ पर उतारकर वे गीत गाने में मशगूल थे। एक ने टेक उठार्इ-
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿
(हे मेरी भाभी अब तो जाग)
दूसरों ने लंबी तान खींचकर साथ देना आरंभ किया-
गैड़ी च झूमक-डांडि-कांठयों घाम मेरी बौ गदन्यूं रूमक।
(झुमके गढ़े गए ;तुक के लिएद्ध धूप ऊंचे पर्वत-शिखरों पर पहुंच गई,
नदी-घाटियों में अंधेरा झूलने लगा है।)
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿
(हे मेरी भाभी! अब तो जाग)
गैड़ी जाली बीछी- अगि बटी द्वाड़ा दी मैची अब केन खाई गिच्ची।
(पैरों के बिछुवे गढ़े जाएंगे ;तुक के लिए)
पहले तो प्रत्युत्तर दे रही थी, अब तेरे मुंह को क्या खा गया?
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿ ।।
(हे मेरी भाभी! अब तो जाग।)
उनका इस तरह उल्लासपूर्वक गीत गाना बाप की क्रिया में बैठे नए थोकदार को रास नहीं आया। बस क्या था, उठकर बाहर निकल आया। बंदूक अपनी ओर तनी देखकर ढांकरियों की तो सिटटी-पिटटी गुम हो गर्इ। किसी तरह साहस जुटाकर उन्होंने बताया कि वे तो कहीं दूर दूसरे इलाके के हैं लेकिन उनकी एक नहीं चली। कहा गया कि हैं तो वे उसी इलाके में जहां के थोकदार जी का आज ही निध्न हुआ है। ऐसे में गीत गाने का दंड तो उन्हें भोगना ही पड़ेगा। उन्होंने बहुत कहा कि उन्हें पता ही नहीं था लेकिन उनकी सुनता कौन? जबरन उनके बोझ घेड़ गिंडुक वाले कक्ष में रखवा दिए गए और मृतक के नाम उन सबके सिर मुंडवाने का आदेश दे दिया गया। पता नहीं कौन-सी सनक सवार हुर्इ कि कुछ के आध्े सिर तो कुछ की आध्ी मुंछ छोड़ दी गर्इ। यही तमाशा दाढि़यों के साथ भी किया गया। उनमें एक-दो तो ऐसे भी थे जिनके मां-बाप अभी जिंदा थे लेकिन आपत्ति करने पर भी उन्हें नहीं छोड़ा गया। जो भी उन्हें देखता छिप-छिप कर मुस्करा उठता। वे बेचारे करते भी क्या? थोकदार जी की बंदूक और घेड़ गिंडुक का भय जो सामने था। विरोध् करने का साहस वे क्या खाकर जुटा पाते? बेचारे मन मसोसकर रह गए। अब तो तेरहवीं होने पर ही छुटटी मिलनी थी।
सैंकड़ोें लोगों के भोजन के लिए रसद इकटठी करने, पकाने के लिए भांडे-बर्तन और लकडि़यां जमा करने तथा पत्तल-दोने आदि तैयार करने के काम में उन्हें जोत दिया गया। और भी छोटे-मोटे काम उनसे लिए जाते रहे। लेकिन ठीक तेरहवीं के दिन सुबह से ही इतनी भारी बरसात हुर्इ कि सारी लकडि़यां गीली हो गर्इं। भोजन पकना मुशिकल हो गया तो उन्हीं में से एक ने सूखे घेड़ गिंडुक की ओर इशारा किया। थोकदन तो उसे अपने कुल का अभिशाप ही मान बैठी थी। नए थोकदार ने भी अनुभव किया कि नयी व्यवस्था में घेड़ गिंडुक का शायद ही कोर्इ उपयोग है। और इस तरह वह घेड़ गिंडुक थोकदार जी की तेरहवीं में काम आ गया। उसकी चीर-पफाड़ करते हुए एक ढांकरी ने चुपके से कहा- ''चलो अच्छा हुआ, लोगों को सताने का यह औजार भी गया।
दूसरे ने कहा- ''हां, घेड़ गिंडुक की भी तेरहवीं हो गयी। और उपसिथत लोग होठों-ही-होठों में मुस्करा उठे।

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¹ थोकदारी . पहाड़ की छोटी-मोटी जमींदारी जिसे कमीणचारी भी कहा जाता था।
² कोठे. थोकदार बनाम कमीण या सयाणा का किलेनुमा घर।
³ घेड़ गिंडुक . कटे पेड़ का विशाल तना जिसे भीतर से खोखला कर दिया जाता था ताकि अपराध्ी को उसके भीतर ठूंसकर सजा भोगने के लिए मजबूर किया जाए।
⁴ हक-दस्तूरी .कमीण-सयाना-थोकदार या पधन आदि द्वारा लिया जाने वाला कर।
⁵ जैजिया .जिया- लोकप्रसिदध् कत्यूरी रानी। कुछ कत्यूरी वंशजों में 'जिया शब्द मां का अर्थ भी देने लगा और आज भी कहीं-कहीं सुनने को मिलता है। 
⁶ थोकदन .थोकदार की पत्नी
⁷ गध्ेरे . छोटी-मोटी नदी
⁸ .सेरे.उपजाउफ सिंचित भूमि
⁹ नाली . लगभग दो सेर
¹⁰ पठाल. 
¹¹ ओड . चिनार्इ करने वाले कुशल कारीगर
¹² बेजड .गारे-मिटटी का मिश्रण
¹³ .बादिन या बेडि़न- नाचने गाने वाली जाति की स्त्राी
¹⁴ बादी .नाचने-गाने वाली जाति का पुरुष 'बादी  
¹⁵ जैजिया.थोकदन
¹⁶ बोलंदा-बदरीश .बोलता हुआ अर्थात साकार बदरी नारायण
¹⁷ पधन .पधन मèय पहाड़ी समाज में कुल का मुखिया गांव का मुखिया भी होता था जिसे बि्रटिश सरकार ने भी मान्यता प्रदान कर दी थी।
¹⁸ तिबारी .उफपरी मंजिल का स्तंभों वाला एक ओर को खुला स्थान जो बैठक का काम देता था।

 ¹⁹ डांडी .पीनस या एक तरह की पालकी जिसे दो आदमी कंधें पर ढोते हैं।

²⁰ढांकरी . दूर किसी हाट-बाजार से घर के लिए आवश्यक सामान खरीदकर लाने वाले लोग।




Friday, December 9, 2011

शादी एक निजी मामला है




चिनुआ अचीबी अफ्रीका के जीवित  महा कथापुरुष हैं और कहा जाता है कि अफ्रीका को जानना है तो इतिहास की किताबों की  बजाय चिनुआ अचीबी का कथा साहित्य पढना चाहिए.उन्हें नोबेल छोड़ दें तो दुनिया के लगभग सभी बड़े साहित्यिक पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं.यहाँ प्रस्तुत है पचास साथ साल पहले लिखी उनकी एक बेहद मार्मिक कहानी...इस कहानी की खास बात यह है कि  यदि नाम और स्थान को भूल जाएँ तो यह पूरी तरह से  भारतीय समाज से उपजी हुई एक  कहानी लगती है. ब्लॉग के पाठक मित्रों के लिए यहाँ प्रस्तुत है वह कहानी:
प्रस्तुति: यादवेन्द्र 
                       -- चिनुआ अचीबी

एक शाम लागोस के अपने कमरे में बैठे बैठे नेने अचानक नेमेका से पूछ बैठी:
तुमने अपने पिताजी को चिट्ठी लिख दी?
नहीं,मैं अभी सोच ही रहा था.मुझे लग रहा है कि चिट्ठी लिखने की बजाय जब
छुट्टी में घर जाऊंगा तो सामने बैठ कर ही बता दूंगा.
पर ऐसा क्यों?अभी तो तुम्हारी छुट्टी बहुत दूर पड़ी है..पूरे छह हफ्ते
.हमारी ख़ुशी में उनको शामिल होने का पूरा हक़ है.
थोड़ी देर के लिए नेमेका खामोश बना रहा,फिर लगभग फुसफुसाते हुए बोला: मुझे
पहले यह तो भरोसा हो कि इस खबर से उनको ख़ुशी मिलेगी.
बिलकुल मिलनी चाहिए....नेने ने जोर दे कर कहा...तुम्हें इसमें शंका क्यों
हो रही है?
तुम तो सारी उमर लागोस जैसे शहर में रही...दूर दराज के गांवों में रहने
वाले लोगों के बारे में तुम्हें क्या पता.
तुम हमेशा यही कहते हो.पर यह मेरी समझ से परे है कि उनके बेटे की शादी
तय हो जाये और वो इस से उन्हें दुःख पहुंचे...यह तो बिलकुल इल्ति रीत
हुई.
बिलकुल सही,उनको गहरा सदमा लगेगा जब उनके तय किये बगैर बेटे की शादी
पक्की हो जाये.हमारे मामले में तो और भी फजीहत होगी...तुम तो मेरी जाति
की भी नहीं हो.
यह बात इतनी गंभीरता से और इतने नंगे रूप में कही गयी थी कि नेने को थोड़ी
देर तक तो साँस भी नहीं आई,बोलना मुहाल.बड़े शहर के माहौल में पली बढ़ी
नेने के लिए यह कल्पना से परे था कि किसी युवक की बिरादरी उसकी  शादी के
लिए लड़की  तय करेगी.
थोड़ा ठहर कर उसने कहा: तुम यही कहना चाहते हो कि उनको इसी बात पर सबसे
ज्यादा एतराज होगा कि तुम बिरादरी से बाहर शादी कर रहे हो? मुझे हमेशा से
यही लगता रहा कि तुम्हारी बिरादरी दूसरे लोगों के प्रति बड़ी उदार है.
बात सही है कि हम ऐसे ही हैं.पर जब शादी का मामला सामने हो तो सारी
उदारता गयी घास चरने.पर यह सिर्फ मेरी बिरादरी का सच नहीं है...उसने
कहा...आज यदि तुम्हारे पिता जीवित होते और ऐसे ही दूर दराज के गाँव में
रहते होते तो बिलकुल मेरे पिता जैसा ही बर्ताव करते.
मुझे नहीं मालूम क्या करते.पर तुम तो अपने पिता के इतने लाडले बेटे
हो...वो तुम्हें जल्दी ही माफ़ कर देंगे.अब अच्छे बच्चे की तरह फटाफट
कागज कालम लो और उनको एक प्यारी सी चिट्ठी लिख डालो.
मुझे लगता है कि चिट्ठी लिख कर उन तक यह बात पहुँचाना अच्छी बात नहीं
होगी...चिट्ठी उनको  एक तीर की तरह जा कर चुभेगी..इस बारे में मुझे कोई
शुबहा नहीं.
ठीक है डिअर..जैसा ठीक लगे वैसा ही करो.आख़िर तुम्हीं  अपने पिता को जानते हो.
शाम को जब नेमेका अपने कमरे पर लौटा तो उसके मन में शादी के लिए अपनी
पसंद की लड़की चुन लेने की बात पर पिता के क्रोध से निबटने के लिए तरह तरह
की तरकीबें आती रहीं.बार बार उसके मन में चिट्ठी भेजने से पहले नेने को
दिखा लेने की बात आती रही पर अंत में उसने यही तय पाया कि इसके लिए यह
सही समय नहीं है.कमरे पर पहुँच कर उसने पिता को लिखी चिट्ठी फिर से ठंडे
दिमाग से पढ़ी..अपने आप पर उसको हँसी भी आ गयी..एकदम से उसको उगोये का
ध्यान आ गया...वह लड़की जो स्कूल से लौटते हुए साथ के सभी लड़कों की (
नेमेका भी उनमें शामिल था) पिटाई किया करती थी.
मैंने तुम्हारे लिए जिस लड़की को पसंद किया है मुझे लगता है वह तुम्हें
खूब पसंद आएगी..अपने पडोसी जैकब न्वेके की सबसे बड़ी बेटी उगोये
न्वेक्व.उसकी परवरिश बिलकुल शुद्ध ईसाई ढंग से हुई है.पिछले दिनों जब
उसने स्कूल की पढाई पूरी की तो उसके सयाने पिता ने उसको एक पादरी के घर
पत्नी बनने की बाकायदा ट्रेनिंग लेने के लिए भेज दिया.उसके टीचर ने मुझे
बताया कि वह बाइबिल बड़े सधे हुए ढंग से पढ़ती है. मैं चाहता  हूँ कि
दिसंबर में जब तुम घर आओ  तो हम शादी की  बात शुरू करें.
शहर से घर जाने के दूसरे दिन नेमेका घर के सामने के उस पेड़ के नीचे अपने
पिता के साथ बैठा जहाँ  बैठकर वे बाइबिल पढ़ा करते हैं.
पापा,मैं आपके पास माफ़ी माँगने आया हूँ...नेमेका ने पिता से कहा.
माफ़ी?क्या हुआ बेटे?..अचरज से पिता ने पूछा.
शादी के सिलसिले में...
कैसी शादी?
मैं..हमें..मैं यह कहना चाहता हूँ कि न्वेके की बेटी के साथ शादी करना
मेरे लिए संभव नहीं है.
ना-मुमकिन...ऐसा कैसे हो सकता है...पर क्यों?
क्योंकि मैं उसको प्यार नहीं करता.
किसने कहा कि तुम उस से प्यार करते हो...और करना भी क्यों चाहिए?
आज के समय में शादी आपके समय से अलग होती है.
सुनो मेरे बेटे...पिता ने तमक कर कहा...कुछ भी नहीं बदला,पत्नी चुनते हुए
बस यही देखना चाहिए कि उसका चाल चलन अच्छा हो और उसकी परवरिश अच्छे
धार्मिक माहौल में हुई हो.
नेमेका को समझ आ गया कि इस वक्त अपने तर्कों से वो पिता को नहीं जीत सकता.
और दूसरी बात ये है कि मैं किसी दूसरी लड़की के साथ सगाई कर चुका हूँ
जिसमें वो सब गुण हैं जो उगोये में हैं...और..
पिता को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ...क्या कहा  तुमने?..अस्पष्ट सी
धीमी आवाज में उन्होंने पूछा.
वो एक धार्मिक लड़की है और लागोस के एक गर्ल्स स्कूल में टीचर है..बेटे ने सफाई दी.
टीचर...यही कहा न तुमने?यदि मुझसे पूछो कि अच्छी पत्नी के लिए जरुरी गुण
क्या होते हैं तो मैं कहूँगा कि किसी ईसाई स्त्री को टीचर नहीं होना
चाहए.सेंट पाल ने अपनी एक चिट्ठी में लिखा है कि स्त्रियों को ख़ामोशी का
पालन करना चाहिए....पिता अपनी जगह से उठे और आगे पीछे टहलने लगे.अब वो
अपने प्रिय विषय पर आ गए थे और उन्होंने जोर जोर से चर्च के उन नेताओं को
बुरा भला कहना शुरू कर दिया जो स्त्रियों को शिक्षण के क्षेत्र में जाने
के लिए प्रेरित करते हैं.देर तक धारा प्रवाह बोलते रहने के बाद जब वे थक
कर हाँफने लगे तो फिर से शादी के मुद्दे पर आये.
तो वो किसी बेटी है?
उसका नाम नेने अटंग है.
क्या?...सारी नरमी पाल भर में काफूर हो गयी...इस  नाम का क्या मतलब?
नेने अटंग,कालाबार से है वो.मैं शादी करूँगा तो सिर्फ उसी से...नेमेका
बिना आगा पीछा देखे बोल पड़ा था.पर अगले ही पल उसको तूफ़ान फट पड़ने  का
अंदेशा हो गया.ताज्जुब की बात कि उसका अंदेशा गलत निकला.पिता चुपचाप वहाँ
से अपने कमरे में चले गए.नेमेका को इस बदले हुए बर्ताव से खुद भी अचरज
हुआ.उसको मालूम था कि पिता की चुप्पी उनकी दहाड़ों भरी  भाषणबाजी से
ज्यादा खौफनाक होती है.पिता ने उस रात खाना भी नहीं खाया.
अगले दिन जब वो बेटे को विदा करने लगे तो बार बार उसको अपना निश्चय बदल
देने के लिए समझाते भी रहे.पर नौजवान बेटे के निश्चय में रत्ती भर का भी
फर्क नहीं आया देख अंत में उन्होंने मन को समझा  लिया कि बेटा अब हाथ से
निकाल चुका है.
यह मेरा फर्ज था कि मैं तुम्हें सही और गलत में फर्क करना बताऊँ..पर
जिसने भी तुम्हारे भेजे में उस लड़की का ख्याल भरा है उसने तुम्हारी जुबान
काट दी है..यह शैतान का ही काम हो सकता है...जाते हुए बेटे की ओर हाथ
उठाते हुए पिता ने अंत में उस से कहा.
आप जब नेने से मिल लेंगे तो आपके विचार बदल जायेंगे पापा.
मैं उसको भला क्यों मिलने लगा?..पिता की आवाज नेमेका ने सुनी.
उसके बाद से नेमेका से पिता की बातचीत लगभग बंद ही हो गयी.हाँलाकि उनके
मन में यह उम्मीद निरंतर बनी रही कि एक दिन बेटे को अपनी गलती का एहसास
जरुर होगा.बेटे का मन बदलने के लिए उन्होंने दुआओं का भी खूब सहारा लिया.
नेमेका को भी पिता का दुःख देख कर गहरा धक्का लगा था पर उसको यह भरोसा था
कि जल्दी ही वे इस सदमे से उबर जायेंगे.यदि उसको पहले से मालूम होता कि
उसकी बिरादरी के सम्पूर्ण इतिहास में कभी भी किसी युवक ने दूसरी भाषा
बोलने वाली लड़की से विवाह नहीं किया तो पिता के बारे में वह इतना
आशान्वित न होता.
ऐसा पहले कभी सुना ही नहीं गया...बेटे के बर्ताव से आहत उसके पिता को
दिलासा देने  दूसरे गाँव से आए बिरादरी के एक बुजुर्ग दूसरों को सुना
सुना कर कह रहे थे.
प्रभु  ने पहले ही कह दिया था...बेटे अपने पिताओं के खिलाफ खड़े  हो
जायेंगे..पवित्र पुस्तक में लिखा हुआ है...दूसरे बुजुर्ग ने फरमाया.
विनाश की यह शुरुआत है.....किसी दूसरे की आवाज सुनाई दी.
लम्बी चौड़ी धार्मिक चर्चा को समेटते हुए एक निहायत व्यावहारिक बुजुर्ग ने
कहा: अपने बेटे के बारे में किसी ओझा से बात क्यों नहीं करते?
पिता ने ठंडे ढंग से जवाब दिया: पर उसको  कोई बीमारी थोड़े ही है.
बीमार नहीं है तो क्या है?उस लड़के का दिमाग बीमारी से ग्रसित है और कोई
अच्छा हकीम ही उसको ठिकाने पर ला सकता है...दर असल उसको वही दवाई माफिक
आयेगी जो स्त्रियाँ अपने पतियों को काबू में लाने के लिए इस्तेमाल करती
है.
दूसरे बुजुर्गों ने भी इस ख़ास मशविरे पर अपनी मुहर लगा दी.
नेमेका के पिता चाहे जो भी हों  अपने आस पास रहने वाले लोगों की तरह
मूढ़मगज नहीं थे,सो बोले: मैं किसी ओझा हकीम के चक्कर में नहीं पड़ने
वाला..यदि मेरा बेटा खुदकुशी पर ही आमादा है तो कर लेने उसको ऐसा ही,मैं
इसमें कुछ नहीं कर सकता.
छह महीने बाद नेमेका अपनी युवा पत्नी को पिता की लिखी एक चिट्ठी दिखा रहा
था.लिखा था:
मुझे ताज्जुब होता है कि कैसे तुमने  मेरे पास अपनी शादी को फोटो भेजने
की जुर्रत की.मैं तो इसको लौटती डाक से  ही वापस भेजने वाला था.पर थोड़ा
विचार करने के बाद मुझे लगा कि इसमें से मैं तुम्हारी पत्नी की  फोटो
फाड़ कर अलग कर देता हूँ और बाकी हिस्सा तुम्हें भेज देता हूँ...उस से
हमें क्या लेना देना...यह तो नहीं  हो सकता  कि उसी की तरह मैं अपने बेटे
को भी भूल जाऊं..
जब नेने ने यह चिट्ठी पढ़ी और बुरी तरह से फाड़ी हुई फोटो देखी तो उसकी
आँखों से आंसुओं कि तेज धार बह निकली...अपनी  रुलाई  वह नहीं रोक पाई.
रोओ मत मेरी प्रिय...खूब प्यार करने वाले पति ने कहा..मन से पिता अच्छे
आदमी हैं और एक न एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब हमारी शादी को उनका आशीर्वाद
मिलेगा.
पर साल दर साल बीतता रहा और वह दिन आया नहीं.देखते देखते आठ साल बीत गए
और पिता को बेटे की सुध नहीं आई.इस बीच में तीन ऐसे मौके आये जब  नेमेका
ने छुट्टियाँ बिताने को घर आने की इच्छा जताई...और पिता ने जवाब दिया:
मैं तुम्हें अपने घर में पाँव नहीं रखने दे सकता...एक मौके पर उन्होंने
लिखा...मुझे इस से  कोई मतलब नहीं कि तुम अपनी छुट्टियाँ कैसे मनाते
हो...या अपना जीवन कैसे जीते हो.
नेमेका की शादी को लेकर पैदा हुई कडवाहट सिर्फ उसके छोटे से गाँव तक
सीमित नहीं थी.लागोस में भी लोग इसको एक अलग नजरिये से देखते थे.पर वहाँ
की स्त्रियाँ जब आपस में मिलती तो नेने के प्रति कोई बुरा बर्ताव नहीं
करतीं.बल्कि उसको इतना आदर देती कि वह संकोचवश स्वयं अलग थलग पड़ जाती.
समय बीतने के साथ नेने ने कोशिशें कर के उनके स्थ मेल जोल थोड़ा बढ़ा भी
लिया.धीरे धीरे उन्होंने स्वीकार भी किया  कि नेने अपने घर को ज्यादा साफ़
और सुरुचिपूर्ण रखती है.
समय के साथ नेमेका के गाँव में यह खबर पहुँचने लगी कि नेमेका अपनी सुन्दर
पत्नी के साथ बड़े प्रेम और ख़ुशी के साथ रहता है. पर विडंबना यह थी कि
नेमेका के  पिता गाँव के उन बिरले लोगों में थे जिन्हें नेमेका के बारे
में बहुत कम जानकारी रहती थी.जब भी कोई उनकी मौजूदगी में नेमेका का नाम
लेता वे ऊँची आवाज में अपने क्रोध का इजहार करने लगते थे सो लोग उनके
सामने उसकी चर्चा करने से ही बचने लगे थे.इस व्यवहार के लिए उनको बहुत
परिश्रम कर के खुद को साधना पड़ा था..इसका  तनाव  उनके पूरे व्यक्तित्व
पर दिखाई देता था पर वह अपने ऊपर विजयी भाव सदा ओढ़े रहते.
एक दिन उनके पास नेने का लिखा एक पत्र आया..यूँ ही अनमने भाव से वे उसपर
निगाह डालने लगे पर अचानक उनके चेहरे के भाव बदलते दिखाई दिए...वे गौर से
चिट्ठी पढने लगे...
हमारे दो बेटे हैं..जब से उनको यह पता चला है कि उनके दादाजी भी हैं..तब
से निरंतर वे दादाजी के पास जाने की जिद पर अड़े हुए हैं. मेरे लिए यह
मुमकिन नहीं हो पा रहा है कि मैं उनको यह बताऊँ कि दादाजी उनका मुँह तक
देखने को राजी नहीं हैं.मेरी आपसे हाथ जोड़ कर यह बिनती है कि नेमेका के
साथ थोड़े समय के लिए उनको अगली छुट्टियों  में गाँव आने की इजाज़त दे
दें...मैं  नहीं आउंगी,यहीं लागोस में रहूंगी.
बूढ़े पिता को चिट्ठी पढ़ते हुए यह एहसास हुआ कि बरसों से संजोया उसका दृढ
निश्चय और संकल्प पल भर में धराशायी हो जायेगा.उसका मन कह रहा था कि इतनी
आसानी से यह संकल्प जमींदोज नहीं होना चाहिए.भावनात्मक आवेग के सामने वह
इस्पात की दिवार बन कर अड़े रहना चाहता था.पास की खिड़की से टिक कर वह
आसमान की ओर देखने लगा.आसमान में घने काले बदल थे पर तभी तेज हवा चलने
लगी और माहौल धूल और सूखी पत्तियों से भरने लगा.उसको लगा कि इस समय
प्रकृति भी मानव संघर्ष में हाथ बँटा रही है.देखते देखते बरसात शुरू हो
गयी,साल की पहली बरसात..बादलों की तेज गड़गड़ाहट और बिजली चमकने के साथ
मौसम में परिवर्तन का सन्देश मिलने लगा.पिता खूब कोशिश कर रहा था कि अपने
दोनों पोतों के बारे में सोचना बंद कर दे,पर  उसको साफ़ दिख रहा था कि वह
एक हारी हुई बाजी खेल  रहा है.मन कडा  कर के उसने अपना प्रिय भजन
गुनगुनाने की कोशिश की पर छत पर पड़ती बड़ी बड़ी बूंदों की आवाज से उसका
ध्यान भंग होने लगा.सारी कोशिशों के बावजूद उसका मन भाग भाग कर अपने
पोतों की ओर   ही जाने लगा.उनको बाहर धकेल कर वह घर का दरवाज़ा कैसे बंद
कर ले?उसकी आँखें स्पष्ट देख रही थीं कि दोनों बच्चे दरवाजे पर खड़े
हैं..सहमे हुए और उदास..ऊपर से इतना सख्त और क्रोधित मौसम...
उस रात वह बिलकुल सो नहीं पाया...मन ग्लानि से भर गया..और बार बार यह
डरावना ख्याल दस्तक देता रहा कि कहीं वो उन बच्चों को देखे बिना ही आँखें
न मूंद ले.
प्रस्तुति: यादवेन्द्र 

Monday, November 28, 2011

तीन सौ पैंसठ दिन तीन सौ पैंसठ प्रजातियों के भात का भोग

सिवा मार काट और नकारात्मक खबरों से भरे राष्ट्रीय मीडिया से विलुप्त होते गये कश्मीर पर  हमारे वरिष्ठ साथी और जिम्मेदार नागरिक यादवेन्द्र जी की एक  बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी ...

दशकों से आमतौर पर अनवरत सैनिक और असैनिक हिंसक वारदातों और मानव अधिकार हनन के लिए सुर्ख़ियों में रहने वाले जम्मू कश्मीर से शीतल हवा के झोंके जैसी पिछले दिनों एक सुखद खबर आई-- इस महीने के शुरू में श्रीनगर में राज्य के बागवानी विभाग ने एक फल प्रदर्शनी का आयोजन किया जिसमें चार सौ से ज्यादा  फलों से जनता को रु ब रु कराया गया.सरकारी विज्ञप्ति में हाँलाकि यह खुलासा किया गया कि ये सभी प्रजातियाँ सिर्फ जम्मू कश्मीर राज्य में होती हों ऐसा नहीं है और अनेक प्रजातियाँ दूसरे राज्यों से इस उद्देश्य से ला कर प्रदर्शित की गयीं जिस से राज्य के किसान इन्हें भी उगाने की पहल करें. यहाँ ध्यान देने वाली बात खास तौर पर यह है कि आज के समय में किसी व्यक्ति से अपने जीवन में भारत के विभिन्न हिस्सों में देखे फलों का नाम पूछा जाये तो बहुत मशक्कत कर के भी  बीस पचीस से ज्यादा फलों के नाम लेना उसके लिए मुश्किल होगा. ऐसी स्थिति में चार सौ से ज्यादा फलों को देखना भर बेहद रोमांचकारी अनुभव होगा.  
जहाँ तक जम्मू कश्मीर की अर्थव्यवस्था का प्रश्न है,  पर्यटन   के बाद फल उत्पादन यहाँ का दूसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है.सरकारी आंकड़े बताते हैं कि ताजे फलों और सूखे मेवों से राज्य को प्रतिवर्ष करीब ढाई हजार करोड़ रु. कि परपी होती है.देश  में पैदा होने वाले सेब का तीन चौथाई हिस्सा अकेले जम्मू कश्मीर में होता है.सेब की अनेक स्वादिष्ट प्रजातियाँ  तो इस राज्य से इतर कहीं और होतीं ही नहीं और सूखे मेवे (खास तौर पर अखरोट)की सौगात भी  प्रकृति ने  इसी राज्य को दी है.देश के सभी हिस्सों में यहाँ पैदा किये हुए फल तो जाते ही हैं,अनेक पडोसी देशों में भी यहाँ के फलों का खासा निर्यात होता है.करीब पाँच लाख किसान फलों की खेती में शामिल हैं और अनुमान है कि राज्य में एक हेक्टेयर के फल के बाग़ से प्रति वर्ष चार सौ मानव दिवस का व्यवसाय पैदा होता है. 
जलवायु परिवर्तन के इस देश में लक्षित दुष्प्रभावों में सेब की पैदावार का निरंतर कम होना  शुमार किया जाता है पर जम्मू कश्मीर में अमन चैन के लौटने की ख़ुशी में मानों सेब की पैदावार लगातार बढती जा रही है.अभी चार पाँच साल पहले तक यहाँ जहाँ दस बारह लाख टन सेब हुआ करता था,यह मात्रा बढ़ कर 2010 में बीस लाख टन तक पहुँच गयी और 2014  तक इसके चालीस लाख के आंकड़े को पार कर जाने की उम्मीद जताई जा रही है. 

दुनिया के अनेक देशों की तरह हमारे देश का भी दुर्भाग्य है कि आम,केला,सेब,अंगूर,अनानास,अनार,पपीता सरीखे लोकप्रिय और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध फलों के सामने बेर,करोंदा,जामुन,बेल,खिरनी,फालसा,आंवला,अंजीर,कोकम,बड़हल, शरीफा जैसे कम मात्रा में पैदा होने वाले दोयम दर्जे के दुर्बल फलों का स्वाद लोग बाग़ बाजार में उपलब्ध न होने के कारण भूलते जा रहे हैं...बस इसकी  व्यवसायिक वजह यही बताई जाती है कि उपभोक्ता माँग कम या नहीं के बराबर होने के कारण थोक व्यापारी इसमें रूचि नहीं लेता. 
आम का ही उदाहरण देखें...सुदूर दक्षिण से लेकर उत्तर पूर्व तक फैले विशाल भू भाग में इसकी देश में कोई एक हजार प्रजातियाँ रही हैं जिनके रंग,रूप ,गंध और स्वाद एक दूसरे से अलहदा रहे हैं.पर आज की तारीख में दशहरी, लंगड़ा ,अल्फंजो  जैसी  भारी माँग वाली प्रजातियों ने इतने आक्रामक ढंग से बाजार को अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि अन्य प्रजातियाँ कुछ सालों बड़ हाथ में दिया लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगी.
पर ऐसा नहीं है कि उन्मूलन की इस भेंडचाल में आम की प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने का भागीरथ प्रयास  नहीं कर रहे हैं.. लखनऊ के पास मलीहाबाद में हाजी कलीमुल्ला का जिक्र इस मामले में अक्सर आता है जो खानदानी तौर पर आम के एक ही वृक्ष पर सैकड़ों दुर्लभ प्रजातियों  का प्रत्यर्पण करने में माहिर हैं.राष्ट्रपति द्वारा उद्यान पंडित और पद्मश्री का सम्मान प्राप्त करने वाले किसान ने सौ साल आयु के एक आम के पेड़ पर तीन सौ किस्म के आम के प्रत्यारोपण किये हैं...इसके लिए उनका नाम गिनीज बुक में भी दर्ज है.
इस लेखक को आज भी बचपन में बिहार के हाजीपुर में स्थापित केला अनुसन्धान केंद्र के दिन बखूबी याद हैं जब केले की रंग बिरंगी  सैकड़ों प्रजातियाँ हुआ करती थीं ....उनके स्वाद अब भी मन में बसे हुए हैं पर पौधे शायद अब विलुप्ति की कगार पर हैं.इनमें से सबसे विशिष्ट मालभोग केला तो काफी भाग दौड़ के बाद  पिछले साल खाने को मिल गया था पर इसकी क्या गारंटी है की अगली  पीढ़ी भी उसका स्वाद चख पायेगी.
कहते हैं कि पुरी के  भगवान् जगन्नाथ को साल के तीन सौ पैंसठ दिन तीन सौ पैंसठ प्रजातियों के भात का भोग लगाया जाता था जिस से साल में किसी   किस्म कि पुनरावृत्ति न हो...पर आज तो यह किसी परी कथा जैसा आख्यान लगता है...
कहाँ हैं धान  की  इतनी प्रजातियाँ? जीवन की आपा धापी में हम धरती को उलट पलट के बहुमूल्य सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर जिस तेजी से नष्ट करते जा रहे हैं उसमें थोड़ा ठहर कर सही आकलन करने  की फुर्सत   यदि हम नहीं निकालेंगे तो पुनर्जीवन के सभी रास्ते बंद हो जाने का अंदेशा सिर पर मुँह बाए खड़ा है...
-यादवेन्द्र 
yapandey@gmail.com

इस ब्लाग पत्रिका की पिछली पोस्टों पर भी यादवेन्द्र जी ने एक मेल में जो टिप्पणी की पाठकों तक वह भी पहुंच सके, यहां इसी आशय के साथ प्रस्तुत है- 
नयी पोस्ट में हिमालय यात्रा का  आपका वृत्तान्त...जनसत्ता में पढ़ा था,पिता की पीठ पर बैठे बच्चे वाला प्रतीक इस पूरे विवरण को एक नया आयाम देता है...मेरी बेटी को भी खूब पसंद आया था यह वृत्तान्त...इन सब को संकलित करके एल जिल्द में छापें...खुद की लेह यात्रा के बाद आजकल मैं कृष्ण नाथ जी के हिमाचल और लदाख यात्रा वृत्तान्त दुबारा पढ़ रहा हूँ और हिंदी के इस अद्भुत रचनाकार की उपेक्षा पर बेहद गुस्सा आता है... 
अरुण असफल की धारदार टिप्पणी...बिज्जी मेरे भी बेहद प्रिय कथाकार हैं और उनका मूल्यांकन समय उनकी रचनाशी
लता से करेगा,विष्णु जी के लिखे  से नहीं...फिर,यदि कोई रचनाकार नोबेल प्राप्त करने की इच्छा करे तो इसमें बुरा क्या....
-यादवेन्द्र 


 

Sunday, November 27, 2011

डगमगाते हुए पांवों के एहसास पर


 


दशहरे के मैदान में दहन होते रावण के पुतले या मेले-ठेले में भीड़ के बीच दूर तक देखने की बच्चे की अभिलाषा को बहलाते पिता को देखा है कभी ? आतिशी बाण रावण की नाभी पर आकर टकराया या, अपने आप धूं धूं कर उठी लपटें- पिता के कंधें पर इठलाता बच्चा ऐसी मगजमारी करने की बजाय खूब-खूब होता है खुश। बहुत भीड़ भरी स्थिति में बमों के फटने के साथ चिथड़े-चिथड़े हो रहे रावण, मेघनाद और कुम्भकरण के पुतलों को देखने के लिए पिता के कंधें की जरूरत होती है। पिता की बांहों के सहारे कंधे पर पांव रख और बच्चा ऊँचे और ऊँचे ताकने लगता हैं। पिता की बांहें बिगड़ जा रहे संतुलन को सहारा दे रही होती। बाज दफा ऊँचाई के खौफ को दूर फेंक वह सिर के ऊपर ही खड़ा होना चाह रहा होता है। संतुलन को बरकरार रखने की कोशिश में उठी पिता की बांहें भी उस वक्त छोटी पड़ जाती हैं। बच्चे की उत्सुकता के आगे लाचार पिता अपनी हदों के पार भी कंधों के लम्बवत और शीष के सामानन्तर बांह को खींचते चले जाते हैं। शीष पर खड़े बच्चे का हैरान कर देने वाला संतुलन पिता की बांहों का मनोवैज्ञानिक आधार बना रहता है। बिना घबराये वह खिलखिलाता है, तालियां बजाता है। वश चले तो उड़ा चला जाये चिंदी-चिंदी उड़ रहे रावण के परखचों के साथ। पिता की लम्बवत बांहें ऐसे किसी भी खतरे से खेलने की ख्वाइश से पहले ही उसे सचेत किये होती हैं। डगमगाते हुए पांवों के बहुत हल्के अहसास पर ही खुली हथेलियों की पकड़ में होता है पूरा शरीर। पिता की बांहों के यागदान को कुछ ज्यादा बढ़ा चढ़ा देने की को मंशा नहीं। हकीकत को और ज्यादा करीब से जानने के लिए अभ्यास के बल पर किसी चोटी पर पहुँचे पर्वतारोही से पूछा जा सकता है कि पहाड़ के शीष पर खड़े होकर डर नहीं लगता क्या ? बहुत गुंजाइश है कि कोई जवाब मिले जिसमें बगल की किसी चोटी का सहारा पर्वतारोही को हिम्मत बंधाता हुआ हो। मेले के बीच पिता के शीष पर खड़े होकर दृश्य का लुल्फ उठाते बच्चे के पांवों की सी लड़खड़ाहट पर सचेत हो जाने की स्थितियां पर्वताराही को भी और उचकने की गुस्ताखी नहीं करने देती हैं। उचकने की कोशिश में उठी हुई बांहों की पकड़ छूट जाने का सा अहसास होता है और धम्म से बैठने को मजबूर हो जाने की स्थितियां होती हैं। चोटियों के पाद सरीखे दिखते दर्रे पिता के कंधें जैसे होते हैं जहां खड़े होकर कुछ लापरवाह हो जाना खड़ी हुई चोटियों के सहारे ही संभव होता है। करेरी झील से उतरते नाले के बांये छोर के सहारे हम मिन्कियानी दर्रे की ओर बढ़ रहे थे।
मिन्कियानी दर्रा पिता का कंधा है। मिन्कियानी ही क्यों, कोई भी दर्रा पिता का कंधा ही होता है। दोनों ओर को उठी चोटियों कंधों से ऊपर उठ गये पिता के हाथ हैं, जो कंधे पर उचक रहे बच्चे को संभालने की कोशिश में उठे होते हैं। पिता चाहें तो अपनें हाथों को किसी भी दिशा में ऊपर-नीचे, कहीं भी घुमा सकते हैं। शीश के साथ उठी हुई पिता की बांहें वे चोटियां हैं जो पर्वतारोहियों को उकसाने लगती हैं। कई दफा हाथों को बहुत ऊपर खींचते हुए किसी एक खड़ी उंगली सी तीखी हो गई चोटियों पर चढ़ना कितने भी जोखिम के बाद संभव नहीं। ऐसी तीखे उभार वाली चाटियों के मध्य दिख रहे किसी दर्रे की कल्पना करो, निश्चित ही वह बेहद संकरा हो जाएगा। लमखागा पास कुछ ऐसा ही तीखा दर्रा है, जो हर्षिल के रास्ते जलंधरी के विपरीत दूसरी ओर किन्नौर में उतरने का रास्ता देता है। मिन्कियानी दर्रा वैसा तीखा नहीं। चौड़े कंधे वाले पिता की तरह उसका विस्तार है। मध्य जून में बर्फ के पिघल जाने पाने पर हरी घास से भर जाता है। नडडी तक पहुंचने के बाद जीप मार्ग को एक ओर छोड़ सीधे एक ढाल उतरता है भतेर खडढ तक। भतेर खडढ के किनारे है गदरी गांव। पर्यटन विभाग के नक्शों में ऐसे छोटे-छोटे गांवों का जिक्र बहुत मुश्किलों से होता है। इतिहास को दर्ज करने वाले नक्शों की तथ्यात्मकता के आधार पर सत्यता को जांचते हुए आगे बढ़ जाते हैं।
हम कोई इतिहासविद्ध नही तो भी यह तो कह ही सकते हैं कि सत्ता के लिए खूनी संघर्ष से भरे सामंतों के आपसी झगड़े और उनकी वंशावलियों की सांख्यिकी से भरी इतिहास की पाठ्य-पुस्तकें ऐतिहासिक दृष्टि से इस देश की भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्थिति को समुचित रुप से रख पाने में अक्षम हैं। उत्तरोतर भारत के बारे में हमारे पास बहुत ही सीमित जानकारी है। वहां रहने वाले लोगों का इतिहास क्या नृशंस आक्रमणों से जान बचाकर भागे हुए लोगों का इतिहास है ? पश्चिम भारत को हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के बाद हमने खंगाला है क्या ? दक्षिण भारत में क्या एक ही दिन में विजय नगर राज्य की स्थापना हो गयी ? सिंहली और तमिलों के विवाद की जड़ कहां है ? नागा, कुकी और मिजो जन-जाति की संस्कृति को हम कैसे जान पायेगें ? जंगलों के भीतर निवास करने वाले लोगों से हमारा रिश्ता कैसा होना चाहिए ? ऐसे ढेरों सवालों के हल ढूंढने के लिए दुनिया से साक्षत मुठभेड़ के सबसे अधिक अवसर यात्राओं के जरिये ही मिलते हैं। हिमाचल के कांगड़ा क्षेत्र के इस बहुत अंदरूनी इलाके को सबसे ज्यादा परिचित नाम वाली जगहों चिहि्नत करें तो धर्मशाला और मैकलाडगंज दिखायी देते हैं। नड्डी मोटर रोड़ का आखिरी क्षेत्र है जो मैकलोडगंज से कुछ पहले ही कैंट की ओर मुड़ने के बाद आता है। मैकलोडगंज शरणार्थी तिब्बतियों का मिनी ल्हासा है, जहां दलाई लामा रहते हैं। नाम्बग्याल मोनेस्ट्री में। अपनी कसांग के साथ। मैकलोडगंज की संस्कृति में तिब्बत की हवा है। नक्शे में गदरी ही नहीं, आगे के मार्ग में पड़ने वाले गजनाले के पार बसा भोंटू गांव भी नहीं। भोंटू से ऊपर रवां भी नहीं। भोंटू से आगे न नौर न करेरी गांव। मिन्कियानी दर्रा करेरी के बाद कितनी ही चढ़ाई और उतराई के बाद है।
देवदार, बन, चीड़, अखरोट, बुरांस, कैंथ, बुधु और खरैड़ी यानी हिंसर की झाड़ियों चारों ओर से करेरी गांव का घ्ोरा डाले हुए होती हैं। वन विभाग के विश्राम गृह से उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर रिंगाल की झाड़ियां, एलड़, तिरंड के घने जंगलों के बीच से जो रास्ता जाता है, उसे आगे गजेऊ नाला काटता है, जिस पर लकड़ी का पुल है। पुल के इस पार से ही गजेऊ नाले के बांये छोर से सर्पीले रास्ते पर बढ़ लिये। पुल पार नहीं निकले। पुल पार कर लेते तो नौली, मल्ली, कनोल, बो, दरींडी आदि गांवों में पहुंच जाते।
यूं इस तरह से गांवों की यात्रा जन के बीच घमासान तो नहीं होती पर उखड़ते मेले से घर लौटती भीड़ की तरह लौटना तो कहलाता ही। मेला देखे बगैर घर लौटने का तो सोचा भी नहीं जा सकता। बेशक उछाल ले-लेकर नीचे को तेजी से दौड़ रहा नाला चाहे जितना ललचाये और अपने साथ दौड़ लगाने को उकसाता रहे। उसके मोह में पड़े बगैर उसकी धार के विपरीत बढ़ कर ही मिन्कियानी की ऊंचाई तक पहुंचा जा सकता था। पहाड़ की पीठ पर उतरता नाला ऐसे दौड़ रहा था मानो पिता की पीठ पर नीचे को रिपटने का खेल, खेल रहा हो। पिता हैं कि पीठ लम्बी से लम्बी किये जा रहे हैं। छोटा करने की कोशिशों में होते तो तीव्र घुमावों के साथ नाला भी घूम के रिपटता। बल्कि घुमावों पर तो उसकी गति आश्चर्यमय तीव्रता की हो जाती। पैदल मार्ग के लिए बनी पगडंडी भी ऐसे तीव्र घुमावों पर सीढ़ी दार। हम पिता की पीठ पर चढ़कर कंधें की ऊंचाई तक पहुंच जाना चाहते थे। कंधे पर खड़े होकर दुनिया को निहारने के बाद मिन्कियानी की दूसरी ओर की ढलान पर उतर जाना हमारा उद्देश्य था। दूसरी ओर नाले के साथ-साथ, पिता की दूसरी पीठ पर उतर जाना चाहते थे। दोंनों ओर की ढलान पिता की पीठ थी। पिता का हमसे कोई सामना नहीं जो हमें अपनी छाती दिखाते। वे दोनों ओर अपनी पीठ पर हमारे बोझ को झेलने लेने की विनम्रता भरी हरियाली से बंधे हैं। अपने कंधें को दर्रे में बदल देने वाले पिता की धौलादार पीठ पर मिन्कियानी दर्रा हमारा गंतव्य था। करेरी, नौली, छतरिमू, कोठराना, शेड, चमियारा, गांवों के लोग अपने जानवरों के साथ करेरी लेक के गोल घ्ोरे से बाहर दिखायी देती पत्थरीली जमीन पर छितराये हुए थे। गाय भैंसों को उससे आगे की चढ़ाई पर ले जाना बेहद कठिन है। लेक के उस गोल धेरे में अपने अपने कोठे में वे टिक गये। जवान छोकरे बकरियों को लेकर लमडल की ओर निकल गए। बकरियां दूसरे दूधारू-पालतू जानवरों से भिन्न हैं। कद-काठी की भिन्नता और देह में दूसरों से अधिक चपलता के कारण वे पहाड़ के बहुत तीखे पाखों पर पहुंच जाती हैं। हरी घास का बहुत छोटा सा तृण भी उन्हें तीखी ढलानों तक पहुंच जाने के लिए उकसा सकता है। वे चाहें तो किसी भी ऊंचाई तक जा सकती हैं। लेकिन उनके रखवाले जानते हैं कि एक सीमित ऊंचाई के बाद भेड़-बकरियों के खाने के लिए घ्ाास तो क्या वनस्पति का भी नामोनिशान नहीं। ऊंचाई की दृष्टि से कहें तो लगभग 14000-15000 फुट की ऊंचाई के बाद जमीन बंजर ढंगार है। बर्फ से जली हुई चट्टानों के बाद बर्फ के लिहाफ को ओढ़ती चटटानों की उदासी अपने बंजर को ढकने की कोशिश में बहुत कोमल और कटी फटी हो जाती है। ऊंचाईयों तक उठते उनके शीष, उदासी का उत्सव मनाते हुए, गले मिलने की चाह में दो चोटियों के बीच दर्रे का निर्माण कर देते हैं। बहुत फासले की चोटियों के मिलन पर होने वाले दर्रे का निर्माण इसी लिए बाज दफा एक सुन्दर मैदान नजर आने लगता है। मिन्कियानी वैसा चोड़ा मैंदान तो नहीं, लेकिन सीमित समतलता में वह हरियाला नजर आता है। तीखी ढलान वाला दर्रा।
करेरी लेक से मिन्कियानी के रास्ते बोल्डरों पर चलना आसान नहीं। वह भी तीखी चढ़ाई में। कुछ जगहों पर चट्टान इतनी तीखी हो जाती है कि बिना किसी दूसरे साथी का सहारा लिये चढ़ा नहीं जा सकता। एक संकरी सी गली जिसके दूसरी ओर भी वैसा ही तीखा ढाल और पत्थरों का सम्राज्य है, मिन्कियानी कहलाता हुआ है। करेरी के बाद मिन्कियानी पार करने से पहले एक ओर झील है। मिन्कियानी के दूसरी ओर भी एक बड़ी झील- गजेल का डेरा है। गजेल का डेरा खूबसूरत कैम्पिंग ग्राऊंड है। गदि्दयों का घ्ार कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं। पीने के लिए पानी हो, भेड़ बकरियों के चारे के लिए घ्ाास हो और सहारे के लिए ओट- बस इतना ही तो एक गद्दी का ठिकाना। कितनी खोह और कितने उडयार पनाहगाह हैं लेकिन घ्ार नहीं कह सकते उन्हें।  कितने ही अमावास और चांद की भरी पूरी रात गुजारते हुए भेड़ो के बदन पर चिपकती झुर-झुरी और कच्ची बर्फ ऊन में बदलने का खेल ऐसे ही जोखिमों में खेला जा सकता है। कितनी गुद-गुदी और कितनी चिपचिपाहट है बर्फ में, ठिठुरन कितनी, कितने ही रतजगे हैं गद्दी के जीवन में घुलती चिन्ताओं के कि अबकि बर्फ देर से पड़े और देर तक बची रहे घ्ाास। भेड़-बेरियों के लिए बची रहे घास, उनके सपनों में ऐसे ही उतरती है रात।   
बहते पानी के साथ आगे बढ़ें तो एक झील पर पहुंचेगें। जिसके रास्ते हमें दरकुंड पहुंचना है। यदि पानी के विपरीत दिशा में बढ़ें तो सीधे लमडल पहुंच जायेगें। गजेल के डेरे से लगभग चार गुना बड़ी झील। लमडल तक का रास्ता झीलों का रास्ता है। लमडल से निकल कर भागता जल झील के रूप में कैद हो जाता है। लमडल भी एक झील है। बल्कि लमडल तक पूरी सात झीलें हैं। लमडल से निकल कर तेज ढाल पर भागते पानी की खैर नहीं। नदी होने से पहले उसे जगह जगह मौजूद झीलों के साथ कुछ समय गुजारना है। रूप बदलकर हर क्षण भागती बर्फ को अपने आगोश में समेट लेने को आतुर धौलादार की यह श्रृंखला इस मायने में अदभुत है। लमडल से उत्तर-पूर्व की ओर बढें तो चन्द्रगुफा तक पहुंच सकते हैं। चंद्रगुफा भी एक झील है। वहां से आगे नगामण्डल निकल सकते हैं। एक झील का अपना सौन्दर्य है। लमडल एक बड़ी झील है। नीचे की ओर उतरते हुए झीलों के आकार अनुपात में छोटे होते चले गए हैं। नागमण्डल को इन्द्राहार पास के रास्ते का ही पड़ाव कह सकते हैं। यूं नागमडल से नीचे उतरने लगे तो होली गांव पहुंचा जा सकता है। धौलादार की इस श्रृंखला में भुहार, बल्यानी, मिन्कियानी, भीम की सूत्री, इन्द्राहार, जालसू, थमसर और न जाने कितने ही दर्रे हैं जो कांगड़ा और चम्बा घाटी के द्वार भी कहे जा सकते हैं। वैसे इन्हें पिता का कंधा कहें तो पिता के कंधे पर चढ़कर मेला देखने का उत्साह अपनी तरह से उकसाता है।  
 

नोट: यह यात्रा संस्मरण २० नव्म्बर २०११ के जनसत्ता में प्रकाशित हुआ है।

Friday, November 25, 2011

मुझे मालूम है



  
अरुण कुमार "असफल" ऐसे रचनाकार है जिन्हें बहुत मुखर होकर बोलते हुए कम लोगों ने ही सुना होगा। लेकिन आस पास के वातावरण, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों पर उनकी दृष्टि हमेशा बेबाक रही। हां उस आवाज को सुनने के लिए अक्सर हो सकता है कि आपको अरुण के बहुत करीब जाना पड़े। लेकिन इस बार उनका बोलना आप सुन सकें- अरुण की वह टिप्पणी जिसका जिक्र फेसबुक के माध्यम से अरुण ने किया था, यहां आप सभी के लिए सादर प्रस्तुत है।
बहुत चुपके चुपके घुमड़ने वाली असहमतियों को दर्ज करना हमारी कोशिश का एक ऐसा हिस्सा है जिसमें इस ब्लाग की सार्थकता भी साबित हो सकती है और पद, उम्र या श्रेष्ठता के दूसरे मानदण्डों के आगे असहमतियों को दर्ज न कर सकने की सामंति मानसिकता से मुक्ति का रास्ता भी बनता है। हमारा मानना है कि असमहति एक स्वस्थ बहस का आधार होती है। विश्वास है कि पाठकों तक हमारे मंतव्य सकारात्मक प्रभाव छोड़ेंगे।
 -वि. गौ.
  
सूप तो सूप चलनी भी बोली
-अरुण कुमार 'असफल"
 वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु खरे ने जनसत्ता के दिनॉक 09-10-2011 अंक में प्रकाशित अपने लेख ' सूत न कपास" में नोबेल पुरस्कार के बहाने  वरिष्ठ साहित्यकार विजयदान देथा पर जो अपमान जनक  टिप्पणियॉ की हैं उससे पूरा साहित्य समाज स्तब्ध है। लेख की भाषा और मिज़ाज से मालूम होता है कि लेखक ने कोई "पुराना हिसाब" चुकता करने के उद्देश्य से ही इसे लिखा है। एक ऐसे  वयोवृद्ध महान साहित्यकार, जो कि कूल्हे की हड्डी पर चोट की वजह से काफी समय से बिस्तर पर हो और सर में चोट लग जाने से जिनकी स्मरण क्षमता प्रभावित हुई हो, उन पर ऐसे फिकरे कसने का क्या मतलब था? बिज्जी की हालत इस समय ऐसी है कि वे इस लेख का जवाब देना तो दूर, अभी पढ़ने की भी स्थिति में नहीं हैं। एक जगह तो लेख में विष्णु खरे लिखतें हैं "यह (नोबेल पुरस्कार)  आलोचना या मूल्यॉकन का कोई मापदण्ड नहीं है " पर दूसरी जगह यह भी लिखतें हैं " नियम यह है कि खोटे सिक्के असली सिक्कों को बाहर कर देतें हैं " तथा "इन दो गिलट के रुपयों नें फिलहाल भारत में स्वीडी कलदार तोमस त्रॉस्त्रमार को चर्चा से बाहर कर दिया है---"। लेख में मूल्यॉकन के कोई अन्य तर्क रखे बगैर लेखक ने इन दो साहित्यकारों को गिलट के सिक्के और त्रॉस्त्रमार को खरा सिक्का साबित कर दिया। स्पष्ट है कि स्वयं लेखक के पास भी नोबेल पुरस्कार के अलावा मूल्यॉकन का कोई और तरीका नहीं है। निस्संदेह त्रॉस्त्रमार श्रेष्ठ कवि हैं लेकिन किसी की श्रेष्ठता साबित करते हुये किसी पर अपनी भड़ास निकालना आवश्यक है क्या? लेख में लेखक ने यह भी साबित करने की कोशिश की है कि इन दो भारतीय साहित्यकारों ने जमकर लॉबिंग की होगी। जहॉ तक विज्जी की बात है तो उनके बारे में ऊपर ही उल्लेख कर दिया गया हैं कि वे गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं। उनका लिखना पढ़ना तो स्थगित है ही, बोलना बतियाना भी सीमित है। न ही किसी साहित्यिक संस्था या साहित्यकार ने कोई उनकी सुध ली और न ही उनका किसी से सम्पर्क है। तब उन्होने लॉबिंग कैसे की? क्या विष्णु खरे को यह नहीं मालूम कि बिज्जी की कहानियॉ बहुत पहले ही विश्व की कई भाषाओं में अनूदित हों चुकीं हैं और  वि्श्व साहित्यिक परिदृश्य में विजयदान देथा एक जाना पहचाना नाम है। हिन्दी में भी लोग सत्तर के दशक से उन्हे जानने लगे थे। 1979 हिन्दी में अनूदित उनकी कहानियों का पहला संकलन "दुविधा तथा अन्य कहानियॉ" आया तथा 1982 में दूसरी किताब "उलझन" आईं। "दुविधा" पर मणिकौल ने फिल्म बनाई तथा "फितरी चोर" कहानी पर हबीब तनवीर ने नाटक खेला। उनकी कई कहानियों पर फिल्में बनी हैं तथा नाटक खेले गए हैं। पर उन्होने इसके लिए न अन्य कहानीकरों की तरह मुम्बई के बारंबार चर लगाये और न ही नाटककारों के दरवाजे खटखटाये (एक ख्यातिप्राप्त नाटककार तो काफी समय तक उनकी एक कहानी पर अपना नाम देकर नाटक खेलते रहे)। यह तो उनकी कहानियों की अर्न्तवस्तु में बसी लोकजीवन की  गन्ध है जो लोगों को अपनी ओर खींचती हैं। कहानियों को इस काबिल बनाना इतना आसान कार्य नहीं है। इसके लिये 'लोक" की यात्रा करनी पड़ती है। बिज्जी ने यह यात्रा पचास साठ के दद्गाक में आरंभ कर दी थी। जब रास्ते के नाम पर रेत के ढूहे और वाहन के नाम पर ऊंट गाड़ी ही सर्वत्र दिखतें थे तब लोक कथाओं को लुप्त होने से बचाने की अदम्य इच्छा लिये विज्जी ने गॉव गॉव की यात्रा की और बड़े बुजुर्गो की स्मृतियों में बची लोक कथाओं को अभिलेखित किया। इस कार्य के लिये उसे अचित पारिश्रमिक भी दिया और सन्दर्भ में उसका जिक्र भी किया , अर्थात पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता भी बरती।

स्पष्ट है , हमारे यहॉ  "जेनुइन" लेखकों" को हाशये पर डालने और माखौल उड़ाने  की जो पंरपरा है  विष्णु खरे का सन्दर्भित लेख उसका बखूबी से निर्वाह करता है। विष्णु खरे ही क्या एक बार तो राजस्थान में भी कुछ साहित्यकारों ने मौलिकता के नाम पर खारिज करने का अभियान चलाया था। कोई उनसे यह पूछे कि एक पैरा या एक पेज़ की लोक कथाओं को दस बीस या पचास पेज़् की कथाओं में पुर्नसृजन करने वाला दूसरा और कौन है? वे लोक कथाओं को ऐसी कथाओं में पुर्नसृजित करतें हैं जिसमें स्त्री अपने देह का स्वतन्त्र निर्णय लेती है, दलित और श्रमिक तर्क करतें हैं और राजा या प्रभावशाली लोगों को मुंह की खानी पड़ती है। सदियों पुरानी लोककथाओं का ऐसा रूप देना जो फिर कभी बासी न लगें। इसका अन्यत्र उदाहरण कहॉ हैं?  यह तो केवल साहित्य के क्षेत्र में योगदान है। बहुतों को तो यह नहीं मालूम होगा कि बिज्जी अपने महत्तम प्रयास से बोरून्दा में लड़कियों के लिये आवासीय महाविद्द्यालय खुलवाने में सफल रहे। एक ऐसे राज्य में जिस के कई क्षेत्र में अभी भी मध्यकालीन सामन्ती संस्कारों का ऐसा बोलबाला है कि लड़कियों के जन्म को अभिशप्त के रूप में लिया जाता है वहॉ के एक गॉव में लड़कियों के लिये इस उद्देश्य से महाविद्द्यालय खोलना कि लड़कियॉ घर से निकल कर बाहर तो निकलें, इससे बड़ा जनवादी और प्रगतिशील कार्य क्या होगा ? क्या नोबेल पुरस्कार से इसको नापा जा सकता है? क्या जिस व्यक्ति ने जीवनपर्यन्त बोरुन्दा को कर्मभूमि बनाया हो उससे यह उम्मीद की जा सकती है क्या कि वह नोबेलॉकाक्षी होगा? होता तो उसका कोई न कोई ठिकाना देश की राजधनी में अवश्य होता। चलिये देश नही तो प्रदे्श की राजधनी में अक्सर ही उसके पड़ाव होते। लेकिन फिल्मकारो नाटककारों और अन्य कलाकारों के तो उसके गॉव में ही पड़ाव लगतें हैं? दे्श के कितने साहित्यकारों के साहित्य में इतना दम है जो दे्श दुनिया को अपने पास खींच सकें। विपरीत इसके, लेख से ज़ाहिर होता है कि विष्णु खरे ही नोबेल पुरस्कार से काफी वास्ता रखतें होगें।इसलिए कई जगह "मुझे मालूम है" की रट लगाये से दिखतें हैं। मसलन "मुझे मालूम है कि कभी जर्मनी के हिंदी विशेषज्ञ लोठार लुत्से से भी अनुशंसाए मॅगाईं गईं थीं। मुझे यह भी मालूम है---"। गोया कि नोबेल पुरस्कार समिति से वैसा ही जुड़ाव है जैसा कि भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार समिति से। यह अलग बात है कि इस बार पुरस्कृत कवि को "हुड़ुकलुल्लु" की उपाधि न देकर पुरस्कार से वचिंत रह गये लोगो को ही कोसा है। जिनकी गलती सिर्फ इतनी ही है कि उनका नाम नोबेल सॅभावितों की सूची में आ गया है और इस तरह से वे नोबेलॉकाक्षियों की काली सूची में आ गयें हैं। जबकि विष्णु खरे एक जगह लिखतें हैं  "निर्णायक मंडल मुख्यत: जर्मन, फ्रेंच, इतालवी और इस्पानी भाषाओ के साहित्यिक अनुवादों पर निर्भर रहती है---" । तो क्या इसका यह अर्थ निकाल लिया जाये कि जिन साहित्यकारो ने इनमें से किसी देश की बारंबार यात्रा की है तो वे नोबेलॉकाक्षीं होगें या जो इनमें  से किसी भी दे्श की भाषा का जानकार है वह होगा नोबेलॉकाक्षीं? या यही  अर्थ निकाल लिया  जाये कि हिंदी के वे सम्राट नोबेलॉकाक्षी तो होगें ही जिन्होंने अपनी राजकुमारियों का ब्याह इन देशों के राजकुमारों से किया होगा। यदि ऐसा हो तो हो ! पर बिज्जी इस दंद-फंद से कोसों दूर हैं।