Thursday, January 10, 2013

कभी यहां बहुत सारे रास्ते थे!



(यहां - यमुना किनारे सुबह के कोहरे में जब बाहर निकलना बहुत मुश्किल हुआ जाता है तो घर के भीतर बैठे पुराने कागजों को खंगाल ही लेना चाहिये.कम्प्यूटर के वाइरस की चिन्ता करने वाली नयी पीढी को दीमकों के भय का शायद अन्दाजा हो. कुछ जगहें तो दीमकों के लिये बहुत ही सुरक्षित हुई जाती हैं. 1988 या 89 में लिखी कुछ रचनायें मिलीं. शायद हर कहानी लिखने वाला शुरूआत कविताओं से करता है.उन्हीं में से एक यहां किंचित संकोच के साथ प्रस्तुत है. –नवीन कुमार नैथानी)
रास्ते


कौन गया होगा इन रास्तों से होकर

जब आगे कुछ नहीं रहा होगा

जीवन में वनस्पति के सिवा.



मृत अवशेषों के साथ किसने बिताये होंगे

खत्म होने वाले दिन?



कौन जाता होगा इन रास्तों से होकर

जब समय में उतना शेष नहीं है जीवन

जितना हम जी लिये.

वनस्पति के दरकने से बनी पगडंडी पर कौन चलता होगा?



कौन जायेगा इन रास्तों से होकर

जब आगे कुछ नहीं रहेगा

हवा

वनस्पति

प्राणि.



जब फिर से शुरू होगा जीवन तो

कौन बतायेगा

कि कभी यहां बहुत सारे रास्ते थे!


Wednesday, January 2, 2013

क्या यह एक जरूरी काम नहीं है?

मेरा कमरा

- अल्पना मिश्र

स्त्री का कोई अपना कमरा हो सकता है क्या, जहॉ बैठ कर वह अपने आप को जी सके? ऐसा कोई एकांत कोना ही, जहॉ वह अपनी तरह से दुनिया जहान पर विचार कर सके? मेरी समझ से यह हमारे वक्त का अभी भी एक जरूरी सवाल है। स्त्री जहॉ खड़ी होती है, वहीं अपना कमरा मतलब अपना स्पेस रच लेती है। मेरा भी हाल यही है। अलग से कोई जगह, कोई कुर्सी मेज नहीं मिली कि लिखने के सारे साजो सामान के साथ लेखक की भव्यता को महसूस करते हुए लिख सकूं ।
            बालपन और युवापन के बीच के समय की बात है, जब अपने में मगन होने को जी चाहता और कोई कविता सूझ रही होती तो बिना पलस्तर की नई बन रही किसी ऊंची दीवार पर चढ़ कर बैठ जाती। यह हमारे घर की दीवार होती, जो उस समय बन रहा था। उसमें एक अलग सी नमी और ठंडक मिलती। मिट्टी, सीमेंट और ईंटों की अद्भुत सी गंध बिखरी होती। यहॉ यह भी बता दूं कि जो कविता मुझे सूझ रही होती, वह किसी रोमानियत से नहीं निकल रही होती, बल्कि गुस्से और प्रतिरोध के लिए वह एक बेचैन माध्यम होती। धीरे धीरे यह माध्यम मुझे बेहद मजबूत माध्यम लगता चला गया और मैं कविता से गद्य की तरफ आती गयी। गद्य में आ कर लिखने के लिए ज्यादा स्थिर जगह की जरूरत पड़ती। पर जगहें तो वही मयस्सर थीं, थोड़ी सी प्रकृति, थोड़ी सी रसोई, कुछ बरतन, आटे का बड़ा वाला कनस्तर, बिस्तर पर अरवट करवट कि कहीं छोटे भाई बहन जग न जायें, बाद में बच्चे जग न जायें, रजाई के भीतर मद्धिम रोशनी -- - और हॉ, टॉयलेट, वह सोचने की सबसे मुफीद जगह थी। खैर तो मेरी ढूंढ़ाई होती और मैं एकदम निश्चित पते पर मिल जाती। फिर मुझे तरह तरह के भाषा प्रयोगों से बताया जाता कि मैं किस तरह के फालतू काम में लगी हूं। अगर इतने समय में अपनी पाठ्यपुस्तकें पढ़ती तो किसी की मजाल नहीं थी कि मुझे टॉप करने से रोक पाता। फिर एक दो और भी जगहें थी, जहॉ कलम कागज लिए पॅहुच जाती। आम के पेड़ की छॉव थी। वहॉ बहुत एकान्त होता। यह पेड़ घर के ठीक पीछे के अहाते में लगा था। और भी बहुत से पेड़ पिता जी ने लगाए थे। पर यह आम का पेड़ बड़ा शानदार लगता। इसकी छाया मेरा वह खुशबूदार कमरा थी, जहॉ बैठ कर शादी के बाद भी मैंने कई कहानियॉ लिखीं। 'मुक्तिप्रसंग" कहानी का पहला ड्राफ्ट  यहीं तैयार हुआ था। यह कहानी 'कथादेश ’04 में आई थी। 'मिड डे मील" तो यहीं की हवा में फैली मिलेगी आपको। मेरे पहले कहानी संग्रह 'भीतर का वक्त" की तमाम कहानियॉ ऐसे ही इधर उधर से समय और जगह निकालते लिखीं गयीं। अब तो आम की इस घनी छाया पर, न जाने किस लोक से आकर बंदरों ने अपना आधिपत्य जमा लिया है और मुझसे मेरा वह निजी बिन दीवारों का कमरा छीन लिया है।
                एक बात और हुई। शादी के बाद पेड़ की किसी डाल पर चढ़ कर विचार मग्न होना और किसी टूटी फूटी या बनती हुई दीवार पर चढ़ना मर्यादा विरूद्ध बना दिया गया। लेकिन मेरी अनुशासनहीनता को बॉध पाना इतना आसान था क्या? 'जो मुझे बॉधना चाहे मन तो बॉधे पहले अनंत गगन---" कुछ इसी तर्ज पर लेखन चल रहा था। कभी रसोई तो कभी डाइनिंग टेबल तो कभी थोड़ा सा दोपहर का समय चुरा कर धूप में कुर्सी खींच खींच कर लिखना। कभी सीढ़ियों के आखिरी उपरी पायदान पर बैठ कर, छिप कर लिखना और वह रात रात भर जाग कर बिस्तरें में सोते जागते हुए लिखते रहना। तब तक लिखना, जब तक कि द्रारीर पूरी तरह आपका साथ न छोड़ दे। यह रात भर जागना किसी तपस्या से कम न होता। लिखना शुरू करने के लिए विचारों को जल्दी जल्दी कोई भी काम करते हुए नोट करते जाना होता, जैसे कि रोटी बनाते हुए कागज कलम धरे हैं पास में और विचारों के उफान में से कुछ कतरे नोट कर ले रहे हैं कि जब फुरसत के क्षण आऐंगे तब इसी थाती को खोल कर काम ले लेंगे। फुरसत का क्षण आता, जब पति और बच्चे सो जाते। तब तक कम से कम रात के गयारह, साढ़े ग्यारह होने लगते। कभी बारह भी बज जाता। नौकरी और बच्चों के स्कूल दोनों ही कारणों से सुबह जल्दी उठने को जरा भी टालना असंभव होता। पति सेना में अधिकारी हैं और प्राय: बार्डर पर पोस्टिंग होती रहती। उनकी नौकरी ऐसी कि जब वे छुट्टी आते तो वे दिन उत्सव के दिन बन जाते और बच्चों समेत उस समय को कितना पा लिया जाए, इसी पर बल होता। बहुत काम रोजमर्रा की जरूरतों से बचे होते। वे प्राय: बचे ही रह जाते। इस तरह वे बहुत मददगार होना चाह कर भी नहीं हो पाते। पर जितना सपरता, उतना मदद करते ही। बच्चों की हर तरह की जिम्मेदारी मेरे उपर होती। इस सब में यह भी होता कि कई बार याद आने पर बच्चों के जूते रात के किसी पहर में उठ कर पॉलिश करती। फिर बड़े होते हुए बच्चों ने बहुत से काम अपने उपर ले लिए और जूते पॉलिश जैसे तमाम छोटे कामों से मैं मुक्त हो गयी। इस तरह सब काम निबटाने के बाद लिखने का नम्बर आ पाता। जबकि मैं मानती हूं कि लिखना एक जरूरी काम है और दुनिया को बदलने का ख्वाब देखने वालों को बोलना तो पड़ेगा ही। हस्तक्षेप करने की इच्छा रखने वालों का माध्यम कुछ भी हो सकता है, पेंटिंग, लेखन या राजनीतिक सक्रियता या जन आन्दोलन या सामाजिक, सांगठनिक आन्दोलन। यह सब अलग अलग नहीं आपस में जुड़ी-गुंथीं चीजें हैं। इसके बावजूद कि मैं यह मानती थी, लिखने का वक्त सबसे आखिरी में मिल पाता या लिखने का वक्त सबसे आखिरी में निकाल पाती, कुछ भी कह लें , यही जीवन की सच्चाई रही। तो रात भर जाग कर काम करना पड़ता। बड़े जुनून में काम होता। 'छावनी में बेघर" कहानी ऐसे ही चार रात जग कर लिखी गयी। सोए हुए बच्चों को साथ लिपटाए दो तकिए पीठ के पीछे रख कर लिखी गयी यह कहानी।
इसी तरह देहरादून के घ्रर का, लिखने के जुनून का एक और दृश्य याद आ रहा है। मेरे बेटे की हाईस्कूल की परीक्षा थी। वह चाहता था कि मैं कुछ देर उसके पास रहूं। लेकिन नौकरी समय बहुत खींच लेती, फिर परम्परागत सारे काम होते ही। उसका कमरा ऊपर था। मैंने वहीं जमीन पर अपना बिस्तर लगा लिया था। काम खतम कर के, उसके लिए काफी बना कर लाने और ऊपर पॅहुचने में हमेशा रात के ग्यारह बजने लगते। बेटा कहता-''तुम भी पढ़ो।"" मैं पढ़ती, सुबह का लेक्चर तैयार करती। एक बार ऐसा हुआ कि मेरे दिमाग में विचार बड़े आवेगात्मक तरीके से आ रहे थे। मैंने कुछ कतरे रसोई में काम करते हुए नोट भी किया। लेकिन विचार थे कि रूकते ही न थे। तब मैंने बेटे के लिए कॉफी बनाई और एक कॉख में कागज कलम दबाए और दूसरे हाथ में कॉफी का मग ले कर उपर पॅहुची। थोड़ी देर तो पढ़ाई लिखाई चली। फिर बेटे ने कहा कि -''मॉ , आज रेस्ट नहीं किया । अब सोउंगा।"" मैंने कहा-''ठीक है।"" और बत्ती बुझा कर हम सो गए। लेकिन मेरे दिमाग की सिलाई तो उधड़ चुकी थी। ठाठे मार कर विचार का समुद्र बहा जा रहा था। मैंने अंधेरे में सादे पन्ने पर नोट करने की कोशिश  की। लेकिन जैसे ही मैंने कलम चलाया, बेटे ने भॉप लिया। तुरंत उठ बैठा। जल्दी से लाइट जला दी। ''अम्मॉ, तुम अंधेर में  लिख रही हो। यहॉ बैठ कर लिखो।"" उसने तुरंत अपनी टेबल कुर्सी मुझे ऑफर की। मैंने मना कर दिया। थके बच्चे के साथ यह अन्याय होता। मैंने कहा-'' तुम चिंता क्यों कर रहे हो। ऐसे ही कुछ दिमाग में आ गया तो नोट कर लिया।"" वह आश्वस्त हुआ। हम फिर से सोए। लेकिन यह तो मेरा दिमाग था! काहे को माने! फिर से वही हाल। फिर पन्ने पर बहुत धीरे से कुछ घसीटा। फिर बेटा उठ गया। उसने लाइट जला दी। फिर मैंने कागज कलम दूर रख दिया और कहा कि '' यह आज की आखिरी पॅक्ति थी, जो सूझी थी।"" इस पर बेटे ने कहा कि -''तुम कह रही थी कि कुछ बम बिस्फोट और आम आदमी की बात लिख रही हो। क्या यह एक जरूरी काम नहीं है? उठो और काम करो।"" मैं उसकी संवेदनशीलता पर दंग रह गयी। इसके बाद उस रात नहीं लिखा मैंने। सुबह जब फुरसत के क्षण में ठीक किया तो पाया कि यह एक अलग ढंग की कहानी तैयार हो रही थी। यह कहानी 'बेदखल" नाम से छपी 'बया" के पहले अंक में और फिर इसे कई जगह मित्रों ने बार बार प्रकाशित किया। चर्चा खूब मिली। वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने दू्रदर्शन  पर कहा कि 'यह हिंदी की पहली कहानी है, जो बम बिस्फोट और आतंकवाद की समस्या उठाती है।" उनका यह वक्तव्य 'पब्लिक ऐजेंडा" ने छापा भी।
अब तो ज्यादा काम लैपटॉप पर करने लगी हूं। कागज कलम अब भी है। पर टाइपिंग ने ज्यादा जगह पा ली है। इंटरनेट और मेल की सुविधा जुड़े होने से यह आसान लगने लगा है। खुद टाइप करते हुए कई बार कहानी का पहला ड्राफ्ट भी सीधा कम्प्यूटर पर ही लिखने लगी हूं। लैपटॉप पर काम करने के बावजूद आज तक लिखने की जगहें बिखरी हुई ही हैं। तो बिन दीवारों के इन्हीं कमरों में लगता है मन मेरा, जिसका विस्तार इतना हो कि सारी दुनिया समा जाए और एक ही पल में आदमी अकेला भी हो ले, अपने में डूब ले या सबमें डुबकी लगा कर बाहर आ ले।
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अल्पना मिश्र
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विच्च्वविद्यालय, दिल्ली-7
मो। 9911378341






       

Monday, November 26, 2012

मटर का मौसम और राजेश सकलानी की कविता



   (मटर का मौसम आते ही राजेश सकलानी की कविता ‘गेंद की तरह’  चेतना में कौंध जाती है.आज इस कविता का स्वाद लीजिये)



गेंद की तरह
                                                                       -राजेश सकलानी




कौन से देश से आयी हो
किसके हाथों उपजाई हो
गदराई हुई मटर की फलियों
जैसे धूप टोकरी से कहती हो

मैं लगा छीलने फलियां
एक दाना छिटक कर गया यहां-वहां
लगा ढूंढने उसे मेज के नीचे
वह नटखट जैसे छिपता हो

फिर सोचा एक ही दाना है
लगा दूसरी फलियों को छूने
लेकिन नहीं,बार-बार वह आंखों में कौंधता

आखिर गया तो गया कहां
वह कसा-कसा हरियाला
मिल जाये तुरत उसे छू लूं

काग़ज़,किताब,जूते सब उठा पलट कर
मैं लगा देखने

एक और मेरा समय
दूसरी और मटर के दाने का इतराना

ज्यों-ज्यों आगे लगा काम में
लगता जैसे अभी-अभी वह गेंद की तरह
टप्पा खाकर उछला है.