Saturday, March 16, 2013
Thursday, March 14, 2013
Saturday, March 9, 2013
नरेश सक्सेना की कविता
(नरेश सक्सेना की यह कविता इधर प्रकाशित हुई कविताओं में बेजोड़ है.लगभग दो वर्ष पूर्व यह पहली बार आधारशिला में प्रकाशित हुई थी.महाकाव्यात्मक क्षितिजों को छूती यह कविता उनके संग्रह सुनो चारूशीला से ली गयी है)
पहाड़ों के माथे पर बर्फ़ बनकर जमा हुआ,
यह कौन से समुद्रों का जल है जो पत्थर बनकर,
पहाड़ों के साथ रहना चाहता है
मुझे एक नदी के पानी को
कई नदियाँ पार करा के
एक प्यासे शहर तक ले जाना है
नदी को नापने की कोशिश में
जहाँ मैं खड़ा हूं
वहाँ वह सबसे अधिक गहरी है
गहरे पानी से मैं डरता हूं ,क्योंकि
तैरना नहीं आता
लेकिन सूखी नदियों से ज्यादा डर लगता है
पूरी नदी पत्थरों से भरी है
जैसे कि वह पानी की नहीं , पत्थरों की नदी हो
अचानक शीशे की तरह कुछ चमकता है
एक खास कोण पर
हर पत्थर सूर्य हो जाता है.
चन्द्रमा हो जाता होगा, चाँदनी रातों में ,
हर पत्थर
यह इलाका परतदार चट्टानों का है
जिन्हें समुद्र की लहरें बनाती हैं
पता नहीं किस उथल-पुथल और दबाव में
मुसीबत की मारी, यह चट्टानें,
इस उँचाई पर आ पहुँची हैं
लेकिन समुद्र इन्हें भूला नहीं है.
लगातार छटपटाते,जब हो जाता है बर्दाश्त के बाहर
तो वह उठ खड़ा होता है,एक दिन
घनघोर गर्जनाएँ करता हुआ
वह उठ खड़ा होता है ,कि बिजलियाँ चमकती हैं
बिजलियाँ चमकती हैं
कि वह पहाडों को बाहों में भर लेता है
और डोल उठता है
भारी मन
भारी मन चट्टानों का डोल उठता है कि वे
पानी की उँगली थामे
डगमाती,फिसलती और गिरती
हुईं
चल पड़ती हैं ,छलाँगें लगाती खतरनाक ऊँचाइयों से
बिना डरे,तेज़ ढलानों
पर तो इतनी तेज़
कि पानी से आगे-आगे दौड़ती हुई
कहती हुई कि देखें पहले कौन घर पहुँचता है.
हर पत्थर समुद्र की यात्रा पर है
जो गोल है, वह लम्बी दूरी
तय करके आया है
जो चपटा या तिकोना है,वह नया सहयात्री है.
मेरी उपस्थिति से बेखबर, सभी पत्थर
नंगधड़ंग और पैदल
टकटकी लगाये आकाश पर.
हर रंग के,छोटे और बड़े,सीधे और सरल
कि जितने पत्थर भीतर से
उतने ही पत्थर ऊपर से
टूतने के बाद भी पत्थर के पत्थर
हाँ,
अपनी भीतरी तहों में छुपाये हुए बचपन की यादें
मछलियों और वनस्पतियों के जीवाश्म
शंख और सीपियाँ और लहरों के निशान
ध्यान देने पर पानी की आवाजें भी सुनी जा सकती थीं
हर पत्थर एक शब्द था
हर शब्द एक बिम्ब
हर बिम्ब की अपनी खुशबू और छुअन और आवाज
जिनके अर्थ बजने लगे मेरी हड्डियों में
मुझे अपने पूर्व जन्मों की याद दिलाते हुए
पत्थरों की उस नदी में डूब कर
याद आयी सोन रेखा
जिसे अपने छोटे-छोटे पाँवों से पार किया करता था
याद आये कितने ही चेहरे, और आँगन और सीढ़ियाँ और रास्ते
हम कितनी जल्दी भूल जाते हैं
अपने रिश्ते
पत्थर नहीं भूलते.
तभी पानी की कुछ बूँदें मेरे माथे पर पड़ीं
“बारिश शुरू हो गयी है,सर,निकल चलिये,”साथी इंजिनियरों ने कहा,
“बारिश के मौसम में पहाड़ी नदियों का भरोसा नहीं किया जा सकता.”
“मनुष्य का भरोसा किस मौसम में किया जा सकता है”
यह उनसे पूछना बेकार था.
अँधेरा घिर आया था
पत्थरों को छूकर बहते पानी के संगीत का रहस्य
धीरे-धीरे खुल रहा था
पत्थरों और पानी की इस जुगलबन्दी में
कितनी आवाज़ पत्थरों की थी
कितनी पानी की
यह जानना असम्भव था
रात देर तक गूंजता रहा पत्थरों का कोरस
“जा रहे हैं
हम उस पथ से कि जिससे जा रहा है जल
रेत होते ही सही,हम जा रहे हैं
जा रहे
हम जा रहे
घर जा रहे हैं.”
लेबल:
कविता,
नरेश सक्सेना,
सुनो चारूशीला
Saturday, March 2, 2013
पंखुरी सिन्हा की कवितायें
अफ़वाह
अफवाहें,
बिलकुल अंग्रेजों के ज़माने सी,
या उससे भी पहले,
मुग़लिया काल की,
बंद बंद ज़माने की,
बंद, बंद समय की एक,
बंद समाज की,
बंद, बंद सबकुछ की,
जब उड़ने के नाम पर,
उड़ती थी, अफवाहें,
साथ, साथ, धूल के बवंडर के,
कि फलां कुँए में मांस डला है,
डाला गया है,
डलवाया गया है,
कारतूस पर मांस है,
मांस झटका या हलाल है,
फलां लड़की के प्रेम सम्बन्ध हैं,
एक प्रेमी है,
या शायद दो भी,
एक के बाद दूसरा,
या क्या पता एक साथ,
प्यार एक से, दूसरे से दोस्ती,
जाने क्या है,
पर अब भी वह बाहर नज़र आती है,
नज़रबंद नहीं।
अपरिचय
कैफे की खूबसूरत सी मेज़ कुर्सी पर,
या किसी रोज़,
सिर्फ एक नए से कैफे की,
तरो, ताज़ा, मेज़ कुर्सी पर,
थामकर, किसी अद्भुत नाम का कोई पेय,
या थाम कर, उसी, अद्भुत नाम का, अक्सर का पेय,
छिड़ककर दालचीनी की अबरख,
पसर जाना, कैफ़े की गर्माहट में,
ये ख्याल घर छोड़ आ कर,
कि मकान मालकिन के सोफे पर भी लिखा जा सकता था,
सरकती हुई धूप में,
देखते उस अदृश्य पर्शियन बिल्ली को,
घर छोड़ते,
उतरते, सोफे के गुदगुदे पन से,
पसर जाना कैफ़े की मसरूफियत में,
जहाँ कोई नहीं जानता उसे,
ये भी नहीं कि वह वैनिला भी छिड़कना चाह रही थी,
अपनी ड्रिंक पर,
कॉफ़ी में चॉकलेट डली,
जाने क्या क्या मीठी,
नफीस चीज़ें डलीं,
अपनी ड्रिंक पर,
और कि उसने वैनिला का बीन्स कभी नहीं देखा,
और ज़रूर देखना चाहेगी,
और वह क्रीम भी डालना, उडेलना चाहती थी, अपनी ड्रिंक में,
और कि उसके सबकुछ डालने का उपक्रम करते ही,
क्यों वह आदमी ढेरों चीनी उड़ेलने लगता है,
उसकी बगल में आकर,
शायद वह जानता हो,
वह इस कैफ़े में अक्सर आया करती है,
मुमकिन है और लोग भी जानते हों,
ये भी कि वह पड़ोस में रहती हो?
शायद मकान का नंबर भी?
ये भी कि मकान मालकिन से बहस हुई उसकी,
और जाने क्या?
कोई कैसे पहुंचे कैफ़े में,
सिर्फ हाबर्मास के उस कैफ़े में?
Subscribe to:
Posts (Atom)