Friday, October 3, 2014

उत्सव का रंग उद्देश्य से इतर नहीं





विजय गौड़ 


रंगों को वैज्ञानिक दृष्‍टी से देखा जाये और उसी भाषा में व्‍याख्‍यायित किया जाये, तो कह सकते हैं कि तरंगों की एक निश्चित दैर्ध्‍य ही रंग है। श्‍वेतप्रकाश का प्रिज्‍मेटिक विखण्‍डन का प्रयोगात्‍मक साक्ष्‍य उनकी भिन्‍नतओं का समुच्‍य है। देख सकते हैं कि प्रिज्‍म के पार एक स्‍पैक्‍ट्रम बनता है, जिसका एक छोर लाल और दूसरा बैंगनी पर समाप्‍त हो जाता है। स्‍पैक्‍ट्रम साबित करता है कि रंगों की भिन्‍नता तरंगों की दैर्ध्‍य है। खास दैर्ध्‍य की तरंग ही सुनी जाने वाली आवाज हो सकती है तो कभी वातावरण को गर्माने वाली भी। बादलों के गरजने से पहले बिजली का चमकना बताता है कि बादलों के संघटन पर दो भिन्‍न दैर्ध्‍य की तरंगों ने चमक और ध्‍वनि की उत्‍पति की है। एक चमक बनकर बिखर गयी और दूसरी आवाज बनकर सुनायी दी। तरंगों को ही आधार मानकर किये गये मानवीय शोधों ने बताया है कि घने अंधेरे में अवस्थिति किसी वस्‍तु को भी देखा जा सकता है, सिर्फ उसकी सतह से उठती तरंगों को यदि पकड़ लिया जाये तो। अनुसंधानों के विज्ञान ने उसे मुक्‍कमल करके भी दिखाया है और नाइट विजीन डिवाईस के नाम से पुकारे जाने वाले उत्‍पादों ने उसे संभव भी किया है। यानि कहा जा सकता है कि रंगों का न तो अपना कोई स्‍वतंत्र अस्तित्‍व है न ही वे किसी निश्चित स्थिति के परिचायक हैं। तो भी रंगों को भाषिक अर्थ देने वाले विद्धत जनों ने उनको कुछ निश्चित अर्थ दिये हैं। कलाकार उनकी उपस्थिति से ही चित्रों की अमूर्तता तक को वाणी देते हैं। मनोगत कारणों के प्रभाव में रंगों की भिन्‍न भिन्‍न व्‍याख्‍याओं ने भी कलाकारों को विशिष्‍टता प्रदान की है। जरूरी नहीं कि अपने चिरपरिचति अर्थों में जाने जाने वाले विरोध के रंग को ही कोई कलाकार अपने चित्र में विरोध के अर्थ में डाले। वह उसका अर्थ विस्‍तार उदासी में या मृत्‍यू तक भी कर देता है और कई बार तो मनोगत आग्रहों से जन्‍म लेती आलोचना भी उसे ही जिन्‍दगी की अकुलाहट को संजोये गर्भ का गहन अंधेरा कह सकती है।

यानि रंगों के आधार पर एक निश्चित अर्थ भरे निर्णय तक पहुंचना हमेशा मुश्किल ही है। वे समय काल और परिस्थितियों के आधार पर अपने मानक गढ़ते हैं। किसी विशेष रंग की ओढ़नी को ओढ़कर प्रतिकात्‍मक रूप में खुद का प्रकटीकरण, राजनैतिक मुहावरा तो हो सकता है लेकिन राजनीति का स्‍पष्‍ट रूप तो संचालित होती गतिविधियों और उनके परिणामों से ही तय किया जा सकता है।        
भिन्‍न भिन्‍न रंगों के प्रकाश के संयोजनों से पूजा पण्‍डालों की भव्‍यता, कोलकाता के पूजा महोत्‍सव को जश्‍न में बदल देती है। रंगो के संयोगों की व्‍युत्‍पत्ति का जश्‍न पूरे कोलकाता को तीन.चार रातों तक दोपहर की सी भीड़ में बदलत देता है और मध्‍यरात्रि में भी लग जाने वाले ट्रैफिक जाम को कन्‍ट्रोल करते जवानों की सीटियां, ढोल और ताशे की आवाज के विरूद्ध व्‍यवस्‍था को कायम रखने के लिए लगातार गूंज रही होती है। भीड़ की भीड़ सड़क के इस पार के पण्‍डाल से निकलकर सड़क के उस पार के पण्‍डाल में घुस जाना चाहती है। ठाकुर प्रतिमाओं के दर्शन के लिए। प्रकाश के संयोजन से दमकती प्रतिमाओं की आभाऐं ही भक्ति का सार्वजनीन रूप  बिखेरती है। जमींदारों के द्वारा सत्रहवीं सदी के आस पास शुरू की गयी पूजा पण्‍डालों की ठेठ अनुष्‍ठानिक पूजाओं के रूप को ही बीसवीं सदी ने सार्वजनीन  रूप दिया है।
यह मायके आयी बेटी के स्‍वागत का उत्‍सव है। उत्‍तराखण्‍ड के पहाड़ों में आयोजित ऐसे पर्व का नाम ही नन्‍दाजात है, जो विदाई का पर्व है। एक ऐसा धार्मिक पर्व, आस्‍थाओं का सिंदूर और पूजा प्रार्थनाओं के नियमबद्ध चरण, जिसको पारम्‍परिक वैधानिकता प्रदान करते हैं। उत्‍तराखण्‍ड में चौसिंगा खाडू (चारसिंग वाला बकरा) और बंगाल में कारीगरों द्वारा निर्मित दुर्गा, सरस्‍वती, लक्ष्‍मी, गणेश और कार्तिक इसके पारम्‍परिक प्रतिक हैं। बंगाली भद्रलोक की मानसिकता में यह सांस्‍कृतिक विशिष्‍टता का सालाना आयोजन है, जिसे दुर्गा पूजा के नाम से जाना जाता है। लक्‍खी पूजा (लक्ष्‍मी पूजा), काली पूजा और सरस्‍वती पूजा इसके अन्‍य पड़ाव है।


बुद्धि और विवेक के लिए जाने जाने वाले कोलकाता में पूजा पण्‍डालों की इस ठेठ धार्मिक गतिविधि को ही सांस्‍कृतिक विरासत की तार्किकता से व्‍याख्‍यायित किया जाता है। तब से ही जब सारा बंगाल बदलाव के प्रतिकात्‍मक अर्थों से भरे लाल रंग से दमकता हुआ था। बल्कि उस दौर ने ही ''तर्क'' की जिद्दीधुन में ऐसे आयोजनों को विशिष्‍ट कलात्‍मक प्रयोगों का दर्जा माना। पूजा कमेटियों के स्‍वतंत्र गठन के बावजूद विशिष्‍ट अंदाज में नियंत्रण बनाये रखा। पूजा पण्‍डालों में इंक्‍लाबी किताबों के स्‍टाल उनकी प्रत्‍यक्ष उपस्‍थतियों के साक्ष्‍य होते रहे। आज बहुरंगी होते जा रहे बंगाल में बचे हुए लाल रंगों के अवशेषों वाले इलाके के बीच उनकी ऐसी ही उपस्थिति को नेताजी नगर के उस पूजा पण्‍डाल में साक्षात देखा जा सकता है जहां एक विशेष पूजा पण्‍डाल के ही सामने बहुरंगी राजनीति के समर्थन से पोषित पूजा पण्‍डाल भी होड़ करता हुआ है। यह अंदाजा लगाना मुश्‍किल नहीं कि दो भिन्‍न राजनैतिक समर्थकों की पूजा कमेटी इन पूजा पण्‍डालों का जिम्‍मा निभाये होगी। भीतरी बुनावट में त्रिशूल भाले और फर्शे लहराते दोनों पण्‍डाल समान है और बाहरी रूप का फर्क सिर्फ इतना ही है कि एक बुद्ध की आकृति में सजी भव्‍यता के रूप में है तो दूसरा बिल्‍डर, प्रोमटरों की मानसिकता में ठेठ सधी हुई आक़ति वाली छवी बिखेरता हुआ, अपनी.अपनी 'थीम' के साथ दोनों ही। बुद्ध की आकृति में ढले पण्‍डाल की खूबी है कि सांस्‍कृतिक दिखने की अतिश्‍य कोशिश में वहां जगह जगह इस्‍तेमाल किये त्रिशूलों को लाल रंग की चुनरियों से बंधा कर उस विशिष्‍ट राजनैतिक विचार के साथ जोड़ने की कोशिश हुई है जो अपनी साक्षात उपस्थिति में पण्‍डाल के बाहर इंक्‍लाबी कितबों की दुकान सजाये शालीन बुजर्गो की उपस्थिती वाली है। साम्‍प्रदायिकता के मायने तय करती हमारी प्रगतिशीलता भी ऐसे ही तर्कों के आधार पर गढ़ी गयी, जिसने धर्म को निशाने में रखने की जरूरत महसूस नहीं की। बेशक, ऐसे मानदण्‍डों को आधार मानकर रचा गया साम्‍प्रदायिकता विरोध का साहित्‍य बदली हुई परिस्थितियों में साम्‍प्रदायिक लोगों का हथियार होता रहा। 
कलावादी नजरिये से बात की जाये तो दोनों ही पण्‍डालों में कारीगरों की कोशिश अप्रतिम है।
यूं कलावादी नजरिये को थोड़ा झटका देते हुए पण्‍डालों का जिक्र करना भी ज्‍यादा समीचीन होगा. एक उदयन मण्‍डल, नाकतल्‍ला का पूजा पण्‍डाल और दूसरा नेताजी जातीय सेवादल, टालीगंज का पण्‍डाल। पहले में जहां समुद्री लहरों पर हिचकोले खाती दुनियावी नाव की यात्रा की जा सकती है तो दूसरे में सूती धागों की बुनावट के जरिये हस्‍तशिल्‍प की कारीगरी को स्‍थापित करने की कोशिश को देखा जा सकता है। धार्मिक कर्मकाण्‍ड से एक हद तक किनारा करते से लगते ये थीम आधारित पण्‍डाल भी पूरी तरह कर्मकाण्‍ड मुक्‍त नहीं। यहां तक कि कुमारटूली का पण्‍डाल जो शिल्‍प वैशिष्‍टय में जीवन के उदय का चित्रित करता हो और चाहे मुहममद अली पार्क का शिवालय थीम। तेज अंधड़ भरी समुद्र की लहरों से उम्‍मीदों की आशा जगाती दैवी की प्रतिमा को देखकर ''आह'' और ''वाह'' के अलावा कोई दूसरा शब्‍द नहीं हो सकता। बेशक मंत्रोचार की प्रक्रिया में छूटे उच्‍छवास में इन शब्‍दों की उपस्थिति नहीं और कला के अप्रतिम सौन्‍दर्य का जादू बिखेरता कौशल है पर धार्मिक अनुष्‍ठानिक प्रक्रियाओं की संगत में जुड़े हुए हाथों की उपस्थिति से इंकार तो नहीं किया जा सकता न !

सांस्‍कृतिक विरासत के संरक्षण के नाम पर सुबह और शाम की संधि पूजाओं वाले अनुष्‍ठानिक कर्मकाण्‍ड ने पूरे कोलकाता में छोटे छोटे इतने सारे मंदिरों का निर्माण किया है कि हरिद्वार जैसी ठेठ धार्मिक स्‍थली में भी उनकी आनुपतिक संख्‍या पिछड़ जाये। बाजूओं में मंत्राये धागे और नग्‍न जडि़त अंगूठियों से भरी उंगलियों वाले बंगाली जनमानस को देखकर भ्रम होता है कि किसी वैज्ञानिक चेतना से भरे राजनैतिक विचार की वह कभी हिमायती रही है। पुलिसिया व्‍यवस्‍था के साथ जारी बली प्रथाओं वाला कोलकाता तो आश्‍चर्य में डालता है।
उपरोक्‍त पर बिना कोई अन्‍य टिप्‍पणी किये, यह कहना ज्‍यादा उचित है कि मनोगत आग्रहों से रंगों की व्‍याख्‍या करना ही कलावाद है। उत्सव का रंग उत्सव के मूल उद्देश्य से तय होता है.

Sunday, September 28, 2014

नन्दा राजजात के फलितार्थ

(हाल ही में संपन्न हुई नन्दा राजजात यात्रा को लेकर मीडिया में खूब चर्चा रही .दिनेश चन्द्र जोशी ने इस आलेख में राजजात यात्रा के आयोजन को लेकर कुछ जरूरी सवाल उठाये हैं जो एक लोकधर्मी सांस्कृतिक यात्रा को आडंबरपूर्ण उत्सवी माहोल में बदलने से उत्पन्न संकटों की ओर संकेत करते हैं)

दिनेश चंद्र जोशी


उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में चल रही नन्दा राजजात यात्रा अब लगभग सकुशल सम्पन्न हो चुकी है। लगभग, इसलिये कहना पड़ रहा है कि मौसम की मार व अति दुर्गम मार्ग के कारण समय समय पर अनिष्ट की आशंका बनी रही,ऊपर से अनियंत्रित भीड़ का जमावड़ा पुलिस प्रशासन के लिये चिन्ता का कारण बना। कुछ लोगों के वापिस घर न पहुचने व लापता हो जाने की खबरें भी आ रही हैं।
बहरहाल अपनी हर साल की बाढ़, भूस्खलन, आपदा जैसी स्यापा प्रधान खबर से हट कर इस वर्ष की यह उत्सवधर्मी घटना कही जा सकती है। नन्दा राजजात की अर्थवत्त्ता से प्रदेश के बाहर वाले क्या, यहीं के बहुसंख्य जन अनभिज्ञ थे। इसका कारण एक तो बारह वर्ष पश्चात इसका दुबारा आयोजन होना तथा एक सीमित भूगोल के वासियों द्वारा इसमें शिरकत करना माना जा सकता है।
एतिहासिक रुप से यह यात्रा सातवी शताब्दी पूर्व के पाल राजवंशी राजा शालिपाल के समय से प्रचलित है। कन्नौज के राजा जसधवल का लावलश्कर के साथ इस यात्रा में शामिल होने, पातर (नर्तकियों) नचाने तथा मौसम की मार के कारण सैकड़ों लोगों के काल कवलित होने के संदर्भ इतिहास में मिलते हैं।रुपकुंड में पाये जाने वाले नर कंकालों को भी उस घटना से जोड़ा जाता है। बीच बीच में कुछ समय के लिये बाधित होकर ब्रिटिश काल में भी एशिया  महाद्वीप की यह सबसे दुर्गम ऊचाई वाले पथ की 280 कीलोमीटर लम्बी सांस्कृतिक धार्मिक यात्रा अनवरत चल रही है।
इधर राज्य निर्माण के पश्चात पिछले वर्ष 2013 की यात्रा को आपदा के कारण स्थगित करके इस वर्ष 2014 में सम्पन्न किया गया। नये राज्य के नव उत्साह व मीडिया की सक्रियता के कारण यह यात्रा बेहद ग्लैमरस नजर आई। पिछले दो तीन वर्षों से राजजात आयोजन समिति के गठन, पुनर्गठन तैयारियों व आर्थिक, प्रशासनिक प्रबन्धन की खबरें समय-समय पर आती रही। इन्ही तैयारियों के फलस्वरूप इस वर्ष की यात्रा के शुभारम्भ पर चढ़ावा व श्रीफल राष्ट्रपति महोदय के कर कमलों से प्रदान करवा कर समिति ने यात्रा को राष्ट्रीय पहचान दिलाने का प्रयास किया।
राजजात समिति में वर्चस्व किन विचारधाराओं का रहा , यह तो नहीं कहा जा सकता पर, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को खास तवज्जो नहीं मिली, ऐसा सुनने में आया। राज्यसभा सांसद तरूण विजय का नाम बार बार आता रहा, अलबत्ता राष्ट्रपति महोदय द्वारा श्रीफल प्रदान करवा कर इसे गैर राजनैतिक रंग देने की नीति संतुलित कही जा सकती है,वरना कहीं मोदी जी के हाथों यह काम करवा दिया जाता तो बात बिगड़ सकती थी।
        बहरहाल राजनैतिक मंतव्य चाहे जो रहे हों, अब यात्रा सकुशल संपन्न हो चुकी है, यह राहत की बात है। गोया बेदनी बुग्याल जैसी 15000 फिट की दुर्गम ऊंचाई में 50,000 यात्रियों के जमावड़ा लगने के बावजूद आंधी, तूफान,वर्षा व हिमपात के कोप का प्रचन्ड रूप न लेने की सुखदायी धटना सांसतभरी है।
पर, क्या इतनी ऊंची दुर्गम लोक यात्रा में इतनी अधिक भीड़ जुटनी या जुटाई जानी चाहिये? जबकि  एक महाविनाश की त्रासदी अभी स्मृतियों में बिल्कुल ताजा है। उस त्रासदी से सबक लेने के बजाय इस भीड़ आकर्षण को क्यों बढ़ावा दिया जा रहा है ,यह बात समझ से परे है। इसके पीछे फेसबुकवादी व्यक्तिगत मीडिया से लेकर स्थानीय, राष्ट्रीय यहां तक कि विदेशी मीडिया भी सक्रिय हो गया था। लिहाजा एक निहायत शान्त, शालीन,एकाकी व भव्यताविरोधी आस्था पर्व को रैलीनुमा  भीड़ में तब्दील कर दिया गया। ऐसी खबरें भी आ रहीं हैं कि कुछ लोग घर नहीं लौटे, लापता हो गये हैं। लोकपर्व के बाजारीकरण  की ऐसी पराकाष्ठा आखिर हमें कहां ले जायेग! इस प्रचारवादी नीति से न तो उत्सवों की मौलिकता बचेगी और न ही पावनता, शुचिता। उत्साहीजन कहेंगें कि क्या बिगड़ गया, पहाड़ों के उजड़े गांवों के लोग अपने घर लौटे, दिल्ली,मुम्बई व विदेशों से भी प्रवासीजन तथा पर्यटक इस यात्रा में शामिल होने पंहुचे,पहली बार। यह खाये पीये, अघाये प्रवासियों का नोस्टलजिया बहुत भावुकतापूर्ण होता है, वे आते हैं तो अपनी कुल देवी या देवता को पूजने,ताकि अनिष्ट से बचें रहें; गांवों की दुर्दशा को सुधारने या वहां बसने-बसाने की उनकी कोई मंशा नहीं होती ।उल्टा वे पहाड़ों के धूसर उजड़े गांवों व सुरम्य प्रकृति पर फिल्म,वीडियो आदि बना कर अपना निजी स्वार्थ साधते हैं।        
           यह सच है कि नन्दा मघ्य हिमालय के सीमान्त जिलों व उससे सटे जनपदों के जनमानस की जातीय चेतना में सदियों से रची बसी एक बेहद अलौकिक आस्था की प्रतीक है। पर्वतीय अंचलों के बच्चे होश संभालते ही नंदा देवी, नंदाष्टमी,नैनादेवी नाम के मन्दिरों व मेलों से परिचित होते हैं। भूगोल की जानकारी होने पर उनका त्रिशूल,पंचचूली के साथ नन्दादेवी नाम की उच्च हिमालयी चोटी से भी परिचय होता है। इस दृष्टि से नन्दा राजजात के प्रति जन मन में औत्सुक्य व उत्साह का संचार होना लाजमी है।
        नई पीढ़ी का वास्तव में इस शब्द ने इस बार पहली बार ध्यान खींचा है, इसे मीडिया का प्रभाव मान सकते हैं।राजजात के अर्थानुसार तो यह राजजात्रा अथवा राजाओं की यात्रा ही थी। इसमें कुंवर ,कत्यूरी, पंवार, चन्द वंशीय राजाओं के वंशजों,  क्षत्रियों व ब्राहमण कुलपुरोहितों की भागीदारी होती है, निम्न जातियों व ,दलितों की भूमिका का कोई जिक्र नहीं होता। होता भी होगा तो वह ढोल दमुआ,,रणसिंघा बजाने वाले बाजियो के रूप में या दोली ढोने वाले कहारों के रूप में, संभवतः डोली भी उनको स्पर्श नहीं करने दी जाती है। इस लिहाज से यह राजकुलीन भद्र सामन्ती यात्रा है। समय के अनुसार इसमें कितना बदलाव आया; आया या नहीं, यह भी विचारणीय प्रश्न है।
नन्दा की डोलियों, छतोलियों के अनेक समूहों के सम्मिलन स्थलों ,गांवों में उनके पहुंचने पर पसुवा, जागर,अवतार देवी देवता अवतरण जैसी आदिवासी अवैज्ञानिक अन्धविश्वासी रीतियो, पद्धति्यों का इस यात्रा में जम कर संवर्घन संरक्षण हुआ जो किसी मायने में लोक हितकारी नहीं है। ऐसी प्रथाओं से नई पीढ़ी का जितना कम परिचय हो उतना अच्छा है।
        नन्दा को मायके भेजने के भावुकतापूर्ण लोकगीत व महि्माओं के सामुहिक रुदन के दृश्य एक और जहां पहाड़ की परिश्रमी नारी के स्नेहसूत्र व भावविह्वलता को दर्शाते हैं वहीं यह प्रश्न भी छोड़ जाते हैं कि सीमान्त पर्वतीय नारी आखिर कब तक इतनी भावुकता ढोती रहेगी।
यद्यपि इन्हीं नारियों के बीच से बछेन्द्री पाल व चन्द्रप्रभा ऐतवाल जैसी साहसी पर्वतारोही महिलायें भी उभर कर आई हैं। अब वक्त आ गया है, बहुत प्राचीन भावुकतापूर्ण मिथकीय प्रतीकों के बजाय ठोस आधुनिक प्रगतिशील नन्दाओं  के प्रतीकों का प्रचार प्रसार किया जाय और परम्परागत राजजात को अल्प तामझाम व एकान्तप्रियता के साथ ही सम्पन्न किया जाय।
ताजा खबरें आई हैं कि इस यात्रा की भीड़ में यारसागम्बू जड़ी(कीड़ा जड़ी) के दोहन करने वाले माफिया भी शरीक हो गये थे जो बेदनी बुग्याल के आसपास अपने अभियान में लिप्त पाये गये। भीड़ , प्रचार व बाजारवादी यात्रा में ऐसा होना तय है, चाहे वह बद्री केदार की धार्मिक यात्रा हो अथवा नन्दा राजजात की लोकधर्मी संस्कृतिक यात्रा।
पारिस्थिकी व पर्यावरण पर इस भीड़ का कितना दुष्प्रभाव पड़ा यह तो बेदनी बुगयाल के रौंदे गये चरागाह बयान करेंगें।
एकमात्र मूक प्राणी , चारसिंघा खाड़ू (चार सींग वाला बकरा) जोकि यात्रा की अगुवाई करता है तथा अन्त में निर्जन हिमघाटी में अकेला छोड़ दिया जाता है, पर क्या बीतती होगी । लगता है मेनका गांधी के पी. एफ. ए. को इस निरीह प्राणी के साथ हुए अन्याय की खबर नहीं हैं।
भीड़ व बाजार के केन्द्र पहले चौरस घाटियों ,मैदानों के समतल हाट मेले हूआ करते थे। अब राज्य निर्माण के
पश्चात एक और विकृति आ गई है कि शान्त उच्च हिमालयी स्थलों, बुग्यालों, चोटियों में भी हो हल्ला हुड़दंग से भरपूर धार्मिक सांस्कृतिक राजनैतिक आयोजन सम्पन्न किये जाने लगे हैं, जिससे पहाड़ के पर्यावरण के साथ साथ सामाजिक ताने बाने को भी क्षति पहुंच रही है।
पहाड़ अपने स्वाभाविक रूप में अतिविकसित होने व अति जनभार को वहन करने के काबिल नहीं हैं, उनके विकास का माडल संतुलित,शान्त, एकाकी, पुरानी ग्राम बसाहटों के स्वरुप के अनुकूल होना चाहिये। राजधानी, केबिनेट मीटिंग और सरकार की रैलि्यों से पहाड़ की शान्ति व  एकान्तप्रियता भंग हो यह कौन न चाहेगा ?

Sunday, August 24, 2014

उन्होंने साहित्य में आधुनिक भारतीय चेतना को स्थापित किया






यू आर अनंतमूर्ति का आकस्मिक निधन भारतीय साहित्य जगत के लिये एक स्तब्धकारी सूचना है.वे सही अर्थों में आधुनिक भारतीय चेतना के प्रतिनिधि  लेखक हैं. भाषा की सरहदों को लाँघने वाले अनंतमूर्ति न सिर्फ़ लेखन में रूढ़ियों से संघर्ष करते रहे बल्कि जीवन में भी जोखिम उठाकर अपनी  बात कहने का साहस दिखाते रहे. वे साहित्य और रजनीति के बीच की दूरी को पाटने वाले सक्रिय योद्धा के रूप में भी याद किये जायेंगे.

     अनन्तमूर्ति का उपन्यास ‘संस्कार’ हिन्दु ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खोखलेपन पर करारी चोट करते हुए प्रतिरोध का नया व्याकरण लिखता है.धर्म-विरुद्ध आचरण करने वाले ब्राह्मण की मृत्यु पर अन्तिम संस्कार  की पेचीदगियों से शुरू होता हुआ यह उपन्यास रूढ़ियों की जकड़न में फंसे ब्राह्मणों के अन्तर्विरोधों के साथ जातिवादी व्यवस्था के खोखलेपन को  उजागर करता है. अनूठे शिल्प-विन्यास और प्रतीकात्मकता के लिये विख्यात ‘संस्कार’ आधुनिक भारतीय साहित्य का अप्रतिम गौरव-ग्रन्थ है.

       उनका दूसरा उपन्यास ‘भारतीपुर’ अधुनिकता और परम्परा के शाश्वत द्वन्द्व की कथा है.कथा नायक इंग्लैण्ड में शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात अपने गाँव भारतीपुर लौटता है और गाँव के हरिजनों की जीवन-स्थिति उसे बेचैन करती है.इस उपन्यास में बहुत कुछ बाहर के साथ भीतर भी घटित होता है. सदियों की जकड़न से छूटने की बेचैनी और छटपटाहट का  सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक स्तर चित्रण किया गया है. एक प्रसंग में कथा नायक सैकड़ों वर्षों से घर के पूजा घर में रखे शालिग्राम को दलित के स्पर्श कराने के प्रयोजन से बाहर निकालकर लाता है .यह पूरा प्रसंग जिस सघनता के साथ उपन्यास में आया है वह अनुवाद में भी पाठक को विचलित करके रख देता है.

        साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष के रूप में उनके कार्य-काल को बहुत सम्मान के साथ याद किया जाता है.

       लोकतान्त्रिक मूल्यों के लिये प्रतिबद्ध आधुनिक चेतना के अद्भुत शब्द-शिल्पी अनंतमूर्ति को  ‘लिखो यहाँ वहाँ ’की विनम्र शृद्धांजलि!

Friday, August 22, 2014

प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान २०१४

वर्ष २०१४ का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान कथाकार अल्पना मिश्र को उनके उपन्यास 'अन्हियारे तलछट में चमका' के लिए दिए जाने की घोषणा की गयी है.२००६ से प्रतिवर्ष दिए जा रहे इस सम्मान का यह ७ वां संस्करण है जिसके निर्णायक मंडल में वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी, कथाकार शिवमूर्ति और डॉ चन्द्रकला त्रिपाठी रहीं.
निर्णायकों के अनुसार यह उपन्यास निम्नमध्यवर्गीय जीवन का महाख्यान है जो स्त्री-लेखन को एक बड़ा विस्तार देता है और स्त्री-संसार की एकायामिता को तोड़ता है.कहन के अनूठे अंदाज़ और भाषा-विकल्पन के गहरे नए रूपों से संमृद्ध यह  हिंदी उपन्यास क्षेत्र में अब तक के प्रचलित  सभी खांचों को तोड़ कर सृजनात्मकता के नए शिखर निर्मित करता है.

Monday, August 18, 2014

मुश्किल रास्ता

प्रथम युगवाणी पुरस्कार से सम्मानीत कथाकार गुरूदीप खुराना का का उपन्यास ''रोशनी में छिपे अंधेरे" 1960 के आसापास के गुजरात की कथा को हमारे सामने रख्ता है। स्पष्ट है कि 1960 के आसपास जो स्थितियां थी उनसे नृशंसता के प्रतीक 2002 के गुजरात की कल्पना नहीं की जा सकती थी लेकिन 2002 का गुजरात भी आज इतिहास की एक हकीकत होकर सामने आया है। देख सकते हैं धर्म की आड़ लेकर लगातार तकात बटोरते गये दया भाईयों को सामाजिक रूप से विलग न कर देने के परिणाम कहां तक पहुंचे हैं। बेशक, कथाकार के निशाने में 2002 का गुजरात नहीं है लेकिन उपन्यास की कथा तो पाठक को खुद ब खुद वहां तक ले जा रही है। प्रस्तुत है इसी उपन्यास से एक अंश।
वि. गौ.

चांद खेड़ा की सरकारी कालोनी में एक मिस्टर चौधरी रहते थे। वो थे तो इन्जीनियर, पर विशेष अनुरोध पर उन्होंने स्टाफ के क्वार्टरों में एक एलॉट कराया हुआ था। थे तो हैदराबाद के रहने वाले, पर यह कोई नहीं जानता था कि वो मुस्लिम है। नाम के।बी। चौधरी से यह अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि कुंज बिहारी है या करीम बक्श या जो भी रहा हो। उनकी पत्नी बाकी औरतों की ही तरह बिन्दी वगैरा लगाती थी। बड़े ही शांत स्वभाव के व्यक्ति थे। 

दंगों के दौरान पता नहीं दंगईयों को कैसे उनके मुस्लिम होने की भनक लग गई और बड़ी संख्या में आकर उन्होंने उनके क्वार्टर पर धावा बोल दिया। 

जिस बेरहमी से उन्होंने पूरे परिवारजनों को मारा और जिस तरह बेइज़्जत करके मारा, उसे सुनकर कानों पर विश्वास नहीं होता था। मिस्टर चौधरी के गुप्तांग को काटकर उसके मुंह में डालना और फिर ज़िन्दा जलाना और इससे मिलता जुलता ही सलूक बाकी परिवार जनों के साथ करना। यह ऐसी वारदात थी कि सुनकर अमन को आंखों के आगे अंधेरा सा छा गया। यह हो क्या रहा है? वह हैरान था। 

ऐसा ही भयंकर प्रहार हिन्दुओं को भी सहने पड़े, उन इलाकों में जहां मुस्लिम समुदाय का बोलबाला था। इसी कारण शायद ये लोग मौका देखकर बदला लेने आये थे। लेकिन यह कैसा बदला। दंगई भी अपने घ्ारों में सुरक्षित थे और बदला लेने वाले भी। पिस रहे थे बेचारे बेकसूर, दोनों तरफ़। 

ऐसी घटनाएं चाहे इक्का दुक्का ही हो रही थी, पर उनसे वातावरण में भयंकर दहशत भर गई थी। हिन्दु मुस्लिम इलाकों में जाने से डरते थे और मुस्लिम हिन्दु इलाकों में आने से। मुस्लिम इलाकों में रहने वाले हिन्दुओं की और हिन्दु इलाकों में रहने वाले मुसलमानों की जान सूखी रहती थी कि पता नहीं कब क्या हो जाए। 

एक शाम अमन को दया भाई टकरा गए, 'कैसे हो चौधरी साहब?" एक कुटिलता भरी टेढ़ी सी मुस्कुराहट थी उनके चेहरे पर। 

’मैं ठीक हूं, आप सुनाएं’ उसने बड़े शांत स्वर में पूछा, 'क्या खबर है?’ 

'खबर तो अच्छी है चौधरी साहेब। अब तो उनके दांत खट्टे कर दिए। उन्हें उनकी औकात समझा दी। चुन चुन कर सफ़ाया कर दिया सबका।। अब भी कुछ हैं जो छिपे बैठे हैं।। वो भी बच के किधर जायेंगे?’ 

अमन का मन खट्टा हो गया। हमेशा दया भाई से मिलकर यही होता था। 'चलता हूं।’ उसने आज्ञा मांगी। 

'आपको हमारी बात अच्छी नहीं लगी?’ 

'इसमें अच्छी लगने जैसी क्या बात थी?’ 

'एक बात बोलूं चौधरी साहेब?,

'जी कहिए?, 

'सुना है आपके ऑफ़िस की कालोनी में एक आप जैसे चौधरी साहब रहते थे, उनकी भी छुट्टी हो गई।’

'हूं। बहुत बुरा हुआ।’ 

'आपको दु:ख हुआ?’ 

'नेचुरली।’ 

'आपका भाईबंध था।’

'नहीं, मैं तो कभी उससे मिला भी नहीं।’

'ऐसा? पर था तो आपकी ही बिरादरी का।’ 

'मेरी बिरादरी का? क्या बात करते हैं, वो तो मुस्लिम था।’

 'पर वो भी ऐसा बताता तो नहीं था। उसकी भी वाईफ़ शुभ्रा बेन की तरह बिन्दी-विंदी लगाती थी।" 

'आप क्या कहना चाहते हैं?" 

 'यही कि--- प्रमाण तो आपके पास भी हिन्दु होने का कुछ नहीं। आपके घर में तो आपने कोई पूजा वूजा का कोना भी नहीं रखा। कोई देवी-देवता की तस्वीर भी नहीं। कोई गीता-रामायण भी नहीं।" 

'ये सब आपको कैसे पता?" 

'पता तो रखना पड़ता है न साहिब। हर घर की पूरी खबर रखनी पड़ती है। हमें यह भी पता है कि आपके ज्यादातर दोस्त मियां लोग हैं और यह भी कि अमन मुस्लिम लोग का नाम होता है।" 

'मेरा पूरा नाम अमनदीप है। दीप मुस्लिम लोगों के नाम में नहीं होता।" 

अगर हिन्दु के नाम में अमन हो सकता है तो मुस्लिम के नाम में दीप होने में क्या है---ऐसे भी कोई अपना नाम दिलीप कुमार रखने से हिन्दु नहीं हो जाता। 

'कैसी बातें कर रहे हैं दया भाई, इतनी छोटी बातें करना आपको शोभा नहीं देता।" 

'देखो अमन भाई, टालने से नहीं चलेगा। हमें प्रमाण चाहिए आपके हिन्दु होने का।" 

'मैं इसकी कोई जरूरत नहीं समझता, न मैं अपने आप को किसी धर्म के साथ जोड़ता हूं। हम केवल मानवता में विश्वास रखते हैं और वह ही हमारा धर्म है। आपको प्रमाण देने की मैं कोई जरूरत नहीं समझता।" 

'बहुत अकड़ नहीं दिखाने का अमन भाई। हमारे हिन्दु समाज में हिन्दु ही रह सकते हैं। इसलिए यह प्रमाण भी आपको देना होगा। नमस्कार।" 

अमन घर पहुंचा तो शुभ्रा ने उसका लटका चेहरा देखकर पूछा, 'खैरियत तो है?" 

'पता नहीं।" 

'पता नहीं? क्या मतलब?" 

'यहां एक शख्स रहता है जो मेरे खून का प्यासा है।" 

 'कौन?" 

'वही दया भाई, और कौन?" 

'अरे छोड़ो, उसकी बातों पर ध्यान न दिया करो। उसे मुंह ही मत लगाया करो।" 

'जानती हो आज क्या कह रहा था?" 'क्या?" 

'कि तुम मुस्लिम नहीं, इसका क्या प्रमाण है?" 

'ऐसा क्यों पूछ रहा था?" 

अमन ने पूरी बात सुनाई तो वह बोली, 'तुम उस नीच की बात की परवाह करना बन्द कर दो। क्या बिगाड़ लेगा वो तुम्हारा?" 

'तुला तो हुआ है वो मेरा कुछ न कुछ बिगाड़ने को। देखो!" 

'भूल जाओ उसे। आज देखो चाय के साथ क्या है!" 

'ओह! बटाका पोंहा।" 

अमन ने मुस्कराने की कोशिश की। 

'पापा, यह बटाका पोंहा होता है कि बटाटा पोंहा?" गुड़िया ने पूछ लिया। 

'तुम्हारे ख्य़ाल से क्या होना चाहिए?" उसने पूछा। 

'पता नहीं।" गुड़िया सोच में पड़ गयी। बोली, 'मुझे बटाटा कहने में ज्यादा अच्छा लगता है।" 

'तो बस फिर, आज से इसका नाम बटाटा पोंहा ही होगा।" 

गुड़िया को लगा, पापा इस समय उदार हो रहे हैं तो मौके का फ़ायदा उठाना चाहिए। बोली, 'पापा चाय पीकर मेरे साथ सांप-सीढ़ी खेलोगे?" 

वह टालते हुए बोला, 'यार सांप तो आज बहुत हो गया, आज रहने दो।" 

'कोई बात नहीं, आप भी सीढ़ी सीढ़ी खेल लेना।" 

चार साल की गुड़िया, जब भी पापा के साथ बैठकर सांप-सीढ़ी खेलती, तो सांप के मुंह में गोटी आ जाने पर रोने लगती। पापा ने इस कारण उसे छूट दे रखी थी कि वह केवल सीढ़ी-सीढ़ी का लाभ उठाए, सांप छोड़ दे। परिणाम स्वरूप वह हमेशा बाजी जीत जाती। अब उसका मनोबल इतना बढ़ गया कि वह पापा से कह रही है कि वह भी सीढ़ी-सीढ़ी खेलें, सांप छोड़ दें। 

अमन ने गुड़िया को अभी दो-तीन बाजी जिताईं थीं कि विश्वनाथ जी आ पहुंचे। अमन को जैसे उन्हीं के साथ की जरूरत थी। दया भाई की बातों से जो मन कलुषित हुआ था वह विश्वनाथ जी से बात करके काफ़ी कुछ शांत हो गया। 

अगली शाम जब वह ऑफ़िस से लौटा, तो भाग्य से दया भाई सामने नहीं पड़े। वह घर पहुंचा तो पीछे पीछे अनवर साहब भी आ पहुंचे। अमन उन्हें शाम के समय देख कर चौंका, 'अरे कमाल कर दिया, जनाब ,आपने तो। आजकल तो आसपास वालों की भी शाम को आने की हिम्मत नहीं पड़ती, कर्फ्यू के डर से।" 

'भई क्या बताएं। शुभ्रा जी के हाथ के पकौड़ों की याद आई तो रुका नहीं गया।" 

'क्या बात है! आपने तबियत खुश कर दी, अनवर साहब।" 

'एक बात कहूं?" अनवर साहब कहने लगे, 'आजकल मुझे अनवर न बुलाया करें, बस जॉन ही बुलाए। समझ रहे हैं न आप।" 

'खूब समझ रहा हूं। मैं तो खुद नाम में अमन होने से ही मुश्किल में हूं।" 

'अरे क्या बताएं आपको, मुझे तो इस अनवर नाम ने बहुत परेशान किया। जो भी खत आते है उन पर जे।अनवर ही लिखा रहता है। इसलिए शक के घेरे में लगातार बना रहता हूं। जा जा कर सबको बताना पड़ता है कि अनवर मेरा नाम नहीं तखल्लुस है, पर बहुत मुश्किल है सबको समझाना।" 

'और, आपके शायर दोस्तों की कोई खबर?" 

'कुछ नहीं। हां रहमत भाई एक बार जरूर मिले थे। अपनी पूरी फ़ैमिली के साथ। साबरमती स्टेशन पर फंसे हुए थे। कहीं बाहर से आ रहे थे। दंगों का सुनकर साबरमती में ही उतर गए। आगे अहमदाबाद स्टेशन जाना तो इतना खतरे से भरा नहीं था, लेकिन अहमदाबाद स्टेशन से जमालपुर पहुंचना तो खतरे से खाली नहीं था। कहने लगे-अनवर भाई हमें किसी तरह अपने घर पनाह दे दो। मैं जिन्दगी भर यह अहसान नहीं भूलूंगा। मैं कुछ समझ नहीं सका उनकी कैसे मदद करूं। मैंने अपनी मजबूरी समझाई। बताया कि पहले से ही मैं शक के घ्ोरे में हूं। यह भी बताया कि साबरमती में जहां-जहां पता लग रहा है, चुन-चुन कर मार रहे हैं। क्या बताऊं। मैं इतनी शर्मिंदगी महसूस करता रहा और अब तक कर रहा हूं कि एक रात भी चैन से नहीं सो पाया। मेरे इतने पुराने दोस्त, और मुझ से ऐसा टके सा जवाब मिला उन्हें।" अनवर साहब ने एक ठंडी सांस भरी। 

कुछ इधर उधर की बातें हुई। चाय-पकौड़ों का दौर पूरा हुआ और अनवर साहब ने अपनी घ्ाड़ी की तरफ देखा। सवा-सात। वो उठ खड़े हुए। बोले, 'अब मुझे फौरन निकलना चाहिए। आठ बजे कर्फ्यू से पहले साबरमती पहुंचना है।" 

अमन साथ चल पड़ा वाड्ज बस-अड्डे तक जाने के लिए। 

'नहीं आप तकल्लुफ न करें" अनवर साहब ने रोका, 'वाड्ज तक पैदल आने जाने में आठ से ऊपर का टाईम हो जाएगा।" 'चलिए, जहां साढ़े सात होंगे लौट पड़ूंगा।" 

'ठीक है। ज़रा ध्यान रखना टाईम का।" 

नाराणपुरा से वाड्स जाते हुए रास्ते में बहुत बड़ा मैदान पड़ता था। किसी कारण वहां की जमीन अभी प्लॉटों में नहीं बंटी थी। इस कारण उस सुनसान पड़े खाली भूखण्ड को सब मैदान की संज्ञा देते थे। बरसातों के बाद इस मौसम में, रेत के बीच काफ़ी झाड़-झंखाड़ भी उग आया था। 

अभी वे लोग मैदान पार के मेन रोड पर पहुंचे ही थे कि अनवर साहब ने घ्ाड़ी देखकर अमन से कहा, 'बस अब साढ़े सात हो गए हैं अब आप लौट चलिए। खुदा हाफ़िज।" 

सितम्बर के महीने का अंतिम सप्ताह चल रहा था। अंधेरा कुछ जल्दी ही होने लगा था। उस लम्बे चौड़े मैदान के बीच जो भावी सड़क का शॉर्ट-कट था जिससे कि वह लौट रहा था वहां तब कोई बिजली का खंभा नहीं था। बस अंधेरा ही अंधेरा था। अमन को ऐसा माहौल बहुत पसंद था। उसका मन हो रहा था कि वह कोई गाना गुनगुनाए। 

लेकिन तभी, कोई पांच-छ: परछाईयां एकाएक उसकी तरफ़ लपकी। उसे पता ही नहीं चला कि कैसे किसी ने उसके मुंह पर कपड़ा डाला। मुंह बंद करके, आंखों के आगे भी कपड़ा डाल कर दोनों हाथ पीछे बांध दिए। बात यहीं नहीं रुकी। उसे लगा उसकी पैंट खोली जा रही है। उस ज़माने में पैंट में ज़िप नहीं लगा करती थी। बटन ही होते थे। एक एक करके पैंट के बटन खुले और टार्च की रोशनी चमकी। फिर आवाज़ें सुनाई दी 'ठीक ही लग रहा है", कटवा तो नहीं।" 'बरोबर छे।" 'गलत आदमी को पकड़ने को बोल दिया। जावा दो!" किसी ने कहा और उसके हाथ खोल दिए गए। हुकुम हुआ, 'पीछे मुड़कर नहीं देखना साहब, वर्ना खल्लास।" 

जब तक वह होश संभालता और पैंट बांधता, वे परछाईयां विलुप्त हो चुकी थी। इस पूरे घटना-चक्र में बमुश्किल पांच मिनट लगे होंगे। 

वह तेज़-तेज़ कदमों से घर की तरफ़ जा रहा था, जितना तेज़ चल सकता था, चलकर वह इस अंधेरे इलाके से बाहर पहुंचना चाहता था। दिल की धड़कन बेकाबू हो रही थी। उसका दिमाग कुछ काम नहीं कर रहा था। आखिर ऐसा क्यों हुआ उसके साथ। इतना भयानक! आबरू लुटने जैसा हादसा। 

जरूर यह दया भाई का ही करा धरा है, उसे लगा। वही प्रमाण मांग रहा था। अमन का मन हो रहा था वह सामने पड़ जाए तो उसका मुंह नोच ले। उस दया भाई की गलीच मुस्कुराहट याद आती, तो उसका मुा तन जाता उसके दांत तोड़ने के लिए। इतना गुस्सा उसे कभी नहीं आया था किसी पर। 

आठ बजे से पहले ही वह कॉलोनी तक पहुंच गया। कॉलोनी के लोग हमेशा की तरह घेरा बनाए खड़े थे और दया भाई का व्याख्यान चल रहा था। 

'केम चौधरी साहेब, तबियत तो ठीक है।" दया भाई ने पूछा। 

 'जी।" अमन बिना उस तरफ़ देखे, बिना रुके, अपने घर की तरफ बढ़ गया। 

शुभ्रा ने उसे देखते ही पूछ लिया, 'क्या बात है? सब ठीक तो है?" 

'हूं", उसने टालते हुए कहा, 'एक गिलास पानी दे दो।" 

'ये बाल-वाल क्यों बिखर रहे हैं कहीं गिरे थे क्या? कोई चर-वर तो नहीं आया।" 

'पता नहीं, कुछ ऐसा ही समझ लो।" 

'हो सकता है पकौड़े खाने से पेट में गैस हो गई हो, कोई बात नहीं, लेट जाओ थोड़ी देर।" 

एक तो वह गुड़िया के सामने कुछ बताना नहीं चाहता था, दूसरा इस समय उसका बात करने का मन ही नहीं हो रहा था। वह आंखे बंद करके चुपचाप लेट गया और मन शांत करने के लिए लम्बी-लम्बी सांसे लेने लगा। दिमाग में जैसे एक भूचाल सा आया हुआ था। समुुंदरी भूचाल। पहाड़ सी ऊंची और विकराल लहरें थमने में ही नहीं आ रही थीं। उसे लग रहा था कि कहीं दिमाग की नसें फट ही न जाएं। 

शुभ्रा खाना बनाकर और नन्हीं को सुलाकर उसके पास आ बैठी। उसके माथे पर हाथ फेरा तो चौंकी, 'अरे तुम्हारा तो माथा तप रहा है। तुम्हें बुखार है क्या?" 

'नहीं, बुखार-वुखार कुछ नहीं, सिर्फ माथा गर्म है। ठीक हो जाएगा। तुम पहले हाथ रखती तो अब तक ठीक हो गया होता।" 

'तुम कुछ छिपा रहे हो, दीप। सच सच बताओ, हुआ क्या? चर ही आया था या---?" 

'बाद में बताऊंगा" वह धीमे से बोला, 'गुड़िया के सो जाने के बाद।" 

'ऐसी भी क्या बात!" वह धीमे से फुसफुसाई। 

'है।" अमन ने चेहरे पर मुस्कुराहट लाने की पूरी कोशिश की। 

'सुनो, खाना तैयार है, लगा दूं।" शुभ्रा ने पूछा। 

 'बिल्कुल।" 

रात के खाने के बाद अमन को आदत थी टहलते हुए पान की दुकान तक जाने की। कालोनी के बाहर ही मेन रोड पर थी दुकान। वह एक सादे पान की गिलोरी मुंह में रखता, एक मीठा पान शुभ्रा के लिए बंधवाता, और एक सिगरेट सुलगा कर थोड़ी चहलकदमी करता। ऐसी आदत उन दिनों बड़ी आम हुआ करती थी। तम्बाकू-सिगरेट के नुकसान तब तक उजागर नहीं हुए थे। इन दिनों रात के कर्फ्यू के चलते वह दुकान बन्द रहती थी। कभी उसे याद रहता तो पहले से पान लाकर रख लेता था। लेकिन आज तो प्रश्न ही नहीं उठता था। फिर भी आदतन वह बाहर निकला और कालोनी की गली में ही चहलकदमी करने लगा। दो तीन चर लगाने के बाद वह जैसे ही दया भाई के घर के सामने से निकल रहा था तो भीतर से आवाज़ आई, 'चौधरी साहेब, रुकना एक मिनट।" 

न चाहते हुए भी उसके कदम थम गए। दया भाई प्रकट हुए, तो बोले, 'हमसे नाराज़ हैं कुछ चौधरी साहेब?" 'आप से नाराज़गी दिखाकर हमें जान से हाथ धोना है?" 

'ऐसा क्यों बोलते हो साहेब?" 

'ऐसा ही है दया भाई। आपकी ताकत का हमें परिचय मिल गया है।" 

'कैसी बातें करते हो भाई। मैंने तो आपको यह पूछने को रोका कि शाम आपने हमसे बात नहीं किया, क्या नाराज़गी है।" 

'आपको सब पता है, भाई साहब!" 

'क्या पता है, क्या हुआ? कुछ बोलो न अमन भाई।" 

'आपको मेरे मुस्लिम न होने का प्रमाण चाहिए था, सो आपको मिल गया।" 

'सुनो, अमन भाई, हमारे साथ ऐसा कड़क ज़बान में बात नहीं करने का। क्या?--- हमको कैसे पता होगा आपके साथ क्या हो गया? हम पर किस बात का इल्जाम डाल रहे हो?" 

'सॉरी।" अमन को अपनी आवाज़ के इतना ऊंचा होने पर स्वयं हैरानी हो रही थी। 

'कोई बात नहीं। जाने दो अमन भाई। यह बताओ कि हुआ क्या? क्या तुम्हारा छान-बीन हुआ?" 

'छान-बीन? इसे आप छान-बीन कहते हैं। इस तरह बेइज़्जत करना और वो भी बिना किसी कसूर के? इसलिए कि आपको प्रमाण चाहिए था?" 

'मुझ पर क्यों बरस रहे हो अमन भाई? मैंने प्रमाण का बात जरूर किया, परन्तु इसका मतलब यह तो नहीं कि छान-बीन भी मैंने करवाया। हद करते हो अमन भाई। देखो हमारी बात ज़रा ध्यान से सुन लो।" 

'कहिए।" 

 'देखो, यह जो कुछ भी हुआ छान-बीन वगैरा, इससे आप को जो कष्ट पहुंचा यह तो ठीक नहीं हुआ, परन्तु वैसे एक हिसाब से ठीक हो गया। अब आप पर कोई मियां होने का संदेह नहीं करेगा। क्या? आप नास्तिक हो, कोई बात नहीं, परन्तु मियां नहीं हैं, यह सबके लिए संतोष की बात होगी।" 

'इतनी घ्रणा। पूरी मुस्लिम जात से ऐसी घ्रणा?" 

'ऐसा है अमन भाई, हमारा सोचने का तरीका आपसे फर्क है। हम तो यह मानते है कि यह मियां लोग की कौम, जब तक इधर में बाकी है, हमारे राष्ट्र को खतरा ही खतरा है। मुट्ठी भर लोग अरब से आए थे, आज इधर में दो पाकिस्तान तो बना चुके हैं, अब कश्मीर भी उनके निशाने पर है और जिस रफ्तार से इनकी संख्या बढ़ रही है, वो दिन दूर नहंी जब पूरा भारतवर्ष पाकिस्तान बन जाएगा। जानते हो अमन भाई, एक एक मियां चार चार शादी करता है और दो दर्जन से कम बच्चे नहीं पैदा करता। ऐसे में कितने दिन टिक पायेंगे हम इनके सामने? इसलिए अमन भाई, इनका सफाया जरूरी है। अच्छा है कि आप उनमें से नहीं हो।" 

'कैसी बातें करते हो दया भाई। हमारे तो इतने मुस्लिम दोस्त हैं, न तो किसी की एक से ज्यादा शादी हुई है न ही ज्यादा बच्चे हैं।" 

'अमन भाई, अब क्या बोले? आपको उनकी बात पर ज्यादा विश्वास होता है, हमारी बात गलत लगती है। यही दुर्भाग्यपूर्ण है, अरे अगर आप सच्चे राष्ट्रवादी हैं तो आपको इन लोगों के साथ दोस्ती नहीं पालनी चाहिए। समझ गए न अमन भाई! हम हमेशा आपका भला सोचकर बात करते हैं।" फिर अपनी घड़ी की तरफ देखकर बोले, 'अच्छा अब आप को और नहीं रोकेंगे। शुभ्रा बेन इन्तजार देखती होगी। नमस्ते!" 

भारी कदमों में वह घर की तरफ बढ़ गया। 'क्या बात हो गई थी?" शुभ्रा ने दरवाज़ा खोलते हुए पूछा। 'कब? अभी या शाम को।" 

'दोनों ही बता दो।" 

'गुड़िया सो गई क्या?" 

'हां सो गई।" 'ठीक है तो आओ बैठो। पहले शाम वाली बात से शुरू करता हूं।" उसने शाम वाली पूरी वारदात सुना दी। 

शुभ्रा ने एक लम्बी सांस भरी। बोली, 'हुआ तो बहुत बुरा, बॅट टेक इट इज़ी। खाली देखा ही तो उन कमबख्तों ने, कुछ ले तो नहीं लिया। फ़ॉरगेट इट।" 

अमन ने कहा, 'सोचो, अगर मेरी जगह सोमेश होता, जिसे पेशाब में रूकावट के कारण सर्कमसीज़न कराना पड़ा था, उसका ये क्या हाल करते?" 

'अरे, ऐसे कहां तक सोचेगे," शुभ्रा ने कहा, 'यह तो अगर साई बाबा भी आ जाते तब भी वही सलूक करते। ऐसे में कोई दिमाग का इस्तेमाल थोड़े ही करते हैं।" फिर पूछने लगी, 'क्या दया भाई से भी अभी इसी बारे में बात हो रही थी।" 

'हूं।" 

 'उसका क्या लेना देना है इससे?" 

 'इसका मतलब तुम समझी ही नहीं पूरी बात। यह सब कारस्तानी उस दयाभाई की ही तो है। उसी को प्रमाण चाहिए था मेरे मुस्लिम न होने का।" 

 'इतना घटिया इन्सान है वो?" 

'फिलहाल इस घटियापन का ही बोलबाला है। सभी उसके पीछे पीछे चल रहे हैं। नफ़रत होने लगी है मुझे यहां के इस मुर्दा माहौल से। घ्ाृणा का इतना ज़हर भर गया है यहां कि यह जगह अब रहने लायक नहीं रही। अब यह पहले वाला अहमदाबाद नहीं रहा।" 

शुभ्रा उसकी आंखों में देखते हुए धीरे से बोली, 'नहीं दीप, ऐसी बात तुम्हारे मुंह से अच्छी नहीं लगती। अगर हालात ऐसे बने हैं तो इसमें शहर का क्या दोष। ऐसे दया भाई तो कहीं भी हो सकते हैं। कब, कहां ऐसा ज़हर भर दें, कुछ नहीं कह सकते। बहुत दिन नहीं ठहरेगा यह ज़हर। देखना जल्दी सब नार्मल हो जाएगा।" 

'मुझे तो लगता है इस दौरान नफ़रत के जो बीज बो दिए गए हैं उनका असर पुश्तों तक चलेगा।" 

'यह तो है। नफ़रत फैलाने में घड़ियां लगती हैं और मिटाने में सदियां।" 

'बिल्कुल ठीक।" 

'वैसे मैं एक बात और भी कहना चाहती हूं--- कह दूं?" 

 'जरूर!" 

'देखो दीप, घ्रणा केवल वही नहीं जो दया भाई जैसे लोग फैला रहे हैं--- घ्रणा वो भी है जो तुम्हारे मन में पल रही दया भाई के प्रति।" 

'कहना क्या चाह रही हो।" 

'यही कि वह घ्रणा भी कम घतक नहीं। मैं तो सोचती हूं--- उन लोगों के बारे में भी घ्रणा से नहीं, प्यार से भर कर सोचो। आखिर वे कोई अपराधी तत्व नहीं। अपनी तरफ़ से वे भी जो कर रहे हैं राष्ट्र हित में कर रहे हैं। बस दिशा भटक गए हैं। बहके हुए लोग हैं वे। अगर अब तुम्हें किसी भी कारण से अपना मानने लगे हैं तो तुम्हें मुंह मोड़ने के बजाए उन्हें अपना मान कर अपनी बात समझाने की कोशिश करनी चाहिए।" 

'क्या बात करती हो, दया भाई जैसे लोगों पर कोई असर होगा हमारी बात का?" 

'कुछ तो होगा, प्यार से समझाओगे, तो जरूर होगा। चाहे ज़रा सा ही हो। पूरा असर होने में तो खैर सदियां लग जाएंगी, पर जो भी हो सकता है, प्यार से ही हो सकता है, नफ़रत से नहीं।" 'बड़ा मुश्किल रास्ता सुझा रही हो।" 

'तुम्हारे लिए कोई मुश्किल नहीं।"