Friday, October 24, 2014

एक अण्डे का स्वागत गान:जितेन ठाकुर

(जितेन ठाकुर की कहानियों में विषयों की विविधता बरबस ध्यान खींचती है.अण्डे का स्वागत गान इसलिये भी पढ़ी जानी चाहिये कि तरक्की की मध्यमवर्गीय लहरों के बीच यह कहानी समाज के तलछट की जिन्दगी को  संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती है)

    लड़के ने प्लासटिक की पतली सफैद तांत से बुना हुआ बोरा उठाया हुआ था। लड़के की उम्र सात-आठ साल से ज्यादा नहीं थी और बोरा उसके दुबले-पतले छोटे से कद की तुलना में कहीं ज्यादा लम्बा था। वह कांधे से ढ़लक-ढ़लक जाते बोरे को बार-बार खींच कर संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा था। लड़के के काले जिस्म पर कुछ वैसे ही बदरंग और बेतरतीब कपडे़ थे जैसे किसी भी कूड़ा बीनने वाले दूसरे लड़के के जिस्म पर हो सकते हैं। बोरा लगभग खाली था और पिचका हुआ था। अभी सुबह की शुरुआत थी और बोरा भरने के लिए अभी पूरा दिन बाकी था। शायद इसीलिए लड़का जल्दी में नहीं था। लड़का चाय की एक दुकान के सामने इतिमनान से खड़ा हुआ, लोहे की तारों से बनार्इ गर्इ उस टोकरी को हसरत भरी नजरों से देख रहा था, जिससे झांकते हुए सफैद अण्डों का सिलसिला, करीने से कुछ इस तरह जमाया गया था कि वह बरबस ही रह गुजर की नजर खींच लेता।
    “क्या चाहिए?" दुकानदार ने सड़क पर देर से खड़े हुए लड़के को हंस कर पूछा
    “अण्डा।" लड़के ने बेझिझक उत्तर दिया
    “पैसे हैं?" उसने फिर पूछा
   “नहीं।" लड़के ने मासूमियत से सिर हिलाया
    “तो भाग फिर।" अब दुकानदार ने डपटा
    लड़का उदास हो गया और जाने को मुड़ा, पर तभी दुकानदार ने उसे पुकार कर रोक लिया। दुकानदार ने टोकरी से एक अंडा निकालकर उसकी छोटी सी हथेली को भर दिया। लड़के की आँखे चमकने लगीं।
    दरअसल दुकानदार को पंडितों से नफरत थी और वह उन्हें ठग समझता था। इसके विपरीत उसकी पत्नी पंडितों पर बहुत विश्वास करती थी। वह अक्सर पति पर दबाव बनाती कि वह सोमवार को सफैद चीज का दान दे और बृहस्पतिवार को पीली चीज दान करे। पत्नी का मानना था कि पंडितों ने उसका पत्रा बांच कर ही, ग्रहों के बुरे प्रभाव को कम करने के लिए यह उपाए सुझाए थे। इससे रोजगार में बढ़ोत्तरी होना तय था। आज सोमवार था और वह पत्नी से बिना झूठ बोले यह कह सकता था कि उसने अण्डा दान करके सफैद और पीली वस्तु एक साथ दान में दे दी है। इस तरह पंडितों का मजाक उड़ाने और पत्नी को चिढ़ाने का एक बेहतरीन मौका उसके हाथ आ गया था।
    बहरहाल, कूड़ा बीनने वाला वह छोटा सा लड़का बेहद खुशी और हिफाज़त के साथ अण्डे को हथेली में दबाए हुए कूड़े के ढ़ोल से घुस गया। पर अब समस्या अण्डे को कहीं रखने की थी। क्योंकि एक हाथ से झोला पकड़ कर ही दूसरे हाथ से काम की चीजें बीन कर उसमें डाली जा सकती थीं। पर हाथ में अण्डे रहते हुए यह सबकर पाना मुमकिन नहीं था। लिहाजा लड़के ने अण्डा लोहे के कूड़े वाले ढ़ोल के चौड़े किनारों पर इस तरह टिका दिया कि वह लुढ़क न पाए। इतना करके वह अभी कचरे पर झुका ही था कि काफी देर से उसके पीछे-पीछे आता हुआ कुत्ता कूद कर ढ़ोल पर चढ़ गया और अण्डे को सूंघने लगा। लड़के की सांस अटक गर्इ। उसे लगा कि अभी अण्डा गिरकर फूट जाएगा। उसने बिजली की तेजी से झपटकर अण्डा उठा लिया और कूद कर ढ़ोल से बाहर आ गया। अलबत्ता, कुत्ता वहीं उसी ढ़ोल पर कुछ सूंघता हुआ खड़ा रहा।
    लड़का अब अण्डे की सुरक्षा के प्रति अतिरिक्त सतर्क हो गया था।
    जब से शहर की साफ-सफार्इ का ठेका किसी कम्पनी को दिया गया था- शहर में कूडे़ के ढ़ोल बहुत कम हो गए थे। कम्पनी के कारिंदे घर-घर से कूड़ा उठाते और उसमें से काम की चीजें बीन कर कबाड़ी को बेच देते। इस कारण लड़के के लिए संघर्ष बढ़ गया था। अब उसे कूड़े की खोज में दूर-दूर जाना पड़ता और वह सारे दिन में बा-मुशिकल दस-बीस  रुपए ही कमा पाता। टोकरियों में लटकते हुए सफैद अण्डे उसे लुभाते थे, वह उन्हें खरीदना चाहता था, खाना चाहता था। पर माँ समझी कि अण्ड़े की कीमत में डिबरी भर तेल खरीदा जा सकता है जिससे कुछ रातें उजियारी हो सकती हैं। वह मन मसोस कर रह जाता। पर आज तो उसे मुफ्त में अण्डा मिल गया था और वह खुश था, इतना खुश कि अण्डे को चूम रहा था और बार-बार उसे अपने गालों से छुवा कर उसकी ठंडक महसूस कर रहा था।
    अपने छोटे-छोटे कदमों से लम्बे रास्ते को नाप कर लड़का अब जहाँ पहुँचा था वह कूड़े से भरा हुआ एक खुला प्लाट था। उसने आस-पास देखा। वहाँ कोर्इ कुत्ता नहीं था। उसने अण्डे को हौले से एक इर्ंट पर रख दिया और ताजे फैंके गए कूड़े को कुरेदने लगा। कूड़े को कुरेदते हुए अभी उसे कुछ हासिल नहीं हो पाया था कि उसने अपने ऊपर किसी साए को अनुभव किया और चांैक गया। उसने गर्दन उठाकर आकाश की तरफ देखा। एक चील उसके ऊपर से होती हुर्इ निकल गर्इ थी। उसने पक्षियों की किताबें तो नहीं पढ़ी थीं पर इतना जानता था कि चील की नजर बहुत तेज होती है। उसके मन में शक पैदा हुआ कि हो न हो चील की नियत अण्डे पर डोल गर्इ हो। वह कुछ देर आसमान की तरफ देखता रहा। उसने देखा कि एक चक्कर लेकर चील वापिस लौट रही है। जहाज की तरह बिना पंख फड़फड़ाए हुए नीचे की तरफ झुकती हुर्इ। उसने झट से छलांगे लगा कर अण्डा उठा लिया और चल पड़ा। चील फिर ऊपर उठने लगी थी।
    लड़के को कूडे़ के नए ढ़ोल तक पहुँचने के लिए फिर एक लम्बी दूरी नापनी पड़ी। ढ़ोल के पास पहुँच कर उसने दूर तक जाती सड़क को देखा- कहीं कोर्इ कुत्ता नहीं था। फिर देर तक आसमान को देखता रहा, चील, कऊआ या कोर्इभी परिंदा आसमान में नहीं उड़ रहा था। अलबत्ता छोटी-छोटी चिडि़यों के झुंड यहाँ-वहाँ उड़ते हुए चहक रहे थे- फुदक रहे थे। वह निशिचंत हो गया। यहाँ अण्डे को कोर्इ खतरा नहीं था। कूड़े सेभरे हुए गहरे ढ़ोल में घुसने के लिए लड़का अ्भी ईंट पर चढ़ा ही था कि उसका कलेजा मुंह को आ गया। ढ़ोल के          अंधेरे में झुक कर कबाड़ बीनता हुआ एक तगड़ा लड़का अचानक सीधा खड़ा हो गया था और अब दिखलार्इ देने लगा था। यह लड़का कर्इ बार उसे पीट कर उससे कबाड़ छीन चुका था। तय था कि आज वह अण्डा छीन ही लेगा। लड़के ने बिना समय गंवाए हुए छलांग लगार्इ और सड़क पर अपनी पूरी ताकत से दौड़ पड़ा। वह जल्दी से जल्दी आने वाली मुसीबत की जद से बाहर निकल जाना चाहता था।
    लड़का फिर रास्ते में कहीं नहीं रुका। जब वह पेड़ों से बांधे गए काले तिरपाल वाले अपने सिकुड़े हुए घर में पहुँचा तो बुरी तरह हांफ रहा था। बदन पसीने से तर था जिस कारण  कमीज का कपड़ा चिपचिपाने लगा था। थकान से टांगें कांप रही थीं। वह अपनी जिंदगी में इतना कभी नहीं भागा था। इसके बावजूद वह खुश था कि उसने अण्डे को लुटने से बचा लिया था।
    “क्या हुआ? आज कुछ नहीं मिला क्या?" ईंटों के चूल्हे पर रोटी सेंकती हुर्इ माँ ने उसके खाली झोले के देख कर पूछा
   “मिला - ये अण्डा! मुफ्त!" उसने सांस को किसी तरह काबू करके उत्तर दिया। उसे कमार्इ न होने का कोर्इ मलाल नहीं था। वह जानता था कि वह दस-बीस रुपए कमा भी लेता तो उनसे अण्डा खरीदने की इजाजत हरगिज न मिलती।
    उसकी छोटी सी हथेली के ठीक बीच में रखा हुआ झक्क सफैद अण्डा चमक रहा था। माँ ने उसकी आँखों की चमक देखी और अण्डा उठाते हुए कुछ नहीं बोली। माँ को लगा कि वह आज की कमार्इ अण्डे पर उड़ा आया है, पर अब तो अण्डा खरीदा जा चुका था, इसलिए कुछ भी कहने का कोर्इ फायदा नहीं था। अलबत्ता छोटी ने अण्डे की खुशी में पहले  भार्इ से लिपट कर उसे प्यार किया और फिर उछल-उछल कर चिल्लाने लगी। वह अण्डे के लिए कोर्इ गाना गा रही थी जो किसी को  भी समझ नहीं आ रहा था।
    माँ ने अण्डा गर्म राख में दबा दिया। लड़का तिरपाल के नीचे बिछी हुर्इ दरी पर लेट गया और लम्बी-लम्बी सांसे भरकर थकान कम करने की कोशिश करने लगा। उसने हसरत के साथ आग के भरे चूल्हे की उस राख को देखा जिसके नीचे दबा हुआ अण्डा सिक रहा था।
    “माँ हम अण्डा कब खाएंगें?’ छोटी उतावली हो रही थी।
    “जब बाबा आ जाएंगें?” माँ ने रोटी तवे पर डालते हुए कहा।
    संतोष से्भरे हुए लड़के को लगा कि कुछ देर बाद जब यह अण्डा सिक कर राख से बाहर निकलेगा तो पूरा घरा जश्न के माहोल में डूब जाएगा।
    लड़के की खुली हुर्इ आँखों में अचानक, सिके हुए अण्डों से भरा हुआ बोरा समाने लगा।   उसने देखा कि बोरे से निकल कर अण्डों की जर्दी रूर्इ के नर्म फोहों की तरह उड़ने लगी है। जर्दी के उन गोल-गोल पीले बादलों में तैरते हुए लड़के ने बहन के उगते हुए नन्हें पंखों को देखा। उसने देखा कि पिता ने खांसना बंद कर दिया है और माँ चिड़चिड़ा नहीं रही है। अल्यूमीनियम की थाली बड़े-बड़े सफैद अंडों सेभरी हुर्इ है और आसमान में चील भी नहीं है। सड़क पर न तो कुत्ता है औन न ही मोटा लड़का। अलबत्ता, चिडि़याँ गा रही है।
    उबा देने वाले मनहूस काले तिरपाल के नीचे ऐसा खुशनुमा माहोल उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था।

4, ओल्ड सर्वे रोड़
देहरादून- 248001
   

Friday, October 3, 2014

उत्सव का रंग उद्देश्य से इतर नहीं





विजय गौड़ 


रंगों को वैज्ञानिक दृष्‍टी से देखा जाये और उसी भाषा में व्‍याख्‍यायित किया जाये, तो कह सकते हैं कि तरंगों की एक निश्चित दैर्ध्‍य ही रंग है। श्‍वेतप्रकाश का प्रिज्‍मेटिक विखण्‍डन का प्रयोगात्‍मक साक्ष्‍य उनकी भिन्‍नतओं का समुच्‍य है। देख सकते हैं कि प्रिज्‍म के पार एक स्‍पैक्‍ट्रम बनता है, जिसका एक छोर लाल और दूसरा बैंगनी पर समाप्‍त हो जाता है। स्‍पैक्‍ट्रम साबित करता है कि रंगों की भिन्‍नता तरंगों की दैर्ध्‍य है। खास दैर्ध्‍य की तरंग ही सुनी जाने वाली आवाज हो सकती है तो कभी वातावरण को गर्माने वाली भी। बादलों के गरजने से पहले बिजली का चमकना बताता है कि बादलों के संघटन पर दो भिन्‍न दैर्ध्‍य की तरंगों ने चमक और ध्‍वनि की उत्‍पति की है। एक चमक बनकर बिखर गयी और दूसरी आवाज बनकर सुनायी दी। तरंगों को ही आधार मानकर किये गये मानवीय शोधों ने बताया है कि घने अंधेरे में अवस्थिति किसी वस्‍तु को भी देखा जा सकता है, सिर्फ उसकी सतह से उठती तरंगों को यदि पकड़ लिया जाये तो। अनुसंधानों के विज्ञान ने उसे मुक्‍कमल करके भी दिखाया है और नाइट विजीन डिवाईस के नाम से पुकारे जाने वाले उत्‍पादों ने उसे संभव भी किया है। यानि कहा जा सकता है कि रंगों का न तो अपना कोई स्‍वतंत्र अस्तित्‍व है न ही वे किसी निश्चित स्थिति के परिचायक हैं। तो भी रंगों को भाषिक अर्थ देने वाले विद्धत जनों ने उनको कुछ निश्चित अर्थ दिये हैं। कलाकार उनकी उपस्थिति से ही चित्रों की अमूर्तता तक को वाणी देते हैं। मनोगत कारणों के प्रभाव में रंगों की भिन्‍न भिन्‍न व्‍याख्‍याओं ने भी कलाकारों को विशिष्‍टता प्रदान की है। जरूरी नहीं कि अपने चिरपरिचति अर्थों में जाने जाने वाले विरोध के रंग को ही कोई कलाकार अपने चित्र में विरोध के अर्थ में डाले। वह उसका अर्थ विस्‍तार उदासी में या मृत्‍यू तक भी कर देता है और कई बार तो मनोगत आग्रहों से जन्‍म लेती आलोचना भी उसे ही जिन्‍दगी की अकुलाहट को संजोये गर्भ का गहन अंधेरा कह सकती है।

यानि रंगों के आधार पर एक निश्चित अर्थ भरे निर्णय तक पहुंचना हमेशा मुश्किल ही है। वे समय काल और परिस्थितियों के आधार पर अपने मानक गढ़ते हैं। किसी विशेष रंग की ओढ़नी को ओढ़कर प्रतिकात्‍मक रूप में खुद का प्रकटीकरण, राजनैतिक मुहावरा तो हो सकता है लेकिन राजनीति का स्‍पष्‍ट रूप तो संचालित होती गतिविधियों और उनके परिणामों से ही तय किया जा सकता है।        
भिन्‍न भिन्‍न रंगों के प्रकाश के संयोजनों से पूजा पण्‍डालों की भव्‍यता, कोलकाता के पूजा महोत्‍सव को जश्‍न में बदल देती है। रंगो के संयोगों की व्‍युत्‍पत्ति का जश्‍न पूरे कोलकाता को तीन.चार रातों तक दोपहर की सी भीड़ में बदलत देता है और मध्‍यरात्रि में भी लग जाने वाले ट्रैफिक जाम को कन्‍ट्रोल करते जवानों की सीटियां, ढोल और ताशे की आवाज के विरूद्ध व्‍यवस्‍था को कायम रखने के लिए लगातार गूंज रही होती है। भीड़ की भीड़ सड़क के इस पार के पण्‍डाल से निकलकर सड़क के उस पार के पण्‍डाल में घुस जाना चाहती है। ठाकुर प्रतिमाओं के दर्शन के लिए। प्रकाश के संयोजन से दमकती प्रतिमाओं की आभाऐं ही भक्ति का सार्वजनीन रूप  बिखेरती है। जमींदारों के द्वारा सत्रहवीं सदी के आस पास शुरू की गयी पूजा पण्‍डालों की ठेठ अनुष्‍ठानिक पूजाओं के रूप को ही बीसवीं सदी ने सार्वजनीन  रूप दिया है।
यह मायके आयी बेटी के स्‍वागत का उत्‍सव है। उत्‍तराखण्‍ड के पहाड़ों में आयोजित ऐसे पर्व का नाम ही नन्‍दाजात है, जो विदाई का पर्व है। एक ऐसा धार्मिक पर्व, आस्‍थाओं का सिंदूर और पूजा प्रार्थनाओं के नियमबद्ध चरण, जिसको पारम्‍परिक वैधानिकता प्रदान करते हैं। उत्‍तराखण्‍ड में चौसिंगा खाडू (चारसिंग वाला बकरा) और बंगाल में कारीगरों द्वारा निर्मित दुर्गा, सरस्‍वती, लक्ष्‍मी, गणेश और कार्तिक इसके पारम्‍परिक प्रतिक हैं। बंगाली भद्रलोक की मानसिकता में यह सांस्‍कृतिक विशिष्‍टता का सालाना आयोजन है, जिसे दुर्गा पूजा के नाम से जाना जाता है। लक्‍खी पूजा (लक्ष्‍मी पूजा), काली पूजा और सरस्‍वती पूजा इसके अन्‍य पड़ाव है।


बुद्धि और विवेक के लिए जाने जाने वाले कोलकाता में पूजा पण्‍डालों की इस ठेठ धार्मिक गतिविधि को ही सांस्‍कृतिक विरासत की तार्किकता से व्‍याख्‍यायित किया जाता है। तब से ही जब सारा बंगाल बदलाव के प्रतिकात्‍मक अर्थों से भरे लाल रंग से दमकता हुआ था। बल्कि उस दौर ने ही ''तर्क'' की जिद्दीधुन में ऐसे आयोजनों को विशिष्‍ट कलात्‍मक प्रयोगों का दर्जा माना। पूजा कमेटियों के स्‍वतंत्र गठन के बावजूद विशिष्‍ट अंदाज में नियंत्रण बनाये रखा। पूजा पण्‍डालों में इंक्‍लाबी किताबों के स्‍टाल उनकी प्रत्‍यक्ष उपस्‍थतियों के साक्ष्‍य होते रहे। आज बहुरंगी होते जा रहे बंगाल में बचे हुए लाल रंगों के अवशेषों वाले इलाके के बीच उनकी ऐसी ही उपस्थिति को नेताजी नगर के उस पूजा पण्‍डाल में साक्षात देखा जा सकता है जहां एक विशेष पूजा पण्‍डाल के ही सामने बहुरंगी राजनीति के समर्थन से पोषित पूजा पण्‍डाल भी होड़ करता हुआ है। यह अंदाजा लगाना मुश्‍किल नहीं कि दो भिन्‍न राजनैतिक समर्थकों की पूजा कमेटी इन पूजा पण्‍डालों का जिम्‍मा निभाये होगी। भीतरी बुनावट में त्रिशूल भाले और फर्शे लहराते दोनों पण्‍डाल समान है और बाहरी रूप का फर्क सिर्फ इतना ही है कि एक बुद्ध की आकृति में सजी भव्‍यता के रूप में है तो दूसरा बिल्‍डर, प्रोमटरों की मानसिकता में ठेठ सधी हुई आक़ति वाली छवी बिखेरता हुआ, अपनी.अपनी 'थीम' के साथ दोनों ही। बुद्ध की आकृति में ढले पण्‍डाल की खूबी है कि सांस्‍कृतिक दिखने की अतिश्‍य कोशिश में वहां जगह जगह इस्‍तेमाल किये त्रिशूलों को लाल रंग की चुनरियों से बंधा कर उस विशिष्‍ट राजनैतिक विचार के साथ जोड़ने की कोशिश हुई है जो अपनी साक्षात उपस्थिति में पण्‍डाल के बाहर इंक्‍लाबी कितबों की दुकान सजाये शालीन बुजर्गो की उपस्थिती वाली है। साम्‍प्रदायिकता के मायने तय करती हमारी प्रगतिशीलता भी ऐसे ही तर्कों के आधार पर गढ़ी गयी, जिसने धर्म को निशाने में रखने की जरूरत महसूस नहीं की। बेशक, ऐसे मानदण्‍डों को आधार मानकर रचा गया साम्‍प्रदायिकता विरोध का साहित्‍य बदली हुई परिस्थितियों में साम्‍प्रदायिक लोगों का हथियार होता रहा। 
कलावादी नजरिये से बात की जाये तो दोनों ही पण्‍डालों में कारीगरों की कोशिश अप्रतिम है।
यूं कलावादी नजरिये को थोड़ा झटका देते हुए पण्‍डालों का जिक्र करना भी ज्‍यादा समीचीन होगा. एक उदयन मण्‍डल, नाकतल्‍ला का पूजा पण्‍डाल और दूसरा नेताजी जातीय सेवादल, टालीगंज का पण्‍डाल। पहले में जहां समुद्री लहरों पर हिचकोले खाती दुनियावी नाव की यात्रा की जा सकती है तो दूसरे में सूती धागों की बुनावट के जरिये हस्‍तशिल्‍प की कारीगरी को स्‍थापित करने की कोशिश को देखा जा सकता है। धार्मिक कर्मकाण्‍ड से एक हद तक किनारा करते से लगते ये थीम आधारित पण्‍डाल भी पूरी तरह कर्मकाण्‍ड मुक्‍त नहीं। यहां तक कि कुमारटूली का पण्‍डाल जो शिल्‍प वैशिष्‍टय में जीवन के उदय का चित्रित करता हो और चाहे मुहममद अली पार्क का शिवालय थीम। तेज अंधड़ भरी समुद्र की लहरों से उम्‍मीदों की आशा जगाती दैवी की प्रतिमा को देखकर ''आह'' और ''वाह'' के अलावा कोई दूसरा शब्‍द नहीं हो सकता। बेशक मंत्रोचार की प्रक्रिया में छूटे उच्‍छवास में इन शब्‍दों की उपस्थिति नहीं और कला के अप्रतिम सौन्‍दर्य का जादू बिखेरता कौशल है पर धार्मिक अनुष्‍ठानिक प्रक्रियाओं की संगत में जुड़े हुए हाथों की उपस्थिति से इंकार तो नहीं किया जा सकता न !

सांस्‍कृतिक विरासत के संरक्षण के नाम पर सुबह और शाम की संधि पूजाओं वाले अनुष्‍ठानिक कर्मकाण्‍ड ने पूरे कोलकाता में छोटे छोटे इतने सारे मंदिरों का निर्माण किया है कि हरिद्वार जैसी ठेठ धार्मिक स्‍थली में भी उनकी आनुपतिक संख्‍या पिछड़ जाये। बाजूओं में मंत्राये धागे और नग्‍न जडि़त अंगूठियों से भरी उंगलियों वाले बंगाली जनमानस को देखकर भ्रम होता है कि किसी वैज्ञानिक चेतना से भरे राजनैतिक विचार की वह कभी हिमायती रही है। पुलिसिया व्‍यवस्‍था के साथ जारी बली प्रथाओं वाला कोलकाता तो आश्‍चर्य में डालता है।
उपरोक्‍त पर बिना कोई अन्‍य टिप्‍पणी किये, यह कहना ज्‍यादा उचित है कि मनोगत आग्रहों से रंगों की व्‍याख्‍या करना ही कलावाद है। उत्सव का रंग उत्सव के मूल उद्देश्य से तय होता है.

Sunday, September 28, 2014

नन्दा राजजात के फलितार्थ

(हाल ही में संपन्न हुई नन्दा राजजात यात्रा को लेकर मीडिया में खूब चर्चा रही .दिनेश चन्द्र जोशी ने इस आलेख में राजजात यात्रा के आयोजन को लेकर कुछ जरूरी सवाल उठाये हैं जो एक लोकधर्मी सांस्कृतिक यात्रा को आडंबरपूर्ण उत्सवी माहोल में बदलने से उत्पन्न संकटों की ओर संकेत करते हैं)

दिनेश चंद्र जोशी


उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में चल रही नन्दा राजजात यात्रा अब लगभग सकुशल सम्पन्न हो चुकी है। लगभग, इसलिये कहना पड़ रहा है कि मौसम की मार व अति दुर्गम मार्ग के कारण समय समय पर अनिष्ट की आशंका बनी रही,ऊपर से अनियंत्रित भीड़ का जमावड़ा पुलिस प्रशासन के लिये चिन्ता का कारण बना। कुछ लोगों के वापिस घर न पहुचने व लापता हो जाने की खबरें भी आ रही हैं।
बहरहाल अपनी हर साल की बाढ़, भूस्खलन, आपदा जैसी स्यापा प्रधान खबर से हट कर इस वर्ष की यह उत्सवधर्मी घटना कही जा सकती है। नन्दा राजजात की अर्थवत्त्ता से प्रदेश के बाहर वाले क्या, यहीं के बहुसंख्य जन अनभिज्ञ थे। इसका कारण एक तो बारह वर्ष पश्चात इसका दुबारा आयोजन होना तथा एक सीमित भूगोल के वासियों द्वारा इसमें शिरकत करना माना जा सकता है।
एतिहासिक रुप से यह यात्रा सातवी शताब्दी पूर्व के पाल राजवंशी राजा शालिपाल के समय से प्रचलित है। कन्नौज के राजा जसधवल का लावलश्कर के साथ इस यात्रा में शामिल होने, पातर (नर्तकियों) नचाने तथा मौसम की मार के कारण सैकड़ों लोगों के काल कवलित होने के संदर्भ इतिहास में मिलते हैं।रुपकुंड में पाये जाने वाले नर कंकालों को भी उस घटना से जोड़ा जाता है। बीच बीच में कुछ समय के लिये बाधित होकर ब्रिटिश काल में भी एशिया  महाद्वीप की यह सबसे दुर्गम ऊचाई वाले पथ की 280 कीलोमीटर लम्बी सांस्कृतिक धार्मिक यात्रा अनवरत चल रही है।
इधर राज्य निर्माण के पश्चात पिछले वर्ष 2013 की यात्रा को आपदा के कारण स्थगित करके इस वर्ष 2014 में सम्पन्न किया गया। नये राज्य के नव उत्साह व मीडिया की सक्रियता के कारण यह यात्रा बेहद ग्लैमरस नजर आई। पिछले दो तीन वर्षों से राजजात आयोजन समिति के गठन, पुनर्गठन तैयारियों व आर्थिक, प्रशासनिक प्रबन्धन की खबरें समय-समय पर आती रही। इन्ही तैयारियों के फलस्वरूप इस वर्ष की यात्रा के शुभारम्भ पर चढ़ावा व श्रीफल राष्ट्रपति महोदय के कर कमलों से प्रदान करवा कर समिति ने यात्रा को राष्ट्रीय पहचान दिलाने का प्रयास किया।
राजजात समिति में वर्चस्व किन विचारधाराओं का रहा , यह तो नहीं कहा जा सकता पर, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को खास तवज्जो नहीं मिली, ऐसा सुनने में आया। राज्यसभा सांसद तरूण विजय का नाम बार बार आता रहा, अलबत्ता राष्ट्रपति महोदय द्वारा श्रीफल प्रदान करवा कर इसे गैर राजनैतिक रंग देने की नीति संतुलित कही जा सकती है,वरना कहीं मोदी जी के हाथों यह काम करवा दिया जाता तो बात बिगड़ सकती थी।
        बहरहाल राजनैतिक मंतव्य चाहे जो रहे हों, अब यात्रा सकुशल संपन्न हो चुकी है, यह राहत की बात है। गोया बेदनी बुग्याल जैसी 15000 फिट की दुर्गम ऊंचाई में 50,000 यात्रियों के जमावड़ा लगने के बावजूद आंधी, तूफान,वर्षा व हिमपात के कोप का प्रचन्ड रूप न लेने की सुखदायी धटना सांसतभरी है।
पर, क्या इतनी ऊंची दुर्गम लोक यात्रा में इतनी अधिक भीड़ जुटनी या जुटाई जानी चाहिये? जबकि  एक महाविनाश की त्रासदी अभी स्मृतियों में बिल्कुल ताजा है। उस त्रासदी से सबक लेने के बजाय इस भीड़ आकर्षण को क्यों बढ़ावा दिया जा रहा है ,यह बात समझ से परे है। इसके पीछे फेसबुकवादी व्यक्तिगत मीडिया से लेकर स्थानीय, राष्ट्रीय यहां तक कि विदेशी मीडिया भी सक्रिय हो गया था। लिहाजा एक निहायत शान्त, शालीन,एकाकी व भव्यताविरोधी आस्था पर्व को रैलीनुमा  भीड़ में तब्दील कर दिया गया। ऐसी खबरें भी आ रहीं हैं कि कुछ लोग घर नहीं लौटे, लापता हो गये हैं। लोकपर्व के बाजारीकरण  की ऐसी पराकाष्ठा आखिर हमें कहां ले जायेग! इस प्रचारवादी नीति से न तो उत्सवों की मौलिकता बचेगी और न ही पावनता, शुचिता। उत्साहीजन कहेंगें कि क्या बिगड़ गया, पहाड़ों के उजड़े गांवों के लोग अपने घर लौटे, दिल्ली,मुम्बई व विदेशों से भी प्रवासीजन तथा पर्यटक इस यात्रा में शामिल होने पंहुचे,पहली बार। यह खाये पीये, अघाये प्रवासियों का नोस्टलजिया बहुत भावुकतापूर्ण होता है, वे आते हैं तो अपनी कुल देवी या देवता को पूजने,ताकि अनिष्ट से बचें रहें; गांवों की दुर्दशा को सुधारने या वहां बसने-बसाने की उनकी कोई मंशा नहीं होती ।उल्टा वे पहाड़ों के धूसर उजड़े गांवों व सुरम्य प्रकृति पर फिल्म,वीडियो आदि बना कर अपना निजी स्वार्थ साधते हैं।        
           यह सच है कि नन्दा मघ्य हिमालय के सीमान्त जिलों व उससे सटे जनपदों के जनमानस की जातीय चेतना में सदियों से रची बसी एक बेहद अलौकिक आस्था की प्रतीक है। पर्वतीय अंचलों के बच्चे होश संभालते ही नंदा देवी, नंदाष्टमी,नैनादेवी नाम के मन्दिरों व मेलों से परिचित होते हैं। भूगोल की जानकारी होने पर उनका त्रिशूल,पंचचूली के साथ नन्दादेवी नाम की उच्च हिमालयी चोटी से भी परिचय होता है। इस दृष्टि से नन्दा राजजात के प्रति जन मन में औत्सुक्य व उत्साह का संचार होना लाजमी है।
        नई पीढ़ी का वास्तव में इस शब्द ने इस बार पहली बार ध्यान खींचा है, इसे मीडिया का प्रभाव मान सकते हैं।राजजात के अर्थानुसार तो यह राजजात्रा अथवा राजाओं की यात्रा ही थी। इसमें कुंवर ,कत्यूरी, पंवार, चन्द वंशीय राजाओं के वंशजों,  क्षत्रियों व ब्राहमण कुलपुरोहितों की भागीदारी होती है, निम्न जातियों व ,दलितों की भूमिका का कोई जिक्र नहीं होता। होता भी होगा तो वह ढोल दमुआ,,रणसिंघा बजाने वाले बाजियो के रूप में या दोली ढोने वाले कहारों के रूप में, संभवतः डोली भी उनको स्पर्श नहीं करने दी जाती है। इस लिहाज से यह राजकुलीन भद्र सामन्ती यात्रा है। समय के अनुसार इसमें कितना बदलाव आया; आया या नहीं, यह भी विचारणीय प्रश्न है।
नन्दा की डोलियों, छतोलियों के अनेक समूहों के सम्मिलन स्थलों ,गांवों में उनके पहुंचने पर पसुवा, जागर,अवतार देवी देवता अवतरण जैसी आदिवासी अवैज्ञानिक अन्धविश्वासी रीतियो, पद्धति्यों का इस यात्रा में जम कर संवर्घन संरक्षण हुआ जो किसी मायने में लोक हितकारी नहीं है। ऐसी प्रथाओं से नई पीढ़ी का जितना कम परिचय हो उतना अच्छा है।
        नन्दा को मायके भेजने के भावुकतापूर्ण लोकगीत व महि्माओं के सामुहिक रुदन के दृश्य एक और जहां पहाड़ की परिश्रमी नारी के स्नेहसूत्र व भावविह्वलता को दर्शाते हैं वहीं यह प्रश्न भी छोड़ जाते हैं कि सीमान्त पर्वतीय नारी आखिर कब तक इतनी भावुकता ढोती रहेगी।
यद्यपि इन्हीं नारियों के बीच से बछेन्द्री पाल व चन्द्रप्रभा ऐतवाल जैसी साहसी पर्वतारोही महिलायें भी उभर कर आई हैं। अब वक्त आ गया है, बहुत प्राचीन भावुकतापूर्ण मिथकीय प्रतीकों के बजाय ठोस आधुनिक प्रगतिशील नन्दाओं  के प्रतीकों का प्रचार प्रसार किया जाय और परम्परागत राजजात को अल्प तामझाम व एकान्तप्रियता के साथ ही सम्पन्न किया जाय।
ताजा खबरें आई हैं कि इस यात्रा की भीड़ में यारसागम्बू जड़ी(कीड़ा जड़ी) के दोहन करने वाले माफिया भी शरीक हो गये थे जो बेदनी बुग्याल के आसपास अपने अभियान में लिप्त पाये गये। भीड़ , प्रचार व बाजारवादी यात्रा में ऐसा होना तय है, चाहे वह बद्री केदार की धार्मिक यात्रा हो अथवा नन्दा राजजात की लोकधर्मी संस्कृतिक यात्रा।
पारिस्थिकी व पर्यावरण पर इस भीड़ का कितना दुष्प्रभाव पड़ा यह तो बेदनी बुगयाल के रौंदे गये चरागाह बयान करेंगें।
एकमात्र मूक प्राणी , चारसिंघा खाड़ू (चार सींग वाला बकरा) जोकि यात्रा की अगुवाई करता है तथा अन्त में निर्जन हिमघाटी में अकेला छोड़ दिया जाता है, पर क्या बीतती होगी । लगता है मेनका गांधी के पी. एफ. ए. को इस निरीह प्राणी के साथ हुए अन्याय की खबर नहीं हैं।
भीड़ व बाजार के केन्द्र पहले चौरस घाटियों ,मैदानों के समतल हाट मेले हूआ करते थे। अब राज्य निर्माण के
पश्चात एक और विकृति आ गई है कि शान्त उच्च हिमालयी स्थलों, बुग्यालों, चोटियों में भी हो हल्ला हुड़दंग से भरपूर धार्मिक सांस्कृतिक राजनैतिक आयोजन सम्पन्न किये जाने लगे हैं, जिससे पहाड़ के पर्यावरण के साथ साथ सामाजिक ताने बाने को भी क्षति पहुंच रही है।
पहाड़ अपने स्वाभाविक रूप में अतिविकसित होने व अति जनभार को वहन करने के काबिल नहीं हैं, उनके विकास का माडल संतुलित,शान्त, एकाकी, पुरानी ग्राम बसाहटों के स्वरुप के अनुकूल होना चाहिये। राजधानी, केबिनेट मीटिंग और सरकार की रैलि्यों से पहाड़ की शान्ति व  एकान्तप्रियता भंग हो यह कौन न चाहेगा ?

Sunday, August 24, 2014

उन्होंने साहित्य में आधुनिक भारतीय चेतना को स्थापित किया






यू आर अनंतमूर्ति का आकस्मिक निधन भारतीय साहित्य जगत के लिये एक स्तब्धकारी सूचना है.वे सही अर्थों में आधुनिक भारतीय चेतना के प्रतिनिधि  लेखक हैं. भाषा की सरहदों को लाँघने वाले अनंतमूर्ति न सिर्फ़ लेखन में रूढ़ियों से संघर्ष करते रहे बल्कि जीवन में भी जोखिम उठाकर अपनी  बात कहने का साहस दिखाते रहे. वे साहित्य और रजनीति के बीच की दूरी को पाटने वाले सक्रिय योद्धा के रूप में भी याद किये जायेंगे.

     अनन्तमूर्ति का उपन्यास ‘संस्कार’ हिन्दु ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खोखलेपन पर करारी चोट करते हुए प्रतिरोध का नया व्याकरण लिखता है.धर्म-विरुद्ध आचरण करने वाले ब्राह्मण की मृत्यु पर अन्तिम संस्कार  की पेचीदगियों से शुरू होता हुआ यह उपन्यास रूढ़ियों की जकड़न में फंसे ब्राह्मणों के अन्तर्विरोधों के साथ जातिवादी व्यवस्था के खोखलेपन को  उजागर करता है. अनूठे शिल्प-विन्यास और प्रतीकात्मकता के लिये विख्यात ‘संस्कार’ आधुनिक भारतीय साहित्य का अप्रतिम गौरव-ग्रन्थ है.

       उनका दूसरा उपन्यास ‘भारतीपुर’ अधुनिकता और परम्परा के शाश्वत द्वन्द्व की कथा है.कथा नायक इंग्लैण्ड में शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात अपने गाँव भारतीपुर लौटता है और गाँव के हरिजनों की जीवन-स्थिति उसे बेचैन करती है.इस उपन्यास में बहुत कुछ बाहर के साथ भीतर भी घटित होता है. सदियों की जकड़न से छूटने की बेचैनी और छटपटाहट का  सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक स्तर चित्रण किया गया है. एक प्रसंग में कथा नायक सैकड़ों वर्षों से घर के पूजा घर में रखे शालिग्राम को दलित के स्पर्श कराने के प्रयोजन से बाहर निकालकर लाता है .यह पूरा प्रसंग जिस सघनता के साथ उपन्यास में आया है वह अनुवाद में भी पाठक को विचलित करके रख देता है.

        साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष के रूप में उनके कार्य-काल को बहुत सम्मान के साथ याद किया जाता है.

       लोकतान्त्रिक मूल्यों के लिये प्रतिबद्ध आधुनिक चेतना के अद्भुत शब्द-शिल्पी अनंतमूर्ति को  ‘लिखो यहाँ वहाँ ’की विनम्र शृद्धांजलि!

Friday, August 22, 2014

प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान २०१४

वर्ष २०१४ का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान कथाकार अल्पना मिश्र को उनके उपन्यास 'अन्हियारे तलछट में चमका' के लिए दिए जाने की घोषणा की गयी है.२००६ से प्रतिवर्ष दिए जा रहे इस सम्मान का यह ७ वां संस्करण है जिसके निर्णायक मंडल में वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी, कथाकार शिवमूर्ति और डॉ चन्द्रकला त्रिपाठी रहीं.
निर्णायकों के अनुसार यह उपन्यास निम्नमध्यवर्गीय जीवन का महाख्यान है जो स्त्री-लेखन को एक बड़ा विस्तार देता है और स्त्री-संसार की एकायामिता को तोड़ता है.कहन के अनूठे अंदाज़ और भाषा-विकल्पन के गहरे नए रूपों से संमृद्ध यह  हिंदी उपन्यास क्षेत्र में अब तक के प्रचलित  सभी खांचों को तोड़ कर सृजनात्मकता के नए शिखर निर्मित करता है.