Friday, March 18, 2016

मेरी, तेरी, सबकी मां की जय हो भारत

विजय गौड़

 
भारत माता की जय, तू-तू, मैं-मैं की हदों को पार कर रही है। यहां तू-तू, मैं-मैं को मुहावरे की तरह ही देखें। वैसे भी मैं राष्‍ट्रद्रोही नहीं हूं। राष्‍ट्रदोह का सार्टिफिकेट बांटने वालों से अपील है कि वे अपनी सील-मुहर को अभी थैले से बाहर न निकाले और घ्‍यान से पढ़ें।

अब देखिये न एक तरफ वे महाशय जिद ठाने बैठे हैं कि मैं भारत माता की जय नहीं बोलूंगा, दूसरी ओर माता के सच्‍चे पुत्र हैं, जो यूं तो अक्‍सर ही मां का नाम भूल जाते हैं, और वक्‍त बेवक्‍त के हिसाब से कुछ भी पुकार लेते हैं, जिद्द ठाने हैं कि भारत माता की जय तो बुलवा कर ही रहेगें। देखिये मैं राष्‍्ट्रदोही पुकार दिये जाने का खौफ खाये बगैर बता देना चाहता हूं कि कभी किसी क्रिकेटकर, किसी विराटरू या मोनी-जॉनियों के कलात्‍मक अंदाजों पर, खासतौर पर उस वक्‍त जब वे भारतीय जनता के करोड़ो रूपयों के कजर्दार किसी शराब के व्‍यापारी की खरीद पर बनायी गयी एक टीम हों या अन्‍यथा भी, जब वे विरोधी टीम के धुर्रे उड़ा रहे हों और उनका मालिक व्‍यपारी चीयर्स गर्ल्‍स की कमर में हाथ डालकर यम यम करता हो, तो औपनिवेशिक पहचान कराती भाषा में गूंजने वाले नाम के साथ माता को याद करते हुए लगाया जाने वाला जयकारा भी उनकी दमित इच्‍छाओं का यम यम हो जाता है। एक बात ओर है कि संसद, कानून और जब चाहे तब बेखौफ सरहदों के आर-पार निकल जाने वाले और सब तरफ से विजय पाये व्‍यापारी के राष्‍ट्रद्रोह को भी यदाकदा पहचान लेने वाले चैनलों के एंकर भी तू-तू, मैं-मैं को हवा देने में कम नहीं।

मजेदार है कि कितने ही चैनेलों के एंकर भी गले की नसें फुलाफुलाकर उस टोपीबाज को बिल्‍कुल सामने-सामने देशद्रोही और जाने क्‍या क्‍या बोल रहे हैं, मुकदद्दमें का डर दिखा रहे है, लेकिन वह तब भी भरत माता की जय न बोलने की जिद्द पर अड़ा बैठा है और अपने ही धर्म के एक सांसद के भावनात्‍मक इजहार तक को धत्‍ता बताकर कभी जय हिन्‍द तो कभी इंक्‍लाब जिंदाबाद ही कहे जा रहा है। भारत माता की जय का तर्जुमा करके मंद मंद मुस्‍कराते हुए वह और भी चिढ़ाऊ कार्रवाई करने में माहिर है। उसके अंदाज पर तो नसें फुलाकर बोलने वाले एंकरों से प्रभावित और देश प्रेम के क्रोध से उबल रहे भले मानुस भी कभी-कभी सारे मामले को खुद ही नूरा कुश्‍ती के रूप में देख सकते हैं।

खैर हमें इस चिन्‍ता में नहीं घुलना है और न ही तू-तू, मैं-मैं करने वालों के झांसे में आकर कभी राष्‍ट्रवाद का सार्टिफिकेट बांटने वालों के साथ होना है और न ही हर सेकैण्‍ड के हिसाब से बांटे जा रहे उन सार्टिफिकेटों को फाड़ने में जुटे नूरा कुश्‍ती लड़ते हुए मुस्‍कराने वालों के साथ होना है। खतरा तो दोनों ही ओर है। निश्चित ही है। वैश्विक पूंजी से दोनों का ही प्रेम इतना अनूठा है कि अपनी अपनी जरूरत के हिसाब से दोनों ही जनता की एक मुश्‍त गाढ़ी कमाई के पैसे को वैश्विक पूंजी द्वारा बाजार में उतारी हुई मशीनों पर लुटा देना चाहते हैं। उनकी जरूरत को पूरा करने के लिए सार्टिफिकेट बांटने वाली मशीन प्रति सैकेण्‍ड की दर से सार्टिफिकेट बांटेगी और फाड़ने वाली प्रति सैकेण्‍ड की दर से उन्‍हें फाड़ती जायेगी1 खबरों की तलाश में जुटे चैनलों को विकास के आंकड़े पर सुबह से शाम तक मजमा-ए-बहस जुटाना आसान होगा। वे बता पायेगें कि आज सार्टिफिकेट बांटने वाली मशीन प्रति सैकेण्‍ड चार सार्टिफिकेट की दर से कुल तीस हजार सार्टिफिकेट ही बांट पायी जबकि सार्टिफिकेट फाड़ने वाली मशीन ने प्रति सैकेण्‍ड पांच सार्टिफिकेट की दर से सारे के सारे सार्टिफिकेट कुल समय से दो घंटे पहले ही फाड़ दिये। तय मानिये मजमा-ए-बहस के निर्णय आंकड़ो को इस तरह से परिभाषित करने में साहयक रहेंगे कि गठित समीक्षा कमेटी सिफारिशें दे पाये कि मशीन की कार्यक्षमताओं को परिमार्जित करना आवश्‍यक है। अत: एफ डी आई का प्रतिशत 51 कर दिया जा रहा है।

मित्रों बहुत हुई तू-तू, मैं-मैं।

यह बताइये कि आपकी भाषा में मां को क्‍या कहते हैं ?
मैं तो गढ़वाल का रहने वाला हूं, मेरी मातृभाषा में तो ‘ब्‍वै‘ बोला जाता है।
कल एक मित्र बोले कि उनकी भाषा में ‘दइया’, ‘महतारी’, ‘माई’, तीनों ही शब्‍द प्रचलित हैं।
वैसे मेरा दोस्‍त पाटिल तो ‘आई’ ही बोलता है।
आपको सच बताऊ गढ़वाल के पड़ोस में ही कुमाऊ है वहां ‘ईजा’ बोला जाता है।
आपकी मातृभाषा में क्‍या बोलते हैं ? जो भी बोलते हों बोलिये उस मां की भी जय।

 

Sunday, March 13, 2016

सांस्‍कृतिक आयोजनों का ‘राष्‍ट्रवादी’ चेहरा


बंगला दलित धारा के कवि कालीपद मणि की कविता का यह स्‍वर व्‍यापक दलित, शोषित समाज को दायरे में रखकर लिखी जाने वाली किसी भी भाषा की कविताओं के ज्‍यादा करीब है। यही वजह है कि वैश्विक स्‍तर पर इस देश को सिर्फ अध्‍यात्‍मवादी नजरिये से सिरमौर होते देखने की चाह रखने वाले सांस्‍कृतिक आयोजनों के ‘राष्‍ट्रवादी’ विचार से यह सीधे मुठभेड़ कर रही है। शिक्षा व्‍यवस्‍था का वह ढकोसला भी यहां तार तार हो रहा, जिसका यूं तो आमजन के जीवन को संवारने में वैसे भी कोई बड़ा दृष्टिकोण नहीं, पर जिसकी उपस्थिति से यदा कदा की कोई संभावना जन्‍म ले जाती है। तय जानिये यदा कदा की वे संभावनायें भी उनकी आंखों की किरकिरी है, मुनाफे की सोच के चलते जो, उन सरकारी विद्यालयों को भी पूरी तरह बंद कर देना चाहते हैं। उनकी साजिशों का खेल ही ‘सांस्‍कृतिक’ होता हुआ आर्ट ऑफ लीविंग है।

कालीपद मणि 

अनुवाद – कुसुम बॉंठिया 


प्रश्‍न का तीर-इस्‍पात

   
एक शिशु कंठ सुबह शाम
फुटपाथ पर तैरता रहता है
छ: रुपया किलो, बाबू, ताजा खीरे
खत्‍म हो गये तो पछताओगे।
खींच-खींच कर लगाए रट्टा
ठीक जैसे बचपन की पाठशाला में  
पढ़ाई की रटंत
एक कौड़ी पा गंडा
दो कौड़ी आध गंडा।

कुछ देर खड़ा रहता हूं उसके पास
नंगे बदन, पैबन्‍द लगी बेहद बदरंग पैंट
पास ही उकड़ू बैठी उसकी माँ
पके बालों में जूं तलाशती हुई।
अचानक ही उससे पूछ बैठा
लड़का स्‍कूल क्‍यों नहीं जाता ?
बुढि़या फुफकार उठी निष्‍फल आक्रोश से
प्रश्‍न के तीर से इस्‍पात छिटक रहा था
गिरस्‍ती फिर कइसे चलाऊँगी
बताइए आप ?
क्‍यों, बोलते क्‍यों नई ?
उत्‍तरहीन पृथ्‍वी
मुँह पर ताला जड़े
निर्वाक् चलती जा रही है।
शिशुकंठ की रट्टा बंधी पुकार सुनाई दे रही है
छ: रुपया किलो बाबू ताजा-ताजा खीरे।

Saturday, March 12, 2016

उसका नाम कन्हैया है

संस्समरण

सुनील कैंथोला

बकरोला जी श्याम को कुत्ता घुमाते हैं, कोई सात बरस पहले एक मलाईदार विभाग से सेवानिवृत हुए हैं, यहीं वसंत विहार एन्क्लेव में बंगला है, ऐशो आराम की कमी नहीं. बकरोला जी का कुत्ता उनसे जायदा हट्टा-कट्टा है. एक तो उम्र में कम है और दूसरा कुत्ता शराब नहीं पीता. जब वे घूमते हुए कुत्ते के मलत्याग हेतु कोई उपयुक्त स्थान ढूँढने की फिराक में होते हैं तो लगता ऐसा है कि मानो उनका कुत्ता उन्हें घुमा रहा हो.

बकरोला जी की एक खासियत है कि बात कहीं से भी शुरू हो उसका अंत I.A.S. व्यवस्था को फटकारने और यदि दो-चार पेग अन्दर हों तो माँ-बहन की गालियों पर समाप्त होती है. ये बकरोला जी की I.A.S. से व्यक्तिगत खुन्नस है. इसकी तह में जायेंगे तो आक्रोश शायद इस बात का है कि वे I.A.S. बनने से वंचित कैसे रह गए.
बकरोला जी अच्छे आदमी हैं. इलाके में सत्संग के आयोजन में हमेशा आगे रहते हैं. क्रिकेट में जब भारत पाकिस्तान से जीतता है तो अपनी जेब से आतिशबाजी का आयोजन करवाते हैं. पंद्रह अगस्त हो या छब्बीस जनवरी, बकरोला जी सोसाइटी के पार्क में होने वाले झंडारोहण कार्यक्रम का अहम् हिस्सा होते हैं. वे कड़क स्वाभाव के हैं. झंडारोहण के पश्चात् मिष्ठान वितरण के दौरान बगल की मलिन बस्ती का कोई बच्चा यदि दोबारा लड्डू मांग ले तो उसके कान गर्म करने में देर नहीं लगाते. बकरोला जी सेवानिवृत होने के बाद भी आजादी की रक्षा में संलग्न हैं. देश की आज़ादी को लेकर बकरोला जी बहुत भावुक हैं. यही वो आज़ादी है जिसने उनको वसंत विहार एन्क्लेव के इस बंगले में विराजमान किया अन्यथा सूखी तन्खवाह में भला ऐसा कहाँ संभव था. जब तक उनकी कलम में ताकत रही बकरोला जी ने उसे पूरी निष्ठा से आज़ादी की रक्षार्थ समर्पित किया. ये बात अब सार्वजनिक हो ही जानी चाहिए कि जब से उन्होंने उस नासपीटे कन्हैया को आज़ादी के नारे लगाते देखा उसी क्षण से बकरोला जी के भीतर एक हाहाकारी किस्म की उथल पुथल शुरू हो गयी है. अब कोई माने या न माने इसका श्रेय उस कमबख्त कन्हैया को ही जायेगा जिसने उन्हें अपनी आज़ादी से प्राप्त होने वाले फलों के प्रति जागृत किया और उस पर पड़ने दुष्प्रभावों के प्रति उन्हें सतर्क किया . बकरोला जी को अपनी आजादी की चिंता है. अब वे सीरियल कम और इंडिया टीवी जायदा देखने लगे हैं.

बकरोला जी उस सामाजिक परिवेश से आते हैं जिसमे महिलाएं अपने बड़े बुजुर्गों का नाम अपनी जुबान पर लाना पाप समझती हैं. मसलन यदि किसी महिला के ससुर का नाम इतवारी लाल हुआ तो वह इतवारी लाल जैसे पवित्र शब्द को अपनी जुबान पर लाना तो दूर इतवार के दिन को इतवार न बोल कर कुछ और बोलना शुरू कर देगी जैसे कि तातबार! इसी प्रथा का कुछ हैंगओवर बकरोला जी पर भी है. बकरोला जी आजकल बहुत हिंसक हो रहे हैं. पर अपने तरकश में भरी चुनिदा गालियों से लैस होने के उपरांत भी वे कन्हैया को गाली देने में इसलिये असमर्थ हैं क्योंकि उसका नाम कन्हैया जो है!