Thursday, November 26, 2020

छद्म नैतिकता पर प्रहार करतीं मुक्तिबोध की कहानियां

  

कहानी में कथा रस की सैद्धान्तिकी वाली आलोचना ने जो परिदृश्‍य रचा है, उसने आधुनिकता को महत्‍वपूर्ण तरह से अपने लेखन के जरिये स्‍थापित करने वाले रचनाकार मुक्तिबोध को कहानी की दुनिया से बाहर धकेला हुआ है और उन पर सिर्फ एक कवि की छवि ही चस्‍पा की हुई है।  कविता के इतर कहानी, आलोचना एवं उनके अन्‍य लेखन को विश्‍लेषण करते हुए जो भी प्रयास हुए, वे भी इतने सीमित रहे कि कवि की छवि को तोड़ते, या उसका विस्‍तार करते मुक्तिबोध को देखना मुश्किल ही रहा है।

मुक्तिबोध के कथा साहित्‍य का विवेचन, उस खिड़की को खोलना ही है जो गंवई आधुनिकता के व्‍याप्‍त होते जाने वाले रास्‍ते का पता दे सकता है। गंवई आधुनिकता के भाषायी रंग-ढंग की पहचान कराने में भी सहायक हो सकता है। भाषा को मुक्तिबोध स्‍वयं कुछ ऐसे दर्ज करते हैं, भाषा विचित्र/ जिसमें शब्द हैं कलाहीन/ जिसमें प्रयोग है ग्रम्य और वे अति कठोर/ जो भी नवीन/ पर तू सुन मत ओ कलाकार/ तेरे शब्दों में लाख लाख दिलवालों का उदगार।

 आलोचक गीता दूबे ने मुक्तिबोध की कहानियों को इस जरूरी बहस की तरह ही प्रस्‍तुत किया है। कथारस वाली सैद्धांतिकी की बजाय रचना के समग्र प्रभाव को ध्‍यान में रखते हुए गीता दूबे ने बड़े साहस के साथ इस आलेख को रचा है और आधुनिकता के सवाल को तीखे तरह से उठाया। स्‍त्री मुक्ति के सवाल को सुधारवादी तरह से देखने और रचने के प्रेमचंद कालीन मुहावरें की बजाय वे राजनैतिक चेतना के उस स्‍वर को समर्थन दे रही हैं जिसका आगाज मुक्तिबोध की रचनाप्रक्रिया का हिस्‍सा रहा है।

गीता दूबे के इस महत्‍वपूर्ण आलेख को यहां प्रस्‍तुत करते हुए यह ब्‍लॉग अपने को समृद्ध कर रहा है।

गीता दूबे कोलकाता में रहती हैं। स्‍कॉटिश चर्च महाविद्यालय में हिंदी की विभागाध्‍यक्ष हैं। कविताएं लिखती हैं और लगातार लिखी रही आलोचनाओं के लिए जानी जाती हैं। 

वि.गौ.


गीता दूबे

मुक्तिबोध निसंदे एक बड़े कवि हैं और उनकी कविताएं आधुनिक हिंदी साहित्य की बहुत बड़ी उपलब्धि हैं। उन कविताओं के कई पाठ हुए हैं और संभवतः और भी पाठ होने अभी बाकी हैं लेकिन अंधेरे की बात करने वाले और देशसमाज और राजनीति के अंधेरे पक्षों को बारम्‍बार अपनी कविताओं में उकेरने के साथसाथ उधेड़ने वाले मुक्तिबोध के कवि आलोक ने मुक्तिबोध के कहानीकार का बहुत नुकसान किया है। अकादमिक साहित्यकारों ने भी लगातार उस अंधेरे को‌ गहरा करने का ही प्रयास किया। सिर्फ पाठ्यक्रम घोंटकर पढ़ने ‌और‌ पढ़ाने का दंभ करनेवाले साहित्यिक विद्वतजनों की निगाह अगर मुक्तिबोध की कहानियों त नहीं पहुंची है तो यह विडंबना मुक्तिबोध की नहीं बल्कि हमारी है। हांलाकि उनकी कहानियों पर थोड़ी बहुत बात हुई है लेकिन अंधेरा अब भी पूरी तरह से छंटा नहीं है। एक बड़ा पाठक समाज अब भी इनके विषय में अनभिज्ञ है।  

मुक्तिबोध की यह एक बड़ी खासियत है कि वह कविता, कहानी, निबंधआलोचना सब एक साथ च रहे थे और रचाव के इस निरंतर कार्य में विधागत विविधता के बावजूद रचनात्मक अंतर्संबंधता अथवा एकरूपता का निदर्शन   होता है, मसलन मुक्तिबोध कविता या कहानी तकरीबन साथ- साथ ही नहीं रचते बल्कि कई बार तो यह संयोग भी दिखाई दे जाता है कि एक ही शीर्षक से उन्होंने कविता और कहानी दोनों लिखी है। प्रश्न उठता है कि क्या यह सचमुच एक संयोग है या मुक्तिबोध स्वाभाविक रूप से अथवा जानबूझकर ऐसा कर रहे थे। यहीं यह सवाल‌ भी सिर उठाता दिखाई देता है कि मुक्तिबोध जो अपने समय के‌ एक बेहद जटिल और दुरूह कवि माने जाते रहे हैं और जिनकी कविताओं से गुजरते हुए क बार एक अंधी सुरंग से गुजरने का अहसास भी होता रहता है, वही मुक्तिबोध अपनी कहानियों में‌ बेहद सहज हैं। उनका कथ्य‌ और उद्देश्य दोनों बेहद स्पष्ट है। कहीं कोई भटकाव नहीं है लक्ष्य भी सुनिश्चित है‌ और पाठ भी एकल। एक ही पाठ में कहानी पाठकों के अंत:स्‍थल को भेदती हुईउसे उद्वेलित करती हुई प्रश्नाकुलता से भर देती है। हां, यह बात अलग है कि अगर पाठक किसी सस्ते या सतही किस्म के‌ मनोरंजन‌ के लिए  कहानी पढ़ रहा है तो‌ उसे मुक्तिबोध को‌ बिल्कुल नहीं पढ़ना चाहिए। प्रेमचंद के प्रशंसकों से माफी मांगते हुए यह कहने की हिमाकत करना चाहूंगी कि एक स्थल पर जाकर जब प्रेमचंद की कहानियां फार्मूले में बदलती हुई और आदर्शोन्मुख यथार्थ का भ्रम रचती हुई दिखाई देती हैं वहां‌ मुक्तिबोध की कहानियां यथार्थ जिंदगी क‌ पथरीली जमीन से तो टकराती ही है तथाकथित प्रगतिशीलता हो या सामाजिक नैतिकता दोनों के छद्म पर प्रहार करने का नैतिक साहस भी करत है उदाहरण के लिए जहां उनकी "ब्रह्मराक्षस" कविता को समझने -समझाने में हमें काफी मशक्कत करनी पड़ती है वहीं "ब्रह्मराक्षस का शिष्यकहानी बिल्कुल सहज है जिसे बच्चे भी समझ सकते हैं। कहा जाता है कि मुक्तिबोध ने यह कहानी बच्चों के लिए लिखी थी। इन कहानियों में प्रेमचंद की कहानियों की तरह न कोई सूक्ति वाक्य है और न ही कोई यूटोपियन अंत बल्कि यथार्थ की पथरीली जमीन से टकराकर पाठक न केवल स्तब्ध रह जाता है बल्कि तथाकथित नैतिकता से उसका मोहभंग भी होता  है।

मुक्तिबोध की कहानियों में निम्नमध्यवर्गीय जीवन के कई जीवंत चित्र दिखाई देते हैं। निम्न मध्यमवर्गीय जीवन की दीनता और विषमता अपन पूरी विरूपता के साथ मुक्तिबोध की कहानियों में उभर कर आई है। भारतीय मूल्य बोध को अगर किसी ने बचा कर रखा है तो वह है मध्यमवर्ग क्योंकि उच्च वर्ग अपने मूल्यबोध खुद गढ़ता है और निम्न वर्ग उन तथाकथित मूल्यों को चुनौती देत चलता है लेकिन मध्यमवर्ग विशेषकर निम्नमध्यवर्ग उन‌ मूल्यों को‌ अपने सीने से चिपटाए जीता है और प्रतिष्ठा के किसी और अवलंब के अभाव में उसके बलबूते ही समाज में प्रतिष्ठा की प्राप्ति करना चाहता है। 'जिंदगी की कतरननामक कहानी इस वर्ग की मानसिकता को यथार्थपूर्ण ढ़ंग से उकेरती हुई आत्महत्या के कारणों की पड़ताल करती है। कहानी का वातावरण पाठकों को इस कदर अपनी गिरफ्त में ले लेता है कि पाठक क अंतर्मन कांप उठता है और वह इस बात से सहमत हुए बिना नहीं रह सकता कि समाज में जब तक ये सारे कारण मौजूद रहेंगे तब तक आत्महत्याएं होती रहेंगी। इन कारणों में पारिवारिक विपन्नतासामाजिक हस्तक्षेप के साथ ही मानसिक उठापटक भी शामिल हैं। कोई विधवा इसलिए आत्महत्या करती है क्योंकि वह ससम्मान जीवन बिताने में असमर्थ है।‌ कहीं सामाजिक नैतिकता का छद्म बोझ न झेल पाने की वजह से भी कोई- कोई आत्महत्या करने को विवश होता है। विधवा निर्मला की आत्महत्या के बाद मुक्तिबोध उसके कारणों की पड़ताल करते हुए बेचैन हो उठते है, "जिंदगी की कोई भी अवस्थाक्षेत्रस्थिति या फल उतने बुरे नहीं होतेजब तक उन्हें किसी प्रकार के सामंजस्य का आधार प्राप्त होता रहता है। यदि वह सामंजस्य बुरा हैअपवित्र हैया अवनति की ओर ले जानेवाला हैतो उसे बदलकर नयी परिस्थिति पैदा करकेनया सामंजस्य पैदा कराना चाहिए। किंतु मैं जानता हूँनिर्मला के लिए यह असंभव ही नहींउसकी स्थिति-परिस्थिति की भयानक दु:स्थिति में इसके अलावा कदाचित ही कोई दूसरा मार्ग रहा हो।आज के तथाकथित आधुनिक समाज में जब आत्महत्याओं की संख्या कम होने की बजाय लगातार बढ़ती जा रही हैं वहाँ मुक्तिबोध की यह कहानी हमें सोचने समझने का नया रास्ता ही नहीं देती बल्कि नैतिकता के दबाव तले पिसते जीवित प्राणियों की मूर्छनाओं की बात भी करती है। लोग क्या कहेंगे और समाज क्या सोचेगा की चिंता से एक खास आभिजात्य वर्ग भले ही मुक्त हो चुका है लेकिन भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा अब भी चिंता के इस पहाड़ तले दब कर पिसताघुटता और दम तोड़ता नजर आता है। मुक्तिबोध समाजिक नैतिकता की इस पैनी छुरी की तीखी धार के वारों से घायल पीड़ितों की बड़ी जमात के साथ पूरे समर्पण और सहानुभूति के साथ खड़े नजर आते हैं।  

यह सामाजिक नैतिकता हमेशा मुक्तिबोध के निशाने पर है और वह लगातार इस पर प्रहार करते हुए प्रश्न उठाते  नजर आते हैं।‌ हमारे समाज की यह मान्यता है कि स्त्री और पुरुष कभी मित्र नहीं हो सकते। समाज स्त्री पुरुष की मैत्री को अच्छी नजर से नहीं देखताउसके पास स्त्री पुरूष संबंधों का बस एक ही स्वीकृत रूप है और वह रूप अगर तथाकथित सामाजिक मान्यताओं के दायरे में आता है तो सही है अन्यथा नाजायज। "मैत्री की मांगकहानी में मुक्तिबोध ने इसी समस्या को आधार बनाया है और इस मैत्री की मांग को जायज ठहराया है। भले ही सुशीला को यह मैत्री सुलभ नहीं हो पाई लेकिन सुशीला की वेदना को शब्दबद्ध करते हुए उसके प्रति कथाकार की संवेदना पूरी शिद्दत से उभर कर आती है। सुशीला माधवराव को मित्र के रूप में चाहती है प्रेमी रूप में नहीं लेकिन समाज इस मैत्री का आकलन नहीं कर पाता और माधवराव वह मोहल्ला छोड़कर जाने का निर्णय ले लेता है। चाहते हुए भी वह जाते समय सुशीला से मिल नहीं पाता और इस तरह तथाकथित छद्म नैतिकता की हथौड़ी किस तरह इस सहजस्वाभाविक आकांक्षा को कुचलकर रख देती इसका चित्रण कहानी में बड़ी गहराई से हुआ है, "ज्यों ही माधवराव का तांगा पत्थरों पर लड़खड़ाता हुआ आगे चलने लगा कि यकायक रामाराव (सुशीला का पति) के रसोईघर की काली खिड़की खुली और वही स्तब्धपूर्ण मुख आंखों में न्याय मैत्री की मांग करनेवाला करुण दुर्दम चेहरावही स्तब्ध मूर्त भाव।  

छद्म नैतिकता की यह छुरी किस तरह मानवीय संबंधों को तार -तार करने की कोशिश करती हैयह उनकी कहानी 'प्रश्‍न' में भी उसी शिद्दत से उभर कर आया है। समाज में स्त्री और पुरुष के लिए हमेशा ही अलग -अलग मानदंड रहे हैं। विधुर पुरुष के   पुनर्विवाह को समाज सहज स्वाभाविक और उचित ठहराता है । यहां तक कि पत्नी की उपस्थिति में भी उसके एकाधिक विवाहेत्तर संबंध हो सकते हैं और इसे भी बहुत स्वाभाविक दृष्टि से ही देखा-स्वीकारा जाता है लेकिन स्त्री तो असूर्यम्पश्या है।‌ पति के अतिरिक्त किसी और से दोस्ती के बारे में सोचना भी उसके लिए पाप है और पति की मृत्यु के बाद भी उससे यही उम्मीद की जाती है कि वह मृत पति की स्मृतियों को अगोरती हुई जीवन‌ बिता दे अगर वह प्रेम या सहारे के‌ लिए किसी दूसरे पुरुष का दामन थामती है तो समाज की नजर में कुलटा हो जाती है। "प्रश्न" कहानी में यही सवाल उठाया गया है कि क्या एक विधवा को स्वाभाविक जीवन‌ जीने का कोई हक नहीं है।‌ यह कैसा समाज है जो एक असहाय विधवा स्त्री को सिर्फ इसलिए लांक्षित करता है कि वह अपना और  अपने बेटे का पेट पालने के‌ लिए‌ ही नहीं बल्कि‌ मानसिक साहचर्य के लिए भी पुरुष विशेष से स्नेह सूत्र में आबद्ध हो जाती है। लेकिन हमारा समाज न केवल उसे लांक्षित करता है बल्कि उसके बेटे को ही उसके विरुद्ध खड़ा कर देत है। बेटे की नजर में मां को अपराधी सिद्ध करने से बड़ा अपराध क्या कुछ और हो सकता हैयह सवाल पाठकों के अंतर्मन‌ को छील कर रख देता है। कहानी का आरंभ ही पाठकों को उत्सुकता से भर देता है, "एक लड़का भाग रहा है। उसके तन पर केवल एक कुरता है और एक धोती मैली सी। वह गली में से भाग रहा है मानो हजारों आदमी उसके पीछे लगे हों भाले लेकरलाठी लेकरबर्छियां लेकर। वह हांफ रहा हैमानो लड़ते हुए हार रहा हो। वह घर भागना चाहता हैआश्रय के लिए नहींपर उत्तर के लिएएक प्रश्न के उत्तर के लिए। एक सवाल के जवाब के लिएएक संतोष के लिए।और यह सवाल क्या है जो बड़ी जद्दोजहद के बाद एक छोटा बच्चा अपनी मां से पूछने का साहस कर पाता है, "ां, तुम पवित्र हो ? तुम पवित्र हो ?" हम बस कल्पना कर सकते हैं कि कैसे यह सवाल एक बालक ने अपनी जन्मदायिनी मां से पूछा होगा किस तरह उस विवश मां ने इसका जवाब दिया होगा। लेकिन  यह मुक्तिबोध के कलम की सामर्थ्य ही है कि वह उस मां को‌ अपराधिनी सिद्ध करने या महिमामंडित करने के बजाय उसे एक साधारण रूप से समाज में स्वीकार्य दिखाते हैं और उसके बेटे को समाज क एक ख्यात शिल्पी के रूप में चित्रित करते हुए गर्वपूर्वक लिखते हैं, "सुशीला की जन्मभूमिहमारा गांवधन्य है।हां यह बिंदु गौरतलब है कि मुक्तिबोध कहीं भी प्रेमचंदीय आदर्श‌ की स्थापना करते नहीं दिखाई देते। वह विधवा विवाह की बात भी नहीं करते बल्कि एक विधवा को ससम्मान स्वाभाविक जीवन व्यतीत करते दिखाई देते हैं और उनके अपने आदर्श का मॉडल है। मुक्तिबोध की इस महत्वपूर्ण कहानी की भी कोई चर्चा शायद इसलिए नहीं होती क्योंकि यह तत्कालीन मूल्यबोध या छद्म नैतिकता पर प्रहार करती हुई समाज के लिए नये मूल्यबोध गढ़ने की पहल करती है। लेकिन आश्चर्य तो तब होता है जब निर्मल वर्मा जैसे कथाकार मुक्तिबोध को कहानीकार मानने तक से इंकार करते हुए, यह स्टेटमेंट देते दिखाई देते हैं कि, 'मुक्तिबोध की कहानियां असल में कहानियों सी नहीं दीखती...' वह 'उनकी कहानियों को अधूरी कहानियां मानते हैं जो शायद किसी की प्रतीक्षा में हैं।' यह निस्संदेह एक मुश्किल सवाल है कि जो कहानियां किसी छद्म या थोपे हुए आदर्श की स्थापना नहीं करतींकोई तयशुदा हल नहीं देती बल्कि एक ऐसे समाज की स्थापना चाहती हैं जहां स्त्री को भी पुरुष की तरह जीने क समान हक मिले, हर प्राणी को उसका उचित प्राप्य मिले तो क्या उन्हें अधूरा मानना चाहिए, क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि वे  लच्छेदार भाषा में नहीं लिखी गईं हैं या किसी तथाकथित कथा आंदोलन के तहत नहीं लिखी जा रही हैं। और अगर ऐसा मानना भी पड़े तो मेरी अपनी राय में ये कहानियां वस्तुत सामाजिक बदलाव हेतु उस आंदोलन की प्रतीक्षा में हैं जब इस तरह की स्थितियां बन पाएं जहां सभी ससम्मान जी सकें और छद्म नैतिकता से मुक्ति पा सकें।‌ स कहानी से एक बात और स्पष्ट रूप से उभरती है कि‌ मुक्तिबोध विवाह संस्था को‌ आखिरी विकल्प के रूप‌ में नहीं देख रहे थे।‌ हालांकि‌ उन्होंने स्वयं‌ प्रेम विवाह किया था लेकिन विवाह को ही वह जिंदगी का अंतिम सत्य नहीं मानते थे‌ अन्यथा आलोच्य कहानी में विधवा विवाह की संभवाना थ लेकिन संभवतः मुक्तिबोध सुधारवादी स्वर या विचार के बजाय मानव अस्मिता अथवा मानवअस्तित्व को ज्यादा महत्त्व दे रहे थे।‌ यहां एक तथ्य‌ और भी ध्यातव्य है कि जिस समय मुक्तिबोध सृजनरत थे उस समय तक हिंदी में  स्त्री विमर्श का आंदोलन अपने उफान पर नहीं था, इसके बावजूद उस दौर में भी मुक्तिबोध बड़ी दृढ़ता से स्त्री की आकांक्षाओं के साथ -साथ उसके अधिकारों की बात भी कर रहे थे लेकिन विडंबना यह है कि मुक्तिबोध के साहित्य का यह पक्ष अभी तक अंधेरे में ही रहा है। स्त्री अधिकारों के पुरोधा या पैरोकार के रूप में प्रेमचंद का नाम तो जोर- शोर से लिया जाता है लेकिन मुक्तिबोध की इस पक्षधरता पर किसी की निगाह नहीं गई।

 नैतिकता के स्थूल नियमों को मुक्तिबोध किस तरह गैरजरूरी मानते थे वह उनकी बहुत सी कहानियों में प्रकट हुआ है"वह" कहानी का नैरेटर जब अपनी बहन को उसके प्रेमी के साथ अंतरंग क्षणों में देखता है तो पहले तो वह उसे फटकारता है लेकिन दूसरे ही क्षण वह ग्लानि से भरकर सोचने लगता है कि उसे भला बहन को फटकारने का क्या हक है।‌ बहन को पूरा अधिकार है कि वह अपनी जिंदगी का निर्णय खुद ले सके। वह अपने ह्रदय पर पड़े पश्चाताप के भारी पत्थर को दूर फेंकते हुए अपनी बहन को गले से लगाकर कह उठता है, "शांताशांता... मैंने तेरा अपराध किया है।वस्तुत यहां सिर्फ स्त्री की आजादी की ही बात नहीं है बल्कि मानव मात्र की आजादी ओर उसके निर्णय के म्मान‌ ी बात भी है।‌ स्त्री अधिकारों के हिमायती माने जाने वाले प्रेमचंद के साहित्य तक में इस तरह के मुखर‌ प्रश्न‌ नहीं हैं जहां स्त्री की अपनी अलग सत्ता हो।‌ आज के उत्तर आधुनिक समय में भी साधारण परिवेश में एक अकेली स्त्री क अपनी मर्जी से जिंदगी गुजारने को‌ बहुत सम्मानजनक दृष्टि से नहीं देखा जाता है और रही बात 'सिंगल मदर' या 'अकेली मां' की तो यह साहस मशहूर हस्तियां भले ही कर लें‌ सामान्य स्त्रियां तो ऐसा करने की बात सोच तक नहीं सकती। इसके अलावा आज के सभ्य और आधुनिक समाज में भी खाप पंचायतों के दबाव में जिस तरह सम्मान रक्षा (?) के लिए दिन दहाड़े प्रेमी जोड़ों की हत्या की जाती हैं वहाँ यह कहानी प्रेम या चयन के अधिकार का सुंदर रास्ता बड़ी सहजता से दिखाती है।

भारतीय समाज की एक और समस्या है, वह है‌‌ हमारा दोहरा चरित्र, पाखंड के मुखौटे से ढंका हमारा छद्म मानवीय चेहरा, जिसने हमारी समाज व्यवस्था को तो गहराई से प्रभावित किया ही है हमारी मानसिक संरचना को भी जटिल से जटिलतम बनाते हुए हमें मानसिक रोगी तक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हम बातें तो मानवता की करते नहीं अघाते लेकिन  मानवता के असली हकदार तक पहुंचने के पहले ही मानवीय करुणा का हमारा स्रोत सूखता दिखाई देता है। "जंक्शन"  कहानी में मानवता के साथ ही प्रगतिशीलता के इस छद्म चेहरे को देखा जा सकता है जहां नैरेटर की करुणा एक संपन्न भले घर के बच्चे के प्रति तो उमड़ती है लेकिन गरीब के प्रति नहीं क्योंकि प्रेम भी हम सामाजिक स्तर देखकर करते हैं और सहानुभूति भी। भले ही हम समाज के निचले पायदान पर ही क्यों ना खड़े‌ हों पर हमारा प्रेम पायदान‌ से नीचे खड़े व्यक्ति पर नहीं बरसता क्योंकि उसकी कृतज्ञता हमारे अहंबोध को संतुष्ट नहीं करती।‌ यह मानव‌ स्वभाव की खासियत है कि वह मानवतावाद प्रेम और करुणा की बात उसी स्तर‌ तक करता है जहां उसे विशेष कुछ करना ‌न‌ पड़े।  इससे सहज ही यह प्रश्न जन्म लेता है कि, फिर क्या यह नैतिकता बिल्कुल फिजूल है और समाज को उसकी जरूरत नहीं। लेकिन मुक्तिबोध  नैतिकता के इस पक्ष को आवश्यक मानते हैं जो हमें आत्मस्वीकार का साहस दे सके ्योंकि यह साहस भी नैतिकता से ही जुड़ा हुआ मुद्दा है जिसे स्वीकारने से हम बचते हैं लेकिन मुक्तिबोध का नायक पहले तो अपने- आपको बचाते हुए सोचता है, "मेरा बिस्तर क्या इसलिए है कि वह सार्वजनिक सम्पत्ति बने ! शी:। ऐसे न मालूम कितने बालक हैं जो सड़कों पर घूमते रहते हैं।" लेकिन अंततः अपने वैचारिक , मानवीय भटकाव को स्वीकारते हुए कह बैठता है, "मुद्दा यह है। हां मुद्दा यह है कि वह दूसरे और निचले किस्म केनिचले तबके के लोगों की पैदावार है....जिनपर दया की जा सकती है पर बिस्तर पर जगह नहीं दी जा सकती"....वह आगे कहता है, "मैं अपने भीतर नंगा हो जाता हूँ और अपने नंगेपन को ढांपने की कोशिश भी नहीं करता।"

आत्मस्वीकार के इसी नैतिक साहस को और भी शिद्दत से पाठकों के समक्ष उजागर करने के लिए  मुक्तिबोध "मैं फिलासफर नहीं हूँकहानी में उस प्रोफेसर का चरित्र उकेरते हैं जो जरा भी आत्ममुग्धता का शिकार नहीं है इस दौर में जहां‌ सभी खुद को एक दूसरे से ज्यादा  विद्वान‌ साबित करने की होड़ में कुछ इस कदर मुब्तला हैं कि कभी- कभी वह चूहा दौड़ की तरह हास्यास्पद लगने‌ लगता है, में किसी प्रोफेसर का यह आत्मस्वीकार कि 'मैं बिल्कुल कोरा हूँ,....टैब्यूला रासा।' उसकी ईमानदारी को जाहिर करता है।  'टैब्यूला रासा' लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है 'खाली स्लेट'।  यह कहानी इस तथ्य को उजागर करती है कि, किसी भी आदमी में विद्वाता जैसे गुण के साथ वह नैतिक साहस भी होना चाहिए कि वह अपने अंदर के‌ शून्य को भी लोगों के सामने बेझिझक परोस सके और यही ईमानदारी और साहस प्रोफेसर साहब दिखाते हैं। सवाल यह भी है कि आज तथाकथित विद्वानों की जमात में  ऐसा ईमानदार जिगर रखने वाले कितने ऐसे प्रोफेसर या फिलॉसफर मिलेंगे जो खुद को कोरी स्लेट मान सकें। शायद एक भी नहीं, और यहीं मुक्तिबोध की आलोच्य कहानी का व्यंग्य पूरी तीव्रता से पाठकों को भेद देता है।

मुक्तिबोध की एक और महत्वपूर्ण कहानी "अंधेरे में" का जिक्र करना चाहूंगी जहां लेखक की नैतिकता उसे झकझोर कर कहती हैं कि इस संसार में बगावत का झंडा बुलंद क्यों नहीं होता। 'अंधेरे में नामक अपनी विख्यात लंबी कविता में जहां‌ कवि मुक्तिबोध देशसमाज के स्याह पक्षों की काली तस्वीर उरेहते हैं वहीं कहानीकार मुक्तिबोध उस स्याह‌ को‌ रौशन‌ करने के लिए एक मात्र क्रांति का रास्ता दिखाते हैं क्योंकि अगर समाज में आमूलचूल परिवर्तन लाना‌ है तो उसे क्रांति की राह से होकर ही गुजरना‌ होगा। यह बात और है कि कहानी में क्रांति घटती नहीं दिखाई देती लेकिन उसकी जरूरत की बात जरूर कथा के मुख्य पात्र के साथ- साथ पाठक के मन में भी  उठती है और यही इस कहानी की सफलता है। इस तरह एक बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि मुक्तिबोध की कहानियां वस्तुत उनके कविताओं की पूरक हैंकविता में जिस तस्वीर की रेखाएं नजर आती हैं कहानी में वह तस्वीर मुकम्मल होती नजर आती है। कविताओं का कुहासा कहानियों में छंट जाता है और यह बेझिझक कहा जा सकता है कि कविताओं में जटिल नजर आनेवाले मुक्तिबोध कहानियों में झट से पकड़ में आ जाते हैं और एक स्पष्ट दिशा भी दिखाते नजर आते हैं। अब इतना धैर्य तो पाठकों में भी होना चाहिए कि वह उन कहानियों को पढ़े।‌ क्योंकि पाठकों को जिस तरह क कथा रस से लबरेज मुहावरेदार भाषा में रची कहानियां पढ़ने की लत होती है वह भले ही मुक्तिबोध के यहां नहीं मिलत लेकिन कथ्य और लक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट है और विचार तो तीर की तरह पाठकों के अन्‍तरमन में पैठ जाता है। वहां आदर्श नजर‌ नहीं आता क्योंकि यथार्थ का तीखापन‌ पूरी रुक्षता से उभरा है। और तारीफ इस बात की भी होनी चाहिए कि यथार्थ को उकेरते हुए मुक्तिबोध जरा भी लाउड होते नहीं दिखाई देते लेकिन कहानी पाठकों को बेचैन कर देती है। नैतिकता का दंश इतना तीखा होता है कि पाठक के लिए उसे झेलना मुश्किल हो जाता है जैसे 'अंधेरे में' कहानी का युवक जब रात के अंधेरे में सड़क से गुजरते हुए उसी सड़क पर सोए हुए बेघरबार लोगों से टकराता है तो कांप उठता है। उसकी मानसिक बेचैनी को मुक्तिबोध ने बेहद सधी कलम से उकेरा है, "युवक के मन में एक प्रश्न, बिजली के नृत्य की भांति मुड़-मुड़कर, मटक-मटककर, घूमने लगा- क्यों नहीं इतने सब भूखे भिखारी जगकर, जाग्रत होकर, उसको डंडे मारकर चूर कर देते हैं-क्यों उसे अब तक जिंदा रहने दिया गया।" और सोचते हुए इसका जवाब भी वह स्वयं तलाशता है, "पाप, हमारा पाप, हम ढीले-ढाले, सुस्त, मध्यवर्गीय आत्मसंतोषियों का घोर पाप ! बंगाल की भूख हमारे चरित्र विनाश का सबसे बड़ा सबूत। उसकी याद आते ही, जिसको भुलाने की तीव्र चेष्टा कर रहा था, उसका ह्रदय कांप जाता था, और विवेक-भावना हांफने लगती थी।" विवेक का यह भाव या दंश ही वस्तुतः हमारी नैतिकता का केंद्र बिंदु है और होना चाहिए, ऐसा मुक्तिबोध मानते थे।

 आमतौर पर यह माना या कहा जाता है कि अनैतिक कर्म करनेवाले ही इस संसार में सुखी हैं और नैतिकता पर टिके हुए लोग अधिकतर कष्ट ही पाते हैं लेकिन नैतिकता का दंश‌ किसी को पागल भी कर सकता है यह तो "क्लाड इथरलीकहानी को पढ़कर सहज ही समझ जा सकता है। 'क्लाड इथरली' वह विमान चालक था जिसके गिराए एटम बम से हिरोशिमा नष्ट हो गया था। अपनी कारगुजारी का दुष्परिणाम देखकर वह अपराधबोध से पगला गया। हालांकि अमेरिकी सरकारी उसे 'वार हीरो' मानकर सम्मानित करती है लेकिन वह अपने अपराध का दंड पाने के लिए सरकारी नौकरी छोड़कर ऐसी वारदातें आरंभ करता है जिससे गिरफ्तार होकर जेल जा सके लेकिन सरकार जो उसे महान मानती है, अंततः उसे उसकी इन हरकतों के कारण पागल समझकर जेल में डाल देती है। मुक्तिबोध इस पागलपन की व्याख्यायित करते हुए व्यंग्यात्मक ढंग से बड़े साहस के साथ कहते हैं, "जो आदमी आत्मा की आवाज कभी-कभी सुन लिया करता और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। जो लगातार सुनता मगर कुछ कहता नहीं है, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवकूफ है। जो उसकी आवाज बहुत ज्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्मा की आवाज जरूरत से ज्यादा सुनके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में संत हो सकता था। आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है।" यहाँ यह सवाल फिर सिर उठाए हमारे सामने खड़ा हो जाता है कि, क्या इस संसार में नैतिक लोगों के लिए कोई जगह नहीं है ?‌ क्या उनकी जगह सिर्फ पागलखाने में ही बची हुई है या कि ऐसे लोगों की जरूरत ज्यादा है ।‌ क्योंकि यह पागलपन‌ ही उनकी संवेदनशीलता को‌ रेखांकित करता है। इसी कारण मुक्तिबोध ऐसी नैतिकता के साथ -साथ ऐसे पागलों और पागलखानों को समाज के लिए अति आवश्यक मानते हुए आलोच्य कहानी के एक पात्र द्वारा कहलवाते हैं, "हमारे अपने-अपने मन- ह्रदय-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहाँ हम उन उच्च, पवित्र और विद्रोही भावों को फेंक देते हैं जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे खुद बदलकर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्य, भद्र हो जाएं, यानी दुरुस्त हो जाएं या उसी पागलखाने में पड़े रहें।" कहानी के समापन की ओर बढ़ते हुए "वह" पात्र "मैं" से कहता है, "इससे यह सिद्ध हुआ कि तुम-सरीखे सचेत जागरूक संवेदनशील जन क्लॉड इथरली हैं।" सुख भोग के सागर में डूबे संवेदनहीन गैंडों के समाज में ऐसे पागलों (?) या संवेदनशील,  नैतिक लोगों की जरूरत हमेशा बनी रहती है क्योंकि नैतिकता तथाकथित यौन‌ शुचिता या दोगलेपन में नहीं बचती बल्कि सही मनुष्य होने में होती है । वही मनुष्य जो अपने सुख के लिए किसी की हत्या को अपराध समझे और वह‌ भी जो चंद चांदी के सिक्के के बदले में व्यक्ति क आजादी का अपहरण कर‌ उसे पंगु बनाने वाले शोषक की साज़िश का पर्दाफाश कर सके।‌ (पक्षी और दीमक)

मुक्तिबोध की दो और महत्‍वपूर्ण कहानियों की बात करना चाहूंगी"जलना" और "काठ का सपना" । दोनों ही निम्न मध्यमवर्गीय जीवन‌ के दो अलग- अलग चित्र हमारे सामने उकेरती हैं। लगता है जैसे दोनों में से ही मुक्तिबोध का अपना निजी यथार्थ भी प्रस्फुटित होता है। सुखी परिवार जैसे कि टीवी के पर्दे पर हंसते मुस्कुराते, प्राणवंत नजर आते हैं प्रायवैसे नहीं होते। हंसी- खुशी से उद्भासित चेहरों के पीछे भी असहनीय घुटन छिपी होती है। बहुधा वह लोगों को‌ ऊपर से नजर नहीं आती लेकिन अंदर ही अंदर वह परिवार को घुन‌ की तरह चाटती रहती है। आज के समय में अवसाद  रोग की बड़ी चर्चा होती है लेकिन पहले इसकी चर्चा करना भी अपराध समझा जाता था और अगर कहीं कोई अवसाद की समस्या होती भी थी तो उसे देवी आना या डायन का शिकार होना मान लिया जाता था।‌ मध्यमवर्गीय परिवार की इस घुटन को‌ अज्ञेय की कहानी 'गौंग्रीनमें बड़ी कुशलता से उकेरा गया था। मुक्तिबोध की कहानी "काठ का सपना" में यही जड़ता है लेकिन कहानी सरोज के रूप में एक उम्मीद को सामने रखती है। जहां 'गैंग्रीन' की मालती अपनी संतान तक के प्रति इतनी निस्पृह हो चुकी है कि उसके खाट से गिर जाने पर भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता वहीं मुक्तिबोध का कथानायक सरोज को का होते जीवन की उम्मीद भरी कोंपल के रूप में देखता है। यही उम्मीद का झोंका "जलना" कहानी में भी है। तमाम विषमताओं और आर्थिक तंगी के बावजूद पति हर हाल में परिवार में संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता है। लेकिन पत्नी जिसके मन में संभवत आर्थिक तंगी के कारण पूरे परिवार, विशेषकर पति के प्रति एक अकारण आक्रोश का ज्वालामुखी फुंफकारता रहता है और जहां- तहां फूटकर बरस पड़ने को आतुर रहता है पति , बच्चों सब पर कुढ़ती नजर आती है। कथाकार के शब्दों में कहें तो, "यह वह आदमी था, जिस पर वह एक जमाने में जान देती थी। लेकिन अब वह बदल गया है। वह उसका पति है।" 'लव हेट रिलेशनशिपअर्थात घृणा और प्रेम के मिश्रित भावों का सुंदर निदर्शन‌ इस कहानी में हुआ है लेकिन अंततः एक छोटी सी दुर्घटना के कारण जब पत्नी के प्रति पति का लगाव अभिव्यक्त हो जाता है तो पत्नी के मन में भी आक्रोश के तले बहता प्रेम का झरना फूट पड़ता है और वह उसे छिपाती भी नहीं। पारिवारिक जीवन की ये दोनों कहानियां दो अलग-अलग यथार्थ को हमारे सामने रोसती हुईं किसी नारेबाजी के बावजूद मानवीय प्रेम की बात करती हैं। यहां नैतिकता का दिखावा कहीं नहीं है बल्कि नैतिकता जीवन के साथ इस तरह घुल मिल गई है कि उसे अलग से चिह्नित करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। उसी सहज स्वाभाविक प्रेम और नैतिकता के मिश्रण से ही सामाजिक और  पारिवारिक जीवन का अस्तित्व कायम है, यह बात स्वतः उभर कर साफ हो जाती है। 

अंततः यह बात स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि मुक्तिबोध की कहानियों में मानवीय नैतिकता और सामाजिक नैतिकता जिसे छद्म या थोपी हुई नैतिकता भी कहा जा सकता है के बीच का अंतर साफ- साफ नजर आता है। इसी कारण छद्म नैतिकता और उसकी रूढि़यों पर मुक्तिबोध बेबाक होकर प्रहार करते हैं और मानवीय प्रेम को सहजता से स्थापित करते हुए एक सुंदर सुखद समाज की रचना के लिए सच्ची प्रगतिशीलता को आवश्यक मानते हुए सामाजिक क्रांति की आवश्यकता का सवाल भी उठाते हैं। और ये तमाम मुद्दे या सवाल बड़ी सहजता और बेहद सौम्यता लेकिन पैनेपन के साथ उनकी कहानियों में उठाए गये हैं। वे अंधेरे को चिह्नित करते हुए उसे भेदने की कोशिश लगातार करते नजर आते हैं। कवि आलोचक श्रीकांत वर्मा मुक्तिबोध की कहानियों के इसी पक्ष को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, "मुक्तिबोध की कहानियों की प्रेरणा कहानी का कोई आंदोलन नहीं था। हर रचनाउनके लिएएक भयानक , शब्दहीन अंधकार को -जो आज भीभारतीय जीवन के चारों ओरचीन की दीवार की तरह खिंचा हुआ है-लाँघने की एक और कोशिश थी।"

इस कोशिश में इतनी तीव्रता है कि प्रायः वह कहानियों को बहुत ज्यादा विस्तार नहीं देतेपात्रों की भीड़ इकट्ठी नहीं करते, बस अपनी बात को या विचार के प्रकाश को उजागर करते हुए अंधकार को दूर करने या जिंदगी की अंतहीन गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश करते नजर आते हैं। उनकी बहुत सी कहानियां प्रायः एकालाप या दो पात्रों के मध्य वार्तालाप पर टिकी हुई हैं। 'वहऔर 'मैंजैसे पात्रों की भरमार है। एक ही नाम के पात्र एकाधिक कहानियों में आए हैं जैसे एक कहानी दूसरी का विस्तार है।  जैसे वे विचारों के अंतर्प्रवाह से आपस में गुंथी हुई हों। आत्मालाप कब आत्मालोचन में बदल जाता हैपता ही नहीं चलता। कभी -कभी ऐसा भी लगता है कि कथाकार स्वयं से संवाद करता हुआ पूरी सभ्यता के साथ संवादरत है और  समाज की तमाम गुत्थियोंसमस्याओं पर विचार करते हुए एक राह तलाशने की कोशिश कर रहा है। भावों और विचारों के इसी दबाव के कारण कहानियों के संवादों का वाक्य गठन कभी- कभी थोड़ा असंगत सा भले लगे, जैसे "शांताशांता... मैंने तेरा अपराध किया है।में नैरेटर तेरे प्रति नहीं कहता, पर उसका भाव पाठकों तक संप्रेषित होने में जरा भी अड़चन नहीं आती।  हो सकता है कि मुक्तिबोध की ये कहानियां कहानी विवेचन के तथाकथित फ्रेम या मानदंडों पर फिट न बैठे लेकिन तब यह सवाल भी उठना स्वाभाविक है कि कभी न कभी तो हमें नए मापदंड गढ़ने ही होंगे। और अगर साहित्य की एक परिभाषा यह है कि वह हमें विचारशील और बेहतर मनुष्य बनाता है तो निस्संदेह मुक्तिबोध की कहानियां इस कसौटी पर खरी उतरती हैं।


Friday, August 21, 2020

व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह की पुरज़ोर आवाज़: "अस्थिफूल"

 

2013 से 2019 तक का कोलकाता प्रवास जिन तीन बेहतरीन इंसानों की वजह से मेरे जीवन की अभिन्‍न स्‍मृति हुआ है, उनमें जीतेन्‍द्र जितांशु, नील कमल और गीता दूबे को भुला पाना नामुमकिन है। गीता के व्‍यवहार में बेबाकी प्रमुखता से पाई है। बहुत भरोसे की मित्र हैं गीता दूबे। खुददार हैं। गीता स्‍कॉटिश चर्च कॉलेज, कोलकाता में पढ़ाती हैं। कविताएं लिखती हैं। आलोचनात्‍मक टिप्‍पणियां लिखती हैं। साहित्यिकी संस्‍था में सक्रिय रहती हैं।

हिंदी की दुनिया के सामने यह खुलासा करने पर मुझे गर्व हो रहा है कि मेरे अभी तक के जीवन के अनुभव में इतनी अध्‍ययनशील महिला से यह मेरा पहला ही परिचय रहा। दोस्‍ताने के साथ में अनायास ही जब भी किसी पुस्‍तक की बात होती, मालूम चलता था कि गीता दूबे ने वह किताब पढ़ी हुई है। उनके निजी संग्रह की किताबों से मुझे भी पढ़ने के अवसर मिलते रहे। कथाकार अल्‍पना मिश्र के उपन्‍यास "अस्थिफूल" की यह समीक्षा गीता दूबे ने मेरे ऐसे आग्रह पर की है जबकि पुस्‍तक की हार्ड कॉपी भी मैं उपलब्‍ध न करा सका। उपन्‍यास का पीडीएफ ही उन्‍हें भेज पाया था। उसे उधार के खाते में डाला हुआ है। वह तो भिजवानी ही है।  

वि.गौ.

गीता दूबे

15 अगस्त 1947 को भार आजाद हुआ लेकिन यह आजादी विभाजन के कंधे पर चढ़कर आई। अपने नेताओं की बात को भारतवासियों ने स्वीकार कर लिया कि विभाजन के बिना शायद आजादी का सपना पूरा ही नहीं हो सकता और आजादी की खुशी के रंगों के बीच  विभाजन का बदनुमा दाग  हमेशा अखरता और कसकता रहा। 1947 में विभाजन का जो दुस्वप्न हमने देखा था, वह पहला भले ही था अंतिम बिल्कुल नहीं। उस दिन तो विभाजन की महज शुरुआत हुई थी, तब से देश में लगातार होनेवाले विभाजनों का सिलसिला अब भी जारी है, कभी भाषा, कभी प्रांत, तो अभी जाति के नाम पर। बड़े -बड़े राज्य दो टुकड़ों में बंटकर दो नामों से तो जाने गए लेकिन इससे वह कितना समृद्ध या अशक्त हुए यह एक बहस सापेक्ष प्रश्न है। कुछ बड़े राज्य जिस तरह दो खंडों में बंटे उसी तरह बिहार भी विभाजित हुआ और झारखंड अस्तित्व में आया। उत्साही कार्यकर्ताओं और आंदोलनकारियों ने "धुसका चना, खाएंगे झारखंड बनाएंगे" का जुझारू उद्घोष करते हुए लंबे आंदोलन के बाद झारखंड तो बना ही लिया, साथ ही गर्व से अपने ही बिछड़े भाइयों को चिढ़ाते हुए कहा भी-"रबड़ी मलाई खइलू , कइलू तन बुलंद/ अब खइहा शकरकंद, अलगा भइल झारखंड।" लेकिन खुशी की इस गर्वोक्ति के पीछे आवाज की जो अनुगूंज थी वह आम जनता की नहीं उन ऊंची- ऊंची कुर्सियों पर बैठे हुए नेताओं की थी जिन्हें झारखंड की वन संपदा का दोहन करके अपनी रोटियाँ ही नहीं सेंकनी थी बल्कि उनपर मलाई की गाढ़ी परत भी थोपनी थी जिससे उनके और उनके चहेतों के शरीर और संपत्ति का आयतन  बढ़ता जाए और जिस आम जनता के उत्थान के लिए नया प्रदेश बना था वह भूख भर भात को तरसती हुई तड़प -तड़प कर दम तोड़ दे। जिस वनसंपदा पर झारखंडियों का सहज अधिकार था उससे उन्हें बेदखल कर दिया गया। कभी देश और समाजविरोधी होने का आरोप लगाकर तो कभी कोई नई दफा लगाकर उन्हें जेलों में कैद कर दिया गया। भूख की यह आग इतनी भयंकर थी कि इसमें उनकी जमीन ही नहीं खाक हुई बल्कि उनकी अस्मिता भी भस्म हो गई। परिवार बिखर गया। खुले जंगल में कुलांचे भरनेवाली उनकी बेटियाँ दरबदर हो गईं। रोली की तरह बहुत से बच्चे कुपोषण के कारण असमय ही काल कवलित हो गए। बाहरी लुटेरों ने उन्हें इस तरह लूटा कि उनकी कथाएँ, गीत, सपने कुछ भी बाकी न रहे। घर की लाडली बेटियाँ जिनकी चहचहाटों से घर गूंजता ही नहीं संवरता भी था, जो छोटी सी उम्र में खुद को संभालने से ज्यादा परिवार की खुशियों के बारे में और छोटे भाई बहनों की भूख और उनके भविष्य के बारे में सोच- सोचकर अपने सपनों को बिसार देती थीं, कभी मांसलोभी नरपशुओं को बेच दी गईं तो कभी शहर में नौकरी करने के लिए जाकर शोषण के ऐसे अनवरत चक्र का हिस्सा बनीं कि उसे ही अपनी नियति मानकर उस दलदल से निकलने की बात भी भूल गईं। उन्हें और उनके परिवार वालों को भरपेट भात खिलाने का सपना दिखाकर इस कदर लूटा और चींथा गया कि वह अपने देह, मन और सपनों को ही भुला बैठीं।


1968 में महेश कौल निर्देशित और राजकपूर -हेमा मालिनी अभिनीत एक फिल्म आई थी "सपनों का सौदागरजिसमें फिल्म का नायक अन्य चरित्रों के निराशहताश जीवन और मन में सपनों की फसल बोते हुए उन्हें जिंदगी जीने का हौसला देता हैउनकी खोई हुई खुशियाँ उन्हें वापस लौटाने की कोशिश करता है। लेकिन फिल्मी सच्चाई दुनियावी सच्चाई से अलग होती है। शायद इसीलिए इस उपन्यास ही नहीं देश में भी सपनों के तमाम सौदागर नेताओं या समाज सुधारकों के वेश में घूमते हैं जो लोगों को जीने का हौसला देने के बजाय उनकी बची -खुची उम्मीदें भी उनसे छीन लेते हैं। देश की आम जनता को बार -बार सपनों की यह झूठी फसल बेची जाती है जो न तो उनकी भूख मिटा सकती है न ही उनका जीवन सुधार सकती है। यह झूठा छलावा उनकी जिंदगी को बदरंग करते हुए उनकी आंखों और मन का हर सपना उनसे छीन लेता है । इसके बावजूद जनता बार बार तथाकथित जनसेवकों पर भरोसा करती है और आंखों में उम्मीद का एक सपना सजोने की शर्त पर अपनी जिंदगीअपनी सांसों तक को गिरवी रख देती है। लेकिन धोखाधड़ी की यह साजिश धीरे -धीरे आम लोगों की समझ में आने लगती है और वे इन 'सपनबेचवालोगों को पहचानकर इनसे दूरी बनाने लगते हैं।

अपने ही देश, प्रांत और अपने सुख के लिए बने नये प्रदेश के अंदर निरंतर शोषित होते और वहाँ से बेदखल हो दर दर बिखरते इन तमाम पात्रों की दर्दभरी कहानियों के साथ पूरे देश की धमनियों में लाइलाज कैंसर की तरह पसरते   भ्रष्टाचार और उससे रिसते जहर के साथ उसके शिकार आमजनों की पीड़ा के दंश के तमाम उदाहरणों के साथ शोषण के चक्र के तमाम कोणों को सुविख्यात कथाकार अल्पना मिश्र ने अपने उपन्यास "अस्थिफूल" में बेहद तल्खी के साथ बयान किया है।

असल जिंदगी की परेशानियों और जिल्लतों को कथा के ताने बाने में कसकर, लेखिका देश की वर्तमान स्थिति पर गहरी और आलोचनात्मक दृष्टि डालती हैं। झारखंड, वहाँ का जन जीवन और चुनौतियां भले ही उपन्यास के केन्द्र में हैं लेकिन कथा को विस्तार देती हुई अल्पना में पूरे देश की स्थिति पर अपनी विहंगम दृष्टि डालते हुए उसके हर कोने की समस्याओं को समेटने की भरसक कोशिश करती हैं। इसी तरह स्त्री भी आलोच्य उपन्यास के केन्द्र में भले है लेकिन लेखिका सिर्फ उस स्त्री का ही नहीं बल्कि देश का भी शोषण करनेवाले सरकारी- गैरसरकारी संस्थाओं और कर्मचारियों पर अपनी कलम से प्रहार करते हुए उनके छद्मवेश को छिन्न भिन्न करते हुए उसके वास्तविक स्वरूप को जनता के सामने उजागार करती हैं।

1968 में महेश कौल निर्देशित और राजकपूर -हेमा मालिनी अभिनीत एक फिल्म आई थी "सपनों का सौदागर" जिसमें फिल्म का नायक अन्य चरित्रों के निराश- हताश जीवन और मन में सपनों की फसल बोते हुए उन्हें जिंदगी जीने का हौसला देता है, उनकी खोई हुई खुशियाँ उन्हें वापस लौटाने की कोशिश करता है। लेकिन फिल्मी सच्चाई दुनियावी सच्चाई से अलग होती है। शायद इसीलिए इस उपन्यास ही नहीं देश में भी सपनों के तमाम सौदागर नेताओं या समाज सुधारकों के वेश में घूमते हैं जो लोगों को जीने का हौसला देने के बजाय उनकी बची -खुची उम्मीदें भी उनसे छीन लेते हैं। देश की आम जनता को बार -बार सपनों की यह झूठी फसल बेची जाती है जो न तो उनकी भूख मिटा सकती है न ही उनका जीवन सुधार सकती है। यह झूठा छलावा उनकी जिंदगी को बदरंग करते हुए उनकी आंखों और मन का हर सपना उनसे छीन लेता है । इसके बावजूद जनता बार बार तथाकथित जनसेवकों पर भरोसा करती है और आंखों में उम्मीद का एक सपना सजोने की शर्त पर अपनी जिंदगी, अपनी सांसों तक को गिरवी रख देती है। लेकिन धोखाधड़ी की यह साजिश धीरे -धीरे आम लोगों की समझ में आने लगती है और वे इन 'सपनबेचवा' लोगों को पहचानकर इनसे दूरी बनाने लगते हैं। सुजन महतो, बिरजू, पलाश, इनारा, चंदा, दीपा आदि तमाम पात्रों की आंखों में सुबह के फूल की तरह उगा यह सपना धीरे -धीरे मुरझाता जाता है। हालांकि इन प्रकृतिप्रेमी झारखंडी लोगों के सपने कोई बहुत बड़े नहीं थे। पेट भर भात और अपनी जमीन और जंगल पर स्वतंत्रता से विचरने और वहाँ की प्राकृतिक संपदा का उपभोग करने के साथ ही उसका संरक्षण करने का सपना ही वह देखते थे। लेकिन आंदोलनकारियों ने झारखंड को अलग राज्य बनाने का सपना तो पूरा किया पर वहाँ के मूल निवासियों अर्थात झारखंडियों को अपनी ही जमीन से बेदखल होना पड़ा। जिस किसी ने इसका विरोध किया उन्हें इस तरह बेदर्दी से कुचल दिया गया कि उनके सहज स्वाभाविक जीवन की लय बाधित होकर बिखर गई। बीजू जैसे तमाम बच्चों का परिवार तिनका तिनका ऐसे  बिखरा कि भाई और पिता जब अपनी बिखरी- बिछड़ी, बहन- बेटियों को खोजने निकले तो उनका रास्ता रोकने के लिए तमाम कानूनी अड़चनें खड़ी हो गईं। बहन द्वारा भाई और बेटी द्वारा पिता को पहचान लेना ही काफी नहीं था ,उस पहचान का कानूनी कागज पेश करना भी जरूरी था और भारत जैसे विकासशील देश में साधारण आदमी के लिए ये कानूनी कवायदें कितनी मुश्किल होती हैं यह तो भुक्तभोगी ही जानता है।

उपन्यास झारखंड की वन संस्कृति, आदिवासी संस्कारों और लोककथाओं का वर्णन करता हुआ वहाँ ढोंगी दिकुओं के कब्जे की कहानी भी कहता है। सीधे -सादे वनवासियों के दिलों दिमाग को विकास का सपना दिखाकर तथाकथित उद्धारकर्ता किस तरह फुसलाकर कब्जा लेते हैं यह लेखिका संकेतों और छोटी -छोटी लोककथाओं के माध्यम से बड़ी कुशलता से बयान करती हैं लेकिन लोककथाओं का सहज स्वाभाविक और तयशुदा सुखद अंत वास्तविकता की जमीन पर आकर अपना रूप बदल लेता है। कथा की सोनचंपा न केवल अपने साहस और शक्ति से जंगलवासियों को अभय देती है बल्कि शापग्रस्त राजकुमार की नियति को भी बदल देती है लेकिन वास्तविक कहानियों की वनकन्याओं की नियति बिल्कुल अलग होती है। वह अपनी गरीबी और भुखमरी के शाप से मुक्ति पाने की कोशिश में एक ऐसे यंत्रणा की सुरंग में कैद हो जाती हैं जहाँ से निकलने के सारे रास्ते बंद कर दिए जाते हैं। दुख की नीली नदी में तैरते- तैरते अंततः वह किनारे पर पहुंचने का हौसला भी खो देती हैं। पथराए हुए तन मन के साथ वह अपनी जिंदगी की टूटी फूटी नाव को हवा की मनमर्जी के हवाले कर देती हैं। पलाश और इनारा या फिर रानी सुंदरी जैसी तमाम किशोरियों का जीवन झारखण्ड की बेबस लड़कियों की जिंदगी की सच्ची तस्वीर पेश करता है। आलोच्य उपन्यास मेँ सिर्फ झारखंड नहीं बल्कि संवासिनी गृह में रहने को बाध्य देश के हर हिस्से की लड़कियों की तकरीबन एक समान नियति को दर्शाया गया है। उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में वह सम्मान रक्षा के नाम पर खाप पंचायत के निर्दय फैसले का शिकार होती हैं। संतोष की सहेली को मारकर पेड़ पर लटका दिया जाता है। संतोष जैसी स्त्रियों को परिवार की कृपा से अगर शिक्षा की थोड़ी रोशनी मुहैय्या होती भी है तो उसके पीछे परिवार का स्वार्थ छिपा होता है। यह रोशनी भी उतनी ही मिलती है जिसमें वह किताब बांचकर, डिग्री हासिल करके पैसे कमाने और परिवार को आर्थिक समृद्धि के रास्ते पर बढ़ाने में सक्षम हों। जैसे ही वह किताब बांचने से आगे बढ़ते हुए किताब लिखने या इतिहास बदलने के साथ अपनी इच्छानुसार फैसले लेने के रास्ते पर आगे बढ़ने का हौसला सहेजती हैं वैसे ही उनके पांव के नीचे से जमीन खींच ली जाती है, उनके पर कतर दिए जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद ये औरतें अपने हौसले को टूटने नहीं देतीं। संतोष को अपनी उस सहेली की चीखें चैन से सोने नहीं देतीं जिसकी मदद के लिए वह समय पर नहीं पहुंच पाई थी। इसी कारण वह अपने पास और दूर की हर बेबस और शोषित औरत के साथ बहनापे का तार जोड़ लेती है और भरसक उनकी मदद करने की कोशिश करती है। जब तक उसकी यह परोपकारी सामाजिक छवि परिवार के तथाकथित रूतबे को ऊंचाई तक ले जाती है, परिवार उसकी राह नहीं रोकता। लेकिन जैसे ही वह  समाज की तथाकथित मर्यादित छवि को चुनौती देती है, परिवार उसके परों को कतरकर उसकी उड़ान को बाधित कर देता है। स्त्री "मोलकी" हो या "ब्याही" उसकी नियति में कोई विशेष अंतर नहीं होता। दोनों का दोहन और इस्तेमाल परिवार अपनी इच्छानुसार करता है। औरतें इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार भी करती हैं और सामंजस्य और बर्दाश्त की हदों तक जाकर परिवार की तथाकथित मर्यादा और झूठे सुख और सम्मान को बचाए रखने की भरसक कोशिश भी करती हैं। लेकिन जब हिम्मत जवाब दे जाती है तो संतोष की तरह बगावत का झंडा हाथ में उठाकर निकल पड़ती हैं, सिर्फ अपनी ही नहीं तमाम औरतों की नियति को बदल देने के लिए। इसी तरह तमाम सताई हुई संवासिनी गृह की औरतें अपने मानस को पाषाण सा मजबूत कर अपने मांस को जला तपा नष्ट कर अपनी हड्डियों को हथियार बना लेती हैं ताकि समाज के अत्याचार का सामना कर पाएं। उनकी अस्थियों को मुर्झाए बासी फूलों की तरह  नदी में बहा दिया जाए इसके पहले ही वह अपनी तमाम शक्ति को समेटकर समवेत ढंग से समाज की मान्यताओं और उसके शोषण का मुकाबला करने का संकल्प लेती हैं। लेखिका इन तमाम ब्योरों के माध्यम से समाज की तमाम महिलाओं को यह संदेश देती हैं कि अगर उन्हें अपनी उन्नति का रास्ता प्रशस्त करना है तो अपनी एकजुटता को बनाए रखना है। पुरुषतांत्रिक समाज औरत को औरत की दुश्मन बनाकर उन्हें एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करके , लड़ाते हुए बंदर की तरह उनके झगड़ों का फैसला करता है और औरतें उसके फैसले को नतमस्तक होकर स्वीकारती हुई अपनी अस्मिता के सवाल को भूल जाती हैं। जब तक स्त्रियां इन हथकंडों को पहचानकर सतर्क नहीं होंगी उनकी स्थिति और नियति में बदलाव नहीं आएगा। अल्पना अपने उपन्यास की स्त्री पात्रों को एकजुटता का महत्व समझाती हुई संगठित होकर लड़ने और जूझने का मंत्र देती हैं।

आलोच्य उपन्यास में झारखंडी संस्कृति और उसकी विशेषताओं को पूरी समग्रता से उभारा गया है और वह सांस्कृतिक पहचान किस तरह तथापि आधुनिकीकरण और छद्म विकास के नाम पर योजनाबद्ध ढंग से धीरे धीरे धूमिल कर दी गई इसे लेखिका ने सूक्ष्मता से अंकित किया है। जिस आदिवासी संस्कृति को सम्मानपूर्वक जीवित रखने के लिए सिधू कानू जैसे लोकनायकों ने अपनी जान की बाजी लगा दी थी वही भूमि अपने सौंदर्य और स्वातंत्र्य को  खोकर किस तरह दोहन का शिकार होती है उसके संकेत भी स्थान -स्थान पर मिलते हैं। बाद की पीढ़ी के बहुत से आंदोलनकारी जो अपनी जमीन और अस्मिता की लड़ाई में अपने प्राणों तक की परवाह न करते हुए दर -दर भटकने को मजबूर हुए उन्होंने अपनी आंखों के आगे अपने आंदोलन को लक्ष्यभ्रष्ट होते और जमीन से जुड़े लोगों को बर्बाद होते हुए भी देखा। बीजू जैसे स्थानीय लोगों के सवालों का कोई जवाब इन जननेताओं के पास नहीं था क्योंकि उनके आंदोलन को बड़ी चालकी से 'हाईजैक' कर लिया गया था। स्थानीय लोगों को उनकी ही जमीन और प्राकृतिक संसाधनों से इस तरह बेदखल कर दिया गया था कि कभी आत्मसम्मान की लड़ाई लड़नेवाले अपने घर का सम्मान तक बचाने में असमर्थ हो गये थे। जिस तरह आदिवासी लोककथा का पिता हल के फाल के लिए बाघ के साथ अपनी बेटी के मांस का सौदा कर लेता है उसी तरह झारखण्ड जैसे हरे भरे प्राकृतिक परिवेश में रहनेवाले बेबस पिता अपने पेट की भूख के लिए अपनी बेटियों का सौदा झूठे ब्याह के नाम पर करके, यह सोचकर अपने मन को तसल्ली दे लेते थे कि बेटी जहाँ भी रहेगी सुख से रहेगी और कम से कम भूखे पेट तो नहीं सोएगी। भले ही वह बेटी वहाँ तिल तिलकर मरने को अभिशप्त हो। जिसे सिर्फ शारीरिक भूख मिटाने और अपने सम्मान को बढ़ाने का माध्यम मात्र माना जाए। खरीदने में जितना अधिक धन व्यय हुआ खरीददारों का अहम उतना ही ऊंचा हुआ। और इन बहुओं को पुकारने का तरीका भी कितना अमानवीय था, "मोलकी" अर्थात मोल ली गई, खरीदकर लाई गई। और एक "मोलकी" परिवार के तमाम पुरुषों की भूख शांत करने को मजबूर। उसपर तुर्रा यह कि भले ही अपने प्रांत में लड़कियों का अकाल हो, लेकिन अपने घर में बेटी नहीं पैदा होनी चाहिये। सिर्फ बेटे को ही जन्म लेने का अधिकार है भले ही उसके इंतज़ार में असंख्य बेटियों का गला कोख में ही घोंट दिया जाए। इनारा जैसी औरतें गर्भपात कराते कराते मरणासन्न हो जाती है, साथ ही देश के कई हिस्सों में स्त्री- पुरुष के बीच का आंकड़ा लगातार विषम होता जाता है।

इस उपन्यास की एक बड़ी खासियत है कि इसमें सिर्फ झारखंड , वहाँ के बिखरते परिवार, रोजगार विहीन पुरुष और शोषित प्रताड़ित स्त्रियों की कथा ही नहीं है बल्कि देश के वर्तमान परिदृश्य की अस्थिरता, राजनीतिक भटकाव और भारतीय राजनीति की मूल्यहीनता के साथ प्रशासन में अंदर तक पैवस्त भ्रष्टाचार , अमानवीयता और मूल्यहीनता को गहराई से उकेरा गया है। ऐसा नहीं कि सारे लोग बुरे हैं , कुछ लोग इस सिस्टम की सफाई करने की कोशिश भी करते हैं लेकिन या तो उनका स्थानांतरण कर दिया जाता है या फिर हत्या। आंदोलनकारियों को नक्सली बताकर जेल में ठूंस देने से लेकर उनपर अवर्णनीय अत्याचार करने और अंततः उनकी हत्या या एनकाउंटर कर देने की घटनाएं सिर्फ इतिहास में ही नहीं घटती थीं, आज भी घटती हैं और आनेवाले समय में इनमें और बढ़ोत्तरी होगी, इसके संकेत हमें उपन्यास में मिलते हैं। सोनी सोरी की याद दिलाती मणिमाला सोरी या बहनजी का दर्दनाक हश्र स्थानीय निवासियों को ही नहीं पाठकों को भी हतप्रभ कर देता है। पुलिसकर्मियों की दरिंदगी भी सिर्फ चौंकाती नहीं मानस को क्षत विक्षत कर देती है जो रक्षक की पोशाक में भक्षक बनकर रिश्तों और कर्तव्य की भी हत्या करते दिखाई देते हैं। जिन स्कूली बच्चियों ने उनकी कलाई पर बड़े स्नेह और भरोसे से राखी बांधी थी उन्हीं की अस्मिता को तार -तार करते हुए इन नरभक्षकों को जरा भी अपराध बोध नहीं होता। ऐसी घटनाएं असली जिंदगी में भी देखने/ सुनने में आती  हैं। शायद यही कारण है कि तमाम कानून बनने के बावजूद अपराध कम होने का नाम ही नहीं लेते।

  देश की वर्तमान स्थिति को विश्वसनीयता से पाठकों के सामने उकेरती हुई अल्पना विकास की राह पर तेजी से बढ़ते देश के चमचमाते गौरव चिह्नों के ठीक नीचे पसरते नारकीय बाजार की भयावहता को भी  रेखांकित करती हैं जहाँ कुछ लोग खरीददार थे तो कुछ बिचौलिए जिनके बलबूते बाजार लगातार जमता और चमकता जाता है तो कुछ लोगों की नियति महज बिकने को मजबूर सामानों की है। इस बाजार में सब कुछ बिकता है, ईमान भी। भले ही आजाद भारत में गुलामी की प्रथा का अंत हो गया हो और गुलामों की खरीद फरोख्त भी लेकिन भारत की छोटी बड़ी मंडियों में यह सिलसिला खुलेआम जारी है, इसकी झलक आलोच्य उपन्यास में भी मिलती है-

"कितनी टोकरियों में मनुष्य के अंग बिक रहे हैं....

एकदम ताजा किडनी

ताजा लीवर

धड़ धड़ धड़कता दिल

टक टक ताकती आंखें...

टटका दिमाग....

टह टह ताजे सपने

टोकरियों में सपने बिक रहे हैं....!

ताजे फूल - !

शवयात्राओं से उठा कर लाए गए फूल...

लोग उसे सजा रहे हैं

अपने घरों में !!!"

 

 अल्पना अगर इन भयावह स्थितियों का जीवंत वर्णन करती  हैं उनसे मुक्ति या स्थितियों के बदलाव की ओर भी संजीदगी से संकेत करती हैं। एक ओर जुझारू वकील और स्त्री अधिकारों के लिए लड़नेवाली संध्या और उसकी दीदी पद्मजा स्थितियों को बदलने की कोशिश में लगी हुई हैं। उनपर हमले होते हैं, शरीर घायल और अपंग हो जाता है लेकिन हिम्मत बनी रहती है और संघर्ष जारी रहता है। दूसरी ओर शोषित स्त्रियों को संगठित होकर अपनी लड़ाई खुद लड़ने का हौसला भी दिया गया है। अस्सी के दशक में स्त्री आंदोलनकारियों के बीच एक नारा बहुत जोर -शोर से गूंजा था-  "हम भारत की नारी हैं फूल नहीं चिंगारी हैं।"

ठीक इसी तरह उपन्यास की शोषित और मजलूम औरतें स्थितियों को बदल डालने का संकल्प लेती हैं और अपनी कमजोरी से मुक्ति पाकर शोषण के अनवरत चक्र को समाप्त करने के लिए विद्रोह की मशाल जलाने का साहस करती हैं। वह ठान लेती हैं कि असहाय स्त्रियों को बेचने -खरीदने के सिलसिले को हर हाल में बंद करके रहेंगी और अपनी गुलामी से अपने दम पर मुक्ति पाएंगी-

" टोकरी में बिकने को बैठी पलाश इनारा पिंकी गनेशी...गोल भवन की सीढ़ियों पर अपने जिस्म की खाल को नोंच नोंच कर अलग कर रही हैं... मांस को खुरच खुरच कर फेंक रही हैं। अपनी हड्डियों को नुकीला कर रही हैं....वहाँ बहुत से गिद्ध जो इनके जिस्म को नोंच नोंच कर खाने को आतुर थे, अब वे भयभीत हैं। उनकी आंखों में वासना की लहरें नहीं, बल्कि लड़कियों के अपनी हड्डियों से हथियार बना लेने के इरादे से खौफ छा गया है।

लड़कियों ने अपने जिस्म से खाल और मांस नोंचकर हड्डियों से हथियार बना लिया है । वे इन हथियारों की बदौलत अपने सपनखोरों के साथ जंग को तैयार हैं।।"

रोते हुए शिशुओं और संसद के बीच पल पल दूरी कम होती जा रही है।"

देवासुर संग्राम में ऋषि दधीचि की हड्डियों से बने वज्र से देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर नामक राक्षस का वध किया था लेकिन व्यवस्था के खिलाफ एकजुट इन स्त्रियों को किसी देवराज की आवश्यकता नहीं है। अपने हथियारों के साथ वह उस हर तथाकथित देवता, इंसान या राक्षस पर धावा बोलने को तैयार हैं जिसने उनसे और उनके बच्चों से सम्मान सहित जीने का हक छीन लिया है। हर व्यक्ति को अपने अधिकारों की लड़ाई खुद लड़नी पड़ती है और आलोच्य उपन्यास की शोषित और संतप्त औरतें भी अपने बच्चों को उनका प्राप्य दिलाने के लिए, उनके रुदन को मुस्कान में बदलने के लिए उनका हाथ थामकर लंबी पर निर्णायक लड़ाई के लिए सनद्ध हो जाती हैं।