Thursday, November 25, 2021

बदलते दौर में बदलते रिश्तों और संवेदनाओं की कहानियाँ : "रिश्तों के शहर"

 




गीता दूबे


कहानी को परिभाषित करते हुए एक आलोचक ने लिखा था, "Story is a slice of life" अर्थात कहानी जिंदगी का एक टुकड़ा है, पूरी जिंदगी नहीं। कहानी जिंदगी या समय के किसी विशेष कालखंड, स्थिति विशेष या घटना या फिर अनुभव पर आधारित होती है। हर रचनाकार अपने अलग- अलग जीवनानुभवों पर बहुत बार एक जैसी कहानियाँ लिखता है अथवा एक ही तरह के प्लॉट पर अलग -अलग शैली, शिल्प या सरोकारों की कहानियाँ लिखता है। एक दौर में यह प्रयोग भी चला था कि समकालीन कथाकार एक ही प्लॉट का चयन करके, उसपर कहानियाँ लिखते थे और कहानी अपनी बुनावट और बनावट में प्रायः एक दूसरे से अलग होती थी। वस्तुतः किसी भी घटना को देखने, समझने और व्याख्यायित करने का हर रचनाकार का अलग नजरिया होता है और उसी नजरिए के कारण कहानी अलग दिशा में मुड़ती दिखाई देती है। इसी के साथ ही यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठ खड़ा होता है कि क्या एक ही कालखंड में रचना करनेवाले एक ही देश के भिन्न- भिन्न जाति, धर्म या लिंग के रचनाकारों का जिंदगी के टुकडों को देखने का अलग नजरिया नहीं हो सकता। हालांकि आज के दौर के बहुत से आलोचकों का यह मानना है कि लेखन, लेखन होता है, उसे अलग -अलग खाँचों में बाँटना सही नहीं है लेकिन अगर इस बात को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया गया तो साहित्य के बहुत से विमर्श खुद ब खुद खारिज हो जाएँगे। जब एक स्त्री  लिखती है तो जिस तरह उसके अनुभव किसी भी पुरूष रचनाकार से जुदा होते हैं उसी तरह उसक वर्णन शैली और भाषा भी अलग होती है। शायद इसीलिए मजाज लिखते हैं -
"तेरे माथे पे ये आँचल, बहुत ही खूब है लेकिन, तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।"
और जब एक शायरा अना देहलवी लिखती हैं तो की तकलीफ़ कुछ स तरह बयां होती है -
"फूलों क काँटों प चलना पड़ता है, इश्क में जीना इश्क में मरना पड़ता है।
औरत बनकर रहना कोई खेल नहीं, सूरज बनकर रोज निकलना पड़ता है।"
शायर ँच को परचम बनाने का संदेश जरूर देता है पर उस मुश्किल सफर से औरत को ही गुजरना होता है और  इसकी चुनौतियों को वही बखूबी समझ भी सकती है और दुनिया के सामने रख भी सकती है शायद यही कारण है कि किसी भी लेखिका का लेखन पुरूष लेखन से थोड़ा सा ही सही, जुदा जरूर होता है। संभवतः इसीलिए हर लेखिका के लिए यह बड़ी चुनौती होती है कि वह अपने इस तथाकथित कच्चेपन से (दुनिया की नजरों में) या औरताना लेखन से जल्द से जल्द किस तरह मुक्त हो पाए। हालांकि स्त्री लेखन की अपनी विशेषता है और वह जरा भी कमतर नहीं है, भले ही कतिपय प्रतिष्ठित आलोचकों के लिए वह रोजमर्रा का रोना- धोना या सोना- होना से कुछ ज्यादा हो। अब यह विशेषता तो स्त्रियों में होती ही है कि वह अपने रोने को भी अपनी रचनात्मकता से साध कर सुर -ताल में बाँधकर मार्मिक और कर्णप्रिय गीत में बदल देती हैं, जिसे दुनिया सदियों तक याद रखती है।
ऐसी ही एक कवि- कथाकार हैं निर्मला तोदी, जिनके ताजा कहानी संग्रह "रिश्तों के शहर" में स्त्री जीवन की कहानियों के साथ अलग आस्वाद और अनुभवों की कहानियाँ भी संकलित हैं। एक स्त्री रचनाकार जब रचने और कहने बैठती है तो अपने निजी जीवन के दुख- सुख, सफलताओं या असफलताओं की कहानियाँ ही नहीं कहती बल्कि अपने निकट और दूर के लोगों के जीवन को भी सूक्ष्म दृष्टि से देखती- परखती हुई  उन्हें अपनी कहानियों में बड़ी सहजता से ढाल लेती है। यही एक रचनाकार का कमाल होता है कि वह अपने द्वारा भोगे या झेले हुए यथार्थ को ही नहीं, दूर या पास से देखे हुए यथार्थ को भी इतनी शिद्दत से बया करता है कि उसके द्वारा लिखी गई कहानियाँ उसकी अपनी जिंदगी की सच्ची कहानियों सी महसूस होने लगती है निर्मला तोदी के पहले कहानी संग्रह की सारी सही लेकिन कुछ कहानियों का कथ्य ही नहीं शिल्प भी इतना सधा हुआ है कि उन्हें पढ़ते हुए कहीं भी यह अहसास नहीं होता कि निर्मला जी ने कहानी लेखन के जगत में अभी अभी पग धरे हैं। संग्रह की सबसे खूबसूरत और परिपक्व कहानी की बात करूं तो अनायास ही शीर्षक कहानी "रिश्तों के शहर" पर दृष्टि केन्द्रित हो जाती है। बदलते दौर में कहानियों के रंग और मिजाज के साथ उनके कहन का ढंग और शैली किस तरह से बदल रही है, उसका खूबसूरत उदाहरण है, यह कहानी। इसमें मूल कथा भले ही एक है लेकिन उस कथा को कहानी के मुख्य तीन किरदार अपनी- अपनी तरह से कहते, बुनते या आगे बढ़ाते है। कहानी में इस तरह का प्रयोग एकदम नया नहीं है। हिंदी कथा साहित्य के क्षेत्र में इस तरह के प्रयोग पहले भी हुए हैं। सुधा अरोड़ा ने अपने कहानी संग्रह "बुत बोलते हैं" में एक ही प्लॉट को तीन अलग- अलग अंदाज में पेश किया है या फिर मृदुला गर्ग के उपन्यास "बिसात : तीन बहनें तीन आख्यान"  में एक ही प्लॉट पर, तीन अलग-अलग रचनाकारों अर्थात मृदुला जी और उनकी दो बहनों मंजुल भगत और अचला बंसल ने अपने- अपने अंदाज में कथा बुनी है। राजेंद्र यादव क उपन्यास "एक इंच मुस्कान" भी तो उनके और मन्नू जी द्वारा संयुक्त रूप से िखा गया था। "रिश्तों के शहर" में मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरु, इन तीनों शहरों को न केवल रिश्तो की डोर से आपस में जोड़ा गया है बल्कि यहाँ रहने वाले अलग-अलग किरदारों की जिंदगी और उनके बीच में उलझे हुए रिश्तो की डोर को सुलझाने की कोशिश भी हुई है परिवार संयुक्त हो या एकल, हर कहीं रिश्ते आपस में उलझते जरूर हैं लेकिन इस कहानी में एक उम्मीद की लौ दिखाई देती है जिससे उन के सुझाव की कोई ना कोई राह निकल ही आती है। इसे सिर्फ इसलिए आधुनिक कहानी नहीं कह जा सकत क्योंकि इसमें एक आधुनिक परिवार की विडंबना, उसका बिखराव, उसक टूटन के चित्रण के साथ उसपर पसरी हुई कड़वाहट और बिछी हुई निराशा की गहरी चादर का चित्रण गहराई से हुआ है, बल्कि इस मायने में आधुनिक कह जाना चाहिए कि यह नयी पीढी के प्रति हमारी पारंपरिक सोच को पूरी तरह से बदल कर रख देती है। जिन बच्चों या युवाओं को हम बिल्कुल नासमझ समझते हैं और सोचते हैं कि नयी पीढ़ी बिल्कुल बिगड़ी हुई है तथा उसे रिश्तो की कोई परवाह नहीं है, उसका एक सकारात्मक चेहरा इस कहानी में नजर आता है। नासमझ बच्चे अपने परिवेश के दबाव में, रिश्तों की उलझन में उलझ कर बेहद समझदार और परिपक्व हो जाते हैं कभी- कभार माता-पिता को भी पता नहीं चलता कहानी की दो मा जायी धी बहनें जिन्हें अंग्रेजी में half-sisters कहा जाता है, अनीशा और मिस्टी, न केवल अपने माँ की उलझनें सुलझा देती हैं बल्कि दूर-दूर तक बिखरे हुए अपने परिवार को और नई पीढ़ी के अपने भाई- बहनों को पुनः एक साथ जोड़ कर एक नया परिवार बना लेती हैं, ाँ पुरानी कोई कड़वाहट बाकी नहीं बचती रिश्तो में कोई उलझाव या अवसाद नहीं बचत बल्कि रिश्ते बेहद मधुर हो जात हैं माँ ने पारिवारिक समस्यों में उलझ कर, जीवन से हताश हो उदासी की चादर ओढ़ने के बावजूद चेहरे पर एक नकली खुशी का मुखौटा लगा रखा था, जिसे उसकी संवेदनशील बेटियाँ अपनी समझदारी से नोच कर फेंक देत हैं और नकली मुस्कुराहट को असली में बदल देती हैं। वस्तुत:  संबंधों को लेकर जो उलझनें पिछली पीढ़ी के मन में होती थीं या टूटे हुए रिश्तों से उपजी जिस कड़वाहट को पुरानी पीढ़ी वर्षों तक ढोती रहती थी, नयी पीढ़ी उसे मिठास में भले ही न बदल सके लेकिन कोशिश जरूर करती है कि बीच का कोई रास्ता जरूर निकल आए और रास्ता निकल भी आता है। इन उलझनों को सुलझाने में एक बड़ी भूमिका सोशल मीडिया ने भी निभाई है जो दूरियों को इस तरह चुटकियों में पाट देती है कि दूरी का अहसास मिट जाता है, दूरी भले न मिटे। यह कहानी नयी पीढ़ी के भटकाव या बिखराव का रोना नहीं रोती, उनकी समझदारी और संवेदनशीलता को चिह्नित करती है।

और जब यह नई पीढ़ी बदलती है तो उस बदलाव का सकारात्मक असर पुरानी पीढ़ी पर भी होता है। शायद इसी कारण आयशा की माँ उसके भविष्य को एडजस्टमेंट या समझौते से उत्पन्न निराशाजन्य  अँधेरे में डूबने नहीं देती बल्कि उसके सामने उम्मीद का एक ऐसा सूरज उगाने का निर्णय लेती है जो उसकी सारी निराशा और हताशा को लीलकर उसे एक नयी जिंदगी जीने का हौसला दे। (अंधेरे को निगलता हुआ सूरज) हालांकि इस तरह की घटनाएँ अपवादस्वरूप ही घटती हैं, अन्यथा अब भी तथाकथित आधुनिक माएँ भी अपनी पढ़ी- लिखी स्वावलंबी बेटियों को पति के साथ एडजस्ट करने की सलाह देती ही नजर आती हैं, बाद में भले ही बेटी अवसाद ग्रस्त हो जाए या आत्महत्या ही क्यों ना कर ले और तब कुछ भी करने को बाकी न रहे। लेकिन इस कहानी का एक सकारात्मक पक्ष यह है कि आयशा के लिए मायके का दरवाजा बंद नहीं होता, वही दरवाजा जिसे खुला रखने की सलाह सुधा अरोड़ा अपनी कविता में देती हैं -
"बेटियों को जब सारी दिशाएं
बंद नजर आएं
कम से कम एक दरवाजा
हमेशा खुला रहे उनके लिए।"
रिश्तों की और भी कई खूबसूरत कहानियाँ इस संग्रह में शामिल हैं जिनका कथ्य और कहन कहन की शैली वैविध्यपूर्ण है। वस्तुतः आलोच्य संग्रह की तमाम कहानियाँ, मानवीय रिश्तों, संपर्कों और संवेदनाओं की कहानियाँ हैं। कहीं ये रिश्ते आपस में इतने उलझ जाते हैं कि उनके सुलझने की कोई गुंजाइश नहीं दिखाई देती और उसमें छटपटाती  हुई आत्मा उससे मुक्ति का रास्ता तलाशने लगती है।"आई एम मी" कहानी की शैलजा भी अपने वैवाहिक जीवन की एकरसता से मुक्त होकर अपने अस्तित्व या "मैं" की तलाश में निकल पड़ती है। एकदम किसी आधुनिक फंतासी कथा की नायिका की तरह, एक दिन अचानक वह अपने दोस्तों की भीड़ से गायब हो जाती है। बहुत दिनों के बाद किसी एक दिन, अप्रत्याशित रूप से जब वह अपनी प्रिय सखी से मिलती है, तब अपने आपकी उसकी तलाश पूरी हो चुकी थी। उसने अपने जिंदगी में घुट- घुट कर मरने और निःशेष हो जाने की जगह खुल कर जीने का विकल्प चुना और अपने शर्तों पर अपनी खुशी हासिल करने में सफल हुई। जरूरी नहीं कि वह सफल होती ही, कुछ साल पहले की कहानियों में शायद उसकी नियति विमल मित्र के उपन्यास "साहब बीबी गुलाम" की छोटी बहू की तरह होती जो घर की अन्य बहुओं की तरह गहने तुड़वाने और बनवाने में ही खुशी नहीं ढूंढ सकती थी या फिर संपन्न घर में एक सामान की तरह नहीं रह सकती थी और इसीलिए अपने पति की सच्ची संगिनी बनने की चाह में अपने विलासी जमींदार पति के हाथों ही मृत्यु को प्राप्त होती है। लेकिन शैलजा अपना रास्ता चुनती भी है, उसपर चलती भी है और अपनी मंजिल भी हासिल करती है। यही वह परिवर्तन का बिंदु है जिसे लेखिका रेखांकित करती हैं। यह कहानी मात्र स्त्री विमर्श की कहानी नहीं  है बल्कि मानव मुक्ति की कहानी भी है जिसमें अपने बंद परिवेश में छटपटाता हुआ आदमी अपनी सुख संपन्न जीवन की बंधी बंधाई लीक को छोड़कर, बंधनों को तोड़कर, निकल पड़ता है, अपने लिए एक नया रास्ता ढूँढने, एक नयी मंजिल की तलाश में।
बचपन में जो रिश्ते मन पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं, आजीवन हमारे सोचने- समझने के ढंग को प्रभावित करते हैं, इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण "ग्राफोलॉजी" में गहराई से हुआ है। किसी भी व्यक्ति का बचपन बहुत महत्वपूर्ण होता है। उसके अंदर संस्कारों की नींव बचपन में ही पड़ जाती है। मानव मन की बहुत सी गांठें ऐसी होती हैं जो उसका बचपन उसके मन में टांक देता है और वह ताउम्र उन गांठों या उलझनों को लिए -लिए फिरता है। मानसी के साथ भी ऐसा ही होता है। बचपन में घटी घटनाएँ, मां को मिली उपेक्षा और उसके पीछे निहित कारण अर्थात "वह" की छाप उसके जीवन को निर्णायक मोड़ देती है। वह जब कुछ लिखती है तो कहीं हाशिए की जगह या खाली स्थान नहीं छोड़ती क्योंकि बचपन का दुस्वप्न हमेशा पीछा करता है कि कहीं उस खाली जगह को कोई कब्जा ना ले। ग्राफोलॉजिस्ट से मिलने और उन अवांक्षित गांठों के खुलने के बाद वह अपनी आदत को बलपूर्वक बदलती है।  "नीले फूलोंवाली गुलाबी साड़ी" भी ऐसी ही कहानी है जिसमें तीन बहनों में से मंझली बहन अपने बचपन की अवांछित स्मृतियों और दुस्वप्नों को याद करती हुई घर के अन्य अवांछित सामानों की तरह, उन्हें अपने स्मृति मंजूषा से निकाल बाहर फेंकने का निर्णय लेती है। जिस तरह फालतू सामान घर में सकारात्मक उर्जा की आवक को बाधित करते हैं, ठीक उसी तरह नकारात्मक विचार भी मनुष्य के मानस को रुग्ण बना देते हैं और उनसे मुक्ति ही जीवन को सही दिशा दे सकती है। बहुधा देखा जाता है कि बेटियाँ अपने पिता से बहुत ज्यादा जुड़ी होती हैं या उनके प्रति अधिकार बोध से भरी होती हैं, इतनी ज्यादा कि अपनी माँ के अतिरिक्त किसी दूसरी स्त्री से उनकी जरा भी निकटता बर्दाश्त नहीं कर पातीं। यह कहानी ऐसी ही एक लड़की के मानसिक उधेड़बुन की कहानी है जो अपने किशोर मन की सारी आशांकाएँ अपनी विवाहित बड़ी बहन से साझा करना चाहती है, उससे ढेर सारे सवाल पूछने के लिए चिट्ठियाँ लिखती हैं लेकिन वे चिट्ठियाँ कभी भेजी ही नहीं जातीं। उसके मानस को नीले फूलोंवाली गुलाबी साड़ी के आँचल की संदेहपूर्ण सरसराहट व्यथित करती रहती है लेकिन उम्र के एक परिपक्व पड़ाव पर आकर वह इन आशंकाओं से मुक्त होकर सहज जीवन में रम जाती है। यह कहानी किशोर वय की लड़की की मानिसक उथल- पुथल और उसकी बेचैनी को बड़ी ही गंभीरतापूर्वक बयान करती है।
प्रायः यह मान लिया जाता है कि स्त्री रचनाकार सिर्फ स्त्री की ही बात कर सकती है लेकिन समकालीन साहित्य की बहुत सी सशक्त लेखिकाओं ने इस लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर नये क्षितिजों की तलाश की है। निर्मला तोदी भी स्त्री मन की बात तो बखूबी करती हैं लेकिन तकरीबन उसी दक्षता के साथ अन्य विषयों पर भी कलम चलाती हैं और अपने आस- पास के परिवेश के अन्य किरदारों की कथा भी सहजता से बयां करती हैं। "हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता एक स्त्री के उस दर्द को तो गहराई से उकेरती है जहाँ वह तथाकथित सामाजिक नैतिकता की रक्षा हेतु अपने ही हाथों अपनी संतान का गला घोंटने को बाध्य की जाती थी। कुंती ने तो अपनी संतान को जन्म देने के बाद कलेजे पर पत्थर रखकर त्याग दिया था लेकिन आधुनिक माएँ आधुनिकीकरण की बदौलत अपनी ही संतानों को कोख से निष्कासित कर देती हैं और इसे बेहद सहज स्वाभाविक और दस मिनट में निपटा दिया जानेवाला काम माना जाता है। यह एक स्त्री की पीड़ा ही नहीं है पूरे समाज का दुख या विडंबना है जिसमें "एक माँ दूसरी माँ को माँ बनने से रोक" देती है क्योंकि वह अविवाहित मातृत्व की पीड़ा और दुष्परिणामों से परिचित ही नहीं है, उसके भय से व्यथित भी है। ऐसी तमाम अजन्मी संतानें अपनी -अपनी व्यथा कथा इस कहानी में साझा करती हैं। यह कहानी सिर्फ स्त्री की पीड़ा को ही नहीं उकेरती, समाज की थोथी मान्याताओं और कुंद होती नैतिकता पर भी जोरदार प्रहार करती है। मानव जीवन के कुछ ऐसे वर्जित प्रदेशों पर भी लेखिका अपनी कलम चलाती हैं, जिनपर लोग चर्चा करने से बचते हैं। हालांकि समलैंगिकता को अब कानूनी स्वीकृति मिल चुकी है लेकिन सामाजिक स्वीकृति अब भी दूर दूर ही है। लोग अभी भी न केवल इस पर खुलकर बात करने से कतराते हैं बल्कि इसे अपराध भी मानते हैं और इसी वजह से ऐसे कई स्त्री पुरुषों को स्वाभाविक या प्राकृतिक जिंदगी देने के नाम पर, बेमेल बंधन में बाँध दिया जाता है, जहाँ वह ताउम्र छटपटाते रहते हैं या फिर सामाजिक लोकलाज के भय से रिश्तों को निभाते हैं। "पहली और आखिरी चिट्ठी"  की माँ ऐसे ही एक अनमेल बंधन में बंधकर जीती तो है लेकिन फिर उससे निकल आने का साहस भी करती है और चिट्ठी लिखकर अपने बेटे के समक्ष आत्मस्वीकार भी करती है "मुझे शादी नहीं करनी चाहिए थी, मेरे बच्चे (पृ 117)
निर्मला तोदी की कहानियों में परिवर्तनशील समय की बहुत सी घटनाएँ कहानियों की शक्ल में ढलकर इस तरह दर्ज हुई हैं कि ये तमाम कहानियाँ स्त्री मन और जीवन में क्रमशः आनेवाले महत्वपूर्ण बदलावों को ही शिनाख्त नहीं करतीं बल्कि समाज में उसके प्रति बदलती सोच को भी दर्शाती हैं। मूलतः ये कहानियां एक स्त्री की कहानियाँ हैं, उसी स्त्री की कहानियाँ जो अपने सुख दुख के बारे में बाद में सोचती, कहती या लिखती है, पहले अपने परिवार की समस्याओं, तकलीफों और संघर्षों के बारे में सोचती और लिखने की कोशिश करती है। यह बात और है कि बहुत बार उसकी पहुँच परिवार और समाज के बहुत से पात्रों या लोगों के अहसासात तक नहीं हो पाती। यह उसकी विशिष्टता भी है और सीमा भी। उदाहरण के लिए "रिश्तों के शहर" की कथा कहानी की तीन स्त्री पात्रों की मुँहजबानी बड़ी रवानी से आगे बढ़ती है लेकिन पुरूष पात्रों विशेषकर एक पात्र का पक्ष अवर्णित ही रह गया है। यह लेखिका का अपना चयन हो सकता। यह बात और है कि एक और कहानी में वह इस सीमा का अतिक्रमण करती हुई दिखाई देती हैं जहाँ वह पुरूष मन की कथा भी उसी सहजता से बयां करती हैं। मै"...इन थोड़े से शब्दों में"  एक ऐसे व्यवसायी की कहानी है जो जीवन के साठवें पड़ाव पर बच्चों के अनुरोध पर अपनी आत्मकथा लिखने की कोशिश में अपने अतीत के एलबम के पन्ने पलटता है। वस्तुतः यह एक ऐसे सफल व्यवसायी का बयान या आत्मस्वीकार है जिसने अपने जीवन में संघर्ष के साथ एक मुकाम तो हासिल किया लेकिन बहुत कुछ पीछे छोड़ आया। वह अपने संघर्षों और उपलब्धियों के साथ विचलनों के बारे में भी खुलकर लिखता है। यहाँ निर्मला तोदी बेहद कुशलता से कहानी के मुख्य चरित्र में परकाया प्रवेश कर, उसकी कथा को बेबाकी से बयान करती हैं।
निर्मला जी की कहानियों की एक खूबी यह भी है कि वह बेहद सहज भाषा में सरलता के साथ अपने पाठकों से संवाद करती हैं। भाषा के साथ शिल्प को सायास दुरूह बनाने की कला को बहुत से आधुनिक कथाकार जिस कौशल से साधते हैं, उसका निर्मला जी में अभाव है और यही उनकी विशेषता या पहचान है। पाठक उनकी कहानियों में अनायास ही रम जाता है और उन्हें पढ़ते हुए उसे यह अहसास होता है कि वह अपने टोले- मोहल्ले के जाने -पहचाने किरदारों की कथा पढ़ रहा है।

रिश्तों के शहर, कहानी संग्रह, निर्मला तोदी, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2020, मूल्य- 299

Sunday, October 17, 2021

एक तीर से दो निशाने

 

पिछले दिनों अनिल कुमार यादव और अखिलेश विवाद के बाद मैंने फेसबुक पर दोनों से ही असहमत होते हुए एक पोस्‍ट लगाई थी। मित्रों ने कमेंट किये। बहुत से मित्र संदर्भ को पकड़ नहीं पाये। कुछ ने संदर्भ पकड़ लिया था। मेरा अनुमान है कि संदर्भ न पकड़ पाने वाले मित्रों में निश्चित ही दो तरह के लोग हैं। एक वे, जो वाकई अनजान थे और दूसरे वे जो संदर्भ से वाकिफ होते हुए भी चाहते रहे होंगे कि मैं स्‍पष्‍ट तरह से कुछ कहूं। हालांकि उनके लिए भाई शशिभूषण बडूनी के कमेंट का जवाब देते हुए मैंने एक इशारा छोड़ दिया था। खैर, जो फिर भी नहीं समझ पाये तो मैं अब इस उधेड़बुन में नहीं पड़ना चाहता कि वे वाकई नादान थे, या वे मेरे पक्ष को स्‍पष्‍ट जानने के लिए कुछ कह रहे थे। वैसे एक दिलचस्‍प वाकया भी घटा था, मीना चुग नाम की कोई एक पाठक (जिसका नाम उससे पहले मैंने कभी नहीं जाना),  जो संदर्भों से पूरी तरह वाकिफ रही, कुछ मित्रवत संवाद में अनिल कुमार यादव का पक्ष लेते हुए जरूर आयीं। लेकिन अफसोस की संवाद समाप्ति पर उस श्रृंखला का अब कोई कमेंट मेरी पोस्‍ट पर नहीं दिख रहा। और खोजने पर मीना चुग नाम की उस प्रोफाइल को ढूंढना संभव नहीं हो रहा।संभवत: छद्म नाम की उस प्रोफाइल के पीछे कोई करीबी मित्र ही होना चाहिए। चूंकि पोस्‍ट के मूल में वह सिर्फ अनिल कुमार यादव का विरोध देख रही/रहे थी/थे, इसलिए उन्‍हें मेरे जवाबी कमेंट सिर्फ अनिल कुमार यादव के विरोध में ही दिख सकते थे। लिहाजा जरूरी हो गया कि मुझे खुलासा कर देना चाहिए कि मेरा पक्ष आखिर क्‍या है।

 

सर्वप्रथम तो यह स्‍पष्‍ट है कि लम्‍बे समय तक खामोशी का प्रकरण, जिसे लेखक अनिल कुमार यादव ने एक पत्रिका 'तदभव' के संपादक अखिलेश के विरुद्ध दर्ज किया, मैं उसे हिंदी की दुनिया (पत्र पत्रिकाओं सहित अन्‍य जगहों पर भी) के भीतर व्‍याप्‍त अलोकतांत्रिक और गैर पेशेवर मानता हूं और इस बिना पर पत्र पत्रिकाओं के संपादकों के व्‍यवाहर में उस चेहरों को देखता हूं जिसका अक्‍श अकसर ब्‍यूरोक्रेटिक व्‍यवाहर वाला रहता है। लेकिन अनिल कुमार यादव के स्‍वर में जो विरोध मुझे दिखता है, उसके चेहरे को इससे भिन्‍न भी नहीं पा रहा हूं। यानी, इसे दो ब्‍यूरोक्रेट के बीच के झगड़े से भिन्‍न नहीं मान रहा हूं। दिक्‍कत यह है कि दोनों ही अपने-अपने कारण से मुझे पसंद हैं और दोनों से ही असहमति है।

थोड़ा विस्‍तार में कहने से पहले स्‍पष्‍ट करता चलूं कि संपादकों के अलोकतांत्रिक, गैरपेशेवर और ब्‍यूरोक्रेटिक व्‍यवाहर के बावजूद अकार, पहल (अब बंद हो गई), तदभव, हंस, कथादेश, परिकथा, समयांतर आदि कुछ हिंदी पत्रिकाएं मेरी पहली पसंद है। सवाल यह नहीं कि एक लेखक के रूप में मैं इनमें से किसी में कभी प्रकाशित हुआ, या, नहीं। उसके पीछे सीधी वजह है कि ये ऐसी पत्रिकाएं हैं जिनसे मुझे देश, दुनिया को देखने की तमीज मिलती रही है और मिलती रहती है। साथ ही यह भी कहना चाहता हूं कि कंटेट की खूबियों के बावजूद हिंदी की अलोकतांत्रिक दुनिया का असर इन पत्रिकाओं में भी भरपूर है। जिनमें कंटेट ही न भाये, उनके बाबत तो क्‍या ही कहूं, उनकी अलोकतांत्रिकता तो उस कारण भी दिख जाती है।

संपादकों का गैरपेशेवर व्‍यवाहर और झूठी अकड़ इनमें प्रकाशित होने वाली सामाग्री के संग्रह करने के तरीकों और उनके चयन में बरती गई व्‍यवाहरिकता को इतना अपारदर्शी बनाये रहती है कि एक आम पाठक उस प्रक्रिया को कभी भी और कहीं से भी, नहीं जान सकता। अपने सीमित अनुभव से कहूं तो लेखक और संपादक के बीच एक हद तक व्‍यक्तिगत संबंध ही वहां प्रभावी रहता है। रचना के आमंत्रण की बहुत औपचारिक सी घोषणा के बावजूद प्रकाशन के लिए रचना के चयन में संपादक-लेखक संबंध ही महत्‍वूपर्ण हो उठता है। इन सब स्थितियों की मार हमेशा उस रचनाकार पर पड़ती है जो नया-नया लिखना शुरु कर रहा है, या जो व्‍यक्तिगत संबंधों को बनाने में उतना माहिर नहीं, या उस तरह के व्‍यवाहर से परहेज रखता हो। जबकि वातावरण के झूठ से तैयार किये जा चुके 'स्‍टार' लेखकों के लिए छपना-छपाना कभी कोई प्रश्‍न ही नहीं रहता। जिसका जो 'गुट' वह हमेशा वहां का प्रका‍शित लेखक। बल्कि इतनी सहज स्थिति कि बेशक अभी किसी रचना का विचार भर कौंधा हो, और अपने 'प्रिय' संपादक से लेखक ने जिक्र भर कर दिया हो, तो अगले अंक में रचना की घोषणा हो चुकी होती है। जबकि पहले से रचना भेजा हुआ कोई अनाम/संकोची रचनाकार संपादक की स्‍वीकृति के इंतजार में सालों गुजारते हुए रहता है। ऐसे में 'स्‍टार' लेखक क्‍यों नहीं फिर अतिमहत्‍वाकांक्षाओं के झूले पर झूलें। वह दम्‍भ जो एक संपादक के भीतर है, वे उसे ही क्‍यों न वहन करें।

अनिल कुमार यादव के विरोध से मेरा विरोध का कारण उनके इस अंदाज में ही है। क्‍योंकि वहां भी संपादकीय अलोकतांत्रिकता का सवाल निजी वजहों की उपज है। खुद अनिल बताते हैं कि संपादक ने उनसे प्रकाशन के लिए कुछ मांगा। अब वह किंही कारणों से, मांगे जाने के बाद भी ताजे-ताजे प्रकाशित हो चुके अंक में नहीं दिखा होगा तो उनके अहम को जो चोट लगी, उसे संपादक सहलाये भी नहीं तो यह तो नहीं चलेगा। और फिर जो हो सकता था हुआ। उस होने का भी अपना मजा तो यह है न कि अतिमहत्‍वाकांक्षाओं के झूले की पेंग बढ़ाना और भी आसान है! एक तीर से दो निशाने। 'अलोकतांत्रिक' संपादक की हेकड़ी भी निकल जाये और ऐसा प्रचार भी हो जाये कि प्रकाशित होने से पहले ही अपना लिखा 'चर्चा' में आ जाये। क्‍योंकि हिंदी में पुस्‍तक प्रकाशन भी तो उसी गैरपेशेवराना अंदाज का खेला है, जहां चयन की प्रक्रिया का मानदण्‍ड रचना से नहीं, अकसर किंही अन्‍य वजहों से ही रंगा हुआ है।