Wednesday, August 24, 2022

तर्क संगत पाठ

किसी रचना का पाठ कैसे किया जाए, बहसों के दौरान यह बात उस वक्त बहुत शिद्दत से सामने आती है, जब कोई स्थापित रचना बदले हुए संदर्भों में आलोचना के दायरे में होती है. हिंदी में दलित साहित्य की आहट के वक्त को याद कीजिये, कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी कफनपर किस तरह से सवाल उठे थे? याद कर सकते हैं कि विवाद की हद तक जाती बहस में पक्ष एवं विपक्ष के तर्क कहानी के पाठ को लेकर ही थे. दलित जीवन की चिंताओं को अपना पक्ष मानने वाली धारा जहां अपने पाठ से कफन को दलित विरोधी होने आरोप लगा रही थी, वहीं हिंदी की प्रगतिशील धारा का पक्ष कथाकार प्रेमचन्द के सम्पूर्ण रचनाकर्म की रोशनी में ही आलोच्य कहानी को भी पढे जाने की बात कर रहा था. दलित धारा के पक्ष क़ो एक हद तक तर्कपूर्ण मानने वालों के सामने संकट ज्यादा गहरा था कि वह संतुलित बात कैसे रखी जाए जिससे आलोचना के दोनों खेमें एक सहमति का पाठ तैयार करने की ओर बढ़े. लिहाजा प्रगतिशील धारा के पक्ष को ही अपना पक्ष मानते हुए ऐसे समूह इस तर्क के साथ थे कि कहानी का पाठ कहानी के रचनाकाल और उस समय की सामजिक राजनैतिक चेतना को ध्यान में रखते हुए ही किया जाना चाहिए. विवाद के थमने में इस तीसरे पक्ष की भूमिका ही एक हद तक प्रभावी रही और इसके साथ ही न-नुकूर करते हुए हिंदी के आचर्यों को दलित धारा की रचनाओं की संवेदना को दलित साहित्य के रूप में स्वीकरना पड़ा.

परिकथा के ताजे अंक (जुलाइ-अगस्त/ सितम्बर-ओक्टूबर 2022) में प्रकाशित कथाकर शिवेंदु श्रीवास्तव की कहानी व्यूहको पढने के बाद ये बातें एकाएक ध्यान आयी. सुरक्षित भविष्य की चाह रखते हुए एक अदद सरकारी नौकरी को पा जाने की सुखद कल्पनाओं वाली यह कहानी उस वक्त लिखी और प्रकाशित हो रही है, जब सरकारी नौकरी के ऐसे ठिकाने एक एक करके निगमीकृत किये जा रहे हैं. निगमीकरण के तहत बदल रही सेवा शर्तोँ वाली इस प्रक्रिया के दौर को देखें तो कार्पोरेटिय मंशाओं के उदघाटित हुए वे सच भी दिखने लगेंगे जिससे यह समझना मुश्किल नहीँ रह जाता है कि कल्याण्कारी राज्य की कल्पना वाली शासन व्यवस्था किस रह ध्वस्त होती जा रही है. विशेष रूप से अपने शीर्षक के कारण अर्थवान हो रही यह कहानी अपने अंदाज से पाठक को अपने आस पास बदल रही दुनिया का सच दिखा रही है. दया, करुणा के साथ मद्दगार दिखने वाली निजी पूंजी के झूठ एवं षडयंत्रों को आसानी से देखना सँभव हो, लेखकीय चिंताओं का यह सच ही इस कहानी का ज्यादा तर्क संगत पाठ है.      


शिवेंदु श्रीवास्तव भारतीय वन सेवा से सेवानिवृत्त हैं
, एवं भोपाल मेँ रहते हैं. वानिकी में पी.एच-डी., शिवेंदु के अध्य्यन का क्षेत्र जैव विविधता रहा है. हिंदी साहित्य की दुनिया उनके मिजाज को विशेष रूप से प्रभावित करती रही हैं. अपने क्षेत्र जैव विविधता उनका गंभीर लगाव है, इस तरह के विषय पर प्रकाशित उनकी पुस्तक का शीर्षक है,  “Commercial Use of Biodiversity: Resolving the Access and Benefit Sharing Issues” . यह पुस्तक वर्ष 2016 में  सेज प्रकाशन से प्रकाशित है। 

कविता और कहानी विधाओं में समान रूप से दखल रखने वाले रचनाकार शिवेंदु श्रीवास्तव  की प्रकाशित रचनाओं के अड्डे वागर्थ,  नया ज्ञानोदय, वसुधा, पहल, दस्तावेज, कथादेश, परिकथा, वसंत मालती, कहन आदि रहे हैं.

कविता संग्रह ’’यहां से इस तरह’’ बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित है़. कहानियों की किताब अति शीघ्र सामने आए, शुभकामनाएं रचनाकार को।

प्रस्तुत है शिवेन्दु श्रीवास्तव की कहानी व्यूह.  

विगौ 

कहानी

शिवेन्दु श्रीवास्तव


व्यूह

 



आई.टी.आई. पास करने के बाद छोटेलाल महीने भर अपने माता-पिता के साथ गांव में रहा, उसके बाद नौकरी की खोज में वह शहर आ गया। गांव के बड़े पंडित जी की बड़ी बिटिया कृष्णा इसी शहर में रहती थीं। छोटेलाल को उन्होंने सहारा दिया और एक कमरे का आश्रय मिलते ही उसने अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को साथ लाकर रख लिया। 

यों छोटेलाल की उम्र मात्र बाइस वर्ष थी, परंतु माता-पिता ने ब्याह जल्दी कर दिया था और ब्याह के बाद दो साल में ही उसके दो बच्चे भी हो गए थे। छोटे परिवार का नया चलन देखते हुए उसने सरकारी अस्पताल में जाकर पूर्ण विरामका आपरेशन भी करवा लिया था। उस समय वह गांव के पास वाले कस्बे में आई.टी.आई. में प्रवेश ले चुका था और दीन-दुनिया से वाकिफ हो रहा था।

कृष्णा बिटिया किस्मत वाली थीं। पति भारत सरकार के एक सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम मंे ऊंचे ओहदे पर आसीन, बड़ा-सा बंगला, बाग-बगीचा, नौकर-चाकर, गाड़ी, सब कुछ था, परंतु वे कुछ रचनात्मक करना चाहती थीं, खाली बैठे रहना पसंद नहीं था। बच्चों को स्कूल भेजने के बाद से लेकर उनके स्कूल से लौटने के बीच का वक्त वे किसी बौद्धिक कार्य में लगाना चाहती थीं। उन्होंने काशी में अपने चाचा के घर पर रहकर हिन्दू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। उनके चाचा संस्कृत के प्रोफेसर थे और उनकी सोहबत में उनके अंदर भी पढ़ने-पढ़ाने की रूचि जग गई थी। लिहाजा, समय गुजारने के लिए उन्होंने बच्चों का एक स्कूल खोल लिया था।

छोटेलाल स्वभाव से अत्यंत सीधा-सादा, विनम्र, मितभाषी और सदा मुस्कुराने वाला व्यक्ति था। वह ईमानदार, परिश्रमी और लगनशील भी था। उसे सहारा देने वाली श्रीमती कृष्णा चतुर्वेदी, एम.ए. (संस्कृत), बी.एड., प्राचार्या, सरस्वती बाल निकेतन ने उसके समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि जब तक उसे नौकरी नहीं मिलती, क्यों न वह उन्हीं के स्कूल में बच्चों की देखभाल करने का काम कर ले, वहीं पर रहते हुए वह चतुर्वेदी साहब के उपक्रम में भी काम पा सकता है, जगह होने पर।

छोटेलाल को यह प्रस्ताव भा गया और वह सरस्वती बाल निकेतन में बच्चों की देखभाल का काम करने लगा। वह चौकीदार, चपरासी, माली इत्यादि सभी का काम कर लेता था पर उसका काम करने का तरीका और सभी के प्रति व्यवहार कुछ ऐसा था कि पूरे स्कूल में कोई उसे चपरासी या चौकीदार नहीं मानता था। हर कोई उसे छोटेलालबुलाता था। स्कूल के बच्चे उसे भैयाकहकर पुकारते थे।

स्कूल के पिछले हिस्से में एक कमरा उसे श्रीमती चतुर्वेदी, उसकी कृष्णा दीदी ने दे दिया था। कभी-कभी किसी त्यौहार या बच्चों के जन्म-दिन आदि मौकों पर बुलाए जाने पर वह उनके बंगले पर भी जाने लगा। धीरे-धीरे उसे लगने लगा, कृष्णा दीदी उसका और उसके बच्चों का इतना ध्यान रखती हैं, अगर उसे इसी शहर में कहीं नौकरी मिल जाए तो वह दिन में नौकरी करेगा और सुबह-शाम स्कूल भी देखता रहेेगा। स्कूल से उसे महीने के महज़ चार हजार रूपए मिलते थे, हालांकि रहने के लिए कमरा और बगैर फीस के बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था से काफी राहत थी। उसने रोजगार दफ्तर में अपना नाम दर्ज करा लिया था। कहीं किसी खाली जगह का विज्ञापन दिखता अखबार में तो उसके लिए भी आवेदन पत्र डाल देता था।

दिन पर दिन आराम से बीतने लगे और साथ में पक्की नौकरी के लिए उसकी तलाश भी चलती रही। उसके जान-पहचान वाले उसे कोसते कि वह कैसा आदमी है, इतने बड़े इंजीनियर के घर आना-जाना है और उसे मन लायक एक नौकरी नहीं मिल रही है। छोटेलाल पर इस उलाहने का कोई असर न होता। उसे लगता, किसी और से कहकर नौकरी पाना खुद की तौहीनी होगी। मुझे अपनी शिक्षा के हिसाब से नौकरी तो मिल ही मिलेगी, देर-सबेर, यही सोचकर उसने किसी से सिफारिश नहीं की थी।

उसने सुन रखा था कि कुछ लोगों ने रिश्वत देकर नौकरी हासिल की है लेकिन ऐसा करना उसके उसूल के खिलाफ था। यह भी एक सच्चाई थी कि उसके पास रिश्वत देने के लिए धन भी नहीं था।

देखते-देखते वह अट्ठाईस साल का हो गया। ज्यादातर नौकरियों में आयु सीमा तीस वर्ष की होती है। तीस पार करने के बाद वह नौकरी के लिए बूढ़ा हो जाएगा। जो कुछ उसने आई.टी.आई. में सीखा था, सब भूल जाएगा। लेथ मशीन पर उसके सधे हुए हाथ, जो लोहे के नाम पर केवल स्कूल का गेट और ताला ही छू पाते हैं, लोहे की पहचान ही भूल जाएंगे। अब कुछ न कुछ करना होगा, यह विचार उसके मन में आने लगा।  

इस बीच चतुर्वेदी साहब की फैक्टरी में मेंटिनेंस डिपार्टमेंट में एक मेकैनिक की जगह खाली हुई। अखबार में देखते ही छोटेलाल ने झट आवेदन पत्र भेज दिया और यह सोचकर कि यह अवसर कहीं हाथ से न निकल जाए, उसने अपने उसूल ताक पर रखे और कृष्णा दीदी से सिफारिश करने के लिए मौका देखकर उनके पास पहुंच गया। कृष्णा दीदी स्कूल की छुट्टी के बाद अपनी कार में बैठने जा रही थीं। छोटेलाल लपक कर पहुंचा। कृष्णा दीदी के बच्चे सरस्वती बाल निकेतन में नहीं, शहर के कन्वेंट में पढ़ते थे और उनका ड्राइवर पहले बच्चों को कन्वेंट से लेता, फिर कृष्णा दीदी को लेने सरस्वती बाल निकेतन आ जाता।  

बच्चों को प्यार करते हुए उन्होंने छोटेलाल की ओर प्रश्नसूचक आंखों से देखा। छोटेलाल की नजर ड्राइवर पर पड़ी। वह छोटेलाल की ओर मुस्कुराकर देख रहा था। छोटेलाल को झेंप-सी लगी और उसने इतना ही कहा, ’’कृष्णा दीदी, कुछ काम था। शाम को घर पर आता हूं।’’

’’ठीक है,’’ उन्होंने कहा, ’’पांच बजे आना।’’ उनके बच्चों को घर जाने की जल्दी मची रहती थी इसलिए वे तुरंत कार में बैठ कर निकल गईं।

उनके बंगले तक साइकिल से जाने में घंटे भर का समय लगता था। छोटेलाल ठीक पांच बजे पहुंच गया। पहुंचते ही उसने सकुचाते हुए कहना शुरू किया, ’’कृष्णा दीदी, साहब की फैक्टरी में मेकैनिक की जगह निकली है। मैंने भी फार्म भर दिया है। कुल मिलाकर बारह हजार रूपये तक तनख्वाह बनेगी। कई साल निकल गए, अभीतक कहीं काम मिला नहीं। अगर आप साहब से कह देतीं तो ........’’

उसकी बात सुनकर कृष्णा दीदी के मन में यह विचार आया, कि बारह हजार की नौकरी के लिए इसके पास योग्यता तो है, जबकि मेरे यहां चार हजार रूपये में स्कूल की देखभाल का बेगार कर रहा है। इसके चले जाने पर स्कूल और बच्चों को कौन देखेगा? उन्होंने बड़े प्यार से कहा, ’’क्यों छोटेलाल, यहां मेरे पास तुम्हें कोई तकलीफ है? अपना स्कूल छोड़कर चले जाओगे?’’

’’नहीं दीदी,’’ छोटेलाल बोल पड़ा, ’’मैं रहूंगा यहीं पर और फैक्टरी से बचे समय में मैं स्कूल का काम कर दिया करूंगा।’’ उसे भय लगा, कहीं कृष्णा दीदी उसे कृतघ्न न समझती हों। 

उसकी बात सुनकर कृष्णा दीदी ने दिलासा देने वाले स्वर में कहा, ’’तुम्हें आगे तो जाना ही है छोटेलाल, तुम ऐसा करना, किसी रोज साहब घर पर होंगे तब आ जाना, मैं साहब से बात कर लूंगी।’’

छोटेलाल चलने को हुआ तो उन्होंने कहा, ’’रूको, चाय बन रही है, पी कर जाना।’’ 

चाय की बात सुनकर वह एक कोने में खड़ा हो गया। कृष्णा दीदी अंदर चली गईं। जाते-जाते वे सोचने लगीं - नौकरी की तलाश में ही तो आया था यह मेरे पास, और मैंने इसे अपने स्वार्थ में स्कूल में जोत दिया। कल को इसे नौकरी मिल गई तो यह मेरे पास क्यों रूकेगा? मुझे देख-परख कर एक-दो ढंग के चपरासी लगा लेना चाहिए था अब तक। दो दाईयां हैं, एक तो ठीक है पर दूसरी भरोसे वाली नहीं है। क्या करूं? कहां से ढूंढूं इसके जैसा दूसरा आदमी, जो दिनभर बच्चों की निगरानी करे, इतने प्यार से, खाली समय में माली का काम करे और रात की चौकीदारी भी कर ले? यह सही है कि मैंने इसे रहने की जगह दी है, बच्चों की पढ़ाई, स्कूल की ड्रेस आदि पर इसको कुछ नहीं खर्च करना पड़ता, फिर भी, है तो यह आई.टी.आई. पास, कितने दिन टिकेगा मेरे पास?  

भीतर किचन में पहुंच कर उन्होंने बिस्किट और नमकीन निकाल कर ट्रे में रख दिया और चाय बना रहे नौकर से बोलीं, ’’चाय के साथ यह बाहर छोटेलाल आया है, उसे दे देना।’’ फिर वहीं डाइनिंग टेबुल पर बैठकर सोचने लगीं, यह इतना परखा हुआ आदमी है, मायके के गांव का है। क्या कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि किसी तरह यही मेरे स्कूल में बना रहे? इसे कुछ ऐसा दिलासा दे दें कि कल को हमारे स्कूल में दसवीं-बारहवीं तक कक्षाएं बढ़ीं तो इसे साइंस लैब में लैब असिस्टेंट बना देंगे? जब तक चार भरोसे वाले साथ में नहीं होंगे तबतक स्कूल संभालना मुश्किल होगा और अब मेरा स्कूल अच्छा चल रहा है, कल को मैं वाकई और कक्षाएं बढ़ाने की सोच सकती हूं। ठीक है, इसके हित का भी ध्यान रखूंगी।  

कृष्णा दीदी ने दुनियादारी अपने अनुभवों से सीखी थी और इसमें वे निपुण थीं। इस मामले में छोटेलाल भोला था। वह चाय पीने के बाद थोड़ी देर रूका रहा कि चतुर्वेदी साहब अभी आ गए तो उनसे भी बात कर लेगा। लेकिन अंधेरा होने तक चतुर्वेदी साहब नहीं आए तो वह वापस लौट आया।

दो दिन बाद रविवार था। छोटेलाल शाम चार बजे कृष्णा दीदी के घर फिर पहुंच गया। उसे देखते ही कृष्णा दीदी ने कहा, ’’अरे छोटेलाल, तुम बड़े मौके से आए। आज शंकर नहीं आया है, तुम जरा बाजार से सब्जी ला देना।’’ 

छोटेलाल तुरंत झोला लेकर बाजार चल दिया। बाजार से सब्जी लेकर वह लौटा और रास्ते भर यही सोचता रहा, वह साहब से कैसे क्या कहेगा। लौटने पर उसने देखा, साहब बाहर बरामदे में बैठे थे। वह पीछे आंगन के रास्ते चला गया सब्जी का झोला अंदर रखने के लिए, फिर बाहर आया। सामने आकर उसने नमस्ते किया, तो चतुर्वेदी साहब ने पूछा, ’’हां, छोटेलाल ! ठीक हो ?’’

’’जी, साहब जी।’’ बस इतना ही बोल पाया छोटेलाल, और चुपचाप किनारे खड़ा हो गया। तभी कृष्णा दीदी बाहर आईं, जिन्हें देखकर वह वहां खड़े रहने के लिए कुछ आत्मविश्वास जुटा सका। चतुर्वेदी साहब बहुत बड़े पद पर हैं, साल दो साल में जीएम बनने वाले हैं। उनसे अपनी छोटी-सी नौकरी के लिए वह कैसे विनती करे, इसी ऊहापोह में था, कि कृष्णा दीदी ने उसकी नौकरी की बात छेड़ दी। 

बात छिड़ गई, तब उसने अपनी पूरी बात कह दी, कि आई.टी.आई. में उसे प्रथम श्रेणी मिला था, लेथ मशीन पर उसने विशेष योग्यता हासिल की है, विज्ञापन में लेथ मशीन के पर्याप्त अनुभव और अभ्यास वाले को प्राथमिकता देने का उल्लेख है, उसके पास इंटर्नशिप का सर्टिफिकेट है, और यह भी कि बारहवीं तक उसने विज्ञान और गणित पढ़ रखा है। 

चतुर्वेदी साहब ने बड़ी सादगी से कहा, ’’जब इंटरव्यू के लिए बुलाया जाए तो एक रोज पहले मुझे याद दिला देना।’’ 

छोटेलाल आश्वस्त होकर लौट आया। उसकी नौकरी की चिंता थोड़ी कम हुई। जल्दी ही इंटरव्यू का बुलावा आ गया। उसने जाकर कृष्णा दीदी को बताया। इंटरव्यू की तारीख नजदीक आने लगी तो वह जी-जान से तैयारी करने लगा। पुरानी किताबें निकालकर उसने एक-एक बार दोहरा लीं। अपने हाथों की ओर वह नजरें भर-भर कर देखता - ये सधे हाथ फिर मेहनत करेंगे, लोहा पकड़ेंगे, लोहा तराशेंगे और कल-पुर्जे बनाएंगे। इन हाथों के कमाल से इतनी बड़ी फैक्टरी चलेगी। क्या-क्या वह सोचने लगा। मशीनों से उसकी पहचान कमजोर तो नहीं होने लगी? नहीं, एक बार मशीन पर पहुंचा, तो फिर से हाथ सध जाएंगे। उसे रेलवे के लोको शेड में अपने दो महीने के इंटर्नशिप के दिन याद आए। सुपरवाइजर ने उससे कहा था, ’’तेरे हाथ तो बड़े सधे हुए हैं!’’ 

इंटरव्यू के एक रोज पहले छोटेलाल ने कृष्णा दीदी को याद दिलाया, कि साहब से बताना है। कृष्णा दीदी ने उससे उसका नाम, पिता का नाम, जन्म तिथि, पता वगैरह और साथ में पद का नाम और कोड लिखवाकर ले लिया, साहब को देने के लिए।  

अगले दिन वह इंटरव्यू दे आया। इंटरव्यू अच्छा रहा, जो भी सवाल पूछे गए, सभी के उत्तर उसे मालूम थे। कुछ सवाल सामान्य ज्ञान के भी पूछे गए थे। उनके जवाब भी उसे मालूम थे। परंतु इस बार भी किस्मत तो साथ छोड़ ही गई, सिफारिश भी काम नहीं आई। दशहरे के पहले परिणाम आने की संभावना थी, पर दशहरा बीत गया, दीवाली पास आने लगी। 

मन में आया था, वह कृष्णा दीदी से ही परिणाम पूछेगा, परंतु किसी अचीन्हें भय के कारण उनसे न पूछ कर स्वयं ही उसने फैक्टरी के उपक्रम के मुख्यालय में जाकर परिणाम पता किया। आज से छः साल पहले जब वह आई.टी.आई. से निकला था, नकारात्मक परिणाम सुनकर अधिक दुखी नहीं होता था। ताज्जुब की बात है, कि आज भी वही परिणाम सुनकर वह जैसा आते समय था, वैसा ही शांत रहा। अधिक दुख उसे आज भी नहीं हुआ। हां, निराशा अवश्य हुई। उसने सोच लिया, अब इसी सरस्वती बाल निकेतन में चार हजार की नौकरी करते हुए यह जीवन गुजार देना है।

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दीवाली की शाम को उसे कृष्णा दीदी के बंगले पर जाना था। दोपहर में उन्होंने खबर भिजवाई थी कि सभी नौकर छुट्टी पर हैं, इसलिए शाम को थोड़ी देर के लिए जरूरत पड़ेगी। छोटेलाल निस्पृह भाव से जा पहुंचा बंगले की ड्यूटी पर। ड्राइंग रूम में मेहमान लोग बैठे थे। छोटेलाल किचन में कृष्णा दीदी की मदद करता रहा। बाद में खाली कप आदि उठाने के लिए ट्रे लेकर ड्राइंग रूम में गया तो उसे देखकर अचानक चतुर्वेदी साहब को जैसे कुछ याद आया। उन्होंने पूछा, ’’अरे, छोटेलाल! तुम्हारा इंटरव्यू कब है?’’  

छोटेलाल ने आश्चर्य से उनकी ओर देखा। इससे पहले कि वह कुछ जवाब देता, कृष्णा दीदी ही तपाक से बोल पड़ीं, ’’अरे, आप भी कैसे भुलक्कड़ हैं? कोई महीना भर हो गया। आप से मैंने बात की, आप ही ने तो कहा था कि जीएम साहब का कोई आदमी है, इसलिए छोटेलाल का इस बार नहीं हो सकेगा।’’

चतुर्वेदी साहब दो-एक पल अपनी पत्नी की ओर देखते रहे, फिर एक समझदार पति की तरह बोल पड़े, ’’हां, हां। याद आया। फिर कोशिश करना।’’

छोटेलाल जब वहां से चलने लगा, तो कृष्णा दीदी ने उसे पटाखों-फुलझड़ियों का एक बड़ा सा पैकेट दिया उसके बच्चों के लिए और साथ में अपने बच्चों के छोड़े हुए पर अच्छी हालत में कुछ खिलौने भी दिए। छोटेलाल ने वह सब यों ले लिया, जैसे बीते हुए कल और आज के बीच में कुछ घटित न हुआ हो। उस दीवाली की रात वह अपने कमरे पर लौटा, बच्चों को पटाखे दिए और बच्चों की खुशी में खुश हो गया।

दीवाली की छुट्टियों के बाद पहली तारीख को स्कूल खुला। कृष्णा दीदी सुबह-सुबह स्कूल पहुंचीं तो पाया कि स्कूल की सफाई हमेशा की ही तरह हुई है। उनका कमरा हमेशा की तरह चमक रहा है, एक सप्ताह की छुट्टी का कोई नामो-निशान तक नहीं। मेज पर ताजा फूलों का गुलदस्ता, साफ चमकता पानी भरा गिलास, साफ धुले फिल्टर की सतह पर एक-दो पानी की बूंदें - हां, ताजा पानी भरा गया है। 

वे कमरे से निकल कर बाहर आईं। नोटिस-बोर्ड से छुट्टियों की सूचना उतर चुकी थी, नया टाइम-टेबुल उन्होंने जैसा बताया था, लग गया था। गमलों की ओर नजर गई तो पाया कि एक भी पौधा मुर्झाया नहीं था। टहलते-टहलते वे पार्क की ओर गईं। कुछ बच्चे झूला झूल रहे थे। झूला, स्लाइडिंग शूट, सी-सॉ, सभी को छूकर मुआयना किया, सभी साफ पोंछे गए थे। बच्चों के कपड़े गंदे नहीं होंगे। छोटेलाल बहुत काम का आदमी है। पर वह है कहां?

तभी उन्हें दूर से भागता हुआ छोटेलाल नजर आया। पास आकर पहले की ही तरह हंसते हुए नमस्ते किया और कहा, ’’स्टोर में हथौड़ा नहीं मिल रहा था दीदी, कमरे तक चला गया था हथौड़ा लेने। ऊपर पांचवीं कक्षा में नक्शा गिर गया है, ठोंकना है।’’  

कृष्णा दीदी उसकी ओर देखती रहीं। कितना निश्छल इंसान है, कितना लगलशील। उस रोज चतुर्वेदी साहब ने हां-हां कहने में इतनी देर लगा दी, क्या समझा होगा इसने? क्या पता, इसकी किस्मत साथ दे जाती? तब तो मैं नहीं रोक सकती थी। फिर कौन बच्चों की और स्कूल की वह देखभाल करता, जिसके लिए मुझे पूरे शहर में गौरव हासिल है? बच्चों को बच्चा समझने की शक्ति कितनों में है? कहां से मैं ढूंढ़ूंगी दूसरा छोटेलाल?

उन्होंने कहा, ’’ठीक है जाओ, नक्शा लगाकर आ जाना।’’  

पार्क का मुआयना करते हुए उन्हें दीवाली वाले दिन की घटना याद आ गई और मन क्षोभ से भर गया। छोटेलाल के जाने के बाद उन्हें लगा था कि पति से कह दें कि वे छोटेलाल के बारे में बताना ही भूल गई थीं, लेकिन कुछ बोलीं नहीं - उन्हें जो सोचना होगा, वे सोचेंगे ही। अक्सर वे मुझे कहते भी रहते हैं कि अपने स्कूल को लेकर मैं बहुत स्वार्थी हो जाती हूं। उन्हें अगर सफाई देती तो सोचते कि मैं स्कूल के हित में अब उनसे झूठ भी बोलने लगी हूं। इसलिए जो समझना हो, समझें, मैं अब इसमें कर ही क्या सकती हूं?  

उन्हें बीती घटनाएं याद आने लगीं - पिछले महीने दूसरी कक्षा के लड़के ने कक्षा में सीट पर बैठै-बैठे टट्टी कर दी थी। दूसरे बच्चों के साथ ही उनकी शिक्षिका उषा भी नाक-भौं सिकोड़ कर कोने में ऐसे खड़ी हो गई थी, जैसे छः-सात साल के बच्चे ने कोई खून, कोई जुर्म कर दिया हो। मॉनिटर भेज कर मुझे बुलवाया था, कि सुक्खी दाई को मैंने छुट्टी दे दी है, अब इस समस्या का समाधान निकालूं। दुक्खी दाई, जिसका असली नाम रामसखी था, ऐसा कोई काम आते ही छिटक कर भागती थी। तभी छोटेलाल आ गया था। उसने बच्चे को गोद में उठाया, अपने कमरे पर ले गया, उसकी पत्नी ने बच्चे की निकर धो दी और दूसरी निक्कर पहनाकर मिनटों में बच्चे को वापस कक्षा में बिठा दिया। ऐसे सरल व्यक्तित्व को छोड़ना भी मुश्किल है और उसे अच्छी नौकरी पर न जाने देना भी तो अनुचित है, उसके प्रति अन्याय है।

वे एक बार फिर एक अंतर्द्वंद में घिर गईं, जिससे निकलने की राह नहीं सूझ रही थी। पार्क से निकल कर वे प्रार्थना स्थल पर आ र्गइं। प्रार्थना खत्म हुई, कक्षाएं प्रारंभ हो गईं, वे अपने कमरे में आकर बैठ गईं, पर उन्हें यह भावना उद्वेलित करती रही कि वे छोटेलाल के प्रति अन्याय कर रही हैं। सोचने लगीं, क्या करूं मैं? क्या कर सकती हूं इसके लिए मैं, कि यह हमारे पास ही बना रहे?  

बड़े बाबू तनख्वाह का रजिस्टर और बिल दस्तखत के लिए लेकर आए। कृष्णा दीदी ने रजिस्टर खोला और दस्तखत करने लगीं। आखिरी बिल पर पहुंच कर वे रूक गईं। चेहरा उठाकर उन्होंने बड़े बाबू की ओर एक पल देखा, फिर कहा, ’’ऐसा करिए, छोटेलाल का बिल दूसरा बना लाईए। उसकी तनख्वाह पांच हजार कर देते हैं।’’ 

बड़े बाबू मुस्कुराए - ’’जी, बराबर! आदमी काम का है।’’

कृष्णा दीदी को राहत-सी महसूस हुई। उन्होंने कुर्सी से पीठ टिकाकर एक गहरी सांस ली।

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उस रोज अपने कमरे में पहुंच कर जब छोटेलाल ने अपनी पत्नी को बढ़ी हुई तनख्वाह दी तो उसकी पत्नी का एक नया रूप उसके सामने आया। इसके पहले उसकी पत्नी ने उसकी नौकरी या तनख्वाह को लेकर कभी कुछ नहीं कहा था। वह छोटेलाल के मन का दुख समझती थी लेकिन कभी उसे उलाहना नहीं देती थी, ना ही अपनी समझ उसपर थोपती थी। लेकिन अब उसे जीवन की विडंबनाएं दिखने लगी थीं। उसने कहा, ’’तुम्हें केवल एक हजार बढ़ाकर तनख्वाह मिली है। तुम्हें वह मेकैनिक वाली नौकरी मिली होती तो तुम इससे दोगुनी तनख्वाह पाते कि नहीं? दोगुनी से भी ज्यादा पाते। वह नौकरी जीएम के पहचान वाले को मिल गई। तुम्हें नहीं मिली, या तुम्हारे लिए कहा ही नहीं गया? जरा सोचो। तुम्हें दीवाली में बच्चों के लिए पटाखे दे दिए, तुम्हारी तनख्वाह एक हजार बढ़ा दी। तुम क्या इसी के लिए शहर आए थे? आराम से, बिना किसी उठक-पठक के, दिन कटते जा रहे हैं, यों ही धीरे-धीरे, और तुम संतुष्ट हो। तुम्हें नहीं लगता कि एक बंधन में बंध गए हो तुम? कहीं तुम दब्बू होकर तो नहीं रह गए हो? रोजगार दफ्तर में नाम लिखवा आए, इधर-उधर सब तरफ फार्म भरते रहे, आज तक हासिल क्या हुआ? तुम्ही बताते हो कि तुम्हारे साथ वाले कहीं न कहीं काम पकड़ लिए हैं। एक तुम्हीं रह गए हो।’’

पत्नी की बातें सुनकर छोटेलाल बड़ी देर तक उसकी ओर चुपचाप देखता रहा, फिर उसने कहा, ’’शायद तू ठीक कहती है। मुझे वह मिलना चाहिए, जो मेरा हक है। मुझे कुछ सोचना होगा।’’

अगले दिन उसने कृष्णा दीदी से पहली बार झूठ बोला। उसने उनसे यह कह कर छुट्टी ली कि उसके मामा का ऐक्सीडेंट हो गया है, उन्हें देखने उसे अस्पताल जाना है। इसके बाद वह अपने आई.टी.आई. सहपाठी संतोष के पास गया कि उससे कुछ सलाह-मशविरा करते हैं। संतोष को आश्चर्य हुआ कि छोटेलाल अभी तक खाली बैठा है, उसे कहीं काम नहीं मिला। उसने कहा, ’’देखो छोटेलाल, इस बजबजाते सिस्टम से तुम कोई उम्मीद मत रखो। तुम देखो कि रोजगार दफ्तर में कितने लोग अपना नाम दर्ज कराते हैं और उनमें से कितनों को नौकरी मिलती है। नौकरी मिलने की तो छोड़ो, कहीं से बुलावा भी नहीं आता है। तुम एक बार वहां जाओ और अपना अनुभव लेकर लौटो। तुम्हें जो फैक्टरी मेकैनिक वाली नौकरी नहीं मिली, वहां सूचना का अधिकार का एक एप्लीकेशन देकर आओ कि कितने पद थे, कितनी भरती कब-कब हुई। सारी जानकारी इकट्ठी करो। मैंने तो भईया, लड़ना सीख लिया है और मुझे पता है कि बिना लड़े किसी को उसका हक नहीं मिलता।’’

संतोष को रेलवे के सिग्नल डिपार्टमेंट में नौकरी मिल गई थी और पिछले तीन सालों से वह कर्मचारी यूनियन से जुड़ा हुआ था। उससे मिलने के बाद छोटेलाल को समझ में आ गया कि आगे का रास्ता इतना आसान नहीं है।   

अब उसके जीवन में उठा-पटक की शुरूआत हो गई। उसी कल्पित मामा के अस्पताल में भरती होने के बहाने से वह अगले दिन रोजगार दफ्तर पहुंच गया। पूरा दफ्तर खाली पड़ा था। कहीं कोई नजर नहीं आया, जबकि दफ्तर खुला हुआ था। थोड़ी देर बाद एक बाबू साहब आए और एक टेबुल की धूल झाड़कर बिराजमान हो गए। छोटेलाल उनके पास पहुंचा तो उन्होंने उसकी ओर यों देखा, जैसे वह कोई रास्ता भूला हुआ या किसी का पता पूछने वाला हो। छोटेलाल ने कहा, ’’मैंने अपना नाम लिखवाया था यहां, तीन साल पहले। उसी के बारे में पूछने आया हूं।’’ 

बाबू साहब ने कहा, ’’आप किसी और दिन आईए। आपको बड़े साहब से मिलना होगा। आज साहब नहीं हैं।’’ छोटेलाल उनसे थोड़ी देरतक बातें करता रहा कि उन्हें समझा-बुझाकर वह कहीं से जानकारी निकाल कर देने के लिए मना लेगा। लेकिन उसकी दाल नहीं गली। उल्टा यह हो गया कि अब दोबारा कुछ पूछने के लिए उनके पास गए तो खैर नहीं। 

इसके बाद छोटेलाल लगातार कई दिनों तक रोजगार दफ्तर गया लेकिन बड़े साहब नहीं मिले। जो बाबू साहब पहले दिन मिले थे, उनके दर्शन तीसरे दिन फिर हुए। दूसरे दिन जो बाबू वहां मिले, उन्होंने अगले दिन आने को कहा। अगले दिन वे खुद नहीं आए। यही क्रम चलता रहा। छोटेलाल स्कूल की छुट्टी के बाद रोजगार दफ्तर पहुंच जाता कि कुछ जानकारी मिल जाएगी, लेकिन उसे वहां न कोई और उम्मीदवार दिखता, न ही कोई साहब। दो-तीन बाबू साहब थे जो कभी-कभी भूले-भटके वहां आ जाते थे। 

छोटेलाल को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या सोचकर संतोष ने उसे यहां आने के लिए कहा था। पहली बार जब वह यहां अपना नाम दर्ज कराने आया था तो लगता था कि कुछ काम होता होगा यहां। अब यह दफ्तर ऐसा लग रहा था जैसे दीवार पर टंगा कई वर्षों पुराना कैलेंडर हो। नोटिस बोर्ड पर कुछ सूचियां टंगीं थीं, जो वर्षों पुरानी थीं। कुछ सूचनाओं के चीथड़े टंगे थे। वह इधर-उधर ताकता वहीं बाहर पड़े बेंच पर बैठ जाता कि शायद आज बड़े साहब आते हुए दिख जाएं लेकिन सामने सड़क से गुजरता कोई भी साहबनुमा इंसान उस दफ्तर की ओर रूख न करता।   

उसी दफ्तर में एक दिन अचानक एक बुजुर्गवार छोटेलाल को वहां दिख गए, हाथ में कागजों का पुलिंदा पकड़े हुए। वे उसकी ओर देखते रहे, फिर बोल पड़े, ’’तुम परेशान दिख रहे हो। सूचना का अधिकार की दरख्वास्त डालो। कुछ न कुछ जरूर मिलेगा। तीन साल पहले मेरे जवान भतीजे ने यहां के चक्कर लगाने के बाद रेल की पटरी पर कट कर खुदकुशी कर ली। वह अवसाद में आ गया था। तबसे मैं यहां दरख्वास्त डाल रहा हूं। मैंने दस हजार रूपए खर्च कर दिए, कागज इकट्ठा करने के लिए। इन्हीं कागजों को उलटता-पलटता रहता हूं। किसी दिन किसी कागज में उसका नाम दिख जाए, तो उसकी बदहवास मां को दिखाऊंगा कि देखो, तुम्हारा बेटा नाकारा नहीं था।’’

इतना कहकर वह बुजुर्गवार रोने लगे। छोटेलाल ने उन्हें बेंच पर बिठा दिया और उनका कंधा सहलाने लगा। वहां से घर लौटते-लौटते अंधेरा हो गया। घर लौटा तो बत्ती गुल थी। उस रात उसने न बच्चों से बात की, न पत्नी से। चुपचाप रोटी खाकर सो गया।

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अब छोटेलाल गंभीर रहने लगा। उसके चेहरे पर हमेशा पसरी रहने वाली मुस्कान गायब हो गई। दिन गुजरे, सप्ताह गुजरे, महीना गुजरा, वह इसी तरह गंभीर बना रहा। कृष्णा दीदी ने सोचा, पूछेंगी कि उसे हुआ क्या है। लेकिन कोई सिरा नहीं मिल रहा था, जिसे थाम कर उससे सही कारण जान सकें। काम में उसके कोई कमी नहीं थी। हां, स्कूल बंद होने के बाद साइकिल उठाकर छोटेलाल जरूर कहीं न कहीं निकल जाता था।

उसे यह भय हुआ कि कहीं वह अवसादग्रस्त तो नहीं हो गया? लेकिन फिर एहसास हुआ कि नहीं, ऐसा नहीं है। वह अपनी पत्नी से खुलकर बातें करता है। उसकी पत्नी उसे कहीं बेहतर समझती थी। उसे यह एहसास था कि किसी की भी जिंदगी सपाट नहीं होती, जिंदगी मंे उतार और चढ़ाव दोनों आते हैं। चुपचाप वह उसके संघर्ष के रास्ते की हमसफर बनी रही। जब देखती कि छोटेलाल भाग-दौड़ में ही लगा हुआ है तो वह गमलों और फूलों की क्यारियों में गुड़ाई-सिंचाई कर देती।  

उससे सलाह करके छोटेलाल ने रूपए भी खर्च किए, सूचना का अधिकार के दरख्वास्तों और उनसे मिलने वाले कागजों को उठाने के लिए। उसका सिला यह हुआ कि सरकारी दफ्तरों के बाबुओं से उसकी दुश्मनी बढ़ गई। अब वे उससे सीधे मुंह बात नहीं करते थे। उसकी पत्नी ने उसे कोचिंग लेने की सलाह दी। एक समस्या कोचिंग की फीस जुटाने की थी। वह अपने गांव गया और साहस जुटाकर अपने पिता से रूपए उधार लिए। कोचिंग जाने लगा तो उसमें आत्मविश्वास आने लगा। इधर की सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में सामान्य ज्ञान, करेंट अफेयर्स, लॉजिक-रीजनिंग आदि के प्रश्न आने लगे थे। वह जी-जान से जुट गया, रोज अखबार पढ़ने लगा और प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगा। 

किसी ने सलाह दी कि सऊदी अरब जाने के लिए कोशिश करे। वहां तनख्वाह अच्छी मिलती है, पर उसके लिए भी भरती एजेंसी वाले पचास हजार रूपए मांगते थे। पासपोर्ट बनवाने की भी झंझट थी, और फिर अपने पिता से अब उधार वह नहीं ले सकता था, वह भी पचास हजार रूपए तो वे दे भी नहीं पाएंगे। इसलिए छोटेलाल तैयारी करता रहा और प्रतियोगी परीक्षाएं देता रहा।    

यह सब करते-करते दो साल गुजर गए। वह स्कूल के काम में लगा रहा और दो-तीन ऐसी प्रतियोगी परीक्षाओं में वह बैठने ही नहीं जा पाया, जिसके लिए उसकी तैयारी बहुत अच्छी थी। कभी स्कूल का इंस्पेक्शन आ जाता तो कभी कोई और कार्यक्रम। मौका चूकने पर वह कुछ कर नहीं पाता, चुपचाप दूसरी परीक्षा की तैयारी में लग जाता। कृष्णा दीदी को उसके गंभीर चेहरे की आदत-सी हो गई। उन्होंने उसकी तनख्वाह और नहीं बढ़ाई। संघर्ष करते-करते छोटेलाल इतना थक गया कि अंत में उसने हार मान ली। एक दिन उसने पत्रिकाएं और अखबार पढ़ना भी बंद करने का फैसला कर लिया।

इस बीच कृष्णा दीदी उसके बारे में कम और अपने स्कूल के बारे में अधिक सोचती रहीं। उन्होंने ठान लिया था कि उनका स्कूल शहर के हिन्दी मीडियम के प्राइवेट स्कूलों में सबसे अच्छा माना जाना चाहिए और इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार थीं। वे रोज ही सभी शिक्षिकाओं की एक बैठक लेतीं, हर दो-तीन महीने पर अभिभावकों को बुलातीं शिक्षिकाओं से मिलने के लिए, स्कूल में स्वच्छता और अनुशासन पर भी खास ध्यान देतीं। उन्होंने एजेंसी के माध्यम से एक वर्दीधारी गार्ड की ड्यूटी स्कूल के गेट पर लगवा ली। वही जो उनसे मिलने के लिए आते, उन्हें उनके कमरे तक लेकर आता। उनका खयाल था कि इससे उनका और उनके स्कूल का रौब बढ़ेगा। इसी धुन में उनसे कुछ क्रूरता भी हो गई। छोटेलाल के नाम से दो पत्र आए थे, जो उनके हाथ लग गए। एक किसी इंटरव्यू का बुलावा था और दूसरे लिफाफे में प्राइवेट कोल्ड स्टोरेज में सहायक की आठ हजार रूपए की नौकरी का नियुक्ति पत्र था। ये दोनों लिफाफे कृष्णा दीदी ने अपने पास रख लिए, छोटेलाल तक पहुंचने नहीं दिया। उन्होंने अपने मन को समझाया कि वे किसी का गला नहीं घोंट रही हैं, अपने स्कूल में ही छोटेलाल को धीरे-धीरे करके आठ हजार तक पहंुचा देंगी। 

छोटेलाल किस्मत का मारा-सा बस अपने काम में लगा रहा। जो भी ड्यूटी उसे दी गई थी उसे मशीनी भाव से निभाता रहा। वह ऐसे व्यूह में फंसा हुआ महसूस करने लगा, जिससे कभी बाहर नहीं निकल सकेगा। मन में कुछ ऐसा भाव आने लगा जैसे कि वह कृष्णा दीदी की कृपा के सहारे पर जी रहा है। उसके बच्चे जैसे किसी के दिए हुए टुकड़ों पर पल रहे हैं। वह भीतर ही भीतर घुलने लगा। उसके चेहरे से हंसी जैसे हमेशा के लिए गायब हो गई। उसके दोनों बच्चों को भी उसका गम्भीर चेहरा देखने की आदत हो गई।    

कुछ दिनों बाद की बात है। छोटेलाल अपने बच्चों को लेकर उनके लिए स्टेशनरी खरीदने गया। स्टेशनरी वाले ने उससे पूछा कि वह अब पत्रिकाएं क्यों नहीं ले जाता है? छोटेलाल ने कहा कि स्कूल के चपरासी को पत्रिका या अखबार पढ़कर क्या करना है? स्टेशनरी वाले ने उसे जबरदस्ती उस हफ्ते का रोजगार समाचार पकड़ा दिया। 

वह रविवार का दिन था। घर आकर वह बेमन से रोजगार समाचार के पन्ने उलटने लगा। रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड के एक रिजल्ट पर उसकी नजर पड़ी। अरे, इसका तो उसने भी चार महीने पहले इम्तहान दिया था! उसके दिल की धड़कन बढ़ गई। 

अगले पल वह उछल पड़ा। उसकी पत्नी दौड़कर उसके पास आई तो वह लगभग चिल्ला पड़ा, ’’मैं टेक्नीशियन हो गया, कैरेज एंड वैगन वर्कशॉप में! ये मेरा नाम, मेरा रोल नंबर, रोजगार समाचार में!’’

उसकी पत्नी की आंखों में खुशी के आंसू छलक उठे। उसने ऊपर की ओर देखते हुए आंखें बंद कीं, हाथ जोड़े, और अपने को संयत करते हुए पूछा, ’’कहां जाना होगा?’’

’’जहां भी जाना हो, रेलवे की नौकरी है! रेलवे का पास मिलेगा! मेरा, तुम्हारा, बच्चों का!’’

’’सच?’’ उसकी पत्नी ने पूछा तो वह और भी चहक उठा - ’’और नहीं तो क्या! और हमें सरकारी क्वार्टर मिलेगा, बुढ़ापे में पेंशन मिलेगी। और भी बहुत कुछ!’’  

छोटेलाल के दोनों बच्चे उसके पास आकर उछलने-कूदने लगे। उसने उन्हें अपने कंधों पर बिठाया और गोल-गोल घूमने लगा। घूमते हुए ही उसने अपनी पत्नी से कहा, ’’चलो तैयार हो जाओ। आज बाजार चलेंगे और बच्चों के लिए खिलौने खरीदेंगे। नए-नए खिलौने!’’

’’और मेरे लिए भी कुछ!’’ उसकी पत्नी ने लरजते हुए कहा।

’’हां तुम्हारे लिए भी। सलवार-सूट!’’

एक अरसे बाद छोटेलाल का परिवार कहीं बाहर जाने के लिए तैयार हुआ। पत्नी और बच्चों को लेकर जैसे ही वह बाहर आया, उसने कृष्णा दीदी के ड्राइवर को आते हुए देखा। आते ही उसने आदेश किया कि शाम को पांच बजे तक वह बंगले पर पहुंच जाए, मेहमान आने वाले हैं।

छोटेलाल ने तुरंत जवाब दिया, ’’मैं अपने परिवार के साथ बाजार जा रहा हूं, आज नहीं आ पाऊंगा।’’

ड्राइवर ने कहा, ’’लेकिन छोटेलाल, शाम को मेहमान आने वाले हैं बंगले पर।’’

छोटेलाल ने कहा, ’’भाई साहब, मैं अब इस व्यूह से बाहर निकल रहा हूं। अब कोई दूसरा आदमी ढूंढ़ना होगा मेरी जगह। समझ गए ना! कृष्णा दीदी को मेरा संदेश दे देना।’’ इतना कहते हुए वह पत्नी और बच्चों के साथ स्कूल के गेट की ओर बढ़ गया।

ड्राइवर को माजरा समझते देर न लगी। उसने छोटेलाल और उसके परिवार को गेट से बाहर निकलते हुए देखा और मुस्कुरा दिया।  

Monday, August 22, 2022

आलोचना का सकारात्मक पक्ष

 

पुलिस में नौकरी, यानी धौंस-पट्टी का राज. वाह जी वाह, क्या हसीन है निजाम. पुलिस ही नहीं, गुप्तचर पुलिस, वह भी आफिसर . फिर तो कुछ बोलने की जरूरत तो शयद ही आए कि उससे पहले ही चेहरे के रूआब को देखकर, यदि मूंछे हुई तो और भी, आपराधी ही क्या, अपनी नौकरी पर तैनात कोई साधारण कर्मचारी, बेशक ओहदेदारी में किसी रेलवे स्टेशन का स्टेशन मास्टर तक हो चाहे, बुरी तरह से चेहरे पर हवाइयां उडते हुए हो जाए और यदि ओफिसर महोदय ने अपना परिचय दे ही दिया तो निश्चित घिघया जाये. यह चित्र बहुत आम है लेकिन एक सम्वेदनशील रचनाकार इस चित्र को ही बदलना चाहता है. निश्चित तौर पर श्री प्रकाश मिश्र भी ऐसे ही रचनाकर हैं. अपनी स्मृतियों के देहरादून को खंगालते हुए वे इससे भिन्न न तो हैं और न ही होना चाहेंगे, यह यकीन तो इस कारण से भी किया जा सकता है कि एक दौर में वे उन्न्यन जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का स्म्पादन करते रहे हैं.   

देहरादून की स्मृतियों पर केंन्द्रित होकर लिखे जा रहे संस्मरण के उन हिस्सों की भाषा से श्री प्रकाश मिश्र के पाठकों को ही फिर एतराज क्यों न हो, जहाँ उनका प्रिय लेखक उन्हें दिखाई न दे रहा हो. एक मॉडरेटर होने के नाते इस ब्लॉग के पाठकों की क्षुब्धता के लिए खेद व्यक्त करना मेरी नैतिक जिम्मेदारी है. फिर संस्मरण की भाषा पर एतराज तो किसी यदा कदा के पाठक का नहीं है, बल्कि जिम्मेदार नागरिक चेतना से भरे एक ऐसे संवेदंशील रचनाकर, चंद्रनाथ मिश्र, का विरोध है, जिनके सक्रिय योगदान से यह ब्लाग अपनी सामग्री समृद्ध करता रहता है. चंद्रनाथ मिश्र के एतराज मनोगत नहीं बल्कि तथ्यपूर्ण है, “एक वरिष्ठ लेखक और 'उन्नयन ' जैसी लघु पत्रिका के संपादक रहे श्री प्रकाश मिश्र जैसे व्यक्ति से इस तरह के आत्म केंद्रित और नकारात्मक सोच की आशा नहीं की जा सकती. पूरे आलेख में प्रारंभ से अंत तक उन के सानिध्य में आने वाले व्यक्तियों के जीवन और व्यक्तिगत रूप रंग पर आक्षेप के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं. रेलवे के छोटे कर्मचारी से लेकर स्टेशन मास्टर तक , पीतांबर दत्त बड़थ्वाल जैसे शिक्षाविद और वरिष्ठ साहित्यकार, उनकी संताने,उनके गांव के सारे लोग प्रकाश मिश्र की इस आवानछनीय टीका टिप्पणी के दायरे मे शामिल हैँ. देहरादून के तात्कालिक साहित्यिक परिप्रेक्ष्य पर उनकी कोई उल्लेखनीय टिप्पणी तो कहीं भी नजर नहीं आती. यहां के वरिष्ठ साहित्यकारों के साहित्य कर्म पर लिखने के बजाय, वे उनके व्यक्तिगत, शारीरिक, जातिगत और स्थान विशेष में रहने वालों को सामूहिक रूप से कुरूप और अनाकर्षक घोषित करने का प्रयत्न करते हुए दिखाई देते हैं.”

 

यह सही है कि एक पात्र की पहचान कराने के लिए एक गद्य लेखक अक्सर पात्र के रूप रंग, उसकी चाल, हंसने-बोलने के अंदाज, वस्त्र विन्यास और बहुत सी ऐसी रूपाकृतियों का जिक्र करना जरुरी समझते है और यह भी स्पष्ट है कि उस हुलिये के जरिये ही वे प्रस्तुत हो रहे पात्र के प्रति लेखकीय मंशा को भी चुपके से पाठक के भीतर डाल देते है. वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत जी के द्वारा अक्सर कही गई बात को दोहरा लेने का मन हो रहा, जब वे कहते है, "जब कोई लेखक अपने किसी पात्र के बारे में लिखता है कि 'वह चाय सुडक रहा था' तो उसे अपने पात्र के परिचय के बारे में अलग से कुछ बताने की जरुरत नहीं रह जाती कि वह अमुक पात्र कौन है, किस वर्ग और पृष्ठभूमि का पात्र है." कथाकार सुभाष पंत की यह सीख हमें भाषा की ताकत से परिचित कराती है और साथ ही उसे यथायोग्य बरतने के लिए सचेत भी करती है. श्री प्रकाश मिश्र एक जिम्मेदार लेखक है. स्वयं देख सकते हैं, भाषा को बरतने वह  चूक उनसे क्यों हो गई कि जिन व्यक्तियों को प्रेम से याद करना चाह रर्है थे, उनके हुलिये के वर्णन पर ही पर चन्द्र्नाथ मिश्र और देहरादून के अन्य जिम्मेदार नागरिक एवं रचनाकारों को असहमति के स्वर में सार्वजनिक होना पडा है.

उम्मीद है श्री प्रकाश मिश्र जी चंद्रनाथ मिश्र के एतराजों को सकारत्मक रूप से ग्रहण करेंगे और पुस्तक के रूप संकलित किये जाने से पहले वे दोस्ताना एतराज एक बार लेखक को दुबारा से अपनी भाषा के भीतर से गुजरने की राह बनेगें.      


विजय गौड़ 

   

Friday, August 19, 2022

स्मृतियों का शहर

पिछ्ले दिनों मेरा भोपाल जाना हुआ. वहां जाकर मुझे मालूम हुआ कि भोपाल भी देहरादून की तरह की ऐसी जगह है, रोजी रोजगार की वजह से भोपाल पहुुंचा शख्स एक उम्र गुजार लेने के बाद फिर कहीं दुसरी जगह जाना ही नहीं चाहता, यहां तक कि अपने गृह प्र्देश  लौटने की बजाय वहीं बस जाने के लिए एक छोटी सी झोपडी जुटा लेना चाहता है. यदि किन्हींं कारणों से गृह प्रदेेश लौटना भी हो गया तो जेहन से न तो देहरादून निकलता है और न भोपाल. 
भोपाल में ही मालूम हुआ कि भोपाल के बाशिंदा एवंं हिंदी गजल के पर्याय दुष्यंत के पूर्वज तो  पश्चिमी उत्तरप्रदेश निवासी रहे. मेरे मित्र, प्रशिक्षण क्षेत्र के राष्ट्रीय व्यक्तित्व एवं तुरंता हास्य को जन्म देने वाले कलाकार ओ पी द्विवेदी ने, जिनका युवा दौर दुष्यंत जी के सानिंध्य में बीता, वायदा किया है कि वे दुष्यंत के जीवन के अभी तक उधाटित न हो पाये कुछ चित्रों की स्मृतियोंं से हमेँ परिचित कराएंगे. उम्मीद है देहरादून शहर की स्मृतियों पर आधारित श्री प्रकाश मिश्र का संस्मरण भाई ओ पी द्विवेदी को उनके वायदे के स्मरण मेँ ले जा सकने में सक्ष्म होगा. श्री प्रकाश मिश्र, एक समय की महत्वपूर्ण लघु पत्रिका उन्नयन के संपादक रहे हैं. वर्तमान में इलाहाबाद में रहते हैं. ज़पनी स्मृति के शहर- देहरादून और वहाँ के लोगों के संग साथ हाँसिल अनुभवों को वे यहां सांझा कर रहे हैं. विगौ       

स्मृतियों में बसा नगर : देहरादून :


श्री प्रकाश मिश्र


इसी अगस्त की यही सोलहवीं तारीख थी,जब मैं १९७९ में देहरादून पहुंचा आइजाल से शिलांग , शिलांग से लखनऊ, लखनऊ से मेरठ ‌होकर। ट्रैन शाम को पहुंची, खूब बारिश हो रही थी, इसलिए मैंने स्टेशन पर पड़े रहने को ठानी , प्रथम श्रेणी के प्रतिक्षालय में स्थान लिया। पहले रिटायरिंग रूम का कमरा लेना चाहा, पर देनेवाला सक्षम अधिकारी नहीं मिला। शाम आठ बजे के बाद उपस्थित परिचारक परेशान हो गया। अब कोई ट्रेन आने -जाने वाली नहीं थी। यह‌ समय उसके घर जाने का था। वह मेरे पास आया और बोला,"कब जाएंगे साहब?" मैंने कहा," कल दस बजे।" वह परेशान हो गया। कहा , " रात में यहां रुकने की इजाजत नहीं है साहब।" "किसने ‌कहा " मैंने पूछा, तो उसने बेहिचक जवाब दिया, " स्टेशन मास्टर ने।" "उन्हें बुलाओ", मैंने कहा, "उनका कहना गलत है।" मैं बिस्तर लगाने में लग गया। मेरी छरहरी काया और विशाल मूंछों के नाते वह मुझे फौजी समझ रहा था। कहा,"फौज की गाड़ी आई तो थी सात बजे। आप गये नहीं।"" मैं क्यों जाता फौज की गाड़ी से?" मैंने कहा। वह और परेशान ‌हो गया और उसी परेशानी में कहा, " शैलानी हैं? शैलानियों को यहां रुकने की कोई इजाजत नहीं। पास में होटल हैं, वहां जाइए।" मैंने कड़ाई से कहा," मैं आज रात यहीं रहूंगा।" वह कुछ देर तक घूरता रहा, फिर चला गया। आधे घंटे बाद आया और बोला, "स्टेशन मास्टर साहब बुला रहे हैं।" मैं उस वक्त खाना खा रहा था। मेरठ में मित्र बने ‌ स्टेनो टी.पी.सिंह ने शुद्ध घी की पूड़ी तरकारी बांध दी थी, जो वाकई बड़ी स्वादिष्ट थी। गुस्सा तो लगा, पर उस पर नियंत्रण कर उंगली से इशारा कर कह, "खा करि आता हूं।"
मैं खाना ‌खा कर स्टेशन‌मास्टर के कमरे में गया। वे रजिस्टर में आंख गड़ाए होने का नाटक करते मुझे आपाद-मस्तक कुछ देर तक देखते रहे। मैं भी उन्हें अपनी आर-पार चीर कर देखनेवाली आंखों से (जैसा कि मेरी प्रेमिकाएं कहती रही हैं) देखता रहा। फिर उन्होंने कहा, "आप हायर क्लास वेटिंग रूम में रुके हैं?" मैंने कहा," जी हां।" उन्होंने कहा,"सुरक्षित नहीं ‌है, साहब। चोर-उचक्के रातभर घूमते हैं। वेटिंग रूम को भीतर से बंद करने की इजाजत नहीं ‌है।" "मैं उनकी तलाश में रहता हूं।"मैंने कहा। "वे समूह में आते हैं , छुरा -चाकू रखते हैं।" "मैं भी हथियार बंद हूं।"
आप हथियार लेकर रुके हैं?" "जी।" उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। कहा,"आप क्या करते हैं?" "सी.बी.आइ.में अफसरी।" साहब - साहब कहकर वह घिघियाने लगा, "पहले बताए होते।" "आपने मौका‌ही बाद में दिया।"
वह उठ खड़ा हुआ। "मैं आप के दफ्तर फोन कर गाड़ी मंगा देता हूं या सवारी कर देता हूं।" " नहीं मैं चुपचाप बिना बताए ही वहां जाना चाहता हूं कल दफ्तर के समय। आज यहीं रहने दीजिए। हां यदि रिटायरिंग रूम बुक कर दें तो कृपा होगी।" "हां -हां "करते हुए उन्होंने एक कमरा बुक कर कहा कि आधा घंटा लगेगा कमरा ठीक करने में। चद्दर कंबल यहां रहता नहीं, लोग दुरुपयोग करते हैं।" "ठीक है",‌मैंने कहा।

सुबह आठ बजे तैयार हुआ। सामान क्लाक रूम में जमा किया । जैसा कि मेरी आदत है नये नगर को पैदल चलकर देखना, उसके लिए निकल पड़ा।रात भर पानी बरसा था। सोचा कि सड़कें पानी और कीचड़ से भरी होंगी। पर वे धुलकर साफ चमक रही थीं। स्टेशन से बाहर निकल कर अपने दफ्तर का रास्ता पूछा और और चल पड़ा। अगले ही मोड़ पर जैन धर्मशाला और अग्रवाल धर्मशाला था, खूब भव्य। सामने मिठाई -पूडी की दुकान थी। दही -जलेबी का नाश्ता किया। स्वाद ऐसा था कि मजा आ गया। चलते चलते पलटन बाजार के चौक पर पहुंचा। शिलांग में पुलिस बाजार, गोरखपुर में उर्दू बाजार --सभी फौज से जुड़े। चौक पर घंटाघर है। ऊपर दो - तीन लोग चढ़े थे। उनके देखा - देखी मैं भी चढ़ गया। अजनवी को देखकर वे चौंक गये। पूछा,"कौन" ? मैंने कहा,"शहर में नया आदमी हूं। यहां से पूरे शहर को नजर घुमा कर एकसाथ देखना चाहता हूं।"वे सफाई वाले थे।एक खिड़की खोल दी। वहां से पूरे शहर को देखा। चारो तरफ छोटी छोटी पहाड़ियां थी, बीच में विस्तृत मैंदान में बसा शहर। तभी उत्तर तरफ से चल कर एक बादल का विशाल काला टुकड़ा नगर पर टंग गया। लगा कि कटोरी जैसी घाटी में दही की साढ़ी जैसे बादल जम गये ‌हों। वहां से उतर कर हाथीबड़कला चला। वहीं कालिदास रोड पर मेरा दफ्तर था,१३-ए बंगले में। तब कालिदास रोड देहरादून का सबसे पोश इलाका माना जाता था। टिहरी के राजा और तमाम सेवानिवृत्त बड़े फौजी अधिकारियों के बंगले वहां थे। जिस बंगले में मेरा दफ्तर था, उसे देख कर चकित रह गया। लगभग एक एकड़ में लीची का बाग था, कुछ आम के पेड़। गेट पर ही चन्दन और कपूर के क ई गाछ। बीच में दक्षिणी किनारे पर एकपलिया लाल बंगला, लंबोतरा। आधे से दफ्तर, आधे में मेरा आवास। देखकर तबीयत खुश हो गई।
मैं गेट खोलकर भीतर घुसा।दफ्तर में घुसते वक्त जिसने मुझे टोका उसका नाम दाता राम काला था। जैसा नाम, वैसा ही रूप। लम्बा, दुबला पतला, चुचका चेहरा, बेहद काला। बाद में पता चला कि वे पितांबर दत्त बड़थ्वाल के गांव के हैं। बड़थ्वाल हिंदी के प्रथम डी लिट् थे। नाथ संप्रदाय पर काम किया था। इसलिए बड़ा नाम था। उनके भतीजे के दो बेटे लखनऊ में मेरे विभाग में तैनात थे। पता चला कि उस गांव के अधिकांश लोग बड़े कुरूप होते हैं। पितांबर जी की संतानें भी बड़ी कुरूप हुईं, बिल्कुल बंदर जैसी और प्रतिभा से शून्य। वे कुछ कर नहीं पाईं। मैं तो उनसे कभी मिला नहीं।
ग्यारह बजे से ज्यादा हो रहा था, पर अठ्ठारह लोगों में सिर्फ तीन लोग हाजिर थे। तो मुझे ठीक बताया गया था कि लोग भरसक दफ्तर आते नहीं, और जो आते हैं, वे दो बजे के बाद दारू पीते हैं और घर चले जाते हैं। इसलिए वहां कुछ काम - घाम नहीं होता। पर बाद में पता चला कि लोग फिल्ड में काम पूरा करके लंच के बाद आते हैं। देहरादून बहुत फैला शहर है। फौज के अड्डे और तिब्बतियों के इलाके बहुत दूर-दूर हैं। इसलिए यह नियम बनाना कि लोग पहले दफ्तर आएं, फिर फिल्ड में जाएं, बहुत उपयोगी नहीं हो सकता था। ड्राइवर आया तो एक व्यक्ति को साथ लेकर स्टेशन गया और अपना सामान ले आया। इस बीच हमारे रहने के हिस्से को ‌साफ-सुथरा कर दिया गया था। रहने के साथ-साथ खाने-पीने की भी समुचित व्यवस्था तुरंत हो गयी।

उसी बंगले के आउटहाउस में बंगले के मालिक के सबसे छोटे बेटे ठाकुर रहते थे। उनका पूरा नाम याद नहीं आ रहा है। वे हम -उम्र थे , इसलिए तुरंत खूब पटने लगी। पता चला कि यह बंगला उनके पिता ने एक अंग्रेज से खरीदा था, जब अंग्रेज भारत छोड़ कर जाने लगे। पिता नेपाली मूल के भारतीय फौज में अफसर थे। बाद में रक्षा मंत्रालय में चले गए थे और डिप्टी सेक्रेटरी होकर सेवा निवृत्त ‌हुए थे और सपरिवार यहां रहने लगे थे। ठाकुर क ई भाई थे, जिनकी आपस में नहीं पटती थी। वे ठाकुर को देखना नहीं चाहते थे, क्यों कि वे एक दूसरी जाति की लड़की से शादी कर लिए थे। मकान किराए पर देने का कारण भी यही था कि वे घर छोड़ कर चले जांय। पर ऐसा हो नहीं पाया। वे आउटहाउस में बने रहे। वे‌ पहले नेपाल पौलिस में थे। कब वह काम छोड़ कर होटल प्रेसिडेंट में नौकरी करते थे। उनसे देहरादून के बारे में काफी कुछ पता चला। यह भी कि देहरादून की कुल जनसंख्या में एक तिहाई नेपाली हैं। उन्होंने कालिदास रोड के तमाम घरों में लेजाकर मेरा परिचय करवाया। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो अपने पूरे मित्र समाज को नये मित्र को‌सौंप देते हैं।
उसी सड़क पर घूमते हुए मैंने एक दिन एक भव्य ब़गले के सामने नेमप्लेट पढ़ा , "एस.एम. घोष"।मैं चौंका, इसलिए नहीं कि उस सड़क पर किसी बंगाली का होना अजीब था, बल्कि इसलिए कि वह नाम कुछ कुछ जाना था। बांग्लादेश की लड़ाई समाप्त हो जाने के बाद मैं कुछ दिन धुबुड़ी में रुका। बंगाली की पुस्तक रमनी विक्षा में मैं धुबुड़ी की उत्पत्ति की कथा पढ़ चुका था कि नगर का यह नाम एक धोबिन के कारणि पड़ा था, जो यहां ब्रह्मपुत्र के तट पर कपड़ा धोती थी।उस जगह को देखने की मेरी बहुत इच्छा थी। पर कोई दिखा नहीं पाता था। एक दिन मेरे एक मातहत नन्दी (
पूरा नाम भूल रहा हूं ) ने घोषबाड़ी में ले जाने की बात कही। घोष लोग वहां के पुराने जमीनदार रहे हैं, जैसे गौरीपुर और लखीपुर के जमींदार। गौरीपुर घराने से प्रमथेश बरुआ हुए, जिन्होंने पहली देवदास फिल्म बनाई, जिसमें सहगल के गाये गानों को रेडियो सिलोन पर सुनकर हमारी पीढ़ी बड़ी हुई। लखीपुर के जमींदार मन से अंग्रेजों की मातहती स्वीकार नहीं कर पाए। वे दोनों घराने असमिया हैं। घुबुड़ी का घोष घराना बंगाली है। एस.एन.घोष उसी घराने के थे। वे संभवतः पहले आइ.पी.एस. बैच के थे,असम कैडर के। जब नागालैंड को अलग राज्य बनाने का निर्णय गृहमंत्रालय ने लिया तो उन्होंने उसका भरपूर विरोध किया। वे उस वक्त केंद्र के इंटेलिजेंस ब्यूरो में शिलांग में उपनिदेशक के रूप में नियुक्त थे। उनका कहना था कि इससे नगालैंड की समस्या नहीं सुलझेगी, ऊपर से असम के अनेक टुकड़े होने का का रास्ता खुल जाएगा। तत्कालीन आई बी के निदेशक भोला नाथ मलिक ने उनकी दूरदृष्टि की भूरी -भूरी प्रशंसा की है। घोष साहब इस निर्णय से इतना आहत हुए कि आई बी की नौकरी छोड़ दी। फिर असम ही छोड़ दिया। असम सरकार उन्हें आई जी बनाकर रखना चाहती थी। पर वे नहीं माने। देहरादून आकर बस गए। मर गये, पर असम नहीं गये। बोर्ड देखकर लगा कि यह उसी घोष साहब का घर है। इच्छा हुई कि तुरंत उनसे मिलूं। पर हिम्मत नहीं पड़ी। सोचा कि पहले दफ्तरवालों से पता करूंगा, फिर समय लेकर मिलूंगा। दफ्तरवालों को उनके बारे में कुछ पता नहीं था। क ई दिन उनके घर के सामने से गुजरा। फिर एक दिन ठान लिया कि मिलूंगा ही। शाम को उनके घर की कालबेल दबा दी। नौकर के हाथ में अपना परिचय पत्र थमा दिया। कहा कि साहब को देकर कहो कि मैं मिलना चाहता हूं। वे तुरंत बाहर आए। मुझे बैठक में ले गये । आने का उद्देश्य पूछा। वे अंग्रेजी में बोल रहे थे, हिंदी भाषी समझकर। मैं औपचारिकता के बाद बंगाली में बोलने लगा। इससे वे बहुत आकर्षित हुए। मैं चलने को हुआ तो वे बार-बार आने के लिए बोले। यह भी कहा कि क ई वर्षों से सुनता हूं कि आप लोगों का दफ्तर यहां है। पर कभी कोई नहीं आया। आप पहले आदमी हैं। फिर मैं अक्सर वहां जाने लगा।

महीने भर के भीतर मैंने उन तमाम लोगों से संबंध बना लिया जो मेरी नौकरी में काम आने वाले थे, फिर रुटीन काम में लग गया। मुझसे उम्मीद की गई थी कि मैं सेना से विशेष संबंध बना कर रखूंगा, जिसका मुझे विशेष अनुभव ‌था और देहरादून में इसकी बेहद कमी थी। इसी सिलसिले में मेजर प्रभाकर से‌मुलाकात हुई। वे मराठी मूल के इलाहाबादी थे। विद्यार्थी जीवन में बहुत अच्छ फुटबाल खेलते थे और क ई वर्षों तक यू.पी. एलेवेन में रहे। मुझे फुटवाल का खेल देखना बहुत अच्छा लगता था, क्योंकि स्वयं अच्छा खेल नहीं पाता था। प्रभाकर लेफ्ट आउट पोजीशन से खेलते थे और बहुत ही अच्छा ग्रासकट किक मारते थे। मैं उनका प्रशंसक था और थोड़ी जान-पहचान हो गयी थी। कोई ग्यारह वर्षों बाद मिलने पर लगा कि जैसे वह जान-पहचान दोस्ती हो। एकदिन दोपहर बाद वे अपने कलीग कप्तान के.पी.सिंह के साथ मिलने आये। हम उनको लेकर लान में बैठ गये और एक मातहत को चाय वगैरह की औपचारिकता के लिए सहेज दिया और कमरे से बिस्कुट वगैरह लाने के लिए भेजा। काफी देर हो गयी, पर वह आया नहीं। उधर प्रभाकर चलने की बात करने लगे। एक दूसरे आदमी को भेजकर सामान मंगा खातिरदारी की औपचारिकता पूरी की। उनके चले जाने के कुछ देर बाद वह आदमी मेरे सोने के कमरे से बाहर आया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। मुझे उसपर क्रोध तो बहुत आया पर, उस पर नियंत्रण कर कहा,"जाओ"। वह वैसे ही हाथ जोडे खड़ा रहा। मैंने फिर कहा कि जाओ। उसने कहा कि मैं एक बात कहना चाहता हूं साहब। मैंने कहा, "मैं समझ गया हूं, जाओ।" "नहीं साहब आप मुझे क्षमा कर दें।"
"कर दिया "
वह थोड़ा खिसिया कर हंस कर कहा,"मैं क्षमा उसके लिए नहीं मांग रहा हूं कि चाय की व्यवस्था नहीं कर पाया। उसके लिए तो जो सजा दें, भुगतने के लिए तैयार हूं। मैं क्षमा दूसरी बात के लिए मांग रहा हूं।"
मैं चौंका और प्रश्नवाची निगाहों ‌से देखा। उसने कहा, " मैंनै आपकी डायरी पढ़ी है।"
मुझे ख्याल आया कि सुबह डायरी मेज पर खुली छोड़ दी थी। वही पढ़ा होगा। कहा, "कोई बात नहीं। उसमें तो बस इधर-उधर की बातें लिखीं हैं, कुछ प्रकृति के चित्र वगैरह..."
"नहीं साहब, यदि उनमें थोड़ा सुधार कर दिया जाय, थोड़ी सिमेट्री बदल दी जाय तो वे अद्भुत कविताएं बन जाएंगी।"
मैं उसके 'सिमेट्री'शब्द के प्रयोग पर चौंका, पर कहा कि तुम कविता के बारे में क्या जानते हो?
तभी दाता राम काला अपने स्थान से बैठे ही बोले,"यह बहुत अच्छा गाता है साहब!"
मैं क्षण भर के लिए सोचता रहा, फिर कहा, "ठीक है दफ्तर के ‌बाद इनका गाना सुनते हैं।"
जब वह जाने लगा तो मैंने उसे गौर से देखा : कंधे ‌से नीचे तक लटकते बाल, दुबली -पतली लचकती काया। ससुर नचनिया ही ‌होंगे--मन-ही-मन कहा।
दफ्तर बंद कर सभी ल़ोग लान में बैठे। शाम होने में देरी थी। पश्चिम तरफ आसमान साफ था, इसलिए वृक्षों की परछाइयों से लान ‌भरा था। पूरब तरफ से बादल का एक पारदर्शी टुकड़ा आ कर स्थिर हो गया था। उत्तर की तरफ से हवा बह रही थी, न ठंडी, न गर्म। दक्षिण तरफ के आम के पेड़ पर धामिन (घोड़ा पछाड़) सांप चिड़िया के पुराने घोंसले में जीभ डाल रहा था। उसने गाना शुरू किया," जिंदगी है एक शिकन रुमाल की/देखते ही देखते उड़ जाएगी यह चिरैया डाल की'। गाना समाप्त किया तो मैंने कहा,"यह तो कुंवर बेचैन की कविता है।"
उसने कहा,"वे मेरे मित्र हैं।"
मैं चौंका, सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। कहां वे पोस्ट-ग्रेजुएट कालेज में प्राध्यापक और कहां यह जुनियर अफसर! पूछा,"कैसे?"
उसने बताया कि हम एकसाथ मंचों पर जाते हैं।
"तुम खुद गीत लिखते हो?"
"जी हां।"
"सुनाओ"
उसने सुनाया : दर्द मेरा मनमीत बन गया
सुधियों के आंगन में पल कर
गंगाजल सा पुनीत हो गया.....
उसकी आवाज में जो खनक थी, वह अद्वितीय थी, जो वेदना थी उससे सबकी आंखें नम हो गई। मुझे विश्वास हो गया कि यह कोई सामान्य आदमी नहीं है। मुझे अपने अबतक के व्यवहार पर बड़ा पछतावा हुआ। मैं क्षमा तो नहीं मांग सका, पर आगे बहुत विनीत हो गया। उसका नाम राजगोपाल सिंह था।



एक दिन सुबह राजगोपाल सिंह आये और मेरी डायरी ले गये। दो-तीन घंटे तक पढ़ते रहे और निशान लगाते रहे। मुझे लौटाते हुए कहा कि जहां -जहां निशान लगाया है उनको यदि एक सिमेट्री में लिखा जाय तो अच्छी कविताएं बन जाने की संभावना है। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उसने निशान उन्हीं अंशो पर लगाया है, जिन्हें लेकर मैंने कुछ कविताएं अंग्रेजी में लिखी थीं शिलाङ में १९७४-७५ में जो इलुस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में छपी थीं। पर तब मैंने कवि बनने के लिए नहीं सोचा था।(शिलाङ प्रसंग की चर्चा कभी मैं अलग से करूंगा। वैसे वह रघुवीर शर्मा को दिये साक्षात्कार में आया है और डा. सुरेश चंद्र संपादित 'रचनाधर्मिता की परख' में संकलित है।) इससे मुझे लगा कि उसे कविता के बारे में --कथ्य और शिल्प, दोनों स्तरों पर-- गहरी जानकारी है, मुझमें कवि बनने की प्रतिभा देख रहा है और उसे बाहर लाना चाह रहा है।
मैंने उसका विस्तृत परिचय पूछा। पता चला कि वह रूड़की के पास मंगलौर के एक गांव का रहनेवाला है। जाति का नाई है। पिता हमारे ही विभाग में अधिकारी हैं दिल्ली में तैनात। गाजियाबाद के एक कालेज से हिंदी साहित्य में एम.ए. प्रिवियस तक पढ़ा है। पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया क्योंकि पिता की कमाई से घर नहीं चल पाता था। उन्होंने बड़े अधिकारियों से कह कर इस पद पर रखवा दिया। ट्रेनिंग के बाद पोस्टिंग काला पानी, धारचूला, माना आदि में होती रही। पिछले दो साल से देहरादून में है। तीन बच्चे हैं। उन्हें किसी तरह से जिला रहा हूं। कविता लिखना पढ़ते समय से ही शुरू कर दिया था। उसी समय से आज के गीतकारों से परिचय होने लगा था। पर महत्व सिर्फ कुंवर बेचैन को देता हूं। कविता ‌सिर्फ उनके गीतों में ‌है। दूसरे गला और चुटकुला के बल पर कमाते - खाते हैं। उसने यह भी बताया कि देहरादून में कुछ बड़े अच्छे साहित्यकार हैं। उन सबसे उसका परिचय है मैं चाहूं तो वह सबसे परिचय करा सकता है। उनसे मिलने - जुलने से रचना में निखार आएगा, उनके वजन का पता चलेगा, आज की प्रवृत्तियों का ज्ञान होगा, आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। मैं साहित्य की इस दुनिया को देखने के लिए अपने को मन ही मन तैयार किया।

राजगोपाल ने प्रतिदिन किसी न किसी साहित्यकार के यहां चलने की योजना बनाई। राय दी कि उनसे भरसक उनके घर जाकर मिला जाय और घर सरकारी वाहन से न जाया जाय। घर पर मिलने से आत्मीयता बढ़ेगी। सरकारी वाहन से जाने पर एक तो अगल-बगल के लोगों का अनावश्यक ध्यान खिंचेगा, दूसरे जिसके घर जाएंगे वह महत्वपूर्ण आदमी आया जानकर स्वागत और औपचारिकता ‌ में लगा रहेगा, इससे आत्मीयता नहीं ‌‌स्थापित हो पाएगी , जो हमारा उद्देश्य है। मुझे उसकी बात में दम लगा। लगा कि वह सामाजिक व्यवहार के बारे में कितना अनुभव रखता है। वैसे भी उन दिनों सिर्फ तीस लीटर पेट्रोल मिलता था महीने भर में जो दफ्तर के काम के लिए भी पूरा नहीं पड़ता था। उन दिनों मेरे पास क्रुसेडर मोटरसाइकिल थी, फिरोजी रंग की चमकती हुई, जिसे मैं शिलाङ से लाया था। अभी चलाने में उतना पारंगत नहीं हुआ था। कुछ दिन अभ्यास करने में लगाया। राय दिया कि वह अपने बाल कटा डाले, रोज दाढ़ी बनाये। जमाना छायावाद का नहीं था कि सुमित्रानंदन पंत या रवींद्रनाथ टैगोर की तरह लंबे बाल रखे जांय और और उर्दू के कवियों की तरह गम में डूबा दिखा जाय। उसने मेरी बात पर अमल किया।
हम जिया नहटौरी से मिलने पहले गये कि सुखबीर विश्वकर्मा से, ख्याल नहीं आ रहा है। दोनों पल्टन बाजार के घंटाघर के दक्षिण काम करते थे। घंटाघर से जो सड़क सीधे दक्षिण जाती है, उसी पर कोई दो सौ मीटर चलकर जिया का स्टूडियो था, एक पुराने मकान की दूसरी मंजिल पर। फोटोग्राफी उनकी जीविका का साधन थी। हम पहुंचे तो लगा कि जैसे वे प्रतीक्षा कर रहे हैं। शायद राजगोपाल उन्हें सुबह दफ्तर आते वक्त बता आए थे। नाटा कद, दाढ़ी -मूंछ सफाचट, सफेद कुर्ता -पायजामा, पान से रंगे दांत और होठ। बड़ी गर्मजोशी से मिले। परिचय के बाद खुल कर बातें करने लगे, समकालीन उर्दू कविता के बारे में। अब मैं अमीर अली का उर्दू साहित्य का इतिहास अंग्रेजी में पढ़ चुका था, जिसमें अंतिम कवि के रूप में मोहम्मद इकबाल का जिक्र था। उसके आगे मेरे लिए सबकुछ नया था, इसलिए काफी जिज्ञासा थी। अंत में उन्होंने ग़ज़ल कहने का सुझाव दिया और उसका व्याकरण सिखा देने का वादा किया। पहली ही मुलाकात में हम इतने खुले कि आगे मुझे जब भी मौका मिलता था, नि: संकोच टाइम -बेटाइम उनके पास चला जाता था।
सुखबीर विश्वकर्मा से मुलाकात उनके वैंग्वार्ड प्रेस में हुई। घंटाघर से सीधे जो सडक पश्चिम जाती है, उसी पर कुछ दूर चलकर एक छोटा -सा खुला मैंदान था, जिसके दक्षिण तरफ वह प्रेस था, जहां वे काम करते थे।वैंग्वार्ड एक चार पेजी साप्ताहिक था, जिसके तीन पन्ने अंग्रेजी के होते थे, एक पन्ना हिंदी का, जिसमें कुछ साहित्य भी छपता था। बाद में वह दैनिक हो गया। सुखबीर विश्वकर्मा उस पन्ने के संपादक थे। पता चला कि वे स्वयं ठीक -ठाक कविताएं नहीं लिखते , पर कविता के बारे में उनका ज्ञान अच्छा-खासा है। नाटा कद, कुछ ज्यादे ही नीला रंग, ऊपर से ललछ ऊं, आगे के कुछ दांत गायब, बाकी पीक से रंगे, काफी हद तक गंजा सिर, चौकोर चेहरा लगभग सपाट, ठुड्डी नुकीली, नाक उठी हुई, काइयां आंखें, पूरे चेहरे पर सामने वाले के प्रति उपेक्षा का भाव। हम जब पहुंचे तो वे काम में व्यस्त थे, अखबार छप रहा था, वे फाइनल टच दे रहे थे। खाली हुए तो परिचय हुआ, कुछ बातें हुईं, चाय पीया गया। जब हम चलने लगे तो उन्होंने कहा,"जो भाषा आप बोलते हैं, उसमें कविता नहीं लिखिएगा। जो भाषा हम लोग बोलते हैं, उसमें लिखिएगा। मेरी जिज्ञासा स्वाभाविक थी, "क्यों?" "यह भाषा छायावादी है।" मैंने पहली बार जाना कि भाषा भी बीरगाथाकालीन, भक्तिकालीन, रीतिकालीन, भारतेंदु कालीन, छायावादी आदि होती है और मुझे समकालीन सामान्य लोगों की भाषा में लिखना है। उन दिनों मैं संस्कृतनिष्ठ भाषा बोलता था, जिसे लोग चेस्ट हिंदी कहते थे।

छुट्टी का दिन था। राजगोपाल सिंह सुबह- सुबह आ गये। आते ही बोले, " भाई साहब एक ग़ज़ल हुई है"। इधर वे थोड़ा बेतकल्लुफ़ हो गये थे और अकेले में कभी-कभी भाई साहब कह देते थे, विशेषकर जब वे खुशी से उत्तेजित होते थे। पहले अपपटा लगता था, अब नहीं। मैं नाश्ता करके उठा ही था। आगे का काम स्थगित कर ग़ज़ल सुनी जा सकती थी। कहा,"सुनाएं।" जो ग़ज़ल उन्होंने सुनाई, वह यूं थी :
कुछ नया करके दिखाना चाहता है आदमी
मारकर खुद को जिलाना चाहता है आदमी
अपनी दीवारों को ऊंचा और करने के लिए
दूसरों के घर गिराना चाहता है आदमी
सौंप कर सत्ता समूची हाथ में अंधियार के
रोशनी के पर जलाना चाहता है आदमी
भाषणों की रोटियों को फेंक कर माहौल में
आग पानी में लगाना चाहता है आदमी
खींच कर जम्हूरियत से कुव्वते गुफ्तार को
अम्न की दुनिया बसाना चाहता है आदमी
शहर का इक खूबसूरत चित्र क्यों इसको दिखा
गांव को फिर बर्गलाना चाहता है आदमी
(बाद में उन्होंने जिआ नहटौरी के सुझाव पर पहले शै'र की दूसरी पंक्ति बदल दी --हाथ पर सरसों उगाना चाहता है आदमी। फिर इसे पहली पंक्ति बनाकर, पहले की पहली पंक्ति को दूसरा बना दिया। और बाद में साकिब बरेलवी के सुझाने पर पांचवा शे'र हटा दिया। ग़ज़ल शायद पांच शे'रों की ही स्तरीय मानी जाती है। इसी रूप में यह ग़ज़ल उनके संग्रह "ज़र्द पत्तों का सफर" में छपी है।)
मैंने उन्हें गाकर सुनाने के लिए कहा। उसे सुनकर कैंपस के सभी ल़ोग उपस्थित हो गये। उम्मीद थी कि उनकी फरमाइश पर यह सिलसिला लंबा चलेगा, पर बात यहीं थम गई जब उन्होंने तुरंत प्रस्तावित किया कि सुभाष पंत से मिलने चलते हैं। वे यहीं पास में रहते हैं। मुझे तुरंत जाना ठीक न लगा। छुट्टी का दिन है, देर से उठे होंगे, नहाना -धोना चल रहा होगा, कुछ घरेलू काम होगा। मैं टालना चाहता था, पर राजगोपाल सिंह ने कहा कि ऐसे सोचते रहेंगे तो कभी किसी से मिलना नहीं हो पाएगा। बात तो ठीक थी। मैं चलने के लिए तैयार हो गया।
डोभालवाला गांव कालिदास रोड के दक्षिणी छोर पर स्थित है, मेरे आवास से मुश्किल से हजार कदमों की दूरी पर। पहले वह गांव रहा होगा, अब पोश शहर का हिस्सा है। पंत जी का घर पाश ही था। उनकी दो-तीन कहानियां मैं सारिका में पढ़ चुका था और "गाय का दूध" की विशेष स्मृति थी। उसी के लेखक की छवि लिए मैं उनके घर पहुंचा। वे अपने कैंपस की झाड़ियां साफ कर रहे थे। राजगोपाल सिंह से परिचित थे। राजगोपाल ने छूटते ही कहा,"मैं मिश्र जी को ले आया हूं।" अभिवादन के बाद वे अपनी बैठक में ले गये। दुबली पतली काया, नाटा शरीर, फोकचिआए गाल, टिपिकल पहाड़ी रंग, खूब छोटे -छोटे बाल, दृढ आवाज, सधे कदम, हाथ की मुठ्ठी बंधी हुई, स्वयं आत्मविश्वास से भरे हुए।

सुभाष पंत उन दिनों एक कहानी लिख रहे थे 'समुद्र' या 'महासमुद्र' शीर्षक से। उसमें वे नेता और निचले तबके के लोगों की बढ़ती जा रही खाई का जिक्र किया था, जिसमें जनता का विशाल समुद्र भरता जा रहा था, जिसके परिणामस्वरूप न तो लोग अपनी जरूरत नेता को बता पा रहे थे और न ही नेता द्वारा प्रदत्त लाभ उनतक पहुंच पा रहा था। उसके कच्चे रूप को उन्होंने सुनाया। बताया कि वे कहानी को पहले मन ही मन पूरा लिख डालते हैं, फिर कागज पर उतारते हैं।यह मेरे लिए एक व्यावहारिक इशारा था। उन्होंने मुझसे कुछ कविताएं सुनाने के लिए कहा।कहा कि रचनाकार की पहचान रचना ही होती है। तबतक मेरे पास कोई कविता थी नहीं। याद नहीं है कह कर तोप-ढाक किया।
जिनसे अच्छा निभना होता है उसकी बुनियाद अक्सर पहली मुलाकात में ही पड़ जाती है। पंत जी के साथ भी ऐसा ही हुआ। वे इंडियन फारेस्ट इंस्टीट्यूट में वैज्ञानिक थे। बाटनी में एम. एससी. हैं । लिखने लगे तो हिंदी में भी एम.ए. कर लिया, जिससे कि दृष्टि साफ हो जाय। वह साफ दृष्टि उनकी रचनाओं में उजागर है। उपन्यास "पहाड़ चोर" उसका उत्तम उदाहरण है। खैर, दफ्तर से आने के बाद फ्रेश होकर वे अक्सर मेरी तरफ आ जाते थे, या मैं उनकी तरफ जला जाता था। हम टहलते हुए साहित्य पर बातें करते थे, जो मेरे लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हुईं। ऐसी ही बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे धूमिल और मुक्तिबोध की कविताओं को पढ़ने की राय दिया। दोनों का नाम मैंने सुन रखा था, पर पढ़ा कुछ नहीं था। कांग्रेस पार्टी के दफ्तर के पास ही किताबों की एक अच्छी दुकान थी, शायद अब भी ‌हो । करेंट या माडर्न बुक डिपो नाम था। धूमिल का संकलन "संसद से सड़क तक" वहां मिल गया। पर मुक्तिबोध की पुस्तक नहीं मिली। शुरू में ही तीन पंक्तियां उद्धृत थीं: "कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है", "कविता भीड़ में बौखलाए हुए आदमी का एकालाप है", और एक पंक्ति थी जो फीलवक्त याद नहीं आ रही है। इन पंक्तियों को पढ़ कर मैं झन्न से रह जाता था। आकर्षित करती थीं, झटका देती थीं, पर उनका अर्थ गोचर नहीं होता था, एक-एक शब्द का अलग -अलग अर्थ जानने के बावजूद। मैंने फिर भी पुस्तक पढ़ी। राजगोपाल सिंह ने एक दिन उस पुस्तक को मेरी मेज पर देखा तो पूछा,"कुछ समझ में आता है?" मैंने नहीं कहा तो उन्होंने भी बताया कि वे क ई बार पढ़ चुके हैं, पर कुछ पल्ले नहीं पड़ा है। बल्कि सविता जी से भी पूछा है, पर वे भी कुछ ठीक से समझा नहीं पाये। कहे कि यह किसी बड़े ही प्रतिभा सम्पन्न आदमी की उल्टी है। सविता जी राजगोपाल के फूफा थे, जो रुड़की या मुजफ्फरनगर के किसी कालेज में अंग्रेजी साहित्य पढाते थे। स्वयं भी अंग्रेजी में कविताएं लिखते थे। बाद में जब वे संकलित होकर प्रकाशित हुईं त़ो उस पुस्तक की भूमिका मैंने लिखी थी। बाद में इन कविताओं का अर्थ तब गोचर हुआ जब मैं इलाहाबाद आया।