Friday, December 9, 2011

शादी एक निजी मामला है




चिनुआ अचीबी अफ्रीका के जीवित  महा कथापुरुष हैं और कहा जाता है कि अफ्रीका को जानना है तो इतिहास की किताबों की  बजाय चिनुआ अचीबी का कथा साहित्य पढना चाहिए.उन्हें नोबेल छोड़ दें तो दुनिया के लगभग सभी बड़े साहित्यिक पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं.यहाँ प्रस्तुत है पचास साथ साल पहले लिखी उनकी एक बेहद मार्मिक कहानी...इस कहानी की खास बात यह है कि  यदि नाम और स्थान को भूल जाएँ तो यह पूरी तरह से  भारतीय समाज से उपजी हुई एक  कहानी लगती है. ब्लॉग के पाठक मित्रों के लिए यहाँ प्रस्तुत है वह कहानी:
प्रस्तुति: यादवेन्द्र 
                       -- चिनुआ अचीबी

एक शाम लागोस के अपने कमरे में बैठे बैठे नेने अचानक नेमेका से पूछ बैठी:
तुमने अपने पिताजी को चिट्ठी लिख दी?
नहीं,मैं अभी सोच ही रहा था.मुझे लग रहा है कि चिट्ठी लिखने की बजाय जब
छुट्टी में घर जाऊंगा तो सामने बैठ कर ही बता दूंगा.
पर ऐसा क्यों?अभी तो तुम्हारी छुट्टी बहुत दूर पड़ी है..पूरे छह हफ्ते
.हमारी ख़ुशी में उनको शामिल होने का पूरा हक़ है.
थोड़ी देर के लिए नेमेका खामोश बना रहा,फिर लगभग फुसफुसाते हुए बोला: मुझे
पहले यह तो भरोसा हो कि इस खबर से उनको ख़ुशी मिलेगी.
बिलकुल मिलनी चाहिए....नेने ने जोर दे कर कहा...तुम्हें इसमें शंका क्यों
हो रही है?
तुम तो सारी उमर लागोस जैसे शहर में रही...दूर दराज के गांवों में रहने
वाले लोगों के बारे में तुम्हें क्या पता.
तुम हमेशा यही कहते हो.पर यह मेरी समझ से परे है कि उनके बेटे की शादी
तय हो जाये और वो इस से उन्हें दुःख पहुंचे...यह तो बिलकुल इल्ति रीत
हुई.
बिलकुल सही,उनको गहरा सदमा लगेगा जब उनके तय किये बगैर बेटे की शादी
पक्की हो जाये.हमारे मामले में तो और भी फजीहत होगी...तुम तो मेरी जाति
की भी नहीं हो.
यह बात इतनी गंभीरता से और इतने नंगे रूप में कही गयी थी कि नेने को थोड़ी
देर तक तो साँस भी नहीं आई,बोलना मुहाल.बड़े शहर के माहौल में पली बढ़ी
नेने के लिए यह कल्पना से परे था कि किसी युवक की बिरादरी उसकी  शादी के
लिए लड़की  तय करेगी.
थोड़ा ठहर कर उसने कहा: तुम यही कहना चाहते हो कि उनको इसी बात पर सबसे
ज्यादा एतराज होगा कि तुम बिरादरी से बाहर शादी कर रहे हो? मुझे हमेशा से
यही लगता रहा कि तुम्हारी बिरादरी दूसरे लोगों के प्रति बड़ी उदार है.
बात सही है कि हम ऐसे ही हैं.पर जब शादी का मामला सामने हो तो सारी
उदारता गयी घास चरने.पर यह सिर्फ मेरी बिरादरी का सच नहीं है...उसने
कहा...आज यदि तुम्हारे पिता जीवित होते और ऐसे ही दूर दराज के गाँव में
रहते होते तो बिलकुल मेरे पिता जैसा ही बर्ताव करते.
मुझे नहीं मालूम क्या करते.पर तुम तो अपने पिता के इतने लाडले बेटे
हो...वो तुम्हें जल्दी ही माफ़ कर देंगे.अब अच्छे बच्चे की तरह फटाफट
कागज कालम लो और उनको एक प्यारी सी चिट्ठी लिख डालो.
मुझे लगता है कि चिट्ठी लिख कर उन तक यह बात पहुँचाना अच्छी बात नहीं
होगी...चिट्ठी उनको  एक तीर की तरह जा कर चुभेगी..इस बारे में मुझे कोई
शुबहा नहीं.
ठीक है डिअर..जैसा ठीक लगे वैसा ही करो.आख़िर तुम्हीं  अपने पिता को जानते हो.
शाम को जब नेमेका अपने कमरे पर लौटा तो उसके मन में शादी के लिए अपनी
पसंद की लड़की चुन लेने की बात पर पिता के क्रोध से निबटने के लिए तरह तरह
की तरकीबें आती रहीं.बार बार उसके मन में चिट्ठी भेजने से पहले नेने को
दिखा लेने की बात आती रही पर अंत में उसने यही तय पाया कि इसके लिए यह
सही समय नहीं है.कमरे पर पहुँच कर उसने पिता को लिखी चिट्ठी फिर से ठंडे
दिमाग से पढ़ी..अपने आप पर उसको हँसी भी आ गयी..एकदम से उसको उगोये का
ध्यान आ गया...वह लड़की जो स्कूल से लौटते हुए साथ के सभी लड़कों की (
नेमेका भी उनमें शामिल था) पिटाई किया करती थी.
मैंने तुम्हारे लिए जिस लड़की को पसंद किया है मुझे लगता है वह तुम्हें
खूब पसंद आएगी..अपने पडोसी जैकब न्वेके की सबसे बड़ी बेटी उगोये
न्वेक्व.उसकी परवरिश बिलकुल शुद्ध ईसाई ढंग से हुई है.पिछले दिनों जब
उसने स्कूल की पढाई पूरी की तो उसके सयाने पिता ने उसको एक पादरी के घर
पत्नी बनने की बाकायदा ट्रेनिंग लेने के लिए भेज दिया.उसके टीचर ने मुझे
बताया कि वह बाइबिल बड़े सधे हुए ढंग से पढ़ती है. मैं चाहता  हूँ कि
दिसंबर में जब तुम घर आओ  तो हम शादी की  बात शुरू करें.
शहर से घर जाने के दूसरे दिन नेमेका घर के सामने के उस पेड़ के नीचे अपने
पिता के साथ बैठा जहाँ  बैठकर वे बाइबिल पढ़ा करते हैं.
पापा,मैं आपके पास माफ़ी माँगने आया हूँ...नेमेका ने पिता से कहा.
माफ़ी?क्या हुआ बेटे?..अचरज से पिता ने पूछा.
शादी के सिलसिले में...
कैसी शादी?
मैं..हमें..मैं यह कहना चाहता हूँ कि न्वेके की बेटी के साथ शादी करना
मेरे लिए संभव नहीं है.
ना-मुमकिन...ऐसा कैसे हो सकता है...पर क्यों?
क्योंकि मैं उसको प्यार नहीं करता.
किसने कहा कि तुम उस से प्यार करते हो...और करना भी क्यों चाहिए?
आज के समय में शादी आपके समय से अलग होती है.
सुनो मेरे बेटे...पिता ने तमक कर कहा...कुछ भी नहीं बदला,पत्नी चुनते हुए
बस यही देखना चाहिए कि उसका चाल चलन अच्छा हो और उसकी परवरिश अच्छे
धार्मिक माहौल में हुई हो.
नेमेका को समझ आ गया कि इस वक्त अपने तर्कों से वो पिता को नहीं जीत सकता.
और दूसरी बात ये है कि मैं किसी दूसरी लड़की के साथ सगाई कर चुका हूँ
जिसमें वो सब गुण हैं जो उगोये में हैं...और..
पिता को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ...क्या कहा  तुमने?..अस्पष्ट सी
धीमी आवाज में उन्होंने पूछा.
वो एक धार्मिक लड़की है और लागोस के एक गर्ल्स स्कूल में टीचर है..बेटे ने सफाई दी.
टीचर...यही कहा न तुमने?यदि मुझसे पूछो कि अच्छी पत्नी के लिए जरुरी गुण
क्या होते हैं तो मैं कहूँगा कि किसी ईसाई स्त्री को टीचर नहीं होना
चाहए.सेंट पाल ने अपनी एक चिट्ठी में लिखा है कि स्त्रियों को ख़ामोशी का
पालन करना चाहिए....पिता अपनी जगह से उठे और आगे पीछे टहलने लगे.अब वो
अपने प्रिय विषय पर आ गए थे और उन्होंने जोर जोर से चर्च के उन नेताओं को
बुरा भला कहना शुरू कर दिया जो स्त्रियों को शिक्षण के क्षेत्र में जाने
के लिए प्रेरित करते हैं.देर तक धारा प्रवाह बोलते रहने के बाद जब वे थक
कर हाँफने लगे तो फिर से शादी के मुद्दे पर आये.
तो वो किसी बेटी है?
उसका नाम नेने अटंग है.
क्या?...सारी नरमी पाल भर में काफूर हो गयी...इस  नाम का क्या मतलब?
नेने अटंग,कालाबार से है वो.मैं शादी करूँगा तो सिर्फ उसी से...नेमेका
बिना आगा पीछा देखे बोल पड़ा था.पर अगले ही पल उसको तूफ़ान फट पड़ने  का
अंदेशा हो गया.ताज्जुब की बात कि उसका अंदेशा गलत निकला.पिता चुपचाप वहाँ
से अपने कमरे में चले गए.नेमेका को इस बदले हुए बर्ताव से खुद भी अचरज
हुआ.उसको मालूम था कि पिता की चुप्पी उनकी दहाड़ों भरी  भाषणबाजी से
ज्यादा खौफनाक होती है.पिता ने उस रात खाना भी नहीं खाया.
अगले दिन जब वो बेटे को विदा करने लगे तो बार बार उसको अपना निश्चय बदल
देने के लिए समझाते भी रहे.पर नौजवान बेटे के निश्चय में रत्ती भर का भी
फर्क नहीं आया देख अंत में उन्होंने मन को समझा  लिया कि बेटा अब हाथ से
निकाल चुका है.
यह मेरा फर्ज था कि मैं तुम्हें सही और गलत में फर्क करना बताऊँ..पर
जिसने भी तुम्हारे भेजे में उस लड़की का ख्याल भरा है उसने तुम्हारी जुबान
काट दी है..यह शैतान का ही काम हो सकता है...जाते हुए बेटे की ओर हाथ
उठाते हुए पिता ने अंत में उस से कहा.
आप जब नेने से मिल लेंगे तो आपके विचार बदल जायेंगे पापा.
मैं उसको भला क्यों मिलने लगा?..पिता की आवाज नेमेका ने सुनी.
उसके बाद से नेमेका से पिता की बातचीत लगभग बंद ही हो गयी.हाँलाकि उनके
मन में यह उम्मीद निरंतर बनी रही कि एक दिन बेटे को अपनी गलती का एहसास
जरुर होगा.बेटे का मन बदलने के लिए उन्होंने दुआओं का भी खूब सहारा लिया.
नेमेका को भी पिता का दुःख देख कर गहरा धक्का लगा था पर उसको यह भरोसा था
कि जल्दी ही वे इस सदमे से उबर जायेंगे.यदि उसको पहले से मालूम होता कि
उसकी बिरादरी के सम्पूर्ण इतिहास में कभी भी किसी युवक ने दूसरी भाषा
बोलने वाली लड़की से विवाह नहीं किया तो पिता के बारे में वह इतना
आशान्वित न होता.
ऐसा पहले कभी सुना ही नहीं गया...बेटे के बर्ताव से आहत उसके पिता को
दिलासा देने  दूसरे गाँव से आए बिरादरी के एक बुजुर्ग दूसरों को सुना
सुना कर कह रहे थे.
प्रभु  ने पहले ही कह दिया था...बेटे अपने पिताओं के खिलाफ खड़े  हो
जायेंगे..पवित्र पुस्तक में लिखा हुआ है...दूसरे बुजुर्ग ने फरमाया.
विनाश की यह शुरुआत है.....किसी दूसरे की आवाज सुनाई दी.
लम्बी चौड़ी धार्मिक चर्चा को समेटते हुए एक निहायत व्यावहारिक बुजुर्ग ने
कहा: अपने बेटे के बारे में किसी ओझा से बात क्यों नहीं करते?
पिता ने ठंडे ढंग से जवाब दिया: पर उसको  कोई बीमारी थोड़े ही है.
बीमार नहीं है तो क्या है?उस लड़के का दिमाग बीमारी से ग्रसित है और कोई
अच्छा हकीम ही उसको ठिकाने पर ला सकता है...दर असल उसको वही दवाई माफिक
आयेगी जो स्त्रियाँ अपने पतियों को काबू में लाने के लिए इस्तेमाल करती
है.
दूसरे बुजुर्गों ने भी इस ख़ास मशविरे पर अपनी मुहर लगा दी.
नेमेका के पिता चाहे जो भी हों  अपने आस पास रहने वाले लोगों की तरह
मूढ़मगज नहीं थे,सो बोले: मैं किसी ओझा हकीम के चक्कर में नहीं पड़ने
वाला..यदि मेरा बेटा खुदकुशी पर ही आमादा है तो कर लेने उसको ऐसा ही,मैं
इसमें कुछ नहीं कर सकता.
छह महीने बाद नेमेका अपनी युवा पत्नी को पिता की लिखी एक चिट्ठी दिखा रहा
था.लिखा था:
मुझे ताज्जुब होता है कि कैसे तुमने  मेरे पास अपनी शादी को फोटो भेजने
की जुर्रत की.मैं तो इसको लौटती डाक से  ही वापस भेजने वाला था.पर थोड़ा
विचार करने के बाद मुझे लगा कि इसमें से मैं तुम्हारी पत्नी की  फोटो
फाड़ कर अलग कर देता हूँ और बाकी हिस्सा तुम्हें भेज देता हूँ...उस से
हमें क्या लेना देना...यह तो नहीं  हो सकता  कि उसी की तरह मैं अपने बेटे
को भी भूल जाऊं..
जब नेने ने यह चिट्ठी पढ़ी और बुरी तरह से फाड़ी हुई फोटो देखी तो उसकी
आँखों से आंसुओं कि तेज धार बह निकली...अपनी  रुलाई  वह नहीं रोक पाई.
रोओ मत मेरी प्रिय...खूब प्यार करने वाले पति ने कहा..मन से पिता अच्छे
आदमी हैं और एक न एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब हमारी शादी को उनका आशीर्वाद
मिलेगा.
पर साल दर साल बीतता रहा और वह दिन आया नहीं.देखते देखते आठ साल बीत गए
और पिता को बेटे की सुध नहीं आई.इस बीच में तीन ऐसे मौके आये जब  नेमेका
ने छुट्टियाँ बिताने को घर आने की इच्छा जताई...और पिता ने जवाब दिया:
मैं तुम्हें अपने घर में पाँव नहीं रखने दे सकता...एक मौके पर उन्होंने
लिखा...मुझे इस से  कोई मतलब नहीं कि तुम अपनी छुट्टियाँ कैसे मनाते
हो...या अपना जीवन कैसे जीते हो.
नेमेका की शादी को लेकर पैदा हुई कडवाहट सिर्फ उसके छोटे से गाँव तक
सीमित नहीं थी.लागोस में भी लोग इसको एक अलग नजरिये से देखते थे.पर वहाँ
की स्त्रियाँ जब आपस में मिलती तो नेने के प्रति कोई बुरा बर्ताव नहीं
करतीं.बल्कि उसको इतना आदर देती कि वह संकोचवश स्वयं अलग थलग पड़ जाती.
समय बीतने के साथ नेने ने कोशिशें कर के उनके स्थ मेल जोल थोड़ा बढ़ा भी
लिया.धीरे धीरे उन्होंने स्वीकार भी किया  कि नेने अपने घर को ज्यादा साफ़
और सुरुचिपूर्ण रखती है.
समय के साथ नेमेका के गाँव में यह खबर पहुँचने लगी कि नेमेका अपनी सुन्दर
पत्नी के साथ बड़े प्रेम और ख़ुशी के साथ रहता है. पर विडंबना यह थी कि
नेमेका के  पिता गाँव के उन बिरले लोगों में थे जिन्हें नेमेका के बारे
में बहुत कम जानकारी रहती थी.जब भी कोई उनकी मौजूदगी में नेमेका का नाम
लेता वे ऊँची आवाज में अपने क्रोध का इजहार करने लगते थे सो लोग उनके
सामने उसकी चर्चा करने से ही बचने लगे थे.इस व्यवहार के लिए उनको बहुत
परिश्रम कर के खुद को साधना पड़ा था..इसका  तनाव  उनके पूरे व्यक्तित्व
पर दिखाई देता था पर वह अपने ऊपर विजयी भाव सदा ओढ़े रहते.
एक दिन उनके पास नेने का लिखा एक पत्र आया..यूँ ही अनमने भाव से वे उसपर
निगाह डालने लगे पर अचानक उनके चेहरे के भाव बदलते दिखाई दिए...वे गौर से
चिट्ठी पढने लगे...
हमारे दो बेटे हैं..जब से उनको यह पता चला है कि उनके दादाजी भी हैं..तब
से निरंतर वे दादाजी के पास जाने की जिद पर अड़े हुए हैं. मेरे लिए यह
मुमकिन नहीं हो पा रहा है कि मैं उनको यह बताऊँ कि दादाजी उनका मुँह तक
देखने को राजी नहीं हैं.मेरी आपसे हाथ जोड़ कर यह बिनती है कि नेमेका के
साथ थोड़े समय के लिए उनको अगली छुट्टियों  में गाँव आने की इजाज़त दे
दें...मैं  नहीं आउंगी,यहीं लागोस में रहूंगी.
बूढ़े पिता को चिट्ठी पढ़ते हुए यह एहसास हुआ कि बरसों से संजोया उसका दृढ
निश्चय और संकल्प पल भर में धराशायी हो जायेगा.उसका मन कह रहा था कि इतनी
आसानी से यह संकल्प जमींदोज नहीं होना चाहिए.भावनात्मक आवेग के सामने वह
इस्पात की दिवार बन कर अड़े रहना चाहता था.पास की खिड़की से टिक कर वह
आसमान की ओर देखने लगा.आसमान में घने काले बदल थे पर तभी तेज हवा चलने
लगी और माहौल धूल और सूखी पत्तियों से भरने लगा.उसको लगा कि इस समय
प्रकृति भी मानव संघर्ष में हाथ बँटा रही है.देखते देखते बरसात शुरू हो
गयी,साल की पहली बरसात..बादलों की तेज गड़गड़ाहट और बिजली चमकने के साथ
मौसम में परिवर्तन का सन्देश मिलने लगा.पिता खूब कोशिश कर रहा था कि अपने
दोनों पोतों के बारे में सोचना बंद कर दे,पर  उसको साफ़ दिख रहा था कि वह
एक हारी हुई बाजी खेल  रहा है.मन कडा  कर के उसने अपना प्रिय भजन
गुनगुनाने की कोशिश की पर छत पर पड़ती बड़ी बड़ी बूंदों की आवाज से उसका
ध्यान भंग होने लगा.सारी कोशिशों के बावजूद उसका मन भाग भाग कर अपने
पोतों की ओर   ही जाने लगा.उनको बाहर धकेल कर वह घर का दरवाज़ा कैसे बंद
कर ले?उसकी आँखें स्पष्ट देख रही थीं कि दोनों बच्चे दरवाजे पर खड़े
हैं..सहमे हुए और उदास..ऊपर से इतना सख्त और क्रोधित मौसम...
उस रात वह बिलकुल सो नहीं पाया...मन ग्लानि से भर गया..और बार बार यह
डरावना ख्याल दस्तक देता रहा कि कहीं वो उन बच्चों को देखे बिना ही आँखें
न मूंद ले.
प्रस्तुति: यादवेन्द्र 

Monday, November 28, 2011

तीन सौ पैंसठ दिन तीन सौ पैंसठ प्रजातियों के भात का भोग

सिवा मार काट और नकारात्मक खबरों से भरे राष्ट्रीय मीडिया से विलुप्त होते गये कश्मीर पर  हमारे वरिष्ठ साथी और जिम्मेदार नागरिक यादवेन्द्र जी की एक  बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी ...

दशकों से आमतौर पर अनवरत सैनिक और असैनिक हिंसक वारदातों और मानव अधिकार हनन के लिए सुर्ख़ियों में रहने वाले जम्मू कश्मीर से शीतल हवा के झोंके जैसी पिछले दिनों एक सुखद खबर आई-- इस महीने के शुरू में श्रीनगर में राज्य के बागवानी विभाग ने एक फल प्रदर्शनी का आयोजन किया जिसमें चार सौ से ज्यादा  फलों से जनता को रु ब रु कराया गया.सरकारी विज्ञप्ति में हाँलाकि यह खुलासा किया गया कि ये सभी प्रजातियाँ सिर्फ जम्मू कश्मीर राज्य में होती हों ऐसा नहीं है और अनेक प्रजातियाँ दूसरे राज्यों से इस उद्देश्य से ला कर प्रदर्शित की गयीं जिस से राज्य के किसान इन्हें भी उगाने की पहल करें. यहाँ ध्यान देने वाली बात खास तौर पर यह है कि आज के समय में किसी व्यक्ति से अपने जीवन में भारत के विभिन्न हिस्सों में देखे फलों का नाम पूछा जाये तो बहुत मशक्कत कर के भी  बीस पचीस से ज्यादा फलों के नाम लेना उसके लिए मुश्किल होगा. ऐसी स्थिति में चार सौ से ज्यादा फलों को देखना भर बेहद रोमांचकारी अनुभव होगा.  
जहाँ तक जम्मू कश्मीर की अर्थव्यवस्था का प्रश्न है,  पर्यटन   के बाद फल उत्पादन यहाँ का दूसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है.सरकारी आंकड़े बताते हैं कि ताजे फलों और सूखे मेवों से राज्य को प्रतिवर्ष करीब ढाई हजार करोड़ रु. कि परपी होती है.देश  में पैदा होने वाले सेब का तीन चौथाई हिस्सा अकेले जम्मू कश्मीर में होता है.सेब की अनेक स्वादिष्ट प्रजातियाँ  तो इस राज्य से इतर कहीं और होतीं ही नहीं और सूखे मेवे (खास तौर पर अखरोट)की सौगात भी  प्रकृति ने  इसी राज्य को दी है.देश के सभी हिस्सों में यहाँ पैदा किये हुए फल तो जाते ही हैं,अनेक पडोसी देशों में भी यहाँ के फलों का खासा निर्यात होता है.करीब पाँच लाख किसान फलों की खेती में शामिल हैं और अनुमान है कि राज्य में एक हेक्टेयर के फल के बाग़ से प्रति वर्ष चार सौ मानव दिवस का व्यवसाय पैदा होता है. 
जलवायु परिवर्तन के इस देश में लक्षित दुष्प्रभावों में सेब की पैदावार का निरंतर कम होना  शुमार किया जाता है पर जम्मू कश्मीर में अमन चैन के लौटने की ख़ुशी में मानों सेब की पैदावार लगातार बढती जा रही है.अभी चार पाँच साल पहले तक यहाँ जहाँ दस बारह लाख टन सेब हुआ करता था,यह मात्रा बढ़ कर 2010 में बीस लाख टन तक पहुँच गयी और 2014  तक इसके चालीस लाख के आंकड़े को पार कर जाने की उम्मीद जताई जा रही है. 

दुनिया के अनेक देशों की तरह हमारे देश का भी दुर्भाग्य है कि आम,केला,सेब,अंगूर,अनानास,अनार,पपीता सरीखे लोकप्रिय और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध फलों के सामने बेर,करोंदा,जामुन,बेल,खिरनी,फालसा,आंवला,अंजीर,कोकम,बड़हल, शरीफा जैसे कम मात्रा में पैदा होने वाले दोयम दर्जे के दुर्बल फलों का स्वाद लोग बाग़ बाजार में उपलब्ध न होने के कारण भूलते जा रहे हैं...बस इसकी  व्यवसायिक वजह यही बताई जाती है कि उपभोक्ता माँग कम या नहीं के बराबर होने के कारण थोक व्यापारी इसमें रूचि नहीं लेता. 
आम का ही उदाहरण देखें...सुदूर दक्षिण से लेकर उत्तर पूर्व तक फैले विशाल भू भाग में इसकी देश में कोई एक हजार प्रजातियाँ रही हैं जिनके रंग,रूप ,गंध और स्वाद एक दूसरे से अलहदा रहे हैं.पर आज की तारीख में दशहरी, लंगड़ा ,अल्फंजो  जैसी  भारी माँग वाली प्रजातियों ने इतने आक्रामक ढंग से बाजार को अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि अन्य प्रजातियाँ कुछ सालों बड़ हाथ में दिया लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगी.
पर ऐसा नहीं है कि उन्मूलन की इस भेंडचाल में आम की प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने का भागीरथ प्रयास  नहीं कर रहे हैं.. लखनऊ के पास मलीहाबाद में हाजी कलीमुल्ला का जिक्र इस मामले में अक्सर आता है जो खानदानी तौर पर आम के एक ही वृक्ष पर सैकड़ों दुर्लभ प्रजातियों  का प्रत्यर्पण करने में माहिर हैं.राष्ट्रपति द्वारा उद्यान पंडित और पद्मश्री का सम्मान प्राप्त करने वाले किसान ने सौ साल आयु के एक आम के पेड़ पर तीन सौ किस्म के आम के प्रत्यारोपण किये हैं...इसके लिए उनका नाम गिनीज बुक में भी दर्ज है.
इस लेखक को आज भी बचपन में बिहार के हाजीपुर में स्थापित केला अनुसन्धान केंद्र के दिन बखूबी याद हैं जब केले की रंग बिरंगी  सैकड़ों प्रजातियाँ हुआ करती थीं ....उनके स्वाद अब भी मन में बसे हुए हैं पर पौधे शायद अब विलुप्ति की कगार पर हैं.इनमें से सबसे विशिष्ट मालभोग केला तो काफी भाग दौड़ के बाद  पिछले साल खाने को मिल गया था पर इसकी क्या गारंटी है की अगली  पीढ़ी भी उसका स्वाद चख पायेगी.
कहते हैं कि पुरी के  भगवान् जगन्नाथ को साल के तीन सौ पैंसठ दिन तीन सौ पैंसठ प्रजातियों के भात का भोग लगाया जाता था जिस से साल में किसी   किस्म कि पुनरावृत्ति न हो...पर आज तो यह किसी परी कथा जैसा आख्यान लगता है...
कहाँ हैं धान  की  इतनी प्रजातियाँ? जीवन की आपा धापी में हम धरती को उलट पलट के बहुमूल्य सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर जिस तेजी से नष्ट करते जा रहे हैं उसमें थोड़ा ठहर कर सही आकलन करने  की फुर्सत   यदि हम नहीं निकालेंगे तो पुनर्जीवन के सभी रास्ते बंद हो जाने का अंदेशा सिर पर मुँह बाए खड़ा है...
-यादवेन्द्र 
yapandey@gmail.com

इस ब्लाग पत्रिका की पिछली पोस्टों पर भी यादवेन्द्र जी ने एक मेल में जो टिप्पणी की पाठकों तक वह भी पहुंच सके, यहां इसी आशय के साथ प्रस्तुत है- 
नयी पोस्ट में हिमालय यात्रा का  आपका वृत्तान्त...जनसत्ता में पढ़ा था,पिता की पीठ पर बैठे बच्चे वाला प्रतीक इस पूरे विवरण को एक नया आयाम देता है...मेरी बेटी को भी खूब पसंद आया था यह वृत्तान्त...इन सब को संकलित करके एल जिल्द में छापें...खुद की लेह यात्रा के बाद आजकल मैं कृष्ण नाथ जी के हिमाचल और लदाख यात्रा वृत्तान्त दुबारा पढ़ रहा हूँ और हिंदी के इस अद्भुत रचनाकार की उपेक्षा पर बेहद गुस्सा आता है... 
अरुण असफल की धारदार टिप्पणी...बिज्जी मेरे भी बेहद प्रिय कथाकार हैं और उनका मूल्यांकन समय उनकी रचनाशी
लता से करेगा,विष्णु जी के लिखे  से नहीं...फिर,यदि कोई रचनाकार नोबेल प्राप्त करने की इच्छा करे तो इसमें बुरा क्या....
-यादवेन्द्र 


 

Sunday, November 27, 2011

डगमगाते हुए पांवों के एहसास पर


 


दशहरे के मैदान में दहन होते रावण के पुतले या मेले-ठेले में भीड़ के बीच दूर तक देखने की बच्चे की अभिलाषा को बहलाते पिता को देखा है कभी ? आतिशी बाण रावण की नाभी पर आकर टकराया या, अपने आप धूं धूं कर उठी लपटें- पिता के कंधें पर इठलाता बच्चा ऐसी मगजमारी करने की बजाय खूब-खूब होता है खुश। बहुत भीड़ भरी स्थिति में बमों के फटने के साथ चिथड़े-चिथड़े हो रहे रावण, मेघनाद और कुम्भकरण के पुतलों को देखने के लिए पिता के कंधें की जरूरत होती है। पिता की बांहों के सहारे कंधे पर पांव रख और बच्चा ऊँचे और ऊँचे ताकने लगता हैं। पिता की बांहें बिगड़ जा रहे संतुलन को सहारा दे रही होती। बाज दफा ऊँचाई के खौफ को दूर फेंक वह सिर के ऊपर ही खड़ा होना चाह रहा होता है। संतुलन को बरकरार रखने की कोशिश में उठी पिता की बांहें भी उस वक्त छोटी पड़ जाती हैं। बच्चे की उत्सुकता के आगे लाचार पिता अपनी हदों के पार भी कंधों के लम्बवत और शीष के सामानन्तर बांह को खींचते चले जाते हैं। शीष पर खड़े बच्चे का हैरान कर देने वाला संतुलन पिता की बांहों का मनोवैज्ञानिक आधार बना रहता है। बिना घबराये वह खिलखिलाता है, तालियां बजाता है। वश चले तो उड़ा चला जाये चिंदी-चिंदी उड़ रहे रावण के परखचों के साथ। पिता की लम्बवत बांहें ऐसे किसी भी खतरे से खेलने की ख्वाइश से पहले ही उसे सचेत किये होती हैं। डगमगाते हुए पांवों के बहुत हल्के अहसास पर ही खुली हथेलियों की पकड़ में होता है पूरा शरीर। पिता की बांहों के यागदान को कुछ ज्यादा बढ़ा चढ़ा देने की को मंशा नहीं। हकीकत को और ज्यादा करीब से जानने के लिए अभ्यास के बल पर किसी चोटी पर पहुँचे पर्वतारोही से पूछा जा सकता है कि पहाड़ के शीष पर खड़े होकर डर नहीं लगता क्या ? बहुत गुंजाइश है कि कोई जवाब मिले जिसमें बगल की किसी चोटी का सहारा पर्वतारोही को हिम्मत बंधाता हुआ हो। मेले के बीच पिता के शीष पर खड़े होकर दृश्य का लुल्फ उठाते बच्चे के पांवों की सी लड़खड़ाहट पर सचेत हो जाने की स्थितियां पर्वताराही को भी और उचकने की गुस्ताखी नहीं करने देती हैं। उचकने की कोशिश में उठी हुई बांहों की पकड़ छूट जाने का सा अहसास होता है और धम्म से बैठने को मजबूर हो जाने की स्थितियां होती हैं। चोटियों के पाद सरीखे दिखते दर्रे पिता के कंधें जैसे होते हैं जहां खड़े होकर कुछ लापरवाह हो जाना खड़ी हुई चोटियों के सहारे ही संभव होता है। करेरी झील से उतरते नाले के बांये छोर के सहारे हम मिन्कियानी दर्रे की ओर बढ़ रहे थे।
मिन्कियानी दर्रा पिता का कंधा है। मिन्कियानी ही क्यों, कोई भी दर्रा पिता का कंधा ही होता है। दोनों ओर को उठी चोटियों कंधों से ऊपर उठ गये पिता के हाथ हैं, जो कंधे पर उचक रहे बच्चे को संभालने की कोशिश में उठे होते हैं। पिता चाहें तो अपनें हाथों को किसी भी दिशा में ऊपर-नीचे, कहीं भी घुमा सकते हैं। शीश के साथ उठी हुई पिता की बांहें वे चोटियां हैं जो पर्वतारोहियों को उकसाने लगती हैं। कई दफा हाथों को बहुत ऊपर खींचते हुए किसी एक खड़ी उंगली सी तीखी हो गई चोटियों पर चढ़ना कितने भी जोखिम के बाद संभव नहीं। ऐसी तीखे उभार वाली चाटियों के मध्य दिख रहे किसी दर्रे की कल्पना करो, निश्चित ही वह बेहद संकरा हो जाएगा। लमखागा पास कुछ ऐसा ही तीखा दर्रा है, जो हर्षिल के रास्ते जलंधरी के विपरीत दूसरी ओर किन्नौर में उतरने का रास्ता देता है। मिन्कियानी दर्रा वैसा तीखा नहीं। चौड़े कंधे वाले पिता की तरह उसका विस्तार है। मध्य जून में बर्फ के पिघल जाने पाने पर हरी घास से भर जाता है। नडडी तक पहुंचने के बाद जीप मार्ग को एक ओर छोड़ सीधे एक ढाल उतरता है भतेर खडढ तक। भतेर खडढ के किनारे है गदरी गांव। पर्यटन विभाग के नक्शों में ऐसे छोटे-छोटे गांवों का जिक्र बहुत मुश्किलों से होता है। इतिहास को दर्ज करने वाले नक्शों की तथ्यात्मकता के आधार पर सत्यता को जांचते हुए आगे बढ़ जाते हैं।
हम कोई इतिहासविद्ध नही तो भी यह तो कह ही सकते हैं कि सत्ता के लिए खूनी संघर्ष से भरे सामंतों के आपसी झगड़े और उनकी वंशावलियों की सांख्यिकी से भरी इतिहास की पाठ्य-पुस्तकें ऐतिहासिक दृष्टि से इस देश की भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्थिति को समुचित रुप से रख पाने में अक्षम हैं। उत्तरोतर भारत के बारे में हमारे पास बहुत ही सीमित जानकारी है। वहां रहने वाले लोगों का इतिहास क्या नृशंस आक्रमणों से जान बचाकर भागे हुए लोगों का इतिहास है ? पश्चिम भारत को हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के बाद हमने खंगाला है क्या ? दक्षिण भारत में क्या एक ही दिन में विजय नगर राज्य की स्थापना हो गयी ? सिंहली और तमिलों के विवाद की जड़ कहां है ? नागा, कुकी और मिजो जन-जाति की संस्कृति को हम कैसे जान पायेगें ? जंगलों के भीतर निवास करने वाले लोगों से हमारा रिश्ता कैसा होना चाहिए ? ऐसे ढेरों सवालों के हल ढूंढने के लिए दुनिया से साक्षत मुठभेड़ के सबसे अधिक अवसर यात्राओं के जरिये ही मिलते हैं। हिमाचल के कांगड़ा क्षेत्र के इस बहुत अंदरूनी इलाके को सबसे ज्यादा परिचित नाम वाली जगहों चिहि्नत करें तो धर्मशाला और मैकलाडगंज दिखायी देते हैं। नड्डी मोटर रोड़ का आखिरी क्षेत्र है जो मैकलोडगंज से कुछ पहले ही कैंट की ओर मुड़ने के बाद आता है। मैकलोडगंज शरणार्थी तिब्बतियों का मिनी ल्हासा है, जहां दलाई लामा रहते हैं। नाम्बग्याल मोनेस्ट्री में। अपनी कसांग के साथ। मैकलोडगंज की संस्कृति में तिब्बत की हवा है। नक्शे में गदरी ही नहीं, आगे के मार्ग में पड़ने वाले गजनाले के पार बसा भोंटू गांव भी नहीं। भोंटू से ऊपर रवां भी नहीं। भोंटू से आगे न नौर न करेरी गांव। मिन्कियानी दर्रा करेरी के बाद कितनी ही चढ़ाई और उतराई के बाद है।
देवदार, बन, चीड़, अखरोट, बुरांस, कैंथ, बुधु और खरैड़ी यानी हिंसर की झाड़ियों चारों ओर से करेरी गांव का घ्ोरा डाले हुए होती हैं। वन विभाग के विश्राम गृह से उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर रिंगाल की झाड़ियां, एलड़, तिरंड के घने जंगलों के बीच से जो रास्ता जाता है, उसे आगे गजेऊ नाला काटता है, जिस पर लकड़ी का पुल है। पुल के इस पार से ही गजेऊ नाले के बांये छोर से सर्पीले रास्ते पर बढ़ लिये। पुल पार नहीं निकले। पुल पार कर लेते तो नौली, मल्ली, कनोल, बो, दरींडी आदि गांवों में पहुंच जाते।
यूं इस तरह से गांवों की यात्रा जन के बीच घमासान तो नहीं होती पर उखड़ते मेले से घर लौटती भीड़ की तरह लौटना तो कहलाता ही। मेला देखे बगैर घर लौटने का तो सोचा भी नहीं जा सकता। बेशक उछाल ले-लेकर नीचे को तेजी से दौड़ रहा नाला चाहे जितना ललचाये और अपने साथ दौड़ लगाने को उकसाता रहे। उसके मोह में पड़े बगैर उसकी धार के विपरीत बढ़ कर ही मिन्कियानी की ऊंचाई तक पहुंचा जा सकता था। पहाड़ की पीठ पर उतरता नाला ऐसे दौड़ रहा था मानो पिता की पीठ पर नीचे को रिपटने का खेल, खेल रहा हो। पिता हैं कि पीठ लम्बी से लम्बी किये जा रहे हैं। छोटा करने की कोशिशों में होते तो तीव्र घुमावों के साथ नाला भी घूम के रिपटता। बल्कि घुमावों पर तो उसकी गति आश्चर्यमय तीव्रता की हो जाती। पैदल मार्ग के लिए बनी पगडंडी भी ऐसे तीव्र घुमावों पर सीढ़ी दार। हम पिता की पीठ पर चढ़कर कंधें की ऊंचाई तक पहुंच जाना चाहते थे। कंधे पर खड़े होकर दुनिया को निहारने के बाद मिन्कियानी की दूसरी ओर की ढलान पर उतर जाना हमारा उद्देश्य था। दूसरी ओर नाले के साथ-साथ, पिता की दूसरी पीठ पर उतर जाना चाहते थे। दोंनों ओर की ढलान पिता की पीठ थी। पिता का हमसे कोई सामना नहीं जो हमें अपनी छाती दिखाते। वे दोनों ओर अपनी पीठ पर हमारे बोझ को झेलने लेने की विनम्रता भरी हरियाली से बंधे हैं। अपने कंधें को दर्रे में बदल देने वाले पिता की धौलादार पीठ पर मिन्कियानी दर्रा हमारा गंतव्य था। करेरी, नौली, छतरिमू, कोठराना, शेड, चमियारा, गांवों के लोग अपने जानवरों के साथ करेरी लेक के गोल घ्ोरे से बाहर दिखायी देती पत्थरीली जमीन पर छितराये हुए थे। गाय भैंसों को उससे आगे की चढ़ाई पर ले जाना बेहद कठिन है। लेक के उस गोल धेरे में अपने अपने कोठे में वे टिक गये। जवान छोकरे बकरियों को लेकर लमडल की ओर निकल गए। बकरियां दूसरे दूधारू-पालतू जानवरों से भिन्न हैं। कद-काठी की भिन्नता और देह में दूसरों से अधिक चपलता के कारण वे पहाड़ के बहुत तीखे पाखों पर पहुंच जाती हैं। हरी घास का बहुत छोटा सा तृण भी उन्हें तीखी ढलानों तक पहुंच जाने के लिए उकसा सकता है। वे चाहें तो किसी भी ऊंचाई तक जा सकती हैं। लेकिन उनके रखवाले जानते हैं कि एक सीमित ऊंचाई के बाद भेड़-बकरियों के खाने के लिए घ्ाास तो क्या वनस्पति का भी नामोनिशान नहीं। ऊंचाई की दृष्टि से कहें तो लगभग 14000-15000 फुट की ऊंचाई के बाद जमीन बंजर ढंगार है। बर्फ से जली हुई चट्टानों के बाद बर्फ के लिहाफ को ओढ़ती चटटानों की उदासी अपने बंजर को ढकने की कोशिश में बहुत कोमल और कटी फटी हो जाती है। ऊंचाईयों तक उठते उनके शीष, उदासी का उत्सव मनाते हुए, गले मिलने की चाह में दो चोटियों के बीच दर्रे का निर्माण कर देते हैं। बहुत फासले की चोटियों के मिलन पर होने वाले दर्रे का निर्माण इसी लिए बाज दफा एक सुन्दर मैदान नजर आने लगता है। मिन्कियानी वैसा चोड़ा मैंदान तो नहीं, लेकिन सीमित समतलता में वह हरियाला नजर आता है। तीखी ढलान वाला दर्रा।
करेरी लेक से मिन्कियानी के रास्ते बोल्डरों पर चलना आसान नहीं। वह भी तीखी चढ़ाई में। कुछ जगहों पर चट्टान इतनी तीखी हो जाती है कि बिना किसी दूसरे साथी का सहारा लिये चढ़ा नहीं जा सकता। एक संकरी सी गली जिसके दूसरी ओर भी वैसा ही तीखा ढाल और पत्थरों का सम्राज्य है, मिन्कियानी कहलाता हुआ है। करेरी के बाद मिन्कियानी पार करने से पहले एक ओर झील है। मिन्कियानी के दूसरी ओर भी एक बड़ी झील- गजेल का डेरा है। गजेल का डेरा खूबसूरत कैम्पिंग ग्राऊंड है। गदि्दयों का घ्ार कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं। पीने के लिए पानी हो, भेड़ बकरियों के चारे के लिए घ्ाास हो और सहारे के लिए ओट- बस इतना ही तो एक गद्दी का ठिकाना। कितनी खोह और कितने उडयार पनाहगाह हैं लेकिन घ्ार नहीं कह सकते उन्हें।  कितने ही अमावास और चांद की भरी पूरी रात गुजारते हुए भेड़ो के बदन पर चिपकती झुर-झुरी और कच्ची बर्फ ऊन में बदलने का खेल ऐसे ही जोखिमों में खेला जा सकता है। कितनी गुद-गुदी और कितनी चिपचिपाहट है बर्फ में, ठिठुरन कितनी, कितने ही रतजगे हैं गद्दी के जीवन में घुलती चिन्ताओं के कि अबकि बर्फ देर से पड़े और देर तक बची रहे घ्ाास। भेड़-बेरियों के लिए बची रहे घास, उनके सपनों में ऐसे ही उतरती है रात।   
बहते पानी के साथ आगे बढ़ें तो एक झील पर पहुंचेगें। जिसके रास्ते हमें दरकुंड पहुंचना है। यदि पानी के विपरीत दिशा में बढ़ें तो सीधे लमडल पहुंच जायेगें। गजेल के डेरे से लगभग चार गुना बड़ी झील। लमडल तक का रास्ता झीलों का रास्ता है। लमडल से निकल कर भागता जल झील के रूप में कैद हो जाता है। लमडल भी एक झील है। बल्कि लमडल तक पूरी सात झीलें हैं। लमडल से निकल कर तेज ढाल पर भागते पानी की खैर नहीं। नदी होने से पहले उसे जगह जगह मौजूद झीलों के साथ कुछ समय गुजारना है। रूप बदलकर हर क्षण भागती बर्फ को अपने आगोश में समेट लेने को आतुर धौलादार की यह श्रृंखला इस मायने में अदभुत है। लमडल से उत्तर-पूर्व की ओर बढें तो चन्द्रगुफा तक पहुंच सकते हैं। चंद्रगुफा भी एक झील है। वहां से आगे नगामण्डल निकल सकते हैं। एक झील का अपना सौन्दर्य है। लमडल एक बड़ी झील है। नीचे की ओर उतरते हुए झीलों के आकार अनुपात में छोटे होते चले गए हैं। नागमण्डल को इन्द्राहार पास के रास्ते का ही पड़ाव कह सकते हैं। यूं नागमडल से नीचे उतरने लगे तो होली गांव पहुंचा जा सकता है। धौलादार की इस श्रृंखला में भुहार, बल्यानी, मिन्कियानी, भीम की सूत्री, इन्द्राहार, जालसू, थमसर और न जाने कितने ही दर्रे हैं जो कांगड़ा और चम्बा घाटी के द्वार भी कहे जा सकते हैं। वैसे इन्हें पिता का कंधा कहें तो पिता के कंधे पर चढ़कर मेला देखने का उत्साह अपनी तरह से उकसाता है।  
 

नोट: यह यात्रा संस्मरण २० नव्म्बर २०११ के जनसत्ता में प्रकाशित हुआ है।

Friday, November 25, 2011

मुझे मालूम है



  
अरुण कुमार "असफल" ऐसे रचनाकार है जिन्हें बहुत मुखर होकर बोलते हुए कम लोगों ने ही सुना होगा। लेकिन आस पास के वातावरण, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों पर उनकी दृष्टि हमेशा बेबाक रही। हां उस आवाज को सुनने के लिए अक्सर हो सकता है कि आपको अरुण के बहुत करीब जाना पड़े। लेकिन इस बार उनका बोलना आप सुन सकें- अरुण की वह टिप्पणी जिसका जिक्र फेसबुक के माध्यम से अरुण ने किया था, यहां आप सभी के लिए सादर प्रस्तुत है।
बहुत चुपके चुपके घुमड़ने वाली असहमतियों को दर्ज करना हमारी कोशिश का एक ऐसा हिस्सा है जिसमें इस ब्लाग की सार्थकता भी साबित हो सकती है और पद, उम्र या श्रेष्ठता के दूसरे मानदण्डों के आगे असहमतियों को दर्ज न कर सकने की सामंति मानसिकता से मुक्ति का रास्ता भी बनता है। हमारा मानना है कि असमहति एक स्वस्थ बहस का आधार होती है। विश्वास है कि पाठकों तक हमारे मंतव्य सकारात्मक प्रभाव छोड़ेंगे।
 -वि. गौ.
  
सूप तो सूप चलनी भी बोली
-अरुण कुमार 'असफल"
 वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु खरे ने जनसत्ता के दिनॉक 09-10-2011 अंक में प्रकाशित अपने लेख ' सूत न कपास" में नोबेल पुरस्कार के बहाने  वरिष्ठ साहित्यकार विजयदान देथा पर जो अपमान जनक  टिप्पणियॉ की हैं उससे पूरा साहित्य समाज स्तब्ध है। लेख की भाषा और मिज़ाज से मालूम होता है कि लेखक ने कोई "पुराना हिसाब" चुकता करने के उद्देश्य से ही इसे लिखा है। एक ऐसे  वयोवृद्ध महान साहित्यकार, जो कि कूल्हे की हड्डी पर चोट की वजह से काफी समय से बिस्तर पर हो और सर में चोट लग जाने से जिनकी स्मरण क्षमता प्रभावित हुई हो, उन पर ऐसे फिकरे कसने का क्या मतलब था? बिज्जी की हालत इस समय ऐसी है कि वे इस लेख का जवाब देना तो दूर, अभी पढ़ने की भी स्थिति में नहीं हैं। एक जगह तो लेख में विष्णु खरे लिखतें हैं "यह (नोबेल पुरस्कार)  आलोचना या मूल्यॉकन का कोई मापदण्ड नहीं है " पर दूसरी जगह यह भी लिखतें हैं " नियम यह है कि खोटे सिक्के असली सिक्कों को बाहर कर देतें हैं " तथा "इन दो गिलट के रुपयों नें फिलहाल भारत में स्वीडी कलदार तोमस त्रॉस्त्रमार को चर्चा से बाहर कर दिया है---"। लेख में मूल्यॉकन के कोई अन्य तर्क रखे बगैर लेखक ने इन दो साहित्यकारों को गिलट के सिक्के और त्रॉस्त्रमार को खरा सिक्का साबित कर दिया। स्पष्ट है कि स्वयं लेखक के पास भी नोबेल पुरस्कार के अलावा मूल्यॉकन का कोई और तरीका नहीं है। निस्संदेह त्रॉस्त्रमार श्रेष्ठ कवि हैं लेकिन किसी की श्रेष्ठता साबित करते हुये किसी पर अपनी भड़ास निकालना आवश्यक है क्या? लेख में लेखक ने यह भी साबित करने की कोशिश की है कि इन दो भारतीय साहित्यकारों ने जमकर लॉबिंग की होगी। जहॉ तक विज्जी की बात है तो उनके बारे में ऊपर ही उल्लेख कर दिया गया हैं कि वे गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं। उनका लिखना पढ़ना तो स्थगित है ही, बोलना बतियाना भी सीमित है। न ही किसी साहित्यिक संस्था या साहित्यकार ने कोई उनकी सुध ली और न ही उनका किसी से सम्पर्क है। तब उन्होने लॉबिंग कैसे की? क्या विष्णु खरे को यह नहीं मालूम कि बिज्जी की कहानियॉ बहुत पहले ही विश्व की कई भाषाओं में अनूदित हों चुकीं हैं और  वि्श्व साहित्यिक परिदृश्य में विजयदान देथा एक जाना पहचाना नाम है। हिन्दी में भी लोग सत्तर के दशक से उन्हे जानने लगे थे। 1979 हिन्दी में अनूदित उनकी कहानियों का पहला संकलन "दुविधा तथा अन्य कहानियॉ" आया तथा 1982 में दूसरी किताब "उलझन" आईं। "दुविधा" पर मणिकौल ने फिल्म बनाई तथा "फितरी चोर" कहानी पर हबीब तनवीर ने नाटक खेला। उनकी कई कहानियों पर फिल्में बनी हैं तथा नाटक खेले गए हैं। पर उन्होने इसके लिए न अन्य कहानीकरों की तरह मुम्बई के बारंबार चर लगाये और न ही नाटककारों के दरवाजे खटखटाये (एक ख्यातिप्राप्त नाटककार तो काफी समय तक उनकी एक कहानी पर अपना नाम देकर नाटक खेलते रहे)। यह तो उनकी कहानियों की अर्न्तवस्तु में बसी लोकजीवन की  गन्ध है जो लोगों को अपनी ओर खींचती हैं। कहानियों को इस काबिल बनाना इतना आसान कार्य नहीं है। इसके लिये 'लोक" की यात्रा करनी पड़ती है। बिज्जी ने यह यात्रा पचास साठ के दद्गाक में आरंभ कर दी थी। जब रास्ते के नाम पर रेत के ढूहे और वाहन के नाम पर ऊंट गाड़ी ही सर्वत्र दिखतें थे तब लोक कथाओं को लुप्त होने से बचाने की अदम्य इच्छा लिये विज्जी ने गॉव गॉव की यात्रा की और बड़े बुजुर्गो की स्मृतियों में बची लोक कथाओं को अभिलेखित किया। इस कार्य के लिये उसे अचित पारिश्रमिक भी दिया और सन्दर्भ में उसका जिक्र भी किया , अर्थात पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता भी बरती।

स्पष्ट है , हमारे यहॉ  "जेनुइन" लेखकों" को हाशये पर डालने और माखौल उड़ाने  की जो पंरपरा है  विष्णु खरे का सन्दर्भित लेख उसका बखूबी से निर्वाह करता है। विष्णु खरे ही क्या एक बार तो राजस्थान में भी कुछ साहित्यकारों ने मौलिकता के नाम पर खारिज करने का अभियान चलाया था। कोई उनसे यह पूछे कि एक पैरा या एक पेज़ की लोक कथाओं को दस बीस या पचास पेज़् की कथाओं में पुर्नसृजन करने वाला दूसरा और कौन है? वे लोक कथाओं को ऐसी कथाओं में पुर्नसृजित करतें हैं जिसमें स्त्री अपने देह का स्वतन्त्र निर्णय लेती है, दलित और श्रमिक तर्क करतें हैं और राजा या प्रभावशाली लोगों को मुंह की खानी पड़ती है। सदियों पुरानी लोककथाओं का ऐसा रूप देना जो फिर कभी बासी न लगें। इसका अन्यत्र उदाहरण कहॉ हैं?  यह तो केवल साहित्य के क्षेत्र में योगदान है। बहुतों को तो यह नहीं मालूम होगा कि बिज्जी अपने महत्तम प्रयास से बोरून्दा में लड़कियों के लिये आवासीय महाविद्द्यालय खुलवाने में सफल रहे। एक ऐसे राज्य में जिस के कई क्षेत्र में अभी भी मध्यकालीन सामन्ती संस्कारों का ऐसा बोलबाला है कि लड़कियों के जन्म को अभिशप्त के रूप में लिया जाता है वहॉ के एक गॉव में लड़कियों के लिये इस उद्देश्य से महाविद्द्यालय खोलना कि लड़कियॉ घर से निकल कर बाहर तो निकलें, इससे बड़ा जनवादी और प्रगतिशील कार्य क्या होगा ? क्या नोबेल पुरस्कार से इसको नापा जा सकता है? क्या जिस व्यक्ति ने जीवनपर्यन्त बोरुन्दा को कर्मभूमि बनाया हो उससे यह उम्मीद की जा सकती है क्या कि वह नोबेलॉकाक्षी होगा? होता तो उसका कोई न कोई ठिकाना देश की राजधनी में अवश्य होता। चलिये देश नही तो प्रदे्श की राजधनी में अक्सर ही उसके पड़ाव होते। लेकिन फिल्मकारो नाटककारों और अन्य कलाकारों के तो उसके गॉव में ही पड़ाव लगतें हैं? दे्श के कितने साहित्यकारों के साहित्य में इतना दम है जो दे्श दुनिया को अपने पास खींच सकें। विपरीत इसके, लेख से ज़ाहिर होता है कि विष्णु खरे ही नोबेल पुरस्कार से काफी वास्ता रखतें होगें।इसलिए कई जगह "मुझे मालूम है" की रट लगाये से दिखतें हैं। मसलन "मुझे मालूम है कि कभी जर्मनी के हिंदी विशेषज्ञ लोठार लुत्से से भी अनुशंसाए मॅगाईं गईं थीं। मुझे यह भी मालूम है---"। गोया कि नोबेल पुरस्कार समिति से वैसा ही जुड़ाव है जैसा कि भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार समिति से। यह अलग बात है कि इस बार पुरस्कृत कवि को "हुड़ुकलुल्लु" की उपाधि न देकर पुरस्कार से वचिंत रह गये लोगो को ही कोसा है। जिनकी गलती सिर्फ इतनी ही है कि उनका नाम नोबेल सॅभावितों की सूची में आ गया है और इस तरह से वे नोबेलॉकाक्षियों की काली सूची में आ गयें हैं। जबकि विष्णु खरे एक जगह लिखतें हैं  "निर्णायक मंडल मुख्यत: जर्मन, फ्रेंच, इतालवी और इस्पानी भाषाओ के साहित्यिक अनुवादों पर निर्भर रहती है---" । तो क्या इसका यह अर्थ निकाल लिया जाये कि जिन साहित्यकारो ने इनमें से किसी देश की बारंबार यात्रा की है तो वे नोबेलॉकाक्षीं होगें या जो इनमें  से किसी भी दे्श की भाषा का जानकार है वह होगा नोबेलॉकाक्षीं? या यही  अर्थ निकाल लिया  जाये कि हिंदी के वे सम्राट नोबेलॉकाक्षी तो होगें ही जिन्होंने अपनी राजकुमारियों का ब्याह इन देशों के राजकुमारों से किया होगा। यदि ऐसा हो तो हो ! पर बिज्जी इस दंद-फंद से कोसों दूर हैं।

Tuesday, November 8, 2011

साफ़ ज़ाहिर है

कंवल ज़ियायी
उर्दू के सुप्रसिद्व शायर जनाब हरदयाल सिंह दत्ता  कंवल जियायी इस भैयादूज को, अर्थात दिनांक 28-10-2011 की सुबह, इस नश्वर संसार को अलविदा कह गये। वे चौरासी वर्ष के थे। कहा जाता है, कि केवल योगी ही चौरासी के होकर "चोला" बदला करते हैं।
    वे सचमुच योगी थे। उन्होंने जब पहले पहल पंडित लब्भुराम जोश मलसियानी की सरपरस्ती में शायरी का आगाज़ किया, उस वक्त उर्दू के अधिकांश शायर हुस्नोइश्क का इज़्हार अपनी शायरी के माध्यम से किया करते थे। मगर कंवल साहब ने उन दिनों भी जिस मौजूं को अपनी शायरी में लिया। वह ज़िंदगी की तल्ख हकीकत के बिल्कुल करीब था।
    पाकिस्तान के ज़िला सियालकोट के गांव कंजरूढ़ दत्ता में कंवल साहब का जन्म एक प्रतिष्ठित जमींदार घराने में हुआ। फिल्म अभिनेता पद्मश्री राजेन्द्र कुमार भी वहीं के थे और कंवल साहब के लंगोटिया यार थे। देश का बंटवार होने के बाद, ये दोनों पक्के दोस्त एक साथ पाकिस्तान से भारत (दिल्ली) चले आये। वहां से राजेन्द्र कुमार एक्टर बनने के लिये मुम्बई चले गये और कवंल साहब रक्षा-विभाग में लिपिक के तौर पर नौकरी करने लगे और उसी के साथ अपना रूझान साहित्य की और मोड़ा और शायरी के माध्यम से साहित्य सृजन में जुट गये।
    कंवल साहब एक बहुत ही मस्तमौला, फक्कड़, हँसमुख, स्प्ष्टवादी, संवदेनशील और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। बातें इतनी अच्छी करते, कि घंटों तक उनके पास बैठकर भी उठने को मन न होता। मगर वही कंवल साहब, जब शेर लिखने के लिये कलम हाथ में थामते, तो इस कद्र संजीदा हो जाते कि सामने मौजूदा प्राणी सहम कर रह जाता।
    उनकी शायरी जिंदगी के "कटुसत्य" से दोचार करने वाली संजीदा शायरी थी। बहुत ही सरल भाषा, या सीधे सादे शब्दों में, गहरी से गहरी बात कहने में उन्हें महारत हासिल थी। उसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि उन्होंने जीवन भर संघर्ष ही संघर्ष किया और जिंदगी को बेहद करीब से देखा, परखा और विचारा और तब जो कुछ महसूस किया, उसी को अपनी गज़लों, नज़मों या कतआत की शक्ल में उतारा।
    कंवल साहब एक उस्ताद शायर थे। उनके शागिर्दों की संख्या पर्याप्त है। कहा जाता है कि वे खुद एक "इंस्टीट्यू्शन" थे।
    कंवल साहब के अब तक केवल दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। "प्यासे जाम" सन् 1973 में राहुल प्रकाशन दिल्ली द्वारा देवनागरी लिपि में प्रका्शित हुआ। दूसरा काव्य संग्रह, "लफ्ज़ों की दीवार" 1993 में उर्दू लिपि में छपा। इन दोनों संग्रहों में कंवल साहब की चुनींदा गज़लों, नज़्मों और कतआत शामिल है।
    एक लम्बे अर्से से कंवल साहब अस्वस्थ चल रहे थे। इसलिये कहीं जाना आना न हो पा रहा था। इस दौरान वे और अधिक संजीदा रहने लगे थे। उन्हें निश्चित ही इस बात का एहसास हो चला था। कि उनके पास अब अधिक समय नहीं रहा। तभी उनके द्वारा लिखे अंतिम एशआर में दो शेर ये भी थे :-
        साफ़ ज़ाहिर है कि उम्र की आंधी
         इक दिया और बुझाने वाली है
       ज़िंदगी तखलिया कि पल भर में
       मौत तशरीफ़ लाने वाली है।

- मदन शर्मा 
9897692036
                                                         

Saturday, November 5, 2011

दिल्ली से रांची या चंडीगढ़ की दूरी



गुरशरण सिंह

राम दयाल मुंडा


सितम्बर माह के आखिरी दिनों में देश ने ऐसी दो  विभूतियाँ खोयी हैं जिनकी जड़ें अपने अपने समाज में बेहद गहरी थीं पर जिनके क्रियाकलाप  पूरे देश की सांस्कृतिक अस्मिता को क्रियाशील बनाये रखने के लिए  प्राणवायु का काम कर रहे थे.लम्बे सक्रिय जीवन के बाद इन दोनों का विदा होना जितना अप्रत्याशित नहीं था उस से ज्यादा चौंकाने वाला था हमारे राष्ट्रीय कहे जाने वाले मेनस्ट्रीम सूचना माध्यमों का उनका नाम लेने की जरुरत से इनकार.इनमें से एक गुरशरण सिंह पंजाबी गाँवों शहरों में पंजाबी भाषा में अपना काम करते हुए चंडीगढ़ में गुज़र गए तो दूसरे राम दयाल मुंडा झारखण्ड के आदिवासी समाज का कायापलट करने का स्वप्न लिए हुए पूरी दुनिया में अपनी योग्यता का झंडा गाड़ने के बाद रांची के एक अस्पताल में लगभग गुमनामी में चल बसे....क्या दिल्ली से इन इलाकों की दूरी इतनी ज्यादा है कि सन्देश पहुंचना मुमकिन नहीं?
गुरशरण सिंह
27 सितम्बर को अंतिम साँस लेने वाले तत्कालीन पाकिस्तान में पैदा हुए और पिछले पचास साल से भी ज्यादा समय से पंजाब के गाँव गाँव में निर्भीकता पूर्वक अलख जगाने  वाले 82 वर्षीय गुरशरण सिंह देश में नुक्कड़ नाटकों के भीष्म पितामह के रूप में जाने जाते हैं पर उनका कद ऐसा था कि राजनैतिक जागरण का माध्यम बने नुक्कड़ नाटकों को कलाविहीन कह कर नाक भौं सिकोड़ने वाले कला पंडितों को भी उन्हें संगीत नाटक अकादमी और कालिदास सम्मान  प्रदान करना पड़ा.बिजली विभाग में इंजिनियर की नौकरी परवाह न करते हुए उन्होंने शहीद भगत सिंह के संदेशों को गाँव गाँव में पहुँचाने का जो संकल्प लिया था उसको आखिरी दम तक पूरा  किया.इमरजेंसी की सख्त पाबंदियों को धता बताते हुए और हिंसक उग्रवाद के दिनों में भी अन्याय का प्रतिकार करने और आपसी भाईचारा बनाये रखने का सन्देश देते हुए उन्होंने अपनी नाटक मंडली को निरंतर सक्रिय रखा.वामपंथी सोच वाले संस्कृतिकर्मी देश के किसी भी कोने में क्यों न काम कर रहे हों गुरशरण सिंह के नुक्कड़ नाटक उनके प्रमुख हथियार रहे और ऐसे जत्थों में या तो ग़दर की शैली  में जनगीत गए जाते थे या फिर गुरशरण सिंह की शैली में...यहाँ तक कि उन्होंने प्रसिद्ध उद्बोधन गीत इंटरनेश्नल को भी ठेठ पंजाबी धुनों में प्रस्तुत किया.कहा जाता है कि पंजाब में हर सरकारी दस्तावेज में पिता के साथ साथ माँ का नाम अनिवार्य तौर पर लिखने की पहल उन्होंने ही की और खुले तौर पर मंचों से उनको कहते सुना गया कि सामाजिकरूप में स्त्री पुरुष की  बराबरी के बारे में बहुत सी बातें अपनी बेटी से सिखने को मिलीं.उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता ऐसी थी कि मृत्यु के बाद कोई धार्मिक कार्यक्रम नहीं किया गया और अंतिम तौर पर उनके अवशेष भगत सिंह के  शहादत  स्थल हुसैनीवाला  पर ले जाकर मिट्टी को सुपुर्द कर दिए गए.पर उनकी मृत्यु की खबर पंजाबी सूबे से बाहर सुर्कियों में नहीं आ पाई...कम से कम हिंदी की मुख्यधारा को तो इसमें प्रेरणादायक मसाला  दिखा नहीं...या गुरशरण सिंह को पंजाबी भाषा भाषियों की जिम्मेदारी पर ही छोड़ने का सद्विचार  उत्पन्न हो गया.           
 
  30 सितम्बर  को देश की आदिवासी संस्कृति के बड़े विद्वान और पैरोकार 72 वर्षीय प्रो. राम दयाल मुंडा का निधन हो गया पर राष्ट्रीय कहे जाने वाले  बड़े समाचार माध्यमों में इस घटना की कहीं कोई गूंज नहीं सुनाई दी.झारखण्ड प्रदेश की परिकल्पना को व्यवहारिक रूप देने वाले विचारकों में प्रो.मुंडा अग्रणी थे, बरसों अमेरिकी शिक्षा संस्थानों में अध्यापन करने के बाद रांची विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर भी रहे.  कहा जाता है कि प्रो. मुंडा का कमरा झारखण्ड के युवा नेतृत्व  का उदगम और प्रशिक्षण स्थल रहा.दुर्भाग्य यह कि आदिवासी समाज,संस्कृति और भाषाओं पर उनका काम देश में कम  और विदेशों में ज्यादा समादृत  था इसी लिए अमेरिका सहित अनेक देशों में वे   अध्यापन कार्य करते रहे. 'नाची से बांची" का जुमला बार बार दुहराने वाले प्रो.मुंडा  एक स्वतः स्फूर्त लोक  गायक और नर्तक के रूप में भी जाने जाते थे और 2004 में मुंबई संपन्न वर्ल्ड सोशल फोरम में उनकी शिरकत में यह पक्ष खुल कर सामने आया. .उनकी इन्ही विशेषज्ञताओं  की बदौलत उन्हें  पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी की सस्यता से सम्मानित किया गया.कुछ समय पहले उन्हें राज्य सभा के सदस्य के रूप में नामित किया गया था.अपने विचारों के प्रचार प्रसार के लिए पहले उन्होंने खुद अपना एक राजनैतिक दल बनाया पर संगठन का अनुभव  न होने के कारण उसको उन्हें शिबू सोरेन के दल झारखण्ड मुक्ति मोर्चा  में शामिल करना पड़ा.वहाँ भी उनको जब कोई सार्थक काम होता हुआ नहीं दिखा तो कांग्रेस में शामिल हो गए.
राम दयाल मुंडा
उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि आदिवासी समाज के दस करोड़ सदस्यों को(हिन्दू समुदाय के बाद दूसरा सबसे बड़ा समुदाय) जबरन हिन्दू या ईसाई समुदाय के अंदर समाहित करने की साजिश आजादी के बाद से की जाती रही है.पर आदिवासियों की आराधना पद्धति विशिष्ट तौर पर प्रकृति पूजा की है और उन्हें देश के छह धार्मिक समुदायों से अलग मान्यता मिलनी चाहिए...उनकी धार्मिक मान्यता को नयी पहचान प्रदान करने के लिए उन्होंने आदि धर्म का आन्दोलन शुरू किया था...इसी नाम से उन्होंने आदिवासियों की प्रचलित आराधना पद्धतियों को संकलित करते हुए एक किताब भी लिखी थी.प्रो.मुंडा की अनेक स्थापनाओं से हमारी असहमति हो सकती है पर अपनी माटी और बिरासत से गहन रूप से जुड़े हुए ऐसे  इतिहास पुरुष के बारे में जानना सिर्फ झारखंडी समाज के लिए जरुरी है? क्या ऐसे मनस्वी के निधन के बाद झारखण्ड से इतर समाज के अख़बारों और समाचार माध्यमों में उनको कुछ पंक्तियों का स्थान देना भी हमारे अ-सहिष्णु समाज को मंजूर नहीं?   
 
     प्रस्तुति:-       यादवेन्द्र
yapandey@gmail.com

Monday, October 24, 2011

लोक जीवन और आधुनिकता



आलोचक जीवन सिंह जी के साक्षात्कार को पढ़ते हुए आधुनिकता और लोक जीवन पर उभरी असहमति को दर्ज करते हुए यह आलेख प्रस्तुत है।
- विजय गौड़

आधुनिकता को यदि बहुत थोड़े शब्दों में कहना हो तो कहा जा सकता है कि नित नये की ओर अग्रसर होती दुनिया का चित्र। पर ''नित नये"" कहने से आधुनिकता वह वृहद अर्थ, जो समाज, संस्कृति, साहित्य और इसके साथ-साथ जीवन के कार्यव्यापार के विभिन्न क्षेत्रों में दखल देते हुए नयी दुनिया की तसवीर गढ़ रहा है, स्पष्ट नहीं होता। यहां आधुनिकता का वह अर्थ भी स्पष्ट नहीं होता जो एक दौर की आधुनिकता को परवर्ती समय में पुरातन की ओर धकेलने वाला है। नैतिकता, आदर्श और मूल्यों की बदलती दुनिया में आधुनिकता एक ऐसी सत्त प्रक्रिया है जिसमें रुढ़ियों और परम्पराओं से मुक्ति के द्वार खुलते हैं और तर्क एवं ज्ञान की स्थापना का मार्ग प्रस्शत होता है। निषेध और स्वीकार के द्वंद्व से भरा ऐसा मार्ग जो जरुरी नहीं कि आज की आधुनिकता पर भविष्य में प्रश्नचिहन न खड़ा करे। दरअसल, इस आधार पर कहा जा सकता है कि आधुनिकता अपने अन्तर्निहित अर्थों में प्रासंगिकता के भी करीब अर्थ ध्वनित करने लगता है। पृथ्वी को ब्रहमाण्ड का केन्द्र ( टालेमी का मॉडल) मानने वाली आधुनिकता को सैकड़ों सालों बाद, सूर्य ब्रहमाण्ड का केन्द्र है, जैसे विचारों ने आधुनिक नहीं रहने दिया। कोपरनिकस की विज्ञान की समझ ने टालेमी के विचार को, जो सर्वमान्य रुप से स्वीकार्य था, मौत का खतरा उठाकर भी, पुरातन ओर अवैज्ञानिक साबित कर दिया। ज्ञान विज्ञान की नयी से नयी खोजों ने आधुनिकता को नूतनता का वह आवरण पहनाया है जिसे समय-काल, के हिसाब से विचार, वस्तुस्थिति और यथार्थ की पुन:संरचना में प्रासंगिकता की कसौटी पर कसा जाने लगा।

तर्क और बुद्धि की सत्ता का उदय ऐसी ही आधुनिकता के साथ दिखायी देता है। वैज्ञानिक आधार पर घ्ाटनाओं के कार्य-कारण संबंध को ढूंढने की कोशिश ने अंध-विश्वास और रुढ़ियों पर प्रहार करते हुए आधुनिक दुनिया की तस्वीर गढ़नी शुरु की। ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि तार्किक परिणितियों के आधार पर घ्ाटनाओं के विश्लेषण करने के पद्धति पर, गैर-वैज्ञानिक समझ का प्रतिरोध करने वाली इस आधुनिकता को अप्रसांगिक मानने की कोई हठीली कोशिश भी आधुनिकता का नया रुप नहीं गढ़ सकती है। आधुनिकता के बरक्स उत्तर-आधुनिकता की गैर वैज्ञानिक अवधारणा के अपने उदय के साथ, अस्त होते जाने का इतिहास, इसका साक्ष्य है।

औद्योगिकरण की बयार के साथ योरोप में शुरु हुआ पुनर्जागरण वर्तमान दुनिया की आधुनिकता का वह आरम्भिक बिन्दु है जिसने मध्ययुग के अंधकारमय सामंती ढांचे को चुनौति दी। राजशाही की निरंकुशता के खिलाफ जन-प्रतिनिधित्व की शासन प्रणाली के महत्व पर बल दिया। मैगनाकार्टा का आंदोलन, जो सामंतशाही की पुच्च्तैनी व्यवस्था के खिलाफ मताधिकार के द्वारा नयी जनतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत चाहता रहा, आगे के समय तक भी आधुनिकता की उन आरम्भिक कोशिशों का महत्वपूर्ण पड़ाव बना रहा। अमेरिकी और फ्रांसिसी क्रांन्ति के साथ उसके  स्थापना की महत्वपूर्ण स्थितियां वे निर्णायक मोड़ है जिसने काफी हद तक आधुनिक दुनिया के एक स्पष्ट चेहरे को आकार दिया। इससे पूर्व औद्योगिकरण की शुरुआती मुहिम के साथ राष्ट्र-राज्यों के उदय की प्रक्रिया ने व्यापारिक गतिविधियों की एक ऐसी आधुनिकता को जन्म देना शुरु कर दिया था जो वस्तु विनिमय की पुरातन प्रणाली को स्थानान्तरित कर चुकी थी। श्रम के बदलते स्वरुप ने सामाजिक संबंधों के बदलाव की जो शुरुआत की, साहित्य की काव्यात्मक भाषा उसे पूरी तरह अटा पानो में संभव न रही। गद्य साहित्य का उदय हुआ। भाषा सत्त बहती, आम बोलचाल की लयात्मकता में, गद्याात्मक होती चली गयी। कहानी, संस्मरण, यात्रा वृतांत, रेखा चित्र, निबंध और उपन्यासों का नया युग आरम्भ हुआ। साहित्य इतिहास के तमाम अंधेरे कोनो से टकराने लगा। नयी दुनिया की खोज में निकले अन्वेषकों, मेगस्थनीज, हवेनसांग, फाहयान, के यात्रा वृतांत उस शुरुआती कोशिशों के दस्तावेज हैं।

साहित्य में आधुनिकता की यह शुरुआत सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया को स्वर देने में ज्यादा लचीलेपन के साथ दिखायी देने लगी। बदलते सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों की जटिलता ने स्वच्छंदतावाद को जन्म दिया जो अपने विकास के क्रम में यथार्थवाद की ओर अग्रसर होने लगा। राष्ट्रीय भाषाओं का विकास आरम्भ हुआ। मानवीय  संवेदना को वैचारिक मूल्यों ने परिपोषित करना शुरु किया। धार्मिक साहित्य और राजे रजवाड़ों की स्तुतिगान से भरे पुरातन साहित्य की बजाय आम मनुष्य के दुख-दर्दो को स्वर मिला।

समकालीन दुनिया की सर्वग्रासी बाजारु प्रवृत्ति, जो धार्मिक अंध विश्वास और नैतिक पतन की कोशिशों के साथ है उसे ही आधुनिक मानना और उसके प्रतिपक्ष में रहते हुए, जो कि जरूरी है, आधुनिकता के वास्तविक अर्थों से मुंह मोड़ लेना स्वंय को एक ढकोसले के साथ खड़ा कर लेना है। आधुनिकता की स्पष्ट पहचान किए बगैर गैर आधुनिक होते जाते इस दौर में बाजारु प्रवृत्ति का निषेध कतई  संभव नहीं। स्वस्थ प्रतियोगिता का भ्रम जाल रचता आज का बाजार विविधता की उस जन तांत्रिक प्रक्रिया के भी खिलाफ है जो एक सीमित अर्थ में ही आधुनिक कहा जा सकता है। स्वस्थ जनतंत्र के बिना स्वस्थ आधुनिकता का भी कोई स्पष्ट स्वरूप्ा नहीं उभर सकता। बाजार की गुलामी करता विज्ञान भी आज अपने पूरी तरह से आधुनिक होने की अर्थ-ध्वनि के साथ दिखाई नहीं दे रहा है।   

सामाजिक विकास का हर अगला चरण अपनी कुछ विशेषताओं के साथ होता है। इस अगले चरण की वस्तुगत स्थितियों के तहत ही आधुनिकता की परिभाषा भी अपना स्वरूप ग्रहण करती चली जाती है। बहुधा आधुनिकता के इस सोपान को समकालीन कह दिया जा रहा होता है। समकालीन और आधुनिकता का यह साम्य इसीलिए एक दूसरे को आपस में पर्याय बना देता है। समकालीनता, आधुनिकता और प्रासंगिकता ये तीन ऐसे शब्द हैं जिनके बीच किसी स्पष्ट विभाजक रेखा को खींच पाना इसीलिए संभव नहीं। अवधारणाओं की जटिलता के ऐसे निर्णायक बिन्दू पर बिना किसी ठोस विश्लेषण के अर्थ विभेद नहीं किया जा सकता। आधुनिकता के नाम पर सामाजिक और सांस्कृतिक पतन के आदर्शों से भरी व्यवस्था के चरित्र की पहचान बिना प्रासंगिकता के संभव नहीं। मौलिकता, साहस और बेबाकीपन के आधुनिक मुहावरों को तर्क का आधार बनाकर बहुत सस्ते में आधुनिक होने की यौनिक वर्जनाओं से भरी अभिव्यक्तियों को इसीलिए आधुनिक नहीं कहा जा सकता। संघ्ार्ष के बुनियादी स्वरूप को कुचलने को आमादा और सामाजिक विकास की हर जरुरी कार्रवाई को भटकाने का काम करती ऐसी समझदारी आधुनिकता का निषेध है।
आधुनिकता का सवाल लोक की जिस परिभाषा को वास्तविक अर्थों में व्याख्यायित करता है उसे स्थानिकता के साथ देख सकते हैं। स्थानिकता को छिन्न भिन्न करती कोई भी कार्रवाई आधुनिक कैसे कही जा सकती है। स्थानिकता का सवाल राष्ट्रीयता का सवाल है और राष्ट्रीयता का प्रश्न उसी आधुनिकता का प्रश्न है जो पुनर्जागरण से होती हुई अमेरिका, फ्रांस की क्रान्तियों के रास्ते आगे बढ़ती हुई पेरिस कम्यून की गलियों में भटकने के बाद रूस को सोवियत संघ्ा और चीन को आधुनिक चीन तक ले जाती है। लोक की अवधारणा में भी स्थानिकता समायी होती है। इसलिए लोक की अवधारणा को आधुनिकता से अलग करके परिभाषित करना ही पुरातनपंथी मान्यताओं का पिछलग्गू हो जाना है। पुरातनपंथी मान्यताऐं अस्मिता के किसी भी संघ्ार्ष को गैर जरूरी मानने के साथ होती होती हैं। भारतीय चिन्तन में आज दलित धारा की उपस्थिति और स्त्रि अस्मिता के प्रश्नों से उसे इसीलिए परहेज होता है। अस्मिता के संघ्ार्ष के मूल में भी राष्ट्रीय पहचान की तीव्रतम इच्छाऐं ही महत्वपूर्ण होती हैं। राष्ट्रीयता की मांग ही सामंती ढांचे को ध्वस्त करने की प्रगतिशील चेतना की संवाहक होती है लेकिन अपने चरम पर स्थायित्व के दोष से उसे मुक्त नहीं कहा जा सकता। यहीं पर आकर उसके गैर प्रगतिशील मूल्यों का पक्षधर हो जाना जैसा होने लगता है। क्षेत्रियता और दूसरे  ऐसे ही गैर प्रगतिशील  मूल्यों की गिरफ्त बढ़ने लग सकती है और आधुनिकता को ठीक से पहचाने बगैर वह सिर्फ लोक लोक की रट लगाने लगती है। स्थानिकता का नितांतपन उस सीमा के पार जाते हुए ही सार्वभौमिक हो सकता है जब वह बहुत आधुनिक होने के साथ हो। भौगोलिक, भाषायी और सांस्कृतिक विशिष्टता से हिलौर लेते समाज को सिर्फ कथ्य की विशिष्टता के लिहाज से विषय बनाती रचनाओं में दक्षिणपंथी भ्र्रामकता से ग्रसित होने की प्रवृत्ति होती है। ठहराव और दुहराव उसकी जड़वत प्रकृति के तौर पर होते हैं। स्पष्ट है कि उनसे पार जाने की कोशिशों से ही यथार्थ का उन्मूलन और वैश्विक जन समाज की चिन्ताओं का दायरा आकार लेता है। भूगोल और संस्कृति के बार-बार के दुहराव स्थानिकता को बचाए रखते हुए लोक के सर्जन में कतई सहायक नहीं हो सकते। दृश्यावलियों की समरूपता और सांस्कृतिक परिघ्ाटनाओं का एकांगी वर्णन कलावाद के करीब जाना ही है। जब प्रकृति अपने रूपाकार में गतिशील है तो उसके प्रस्तुति की दृश्यावलियां कैसे स्थिर हो सकती हैं ? साक्ष्यों के तौर पर स्थानिकता को प्रकट करती ऐसी दृश्यावलियां जिस मानसिकता से उपतजी हैं उसमें यथार्थ के हुबहू प्रस्तुतिकरण की चाह, जो संदेहों के परे हो, कारण होती है। यथार्थ के उन्मूलन में उनका योगदान इतना जड़वत होता है कि किसी नयी संभावना को खोजा नहीं जा सकता। निपट एकांतिक हो जाने वाली उनकी अनुभूति विशिष्टताबोध से भरी होने लगती है। छायावदी युगीन चेतना की कमजोरी इस सीमा के अतिक्रमण न कर पाने में ही रही है। संसाधनों के सार्थक उपयोग की बजाय प्रकृति से किसी भी तरह की छेड़-छाड़ यहां निषेध हो जाती है और विध्वंश की आततायी कार्रवाइयों के विरोध में नॉस्टेलजिक हो जाने की भावनात्मक अनुभूतियां विद्यमान होने लगती हैं। स्वस्थ मनुष्य और अवसाद में घिरे व्यक्ति के बीच के फर्क से समझा जा सकता है। अवसाद में घिरे व्यक्ति को कतिपय एक बार देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि वह अस्वस्थ है और उसकी अस्वस्थता का क्षेत्रफल सामाजिक उदासीनता के घेरे तक विस्तार ले सकता है। जो किसी भी निर्णायक संघर्ष तक प्रेरित करने की बजाय स्थितियों से नकार के रूपग में विकसित होता जाता है। तटस्थता की मुख-मुद्रा में भी वह निषेध के तत्वों का ही सर्जक हो सकता है।       




Wednesday, October 19, 2011

खिलंदड़ ठाट




जलती हुई बत्ती के साथ फड़-फड़ाते अंधेरे में दरवाजे, चौखटों और कमरे में भरे पड़े सामानों में किसी जीव के दुबक जाने की सरसराहट परेशान करने वाली होती। किचन के भूतहे अंधेरे में उड़ते हुए तिलचट्टों के प्रहार होते। कितनी ही 'लक्ष्मण रेखाएं", 'फ्लिट" की तीखी गंध से पस्त होते पंखों को समटेने की लिजलिजी कार्रवाई की थकान के बावजूद नींद गायब होती, पर सिर दुख रहा होता।
'फॉल्स सीलिंग" के भीतर किसी भारी भरकम जीव के दौड़ने की धमक भीतर घ्ाुस आये चोरों का अंदेशा पैदा करती। दहशत के मारे जागे हुए परिवार की मौन-सरसराहट में घनी काली रात का अंधेरा बेहद डरावना हो गया था। जाने कौन घ्ाुस आया है भीतर ? सीलिंग के भीतर से बाहर निकल, बस नीचे कूदने-कूदने को है। पांवों की सरसराहट से कांपती सीलिंग की धमक ऐसी कि कमरे की दीवारें तक भड़-भड़ा रही हों मानो।
- खुली हुई खाट की बाँहें कहाँ रखी हैं ?
धर के भीतर घुस चुके चोरों से निपटने का दायित्व मुखिया पर था। मरता क्या नहीं करता। बान की खुली हुई बाँहें तो संभाल कर फॉल्स सीलिंग में ही रखी गयी थी।
"बिना हथियार के कैसे निपटा जाएगा किसी हथियारबंद से ?" दबी-दबी और डरी-डरी आवाज में भी पत्नी को कोसना न छूटा था-
- अब निपट खुद--- बड़ी आई संभालने वाली। ले दे के डण्डे हथियार हो सकते थे, वो भी दुश्मनों के हवाले है तेरे कारण।      

Friday, October 14, 2011

मुस्कराओ कि मुस्कराने का धर्म नहीं होता


मुस्कराओ कि मुस्कराने का धर्म नहीं होता। मुस्कराना एक भाव है, भीतर से उठती एक बहुत गहरी हूक जिसके मायने मुसिबतों से निपटने की अविकल ध्वनी के रूप्ा में सुने जा सकते हैं। मौसम के खिलाफ, दुख के खिलाफ और एक खुशहाल भविष्य की उम्मीदों भरी स्थितियों में बहुत हौले से मुड़ गए होंठों का ऐसा चित्र जिसमें जीवन के राग रंग की भी अभिव्यक्ति को सुना देखा जा सकता है, गीता गैरोला की कविता में लौट लौट कर आता हुआ भाव है। सामाजिक जड़ता के खिलाफ गीता गैरोला का रचनात्मक योगदान उनकी साक्षात कार्रवाइयों के रूप्ा में है। यूं उनकी पहचान एक रचनाकर्मी से ज्यादा एक सामाजिक कार्याकर्ता और उत्पीड़ित स्त्रियों की मुक्ति के लिए ढूंढी जाने वाली युक्तियों के साथ है। रचनात्मक दुनिया से उनके तालुकात ऐसी ही कोशिशों में मद्द लगाती गुहार होते हैं। बहुत संकोच के साथ अपनी रचनाओं को सार्वजनिक करने की उनकी अनुमति का स्वागत है।   प्रस्तुत है गीता गैरोला की कुछ कविताएं। 
वि. गौ.



एक


वे होती हैं नदी
जिनके तटबंध
जिंदगी को वसासतें देते हैं
वे होती हैं जंगल
अपनी रगों और रेशों से
सांस-सांस जीती
वो होती है
निशब्द खिलती और
बिखरती बुरांश
वे होती है
आंख मिचौली करती
उजले चॉद की लोलक
वे सदियों की दहलीज पर
खड़ी शताब्दियों को आकार देती हैं।




दो


जब बादलों के पीछे से
चुपके से झाकेंगा आधा चांद
तुम मुझे याद करना---
नैनी के ऊपर कोहरे के धुधँलके के साथ
झील में तैरती हों बतखें
तुम मुझे याद करना---
अयांरपाटा के गदेरे में
उतरती हो सुरमई सांझ
दूरगाँव मैं टिमटिमाने लगे बत्तियां
तुम मुझे याद करना
सन्नाटे में उड़ रहे हो बर्फ के फाहे
नैनी में थरथराती हों रोशनी की परछाइयां
तुम मुझे याद करना---
पाषाण देवी में बजने लगे घन्टियॉं
थरथराती लगें दिये की लौ
तुम मुझे याद करना---
जब वरसता हो धारों धार पानी
भरभरा के बहने लगें गदेरे
चीना पीक की पहाड़ी पर
उड़ते कोहरे के साथ
झिलमिलाता हो इन्द्र धनुष
तुम मुझे याद करना---
तुम्हारे खेत में आडू का पेड़
लक-दक भर जाये बैजनी फूलों से
और गॉंव के ऊपर वाला जंगल
बुरांस के फूलों से जलने लगे
तुम मुझे याद करना।।।
खेतों की मुडेरों पर
खिलने लगे फ्योली के नन्हें फूल
तुम मुझे याद करना---


तीन 

मुस्कराओं कि मुस्कराने का धर्म नहीं होता
मर्म होता है
मुस्कराहट चांदनी सी उजली
और गन्धहीन होती है।
मुस्कराने की वजह होती है।
सूरत नहीं होती
स्वाद होता है ।                       



आकांक्षा

दूर
देवदार के घने झुरमुट में
जहॉं से
दिखती हो
बर्फीली चोटियां
हवा महकती हो
देवदार की खुशबू से
घने कोहरे के बादल
उड़ते हो जहॉं,
जाना है वहॉं
दूर देवदार के घने झुरमुट में।

संयोगिता

संयोगिता
ये तेरे गालों के नीले निशान
बाहों पे खूनी लकीरें
किसने बनाई

बस कल की बात है
धूम से गूंजी थी शहनाई
तूने फलसई रंग के लहगें पर
ओढ़ी थी सुनहरे गोटे वाली ओढ़नी
तेरे गदबदे हाथों पर मह-मह
महकी थी मेंहदी
प्रीत की लहक से
भर गई थी कोख
गर्वीली आँखों से सहलाती थी
जिन्दगी का ओर छोर

कुछ तो दरक गया है कहीं
ये किस माया की छाया है संयोगिता
जो तू डोल रही है
बसेरे की खोज में
तपता तन-मन लिए
पीत की लहक मेंहदी की
महक कहां हिरा गई संयोगिता

बस इतना जान ले संयोगिता
ठस्से से जीने को
एक दुश्मन जरूरी है।


Wednesday, October 12, 2011

हमलावर संस्कृति का विरोध करो

देहरादून

कानून के भीतर बेशक अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता वर्णित हो लेकिन देख रहे हैं कि हमलावर संस्कृति की लगातार बढ़ रही कार्रवाइयों के जरिये एक अराजक किस्म का माहौल बनता जा रहा है। दबंगई और गुंडई का बोलबाला बहुत खुलेआम और बेखौफ है। सत्ता पर कब्जे की राजनीति उसे शरण देती हुई है।
अभी हाल ही में, स्त्री अधिकारों और धर्म की आड़ भ्रष्टता के खेले जा रहे खेल के प्रतिकार को अपने लेखन और सीधी कार्रवाइयों का हिस्सा बनाने वाली रचनाकार शीबा असलम फहमी के घर पर हुआ हमला और आज ही दिल्ली में घटी वह ताजा घटना जिसमें प्रशांत भूषण पर हमले की सूचनायें हैं, ऐसी ही राजनीति की सीधी कार्रवाइयां हैं। उधर गुजरात में संजीव भट्ट की गिरफ्तारी ।
11 अक्टूबर को देहरादून के रचनाकारों की संस्था संवेदना ने रचनाकार शीबा असलम फहमी पर हुए हमले की चर्चा करते हुए हमलावर संस्कुति की मुखालफत की है। अपराधियों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई और शीबा असलम फहमी के साथ एकजुटता को प्रदर्शित करने के लिए आयेजित चर्चा में मुख्यतौर पर कथाकार सुरेश उनियाल, मनमोहन चडढा, डॉ जितेन्द्र भारती, अनिता दिघे, गीता गैरोला, रश्मि रावत, जावेद अख्तर, प्रवीण भट्ट, कमल जोशी, प्रतिमान उनियाल आदि उपस्थित थे।   

Sunday, October 9, 2011

हिन्दी कहानी का पाठक

कहानी
भटकुंइयाँ इनार का खजाना


कथादेश का सितम्बर अंक उस वक्त मेरे पास था जब कानपुर से इलाहाबाद जा रहा था। कहानी पढ़ लेने के बाद मैंने पत्रिका एक ओर रख दी और कहानी पर सोचने लगा। मेरे बगल में बैठे एक बुजुर्ग सज्जन ने पत्रिका उठायी- पन्ने दर पन्ने पलटते हुए इस कहानी पर आकर रुक गये और कहानी पढ़्ने लगे। शायद भाषा ही नहीं परिवेश ने भी उन्हें बांध लिया था, पूरी कहानी पढ़ गये। कहा कुछ नहीं लेकिन वे भी उसी मुद्रा में थे जैसी मुद्रा में मैं कहानी पढ़ने के बाद पहुंचा हुआ था- कहानी में दर्ज स्थितियों और उठते सवालों से टकराता हुआ। थोड़ी देर बाद पत्रिका एक युवा के हाथ में थी।वह नव युवक पुलिस इंस्पेक्टर की परिक्षा देकर लौट रहा था। शायद उसे खागा उतरना था। वह भी कई पन्नों को पलट्ने के बाद भटकुंइयाँ इनार का खजाना पर था और कहानी ठहर कर पढ़ रहा था। कहानी पढ़ने के बाद बहुत चुपके से उसने पूछा यह किताब ( पत्रिका) कहां मिलती है ?
वि. गौ.


Tuesday, October 4, 2011

पहाड़ की जख्मी देह पर नर्म हरे फाहे



  महेश चंद्र पुनेठा 
                                                                                          
 युवा कवि सुरे्श सेन नि्शांत के कविता संग्रह " वे जो लकड़हारे नहीं हैं' को पढ़ते हुए मुझे लोकधर्मी  कवि केशव तिवारी की " मेरा गॉव' कविता की ये पंक्तियॉ बार-बार याद आती रही - मेरा गॉव मेरी वल्दियत / जिसके बिना ला पहचान हो जाऊंगा मैं /मित्र कहते हैं /पॉच सितारा होटल में भी / झलक जाता है मेरा देशीपन / मुझे लगता है झलकना नहीं/ साफ दिखना चाहिए / जब मैं धनहे खेत से आ रहा हूं /तो मुझे दूर से ही गमकना चाहिए। कवि की  जिस पहचान तथा दूर से गमकने की बात केशव तिवारी अपनी इन पंक्तियों में करते हैं वो सुरे्श सेन नि्शांत की कविताओं में साफ-साफ दिखाई देती हैं।  नि्शांत की कविताओं का कथ्य हो या भाषा उससे गुजरते ही उनका पहाड़ीपन गमकने लगता है । उनकी कविता पहाड़ की पूरी पहचान के साथ हमारे सामने आती है। पहाड़ का रूप-रंग -रस-गंध उनके इंद्रियबोध में उतर आता है। अपनी धरती और अपने लोग उनमें बोलने लगते हैं। एक आम पहाड़ी के दु:ख-दाह ,ताप-त्रास व मुसीबतें-मजबूरियॉ  उनकी कविता की अंतर्वस्तु बनती हैं। पहाड़ की प्रकृति और पहाड़ का समाज जीवंत हो उठता है।वहॉ के लोगों की निर्दोष आस्थाएं और मासूम विश्वास कविता में स्थान पाते हैं। देखिए ये पंक्तियॉ- चुपचाप गुजरो / इस वृक्ष के पास से / प्रार्थना में रत है यहॉ एक औरत / उसे विश्वास है / इस वृक्ष में बसते हैं देवता/और वे सुन रहे हैं उसकी आवाज । पहाड़ की हरी-भरी देह भी और पहाड़ की जख्मी देह भी इन कविताओं में देखी जा सकती है। सुरेश की कविता उन पथरीले पहाड़ो की कविता है जहॉ उगती है ढेर सारी मुसीबतें -ही -मुसीबतें/ जहॉ दीमक लगे जर्जर पुलों को / ईश्वर के सहारे लॉघना पड़ता है हर रोज / जहॉ जरा-सा बीमार होने का मतलब है / जिंदगी के दरवाजे पर / मौत की दस्तक ।

Thursday, September 29, 2011

बीवी के नाम ख़त

नाजिम हिकमत तुर्की के महान कवि थे जिनकी कवितायेँ पूरी दुनिया में दमन और अत्याचार के खिलाफ लड़ने वाली जनता के बीच खूब लोकप्रिय हैं.उनके जीवन का अधिकांश समय जेल में(कुल तेरह साल) या निर्वासन में ही बीता.भारत में भी उनकी कविताओं के अनेक अनुवाद प्रकाशित हैं.
जेल से अपनी पत्नी को लिखी उनकी कवितायेँ मुझे बहुत पसंद हैं.उन्ही में से कुछ कवितायेँ यहाँ प्रस्तुत हैं:

यादवेन्द्र
                                                                                        -- नाजिम हिकमत

अपना वो ड्रेस अलमारी से निकालना जिसमें मैंने
तुम्हें देखा था पहली बार
दिखो आज अपने सबसे सुन्दर रूप में
आज दिखना है तुम्हें
जैसे गदराया लगता है वृक्ष बसंत के आगमन पर
अपने बालों में खोंसना
जेल से अपनी चिट्ठी में डाल के
जो भेजा था तुम्हारे लिए कारनेशन...
अपना चौड़ा धारीदार और चुम्बनीय माथा ऊँचा रखना
आज हताश और दुखियारी बिलकुल नहीं लगना
कोई सवाल ही नहीं...ना मुमकिन
आज तो नाजिम हिकमत की प्रिय को
दिखना है बला की खूबसूरत
बिलकुल बगावत के एक परचम की मानिंद...


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मेरी इकलौती और सिर्फ एक तुम ...
तुम्हारी पिछली चिट्ठी में लिखा था:
मेरा माथा फटा जा रहा है
और दिल डूब रहा है...
तुमने यह भी लिखा:
यदि उन्होंने तुम्हें फाँसी पर चढ़ा दिया
यदि मुझसे तुम बिछुड़ गए
तो मैं मर जाउंगी.
तुम्हें जीना पड़ेगा मेरी प्रिय..
मेरी स्मृतियाँ तो देखते देखते ऐसे तिरोहित हो जाएँगी
जैसे बिखर जाती है हवा में काली राख.
फिर भी तुम जिन्दा रहोगी
मेरे दिल की लाल बालों वाली मलिका..
बीसवीं सदी में
बिछोह का दुःख टिकता ही कितनी देर है
सिर्फ एक साल...ज्यादा नहीं.
मौत...
रस्सी से लटकती हुई एक लाश
मेरा दिल
ऐसी मौत को तो कतई स्वीकार नहीं करता.
पर
तुम बाजी लगा सकती हो
कि किसी गरीब जिप्सी के बालों से ढंके
काले और रोंये वाले हाथ
सरका भी देते हैं
यदि मेरी गर्दन में रस्सी
तो भी नहीं पूरी हो पायेगी उनकी उम्मीद
कि देखें नाजिम की नीली आँखों में
किसी प्रकार का खौफ.
पिछली रात के अंतिम प्रहर में
मैं
देखूंगा तुम्हें और अपने दोस्तों को
और खुद चल कर पहुंचूंगा
अपनी कब्र तक
और मेरे मन में अफ़सोस रहेगा तो सिर्फ ये कि
नहीं पूरा कर पाया मैं अपना अंतिम गीत.
मेरी प्रिय
नेक दिल इंसान
सुनहरे रंग वाली
मधु मक्खी की आँखों से भी सुन्दर
जिसकी आँखें हैं
मैंने आखिर क्यों लिख दिया तुम्हें
कि वो मुझे फाँसी पर चढाने की तैय्यारी कर रहे हैं?
अभी तो मुकदमा शुरू ही हुआ है
और वो किसी इंसान की गर्दन
वैसे तो तोड़ नहीं सकते
जैसे नोंच ली जाती है डाल से कोई कली
देखो...ये सब ऊल जलूल बातें भूल जाओ
तुम्हारे पास यदि कुछ पैसे हों
तो मेरे लिए फलानेल की एक चड्ढी खरीद दो...
मेरा साइटिका फिर से परेशान करने लगा है
और हाँ, ये मत भूलना
कि एक कैदी की बीवी को
हमेशा मन में अच्छे ख्याल ही लाने चाहियें.


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मैं चाहता हूँ
तुमसे पहले आये मेरी मौत
मेरी इच्छा है
कि मैं मरुँ तो तुमसे पहले मरुँ
क्या तुम्हें लगता है कि जो बाद में मरेगा
वो सीधा पहुँच जायेगा पहले वाले के पास?
मुझे तो इसका कोई इल्म नहीं
तुम तो ये करना
कि मुझे जला देना
और एक जार में डाल कर
अपने चूल्हे के ऊपर रख देना.
ध्यान रखना जार कांच का बना हुआ हो
पारदर्शी..साफ सुथरे कांच का बना हुआ
जिस से तुम अंदर देख सको
मुझे
और मेरी शहादत को
मैंने दुनिया ठुकरा दी
मैंने फूल बनने की चाहत ठुकरा दी
बस मैं सिर्फ तुम्हारा साथ चाहता हूँ.
मैं बनने को आतुर हूँ
धूल का कण
जिस से नसीब हो सके तुम्हारा साथ...
बाद में जब तुम्हारे मरने का पल आये
तो तुम भी समा सको
मेरे साथ इसी जार के अन्दर.
हम दोनों फिर से साथ साथ रह सकेंगे
मेरी राख मिली रहेगी तुम्हारी राख में
जब तक कि कोई नयी दुल्हन
या शरारती नाती पोता
लापरवाही से
हमें निकाल कर बाहर ही न फेंक दे...
पर ऐसा होने तक तो
हम एक दूजे के साथ साथ इस ढंग से
घुल मिल कर रह ही लेंगे
कि कूड़ेदानी में भी
हमारे कण आस पास गिरें
मिट्टी में साथ साथ पड़ेंगे हमारे पाँव
और एक दिन आएगा
कि धरती में उगे कोई जंगली पौध
तो इसमें बिना शक
खिलेंगे एक नहीं
दो दो फूल एक साथ:
एक तुम होंगी
एक मैं होऊंगा.
मुझे अभी अपनी मौत के बारे में कोई आभास नहीं
मुझे मन कहता है
कि मैं जनूँगा एक और बच्चा...
जीवन तो सैलाब की तरह मुझसे
बह कर बिखर रहा है
मेरा लहू खौल रहा है
मैं जियूँगा
खूब खूब लम्बे वक्त तक
और अकेला बिलकुल नहीं
तुम्हारे संग संग.
हांलाकि मौत का मुझे कोई डर नहीं
फिर भी लाश को जलाने का ढंग
मुझे रुचता नहीं जरा भी.
जब मैं मरुँ
तब तक उम्मीद है
थोड़ा बेहतर हो जायेगा अंत्येष्टि का ये ढब.
आजकल के हालात देख के क्या तुम्हें
लगता है कि तुम निकल पाओगे जेल से बाहर?
मेरे अंदर से आती है एक आवाज:
मुमकिन है, ऐसा ही हो जाये.


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क्या तुम जागे हुए हो?
कहाँ हो तुम इस वक्त?
घर पर.
पर अभी आदत नहीं पड़ी इसकी...
जागे या सोये...
अपने घर का एहसास अभी पूरा नहीं आया.
यह हो सकता है कोई अजूबा अचरज ही हो
तेरह साल से जेल के अंदर रहते रहते
जो मन के अंदर कौंध गया हो.
तुम्हारे बगल में कौन लेटा है?
हर बार की तरह अकेलापन नहीं
बल्कि यह तो तुम्हारी बीवी है
फ़रिश्ते की बख्शी गहरी नींद में
दुनिया से बेखबर होकर खर्राटे ले रही है.
गर्भ एकदम से बढ़ा देता है
देखो तो कैसे स्त्री की खूबसूरती.
अभी कितना बज रहा है?
आठ...
इसका मतलब यह हुआ कि शाम तक
तुम ठीक ठाक और सुरक्षित बचे हो
यहाँ तो पुलिस का रवैय्या ये होता है
कि दिन की गहमा गहमी में शांत बैठो
और अँधेरा हुआ नहीं कि बागियों की पकड़ धकड़ शुरू करो.

Sunday, September 18, 2011

नहर वाली गली




नहर वाली गली का किस्सा
सचमुच घंटों का किस्सा है हुजूर

कहां है नहर ?

नहर नहीं सड़क है हुजूर,
आप जहां खड़े हैं
क्यों छेड़ रहे हो नहर का इतिहास
छपाक-छपाक गोते खा-खाकर तैरने के लिए
पानी की जरूरत होने लगेगी, पर पाईएगा नहीं।

क्यों, कहां गया पानी ?

सूख गयी नहर,
सूखा दी गयी हुजूर
छपाक-छपाक तैरने के लिए
वो हौदी भी न बची
धारा बनकर जहां गिरती थी नहर
और पूरी लय के साथ जहां से बढ़ जाती थी आगे
एक ओर भैंसे गर्दन-गर्दन डूबकर नहा रही होतीं
और उनके बीच ही, या उनकी पीठ पर भी
वे बदमाश छपाक-छपाक तैर रहे होते जो
घाट पर कपड़ा फींचते धोबी को धोने ही नहीं देते कपड़े

बेचारा धोबी सुबह तड़के
जब चाकू की धार सी ठंडक के साथ
बह रहा होता था पानी
साईकिल के कैरियर पर लादकर
ले आता था गठरी कपड़ों की
उतर जाता था घुटनों-घुटनों
फच --- फच ----हश्श् -----हश्श्
फींचते कपड़ों के साथ ही चढ़ता था सूरज
वे बदमाश तो उछल-कूद मचाते हुए जब तक पहुंचते
साबुन का झाग भी बह चुका होता पानी बनकर

अब कहां, हुजूर अब तो बची ही नहीं है नहर
नहर वाय विभाग में हैं ही कहां अब बेलदार
जो समय से खोलते और बन्द करते थे पानी की धार
धारा पर गोता लगाने वाले भी तो नहीं रह गये
भैंसे! उनकी न पूछिये हुजूर
जब बैल ही नहीं रहे तो भैंसे कैसे पाले -
मंदिर के पीछे रहने वाले उन तैलियो से पूछे हुजूर
जिनकी लड़कियां भैसों को लेकर नहर पर पहुंचती थी
उनको नहलाने
कि भैस क्यों नहीं पालते हैं
टूटती हुई मटर के बाद
बर्सिम बोने के लिए जब बचे ही नहीं खेत
तो क्या खाक खिलायेगें हरा चारा
बिना हरे चारे के कितना तो देगी दूध -
किलो दो किलो
जानते हैं हुजूर भैंस की खिलायी
पॉंच किलो दूध की रकम है रोज

आप तो कुत्ता पालते हैं
सुबह शाम घुमाते भी होंगे ही
उसके चूतड़ों पर समय बे समय
बीमारियों से बचाव के इंजेक्शन भी ठोंकते ही हैं
पर इस नहर वाली गली में बैठे
उस मोची से मिल लीजिए हुजूर -
फटे हुए जूतों की मरम्मत करते हुए,
आंख से ठीक न दिखने के कारण
कितनी ही बार जिसकी उंगलियों में
घुस जाती है सुम्मी की नोंक और घाव कर देती है
गरम हल्दी तेल ही भरता है वो तो
हल्दी तेल भी कहां तो ठीक से भर पाता है अब वो हुजूर
तेल का सुना नहीं, ऐसा चढ़ा है रेट
कि बिना खाये ही धमनियों में जमने लगा है
कैसा तो आघात पड़ा है, अस्पताल में है बेहोश

नहरवाली सड़क पर आपने
मेरी इस छोटी सी दुकान का पता खोज लिया
तो नहर भी खोज ही लेगें, पूछते रहिये
आप नहर वाली सड़क पर आये, अच्छा लगा
संभल कर उतरिये,
बहाव तेज है हुजूर
वो वो देखिये हुजूर उधर,
नहर वाली गली जहां उस चौड़ी सड़क से मिल रही है
हां हां वही जिस पर अभी हाल ही में बने है मॉल,
उधर ही से बहता चला आ रहा है कुछ
ठहर जाईये थोड़ी देर ऊपर ही,
अभी ऐसा लबालब नहीं है कि यहां तक पहुंच पाये
ठहर जाईय,  ठहर जाईये
ढलान तेज है, निकल जायेगा
मैं तो वर्षों से ऐसे ही कर रहा हूं हंजूर
चिन्ता न कीजिए
कितना ही लबालब हो जाये और रुके ही न
तो भी दुकान बढ़ाकर मुझे भी तो निकलना ही है
आप साथ रहेगें तो मैं भी हिम्मत रख पाऊंगा
मेरे पास एक लम्बा डंडा है
उसी के सहारे डगमगाते हुए भी
एक दूसरे को हिम्मत बंधाते हो जायेगें पार
आप नहर वाली गली में हैं हुजूर
ऐसा हो ही नहीं सकता
कि नहर वाली गली का ग्राहक मुसिबत में हो
और दुकानदार ---
आरम से बैठिये हुजूर वैसे भी इस बाढ़ में कोई ग्राहक तो आना नहीं 
आप आये स्वागत है आपका
लीजिए मैं आपको ये आम का अचार खिलाता हूं 
अपना ही बनवाता हूं हुजूर
ये चटनी ! लहसुन की है हुजूर, खाकर देखिये न!     


Friday, September 16, 2011

धीरेन्द्र अस्थाना को छत्रपति शिवाजी पुरस्कार

 
संस्कृति राज्य मंत्री श्रीमती फौजिया खान से छत्रपति शिवाजी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार प्राप्त करते कहानीकार पत्रकार धीरेन्द्र अस्थाना। मंच पर मौजूद हैं संस्कृति मंत्री संजय देवतले, पत्रकार विश्वनाथ सचदेव, अकादमी कार्याध्यक्ष दामोदर खडसे और पत्रकार अनुराग चतुर्वेदी।

वरिष्ठ कहानीकार और प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा के मुंबई ब्यूरो प्रमुख धीरेन्द्र अस्थाना को महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ने छत्रपति शिवाजी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार से सम्मानित किया है। श्री अस्थाना को 51 हजार रुपए का यह सम्मान उनके समग्र साहित्यिक लेखन को देखते हुए दिया गया है। मुंबई के सचिवालय जिमखाना के खचाखच भरे सभागार में श्री अस्थाना को शॉल, श्रीफल, ट्रॉफी और 51 हजार रुपए की राशि का चेक महाराष्ट्र की संस्कृति राज्य मंत्री श्रीमती फौजिया खान ने प्रदान किया। श्री धीरेन्द्र अस्थाना की अब तक डेढ़ दर्जन से ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें उपन्यास, कहानी और साक्षात्कारों का समावेश है। उनकी कुछ प्रमुख पुस्तकें हैं - गुजर क्यों नहीं जाता, देशनिकाला, हलाहल, उस रात की गंध, नींद के बाहर और रू-ब-रू। श्री अस्थाना टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस और दैनिक जागरण समूह में काम कर चुके हैं। पिछले 9 वर्ष से वह सहारा समूह के साथ जुड़े हुए हैं। श्री अस्थाना के अलावा आबिद सुरती, दिनेश ठाकुर, नारायण दत्त, सलिल सुधाकर, डॉ। आनंद प्रसाद दीक्षित और मनोज सोनकर समेत महाराष्ट्र के कुल 27 हिंदी सेवियों को भी इस मौके पर विभिन्न क्षेत्रों में सम्मानित किया गया।

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