Sunday, August 24, 2014

उन्होंने साहित्य में आधुनिक भारतीय चेतना को स्थापित किया






यू आर अनंतमूर्ति का आकस्मिक निधन भारतीय साहित्य जगत के लिये एक स्तब्धकारी सूचना है.वे सही अर्थों में आधुनिक भारतीय चेतना के प्रतिनिधि  लेखक हैं. भाषा की सरहदों को लाँघने वाले अनंतमूर्ति न सिर्फ़ लेखन में रूढ़ियों से संघर्ष करते रहे बल्कि जीवन में भी जोखिम उठाकर अपनी  बात कहने का साहस दिखाते रहे. वे साहित्य और रजनीति के बीच की दूरी को पाटने वाले सक्रिय योद्धा के रूप में भी याद किये जायेंगे.

     अनन्तमूर्ति का उपन्यास ‘संस्कार’ हिन्दु ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खोखलेपन पर करारी चोट करते हुए प्रतिरोध का नया व्याकरण लिखता है.धर्म-विरुद्ध आचरण करने वाले ब्राह्मण की मृत्यु पर अन्तिम संस्कार  की पेचीदगियों से शुरू होता हुआ यह उपन्यास रूढ़ियों की जकड़न में फंसे ब्राह्मणों के अन्तर्विरोधों के साथ जातिवादी व्यवस्था के खोखलेपन को  उजागर करता है. अनूठे शिल्प-विन्यास और प्रतीकात्मकता के लिये विख्यात ‘संस्कार’ आधुनिक भारतीय साहित्य का अप्रतिम गौरव-ग्रन्थ है.

       उनका दूसरा उपन्यास ‘भारतीपुर’ अधुनिकता और परम्परा के शाश्वत द्वन्द्व की कथा है.कथा नायक इंग्लैण्ड में शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात अपने गाँव भारतीपुर लौटता है और गाँव के हरिजनों की जीवन-स्थिति उसे बेचैन करती है.इस उपन्यास में बहुत कुछ बाहर के साथ भीतर भी घटित होता है. सदियों की जकड़न से छूटने की बेचैनी और छटपटाहट का  सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक स्तर चित्रण किया गया है. एक प्रसंग में कथा नायक सैकड़ों वर्षों से घर के पूजा घर में रखे शालिग्राम को दलित के स्पर्श कराने के प्रयोजन से बाहर निकालकर लाता है .यह पूरा प्रसंग जिस सघनता के साथ उपन्यास में आया है वह अनुवाद में भी पाठक को विचलित करके रख देता है.

        साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष के रूप में उनके कार्य-काल को बहुत सम्मान के साथ याद किया जाता है.

       लोकतान्त्रिक मूल्यों के लिये प्रतिबद्ध आधुनिक चेतना के अद्भुत शब्द-शिल्पी अनंतमूर्ति को  ‘लिखो यहाँ वहाँ ’की विनम्र शृद्धांजलि!

Friday, August 22, 2014

प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान २०१४

वर्ष २०१४ का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान कथाकार अल्पना मिश्र को उनके उपन्यास 'अन्हियारे तलछट में चमका' के लिए दिए जाने की घोषणा की गयी है.२००६ से प्रतिवर्ष दिए जा रहे इस सम्मान का यह ७ वां संस्करण है जिसके निर्णायक मंडल में वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी, कथाकार शिवमूर्ति और डॉ चन्द्रकला त्रिपाठी रहीं.
निर्णायकों के अनुसार यह उपन्यास निम्नमध्यवर्गीय जीवन का महाख्यान है जो स्त्री-लेखन को एक बड़ा विस्तार देता है और स्त्री-संसार की एकायामिता को तोड़ता है.कहन के अनूठे अंदाज़ और भाषा-विकल्पन के गहरे नए रूपों से संमृद्ध यह  हिंदी उपन्यास क्षेत्र में अब तक के प्रचलित  सभी खांचों को तोड़ कर सृजनात्मकता के नए शिखर निर्मित करता है.

Monday, August 18, 2014

मुश्किल रास्ता

प्रथम युगवाणी पुरस्कार से सम्मानीत कथाकार गुरूदीप खुराना का का उपन्यास ''रोशनी में छिपे अंधेरे" 1960 के आसापास के गुजरात की कथा को हमारे सामने रख्ता है। स्पष्ट है कि 1960 के आसपास जो स्थितियां थी उनसे नृशंसता के प्रतीक 2002 के गुजरात की कल्पना नहीं की जा सकती थी लेकिन 2002 का गुजरात भी आज इतिहास की एक हकीकत होकर सामने आया है। देख सकते हैं धर्म की आड़ लेकर लगातार तकात बटोरते गये दया भाईयों को सामाजिक रूप से विलग न कर देने के परिणाम कहां तक पहुंचे हैं। बेशक, कथाकार के निशाने में 2002 का गुजरात नहीं है लेकिन उपन्यास की कथा तो पाठक को खुद ब खुद वहां तक ले जा रही है। प्रस्तुत है इसी उपन्यास से एक अंश।
वि. गौ.

चांद खेड़ा की सरकारी कालोनी में एक मिस्टर चौधरी रहते थे। वो थे तो इन्जीनियर, पर विशेष अनुरोध पर उन्होंने स्टाफ के क्वार्टरों में एक एलॉट कराया हुआ था। थे तो हैदराबाद के रहने वाले, पर यह कोई नहीं जानता था कि वो मुस्लिम है। नाम के।बी। चौधरी से यह अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि कुंज बिहारी है या करीम बक्श या जो भी रहा हो। उनकी पत्नी बाकी औरतों की ही तरह बिन्दी वगैरा लगाती थी। बड़े ही शांत स्वभाव के व्यक्ति थे। 

दंगों के दौरान पता नहीं दंगईयों को कैसे उनके मुस्लिम होने की भनक लग गई और बड़ी संख्या में आकर उन्होंने उनके क्वार्टर पर धावा बोल दिया। 

जिस बेरहमी से उन्होंने पूरे परिवारजनों को मारा और जिस तरह बेइज़्जत करके मारा, उसे सुनकर कानों पर विश्वास नहीं होता था। मिस्टर चौधरी के गुप्तांग को काटकर उसके मुंह में डालना और फिर ज़िन्दा जलाना और इससे मिलता जुलता ही सलूक बाकी परिवार जनों के साथ करना। यह ऐसी वारदात थी कि सुनकर अमन को आंखों के आगे अंधेरा सा छा गया। यह हो क्या रहा है? वह हैरान था। 

ऐसा ही भयंकर प्रहार हिन्दुओं को भी सहने पड़े, उन इलाकों में जहां मुस्लिम समुदाय का बोलबाला था। इसी कारण शायद ये लोग मौका देखकर बदला लेने आये थे। लेकिन यह कैसा बदला। दंगई भी अपने घ्ारों में सुरक्षित थे और बदला लेने वाले भी। पिस रहे थे बेचारे बेकसूर, दोनों तरफ़। 

ऐसी घटनाएं चाहे इक्का दुक्का ही हो रही थी, पर उनसे वातावरण में भयंकर दहशत भर गई थी। हिन्दु मुस्लिम इलाकों में जाने से डरते थे और मुस्लिम हिन्दु इलाकों में आने से। मुस्लिम इलाकों में रहने वाले हिन्दुओं की और हिन्दु इलाकों में रहने वाले मुसलमानों की जान सूखी रहती थी कि पता नहीं कब क्या हो जाए। 

एक शाम अमन को दया भाई टकरा गए, 'कैसे हो चौधरी साहब?" एक कुटिलता भरी टेढ़ी सी मुस्कुराहट थी उनके चेहरे पर। 

’मैं ठीक हूं, आप सुनाएं’ उसने बड़े शांत स्वर में पूछा, 'क्या खबर है?’ 

'खबर तो अच्छी है चौधरी साहेब। अब तो उनके दांत खट्टे कर दिए। उन्हें उनकी औकात समझा दी। चुन चुन कर सफ़ाया कर दिया सबका।। अब भी कुछ हैं जो छिपे बैठे हैं।। वो भी बच के किधर जायेंगे?’ 

अमन का मन खट्टा हो गया। हमेशा दया भाई से मिलकर यही होता था। 'चलता हूं।’ उसने आज्ञा मांगी। 

'आपको हमारी बात अच्छी नहीं लगी?’ 

'इसमें अच्छी लगने जैसी क्या बात थी?’ 

'एक बात बोलूं चौधरी साहेब?,

'जी कहिए?, 

'सुना है आपके ऑफ़िस की कालोनी में एक आप जैसे चौधरी साहब रहते थे, उनकी भी छुट्टी हो गई।’

'हूं। बहुत बुरा हुआ।’ 

'आपको दु:ख हुआ?’ 

'नेचुरली।’ 

'आपका भाईबंध था।’

'नहीं, मैं तो कभी उससे मिला भी नहीं।’

'ऐसा? पर था तो आपकी ही बिरादरी का।’ 

'मेरी बिरादरी का? क्या बात करते हैं, वो तो मुस्लिम था।’

 'पर वो भी ऐसा बताता तो नहीं था। उसकी भी वाईफ़ शुभ्रा बेन की तरह बिन्दी-विंदी लगाती थी।" 

'आप क्या कहना चाहते हैं?" 

 'यही कि--- प्रमाण तो आपके पास भी हिन्दु होने का कुछ नहीं। आपके घर में तो आपने कोई पूजा वूजा का कोना भी नहीं रखा। कोई देवी-देवता की तस्वीर भी नहीं। कोई गीता-रामायण भी नहीं।" 

'ये सब आपको कैसे पता?" 

'पता तो रखना पड़ता है न साहिब। हर घर की पूरी खबर रखनी पड़ती है। हमें यह भी पता है कि आपके ज्यादातर दोस्त मियां लोग हैं और यह भी कि अमन मुस्लिम लोग का नाम होता है।" 

'मेरा पूरा नाम अमनदीप है। दीप मुस्लिम लोगों के नाम में नहीं होता।" 

अगर हिन्दु के नाम में अमन हो सकता है तो मुस्लिम के नाम में दीप होने में क्या है---ऐसे भी कोई अपना नाम दिलीप कुमार रखने से हिन्दु नहीं हो जाता। 

'कैसी बातें कर रहे हैं दया भाई, इतनी छोटी बातें करना आपको शोभा नहीं देता।" 

'देखो अमन भाई, टालने से नहीं चलेगा। हमें प्रमाण चाहिए आपके हिन्दु होने का।" 

'मैं इसकी कोई जरूरत नहीं समझता, न मैं अपने आप को किसी धर्म के साथ जोड़ता हूं। हम केवल मानवता में विश्वास रखते हैं और वह ही हमारा धर्म है। आपको प्रमाण देने की मैं कोई जरूरत नहीं समझता।" 

'बहुत अकड़ नहीं दिखाने का अमन भाई। हमारे हिन्दु समाज में हिन्दु ही रह सकते हैं। इसलिए यह प्रमाण भी आपको देना होगा। नमस्कार।" 

अमन घर पहुंचा तो शुभ्रा ने उसका लटका चेहरा देखकर पूछा, 'खैरियत तो है?" 

'पता नहीं।" 

'पता नहीं? क्या मतलब?" 

'यहां एक शख्स रहता है जो मेरे खून का प्यासा है।" 

 'कौन?" 

'वही दया भाई, और कौन?" 

'अरे छोड़ो, उसकी बातों पर ध्यान न दिया करो। उसे मुंह ही मत लगाया करो।" 

'जानती हो आज क्या कह रहा था?" 'क्या?" 

'कि तुम मुस्लिम नहीं, इसका क्या प्रमाण है?" 

'ऐसा क्यों पूछ रहा था?" 

अमन ने पूरी बात सुनाई तो वह बोली, 'तुम उस नीच की बात की परवाह करना बन्द कर दो। क्या बिगाड़ लेगा वो तुम्हारा?" 

'तुला तो हुआ है वो मेरा कुछ न कुछ बिगाड़ने को। देखो!" 

'भूल जाओ उसे। आज देखो चाय के साथ क्या है!" 

'ओह! बटाका पोंहा।" 

अमन ने मुस्कराने की कोशिश की। 

'पापा, यह बटाका पोंहा होता है कि बटाटा पोंहा?" गुड़िया ने पूछ लिया। 

'तुम्हारे ख्य़ाल से क्या होना चाहिए?" उसने पूछा। 

'पता नहीं।" गुड़िया सोच में पड़ गयी। बोली, 'मुझे बटाटा कहने में ज्यादा अच्छा लगता है।" 

'तो बस फिर, आज से इसका नाम बटाटा पोंहा ही होगा।" 

गुड़िया को लगा, पापा इस समय उदार हो रहे हैं तो मौके का फ़ायदा उठाना चाहिए। बोली, 'पापा चाय पीकर मेरे साथ सांप-सीढ़ी खेलोगे?" 

वह टालते हुए बोला, 'यार सांप तो आज बहुत हो गया, आज रहने दो।" 

'कोई बात नहीं, आप भी सीढ़ी सीढ़ी खेल लेना।" 

चार साल की गुड़िया, जब भी पापा के साथ बैठकर सांप-सीढ़ी खेलती, तो सांप के मुंह में गोटी आ जाने पर रोने लगती। पापा ने इस कारण उसे छूट दे रखी थी कि वह केवल सीढ़ी-सीढ़ी का लाभ उठाए, सांप छोड़ दे। परिणाम स्वरूप वह हमेशा बाजी जीत जाती। अब उसका मनोबल इतना बढ़ गया कि वह पापा से कह रही है कि वह भी सीढ़ी-सीढ़ी खेलें, सांप छोड़ दें। 

अमन ने गुड़िया को अभी दो-तीन बाजी जिताईं थीं कि विश्वनाथ जी आ पहुंचे। अमन को जैसे उन्हीं के साथ की जरूरत थी। दया भाई की बातों से जो मन कलुषित हुआ था वह विश्वनाथ जी से बात करके काफ़ी कुछ शांत हो गया। 

अगली शाम जब वह ऑफ़िस से लौटा, तो भाग्य से दया भाई सामने नहीं पड़े। वह घर पहुंचा तो पीछे पीछे अनवर साहब भी आ पहुंचे। अमन उन्हें शाम के समय देख कर चौंका, 'अरे कमाल कर दिया, जनाब ,आपने तो। आजकल तो आसपास वालों की भी शाम को आने की हिम्मत नहीं पड़ती, कर्फ्यू के डर से।" 

'भई क्या बताएं। शुभ्रा जी के हाथ के पकौड़ों की याद आई तो रुका नहीं गया।" 

'क्या बात है! आपने तबियत खुश कर दी, अनवर साहब।" 

'एक बात कहूं?" अनवर साहब कहने लगे, 'आजकल मुझे अनवर न बुलाया करें, बस जॉन ही बुलाए। समझ रहे हैं न आप।" 

'खूब समझ रहा हूं। मैं तो खुद नाम में अमन होने से ही मुश्किल में हूं।" 

'अरे क्या बताएं आपको, मुझे तो इस अनवर नाम ने बहुत परेशान किया। जो भी खत आते है उन पर जे।अनवर ही लिखा रहता है। इसलिए शक के घेरे में लगातार बना रहता हूं। जा जा कर सबको बताना पड़ता है कि अनवर मेरा नाम नहीं तखल्लुस है, पर बहुत मुश्किल है सबको समझाना।" 

'और, आपके शायर दोस्तों की कोई खबर?" 

'कुछ नहीं। हां रहमत भाई एक बार जरूर मिले थे। अपनी पूरी फ़ैमिली के साथ। साबरमती स्टेशन पर फंसे हुए थे। कहीं बाहर से आ रहे थे। दंगों का सुनकर साबरमती में ही उतर गए। आगे अहमदाबाद स्टेशन जाना तो इतना खतरे से भरा नहीं था, लेकिन अहमदाबाद स्टेशन से जमालपुर पहुंचना तो खतरे से खाली नहीं था। कहने लगे-अनवर भाई हमें किसी तरह अपने घर पनाह दे दो। मैं जिन्दगी भर यह अहसान नहीं भूलूंगा। मैं कुछ समझ नहीं सका उनकी कैसे मदद करूं। मैंने अपनी मजबूरी समझाई। बताया कि पहले से ही मैं शक के घ्ोरे में हूं। यह भी बताया कि साबरमती में जहां-जहां पता लग रहा है, चुन-चुन कर मार रहे हैं। क्या बताऊं। मैं इतनी शर्मिंदगी महसूस करता रहा और अब तक कर रहा हूं कि एक रात भी चैन से नहीं सो पाया। मेरे इतने पुराने दोस्त, और मुझ से ऐसा टके सा जवाब मिला उन्हें।" अनवर साहब ने एक ठंडी सांस भरी। 

कुछ इधर उधर की बातें हुई। चाय-पकौड़ों का दौर पूरा हुआ और अनवर साहब ने अपनी घ्ाड़ी की तरफ देखा। सवा-सात। वो उठ खड़े हुए। बोले, 'अब मुझे फौरन निकलना चाहिए। आठ बजे कर्फ्यू से पहले साबरमती पहुंचना है।" 

अमन साथ चल पड़ा वाड्ज बस-अड्डे तक जाने के लिए। 

'नहीं आप तकल्लुफ न करें" अनवर साहब ने रोका, 'वाड्ज तक पैदल आने जाने में आठ से ऊपर का टाईम हो जाएगा।" 'चलिए, जहां साढ़े सात होंगे लौट पड़ूंगा।" 

'ठीक है। ज़रा ध्यान रखना टाईम का।" 

नाराणपुरा से वाड्स जाते हुए रास्ते में बहुत बड़ा मैदान पड़ता था। किसी कारण वहां की जमीन अभी प्लॉटों में नहीं बंटी थी। इस कारण उस सुनसान पड़े खाली भूखण्ड को सब मैदान की संज्ञा देते थे। बरसातों के बाद इस मौसम में, रेत के बीच काफ़ी झाड़-झंखाड़ भी उग आया था। 

अभी वे लोग मैदान पार के मेन रोड पर पहुंचे ही थे कि अनवर साहब ने घ्ाड़ी देखकर अमन से कहा, 'बस अब साढ़े सात हो गए हैं अब आप लौट चलिए। खुदा हाफ़िज।" 

सितम्बर के महीने का अंतिम सप्ताह चल रहा था। अंधेरा कुछ जल्दी ही होने लगा था। उस लम्बे चौड़े मैदान के बीच जो भावी सड़क का शॉर्ट-कट था जिससे कि वह लौट रहा था वहां तब कोई बिजली का खंभा नहीं था। बस अंधेरा ही अंधेरा था। अमन को ऐसा माहौल बहुत पसंद था। उसका मन हो रहा था कि वह कोई गाना गुनगुनाए। 

लेकिन तभी, कोई पांच-छ: परछाईयां एकाएक उसकी तरफ़ लपकी। उसे पता ही नहीं चला कि कैसे किसी ने उसके मुंह पर कपड़ा डाला। मुंह बंद करके, आंखों के आगे भी कपड़ा डाल कर दोनों हाथ पीछे बांध दिए। बात यहीं नहीं रुकी। उसे लगा उसकी पैंट खोली जा रही है। उस ज़माने में पैंट में ज़िप नहीं लगा करती थी। बटन ही होते थे। एक एक करके पैंट के बटन खुले और टार्च की रोशनी चमकी। फिर आवाज़ें सुनाई दी 'ठीक ही लग रहा है", कटवा तो नहीं।" 'बरोबर छे।" 'गलत आदमी को पकड़ने को बोल दिया। जावा दो!" किसी ने कहा और उसके हाथ खोल दिए गए। हुकुम हुआ, 'पीछे मुड़कर नहीं देखना साहब, वर्ना खल्लास।" 

जब तक वह होश संभालता और पैंट बांधता, वे परछाईयां विलुप्त हो चुकी थी। इस पूरे घटना-चक्र में बमुश्किल पांच मिनट लगे होंगे। 

वह तेज़-तेज़ कदमों से घर की तरफ़ जा रहा था, जितना तेज़ चल सकता था, चलकर वह इस अंधेरे इलाके से बाहर पहुंचना चाहता था। दिल की धड़कन बेकाबू हो रही थी। उसका दिमाग कुछ काम नहीं कर रहा था। आखिर ऐसा क्यों हुआ उसके साथ। इतना भयानक! आबरू लुटने जैसा हादसा। 

जरूर यह दया भाई का ही करा धरा है, उसे लगा। वही प्रमाण मांग रहा था। अमन का मन हो रहा था वह सामने पड़ जाए तो उसका मुंह नोच ले। उस दया भाई की गलीच मुस्कुराहट याद आती, तो उसका मुा तन जाता उसके दांत तोड़ने के लिए। इतना गुस्सा उसे कभी नहीं आया था किसी पर। 

आठ बजे से पहले ही वह कॉलोनी तक पहुंच गया। कॉलोनी के लोग हमेशा की तरह घेरा बनाए खड़े थे और दया भाई का व्याख्यान चल रहा था। 

'केम चौधरी साहेब, तबियत तो ठीक है।" दया भाई ने पूछा। 

 'जी।" अमन बिना उस तरफ़ देखे, बिना रुके, अपने घर की तरफ बढ़ गया। 

शुभ्रा ने उसे देखते ही पूछ लिया, 'क्या बात है? सब ठीक तो है?" 

'हूं", उसने टालते हुए कहा, 'एक गिलास पानी दे दो।" 

'ये बाल-वाल क्यों बिखर रहे हैं कहीं गिरे थे क्या? कोई चर-वर तो नहीं आया।" 

'पता नहीं, कुछ ऐसा ही समझ लो।" 

'हो सकता है पकौड़े खाने से पेट में गैस हो गई हो, कोई बात नहीं, लेट जाओ थोड़ी देर।" 

एक तो वह गुड़िया के सामने कुछ बताना नहीं चाहता था, दूसरा इस समय उसका बात करने का मन ही नहीं हो रहा था। वह आंखे बंद करके चुपचाप लेट गया और मन शांत करने के लिए लम्बी-लम्बी सांसे लेने लगा। दिमाग में जैसे एक भूचाल सा आया हुआ था। समुुंदरी भूचाल। पहाड़ सी ऊंची और विकराल लहरें थमने में ही नहीं आ रही थीं। उसे लग रहा था कि कहीं दिमाग की नसें फट ही न जाएं। 

शुभ्रा खाना बनाकर और नन्हीं को सुलाकर उसके पास आ बैठी। उसके माथे पर हाथ फेरा तो चौंकी, 'अरे तुम्हारा तो माथा तप रहा है। तुम्हें बुखार है क्या?" 

'नहीं, बुखार-वुखार कुछ नहीं, सिर्फ माथा गर्म है। ठीक हो जाएगा। तुम पहले हाथ रखती तो अब तक ठीक हो गया होता।" 

'तुम कुछ छिपा रहे हो, दीप। सच सच बताओ, हुआ क्या? चर ही आया था या---?" 

'बाद में बताऊंगा" वह धीमे से बोला, 'गुड़िया के सो जाने के बाद।" 

'ऐसी भी क्या बात!" वह धीमे से फुसफुसाई। 

'है।" अमन ने चेहरे पर मुस्कुराहट लाने की पूरी कोशिश की। 

'सुनो, खाना तैयार है, लगा दूं।" शुभ्रा ने पूछा। 

 'बिल्कुल।" 

रात के खाने के बाद अमन को आदत थी टहलते हुए पान की दुकान तक जाने की। कालोनी के बाहर ही मेन रोड पर थी दुकान। वह एक सादे पान की गिलोरी मुंह में रखता, एक मीठा पान शुभ्रा के लिए बंधवाता, और एक सिगरेट सुलगा कर थोड़ी चहलकदमी करता। ऐसी आदत उन दिनों बड़ी आम हुआ करती थी। तम्बाकू-सिगरेट के नुकसान तब तक उजागर नहीं हुए थे। इन दिनों रात के कर्फ्यू के चलते वह दुकान बन्द रहती थी। कभी उसे याद रहता तो पहले से पान लाकर रख लेता था। लेकिन आज तो प्रश्न ही नहीं उठता था। फिर भी आदतन वह बाहर निकला और कालोनी की गली में ही चहलकदमी करने लगा। दो तीन चर लगाने के बाद वह जैसे ही दया भाई के घर के सामने से निकल रहा था तो भीतर से आवाज़ आई, 'चौधरी साहेब, रुकना एक मिनट।" 

न चाहते हुए भी उसके कदम थम गए। दया भाई प्रकट हुए, तो बोले, 'हमसे नाराज़ हैं कुछ चौधरी साहेब?" 'आप से नाराज़गी दिखाकर हमें जान से हाथ धोना है?" 

'ऐसा क्यों बोलते हो साहेब?" 

'ऐसा ही है दया भाई। आपकी ताकत का हमें परिचय मिल गया है।" 

'कैसी बातें करते हो भाई। मैंने तो आपको यह पूछने को रोका कि शाम आपने हमसे बात नहीं किया, क्या नाराज़गी है।" 

'आपको सब पता है, भाई साहब!" 

'क्या पता है, क्या हुआ? कुछ बोलो न अमन भाई।" 

'आपको मेरे मुस्लिम न होने का प्रमाण चाहिए था, सो आपको मिल गया।" 

'सुनो, अमन भाई, हमारे साथ ऐसा कड़क ज़बान में बात नहीं करने का। क्या?--- हमको कैसे पता होगा आपके साथ क्या हो गया? हम पर किस बात का इल्जाम डाल रहे हो?" 

'सॉरी।" अमन को अपनी आवाज़ के इतना ऊंचा होने पर स्वयं हैरानी हो रही थी। 

'कोई बात नहीं। जाने दो अमन भाई। यह बताओ कि हुआ क्या? क्या तुम्हारा छान-बीन हुआ?" 

'छान-बीन? इसे आप छान-बीन कहते हैं। इस तरह बेइज़्जत करना और वो भी बिना किसी कसूर के? इसलिए कि आपको प्रमाण चाहिए था?" 

'मुझ पर क्यों बरस रहे हो अमन भाई? मैंने प्रमाण का बात जरूर किया, परन्तु इसका मतलब यह तो नहीं कि छान-बीन भी मैंने करवाया। हद करते हो अमन भाई। देखो हमारी बात ज़रा ध्यान से सुन लो।" 

'कहिए।" 

 'देखो, यह जो कुछ भी हुआ छान-बीन वगैरा, इससे आप को जो कष्ट पहुंचा यह तो ठीक नहीं हुआ, परन्तु वैसे एक हिसाब से ठीक हो गया। अब आप पर कोई मियां होने का संदेह नहीं करेगा। क्या? आप नास्तिक हो, कोई बात नहीं, परन्तु मियां नहीं हैं, यह सबके लिए संतोष की बात होगी।" 

'इतनी घ्रणा। पूरी मुस्लिम जात से ऐसी घ्रणा?" 

'ऐसा है अमन भाई, हमारा सोचने का तरीका आपसे फर्क है। हम तो यह मानते है कि यह मियां लोग की कौम, जब तक इधर में बाकी है, हमारे राष्ट्र को खतरा ही खतरा है। मुट्ठी भर लोग अरब से आए थे, आज इधर में दो पाकिस्तान तो बना चुके हैं, अब कश्मीर भी उनके निशाने पर है और जिस रफ्तार से इनकी संख्या बढ़ रही है, वो दिन दूर नहंी जब पूरा भारतवर्ष पाकिस्तान बन जाएगा। जानते हो अमन भाई, एक एक मियां चार चार शादी करता है और दो दर्जन से कम बच्चे नहीं पैदा करता। ऐसे में कितने दिन टिक पायेंगे हम इनके सामने? इसलिए अमन भाई, इनका सफाया जरूरी है। अच्छा है कि आप उनमें से नहीं हो।" 

'कैसी बातें करते हो दया भाई। हमारे तो इतने मुस्लिम दोस्त हैं, न तो किसी की एक से ज्यादा शादी हुई है न ही ज्यादा बच्चे हैं।" 

'अमन भाई, अब क्या बोले? आपको उनकी बात पर ज्यादा विश्वास होता है, हमारी बात गलत लगती है। यही दुर्भाग्यपूर्ण है, अरे अगर आप सच्चे राष्ट्रवादी हैं तो आपको इन लोगों के साथ दोस्ती नहीं पालनी चाहिए। समझ गए न अमन भाई! हम हमेशा आपका भला सोचकर बात करते हैं।" फिर अपनी घड़ी की तरफ देखकर बोले, 'अच्छा अब आप को और नहीं रोकेंगे। शुभ्रा बेन इन्तजार देखती होगी। नमस्ते!" 

भारी कदमों में वह घर की तरफ बढ़ गया। 'क्या बात हो गई थी?" शुभ्रा ने दरवाज़ा खोलते हुए पूछा। 'कब? अभी या शाम को।" 

'दोनों ही बता दो।" 

'गुड़िया सो गई क्या?" 

'हां सो गई।" 'ठीक है तो आओ बैठो। पहले शाम वाली बात से शुरू करता हूं।" उसने शाम वाली पूरी वारदात सुना दी। 

शुभ्रा ने एक लम्बी सांस भरी। बोली, 'हुआ तो बहुत बुरा, बॅट टेक इट इज़ी। खाली देखा ही तो उन कमबख्तों ने, कुछ ले तो नहीं लिया। फ़ॉरगेट इट।" 

अमन ने कहा, 'सोचो, अगर मेरी जगह सोमेश होता, जिसे पेशाब में रूकावट के कारण सर्कमसीज़न कराना पड़ा था, उसका ये क्या हाल करते?" 

'अरे, ऐसे कहां तक सोचेगे," शुभ्रा ने कहा, 'यह तो अगर साई बाबा भी आ जाते तब भी वही सलूक करते। ऐसे में कोई दिमाग का इस्तेमाल थोड़े ही करते हैं।" फिर पूछने लगी, 'क्या दया भाई से भी अभी इसी बारे में बात हो रही थी।" 

'हूं।" 

 'उसका क्या लेना देना है इससे?" 

 'इसका मतलब तुम समझी ही नहीं पूरी बात। यह सब कारस्तानी उस दयाभाई की ही तो है। उसी को प्रमाण चाहिए था मेरे मुस्लिम न होने का।" 

 'इतना घटिया इन्सान है वो?" 

'फिलहाल इस घटियापन का ही बोलबाला है। सभी उसके पीछे पीछे चल रहे हैं। नफ़रत होने लगी है मुझे यहां के इस मुर्दा माहौल से। घ्ाृणा का इतना ज़हर भर गया है यहां कि यह जगह अब रहने लायक नहीं रही। अब यह पहले वाला अहमदाबाद नहीं रहा।" 

शुभ्रा उसकी आंखों में देखते हुए धीरे से बोली, 'नहीं दीप, ऐसी बात तुम्हारे मुंह से अच्छी नहीं लगती। अगर हालात ऐसे बने हैं तो इसमें शहर का क्या दोष। ऐसे दया भाई तो कहीं भी हो सकते हैं। कब, कहां ऐसा ज़हर भर दें, कुछ नहीं कह सकते। बहुत दिन नहीं ठहरेगा यह ज़हर। देखना जल्दी सब नार्मल हो जाएगा।" 

'मुझे तो लगता है इस दौरान नफ़रत के जो बीज बो दिए गए हैं उनका असर पुश्तों तक चलेगा।" 

'यह तो है। नफ़रत फैलाने में घड़ियां लगती हैं और मिटाने में सदियां।" 

'बिल्कुल ठीक।" 

'वैसे मैं एक बात और भी कहना चाहती हूं--- कह दूं?" 

 'जरूर!" 

'देखो दीप, घ्रणा केवल वही नहीं जो दया भाई जैसे लोग फैला रहे हैं--- घ्रणा वो भी है जो तुम्हारे मन में पल रही दया भाई के प्रति।" 

'कहना क्या चाह रही हो।" 

'यही कि वह घ्रणा भी कम घतक नहीं। मैं तो सोचती हूं--- उन लोगों के बारे में भी घ्रणा से नहीं, प्यार से भर कर सोचो। आखिर वे कोई अपराधी तत्व नहीं। अपनी तरफ़ से वे भी जो कर रहे हैं राष्ट्र हित में कर रहे हैं। बस दिशा भटक गए हैं। बहके हुए लोग हैं वे। अगर अब तुम्हें किसी भी कारण से अपना मानने लगे हैं तो तुम्हें मुंह मोड़ने के बजाए उन्हें अपना मान कर अपनी बात समझाने की कोशिश करनी चाहिए।" 

'क्या बात करती हो, दया भाई जैसे लोगों पर कोई असर होगा हमारी बात का?" 

'कुछ तो होगा, प्यार से समझाओगे, तो जरूर होगा। चाहे ज़रा सा ही हो। पूरा असर होने में तो खैर सदियां लग जाएंगी, पर जो भी हो सकता है, प्यार से ही हो सकता है, नफ़रत से नहीं।" 'बड़ा मुश्किल रास्ता सुझा रही हो।" 

'तुम्हारे लिए कोई मुश्किल नहीं।"

Friday, August 1, 2014

उपन्यास अंश

एक हद तक अन्तिम ड्राफ्ट की ओर सरकते उपन्यास 'भेटकी" का यह एक छोटा-सा अंश है। कोशिश रहेगी कि अपने स्तर पर अन्तिम ड्राफ्ट को जल्द पूरा कर लूं और कुछ ऐसे मित्रों की मद्द से जो बेबाक राय देने में हिचकिचाहट महसूस न करते हों, के बाद ही ड्राफ्ट को उपन्यास का रूप दे सकूं।
वि.गौ.


ज्ञानेश्वर ने फार्म हाऊस में एक मस्त पार्टी एरेंज की। लोन आफिसर, जमीन का मालिक और प्रदीप मण्डल तीन ऐसे चेहरे थे जिनके ईर्द-गिर्द ही पार्टी की पूरी रौनक को सिमटना था। हकीकत भी इससे अलग नहीं थी। बल्कि प्रदीप मण्डल का अंदाज सबसे निराला था। ज्ञानेश्वर के घेरे के लम्पटों के चेहरों पर बहुत शालीन किस्म की मुस्कान थी। पार्टी की सारी जिम्मेदारियां वे बखूबी निभा रहे थे। नशे को कुछ अधिक रंगीन एवं पार्टी को लोन ऑफिसर की ख्वाहिश पर हसीन यादगार में तब्दील करने के लिए ज्ञानेश्वर ने नाच गाने की व्यवस्था भी की हुई थी। पैग हाथ में लिये वह खुद कभी इधर और कभी उधर आ जा रहा था। कहीं कोई चूक न रह जाये, उसका सारा ध्यान इसी पर था। बेहद सीमित अतिथियों वाली वह कोई मामूली पार्टी नहीं थी। पूरा माहौल उसे एक भव्य कार्यक्रम में बदल दे रहा था।

नाच गाना चालू था, ज्ञानेश्वर चाहता था कि आज की यह यादगार शाम अतिथियों के मन मस्तिष्क में किसी रंगीन वाकये की तरह दर्ज रह सके। मेहमान भी उसकी आत्मीयता के कायल हुए जा रहे थे।

अनौपचारिक-सी स्थितियों की औपचारिक अदायगी प्रहसन हो जाती है।

यूं, प्रहसन को प्रहसन की तरह से पकड़ने के लिए गम्भीरता की जरूरत होती है। लेकिन बहुत औपचारिक कार्यक्रमों की हू-ब-हू तर्ज पर जब कुछ वैसा ही किया जाये तो उस वास्तविक प्रहसन को बहुत साफ देखा जा सकता है, जिसे गम्भीर सी दिखने वाली स्थितियों के कारण पकड़ना बहुत मुश्किल हो रहा होता है। प्रदर्शन की भव्यता के भुलावे में दर्शक बहुत करीब घट रहे घटनाक्रम के साथ ही आत्मसात हुआ होता है। बहुत बेढ़ंगे तरह से सरके हुए परदे के पीछे का बेढंगापन उसकी निगाहों से छूट जाता है।

कार्यक्रम को वाचाल बनाने के लिए ज्ञानेश्वर को खुद वाचाल बनना पड़ रहा था। जो कुछ भी वह पेश कर रहा था, हर कोई हंसते हुए, दोहरा हो-होकर उसका लुत्फ उठा रहा था। उसके घेरे के लम्पटों को तो वैसे भी बेवजह हंसने की आदत थी। ज्ञानेश्वर का ज्यादा से ज्यादा करीबी हो जाने वाली अघोषित प्रतियोगिता में वे कुछ भी करते हुए होड़ कर सकते थे। फिर यहां तो मामला हंसने भर का ही था। उनकी किसी भी गतिविधि को आपे से बाहर हो गयी नशेबाजों की स्थिति नहीं कहा जा सकता था। लोन अधिकारी को कंधे पर बैठाकर नाचने की होड़ में वे लड़खड़ा रहे थे। घोड़े की उचकती पीठ पर सवारी करने का आनन्द उठाता लोन अधिकारी कभी इधर डोलता कभी उधर। खुद को संभालने की कोशिश में वह बहुत अराजक तरह से घ्ाोड़ों के चेहरों को ही भींच ले रहा था। जिसका अंदाजा ऊपर को चेहरा न उठा पाने की स्थितियों में फंसे घ्ाोड़ों का उस वक्त होता जब बहुत बेतुके ढंग से कोई एक हाथ उनके एक ओर के थोपड़े पर पड़ता। खुद को संभालने की कोशिश में लम्पटों के नाक, मुंह और गालों पर कितने ही चींगोडाें के निशान लोन ऑफिसर ने बना दिये थे लेकिन अभी तक किसी ने भी इस बात का बुरा नहीं माना था। आगे भी उनमें से कोई बुरा मानने की स्थिति में नहीं था। वे खुश थे और खुशी के उन पलों को हमेशा खून-खराबे में रहने वाली स्थितियों के साथ नहीं जीना चाहते थे। हर स्थिति के प्रति पूरी तरह सचेत थे और जानते थे कि बोस के मेहमान की हर ज्यादियों के बाद भी यदि वे उसे खुश रखने में सफल हो पाये तो करीब से करीब जाने का रास्ता तैयार होता रह सकता है। किसी भी तरह की गुस्ताखी पर चूतड़ों पर पड़ने वाली ज्ञानेश्वर की पहली किक के बाद अनंत किकों की स्थितियों से कोई भी अनभिज्ञ न था। दिमाग के संतुलन को नापने का पैमाना होता तो नशे के बावजूद लोन अधिकारी के चेहरे की मंद-मंद मुस्कराहटों को व्यक्त करना आसान हो जाता कि उन मासूम मुस्कराहटों की कितनी ही बिजलियां जो अभी तक मचलती हुई उसके चेहरे पर फिसल गयीं उनका धनत्व कितना रहा होगा। प्रदीप मण्डल और जमीन मालिक भी उसकी रोशनी में नहा गये थे। जमीन की कीमत की रकम का चैक, जिसे जमीन मालिक अगले दिन अपने खाते में जमा करने वाला था, ज्ञानेश्वर ने उसे साथ लेते आने की हिदायत उसी वक्त दे दी थी ज बवह उसे पकड़ाया जा रहा था। इस वक्त जमीन मालिक को वही चैक अपनी गंजी की अंदरूनी जेब से बाहर निकालने का इशारा ज्ञानेश्वर ने इतने चुपके से किया कि जमीन-मालिक के अलावा किसी को नहीं दिखा। ऑरकेस्ट्रा की धुन पर बहुत धूम धड़ाका कर रहे गायक के हाथ का माइक, ज्ञानेश्वर ने अपने हाथ में ले लिया था।

''हां तो हाजरिन आज की इस रंगीन शाम हम आप सबके साथ हमारे आज के अजीज मेहमान श्रीमान गोगा साहाब का हृदय से आभार करते हैं। हमारे इस गरीब तबेले पर पहुंच कर उन्होंने हमारा मान बढ़ाया है। श्रीमान गोगा की तारीफ में ज्यादा कुछ न कहते हुए सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि दुखियारों के दुख के संकटों के निवारण में वे हमेशा बढ़-चढ़ कर आगे रहे हैं और अपनी कलम की नोंक पर बैठी उस चिड़िया को बेझिझक उन कागजों में बैठाने में भी उन्होंने कभी गुरेज न किया जिनके मायने एक जरूरतमंद का सहारा बन जाते है। उनके कलम की नोंक की चिड़िया की उड़ान पर ही हमारे सबसे प्रिय मित्र, बड़े भाई प्रदीप मण्डल ने जो ताकत हासिल की है वह किसी से छुपी नहीं है। आज का यह जलसा गोगा साहाब के हाथों भाई प्रदीप मण्डल को नवाजा जाने वाला यादगार दिन बन कर हमारे सामने है। मैं गोगा साहाब से अनुरोध करता हूं अपने पावन कर कमलों से दादा प्रदीप मण्डल को अपने हाथों वह चैक अदा करें जिसमें लाखों के वारे न्यारे करने की ताकत है। बारह लााख रूपये का तौहफा जरूरतमंद का सहारा बने।"

सभी का ध्यान ज्ञानेश्वर की ओर था। मानो उसे सुनने के लिए ही इक्टठा हुए हों। कुछ क्षणों के लिए माहौल का खिलंदड़पन जाने कहां गायब हो गया था। इधर-उधर की कह लेने के बाद जमीन-मालिक से अपनी कस्टडी में कर लिये गये चैक को बाहर निकाल कर उसने ऐसे लहराया कि मानो अभी उसे हवा में उड़ा देना चाहता हो। लोन अधिकारी गोगा साहब के हाथों प्रदीप मण्डल को सौंपे गये चैक का दृश्य वह फिर से जीवन्त कर देना चाहता था। उसकी कोशिश थी कि वास्तविक घटनाक्रम से जुड़ी ऐसी ही गतिविधियों की नकल के जरिये ही वह पार्टी को एक अनोखा रंग दे सकता है। उसके मौलिक अंदाजों ने हर एक को उत्साह से भर दिया था। हर कोई अपने को उन घट चुकी घटनाओं का जीवन्त हिस्सा महसूस कर रहा था। प्रदीप मण्डल के चेहरे पर तो पहली बार हाथ में आ रहे चैक की सी खुशी झलक रही थी। गोगा साहब भी डोलते हुए ऐसे खड़े हो रहे थे मानो चैक को किसी दूसरे के हाथों में सौंपनस ही नहीं चाहते हों। लेकिन मजबूर करता बैंक कर्मचारीपन लोन प्राप्त करता के सामने असहाय हो जा रहा हो। ज्ञानेश्वर ने हाथ आगे बढ़ा कर चैक उनका सौंपना चाहा तो नशे की लड़खड़ाहाट में गोगा साहब चैक पकड़ने से सूत भर फिसल गये और संभलने की कोशिश में डगमगाने लगे। गिरने-गिरने को थे। लेकिन ज्ञानेश्वर ने तेजी से लपक कर संभाल लिया। गोगा साहब की पेंट की जिप खुली हुई थी। नाच-गाना रूका हुआ था। किनारे खड़ी डांसिंग गर्ल्स के साथ-साथ सामने बैठे ज्ञानेश्वर के घेरे के हर लम्पटों तक की निगाह खुला हुआ लेटर बाक्स अटक रहा था। जोरदार हंसी का फव्वारा छूट गया। किसी लम्पट की फब्तियां हंसी का तूफान उठा देने वाली थी,

''अरे गोगा साहाब लोकर खुला पड़ा है उसे बंद कर लो वरना खुले लोकर पर धावा बोलने वालों की कमी नहीं यहां।"

हो हो हो की आवाज में कितने ही स्वर थे। लम्पटों की निगाहें सामने खड़ी डांसिग गर्ल्स को ताकती हुई थीं। बहुत तेज आवाज में दूसरी ओर से कोई कह रहा था,

''किस्तों की रकम वाले लॉकर का ग्राहक कोई नहीं यहां गोगा साहेब, बंद कर लो इसका ढक्कन।''

''गोगा साहब यदि उंगलिया कांप रही हों तो कहिय---बंद करने को बहुत सी मुलायम-मुलायम उंगलियों का इंतजाम किया है हमारे बोस ने।"

हंसी थी कि थम ही नहीं रही थी। बहुत तीखे नैन नक्श और बेहद तंग चोली वाली डांसिंग गर्ल की आंखों में बहुत खिलखिलाहट थी। अपनी उपस्थिति को उसकी आंखों में देखने को उत्सुक हर कोई, बहुत बढ़-चढ़ कर फब्तियां कसने लगा। डांसिग गर्ल का ध्यान सिर्फ ज्ञानेश्वर की ओर था। ज्ञानेश्वर से निगाहें मिलते ही उसने अपने बदन को कुछ इस तरह हिलाया था, घास में लोट लोट कर थकान मिटाती घोड़ी जैसे बीच-बीच में बदन को झटकती है, और नजरों को मटकाते हुए जाने ऐसा क्या कहा कि हंसी की बहुत तेज फुलझड़ियां भी मंद मुस्काराहटों में बदल गयी। पुकारे गये अपने नाम सुन कर प्रदीप मण्डल चैक लेने के लिए कुछ ऐसे खड़ा हुआ था मानो किसी महत्वपूर्ण पारितोषिक समारोह में हो। बहुत ही विनम्र होकर चैक को दोनों हथेलियों के बीच थामते हुए वह गोगा साहब से हाथ मिला रहा था। कुछ देर को खामोश हो गया ऑरकेस्ट्रा ड्रम गिटार और दूसरे वाद्य यंत्रों के स्वर हॉल को झन-झनाने लगा था। डांसिग गर्ल्स की करतल ध्वनियों पर चिल्लाहटों के तेज स्वर में लम्पटों के हाथ भी स्वत: तालियां की गूंज बन गये। सम्मान की रस्म अदायगी का यह पहला पड़ाव था। माइक पर ज्ञानेश्वर की आवाज फिर उभर रही थी।

''दोस्तों दादा प्रदीप मण्डल जैसे शख्स की महानता का बखान शब्दों में नहीं किया जा सकता। हमारे इस बेहद पिछड़े इलाके के बीच प्रदीप मण्डल सरीखे अपने मित्रों के दम पर ही हमने इलाके की तस्वीर संवारने की जिम्मेदारी ली है। यह जिम्मेदारी स्वैछिक है। किसी सरकारी एजेन्सी ने नहीं सौंपा है कि तन्ख्वाह के खतिर हमें इसके लिए खटना हो। गैर सरकारी संस्थाओं का विकास के नाम पर गांट हथियाऊ मामला भी हमारा नहीं। हम तो सचमुच में जन विकास की चिन्ताओं के साथ अपने नागरिक कर्तव्य को निभाना चाहते हैं। वरना आप ही बताइये--- ऐसी बंजर भूमि जो कि वर्षों से पूर्वज की जायदाद कह कर संभालने वालों के लिए ही जब एक दम निरर्थक साबित हो रही हो तो अपने जीवन की आज तक की गाढ़ी कमाई को यहां फूक देने वालों को क्या दे देने वाली है। इस पर भी दादा प्रदीप मण्डल ने हमारे आग्रह को स्वीकारा और हमारे बुजर्ग, नवाब सैनी साहब, जिनके जीवन का मामला इस बंजर भूखण्ड की चौकीदारी से तो चलने वाला था नहीं, उसके एक छोटे से हिस्से के बदले अच्छी खासी रकम से उन्हें नवाजने का फैसला लिया, हम उनके शुक्रगुजार हैं। मैं दादा से अनुरोध करता हूं कि अब वे अपने हाथों ही उस चैक को नवाब काका को सौंपने का कष्ट करें जो हमारे गोगा साहब ने बैंक के बिहाफ से उन्हें अभी कुछ क्षण पहले सौंपा है, ताकि इस दुर्लभ दिन का बखान करने का अवसर हमें मिल सके और इलाके के दूसरे जरूरत मंद भी बिना हिचकिचाये हमारे इस पुनीत कार्य में शामिल हो सके और इलाके को संवारने में बढ़-चढ़ कर आगे आ सके हैं। हम हमारे बड़े भाई, दोस्त और ऐसे सामाजिक कार्य के लिए हमेशा हमारे साथ खड़े रहने वाले बैंक के लोन अधिकारी गोगा साहब के भी आभारी हैं, जिनके सहयोग से ही प्रदीप मण्डल सरीखे हमारे दोस्त उस ताकत को हांसिल कर पाता है जिसमें वे अपने सामाजिक जिम्मेदारी को तत्काल निभा सकने की एक मुश्त ताकत हांसिल कर पाते हैं। दोस्तों हमें विश्वास है कि बंजर पड़ी सारी जमीनों को हम प्रदीप सरीखे अपने दोस्तों की मद्द से गांव के विकास के रास्ते खोलने के अवसर उपलब्ध करा सकेगें। यह आंकड़ों में सुना जा रहा एफडीआई नहीं बल्कि सीधे निवेशित होती पूंजी से गांव भर के लोगों के जीवन को रोशन करने वाला होगा। इस तरह से मिलने वाली रकम का एक बड़ा हिस्सा उन सभी आधारभूत जरूरतों पर खर्च करने के दूसरे आकर्षक प्रोग्राम भी हम गांव वालों की सुविधा के लिए बनवाना चाहते हैं जिससे हमेशा के अपने वंचित जीवन में वे भी खुशीयों की आधुनिकता लाने में सक्षम हों और आधुनिक उपभोग का वह सारा बाजार बिना हो हल्ले के उनके घरों के भीतर, कीचन के भीतर उनकी सेवा में हर वक्त मौजूद रह सके। गांव भर स्त्रियां बेवजह के कामों में जो अपने जीवन के कीमती समय को बेइंतिहा नष्ट करने को मजबूर हैं, एक हद तक छुटकारा पा सके और बचे हुए समय में दुनिया जहान की खबरें देते कार्यक्रमों का लुत्फ ही नहीं बल्कि कुछ हंसोड़ किस्म के दूसरे कार्यक्रमों को देखने का समय भी उन्हें हांसिल हो सके। "

चैक अदायगी की रस्म ने फिर से हो-हल्ले की संरचना कर दी। प्रदीप मण्डल खुश था कि जमीन खरीदने का उसका उपक्रम मात्र बैंक से लिये जाने वाले लोन का मामला भर नहीं बल्कि एक सामाजिक कर्म भी है। नवाब सैनी ही नहीं ज्ञानेश्वर के घेरे में बोक्सा जनजाति के तमाम युवकों के भीतर प्रदीप मण्डल के लिए गहरा सम्मान उपज रहा था। ज्ञानेश्वर का एक ही तीर कई-कई लक्ष्यों को बेध रहा था।

Monday, July 28, 2014

ऑल द बेस्ट मॉ

हिन्दी कविता में पहाड़ के दर्द को दर्ज करने वाले कवियों के बीच रेखा चमोली की रचनाओं में पहाड़ की स्त्रियों के जीवन के अनेकों चित्र देखें जा सकते हैं। स्त्री विमर्श के व्यापक दायरे में उनके संकेत, बहुत सीमित लेकिन लगातार के सामाजिक बदलावों में अपने व्यवहार को बदलते पुरूष के प्रति स्त्री मन की स्वीकरोकित के साथ हैं। सीधे वार करने की बजाय दोस्ताना असहमतियों में अपने साथी पुरूष को उन सामंती प्रवृत्तियों से मुक्त होने का अवसर देते हुए, जो हजारों सालों की परम्परा में पुरूष प्रकृति में ऐसे समाया हुआ होता है कि प्रगतिशील होने की चाह रखता कोई भी पुरूष कभी भी जिसकी जद में देखा जा सकता है। पुरूष मन के भीतर जाकर लिखी गयी कविता ताना-बाना अपने ऐसे कथ्य के कारण महत्वपूर्ण हो जाती है। प्रस्तुत है रेखा की नयी कविताऐं।
 यूं अभिव्यक्ति का कच्चापन रेखा की कविताओं को किसी खास वैचारिक दायरे की बजाय मासूमियत भरा है। विमर्श की प्रकिया में रचनात्मक कमजोरी के इस बिन्दु से रेखा को लगातार टकराना चाहिए ताकि विचार की परिपक्वता में कविताओं के दायरे विस्तार पायें।
वि.गौ.

ताना-बाना                            


किसी जुलाहे के ताने-बाने से कम नहीं
उसके तानों का जाल
जिसमें न जाने कैसी-कैसी
मासूम चाहतें
पाली हैं उसने  
कभी एक फूल के लिए महकती
तो कभी
धुर  घुमक्कड बनने को मचलती
रोकना-टोकना सब बेकार
ऐसा नहीं कि
मेरा मन नहीं पढ़ पाती
बनती जान बूझकर अनजान
कभी नींद में भी सुलझाना चाहूॅं
उसके तानो का जाल तो
खींचते ही एक धागा
बाकि सब बजने लगते सितार से
हो जाती सुबह
धागा हाथ में लिए
उसके कई तानों का
मुझसे कोई सरोकार नहीं
जानकर भी
मन भर-भर तानें देती
तानेबाज कहीं की

उसके तानों के पीछे छिपी बेबसी
निरूत्तर कर देती
तो कोई शरारत भरा ताना
महका जाता तन-मन
जब कभी
मस्त पहाड़न मिर्ची सा तीखा छोंका पड़ता
उस दिन की तो कुछ ना पूछिए
और जब
कई दिनों तक
नहीं देती वो कोई ताना
डर जाता हूॅ
कहीं मेरे उसके बीच बने ताने-बाने का
कोई धागा ढीला तो नहीं हो गया।                  


नींद


एक सुकून भरी नींद चाहिए
जिसमें ना हो
कोई सपना
प्रश्न
द्धन्द
चीख
खून
ऑसू
दुख
बीमारी
जन्म-मृत्यु
यहॉ तक कि
हॅसी-खुशी
यादें
भविष्य के लिए योजनाऍ
भी ना हों
बस एक शांत नींद चाहिए।



चाहना


चाहना कि
प्रेम के बदले मिले प्रेम
स्नेह के बदले सम्मान
मीठे बोलों के बदले आत्मीयता
तार्किक बातों के बदले वैचारिक चर्चाऍ
मिट जाएं समस्याऍ
सॅवर जॉए काम
आसान नहीं
बदलाव के लिए
और भी बहुत कुछ करना होता है
चाहने के साथ।


कसूर


कपडे-मेकअप
चाल-ढाल
खान-पान
रहन-सहन
उठना-बैठना
शक्ल-सूरत
रंग-ढंग
सब हमारा दोष
तुम तो बस
अपनी कुंठाओं से परेशान
उसे यहॉ-वहॉ उतारने को आतुर
तुम्हारा क्या कसूर ?


ऑल द बेस्ट मॉ


घर -गृहस्थी, नौकरी
पचासों तरह की हबड-तबड के बीच
मॉ को कहॉ समय
देख पढ ले किताबें
मॉ के काम
मानों दन्त कथा के अमर फूल
जितने झरते उससे कई गुना खिलते
पलक झपकाने भर आराम के बीच
किताबें तकिया बन जाती
बुद्ध न बन पाने की सीमाओं के बाबजूद
मैत्रेयी और गार्गी बची रह गयीं
मन के किसी कोने में
इसीलिए
मनचाहा विषय ना मिलने पर भी
मॉ नहीं घबरायी
अब तक मनचाहा मिला ही कितना था ?
तो , मुझे अच्छा लगेगा कहकर
मॉ ने जता दिया
इसबार कोई उसे रोक नहीं पाएगा
आज मॉ निकली है
बेहद हडबडी में
परीक्षा देने
वैसे ही जैसे
रोजमर्रा के अनगिनत मोर्चों पर निकल पडती है
अकेली ही
ऑल द बेस्ट मॉ।


ड्राइवर


मत चलाओ
इतनी तेज गाड़ी
ये पहाड़ी रास्ते
गहरी घाटियों में बहती तेज नदी
जंगल जले हुए
लुढ़क सकता कोई पत्थर
जला पेड़
मोड़ पर अचानक

तेज बरसात से
बारूदी बिस्फोटों से
चोटिल हैं पहाड़
संभल कर चलो
गाड-गदने अपना
पूरा दम खम दिखा रहे

ड्राइवर
मत बिठाओ
इतनी सवारी
शराब पीकर गाड़ी मत चलाओ
फोन पर बात फिर कर लेना

कुछ दिन पहले
देखा तुम्हें
कॉलेज आते-जाते
कहाँ सीखी ये हवा से बातें करना?

ऐसा भी क्या रोमांच?
जो गैरजिम्मेदार बना दे

मेरे घर में छोटे-छोटे बच्चे हैं
तुम्हारे घर में कौन-कौन हैं?







रेखा चमोली
जोशियाडा
 उत्तरकाशी ,उत्त्ाराखण्ड
मो 9411576387




Friday, July 18, 2014

स्कूली शिक्षा का प्रोजक्टीय रूप

समाज शास्त्री एवं स्कूली शिक्षा जैसे विषयों से लगातार टकराने वाले रचनाकार प्रेमपाल शर्मा जी का यह महत्वपूर्ण आलेख जनसत्ता से साभार प्रस्तुत है. आलेख आज के जनसत्ता में "दुनिया मेरे आगे" स्तम्भ में प्रकाशित हुआ है. आलेख दिल्ली के पब्लिक स्कूलों में जारी स्थितियों से मुखातिब है पर देख सकते हैं कि देश के दूसरे क्षेत्रों में भी स्थितियां कमोबेश इससे अलग नहीं. स्कूली शिक्षा का यह ’प्रोजक्टीय’ रूप हर ओर व्याप्त है.

स्कूल में धंधा

प्रेमपाल शर्मा
prempalsharma@yahoo.co.in

दिल्ली की संभ्रांत कॉलोनियों के बीच स्थित किताब, स्टेशनरी की दुकान। जब से यहां निजी स्कूल बढ़े हैं, उससे कई गुना ज्यादा ऐसी दुकानें बढ़ी हैं, जहां बच्चों के होमवर्क, मॉडल, अंग्रेजी की किताबें आसानी से मिल सकती हैं। स्कूल खुलने से पहले होमवर्क पूरा न होने का तनाव। दुकान के बाहर मां-बाप और उनकी अंगुली पकड़े बच्चों की कतार है। एक महिला पूछती है- ‘आपके पास सुपर विलेन का चार्ट होगा!’ व्यस्त दिख रहा दुकान का मालिक सोचने का अभिनय करता है- ‘सुपर विलेन नहीं, विलेन का चार्ट है।’ बच्चे और उसकी मां को नहीं मंजूर, क्योंकि स्कूल के होमवर्क में ‘सुपर विलेन’ लिखा है। वह दुकानदार क्या जो अपने ग्राहक को वापस जाने दे! उसने शाम को आने को कहा कि कंप्यूटर से निकलवा देंगे। कल आकर ले जाना। जाहिर है, कल मुंहमांगे पैसे देकर ‘सुपर विलेन’ का चार्ट मिल जाएगा, उस बच्चे के लिए, जिसकी उम्र मुश्किल से पांच वर्ष होगी। दूसरे बच्चे के साथ माता-पिता दोनों हैं। ‘स्नो मैन बनाना है। उसका सामान दे दीजिए।’ दुकानदार को पता है। वह थर्माकोल, तार, कॉटन, फेवीकॉल, बटन आदि निकाल कर दर्जन भर चीजें रखता जाता है। घर पर बनाने का काम मां-बाप का। अगला होमवर्क है गैस का ग्लोब गुब्बारा बनाना। दुकानदार समझाता है कि हम बना-बनाया दे देंगे। पैसे की सौदेबाजी हुई। मामला तय हो गया। चलते-चलते अभिभावक ने इतना वादा लिया कि कल सुबह ही चाहिए, क्योंकि परसों स्कूल खुल जाएगा। दिल्ली जैसे महानगरों के हजारों निजी स्कूलों और उसमें पढ़ने वाले लाखों बच्चे। सबको उनके निजी स्कूलों में ऐसे ही विचित्र ‘प्रोजेक्ट’ दिए जाते हैं। अंग्रेजी की कुछ किताबें रटने के साथ-साथ। मैंने हिम्मत करके पूछा तो पता लगा कि लगभग पंद्रह सौ रुपए तो खर्च हो ही जाएंगे तीसरी क्लास की बच्ची के ‘प्रोजेक्ट’ पर। मैंने कहा- ‘आप मना क्यों नहीं करते कि इससे बच्चों की पढ़ाई का क्या लेना-देना है? विलेन, स्नो मैन के मॉडल दूसरी-तीसरी का बच्चा कैसे बनाएगा और क्यों? स्कूल का नाम क्या है?’ अचानक उस बच्चे की मां चुप हो गई। मानो स्कूल का नाम बताने से कहीं स्कूल से ही न निकाल दिया जाए। मैंने फिर ललकारा कि आप स्कूल के शिक्षक को समझाओ तो सही कि ये मां-बाप का होमवर्क है या बच्चों का! अब उन्होंने चुप्पी तोड़ी- ‘हमारे अकेले के कहने से क्या होता है।’ और वे वहां से निकल गए। यह है आजादी के साढ़े छह दशक बाद के लोकतंत्र में दिल्ली में शिक्षा की स्थिति। यह उस मध्यवर्गीय कायरता का भी बयान है जिसकी सही मुद्दों पर बोलने पर भी घिग्गी बंधी हुई है। आप पाएंगे कि नब्बे फीसद इस किस्म के होमवर्क में जीवन की समझ का एक भी होमवर्क नहीं है। इससे कई गुना अच्छा तो ग्रामीण वातावरण में पढ़े बच्चे होते हैं, जिन्हें फसल, खेती आदि के सभी काम अपने आप आ जाते हैं। शुरुआत होती थी कई बार भैंस या गाय के गले में सांकल डालने और खूंटे से रस्सी में अंटा बांधने से। जरूरी नहीं कि शहर के बच्चों को यही काम सिखाए जाएं, लेकिन खाना पकाना, सफाई या रोजाना की शहरी जिंदगी के वातावरण से जुड़ी वह शिक्षा तो दी ही जा सकती है जो पश्चिमी शिक्षा पद्धति में भी शामिल है। कम से कम वे ‘स्नो मैन’ या ‘सुपर विलेन’ जैसे वाहियात काम पर पैसे और समय की बर्बादी से तो बचेंगे। महात्मा गांधी के प्रसिद्ध निबंध ‘छात्र और छुट्टियां’ को इन स्कूलों में फिर से पढ़ाने की जरूरत है। गांधीजी ने यह भाषण इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1920 के आसपास दिया था। उन्होंने विद्यार्थियों को सलाह दी कि छुट्टियों के दिनों में वे किताबी दुनिया से दूर रहें और देश के नए-नए क्षेत्रों और स्थानों को देखें, सफाई शिक्षा के सामाजिक कार्यों से अपने को जोड़ें। छुट्टियां होती ही इसीलिए हैं कि आपका अनुभव संसार बढ़े। पढ़ने के लिए तो पूरा वर्ष होता ही है। इस पैमाने से कम से कम देश के ग्रामीण क्षेत्र के स्कूल तो बेहतर ही कहे जा सकते हैं। अफसोस यह है कि आदिवासी या पिछड़े क्षेत्रों के इन बच्चों का ज्ञान और अनुभव कई गुना बेहतर होने के बावजूद देश की किसी परीक्षा में नहीं पूछा जाता। परीक्षा में पूछा जाता है निजी अंग्रेजीदां स्कूलों का बनावटी ज्ञान और रटंत। इसी के बूते वे बड़े पद पाने के योग्य समझे जाते हैं। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में पिछले दो-तीन वर्ष में किए गए बदलाव इसीलिए ग्रामीण पृष्ठभूमि के बच्चों के खिलाफ जा रहे हैं। लेकिन इसे बदला जाए तो कैसे? न बच्चे के अभिभावक स्कूल के खिलाफ मुंह खोलने को तैयार और न मेरे शहर के बड़े लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार। इसमें पिस रहे हैं तो वे मासूम बच्चे और उनके मां-बाप, जिन्हें इन ‘प्रोजेक्ट’ का न मतलब पता, न उद्देश्य। सरकार को तुरंत ‘प्रोजेक्ट’ के इस धंधे पर रोक लगाना चाहिए।

Sunday, July 13, 2014

पसंद से ज्यादा नापसंद का इज़हार

                                      ---  यादवेन्द्र 
सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति वाला गोपाल सुब्रहमण्यम मामला अभी ठण्डा भी नहीं हुआ था कि वर्तमान शासन की सोच से मेल न खाती एक फ़िल्म के प्रति नापसंदगी को ज़ाहिर करता अधैर्य सामने आ गया।  
एक छोटी सी लगभग अचर्चित ख़बर यह है कि 2013 के 61 वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों से सम्मानित फ़िल्मों के जून के अंतिम दिनों में संपन्न दिल्ली समारोह की पूर्व घोषित प्रारंभिक फ़िल्म हंसल मेहता की शाहिद थी पर बदले हुए राजनैतिक परिदृश्य में बगैर कोई तार्किक कारण बताये इसके स्थान पर मराठी की सुमित्रा भावे निर्देशित अस्तु दिखला दी गयी। सभी राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फ़िल्मों को दिखलाना ही था सो शाहिद  को अगले दिन प्रदर्शित किया गया।इस बदलाव से पूर्ववर्ती कार्यक्रम के लिए स्वयं उपस्थित रहने की अपनी औपचारिक सहमति दे चुके हंसल मेहता ने न सिर्फ़ दुखी और अपमानित महसूस किया बल्कि उन्हें इसमें राजनैतिक रस्साकशी की बू भी आयी। 
  
ध्यान रहे कि 61 वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की जूरी के अध्यक्ष अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है और नसीम जैसी अविस्मरणीय फ़िल्में बनाने वाले सईद अख़्तर मिर्ज़ा थे और एम एस सथ्यु ( गर्म हवा जैसी मील का पत्थर फ़िल्म के निर्देशक )और उत्पलेंदु चक्रवर्ती( सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार पाने वाली बांग्ला फ़िल्म चोख के निर्देशक ) समिति के सदस्य थे --इसी जुड़ी ने शाहिद को श्रेष्ठ निर्देशन और अभिनय  के लिए पुरस्कृत किया गया तो अस्तु को श्रेष्ठ संवादों और सहायक अभिनेत्री के लिए इनाम दिया गया। यहाँ तक तो हिसाब किताब बराबर पर सृजनात्मक कृतियों को तुलनात्मक तौर पर वैसे बिलकुल नहीं तोला जा सकता है जैसे तराजू पर कोई सामान रख कर डंडियों का झुकाव देख लिया जाता है -- ज़ाहिर है अपने अपने तरीके और दृष्टिकोण से शाहिद और अस्तु नाम से दो अलहदा फ़िल्में बनायीं गयी हैं और उनको डंडी वाले तराजू पर सामान की माफ़िक तोला नहीं जा सकता। पहली फ़िल्म मानवाधिकारों की रक्षा और निर्दोष गरीबों को इन्साफ़ दिलाने के लिए अपनी जान तक जोखिम में डाल देने वाले वकील शाहिद काज़मी के जीवन की वास्तविक घटनाओं पर आधारित बायोपिक फ़िल्म है जबकि दूसरी फ़िल्म डिमेंशिया से ग्रसित एक वृद्ध संस्कृत विद्वान और पिता की चिंता में दिन रात एक किये हुए उनकी बेटी के आपसी रिश्तों की बारीक और आम तौर पर ओझल रहने वाली परतों की मार्मिक कथा है जिसमें बेटी कभी बेटी तो कभी माँ की भूमिका में नज़र आती है। इन दोनों की तुलना कैसे की जा सकती है ?

आहत हंसल मेहता जब यह कहते हैं कि किन्हीं कारणों से यदि मेरी फ़िल्म को प्रारम्भिक फ़िल्म के गौरव से वंचित करना ही था तो उसकी जगह आनंद गांधी की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार जीत चुकी शिप ऑफ़ थीसियस का प्रदर्शन किया जा सकता था …  हाँलाकि वह अगली साँस में ही बतौर एक फ़िल्म अस्तु की प्रशंसा करना भी नहीं भूलते।बेशक किसी भी कलाकार का अपनी कृति के साथ गहरा भावनात्मक लगाव और आग्रह जुड़ा होता है पर उसके स्थानापन्न के चुनाव में "अ" बनाम "ब" का मापदण्ड अपनाना उचित और नैतिक नहीं होगा। 

पर हंसल मेहता ने इस घटना के सन्दर्भ में जिन प्रश्नों को उठाया है उनसे मुँह मोड़ना चिंगारी देख कर भी धुँए से इंकार करने सरीखा होगा। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि फिल्म के प्रदर्शन में बदलाव के कारण सिनेमा से परे हैं -- उन्होंने अनौपचारिक तौर पर बतलाये गए कारणों (शाहिद की  विषयवस्तु  के कारण कम दर्शकों की उपस्थिति की आशंका और अस्तु के कास्ट और क्रू का समारोह स्थल पर उपस्थिति होना ) को सिरे से नकार दिया। पर उनको समारोह के पहले दिन 29 जून को फ़िल्म के साथ आमंत्रित करने की तारिख ( 15 मई ) पर गौर करें तो सबकुछ शीशे की तरह एकदम साफ़ हो जाता है --- अगले दिन देश का राजनैतिक नक्शा पूरी तरह से बदल जाता है। ऐसे में सम्बंधित अफ़सरान की निष्ठा इधर से उधर हो जाये तो इसमें अचरज कैसा ?
हंसल इस बर्ताव से गहरे तौर पर आहत हुए हैं और कहते हैं कि शाहिद को पुरस्कार मिलने पर कई लोगों ने इसकी सृजनात्मक श्रेष्ठता को नहीं बल्कि एक समुदाय विशेष का पृष्ठपोषण करने को रेखांकित किया … पर यह फिल्म भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर व्याप्त गैर बराबरी चाहे वह किसी भी जाति या सम्प्रदाय की हो के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती है।गहरी पीड़ा के साथ वे आगे कहते हैं कि वे पिछली सरकार की आडम्बरपूर्ण तुष्टिकरण की नीतियों का विरोध करते थे और शाहिद इन्हीं विचारों का प्रखर दस्तावेज़ है।वैसे ही वे बदले हुए माहौल में देश के ऊपर मँडरा रही अराजक बहुसंख्यावादी शक्तियों का भी अपनी कला के माध्यम से भरसक विरोध करेंगे। उन्होंने आयोजनकर्ताओं को सिनेमा को सिनेमा रहने देने की नसीहत दी और आग्रह किया कि वे अपने राजनैतिक बाध्यताएँ सिनेमा के ऊपर न थोपें।

अच्छे दिनों की यह गला घोंटने वाली कैसी आहट है ? 

Saturday, July 12, 2014

शंका समाधान

झूठ की खुल जाए पोल


कितने टंगे हैं कपड़े इन बहुमंजिला इमारतों में
कितनों से चू रहा है पानी
कितने सूखने-सूखने को हैं
लाल रंग के कितने
कितने रंग छोड़ते हुए हो गए धूसर
अच्छा बताओ
सफेद रंग जो दूर तक दिख रहा,
हर बैलकनी में खिंची तार पर टंगा
क्या वह सिर्फ दीवारों का है
या दीवारों पर भी डली हुई चादरों का,
गद्दे रजाईं के लिहाफों
या बच्चों की स्कूली ड्रेस का

टंगे हुए कितने कपड़े हैं बच्चों ंके
बड़ों के हैं कितने
मर्दुमशुमारी करने वालों के लिए
यह कोई तथ्य नहीं

सूख रहे बुर्को को भी दर्ज कर लो
साड़ियां घूंघट के साथ कितनी है
कितने के लहरा रहे पल्ले कंधों पर
बेशक न पता लगा पाओ पहनने वाले की उम्र,
पर दर्ज कर ही लो सूट-सलवार भी

सारे का सारा आंकड़ा करो इस तरह तैयार
कि उनकी मर्दुमशुमारी का आंकड़ा
हो जाए दुरस्त
जो पेज दर पेज भर दे रही
झूठे आंकड़ों को


(यह कविता मुझे पूरी तरह से मेरी मूल अभिव्यक्ति नहीं लग रही है। नहीं जानता किस कवि का प्रभाव मेरे भीतर रहा होगा उस वक्त जब यह लिखी गयी। यदि ऐसा नहीं है तो भी मैं तब तक इसे मूल रूप से अपनी कविता नहीं कह सकता जब तक कि दूसरे भी इसे न पढ़ लें और बता पायें कि किस कवि की संवेदनाओं के प्रभाव में यह लिखी गयी।
विजय गौड़)

Saturday, July 5, 2014

पहला युगवाणी सम्मान कथाकार गुरूदीप खुराना को



किसी भी तरह के हो-हंगामें की बजाय और बिना किसी पूर्व घोषणा के अचानक से कथाकार गुरूदीप खुराना के घर पर पहुंचकर उन्‍हें पहले युगवाणी सम्‍मान से सम्‍मानित करना, देहरदून के साहित्‍य समाज के अनूठे अंदाज ने न सिर्फ सम्‍मानित हो रहे रचनाकार को भौचक एवं भाव विभोर किया है बल्कि अपने प्रिय रचनाकरों को वास्‍तविक रूप से सम्‍मानित करने के अंदाज की एक बानगी भी पेश की है।
2 जुलाई 2014 की शाम जब देहरादून का मौसम मानसूनी हवाओं के असर में था, कथाकार गुरूदीप खुराना के घर पहुंचकर कथाकार सुभाष पंत उन्‍हें पहले युगवाणी सम्‍मान से सम्‍मानित किया। इस अवसर पर युगवाणी के संपादक संजय कोठियाल, पत्रकार जगमोहन रौतेला, कवि राजेश सकलानी, कथाकार अरूण असफल एवं आलोचक हम्‍माद फारूखी भी युगावाणी के अप्रत्‍याशित बुलावे पर वहां मौजूद थे। युगवाणी ने जुलाई 2014 के अंक को 75 वें वर्ष की यात्रा से गुजर रहे गुरूदीप खुराना पर केन्‍द्रीत रखा है, अलबत्‍ता उसकी तैयारी में उन रचनाकारों को सिर्फ इतना ही मालूम रहा है कि युगवाणी अपना जुलाई अंक गुरूदीप खुराना पर केन्‍द्रीत कर रहा है। इस अंक में कथाकर धीरेन्‍द्र अस्‍थाना, तेजिन्‍दर, सुरेश उनियाल, दिनेश चंद्र जोशी, राजेश सकलानी, नवीन नैथानी एवं कई अन्‍य साहित्‍यकारों ने गुरूदीप खुराना के व्‍यक्तित्‍व एवं कृतित्‍व पर अपने अनुभव एवं विचारों को सांझा किया है।
24 सितम्‍बर 1939 को क्‍वेटा, बलूचिस्‍तान में पैदा हुए कथाकार गुरूदीप खुराना देहरादून के निवासी हैं। उनकी मुख्‍य कृतियां ‘जिस जगह मैं खड़ा हूँ (कविता संग्रह), आओ धूप (उपन्‍यास), लहरों के पास (उपन्‍यास), उलटे घर (कथा संग्रह), बागडोर(उपन्‍यास), उजाले अपने अपने (उपन्‍यास), दिन का कटना (कविता संग्रह), एवं एक सपने की भूमिका (कथा संग्रह), अभी तक प्रकाशित हैं। उनका ताजा उपन्‍यास रोशनी में छिपे अंधेरे किताबघर प्रकाशन से वर्ष 2014 में प्रकाशनाधिन है।

देहरादून से निकलने वाली हिन्‍दी मासिक पत्रिका युगवाणी उत्‍तराखण्‍ड की ऐसी लोकप्रिय पत्रिका है जिसका मिजाज हिन्‍दी साहित्‍य के करीबी होने से देहरादून ही नहीं बल्कि कहीं से भी निकलने वाली हिन्‍दी की लोकप्रिय पत्रिकाओं से भिन्‍न है। वर्ष 2013 में आलोचक पुरूषोत्‍तम अग्रवाल को देहरदून आमंत्रित करके पहले आचार्य गोपेश्‍वर कोठियाल स्‍मृति व्‍याख्‍यान का शुभारम्‍भ करने के बाद युगवाणी का यह प्रथम युगवाणी सम्‍मान का आयोजन उसे हिन्‍दी के साहित्‍य समाज के बीच महत्‍वपूर्ण बना रहा है। आजादी के आंदोलन के दौरान शुरू हुए युगवाणी के प्रकाशन का अपना इतिहास है जो उसकी अभी तक की सतत यात्रा में परिलक्षित हुआ है।
गुरूदीप जी का सम्पर्क : 9837533838

Friday, June 6, 2014

मनुष्‍यता भी एक विचार है

 - महेश चंद्र पुनेठा
9411707470
 
 
किस पर लिखवाना और किससे लिखवाना के समीक्षात्मक वातावरण के बीच इस ब्लाग में पुस्तक समीक्षओं को आलोचक की स्वतंत्रता का साथ देने की कोशिश रही है। युवा कवि और आलोचक महेश पुनेठा ने पुस्तक समीक्षा में अपनी इस आलाचकीय स्वतंत्रता की भूमिका के साथ हर उस किताब पर लिखना अपना फर्ज समझा है जिसमें उन्हें अपने मुताबिक कहने की गुंजाइश दिखायी देती है। ऐसा सिर्फ उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानने की वजह से ही नहीं बल्कि उनके द्वारा लिखी समीक्षाओं को पढ़ते हुए भी समझा जा सकता है। हम अपने हमेशा के सहयोगी महेश के आभारी है कि समय-समय पर अपने द्वारा लिखी समीक्षओं से उन्होंने इस ब्लाग के आलोचकीय पक्ष को एक स्वर दिया है और बेबाक बने रह कर अपनी बात कहने के हमारे प्रयासों में उसी तरह साथ दिया है। कवि शिरीष कुमार मौर्य के हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह पर उनकी यह समीक्ष उसकी एक बानगी है। पहाड़ के कवि शिरीष कुमार की कविताओं की एक अन्य पुस्तक पर लिखी समीक्षा भी इस ब्लाग में अन्यत्र पढ़ी जा सकती है।
वि गौ

पूँजीवादी वैश्‍वीकरण के बढ़ने के साथ-साथ जो सबसे बड़ी चिंता की बात हुई है वह है मनुष्‍यता  का लगातार क्षरण होना। सेंसेक्स में उछाल आया है और बाजार चमक रहा है लेकिन मनुष्‍यता  धुँधला रही है। 'अपने हार रहे हैं अपनापन हार रहा है।" दुनिया नजदीक आई है लेकिन रिश्‍तों के बीच दूरी बढ़ती गई है। एक दूजे की खोज-खबर लेना कम होता जा रहा है। लूटपाट,अनाचार-शोषण,पागलपन-उन्माद चारों ओर फैला है। लालसाओं के मुख खुले हैं। हाथ तमंचा हो गया है। दिल खून फेंकने वाली मशीन में बदल गया है। दिमाग बदबू से भर गया है। मनुष्‍य दो पाए की तरह हो गया है-'काम पर जा रहा है काम से आ रहा है।" जब मनुष्‍यता विचार हो तो उसके इस प्रकार क्षरण का अर्थ समझा जा सकता है। विचारहीन जीवन कितना खतरनाक होता है यह बताने की बात नहीं है। ऐसे में मनुष्‍यता को बचाए रखना सबसे बड़ी चुनौती हो गयी है। उसे बचा पाए तो बहुत कुछ अपने-आप बच जाएगा। ऐसे दौर में एक जनधर्मी कवि की चिंता के केंद्र में मनुष्‍यता का होना स्वाभाविक है। वही कह सकता है-'कि मेरा कवि अंतत: मनुष्‍यता  के दुर्दिनों का कवि है/जो अपनी पीड़ा,प्रेम और क्रोध के सहारे जीता है।" उसका मुँह खुलता है अब भी मुँह की तरह । वह 'बोलता है पूरी बची हुई ताकत से /उतना सब कुछ /जितना बोला जाना जरूरी है।" उसकी हर कोशशि  है कि मनुष्‍यता  को जीवन के केंद्र में पुनर्स्थापित किया जाय। कविता का यह सबसे बड़ा दायित्व भी  है। इस दायित्व का निर्वहन एक बड़ी कविता हमेशा से करती आई है। 'मनुष्‍यता  के दुर्दिनों" में उसकी भूमिका और अधिक बढ़ जाती है। पीड़ा,प्रेम और क्रोध उसके औजार बनते हैं। हमारे समय के चर्चित युवा कवि शिरीष कुमार मौर्य इन औजारों के माध्यम से मनुष्‍यता  को सहेजने का भरपूर प्रयत्न करते हैं। मनुष्‍यता  ही है जो उन्हें अपनों से और अपने सपनों से धोखा दे जाने के किसी भी संभावित खतरे से बचाती है और उन्हें कवि बनाती है।

मनुष्‍यता में कमी आने और गिर पड़ने के कारणों को वह कुछ इस तरह से समझते हैं-'ऊर्जा किसी को भी/कहीं तक भी ले जा सकती है/पर एक दिन/आपको वह छोड़ भी जाती है/उम्र से उसका लेना-देना उतना होता नहीं/कभी-कभी तो वह/दूसरों को रौंदते हुए निकल जाने को उकसाती है/सफलता का भ्रम पैदा करती हुई/आपकी मनुष्‍यता में कमी लाती है।" यहाँ कवि उस ऊर्जा की बात कर रहा है जो दर्प में बदल जाती है जो दूसरे को पीछे छोड़ जाने का भाव पैदा करती है। ऐसे में यह कहना बिल्कुल सही है कि 'अकसर राह को ठीक से देखते-परखते हुए चलने से मिला ज्ञान ही/काम आता है।" द्गिारीच्च सावधान करते हुए कहते हैं कि- 'जाहिरा तेजी ,तात्कालिक त्वरित ज्ञान और सिर चढ़े दर्प के अलावा भी/किसी के गिर पड़ने के कई कारण हो सकते हैं।"(किसी के गिर पड़ने के कई कारण हो सकते हैं) वह मानते हैं कि दर्प में डूबे व्यक्ति से प्रभावित होना भी उसके दर्प में सहभागी होना है। इस तरह दर्प से बचना और दर्पी व्यक्ति से प्रभावति न होना भी मनुष्‍यता  के पक्ष में खड़ा होना है। उनके लिए मनुष्‍यता  भी एक विचार है। यह विचार उनकी कविताओं में पत्ती में क्लोरोफिल की तरह मौजूद रहता है।

उनका 'ये जो मेरापन है" मनुष्‍यता  में उनकी गहरी आस्था का ही परिणाम है। 'मनुष्‍यता  की जद से बाहर" के किसी प्रसंग और विषय को यदि वह अपना नहीं करना चाहते हैं तो किसी और का भी नहीं करते हैं। कवि जिसे अपने लिए पसंद नहीं करता उसे किसी दूसरे के लिए भी पसंद नहीं करता है। कवि का मेरापन अनूठा है। इसमें अहंकार नहीं है, इसमें स्वार्थ नहीं है और न ही वर्चस्व का भाव है। यह अपने समकालीन युवा कवि केशव तिवारी की काव्य पंक्ति 'तो काहे का मैं" की तरह गहरे दायित्वबोध से आता है न कि अधिकार जताने के रूप में। इस 'मेरेपन" में गहरी आत्मीयता है जो दूसरे को भी उतने ही अपनेपन से भर देती है जितना कहने वाले के भीतर होती है। उनका यह मेरापन हर उस चीज,भाव,विचार,व्यक्ति और जगह से है जहाँ मनुष्‍यता  बची है। शिरीष की एक खासियत है कि वह अपने ही तर्कों से काम लेते हैं ,दूसरे के तर्कों को नहीं ढोते। यह ठीक भी है कोई जरूरी नहीं जिस राजनीति से सहमत हों उसके हर तर्क को पवित्र मंत्र की तरह स्वीकार करें। उनका 'मेरा कहने का तर्क" बिल्कुल अपना है एकदम मौलिक, जिसका आशय इन पंक्तियों से स्पष्‍ट हो जाता है- कि एक पेड़ को मेरा कहता हूँ तो सब पेड़ मेरे हो जाते हैं/एक मनुष्‍य को मेरा कहता हूँ तो सब मनुष्‍य मेरे हो जाते हैं ।।।।।/एक भाषा को मेरा कहता हूँ तो सब भाषाएं मेरी हो जाती हैं।" लेकिन उनके 'सब मनुष्‍य" में वे नहीं आते हैं जो अपनी मनुष्‍यता खो चुके होते हैं। उनके लिए सभी मनुष्‍य दो पाए जरूर हैं लेकिन सभी दो पाए मनुष्‍य की श्रेणी में नहीं आते हैं। उनका 'मेरा" कितना व्यापक है इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-'मकई का वो प्यारा सुंदर फूल मलाला मेरी बेटी है।।।।।।दंतेवाड़ा के बेबस लाश कर दिए गए लोग मेरे हैं/वो मेरा मशहूर चेहरा है/जो गुजरात में बख्द्या देने के खातिर हाथ जोड़कर रो और गिड़गिड़ा रहा है/और जो पिछवाड़ा बन चला है देश का/जिसे दिल्ली में एक गोलाकार इमारत की तरह देखा जा सकता है/उसकी गंद में दबा/उससे लाख गुना विशाल देश मेरा है।" कौन हैं ये लोग जो उनके अपने हैं ? वही ना! जो शोषित-पीड़ित और उपेक्षित हैं लेकिन संघर्षरत हैं,जो दुनिया के हर कोने-कोने तक फैले हैं। जिनकी उम्मीदों और स्वप्नों से कवि का यथार्थ जुड़ा है। यहाँ 'मेरा" कहना उनके और नजदीक जाना है। वह अपनी चाहत व्यक्त करते हैं-'इस धरती पर बसे अपने सपनों और कुछ जरूरी इच्छाओं की पीड़ा में कराहते/मेरे असंख्य पिटे हुए लोगो/अधिक कुछ नहीं मैं तुम्हारे साथ सुबह तक रहना चाहता हूँ।"  कवि उनको सुप्रभात कहकर इस धरती पर बसे उन्हीं जैसे अन्य पिटे लोगों के जीवन में सुबह लाने को निकल जाना चाहता है। यह एक कवि की अनवरत यात्रा है। कवि शुभरात्रि नहीं सुप्रभात कहना चाहता है उन लोगों को जो सो नहीं पाए। जब तक इन असंख्य लोगों के जीवन में सुंदर सबेरा नहीं आ जाय तब तक भला एक जनपक्षधर कवि को नींद कैसे आ सकती है। वह कहता है-'हाँ ,मुझे नींद नहीं आ रही/अब मेरे लिए नींद न आना एक असमाप्त यात्रा है/सुंदर और खतरों से भरी/और मैं मेरी तरह जाग रहे लोगों को शुभरात्रि नहीं/सुप्रभात कहना चाहता हूँ।"(मुझे नींद नहीं आ रही है)

यह अपने पहाड़ और उसके जन के प्रति उनका मेरापन ही है जो उन्हें शरद की रातों में सोने नहीं देता है-'जमीनों की ढही हुई मिट्टी/शिखरों  में गिरे हुए पत्थर/उखड़े हुए पेड़/बादल फटने से मरे लोगों की लापता रूहें/इन्हें भारी बनाती हैं/अंधेरों में छुपाती हैं।" उनका मेरापन ही है जिसके चलते पहाड़ के पहाड़ से भारी दु:ख हमेशा उनके दिल पर बने रहते हैं। ' कुछ खास नहीं करता हूँ/तब भी कई सारे उम्मीद भरे नौउम्र चेहरे मेेरा इंतजार करते हैं/मैं वेतन लेता हूँ अमीरी रेखा का/और एक सरकारी कमरे में गरीबी रेखा को पढ़ाने जाता हूँ।" जैेसा यह अपराधबोध भी कहीं न कहीं कवि के मेरेपन की ही उपज और उनकी मनुष्‍यता  का लक्षण है।      

युवा कवि-आलोचक शिरीष कुमार मौर्य ताकतवरों की भीड़ में जहाँ भी मनुष्‍यता  की संभावना होती है वहीं उसे पुकारतेहैं। कमजोरों में उसको तलाशते हैं। उनका विश्‍वास है कि कमजोर अधिक मनुष्‍यवत हैं लेकिन किसी सार्वभौम सत्य की तरह नहीं है उनका यह विश्‍वास। कमजोर होना मनुष्‍यवत होने की कोई गारंटी नहीं है लेकिन वहाँ उसकी अधिक संभावना होती है। वहां मनुष्‍यता  के लिए स्पेस होता है। उन्हें एक-दूसरे की जरूरत होती है।

शिरीष अच्छी तरह जानते हैं कि पूँजीवाद मनुष्‍यता  का सबसे बड़ा दुश्‍मन है जो हमारे मन को बदल रहा है। ऐशो-आराम व विलासिता के प्रति बढ़ता मोह और एक आदमी का दूसरे आदमी के साथ घटता प्रेम इसी का लक्षण है। शिरीष इसे एक बड़े खतरे के रूप में देखते हैं। उनके कवि मन को मध्यवर्ग के भीतर घर करती यह प्रवृत्ति उद्वेलित कर देती है-आज बाजार से आते और अपनी पसंद की सारी चीजें घर लाते/एक सहपाठी दोस्त के अत्यंत धनवान पिता की करोड़ से ऊपर की कोठी/को निहारते/आह सी भरकर बोला-/बब्बा,काश ऐसा घर हमारा भी होता/फिर सामने से आते बारिश में भीगे/कीचड़ में सनी गंदी सरकारी स्कूल की यूनीफार्म वाले बच्चे को देख मुँह/बनाया-/कितना गंदा बच्चा है।।।।।हाऊ अनहाइजैनिक।(जीवन में खतरा है भी एक जरूरी कथा है)

भीतरी और बाहरी भय के खिलाफ घटता प्रतिरोध और वर्गीय एकजुटता में कमी भी मनुष्‍यता पर संकट का ही एक रूप है। कवि 'खेत में घर" कविता में प्रकृति के बीच मनुष्‍य द्वारा मकान बनाए जाने पर पक्षियों द्वारा किए जाने वाले प्रतिरोध को दिखाते हुए जहाँ उनकी एकजुटता को रेखांकित करते हैं वहीं मनुष्‍य पर व्यंग्य भी करते हैं-उनमें प्रजातियों की बहुलता बहुत/स्वरों की भी/बसेरे के आकार प्रकार रहन-सहन रंग-ढंग भी अलग/पर साबुत कायम अब भी वर्गबोध एक/एक प्रतिरोध/एक प्रतिद्गाोध/एक दूसरे को बिलकुल भी न सताते हुए।(खेत में घर) मनुष्‍यत में इन सारी बातों का अभाव होता जा रहा है। यह कवि के दिल में चुभता है दिमाग में उलझता है। इस सब के बावजूद वह मानते हैं कि-मेरी पट्टी में प्रतिरोध अब भी एक भाषा है समूची समग्र/पर उसे खेत की तरह जोतना पड़ता है।" इसी के चलते वह बार-बार कह पाते हैं कि 'हम हार नहीं रहे हैं।" उनका विश्‍वास है आग से भरे दिल जब तक धड़कते रहेंगे तब तक हार नहीं हो सकती है। बस उनमें एका जरूरी है। 'जो मारने को समझते हैं जीतना वे हमें हारता समझते हैं।" यह उनकी भूल है। कवि उनको सचेत करता हुआ कहता है-मनुष्‍यता के इस पहले और आखिरी द्वंद्व से परे खड़े लोगो/संसार में सब कुछ जीत लेने लिप्सा से भरी तुम्हारी प्रिय कविता और/राजनीति का हार जाना/तय जानो।" कवि का यह कहना केदारनाथ अग्रवाल की 'जनता कभी नहीं मरती" कविता की याद दिला देता है।

यह शिरीष की मनुष्‍यता का प्रमाण है कि वह न प्रेम छुपाते हैं न  घ्रणा. उन्हें छुपाना परेशान करता है। वह जितनी गहराई से प्यार करते हैं उतनी ही तीव्रता से घ्ाृणा भी। प्यार उन लोगों से जो मनुष्‍यता से भरे हैं और घ्ाृणा मनुष्‍यता विरोधी लोगों से। उनके जीवन में जो भी है सब खुला हुआ। गोपनीयता के नियम को वह जीवन में  हमेशा तोड़ते रहे हैं। वह गोपनीयता को न्याय विरुद्ध मानते हैं। 'मुझे प्रेम छुपाना था पर बता बैठा/उससे भी अधिक मुझे घ्ाृणा छुपानी थी पर जता बैठा/दर्द हो दु: ख हो,अपमान हो, मैं न भी बोलूँ मेरा काला पड़ता चेहरा बोल /पड़ता है। (गोपनीय)इस कवि ने चुप रहना नहीं सीखा न जीवन में और न कविता में। हमेशा अपनी ताकत भर बोलता रहा है। संभलकर चलना इस कवि की फितरत में नहीं है। वह एक कविता में कहते हैं-मैंने अब तक अनजानी जगहों और झाड़-झंखाड़ मंे/सम्भल कर चलना नहीं सीखा।" जबकि ' प्रेम में हैरानी की तरह साँप भी डस गया था/एक बार।"(कभी चोट लगी थी अब तक तिड़क रही है)

मनुष्यता का संबंध केवल सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष से ही नहीं है बल्कि राजनीति और अर्थशास्‍त्र से भी इसका गहरा संबंध है। मनुष्‍यता को बनाने ,बिगाड़ने में इनका बहुत बड़ा हाथ होता है। इसलिए मनुष्‍यता का पक्षधर कोई भी कवि गैर राजनीतिक नहीं हो सकता है।शिरीष भी इसके अपवाद नहीं हैं। वह अपनी राजनीतिक संबंद्धता को खुलेआम स्वीकारते भी हैं। वह एक ऐसी राजनीति के पक्षधर हैं जो प्रतिबद्ध, प्रगतिद्गाील ,धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों पर विश्‍वास करती है। उनकी 'हम चुनाव में हैं" कविता दक्षिणपंथी, साम्प्रदायिक,बाजारवादी,अवसरवादी ,जनविरोधी  और साम्राज्यपरस्त राजनीति पर करारा व्यंग्य है।वह कहते हैं-हमें अपने बाजार को अभी और खोलना है/इसमें अभी एफ।डी।आई। वालमार्ट करना है/अभी हम आर्थिक विश्‍व-व्यवस्था से बहुत कम जुड़े हैं/इसलिए महंगाई और बेरोजगारी में पड़े हैं/व्यापक देश हित और जनहित में हमें ऐसा करने का मौका दें/ हम चुनाव  में हैं।"  'अभी सुबह नहीं हो सकती" कविता उनके पूरे राजनीतिक दर्शन को पूरी तरह सामने रख देती है। यह कविता पहली नजर में क्रांति के लिए उतावले लोगों को निराशावादी कविता लग सकती है पर इस कविता में यथार्थ को स्वीकार करने का गहरा बोध है। इसमें अपने वक्त का सही विश्‍लेषण है। कवि न किसी जल्दी में है और न किसी गफलत में। वह बदलाव के मार्ग में आने वाले अवरोधकों को सही तरीके से समझता है और जानता है कि ये अवरोध जब तक समाप्त नहीं कर लिए जाते हैं तब तक 'सुबह नहीं हो सकती" है। इस कविता की व्यंजना बहुत व्यापक हैं। यह बाजारवाद,साम्राज्यवाद,साम्प्रदायिकता के साथ-साथ उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्‍टाचार ,संस्कृतिकर्मियों की निश्‍क्रि‍यता,जनता की यथास्थितिवादिता आदि पर एक साथ चोट करती है। तमाम निराशाजनक स्थिति को दिखाते हुए कविता जिस आशावादिता में समाप्त होती है वह जबरदस्त है। कवि इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि इन स्थितियों में परिवर्तन नहीं होगा और नई सुबह नहीं आएगी। कविता में व्यक्त यही यथार्थवाद है जो लड़ने की दिशा भी देता है और ताकत भी। यहाँ कवि यथार्थ को केवल सतह पर नहीं देखता है बल्कि सतह के नीचे छिपे अंतर्विरोधों को पकड़ता है और पूरी काव्यात्मकता के साथ अपने दृष्टिकोण को पाठक के समक्ष प्रस्तुत कर देता है। कविता कहीं भी बोझिल नहीं होती है। विचार को कविता में गूँथने का शिरीष का यह कौशल काबिले तारीफ है। उनकी यह कविता मुझे सबसे अधिक पसंद है इसलिए पूरी कविता को यहाँ देने का लोभ में संवलित नहीं कर पा रहा हूँ-

शहर में रात के 1 बजे हैं सड़कों पर ,शराब से चल रही गाड़ियां रसोई के
लिए नौकरी से लौटती लड़कियां उठा रही हैं
अभी सुबह नहीं हो सकती
बाजार जगमगा रहे हैं भरपूर अभी सुबह नहीं हो सकती
अभी न्यूयार्क के लिए हवाई पट्टी से दिल्ली ने दिन की पहली उड़ान भरी

है अभी सुबह नहीं हो सकती

गुजरात में अभी वोट मोदी को पड़ते रहेंगे की अटूट भविष्‍यवाणी है अभी
सुबह नहीं हो सकती
बाल ठाकरे का स्मारक बनना अब तय हो गया है अभी सुबह नहीं हो सकती
हमारा सौम्य दिखने और कम बोलने वाला मुखिया देश को लगातार ठग रहा
है अभी सुबह नहीं हो सकती

मर्म को बेधने के लिए मद्गाहूर राजधानी का एक कवि
लोगों को मिलने में दरअसल उतना ही खूसट और रूखा है अभी सुबह नहीं
हो सकती
मैं अपने भीतरी विलाप और अवसाद में बहुत सुखी हूँ अभी सुबह नहीं हो सकती
मेरे सामने घंटों के सोच विचार के बावजूद मुँह चिढ़ाता एक कोरा सफेद
पन्ना है अभी सुबह नहीं हो सकती
मुझमें अब तक अभी सुबह नहीं हो सकती लिखने की कायर कला
साबुत सलामत है
अभी सुबह नहीं हो सकती

मगर नहीं हो सकती के बारे में इतना कहने वाला अपनी ही निगाह में

असफल हो चुका यह कवि
अपनी बेताब लानतें भेजता है उन्हें-
जो मेरे अभी पर चढ़कर कहते हैं कभी सुबह नहीं हो सकती।

मौर्य सत्ताओं और सभ्यताओं के उन दाँतों की कथा से अच्छी तरह परिचित हैं जो -'मनुष्‍यता की रातों में कभी सुनाई गई/कभी छुपाई गई" जिन दाँतों ने हमेशा मनुष्‍यता को लुहलुहान करने का काम किया और 'इधर भरपूर पैने और चमकीले हुए हैं दाँत"। ये 'सुघ्ाड़-सुफैद दाँत" कभी क्यूबा ,कभी इराक तो कभी अफगानिस्तान में अपने पैनेपन को दिखाते रहते हैं। इन दाँतों द्वारा-' हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक विरासतें/अब चबा ली गर्इं/खा लिया गया इतिहास।"

शिरीष हर उस कोने-अंतरे की ओर नजर डालते हैं जहाँ मनुष्‍यता थोड़ी सी भी बची हुई है।उसे सहेजने और समेटने का कवि दायित्व बखूबी निभाते हैं। प्रकाद्गान व्यवस्ााय के दंद-फंद कौन नहीं जानता है। कैसे वहाँ किताबें छपती हैं ,कैसे उनकी बिक्री होती है और कैसे कवि का शोषण किया जाता है?कैसे उसे गुमराह किया जाता है? सब जानते हैं। लेकिन इस सब के बावजूद वहां भी कुछ ऐसे लोग हैं जिनमें बहुत मनुष्‍यता और संजीदगी है। 'संतो घ्ार में झगरा भारी" इसी बात को बहुत अच्छी तरह रेखांकित करती है। कुछ पंक्तियां देखिए- 'वह किताब बेचता है/जो उस तरह बिकती नहीं हैं जिस तरह वह बेचता है/उसे बेचना नहीं आता है/वह गाहक से बाद में कभी मिल जाने पर बिकी हुई किताबों के/हालचाल पूछता है।" ऐसा बाजार में कम ही दिखता है। क्योंकि 'जो बिक गया उसकी तरफ पलटकर देखना बाज़ार के नियमों में नहीं है।" यह बाजार के बीच खड़े होकर बाजार का प्रतिकार करना है।  

समीक्ष्य कविता संग्रह 'दंतकथा और अन्य कविताएं" की कविताएं बहुत धैर्य की मांग करती हैं। इनके भीतर उतर जाना बहुत आसान नहीं है। इन्हें बार-बार पढ़ने की जरूरत है। सरसरी तौर पर पढ़कर आगे नहीं निकला जा सकता है। ये कविताएं 'चपटी समझ वालों के लिए बिल्कुल नहीं हैं।" इन कविताओं के कथ्य और शिल्प दोनों में नयापन है जो अपनी विविधता में बांधती हैं। अपने समय और समाज का बहुस्तरीय यथार्थ इन कविताओं में छिपा है जिसका उत्खनन कोई आसान काम नहीं है।वह सीधे-सपाट तरीके से नहीं आता है। शिरीष की इन कविताओं को समझने के लिए उनके अनुभव संस्ाार से परिचित होना और उसमें उतरना जरूरी है तभी उनकी अनुभूति को सही-सही पकड़ा जा सकता है। वह जीवनानुभव को किसी खबर की तरह नहीं कहते बल्कि रचा-पचा कर व्यक्त करते हैं। उनकी आख्यान गढ़ने की शैली अद्भुत है जो उन्हें अपने समकालीनों से अलग करती है। यदि अनुभव की सही चावी मिल जाय तो कविता का ताला खुलते देर नहीं लगती। इसके लिए बौद्धिक नहीं संवेदनद्गाील होना ज्यादा जरूरी है। तब कविता खुद महसूस होने लगती है फिर किसी व्याख्या की जरूरत नहीं।वह खुद भी मानते हैं कि 'कविता दरअसल व्याख्या नहीं मांगती,वह खुद को महसूसना मांगती है जो व्याख्या मांगती है वह मेरे लेखे कविता नहीं।" वह एक ऐसे कवि हैं जो अर्थों में नहीं अभिप्रायों में खुलते हैं। शब्द को नया अर्थ प्रदान करते हैं। नया मुहावरा गढ़ते हैं। आशयों को शब्दों के आवरण से बाहर निकालते हैं। शब्द बेपरदा हो जाते हैं। उनका मानना है कि 'जिन शब्दों को लोग अपने अज्ञान में बहुत घिस देते हैं/वे नष्‍ट होने लगते हैं।" उनका विश्‍वास है- एक दिन मेरे जीवन के सारे संकेत ढह जाएंगे/मेरे सभी अर्थ व्यर्थ होंगे/मुझे पढ़ना जटिलतम सरल होगा/क्योंकि मेरे होने के कुछ अभिप्राय रह जाएंगे।(ये जो मेरापन है) वह अपनी बात प्रतीकों के माध्यम से अधिक कहते हैं। प्रतीकों का सटीक प्रयोग करते हैं जो नए होने के बावजूद भी अबोधगम्य नहीं होते हैं। छोटी कविताओं की अपेक्षा मंझली और लंबी कविताओं में अधिक सधते हैं। छोटी कविताएं पूरी तरह खुल नहीं पाती हैं। लंबी कविताओं में कहीं-कहीं अनावश्‍यक प्रसंग भी चले आते हैं जिनसे बचा जा सकता था।  इसके बावजूद भी कविता के मंतव्य पर कोई विद्गोच्च अंतर नहीं आता।

शिरीष के कवि की एक खासियत यह भी है कि वह कहीं भी कविता संभव कर देते हैं। पुराना घ्ार छोड़ नए घ्ार में आते हैं पुराने घ्ार की स्मृतियां और नए घ्ार की परिस्थितियां कविता को जन्म दे देती हैं। रात को रसोई में छछूंदर घ्ाुस आता है कवि उसे भगाने जाता है और उसी से 'एक सुंदर छछूंदर कथा" बन जाती है। भूमाफिया द्वारा वसुंधरा को प्लॉट में बदल देने और जीवन से निकलकर एक बोर्ड में चले जाने से पैदा पीड़ा कविता के रूप में मुखरित हो उठती है जिसमें उन्हें 'वीरभोग्या वसुंधरा" की उक्ति अलग आशयों में सत्य सिद्ध होती लगती है। कभी जीवन में किसी लड़की द्वारा भेजा गया 'गुलाबी लिफाफा" तो कभी 'गोपनीय" लिखा सरकारी पत्र कविता का विषय बन जाता है। एक छोटे से रेलवे स्टेशन पर 'रेल की पटरियां" देखते हुए बहुत दिनों से खुदबदा रही कविता लिखी जाती है। इस तरह आसपास के अनुभवों से अपने समय और समाज का  साबुत,ठेठ और ठाठदार व बहुस्तरीय यथार्थ उनकी कविताओं में आकार लेता है।

उनके लिए कविता लिखना-पास की चीजों को दूर तक ले जाना है। जो जन बेनाम रहे  अब तक उन्हें नाम देना उनकी कविता का काम है। उनकी कविता जहां-तहां बिखरे पड़े जीवन को पकड़ने की कोशिश है। उसको एक तरतीब देना है। वह उनकी मंशा पर प्रश्‍न खड़े करते हैं जो पृथ्वी पर मनुष्‍यों का होना स्वीकार न कर जीवन की खोज में मंगल में जा रहे हैं।

श्सिारष खुद के कवि होने का कहीं कोई दावा नहीं करते हैं। खुद को 'लगभग कवि" और 'असफल कवि"तथा अपनी कविता को 'लगभग कविता" ही मानते हैं। इससे पता चलता है कि वह आत्ममुग्ध या आत्मग्रस्त नहीं है। यह उनकी विनम्रता भी है और प्रकारांतर से कवि कर्म की विराटता को स्वीकार करना भी। वास्तव में कवि कर्म आसान नहीं है। कवि होना किसी साधना से कम नहीं है। यह 'मनुष्‍य होते जाने के एक आदिम गर्व को साधना है। " जिसके लिए मानव विकास की पूरी बत्तीस लाख साल पुरानी यात्रा के आत्मसात करना पड़ता है। अपने भीतर के इंसान को कभी मरने नहीं देना पड़ता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि शिरीष ने इस कर्म को बहुत हद तक साध लिया है। उनकी 'संकरी जगह पर" कविता की ये पंक्तियां उन पर पूरी तरह सटीक बैठती हैं-'बिना किसी बिमारी के बीमार होना भी कवि होना है/पुरास्मृतियों में भटकना/बिना चले थकना/काल की हंडिया में हड्डी छोड़ देने की हद तक उसके फितूर का पकना/अपने उन लोगों के लिए उसका बिलखना कलपना जिन्हें बचाने की खातिर/अब भी किन्हीं गुफाओं के अंधेरे में छुपना पड़ता हैै।"  आशा की जानी चाहिए कि उनकी कविता का यह स्वर आगे और सांद्र से सांद्र होता जाएगा और यह कवि मनुष्‍यता के पक्ष में अपनी लड़ाई इसी तरह अनवरत जारी रखेगा।

        दंतकथा  और अन्य कविताएं(कविता संग्रह) शिरीष कुमार मौर्य
        प्रकाशक-दखल प्रकाद्गान 104 नवनीति सोसायटी
        प्लाट न0 51,आई0पी0 एक्सटेंद्गान पटपटगंज,दिल्ली 110092
        मूल्य-एक सौ पच्चीस रुपये।