Thursday, April 29, 2010

हरजीत की गज़लें

पिछली पोस्ट में नवीन मैठाणी जी ने हरजीत सिंह का एक पोस्टर लगाया था। इस पोस्ट में मैं उनकी दो गज़लें लगा रही हँ।

1.

जो अपने खून में जारी नहीं है
अदाकारी अदाकारी नहीं है

सभी फूलों में जितना खौफ है अब
ख़िजाँ की इतनी तैयारी नहीं है

ख़ला में जो भी मेरे हमसफर हैं
कोई हल्का कोई भारी नहीं है

निकलकर घर की दीवारों से बाहर
कोई भी चारदीवारी नहीं है

सभी मेहनत से बचना चाहते हैं
वगरना इतनी बेकारी नहीं है

मैं उनके खेल में शामिल हूँ लेकिन
वो कहते हैं मेरी बारी नहीं है

2.

उसके लहजे में इम्तिहान भी था
और वो शख्स बदगुमान भी था

फिर मुझे दोस्त कह रहा था वो
पिछली बातों का उसको ध्यान भी था

सब अचानक नहीं हुआ यारों
ऐसा होने का कुछ गुमान भी था

देख सकते थे छू न सकते थे
काँच का पर्दा दरमियान भी था

रात भर उसके साथ रहना था
रतजगा भी था इम्तिहान भी था

आई चिड़ियाँ तो मैंने ये जाना
मेरे कमरे में आसमान भी था

हरजीत सिंह

Saturday, April 24, 2010

हरजीत की गज़ल और दीपक का पोस्टर


हरजीत को गये ग्यारह वर्ष हो गये.लेकिन उसका जिक्र यूं होता है जैसे वह यहीं कहीं हो.अभी झोला भूल आया है जिसमें दोस्तों का इन्तजाम भी है.
यहां हम हरजीत को याद करते हुए हरजीत के संगी कलाकार दीपक कुमार उर्फ़ दीपक देहरादूनिया का बनाया पोस्टर लगा रहे हैं. ( अब जयपुर वासी दीपक पर एक पोस्ट जल्द ही लगायी जायेगी)

Wednesday, April 14, 2010

माँ

बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ,
याद आती है चौका बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ।

बान की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोयी-आधी जागी
थकी दुपहरी जैसी माँ।

चिढ़ियों की चहकार में गूंजे
राधा-मोहन, अली-अली
मुर्गे की आवाज़ से खुलती
घर की कुण्डी जैसी माँ।

बीबी, बेटी, बहन, पड़ोसन
थोड़ी-थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ

बांट के अपना चेहरा माथ
आंखें जाने कहाँ गयी
फटे पुराने इक एलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ

- निदा फाज़ली

Thursday, April 8, 2010

दिनेश चन्द्र जोशी की कविता


(दिनेश चन्द्र जोशी की कवितायें इस ब्लोग के पाठक पहले भी पढ़ चुके हैं कहानी-संग्रह राजयोग तीन वर्ष पूर्व प्रकशित हुआ था.उनकी कविताएं जीवन की सहज गति के बीच बह्ते हुए उन चीजों को उठाती हैं जो हर वक्त हमारे सामने रहती हैं लेकिन दृष्टि में नहीं आतीं.जीवन के सहज द्र्श्यों और कार्य व्यापारों को उनकी कविता संवेदना का अनिवार्य अंग बना डालती है. यहां हम उनकी ताजा कविता पाठकों के सामने सगर्व प्रस्तुत कर रहे हैं)
दरी

यह दरी विछी थी घर में
जिसमें बैठ कर बेटी की शादी के मौके पर
बन्नी गा रही थीं मुहल्ले की स्वाभाविक व
निपुण नृत्यांगनाएं
खिलखिला रही थीं हास परिहास करके


कई मौकों पर बिछाया गया , घर के फर्नीचर
सोफों कुर्सियों को हटाकर कमरे के चौरस
फ़र्श पर दरी को,
कितने सारे लोग अटा जाते हैं
कमरे में सामुहिक काम काज के मौके पर
’दरी बडी काम की चीज है’ पिता कहते थे बच्चों से


गोष्ठी, मीटिंग,कथा, कीर्तन, भजन के अनेक अवसरों पर
काम आयी दरी, इसे किन अनाम कारीगरों ने बनाया होगा
बनी होगी यह भदोही या चंदौली में या कि जौल्जेबी
गौचर चमोली में, जहां भी बनी हो , देश में ही बनी होगी
देशी किस्म के कामों के वास्ते

बिछती है दरी बडी बडी सभाओं में
गोष्ठियों .सेमिनारों .कार्यशालाओं में
कवि सम्मेलनों में भी बिछती थी दरी पहले सारी रात
अब न वैसे कवि रहे न श्रोता

दरी बिछती है घर मे शोक के अवसरों पर
पिता की मृत्यु के वक्त जिस पर बैठ कर दहाडें मारती है मां
सांत्वना व ढाढस देती हैं मां को दरी पर बैथी हुई स्त्रियां
दरी खुद भी हिम्मत बंधाती है मां की हथेलियों को
छूते हुए अपने अजीवित स्पर्श से

Saturday, April 3, 2010

हाइजेनबर्ग और बम

(आजकल विजय भाई नीड़ के निर्माण में व्यस्त हैं। घर शिफ़्ट किया है. फ़िलहाल इण्टरनेट नहीं है. कुछ दिनों में वे लौटेंगे । तब तक बीच - बीच में आपकी खिदमत में कुछ टिप्पणियां पेश करता रहूंगा-नवीन कुमार नैथानी)
वर्नर हाइजेनबर्ग उन गिने -चुने भौतिक -विदों में हैं जो अपने अनुशासन की हदों के बाहर आम जन में खूब चर्चित रहे। उनका अनिश्चितता का सिद्धांत आज भी विझान के और दर्शन के मूलभूत प्र्श्नों से ट्कराने के लिये एक अनिवार्य प्रसंग बना हुआ है।द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब परमाणु बम बनाने की होड़ शुरू हुई तो मित्र-शक्तियो से जुडॆ वैझानिकों (जिनमें जर्मनी से भागे लोगो की अच्छी तादाद थी) को चिंता हुई कि जर्मन कहीं बम बनाने में बाजी न मार जायें।संदेह, अविश्वास, दुरभिसंधियों और षड्यंत्रों से भरे उस समय को डाइना प्रेस्टन ने बेहद पठनीय पुस्तक बिफोर द फाल आउट में प्रस्तुत किया है।
सभी लोग इस बात पर एकमत थे कि जर्मनी में इस काम को हाइजेनबर्ग ही अंजाम दे सकते हैं।१९४२ में जब यह खबर आयी कि हाइजेनबर्ग बम बनाने के जर्मन प्रोजेक्ट से जुड चुके हैं तो अमेरिका में मेनहट्टन प्रोजेक्ट से जुडॆ वैझानिकों में चिन्ता की लहर दौड़ गयी। कहा जाता है कि विक्टर वैस्कोफ ने प्रोजेक्ट के अगुआ रोबर्ट ओपेन्हाइमर ( भारतीय दर्शन से प्रभावित और गीता के अनन्य प्रशंसक) के पास एक नोट भेजा जिसमें हाइजेनबर्ग को अगुआ करने का प्रस्ताव था। इस काम को अंजाम देने के लिये वैस्काफ ने खोद की सेवाओं की पेशकश की थी।ओपेनहाइमर ने इसे एक मजाक भर समझा लेकिन दो वर्ष बाद इस पर गंभीरता से काम हो रहा था। योजना हाइजेनबर्गकी ह्त्या तक बन चुकी थी।
दिसंबर 1944 में सीक्रेट एजेण्ट मोए बर्ग को ज्यूरिख भेजा गया .उसे यह निर्देश दिये गये थे कि वह हाइजेनबर्ग के व्याख्यान सुने और यदि इस बात का आभास हो जाये कि जर्मन बम बनाने के नजदीक हैं तो तुरंत उनकी हत्या कर दी जाये. ज्यूरिख के व्याख्यान से मोए बर्ग किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका. उसने किसी तरह हाइजेनबर्ग से मुलाकात का जुगाड़ बैठा लिया.हाइजेनबेर्ग को इस बात का कतई अन्दाजा नहीं था कि उनकी जिन्दगी अब उन शब्दों पर टिकी है जो वे कहने वाले हैं.हाइजेनबर्ग ने बम के बारे कुछ भी नहीं कहा. उनकी बातों से बर्ग को लगा कि वे शायद इस बात से दुखी हैं कि जर्मन युद्ध हारने जा रहा है.
आप हाइजेनबर्ग और मोए बर्ग के बीच उस वर्तालाप की कल्पना कीजिये. मुझे यह स्तिथी किसी अस्तित्ववादी नाटक के दृश्य की तरह लगती है.आखिर वह युद्ध भी तो एक महाभारत ही था.वैझानिक समुदाय में यह बात युद्ध के शुरू होते ही साफ हो गयी थी कि सब्से पहले सूचनाओं का निर्बाध प्रवाह इस युद्ध की भेंट चढ़ जायेग.

Friday, April 2, 2010

जहां दरिया बहता है

यह कविता वियतनामी कवि वो कू ने लिखी है। वो कू को वियतनाम में युद्ध का  विरोध करने के कारण लम्बे समय तक कारवास में रहना पड़ा जहां इन्होंने अनगिनत यातनायें झेली। वो कू का शहर क्वांग त्री सिटी को कई बार युद्ध झेलना पड़ा। अपने इसी शहर के लिये वो कू ने यह कविता लिखी।

 जहां दरिया बहता है

एक बहुत दूर की दोपहर
जब दरिया अपने किनारे लांघ गया था,
उस स्मृति के साथ पहुंचा
मैं अपने शहर, जो तुम्हारा और मेरा शहर था
चमकता है मेरे मन में वही स्वर्णिम दिन
तुम्हारा गोल सफेद टोप, उस संकरी गली में
दोपहर की रोशनी  में चमक रहा था
तुम्हारी जामुनी फ्राक, हवा में उड़ते लम्बे बाल
और चर्च की लगातार आवाजें लगाती, हज़ारों बार
बजती घंटिया याद आयी मुझे।
वह शहर जो पूरा बरबाद हो गया था युद्ध में
उस शहर की हर गली एक दर्द की तरह
उभरती है मेरे ज़हन में।
मेरा कोई हिस्सा हर गिरती हुई पंखरी के साथ
गिरता है धरती पर
उन चमकदार फूलों का आर पार
दर्द की तरह लहराता हुआ गिरता है धरती पर।
लेकिन मेरे सपनों में वो शहर अछूता है,
बरबादी के पहले सा अछूता
जब गलियां जिन्दा थी, बलखाती लहरों की तरह
जब तुम्हारी स्मित खिलने से पहिले गुलाब जैसी थी
जब तुम्हारी आंखें तारों की तरह सुलगती थी।
कैसी तेज याद आती है उन बहते पानियों की।
सर्दी की कमजोर रोशनी में कैसी दीखती थी तुम
जब लम्बी घास दरिया के दूसरे किनारे
पर झुका होता था।
हमारे पुराने शहर से अब भी भरा है हमारा होना
मेरे बाल पक गये हैं उस नदी किनारे घास की तरह
या तुम्हारे इतने पुराने प्यार की तरह।

अनुवाद: कृष्ण किशोर