Saturday, June 25, 2011

क्या बनोगे बच्चे

भौतिक जगत की एक छोटी सी मुलाकात और आभासी दुनिया की आवाजाही में युवा कवि सुषमा नैथानी का संग साथ एक ऐसी मित्रता के रूप में है जिसमें एक संवेदनशील और लगातार लगातार एक अपनी ही किस्म की धुन में रमी स्त्री को देखा है। पिछले दिनों सुषमा ने अपना काव्य संग्रह भेजा था पढ़ने को जिसे भविष्य में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होना है। डिजिटल रूप में प्राप्त संग्रह को माउस की क्लिक के सहारे पढ़ना दिक्कत भरा तो था लेकिन कविताओं में जो ताजगी थी वह पढ़ने के उत्साह को गाढ़ा करती रही। बहुत से अनजाने अनुभवों से गुजरते हुए सुषमा के उस मूल स्वर को पकड़ना चाहता रहा जो उन्हें कविता कहने को प्रेरित या मजबूर करता होगा। यूं अपने तई दूसरी बहुत सी कविताएं हो सकती हैं जिनमें उस स्वर को पकड़ा जा सकता है। मैं जिन कविताओं में उनके स्वर को पकड़ पाया हूं उनमें बेहद आत्मीयता से भरी लेकिन लिजलिजेपन वाली भावुकता से परहेज करती युवा कवि की छवी दिखाई देती है। विस्मृतियों की गहन खोह से वे अपनी काव्य यात्रा का शुभारंभ करती हैं। देश दुनिया की भौगोलिक सीमाएं ही नहीं भाषायी बंधनों से भी मुक्त जीवन की चाह में वे रास्ते की मुलाकात के अवसरों में भी स्त्री जीवन के कितने ही घने एकान्त के पार हो आती हैं। यहां प्रस्तुत है उनकी दो कविताएं। 
वि.गौ.
बच्चे और माँ की कहानी

पांच साल का बच्चा
देखादेखी में पाल लेना चाहता है कुत्ता
एक हरे रंग का...बिन दांतों वाला
माँ सुकूं से है...मिले तो पालने को तैयार
बच्चा लाना चाहता है एक सांप
माँ मछली पर राज़ी है
बच्चे को याद है साल भर पहले पाली गयी मछलियाँ
छूट गयी जो पीछे छूटे शहर में
अब किसी कोने बचा है अनमना मन.....


बच्चे के मन बहलाव में माँ को याद आया
एक प्यारा...भूरा...भोटिया कुत्ता
पीछे दूर...बहुत दूर छूटा
किसी दूसरे जन्म का किस्सा
बच्चा पलटकर कहता है
"दिस इस नोट फेयर...यू हेड अ डोग एंड आई डोंट"
माँ पलटकर कहती है
“यू हेव सो मेनी कारस एंड टीवी...आई हेड नन"
बच्चा माँ के बिन टीवी
बिन रिमोट कंट्रोल वाले बचपन में
उलझता है कुछ दूर
फिर पसीजकर कहता है
"कोई बात नहीं, पर अब तो खेल सकती हो"
बच्चा माँ के साथ खेलना चाहता है
माँ को निपटाने है कई ज़रूरी काम
खीज़कर बच्चा कहता है
"तुम खेलना नहीं चाहती
पापा को नए खिलौने ख़रीदने पर गुस्सा करती हो"


माँ रंग बिरंगे बाज़ार के फंसाव को याद करती है

कि कितना मुश्किल है ढूंढना बच्चे की उम्र का खिलौना
अचानक मॉल में मिली दो औरते बिफ़रकर कहती है
"कहाँ है वे खिलौने
जो बाप के लिए नहीं बच्चे के लिए बने हैं?"
खिलौना कंपनी की मार्केटिंग टीम खूब जानती है कि
खिलौना कुछ बाप और कुछ बच्चे के लिए बनाये
बाप के पास है ज़ेब और बच्चे का बहाना
रोशनी आवाजों वाला इलेक्ट्रोनिक गेजेड्स सलोना
भरता होगा बाप के बचपन का कोई खाली कोना
माँ खिलौने के जंगल से बेज़ार
बचपन के कई संभवना भरे दिनों में से कुछ
चुराना चाहती है बच्चे के लिए.....


बच्चा फिर घूमकर चिड़िया पर लौटा है
और हरियल तोते को लेकर है फिक्रोफिराक में
कि तोते पर न चढ़ जाय छोटे भाई की ज़बान
फिर फिर मन के फेर में घूमता है बच्चा
माँ अब डरती है दूकान से
देखना नहीं चाहती पेटको में
मकड़ी...कुछ रंग बिरंगे चूहे...छिपकली
कछुए...सांप और ऐसे ही तमाम चित्र विचित्र
महीनेभर तौलमोल के बाद तय हुआ
कि कुछ केंचुए एक बोतल में दो दिन मेहमान बनकर आयें
फिर वापस अपने घर... भुरभुरी मिट्टी में
फिलहाल बच्चा और माँ दोनों सहमत....



 बच्चे क्या बनोगे तुम?

जिज्ञासावश नहीं आता सवाल
हमेशा मुखर हो ये ज़रूरी नही
उत्तर की आरज़ू में नही पूछा जाता
कुछ ज़रूरी ज़बाब है
जिन्हें चुपके से...चालाकी से उकेर दिया जाता है
कोमल कोरे मन की तहों पर अचानक
खिलौनों के बीच खेलते हुए
किसी रंगीन लुभावनी किताब को पलटते हुए
सीधे नहाकर कपडे पहनते हुए भी
एक बड़े की आशीष के बीच
कि कुछ एक होने के लिए
कुछ एक बनने के लिए ही है जीवन…..


क्या बनना है बच्चे को?
बच्चा अभी कहाँ जान पायेगा कि
ये कुछ एक बनने की लहरदार सीढ़ी
चुनाव और रुझान से ज्यादा
कब एक जुए की शक्ल ले लेगा
जो भाग्य...भविष्य
और बदलते बाज़ार की ज़रुरत के दांव से खेला जाएगा
बच्चा दूसरे के देखे सपने में दाखिल होगा
कभी डॉक्टर बनकर घिरा रहेगा दिन भर
बीमारी...बेबसी...के व्यापार के बीच
डेंटिस्ट की शक्ल में होगा बदबू मारती साँसों के बीच
कभी एक फटेहाल टीचर की शक्ल में दिखेगा
जो अपने जीवन के सबसे ज़रूरी पाठों को पढने से रह गया
कभी नींद में बौखलाए पायलेट की तरह
जो बिन मंजिल की यात्रा में बदल गया है
कभी किसी एयरहोस्टेस की शक्ल में

जिसके लिए रोमान और ग्लैमर की जगह
जूठी प्लेटों के ढ़ेर में है जीवन…..


कभी इन्ही सपनों में दाखिल होंगे
निर्वासित वैज्ञानिक...इंजीनियर
जो बस हाथ बनकर रह गए है
जिनका दिमाग भी हाथ का ही विस्तार है
कुछ ज्यादा कठिन कसरतों के लिए
ये दिमाग खांचे से बाहर
जीवन से ज़िरह के लिए नहीं
सवाल के लिए नहीं है
बिन रुके एक प्रोजेक्ट से दूसरे को निपटाने के लिए है
कभी आयेगा एक पत्रकार की शक्ल में
टीवी पर लहकते लड़के लड़कियों के लिए

विद्रूप से विद्रूपतर शक्लों में आयेगा जीवन
बहुत से बच्चों के लिए
जिनसे कोई पूछ न सका कि
क्या बनोगे बच्चे?

Thursday, June 16, 2011

हम विचार और युक्ति से आबद्ध हैं

 

यह हमारे लिये अत्यन्त खुशी की बात है कि राजेश सकलानी का दूसरा कव्य संग्रह पुश्तों का बयान हाल ही मे प्रकाशित हुआ है. प्रकाशन के प्रति बेहद लापरवाह राजेश सकलानी की कवितायें अभी तक समुचित मुल्यांकन की प्रतीक्षा कर रही हैं. अपसंस्कृति और बाजार की आपाधापी की हलचलों से भरपूर इस समय में राजेश मनुष्य की गरिमा के लिये प्रतिरोध का विरल पाठ रचते हैं.
राजेश  प्रकाशन-भीरु कवि हैं.निपट अकेली राह चुनने की धुन उन्हे समकालीन कविता के परिद्र्श्य  में थोडा बेगाना बानाती है-उनकी कविताओं का शिल्प इस फ़न के उस्तादों की छायाओं से भरसक बचने की कोशिश करते हुए नये औजारों की मांग करता है.अपने लिये नये औजार गढ़ना किसी भी कवि के लिये बहुत मुश्किल काम है. राजेश वही काम करते हैं.अस्सी से ज्यादा कविताओं के इस संग्रह से कोई प्रतिनिधि कविता चुनना दुरूह है।
उनके इस संग्रह से कुछ कवितायें यहां सगर्व प्रकाशित की जा रही हैं|
- नवीन नैथानी



दुल्हन

सपनों की त्वचा में रंगभेद नहीं होता
और दुल्हन की साड़ी की कोई कीमत नहीं होती

नंगे पैर गली में भटकने से
कैसे धरती तुम्हारे चेहरे पर निखरती है और
कितनी प्यारी हैं तुम्हारे श्रंृगार की गलतियाँ
चन्द्रमा की तरह दीप्त
अपनी बालकनी से दबे-दबे मुस्करातीं हैं मालकिनें
तुम्हारी खुशियों को नादानी समझतीं
उनकी आँखों में तुम मछली की तरह
लहराती हुई निकलो

भले ही जल्द टूट जाएँ वे चप्पलें जो
त्ुमने जतन और किफ़ायत से खरीदी हैं,
उन्हें इतराने दो और खप जाने दो मेहँदी
अपनी खुरदरी हथेलियों में

कुछ-कुछ ज्यादा है वे रंग जो तुम
अपने चेहरे पर चाहती हो
एक वह है जो दूसरे में दखल किए जाता है

दुल्हनें इसलिए भी शरमाती हैं कि चाहती
भी हैं दिखना लेकिन तुम ऐसे शरमाती हो
जैसे धीमे-धीमे दुनिया से टर लेती हो
जैसे तुमने जान ली है थोड़ी-सी लज्जा और
थोड़े से भरोसे के साथ दिख जाने की कला

जैसे तुम पहली बार उजाले में आई हो
कोई तेरी पलकों के ठाठ देखकर
चौंक पड़ेंगे
कुछ भले लोगों की तरह सँभलेंगे
कुछ इंतजार करेंगे बेचैनी से
मेहँदी के घटने के दिन

कुछ ऐसे देखेगें लापरवाही से जैसे नहीं देखते हो
अच्छा हो तुम उन्हें भी ऐसे ही देखो
जैसे न देखती हो
जैसे तुम समझ गई हो अपना होना
समय की कठिनाइयों में यह भी काम आएगा
अपने टूटे-फूटे बचपन की किताब को
तुम बंद कर देती हो
जैसे शाम होते ही दिन खत्म हो जाता है

ऐसे ही गुज़रो तुम बहुत समय तक
मचल-मचल कर इस जीवन को गाढ़ा कर दो।

अमरूद वाला

लुंगी बनियान पहिने अमरूद वाले की विनम्र मुस्कराहट में
मोटी धार थी, हम जैसे आटे के लौंदे की तरह बेढब
आसानी से घोंपे गए

पहुँचे सीधे उसकी बस्ती में
मामूली गर्द भरी चीजों को उलटते-पुलटते
थोड़े से बर्तन बिल्कुल बर्तन जैसे
बेतरतीबी में लुढ़के हुए
बच्चे काम पर गए कई बार का उनका
छोड़ दिया रोना फैला फ़र्श पर

एक तीखी गंध अपनी राह बनाती,
भरोसा नहीं उसे हमारी आवाज़ का।



पुश्तों का बयान

हम तो भाई पुश्तें हैं
दरकते पहाड़ की मनमानी
सँभालते हैं हमारे कंधे

हम भी हैं सुन्दर, सुगठित और दृढ़

हम ठोस पत्थर हैं खुरदरी तराश में
यही है हमारे जुड़ाव की ताकत
हम विचार और युक्ति से आबद्ध हैं

सुरक्षित रास्ते हैं जिंदगी के लिए
बेहद खराब मौसमों में सबसे बड़ा भरोसा है
घरों के लिए

तारीफ़ों की चाशनी में चिपचिपी नहीं हुई है
हमारी आत्मा
हमारी खबर से बेखबर बहता चला आता
है जीवन।

पुश्ता : भूमिक्षरण रोकने के लिए पत्थरों की दीवार। पहाड़ों सड़कें, मकान और खेत पुश्तों पर टिके रहते हैं।


     

Sunday, June 12, 2011

सपने में भी जागने का आग्रह


रोहित जोशी 

 सपने में खुद से संवाद होता है। जापानी फिल्मकार 'अकीरा कुरूशावा' की लघु
फिल्मों की एक सीरीज ‘ड्रीम्स्‘ भी यूं ही संवाद करती है। यह संवाद एक ओर
निर्देशक का खुद से है तो वहीं दूसरी ओर यह संवाद उसके समय का भी स्वयं
से है, जिसके केन्द्र में मानवता के विमर्श की चुनौतियां हैं। सही अर्थों
में यह फिल्म श्रृंखला यहीं पर सबसे अधिक सफल है। 10-20 मिनट की कुल
छोटी-छोटी 8 फिल्मों में निर्देशक ने एक सपने का सा अहसास लगातार बनाकर
रखा है। लेकिन इन सपनों में ‘जागने’ का आग्रह भी निरन्तर मिलता है।
‘क्रोज़’ के अतिरिक्त अन्य फिल्मों में जापानी पृष्ठभूमि पर ही फिल्मांकन
है। दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका से अब तक न उबर पाऐ जापानी समाज की
युद्ध के प्रति घृणा फिल्मों में बार बार उभर कर आती है। ‘माउण्ट फ्यूजी
इन रेड’,‘द टनल’ और ‘द वीपिंग डिमोन’ रासायनिक हथियारों के दुष्परिणाम को
चित्रित करते हुए सहज मानवीय संवेदनाओं को स्पन्दित कर युद्ध के खिलाफ
खड़ी होती हैं। ‘द ब्लिजार्ड’ फिल्म प्रकृति पर मानव की निरन्तर विजय की
कहानी को आगे बढ़ाती है। बर्फीले तूफान में फंसे कुछ पर्वतारोहियों के दल
का मृत्यु पर जिजिविषा के दम पर विजय पा लेना फिल्म की मूल कहानी है।
फिल्म में छिटपुट संवाद है।
‘सन साइन थ्रू द रेन’ जापान की किसी लोक कथा पर आधारित फिल्म है। यह
फिल्म मेरे लिए इसलिए भी रोचक है कि यह लोक कथा जापान से कई दूर मेरे
अंचल ‘कुमाऊॅ’ में भी इसी रूप में प्रचलित है। फिल्म की कहानी का आधार
लोक मान्यता के अनुसार यह है कि रिमझिम बरसात और धूप जब एक साथ निकलते
हैं तो लोमड़ियों की शादी होती है। यहां ऐसे ही एक मौसम में एक बच्चे को
लेकर कहानी चलती है जिसकी मां ने उसे डराया हुआ है कि जंगल में अभी
लोमड़ियों की शादी हो रही होगी इसे देखना ख़तरनाक है। लोमड़ियां इससे
नाराज होती हैं। बच्चे का बच्चा होना उसे जंगल की ओर धकेल देता है। कहानी
का खूबसूरत फिल्मांकन है और जंगल के दृश्य में जिन रंगों को फिल्मकार ने
पकड़ा है वह अद्भुत् हैं।
‘विलेज आफ वाटर मिल्स्’ विकास के वर्तमान ढ़ाचे पर सवाल उठाती फिल्म है।
जहां आवश्यकता उत्पादन के आधार पर तय की जा रही है। यह एक खूबसूरत गांव
है। जहां हरे भरे जंगल के बीच बहती शांत छोेटी नदी के बीच कुछ पनचक्कियां
लगी हुई हैं। पर्याप्त दूरी पर घर हैं। एक गांव से बाहर का युवक गांव को
देखकर लगभग चकित सा गांव में घूम रहा है। वह गांव में घूमता हुआ एक घर
में एक वृद्ध से मिलता है और गांव के बारे में पूछता है। वृद्ध और युवक
के बीच में हुआ यह संवाद, वर्तमान समय तक हो चुके हमारे विकास की समीक्षा
कर देता है और विकास के वर्तमान ढ़ांचे से दर्शक के मन में असंतुष्टि
पैदा करता है।
सीरीज की अगली फिल्म ‘क्रोज़’ है। यह अकीरो कुरूशावा की वह फिल्म है जो
उन्हें उनके निर्देशन और फिल्म कला की समझ के लिए सलामी देती प्रतीत होती
है। यह फिल्म महान चित्रकार विन्सेन्ट वान गॉग के जीवन पर आधारित है।
सिर्फ दस मिनट और पन्द्रह सेकन्ड की इस फिल्म में वॉन गॉग सामने आ उतरते
हैं। कहानी वान गॉग की आर्ट गैलेरी से शुरू होती है जहां एक नया चित्रकार
उनके चित्र देख रहा है। वह चित्रों में जा उतरता है। फिर चित्रकार को उसी
के चित्रों में खोजते-खोजते गेहूं के उन खेतों में जा पहुंचता है जो
वानगॉग ने खूब चित्रित किए हैं। वहां वह वान गॉग से मिलता है। एक छोटा
संवाद है जो वान गॉग की आत्म कथा से प्रेरित है। आखिरी दृश्य में ढेर
सारे कौवों का गेहूं के खेत में से उड़ने का वही दृश्य चित्रित किया गया
है जो वान गॉग की आखिरी पेंटिंग है। यह फिल्म संभवतः इसलिए महान बन पाई
है कि कुरूशावा खुद भी एक चित्रकार रहे हैं। वे टोकियो फाइन आर्ट कालेज
के विद्यार्थी रहे हैं और वान गॉग से बहुत प्रभावित भी।
‘ड्रीम्स्‘ सीरीज की यह फिल्में विश्व सिनेमा के एक पूरे अध्याय की तरह
हैं। जिसे सिनेमा के विद्यार्थियों को जरूर पढ़ना चाहिए।


Thursday, June 9, 2011

ऐतिहासिक दस्तावेजीकरण


                  
बदलते श्रम संबंधों ने सामाजिक, सांस्कृतिक बुनावट के जिस  ताने बाने को बदलना शुरू किया, उसका बखान करना जब काव्य भाषा में संभव न रहा तो गद्य साहित्य का उदय हुआ। कहानी और उपन्यासों की विस्तार लेती दुनिया उसका साक्ष्य होती गई। लोक संस्कृतियों के संवाहक गीत, नृत्य और दूसरे कला माध्यम हाशिए पर जाने लगे। न जाने कितने ही विलुप्त भी हो चुके हैं। सभ्यता, संस्कृति के इस इतिहास के अध्याय के संरक्षण और विलुप्ति को खोजने की कार्रवाई उसका ऐतिहासिक दस्तावेजीकरण है। नन्द किशोर हटवाल की हाल में प्राकशित पुस्तक चांचड़ी झमाको पहाड़ी संस्कृति की ऐसी ही एक गीत विधा के भौगोलिक क्षेत्र विशेष की विभिन्नता के बाद भी एक रूपता को स्थापित करती मान्यताओं की स्थापना का कार्यभार धारण करती है। उत्त्राखण्ड के जनमानस को उद्देविलत करते उसके विभिन्न कलारूपों को एकत्रित कर उनका संग्रहण और विश्लेषण चांचड़ी झमाको में हुआ है। यूं स्वभाविक विकास के चलते अप्रसांगिक हो जाने वाली किसी भी वस्तु, स्थान या किसी भी तरह का कलारूप यदि चिन्ता के दायरे में हो तो उसे नॉस्टेलजिक होना कहा जा सकता है। लेकिन औपनिवेशिक दासता की आरोपित स्थितियों के कारण विलृप्त होती गयी सभ्यता, संस्कृति या जातीयता का दस्तावेजीकरण इतिहास की गहरी पर्तों की तहकीकात के लिए एक साक्ष्य होती है। नन्द किशोर हटवाल की पुस्तक के बहाने चांचड़ी लोक गीतों पर बात करना इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसके तई लोक संस्कृति के नाम पर जारी उस भौंडेपन की मुहिम का खुलासा स्वंय हो जाता है जो विपुल बाजार का रास्ता बनाती हुई है।

श्रमजीवी और शिल्पी समुदाय की रचनात्मक क्रियाशीलता ने चांचड़ी की लोक परम्परा में एक सांस्कृतिक परिदृश्य को रचा है। चांचड़ी उत्तराखण्ड की एक ऐसी लोक विधा है जो उत्तराखण्ड के हर गाँव में गायी जाती रही है। स्थान और भाषा विशेष की भिन्नता के बावजूद उसका रूप एकसार ही है। उत्तराखण्ड में इस गीत नृत्य को चांचरी, झुमेला, दांकुड़ी, थड्या, ज्वौड़, हाथजोड़ी, न्यौला, खेल, ठुलखेल, भ्वैनी, रासौं, तांदी, छोपती, हारूल, नाटी, झेंता आदि कई नामों से जाना जाता है। पुस्तक में ये सभी गीतरूप संग्रहित है। उनसे गुजरते हुए ही देख सकते हैं कि इनकी एकरूपता उस इतिहास से भी टकराती है जिसकी अवधारणा में उत्तराखण्ड का जनमानस देश भर के किन्हीं आर्थिक समृद्ध स्थानों से विस्थापित होकर निवासित हुआ बताया जाता रहा है। तथ्यों की नजरअंदाजी के चलते एवं औपनिवेशिक शिक्षा की एकांगी समझ ने स्थान विशेष के इतिहास, भूगोल, संस्कृति और जीवन दर्शन पर हमेशा पर्दा डाले रखा। बल्कि विभ्रम को भी तार्किक आधारों पर पुष्ट करने के लिए बुद्धिजीवियों की ऐसी जमात पैदा किया जिसने जाने या अनजाने वजह से साम्प्रदायिक विचार की घ्रणित व्याख्या का ऐसा पाठ प्रस्तुत करना ही अपना कर्तव्य समझा जो स्थानीयता के विचार को कुचलने वाला साबित हुआ है। मुगलकाल के दौर में विस्थापन की कथा का ताना बाना एक गैर ऐतिहासिक विश्लेषण है। जातिगत समानता की उचित व्याख्या के अभाव में एक विकृत ऐतिहासिक अवधारणा ने जन्म लिया है। यही वजह है कि पहाड़ों से गुलामी के दौर में जंगलों पर कब्जे के साथ हुए पलायन के आरम्भिक समय की पड़ताल करने की चूक भी हुई है और जंगल और कृषिभूमि पर कब्जा करने वाले औपनिवेशिक शासन को प्रगतिशील मानने वाली सैद्धान्तिकी ने औपनिवेशिक शासन के अत्याचारों और उससे पूर्व के सामंती जकड़न में फंसे समाज का ठोस मूल्यांकन करना भी उचित नहीं समझा। जिसका हश्र पहाड़ी समाज के पारम्परिक उद्योग को ध्वस्त करती, कृषि और प्ाशुपालन व्यवसाय को चौपट करती व्ययस्था की लठैती करने में हुआ। एक हद तक आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का तंत्र मनिआर्डर अर्थव्यवस्था में तब्दील हुआ। चातुर्वणिय व्यवस्था के प्रवक्ताओं ने पहाड़ की द्विवर्णी समाज व्यवस्था (डोम और बिठ्) का विश्लेषण करने की बजाय ऐसे तर्कां को प्रस्तुत करना शुरु किया जिसमें पहाड़ों पर निवास करती हर जाति किसी न किसी मैदानी इलाके से जान बचाकर भागी हुई दिखायी देती है। बावजूद अपने तर्कों के चातुर्वणीय व्यवस्था के चारों वर्णों- ब्राहमण, क्षत्रीय, वैश्य और शुद्र को स्पष्ट तरह से आज तक चिन्हित कर पाने में असमर्थ है। वैश्य वर्ण तो सिरे से ही गायब है। आखिर ऐसा क्यो? तिब्बत और उससे लगते इलाकों में रहने वाले भेड़ चरवाहे, नमक, सुहागा और आभूषण आदि का व्यापार करने वाले सिर्फ शौका व्यापारी ही बने रहे या भोटिया कहलाये। शंकराचार्य के हिन्दुकरण अभियान के दौरान छिटके गये जाति व्यवस्था के बीज को वो खाद-पानी नहीं मिल पाया जो उसे मैदानी इलाकों-सा वट वृक्ष बना सकता था और शोषण के अमानवीय तंत्र को उतना ही शक्तिशाली बना सकता। कृषि भूमि जो छोटी जोतों और सीढ़ीनुमा खेतों में विभाजित थी इसका मुख्य कारण रही। बेशक हल लगाने वाले, राज-मिस्त्री का काम करने वाले, कपड़े सिलने वाले और ऐसे ही श्रमजीवी काका, बोडा कहलाये जाते रहे पर उनकी पहचान के लिए एक ही शब्द मौजूद रहा- डोम।         
     नन्द किशोर हटवाल की पुस्तक में ये सारे सवालों बेशक न उठे हों पर उत्तराखएड के इतिहास की बहस को आगे बढ़ाने में उनकी एकरूपता एक आधार बन रही है।


विजय गौड़

पुस्तक: चांचड़ी झमाको
लेखक: नंद किशेर हटवाल
प्रकाशक: विनसर पब्लिशिंग क0
        देहरादून
मूल्य: 395
पृष्ठ: 560