यह हमारे लिये अत्यन्त खुशी की बात है कि राजेश सकलानी का दूसरा कव्य संग्रह पुश्तों का बयान हाल ही मे प्रकाशित हुआ है. प्रकाशन के प्रति बेहद लापरवाह राजेश सकलानी की कवितायें अभी तक समुचित मुल्यांकन की प्रतीक्षा कर रही हैं. अपसंस्कृति और बाजार की आपाधापी की हलचलों से भरपूर इस समय में राजेश मनुष्य की गरिमा के लिये प्रतिरोध का विरल पाठ रचते हैं. राजेश प्रकाशन-भीरु कवि हैं.निपट अकेली राह चुनने की धुन उन्हे समकालीन कविता के परिद्र्श्य में थोडा बेगाना बानाती है-उनकी कविताओं का शिल्प इस फ़न के उस्तादों की छायाओं से भरसक बचने की कोशिश करते हुए नये औजारों की मांग करता है.अपने लिये नये औजार गढ़ना किसी भी कवि के लिये बहुत मुश्किल काम है. राजेश वही काम करते हैं.अस्सी से ज्यादा कविताओं के इस संग्रह से कोई प्रतिनिधि कविता चुनना दुरूह है। उनके इस संग्रह से कुछ कवितायें यहां सगर्व प्रकाशित की जा रही हैं| - नवीन नैथानी |
दुल्हन
सपनों की त्वचा में रंगभेद नहीं होता
और दुल्हन की साड़ी की कोई कीमत नहीं होती
नंगे पैर गली में भटकने से
कैसे धरती तुम्हारे चेहरे पर निखरती है और
कितनी प्यारी हैं तुम्हारे श्रंृगार की गलतियाँ
चन्द्रमा की तरह दीप्त
अपनी बालकनी से दबे-दबे मुस्करातीं हैं मालकिनें
तुम्हारी खुशियों को नादानी समझतीं
उनकी आँखों में तुम मछली की तरह
लहराती हुई निकलो
भले ही जल्द टूट जाएँ वे चप्पलें जो
त्ुमने जतन और किफ़ायत से खरीदी हैं,
उन्हें इतराने दो और खप जाने दो मेहँदी
अपनी खुरदरी हथेलियों में
कुछ-कुछ ज्यादा है वे रंग जो तुम
अपने चेहरे पर चाहती हो
एक वह है जो दूसरे में दखल किए जाता है
दुल्हनें इसलिए भी शरमाती हैं कि चाहती
भी हैं दिखना लेकिन तुम ऐसे शरमाती हो
जैसे धीमे-धीमे दुनिया से टर लेती हो
जैसे तुमने जान ली है थोड़ी-सी लज्जा और
थोड़े से भरोसे के साथ दिख जाने की कला
जैसे तुम पहली बार उजाले में आई हो
कोई तेरी पलकों के ठाठ देखकर
चौंक पड़ेंगे
कुछ भले लोगों की तरह सँभलेंगे
कुछ इंतजार करेंगे बेचैनी से
मेहँदी के घटने के दिन
कुछ ऐसे देखेगें लापरवाही से जैसे नहीं देखते हो
अच्छा हो तुम उन्हें भी ऐसे ही देखो
जैसे न देखती हो
जैसे तुम समझ गई हो अपना होना
समय की कठिनाइयों में यह भी काम आएगा
अपने टूटे-फूटे बचपन की किताब को
तुम बंद कर देती हो
जैसे शाम होते ही दिन खत्म हो जाता है
ऐसे ही गुज़रो तुम बहुत समय तक
मचल-मचल कर इस जीवन को गाढ़ा कर दो।
अमरूद वाला
लुंगी बनियान पहिने अमरूद वाले की विनम्र मुस्कराहट में
मोटी धार थी, हम जैसे आटे के लौंदे की तरह बेढब
आसानी से घोंपे गए
पहुँचे सीधे उसकी बस्ती में
मामूली गर्द भरी चीजों को उलटते-पुलटते
थोड़े से बर्तन बिल्कुल बर्तन जैसे
बेतरतीबी में लुढ़के हुए
बच्चे काम पर गए कई बार का उनका
छोड़ दिया रोना फैला फ़र्श पर
एक तीखी गंध अपनी राह बनाती,
भरोसा नहीं उसे हमारी आवाज़ का।
पुश्तों का बयान
हम तो भाई पुश्तें हैं
दरकते पहाड़ की मनमानी
सँभालते हैं हमारे कंधे
हम भी हैं सुन्दर, सुगठित और दृढ़
हम ठोस पत्थर हैं खुरदरी तराश में
यही है हमारे जुड़ाव की ताकत
हम विचार और युक्ति से आबद्ध हैं
सुरक्षित रास्ते हैं जिंदगी के लिए
बेहद खराब मौसमों में सबसे बड़ा भरोसा है
घरों के लिए
तारीफ़ों की चाशनी में चिपचिपी नहीं हुई है
हमारी आत्मा
हमारी खबर से बेखबर बहता चला आता
है जीवन।
पुश्ता : भूमिक्षरण रोकने के लिए पत्थरों की दीवार। पहाड़ों सड़कें, मकान और खेत पुश्तों पर टिके रहते हैं।
6 comments:
behad hi umda aur behatarin rachana.
शुक्रिया इन्हें पढ़वाने के लिए. आशा की नदी में तैरती, कवितायें.
इस स्वीकारोक्ति के साथ कि मैंने सकलानी जी को बहुत कम पढ़ा है यह वादा कि यह संकलन न केवल पढ़ा जाएगा बल्कि इस पर विस्तार से लिखा भी जाएगा...
Sankalan ke lie badhai. is sangrah ke bare men AsadJi se sun chuka hun. ab padhne ki beqrari hai
# ashok k pandey, :)
# मैं पुश्त = पीढ़ी (जेनेरेशन ) समझता रहा.फुट नोट पढ़ कर फिर से कविता पढ़ी और समझ भी आई. *पुश्ता* खूबसूरत शब्द है.पहली बार सुना है. इस मे बहुत वज़न है, और पुख्तगी भी, सम्भावनाएं भी.इस कविता मे इस का सुन्दर उपयोग हुआ है. लाहुल मे रिटेनिंग वाल को *डंगा* कहते हैं.इस शब्द से परिचय के लिए आभार!
Anonymous noreply-comment@blogger.com
Jan 26 (1 day ago)
to me
Anonymous has left a new comment on your post "हम विचार और युक्ति से आबद्ध हैं":
Thanks for sharing this with us. i found it informative and interesting. Looking forward for more updates..
Posted by Anonymous to लिखो यहां वहां at January 26, 2012 11:10 PM
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