Friday, February 28, 2014

मध दा ने कर दी है दिन की शुरूआत



विजय गौड़

गांव और शहर दो ऐसे भूगोल हैं जो मनुष्य निर्मित हैं। उनकी निर्मिति को मैदान, पहाड़ और समुद्र किनारों की भौगोलिक भिन्नता की तरह नहीं देखा जा सकता। भिन्नता की ये दूसरी स्थितियां प्रकृति जनक हैं। हालांकि बहुधा देखते हैं कि गांव के जनसमाज के सवाल पर हो रही बातों को भी वैसे ही मान लिया जाता है जैसे किसी खास प्राकृतिक भूगोल पर केन्द्रित बातें। साहित्य में ऐसी सभी रचनाओं को अंाचलिक मान लेने का चलन आम है। यही वजह है कि पलायन की कितनी ही कथाओं को 'कथा में गांव" या 'कथा में पहाड़" जैसे शीर्षकों के दायरे में समेटने की कोशिश जब तक होती रहती है। पलायन की समस्या सिर्फ भौगोलिक दूरियों के दायरे में विस्तार लेते समाज का मसला नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा, बदलते श्रम संबंध और अतिरिक्त पर नियंत्रण की होड़ में विकसित होती बाजार व्यवस्था के नतीजे के तौर पर है। यदि विकास की कोई प्रक्रिया वास्तविक जनतांत्रिक व्यवस्था के विस्तार में आकार लेते कायदे कानूनों के तय मानदण्ड के भीतर जारी रही होती तो शहर और गांव के भेद को न तो चिहि्नत करना संभव होता और न ही उनके बीच कोई बहुत स्पष्ट सीमा रेखा जैसी खिंची हुई होती। गांव में शहर और शहर में गांव जैसे दृश्य देखने को न मिलते। यदि चरणबद्ध प्रक्रिया जैसा कुछ दिखता भी तो दोनों निर्मितियों के बीच की संज्ञा 'कस्बा" वहां हमेशा मौजूद रहता। गांव से शहर और शहर से गांव तक हवाई यात्रा क्षेत्र जैसा न बनता। आदिवासी और जंगल समाज की स्थितियां भी विकास की एक अवस्था में पहुंची होती। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
महेश की कविताऐं ऐसे ही एक भूगोल को पाया जा सकता है तथाकथित विकास के नाम पर जहां विनाश की कथाओं के दिल दहलाने वाले हादसे अक्सर खबरों का हिससा होते सुने जा सकते है। ऐसे भूगोल विशेष का समाज, उसके अन्तर्विरोध और प्राकृतिक भिन्नता में विस्तार लेती प्रकृति से सीधा साक्षात्कार महेश की कविताओं के ऐसे विषय हैं जिन्हें व्यापक दायरे में लिखी जा हिन्दी कविता के बीच अलग से पहचानना मुश्किल नहीं। ''भय अतल में"" उनकी कविताओं के ऐसी ही पुस्तक है जिसमें पहाड़ी पक्षी सिंटोले की आवाज के साथ, घ्ासियारनों के दुख-दर्द को समेटते हुए दुल्हन की डोली की कथाऐं, लच्छू ड्राइवर की गमक में सभ्य होने की कितनी ही तस्वीरें हैं जिनसे महेश के भूगोल को पहचाना जा सकता है। पहाड़ी हिमालय क्षेत्र के जन समाज की संभावनाओं भरी तस्वीर और उन्हें ध्वस्त करने के चालक षडयंत्रों वाली सम्पूर्ण देश-समाज में विस्तार लेती स्थितियों का बयान करती ये कविताऐं मनुष्यता का पक्ष चुनते हुए अपने पाठक संवाद करती हुई हैं। मसलन,
भूल जाता हूं मैं/ यह सारी बातें
अवतरित हो जाता है दुखहरन मास्टर भीतर तक

खड़ा होता हूं जब/ पांच अलग-अलग कक्षाओं के
सत्तर-अस्सी बच्चों के सामने।

यहां भय है तो संभावनाओं के खो जाने का है। जिज्ञासाओं के दुबक जाने का है। निराशा और पस्ती के पसर जाने का है। और इसीलिए इस भय से मुक्ति को तलाशने के लिए अतल हो जा रहे तल को खोजने की कोशिश है। उसे ढूंढ निकालने की स्वाभाविक छटपटाहट है। अपने आस-पास की बहुत जानी-पहचानी स्थितियों से टकराना है। पेशे से अध्यापक महेश की चिन्ताओं में इसीलिए वह बुनियादी शिक्षा जो आदर्श नागरिक तैयार करने वाली पाठशालाओं में जारी है, निशाने में होती है। एक दृष्टि संपन्न शिक्षक के भी अप्रत्याशित व्यवहार को निर्धारित करने वाले शिक्षा तंत्र का मकड़ जाल यहां तार-तार होता हुआ है। प्राइमरी शिक्षा को आवश्यक मानने वाले तंत्र का झूठ यहां स्पष्ट दिखने लगता है जब कविता उस दृश्य-चित्र को अपने पाठक के सामने रखती है कि कक्षाओं के दर्जे का मायने क्या जब एक ही पाठ वह भी एक ही अंदाज में सबको पढ़ने को मजबूर होना पढ़े। यानी कुछ के लिए उस एक पाठ का लगातार दोहराया जाना निराशाजनक होकर सामने आये तो दूसरों के लिए उसका नया लेकिन अबूझपन कक्षा से छलांग लगाकर कूदने की दुस्साहसिक घ्ाटना तक पहुंचने को मजबूर करे। प्रकृति की सुुरम्यता का वर्णन भर नहीं बल्कि प्राकृतिक वातावरण की विशेष स्थितियों के बीच दैनिक जीवन की हलचलों को काव्य विशेष बनाती महेश की कविता में बहुत से चरित्र उभरते हैं, पाठक के भीतर जो हमेशा के लिए उसकी स्मृतियांे का हिस्सा हो जाते हैं। सुमित्रानंदन पंत के बरक्स गोपीदास गायक जैसे पात्रों के जिक्र से भरी महेश की कविता का पक्ष एक छोटे से भू-भाग के वंचित, शोषित जन समाज का पक्ष है। स्वंय को हीन मान लेने वाली नैतिक शिक्षाओं वालंे पाठों ने जातिवादी विभेद भरे जिस समाज को रचा है, महेश उसके हर छलावे को बहुत साफ देख पाते हैं और उसे साफ-साफ रख देने की हर संभव कोशिश करते हैं। कहीं-कहीं उनकी कविताओं को शिल्प के लिहाज से कच्चेपन के साथ देखा जा सकता है लेकिन दृष्टि की मौलिकता में वे अनूठी है।  

हो गई है दिन की शुरूआत/बाजार सजने लगी है
सामने मध दा ने भी खड़ा कर दिया है
अपना साग-पात का ठेला
तरतीब से सजाए/ताजी-ताजी सब्जियां
।।।।।।।।
।।।।।।।।।
ब्ास के चलने से पहले तक
छेख लेना चाहता हूं इसे जी भरकर
क्या पता अगली बार
दिखाई दे या नहीं फिर यहां
छोटी होती हुई इस दुनिया में

शराब ने उत्तराखण्ड के पहाड़ों पर इतना नशा बिखेरा है कि गैर-जिम्मेदार किस्म की मनोवृत्ति वाले पुरूष समाज से हमेशा प्रताड़ित और हर जगह खटती पहाड़ी स्त्री की तकलीफ को और ज्यादा बढ़ाया है। परिवार, बच्चों का भविष्य और अपने समाज की खुशहाली का प्रश्न पहाड़ी स्त्री की चिन्ताओं में हमेशा घ्ार किये रहा है। सेवा-निवृत फौजी को आबंटित होने वाली शराब के नशे की व्याप्तियां सस्ती शराब के लिए गांव भर में ऐसी शराब भटि्टयों के रूप्ा में पैदा हुईं हैं कि भोजन के लिए पैदा होने वाले अनाज तक को नशा पैदा करने वाली खदबदा में स्वाहा कर दिया जाने से अनाज के अभाव में भूखे रह जाने को मजबूर हो जाते गांवों की त्रासदियां न सिर्फ उत्तराखण्ड बल्कि हिमालयी क्षेत्र के दूसरे भू-भागों में भी बहुत आम है। ऐसी विकट स्थितियों के विरोध में ''नशा नहीं रोजगार दो"" - शराबबंदी आंदोलन की आवाज उठाती पहाड़ी स्त्रियों मंें जीवन को बचा ले जाने की अकुलाहट जैसे कितने ही विषय हैं जो हिन्दी कविता में अछूते रहे और उन्हीं आवाजों को महेश की कविताओं सुना-पढ़ा जा सकता है।
हम फालतू नहीं हैं/ न ही हैं हम ऐसी-वैसी औरतें
हम मजबूर औरते हैं जो/ लाख कोशिशों के बावजूद
नहीं ला सकी हैं पटरी में/ अपने शराबी पतियों को।

महेश की कविताऐं उस पहाड़ की कविताऐं हैं, जिसकी आबो-हवा बेशक स्थानीय जन के जीवन में दुश्वारियां भरने वाली हो लेकिन सैलानियों के मनोभावों को सरस बना देती है। जहां तरह-तरह की बे-जरूरत उत्पादों की जरूरत पैदा करवाता बहुराष्ट्रीय पूंजी का चमकदार बाजार कचरे से पूरे भू-भाग को पाट देने की स्थितियां पैदा कर रहा है। ऐसा कचरा जो भौगोलिक संरचना को ही बदल देने पर ही अमामदा है और प्राकृतिक आपदाओं के संकटों से हर वक्त पहाड़ों को ही नहीं, जब-तब स्थानीय जीवन को भी कंपाता रहता है। ऐसे गैर-जरूरी, गैर-सामाजिक, गैर-प्राकृतिक वातावरण को निर्मित करते बाजार के विरुद्ध ही उन पहाड़ी ढलानों को अपनी कविता में पिरोते हुए महेश की कविताऐं प्रतिरोध की नागरिक चेतना होना चाहती है। साग-पात का ठेला लेकर जाता 'मध दा" और उसके जैसे दूसरे कितने ही स्थानीय उद्यमियों द्धारा सजने वाले बाजार के साथ पहाड़ के उस सौन्दर्य को पाठक से शेयर करती हैं जो स्थानीय जन के भीतर भी उत्साह का संचरण कर सकती है।
सामने मध-दा ने भी खड़ा कर लिया है
अपना साग-पात का ठेला
बाजार सजने लगा है।

महेश की कविताओं की विशेषता है कि वे अपने उपजने की पृष्ठभूमि का वर्णन करते हुए स्वंय भी तटस्थ होने का खेल रचती है और उन दर्शकीय चिन्ताओं का हिस्सा होना चाहती जिसके लिए सौन्दर्य के मान दण्ड चम-चमाती दुनिया के रूप्ा में ही मौजूद रहते हैं,
बस के चलने से पहले तक
देख लेना चाहता हूं इसे जी भर कर
क्या पता अगली बार/ दिखाई दे या नहीं फिर यहां
छोटी होती हुई इस दुनिया में।

त्ामाम तरह से जनता के पक्ष को प्रस्तुत करती इन कविताओं पर यदि कोई एक सवाल पूछा जा सकता है तो यही कि सांस्कृतिक होने की 'गैर-सरकारी संस्थाओं वाली" मानसिकता, यूं जिसके आधार पर ही सरकारी नीतियां भी फलीभूत होती हैं, जिसने सारे उत्तराखण्ड को और उत्तराखण्ड के बौद्धिक समाज को अपनी चपेट में लिया हुआ है, उससे महेश भी पूरी तरह मुक्त नहीं। यानी एक गैर-जनपदीय मानसिकता जो सिर्फ दया, करुणा के भावों के साथ सांस्कृतिक झूठ के प्रदर्शन में अपने असलियत के प्रविरोध की किसी भी आशंका को जड़ से मिटा देने वाली चालाकियों में संलग्न है। पोशाक, भोजन और गीत एवं नृत्यों के प्रदर्शनीय संरक्षण वाली स्थितियों में जो खुद को स्थानिकता के पक्ष में बनाये रखना चाहती है। देख सकते हैं तमाम पिछड़ी आर्थिक स्थितियों वाले वे भूगोल जहां संसाधनों की भरमार है और जिन पर कब्जे की लगातार कार्रवाइयां जारी है, ऐसे सांस्कृतिक परिदृश्यों को खड़ा करती वैश्विक पूंजी ने संभावनाशील स्थानिक ऊर्जा को ही अपनी चपेट में लिया है। महेश की कविताऐं भी ऐसी चालाकियों को पकड़ने में चूक जा रही है,

खाना चाहता हूं/ फाफर की बनी रोटी
आलू-राजमा का साग/ छौंक हो जिसमें
सेंकुवा-गंगरैण की।

यहां यह स्पष्ट करना जरूरी लग रहा है कि विशेष प्राकृतिक उत्पादों की इच्छाओं वाली सांस्कृतिक पहचान का तब तक कोई मायने नहीं जब तक इसे किन्हीं इतर कारणों से विशिष्ट मानने वाले मंसूबों को भी ध्वस्त न किया जाये। महेश की इन चिन्ताओं के मायने कि जैव-विधिता वाले प्राकृतिक उत्पाद बचे रहें, तभी ज्यादा सार्थक हो सकते हैं जब ऐसी ही चालाक भाषा में पांव पसारती वैश्विक पूंजी का भी पर्दाफाश होता हुआ हो, वरना दो भिन्न उद्देश्यों वाली लेकिन सिर्फ कुछ तात्कालिक गतिविधियों की समानता वाली स्थिति में स्पष्ट फर्क करना संभव नहीं।

पुस्तक: भय अतल में
रचनाकार: महेश चन्द्र पुनेठा
मूल्य : 125/-
प्रकाशक: आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद।

Tuesday, February 25, 2014

शुद्ध साहित्यिक पुस्तकों वाली सरकारी खरीद से अलग





मंचों से हास्य की बहुत क्षणिक फुहार बिखरने वाले कवियों के रूप्ा में ही मैं काका हाथरसी का जानता रहा। हिन्दुस्तानी कला, संगीत के प्रति उनके गहरे अनुराग वाली गम्भीरता से मेरा कोई परिचय न था। मैं तो हिन्दूस्तानी संगीत की शिक्षा ले रही बिटिया से उसके विषय की एक हद तक जानकारी के साथ उससे बातचीत कर सकने भर के लिए कोई ऐसी पुस्तक खोजना चाहता था जो मुझे हिन्दुस्तानी संगीत से परिचित करा दे। लेकिन जानता था कि हिन्दी में ऐसी किताब खोजना अपने आप में yyyyyyyyyकोई आसान काम नहीं। क्योंकि हिन्दी के प्रकाशन जगत में यदि देखें तो सरकारी खरीद में खपने वाली शुद्ध साहित्यिक पुस्तकों के अलावा अन्य विषयों की पुस्तकों का कोई विशेष प्रकाशन नहीं। मसलन आप खेल संबंधी जानकारियों से वाकिफ होना खहते हैं तो भूल जाइये कि कोई अच्छी किताब आप ढूंढ सकें, विज्ञान, अर्थशास्त्र या अन्य कोई भी विषय। सिर्फ पाठ्य पुस्तकनुमा बेशक मिल जाये लेकिन विषयगत रूप्ा में किताबों को ढूंढने के लिए आपको उन्हीं प्रकाशकों की सूचियों को खंगालना होगा और कहीं गलती से कोई एक-आध किताब मिल भी सकती है। लेकिन उन किताबों का अंंदाज भी साहित्यनुमा ही होगा और पड़ताल करेगें तो पायेगें कि कोई साहित्यकार महोदय ही हैं जिन्होंने फिल्म पर कोई अच्छी किताब लिखी तो प्रकाशक से उसे छाप दिया। किताब ढूंढने की अपनी परेशानी को मैंने पुस्तक मेले में होने के दौरान भाई योगेन्द्र आहूजा से शेयर किया और हम दोनों ही मेले में वैसी कोई किताब ढूंढने लगे। एन0बी0टी0 के स्टाल पर वाद्ययंत्रों की जानकारी देती एक किताब थी जो कभी पहले मैं खरीद चुका था। उसके अलावा कहीं कुछ नहीं दिखा। योगेन्द्र जी की जानकारी में काका हाथरसी का नाम था कि उन्होंने हिन्दूस्तानी संगीत पर शायद कुछ लिखा है। लेकिन बहुत स्पष्टतौर पर वे कुछ बता नहीं पा रहे थे। चूंकि योगेन्द्र जी खुद संगीत के अच्छे अनुरागी हैं और गम्भीर व्यक्ति हैं, इसलिए मैं उनकी जानकारी और यादाश्त को दरकिनार नहीं कर सकता था लेकिन काका हाथरसी जी के नाम के साथ अपने मन मुताबिक किताब ढूंढ पाऊंगा, इस बात के लिए आश्वस्त नहीं हो पा रहा था। हाल नम्बर 18 के भीतर यूंही विचरते हुए यकायक हम एक ऐसे स्टााल के सामने थे जहां गायन, वादन और नृत्य से ही संबंधित पुस्तकें ही तरतीब से रखी थी। यह काका हाथरसी का प्रकाशन था, 'संगीत कार्यालय, हाथरस""।
यकीन जानिये ऐसा विशेष काम बिना गम्भीर हुए संभव नहीं। व्यवसाय मात्र की समझ से भी अंजाम नहीं दिया जा सकता। क्योंकि हिन्दी की सरकारी खरीद यहां वैसा मंजर नहीं रचेगी जो किसी को भी धंधा कर लेने को उकसाने वाला हो। लेकिन यह तय बात बात है कि हिन्द में ऐसे विषयगत प्रकाशकों की रिक्तिता अभी भी एक बड़े बाजार की संभावनाओं के साथ है जो पाठक पर निर्भर हो सकता है। फिल्म पर, पेटिंग पर, मूर्तिशिल्प पर, और भी न जाने कितने ही विषय हो सकते हैं जो नये उभरते उद्यमी को व्यवसाय का आधार दे सकते हैं और शुद्ध साहित्यिक पुस्तकों के अलावा भी अन्य तरह की पुस्ताकों का प्रकाशन हिन्दी में शुरू हो।        

Thursday, February 20, 2014

नीलकण्ठ यहाँ कहाँ से?-यादवेन्द्र

(नीलकण्ठ जैसे पक्षी जमारे जीवन से दूर होते जा रहे हैं,प्रस्तुत है   सह्रदय वैज्ञानिक और इस ब्लाग के सहलेखक यादवेन्द्र का संवेदनशील आलेख)


आज दोपहर धूप में कुर्सी डाल कर पीछे के आँगन में बैठा खाना खा रहा था तो अचानक सामने खूबसूरत सा नीलकंठ दिखाई दिया -- कौवों,तोतों और गिलहरियों से तो रोज़ रोज़ की मुलाक़ात यहाँ होती है। करीब महीने भर पहले एक गिलहरी तो अक्सर मेरी खाट पर बिलकुल सिर को छू कर निकल जाती थी जब मैं खाने के बाद पंद्रह बीस मिनट के लिए खाट बिछा कर लेट  जाया करता था -- उनींदी में गिलहरी के आस पास बिचरने पर उसकी चपलता से पैदा होने वाले कम्पन से मेरी नींद एक झटके के साथ जब जब खुली मैंने उसको दौड़ कर छत से पानी की निकासी के लिए लगाई हुई सीमेंट की मोटी पाइप में घुस कर अदृश्य होते हुए देखा --- लगता मुझ जैसे अधेड़ और सुस्त इन्सान को अपनी फुर्तीली अदा से चिढ़ा रही है। 
तो बात मैं आज के नीलकण्ठ की कर रहा था -- शायद पैंतालीस पचास सालों बाद नीलकण्ठ जैसी बला की चटक रंग बिरंगी चिड़िया को इतने पास से देख रहा था। यूँ देखने को तो पिछले महीने जब चित्तौड़ गया था तब रानी पद्मिनी के महल पर  एक नहीं कई नीलकण्ठ दिखाई दिए थे और पानी के बीचों बीच हमारी पहुँच से दूर महल के कँगूरे पर बड़े आराम से कबूतरों और तोतों के झुण्ड के बीच बैठे इकलौते नीलकण्ठ की अनेक तस्वीरें मैंने अपने नए कैमरे से उतारी थीं -- इन को देख कर देखने वाले को ऐसा लगेगा जैसे मैं उससे हाथ भर की दूरी तक पहुँच गया था पर वास्तविकता यह है कि कैमरे के लेंस को खिसका खिसका कर मैं लक्ष्य से  तीस पैंतीस मीटर दूर रहकर तकनीकी साधनों से नीलकण्ठ के पास होने का एहसास भर पैदा कर रहा था।   

बचपन में पिताजी की तबादलों वाली नौकरी में  हम जहाँ भी रहे  दशहरे में बनारस ज़रूर जाते -- और ख़ास दशहरे के दिन का एक अनिवार्य काम था नीलकण्ठ के दर्शन करना। पूरे बनारस शहर की बात नहीं जानता पर नगवा में हमारा घर गंगाजी के बिलकुल किनारे पर था और वहाँ घर की रेलिंग पर खड़े खड़े हम नीलकण्ठ की प्रतीक्षा करते। सुनते थे कि शहर में कुछ लोग नीलकण्ठ को पिंजरे में डाल कर गली मुहल्लों में घुमाते हैं और घर घर घूम कर उस दिन के लिए निर्धारित लोगों का काम आसान कर देते हैं और  अच्छी खासी कमाई भी कर लेते हैं। पर हम नदी के किनारे रहने वालों को न तो पैसा माँगने वाले कैदी नीलकण्ठ बाबा के दर्शन हुए और न ही उनकी झलक पाने को घर से बाहर जाकर एक कदम का फ़ासला तय करना पड़ा। हमारे घर को लगभग छूते हुए बिजली का तार गुज़रता था और हमें दिनभर में थोड़े थोड़े अन्तराल पर एक नहीं चार पाँच  नीलकण्ठ ऐसे दिख जाया करते थे जैसे उनको मालूम हो कि उस घर की रेलिंग में कुछ बच्चे बड़ी बेसब्री के साथ उनका इन्तजार कर रहे हैं। 

आज का नए ज़माने का नीलकण्ठ नाशपाती की  पत्रविहीन शाखों पर देरतक ठहरा रहा  पर थोड़ी थोड़ी देर बाद निरन्तर नीचे उतरता और फिर ऊपर उड़ कर अपनी जगह पर  बैठता --- लगता जैसे जीवन में एकरसता उसको बिलकुल स्वीकार नहीं। नीचे मेरा माली सब्जियों की क्यारियों में नलके से लम्बी पाइप लगा कर पानी दे रहा था और नीलकण्ठ पेड़ से उतर कर उसी पाइप के मुँह के पास आता  और पानी की धार के बीचों बीच अपनी चोंच लहरा कर ऊपर उड़ जाता। .... मेरी समझ में यही आया कि उसको प्यास लगी थी और पानी की धार देख कर वह वहीँ बैठ गया। कई बार रोशनी की गति से नीचे उतरे नीलकण्ठ की चोंच में लौट ते वक्त कोई और भी चीज दिखाई देती ,पर इन दिनों कीड़े मकोड़ों के धरती से बाहर विचरण करने का समय तो है नहीं। बार बार की कोशिशों से भी मैं यह पता नहीं कर पाया कि लौटते हुए आखिर नीलकण्ठ अपनी चोंच में क्या लेकर जाता है --- बेहद फुर्तीले परिंदे के सामने सत्तावन साल का मेरे जैसा अधेड़ इंसान आखिर कहाँ ठहर पाता। मैं उसके और नज़ दीक जा कर इस दुर्लभ और दिलचस्प खेल को बिगाड़ने की ज़ुर्रत भला कैसे कर सकता था। 

आज का दिन मेरे लिए दशहरे के उसी उत्सव जैसा बीता जब नए कपड़े और मिठाइयों की सौगात की साल भर की प्रतीक्षा सम्पूर्ण और फलीभूत होती थी --- चमत्कार कभी कभी हो ही जाते हैं। सोचता हूँ कल नीलकण्ठ के बारे में ढूँढ कर कुछ और जानकारी इकठ्ठा करूँगा।  

एक बात और : जिस समय नीलकण्ठ के साक्षात सम्मोहन की गिरफ्त में बँधा हुआ था ,मैंने चार लोगों को अपनी तात्कालिक भावनाओं से एस एम एस की मार्फ़त जोड़ने की कोशिश की। … फिर एक और को भी। पाँच लोगों तक पहुँच पाने की मेरी कोशिश इस मायने में पूरी तरह असफल साबित हुई कि इनमें से किसी एक ने भी पलट कर मुझे एक शब्द नहीं लिखा।रात होते होते मुझे लगने लगा कि नीलकण्ठ प्रकरण शायद बुढ़ापे का प्रलाप  हो जिसमें रोजमर्रा की कोई बेहद मामूली चीज़ मुझे अकारण ख़ास लगने लगी हो। … और मैं लोगों की आँखों में उँगली डाल के उनके इत्मीनान और विवेक में खा म खा की ख़लल डाल रहा हूँ --- फिर भी नीलकण्ठ का आज इतनी देर मेरे पास ठहर जाना क्या सचमुच इतना मामूली वाक़या है कि मैं यह सोच कर इसकी चर्चा भी अपनी तरह सोचने वाले मित्रों और परिजनों से करना बंद कर दूँ कि लोग इसको बुढ़ापे की  सनक का नाम देने लग जायेंगे ?
 यादवेन्द्र

Tuesday, February 11, 2014

भारत दुनिया का सबसे जीवन्त लोकतन्त्र है:पुरूषोत्तम अग्रवाल



    दस फरवरी को देहरादून शहर की अलसाई बौद्धिक दुनिया का सन्नाटा तोड़ते हुए आचार्य गोपेश्वर कोठियाल व्याख्यानमाला के पहले  संस्करण में “लोकतन्त्र का भविष्य” पर जोरदार चर्चा हुई.  खचाखच भरे टाउन हाल में  प्रसिद्ध आलोचक और चिन्तक पुरूषोत्तम अग्रवाल का व्याख्यान हुआ.शुरूआत में ही डा.अग्रवाल ने  इस बात को रेखांकित किया कि दुनिया में आत्म-निंदक समाज भारत के सिवा कहीं नहीं है.राजनैतिक रूप से सजग, जागरूक और सक्रिय समाज भी भारत ही है.भारत में आप कहीं भी चले जाइये,आप सिनेमा,क्रिकेट और राजनीति पर बात कर सकते हैं.भारत का नागरिक निरक्षर होते हुए भी राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पूर्णतः शिक्षित है.यह दुनिया का सबसे जीवन्त लोकतन्त्र है.

         अमेरिका को स्वाधीनता पाने के बाद एक समानतामूलक  समाज बनने में दो शताब्दियाँ लग गयीं जबकि भारत में इसके बीज स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान पड़ गये थे.१९३४ की कांग्रेस के करांची प्रस्ताव में स्वाधीन भारत की आर्थिक ,सांस्कृतिक और विदेश नीति के बीच दिख जाते हैं.लोकतन्त्र सिर्फ संख्याओं का मामला नहीं है.सिद्धान्ततः भारतीय लोकतन्त्र में एक अकेली आवाज के लिये भी जगह है.चीन से बार-बार तुलना करने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए डा. अग्रवाल ने चीन में अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल उठाया.

      डा. अग्रवाल  के अनुसार लोकतन्त्र सिर्फ़ संख्या ही नहीं है.संख्या बल सत्य और नैतिकता का निर्णय नहीं कर सकता.लोकतन्त्र में बहुमत की तानाशाही के लिये कोई जगह नहीं हो सकती.लोकतन्त्र संख्याओं के साथ संस्थाओं की गरिमा और मर्यादा का संतुलन है.

डा अग्रवाल का स्पष्ट मानना था कि भारतीय संविधान में  बुनियादी इकाई व्यक्ति है,समूह नहीं.सत्ता की भी एक मर्यादा है.नेता सिर्फ  जनता का प्रतिनिधि नहीं है.नेतृत्व के पास जनता को शिक्षित और मर्यादित करने की भी जिम्मेदारी है.भारत जैसे देश में बहुत से आधुनिक मूल्य हमारी परंपरा में सहज ही मौजूद हैं.राज्य के पास दंड का सिद्धान्त जो यूरोप में  रूसो के सोशल काण्ट्रेक्ट की शक्ल में बहुत बाद में आया महाभारत के शान्ति पर्व में भीष्म के मुख से सुनायी पडता है.    

            लगभग एक घण्टे के व्याख्यान में डा अग्रवाल ने श्रोताओं को पूरी तरह से बाँधे रखा.उनके व्याख्यान के बाद श्रोताओं से प्रश्नोत्तर का डेढ़ घण्टे लम्बा दौर चला जो बेहद रोचक , विचारोत्तेजक और किंचित सनसनीखेज भी कहा जा सकता है.प्रश्नकर्ताओं में छात्र, महिलायें, राजानेता, सामाजिक-सांस्तृतिक कार्यकर्ता और पाठक शामिल थे.समयाभाव के कारण इस दौर को श्रोताओं की अनिछ्छा के बावजूद रोक देना पड़ा.पुरूषोत्तम अग्रवाल के साहित्य से लेकर दिल्ली और तेलंगाना की राजनीति से उठे सवाल पूछे गये.जिनमें से कुछ सवालों की बानगी

  क्या कोई व्यक्ति सत्ता प्राप्त करते  ही प्रतिरोध के अपने लोकतान्त्रिक अधिकार से वंचित हो जाता है?

  क्या प्रत्यक्ष लोकतनत्र की कोई संभावना?

  तेलंगना के मुख्य-मत्रि के पास धरने पर बैठने के अलावा और कौन से रास्ते हैं?

   क्या नामावर सिंह ने निर्मल वर्मा की उपेक्षा की?

   इधर कहानियों में सक्रिय हुए पुरूषोत्तम अग्रवाल की कहानियों में तो उनके इस व्याख्यान में व्यक्त विचारों की कोई झलक नहीं है?