द दस
फरवरी को देहरादून शहर की अलसाई बौद्धिक दुनिया का सन्नाटा तोड़ते हुए आचार्य गोपेश्वर
कोठियाल व्याख्यानमाला के पहले संस्करण में
“लोकतन्त्र का भविष्य” पर जोरदार चर्चा हुई. खचाखच भरे टाउन हाल में प्रसिद्ध आलोचक और चिन्तक पुरूषोत्तम अग्रवाल का
व्याख्यान हुआ.शुरूआत में ही डा.अग्रवाल ने इस बात को रेखांकित किया कि दुनिया में आत्म-निंदक
समाज भारत के सिवा कहीं नहीं है.राजनैतिक रूप से सजग, जागरूक और सक्रिय समाज भी भारत
ही है.भारत में आप कहीं भी चले जाइये,आप सिनेमा,क्रिकेट और राजनीति पर बात कर सकते
हैं.भारत का नागरिक निरक्षर होते हुए भी राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पूर्णतः
शिक्षित है.यह दुनिया का सबसे जीवन्त लोकतन्त्र है.
अमेरिका को स्वाधीनता पाने के बाद एक समानतामूलक समाज बनने में दो शताब्दियाँ लग गयीं जबकि भारत में
इसके बीज स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान पड़ गये थे.१९३४ की कांग्रेस के करांची प्रस्ताव
में स्वाधीन भारत की आर्थिक ,सांस्कृतिक और विदेश नीति के बीच दिख जाते हैं.लोकतन्त्र
सिर्फ संख्याओं का मामला नहीं है.सिद्धान्ततः भारतीय लोकतन्त्र में एक अकेली आवाज के
लिये भी जगह है.चीन से बार-बार तुलना करने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए डा. अग्रवाल
ने चीन में अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल उठाया.
डा.
अग्रवाल के अनुसार लोकतन्त्र सिर्फ़ संख्या
ही नहीं है.संख्या बल सत्य और नैतिकता का निर्णय नहीं कर सकता.लोकतन्त्र में बहुमत
की तानाशाही के लिये कोई जगह नहीं हो सकती.लोकतन्त्र संख्याओं के साथ संस्थाओं
की गरिमा और मर्यादा का संतुलन है.
डा अग्रवाल का स्पष्ट मानना था कि भारतीय संविधान
में बुनियादी इकाई व्यक्ति है,समूह नहीं.सत्ता
की भी एक मर्यादा है.नेता सिर्फ जनता का प्रतिनिधि
नहीं है.नेतृत्व के पास जनता को शिक्षित और मर्यादित करने की भी जिम्मेदारी है.भारत
जैसे देश में बहुत से आधुनिक मूल्य हमारी परंपरा में सहज ही मौजूद हैं.राज्य के पास
दंड का सिद्धान्त जो यूरोप में रूसो के सोशल
काण्ट्रेक्ट की शक्ल में बहुत बाद में आया महाभारत के शान्ति पर्व में भीष्म के मुख
से सुनायी पडता है.
लगभग एक घण्टे के व्याख्यान में डा अग्रवाल ने श्रोताओं को पूरी तरह से बाँधे
रखा.उनके व्याख्यान के बाद श्रोताओं से प्रश्नोत्तर का डेढ़ घण्टे लम्बा दौर चला जो
बेहद रोचक , विचारोत्तेजक और किंचित सनसनीखेज भी कहा जा सकता है.प्रश्नकर्ताओं में
छात्र, महिलायें, राजानेता, सामाजिक-सांस्तृतिक कार्यकर्ता और पाठक शामिल थे.समयाभाव
के कारण इस दौर को श्रोताओं की अनिछ्छा के बावजूद रोक देना पड़ा.पुरूषोत्तम अग्रवाल
के साहित्य से लेकर दिल्ली और तेलंगाना की राजनीति से उठे सवाल पूछे गये.जिनमें से
कुछ सवालों की बानगी
क्या कोई
व्यक्ति सत्ता प्राप्त करते ही प्रतिरोध के
अपने लोकतान्त्रिक अधिकार से वंचित हो जाता है?
क्या प्रत्यक्ष
लोकतनत्र की कोई संभावना?
तेलंगना
के मुख्य-मत्रि के पास धरने पर बैठने के अलावा और कौन से रास्ते हैं?
क्या
नामावर सिंह ने निर्मल वर्मा की उपेक्षा की?
इधर कहानियों में सक्रिय हुए पुरूषोत्तम अग्रवाल
की कहानियों में तो उनके इस व्याख्यान में व्यक्त विचारों की कोई झलक नहीं है?
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