Friday, February 28, 2014

मध दा ने कर दी है दिन की शुरूआत



विजय गौड़

गांव और शहर दो ऐसे भूगोल हैं जो मनुष्य निर्मित हैं। उनकी निर्मिति को मैदान, पहाड़ और समुद्र किनारों की भौगोलिक भिन्नता की तरह नहीं देखा जा सकता। भिन्नता की ये दूसरी स्थितियां प्रकृति जनक हैं। हालांकि बहुधा देखते हैं कि गांव के जनसमाज के सवाल पर हो रही बातों को भी वैसे ही मान लिया जाता है जैसे किसी खास प्राकृतिक भूगोल पर केन्द्रित बातें। साहित्य में ऐसी सभी रचनाओं को अंाचलिक मान लेने का चलन आम है। यही वजह है कि पलायन की कितनी ही कथाओं को 'कथा में गांव" या 'कथा में पहाड़" जैसे शीर्षकों के दायरे में समेटने की कोशिश जब तक होती रहती है। पलायन की समस्या सिर्फ भौगोलिक दूरियों के दायरे में विस्तार लेते समाज का मसला नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा, बदलते श्रम संबंध और अतिरिक्त पर नियंत्रण की होड़ में विकसित होती बाजार व्यवस्था के नतीजे के तौर पर है। यदि विकास की कोई प्रक्रिया वास्तविक जनतांत्रिक व्यवस्था के विस्तार में आकार लेते कायदे कानूनों के तय मानदण्ड के भीतर जारी रही होती तो शहर और गांव के भेद को न तो चिहि्नत करना संभव होता और न ही उनके बीच कोई बहुत स्पष्ट सीमा रेखा जैसी खिंची हुई होती। गांव में शहर और शहर में गांव जैसे दृश्य देखने को न मिलते। यदि चरणबद्ध प्रक्रिया जैसा कुछ दिखता भी तो दोनों निर्मितियों के बीच की संज्ञा 'कस्बा" वहां हमेशा मौजूद रहता। गांव से शहर और शहर से गांव तक हवाई यात्रा क्षेत्र जैसा न बनता। आदिवासी और जंगल समाज की स्थितियां भी विकास की एक अवस्था में पहुंची होती। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
महेश की कविताऐं ऐसे ही एक भूगोल को पाया जा सकता है तथाकथित विकास के नाम पर जहां विनाश की कथाओं के दिल दहलाने वाले हादसे अक्सर खबरों का हिससा होते सुने जा सकते है। ऐसे भूगोल विशेष का समाज, उसके अन्तर्विरोध और प्राकृतिक भिन्नता में विस्तार लेती प्रकृति से सीधा साक्षात्कार महेश की कविताओं के ऐसे विषय हैं जिन्हें व्यापक दायरे में लिखी जा हिन्दी कविता के बीच अलग से पहचानना मुश्किल नहीं। ''भय अतल में"" उनकी कविताओं के ऐसी ही पुस्तक है जिसमें पहाड़ी पक्षी सिंटोले की आवाज के साथ, घ्ासियारनों के दुख-दर्द को समेटते हुए दुल्हन की डोली की कथाऐं, लच्छू ड्राइवर की गमक में सभ्य होने की कितनी ही तस्वीरें हैं जिनसे महेश के भूगोल को पहचाना जा सकता है। पहाड़ी हिमालय क्षेत्र के जन समाज की संभावनाओं भरी तस्वीर और उन्हें ध्वस्त करने के चालक षडयंत्रों वाली सम्पूर्ण देश-समाज में विस्तार लेती स्थितियों का बयान करती ये कविताऐं मनुष्यता का पक्ष चुनते हुए अपने पाठक संवाद करती हुई हैं। मसलन,
भूल जाता हूं मैं/ यह सारी बातें
अवतरित हो जाता है दुखहरन मास्टर भीतर तक

खड़ा होता हूं जब/ पांच अलग-अलग कक्षाओं के
सत्तर-अस्सी बच्चों के सामने।

यहां भय है तो संभावनाओं के खो जाने का है। जिज्ञासाओं के दुबक जाने का है। निराशा और पस्ती के पसर जाने का है। और इसीलिए इस भय से मुक्ति को तलाशने के लिए अतल हो जा रहे तल को खोजने की कोशिश है। उसे ढूंढ निकालने की स्वाभाविक छटपटाहट है। अपने आस-पास की बहुत जानी-पहचानी स्थितियों से टकराना है। पेशे से अध्यापक महेश की चिन्ताओं में इसीलिए वह बुनियादी शिक्षा जो आदर्श नागरिक तैयार करने वाली पाठशालाओं में जारी है, निशाने में होती है। एक दृष्टि संपन्न शिक्षक के भी अप्रत्याशित व्यवहार को निर्धारित करने वाले शिक्षा तंत्र का मकड़ जाल यहां तार-तार होता हुआ है। प्राइमरी शिक्षा को आवश्यक मानने वाले तंत्र का झूठ यहां स्पष्ट दिखने लगता है जब कविता उस दृश्य-चित्र को अपने पाठक के सामने रखती है कि कक्षाओं के दर्जे का मायने क्या जब एक ही पाठ वह भी एक ही अंदाज में सबको पढ़ने को मजबूर होना पढ़े। यानी कुछ के लिए उस एक पाठ का लगातार दोहराया जाना निराशाजनक होकर सामने आये तो दूसरों के लिए उसका नया लेकिन अबूझपन कक्षा से छलांग लगाकर कूदने की दुस्साहसिक घ्ाटना तक पहुंचने को मजबूर करे। प्रकृति की सुुरम्यता का वर्णन भर नहीं बल्कि प्राकृतिक वातावरण की विशेष स्थितियों के बीच दैनिक जीवन की हलचलों को काव्य विशेष बनाती महेश की कविता में बहुत से चरित्र उभरते हैं, पाठक के भीतर जो हमेशा के लिए उसकी स्मृतियांे का हिस्सा हो जाते हैं। सुमित्रानंदन पंत के बरक्स गोपीदास गायक जैसे पात्रों के जिक्र से भरी महेश की कविता का पक्ष एक छोटे से भू-भाग के वंचित, शोषित जन समाज का पक्ष है। स्वंय को हीन मान लेने वाली नैतिक शिक्षाओं वालंे पाठों ने जातिवादी विभेद भरे जिस समाज को रचा है, महेश उसके हर छलावे को बहुत साफ देख पाते हैं और उसे साफ-साफ रख देने की हर संभव कोशिश करते हैं। कहीं-कहीं उनकी कविताओं को शिल्प के लिहाज से कच्चेपन के साथ देखा जा सकता है लेकिन दृष्टि की मौलिकता में वे अनूठी है।  

हो गई है दिन की शुरूआत/बाजार सजने लगी है
सामने मध दा ने भी खड़ा कर दिया है
अपना साग-पात का ठेला
तरतीब से सजाए/ताजी-ताजी सब्जियां
।।।।।।।।
।।।।।।।।।
ब्ास के चलने से पहले तक
छेख लेना चाहता हूं इसे जी भरकर
क्या पता अगली बार
दिखाई दे या नहीं फिर यहां
छोटी होती हुई इस दुनिया में

शराब ने उत्तराखण्ड के पहाड़ों पर इतना नशा बिखेरा है कि गैर-जिम्मेदार किस्म की मनोवृत्ति वाले पुरूष समाज से हमेशा प्रताड़ित और हर जगह खटती पहाड़ी स्त्री की तकलीफ को और ज्यादा बढ़ाया है। परिवार, बच्चों का भविष्य और अपने समाज की खुशहाली का प्रश्न पहाड़ी स्त्री की चिन्ताओं में हमेशा घ्ार किये रहा है। सेवा-निवृत फौजी को आबंटित होने वाली शराब के नशे की व्याप्तियां सस्ती शराब के लिए गांव भर में ऐसी शराब भटि्टयों के रूप्ा में पैदा हुईं हैं कि भोजन के लिए पैदा होने वाले अनाज तक को नशा पैदा करने वाली खदबदा में स्वाहा कर दिया जाने से अनाज के अभाव में भूखे रह जाने को मजबूर हो जाते गांवों की त्रासदियां न सिर्फ उत्तराखण्ड बल्कि हिमालयी क्षेत्र के दूसरे भू-भागों में भी बहुत आम है। ऐसी विकट स्थितियों के विरोध में ''नशा नहीं रोजगार दो"" - शराबबंदी आंदोलन की आवाज उठाती पहाड़ी स्त्रियों मंें जीवन को बचा ले जाने की अकुलाहट जैसे कितने ही विषय हैं जो हिन्दी कविता में अछूते रहे और उन्हीं आवाजों को महेश की कविताओं सुना-पढ़ा जा सकता है।
हम फालतू नहीं हैं/ न ही हैं हम ऐसी-वैसी औरतें
हम मजबूर औरते हैं जो/ लाख कोशिशों के बावजूद
नहीं ला सकी हैं पटरी में/ अपने शराबी पतियों को।

महेश की कविताऐं उस पहाड़ की कविताऐं हैं, जिसकी आबो-हवा बेशक स्थानीय जन के जीवन में दुश्वारियां भरने वाली हो लेकिन सैलानियों के मनोभावों को सरस बना देती है। जहां तरह-तरह की बे-जरूरत उत्पादों की जरूरत पैदा करवाता बहुराष्ट्रीय पूंजी का चमकदार बाजार कचरे से पूरे भू-भाग को पाट देने की स्थितियां पैदा कर रहा है। ऐसा कचरा जो भौगोलिक संरचना को ही बदल देने पर ही अमामदा है और प्राकृतिक आपदाओं के संकटों से हर वक्त पहाड़ों को ही नहीं, जब-तब स्थानीय जीवन को भी कंपाता रहता है। ऐसे गैर-जरूरी, गैर-सामाजिक, गैर-प्राकृतिक वातावरण को निर्मित करते बाजार के विरुद्ध ही उन पहाड़ी ढलानों को अपनी कविता में पिरोते हुए महेश की कविताऐं प्रतिरोध की नागरिक चेतना होना चाहती है। साग-पात का ठेला लेकर जाता 'मध दा" और उसके जैसे दूसरे कितने ही स्थानीय उद्यमियों द्धारा सजने वाले बाजार के साथ पहाड़ के उस सौन्दर्य को पाठक से शेयर करती हैं जो स्थानीय जन के भीतर भी उत्साह का संचरण कर सकती है।
सामने मध-दा ने भी खड़ा कर लिया है
अपना साग-पात का ठेला
बाजार सजने लगा है।

महेश की कविताओं की विशेषता है कि वे अपने उपजने की पृष्ठभूमि का वर्णन करते हुए स्वंय भी तटस्थ होने का खेल रचती है और उन दर्शकीय चिन्ताओं का हिस्सा होना चाहती जिसके लिए सौन्दर्य के मान दण्ड चम-चमाती दुनिया के रूप्ा में ही मौजूद रहते हैं,
बस के चलने से पहले तक
देख लेना चाहता हूं इसे जी भर कर
क्या पता अगली बार/ दिखाई दे या नहीं फिर यहां
छोटी होती हुई इस दुनिया में।

त्ामाम तरह से जनता के पक्ष को प्रस्तुत करती इन कविताओं पर यदि कोई एक सवाल पूछा जा सकता है तो यही कि सांस्कृतिक होने की 'गैर-सरकारी संस्थाओं वाली" मानसिकता, यूं जिसके आधार पर ही सरकारी नीतियां भी फलीभूत होती हैं, जिसने सारे उत्तराखण्ड को और उत्तराखण्ड के बौद्धिक समाज को अपनी चपेट में लिया हुआ है, उससे महेश भी पूरी तरह मुक्त नहीं। यानी एक गैर-जनपदीय मानसिकता जो सिर्फ दया, करुणा के भावों के साथ सांस्कृतिक झूठ के प्रदर्शन में अपने असलियत के प्रविरोध की किसी भी आशंका को जड़ से मिटा देने वाली चालाकियों में संलग्न है। पोशाक, भोजन और गीत एवं नृत्यों के प्रदर्शनीय संरक्षण वाली स्थितियों में जो खुद को स्थानिकता के पक्ष में बनाये रखना चाहती है। देख सकते हैं तमाम पिछड़ी आर्थिक स्थितियों वाले वे भूगोल जहां संसाधनों की भरमार है और जिन पर कब्जे की लगातार कार्रवाइयां जारी है, ऐसे सांस्कृतिक परिदृश्यों को खड़ा करती वैश्विक पूंजी ने संभावनाशील स्थानिक ऊर्जा को ही अपनी चपेट में लिया है। महेश की कविताऐं भी ऐसी चालाकियों को पकड़ने में चूक जा रही है,

खाना चाहता हूं/ फाफर की बनी रोटी
आलू-राजमा का साग/ छौंक हो जिसमें
सेंकुवा-गंगरैण की।

यहां यह स्पष्ट करना जरूरी लग रहा है कि विशेष प्राकृतिक उत्पादों की इच्छाओं वाली सांस्कृतिक पहचान का तब तक कोई मायने नहीं जब तक इसे किन्हीं इतर कारणों से विशिष्ट मानने वाले मंसूबों को भी ध्वस्त न किया जाये। महेश की इन चिन्ताओं के मायने कि जैव-विधिता वाले प्राकृतिक उत्पाद बचे रहें, तभी ज्यादा सार्थक हो सकते हैं जब ऐसी ही चालाक भाषा में पांव पसारती वैश्विक पूंजी का भी पर्दाफाश होता हुआ हो, वरना दो भिन्न उद्देश्यों वाली लेकिन सिर्फ कुछ तात्कालिक गतिविधियों की समानता वाली स्थिति में स्पष्ट फर्क करना संभव नहीं।

पुस्तक: भय अतल में
रचनाकार: महेश चन्द्र पुनेठा
मूल्य : 125/-
प्रकाशक: आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद।

3 comments:

आशुतोष कुमार said...

कविता के मर्म की ठीक पहचान की गयी है , जिनमें पहाड़ की खुरदरी पीडाएं भी हैं और सैलानी सौन्दर्य-बोध की विडम्बनाओं की तरफ इशारा भी. उद्दृत पंक्तियों से ऐसा नहीं लगता कि ये कवितायें वैश्विक पूंजी के खूंखार सायों से अनजान हैं .देखा जाए ये साए इन पंक्तियों में भी दिखाई दे जा सकते हैं -खाना चाहता हूं/ फाफर की बनी रोटी
आलू-राजमा का साग/ छौंक हो जिसमें
सेंकुवा-गंगरैण की।

स्वप्नदर्शी said...

विजय आपने बहुत ही अच्छी तरह से भूगोल निर्मित और मानव निर्मित पलायन की विडंबना के भेद को खोला है और बड़ी पूंजी के खेल के सन्दर्भ में जो बात कही है, उसका कहा जाना कई कई बार जरूरी है. और इतनी ही साफगोई और सरल तरीके से कहने के लिए धन्यवाद। अगली दफे आऊंगी तो कोशिश करूंगी कि महेश जी के इस संकलन को खोज सकूँ। अच्छा हो कि इस संकलन की कुछ कविताएं भी यंहा बीच बीच में पोस्ट करते रहे.

Dinesh chandra joshi said...

Vijay bhai,tumahere alekh ko padh kar `bhi atal mein` ki kavitaun ko padne ka man kar raha hai. Bhai Punetha ji ko iske prakashan par badhai.