Sunday, March 25, 2018

पानी के खेल

पहाड़ों में यह बात जहां तहां सुनी जा सकती है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी उसके काम नहीं आती है। यहां तक कि रोजी रोटी के लिए मजबूर कर देने वाले हालातों का निर्धारण करने वाली राजनीति और उनके नेता भी अपने भाषणों में बहुत चबा-चबा कर ऐसी बातें कहने से नहीं हिचकते हैं। जवानी के सामने तो समस्या हमेशा से रोजगार की रही और पानी की नियति तो ढलान पर बढ़ते ही जाना है लेकिन व्यवस्थित तरह से उपयोग कर लेने के बाद भी वह अपनी नियति को पा ही सकता है।

कवि राजेश सकलानी की कविताओं में पानी की यह नियति ही ऐसा रूपक बनकर प्रकट होती है जिसमें न सिर्फ जवानी बल्कि हर वय, हर लिंग और सामाजिक निर्माण में प्रभावी हर गतिविधि संबोधित होने लगती है। दिलचस्प बात यह है कि हाथ छुड़ाकर ढलान पर दौड़ पड़ने वाले पानी की स्वाभविकता को उस तरह से कोसना उनके यहां सुनाई नहीं पड़ता जिसका जिक्र ऊपर हुआ है। बल्कि उनकी कविताएं- खिलदंड, उछलते, हंसते पानी की तस्वी्र में पानी की उस ताकत से परिचित कराती है, जो जल स्रोतों के रूप में फूट कर और अन्य तरह से भी, जीवन का आधार बन जाने पर यकीन करता हुआ है। कई बार तो दुश्मन से नजर आते मंत्री, संतरी और मुख्य मंत्रियों को भी  वांछित तवज्जों नहीं देता, बल्कि उनका मखौल उड़ाने पर अमादा रहता है। उसकी निगाह हर सामान्यजन की अनूठी सुंदरता के साथ है, जबकि खबरों में तो मुंह में लार भरे रहने वाला मुख्यमंत्री ही छाया है।
 राजेश सकलानी की कविताओं का यह मिजाज एक ओर तो अपने लोगों से उनके जैसा हो रूप तक धर लेने वाले गांधी के प्रभाव में है, वहीं दूसरी ओर संघर्ष की वर्गीय अवधारणा पर यकीन करते हुए है। 

यह खुशी की बात है कि कवि राजेश सकलानी आजकल अपने नये कविता संग्रह ‘’पानी के खेल’’ की पांडुलिपि तैयार करने में जुटे हैं। ‘’सुनता हूं पानी गिरने की आवाज’’ और ‘’पुश्तोंं का ब्यान’’ उनके दो महत्वपूर्ण संग्रह पूर्व में प्रकाशित हैं। 

 विगौ



पानी है तो मचलेगा


हाथ छुड़ा कर भागेगा
हंसते हंसते थक जायेगा
रो जायेगा
सो जायेगा
जागेगा तो उछलेगा

पानी है तो फूटेगा।



मुख्यमंत्री


ये मुख्यमंत्री हंसता हुआ सा है
खबरों में यह छाया हुआ सा है
लार मुँह में भरा हुआ सा है
कौन मानेगा यह नया सा है।

इत्ता सा मंत्री


पुलिसजनों तुम खिलौनों की तरह लगते हो
इत्ते से मंत्री की चौकसी में
जैसे वह लोकहित में जोखिम उठाता है
जैसे वह पुरानी सदी का बादशाह है
जैसे वह महान अभियान का पुरोधा है
जैसे वह दूसरे ग्रह से आया है
जैसे उसका घर कोई किला है
जैसे हम दूसरी रियासत के जासूस है
जैसे वह क्रान्तिदर्शी है
जैसे वह हमें नहीं जानता
जैसे हम उसे नहीं जानते।

ये छटाएँ सुन्दर है


हर जना अनिवार्य रूप से सुन्दर है
और अपने रूप से बहक गया है
कुछ कम पलों के लिए सुन्दर है
कि निगाहों में आने से रह जाते हैं
अकेले में उन्हें खुद भी पता नहीं चलता

उधाड़ते चलो रास्ते में उन चीजों को
जो उन्हें दबा देती है
उनकी आवाज की ऊपरी झिल्ली को
हल्के नाखून से पलट दो
देखते रह जाओ पनीर जैसी बनावट को
जो गुलाब के रस से भीगा हुआ है
और खरगोश की तरह धड़कता है

उनकी पहचान की छटाएँ सुन्दर है
और वे सारे इन पर्दों को हटाकर भी सुन्दर है।

हिन्दू या मुसलमान के चेहरे को बांई ओर से देखो
नाक की परछाई दांई ओर हिलती हुई सुन्दर है।

2 comments:

गीता दूबे, कोलकाता said...

खूबसूरत कविताएं। एक ओर जहां राजनीतिक व्यंग्य की तीखी धार है वहीं दूसरी ओर मानवीय दृष्टिकोण भी उभर कर आया है। कवि की खूबसूरती इसी में है कि वह प्रकृति और मानवीय संसार दोनों की सुंदरता को अपनी पार्टी नजर से नहीं केवल देखता परखता है बल्कि उसी शिद्दत से उकेरता भी है। साझा करने के लिए शुक्रिया।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-03-2017) को "सरस सुमन भी सूख चले" (चर्चा अंक-2922) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'