Wednesday, October 5, 2022

मधुपुर आबाद रहे

 

वृहत्तर सरोकारों से जुड़ा काव्य संग्रह : मधुपुर आबाद रहे

किरण सिपानी

 सहलेखन,सहसंपादन के अतिरिक्त गीता दूबे के स्वलेखन की पहली प्रकाशित काव्य कृति है —   'मधुपुर आबाद रहे।पहली संतान की तरह पहली मौलिक पुस्तक भी प्रिय होती है। इस सृजन के लिए गीता दूबे को बधाई।

बड़ी संजीदगी से अपने युग के यक्ष- प्रश्नों से जूझती कवयित्री स्त्री-मन के तहखानों की पड़ताल भी करती है। व्यापक मानव समुदाय से जुड़ी विभिन्न भावों और मूडों की 53 कविताएंँ कवयित्री के उज्जवल भविष्य का शंखनाद करती हैं। कवयित्री के शब्दों में —"कविता की व्यापकता मानव मात्र से जुड़ी संवेदना को खुद में समेट कर उसे विस्तार देती है ,शब्दबद्ध करती है।" उसकी कविताओं में कहीं आतंकवाद का खौफ पसरा है।कहीं बेरोजगारी का टीसता दर्द है।कहीं सिर उठाए आधुनिक जीवन शैली की विडम्बनाएँ हैं।कहीं इंसानियत का गला घोटता बाजारवाद है। कहीं प्रजातंत्र में खूनमखून हो गए अरमानों की पड़ताल है।कहीं बुद्ध के बहाने मूर्ति पूजा की साजिश की पीड़ा है। कहीं प्रकृति और मानव के अंतर्संबंधों की पड़ताल है। कहीं स्त्री-पुरुष के संबंधों के इंद्रधनुषी- सलेटी रंग हैं। कहीं जीवन के केंद्रीय भाव प्यार के रंग-तरंग-व्यंग की बौछार है और कहीं पर अपने गुरुओं का कृतज्ञतापूर्ण स्मरण-नमन है। संग्रह की पहली कविता 'स्त्री होना' से ही स्त्री होने की विडंबना का एहसास हौले -हौले पाठक के जेहन में उतरने लगता है। चौंसठ कलाओं में दक्ष होकर भी स्त्री देह की धुरी पर ही टँगी होती है।हकीकत को बयांँ करती कवयित्री के शब्द हैं:


स्त्री होना

विषैले सांँपों की संगत को

तनी हुई रस्सी समझकर चलना होता है।

 

परंपरा और आधुनिकता के बीच 'चिड़ियाँ' सी झूलती लड़कियांँ आँधियों के वार से तार-तार हो जाती हैं। मुक्ति के लिए छटपटाती बेटियों को कवयित्री छद्म मुक्ति के भुलावे से सावधान रहने की सीख देती है। मुक्ति के संदर्भ में कवयित्री की दृष्टि साफ है :

मुक्ति का सही आनंद और आस्वाद

अपनी नहीं, सबकी मुक्ति में है।

जहांँ मुक्त विचार और उदार आचार हो

हर एक के लिए विकास का आधार हो।

 जहाँ अर्गलाएँ तन की ही नहीं

मन की भी कटकर गिरें....

 असहमति के लिए जगह मिले

निर्णय का अधिकार मिले।

 

'मुक्ति कहांँ है' कविता पुरातन से अधुनातन नारी की कहानी बयांँ करती है। नारी स्वयं से ही प्रश्न करती है :

मुक्ति कहांँ है अभी

पूरी समग्रता में।

 

अभी भी तो नारी चीज और वस्तु है, द्वितीय श्रेणी की नागरिक है, वह मनुष्य कहांँ है ? अभी तो वह नए इतिहास को रचने के लिए हुंकार रही है। अपनी सखियों को संगठित होने के लिए पुकार रही है। नए प्रतीकों, नए उपमानों  का एक नया संसार गढ़ना चाहती है वह। सूरज को अपनी हथेली पर उतार लाना चाहती है वह। कोमलता के रेशमी एहसासों की कैद से मुक्त हो  पथरीले रास्तों पर चलकर अपने सही मुकाम तक पहुंँचने की आकांक्षी है वह।

 

प्यार-1, प्यार-2, इंतजार, प्रेम, फासला, सौंदर्य, सूरज, मंजिल आदि कविताएंँ इस विश्वास पर मुहर लगाती हैं कि प्रेम ही जीवन की धुरी है। जीवन की समस्त परिधियांँ इसी से संचालित होती हैं, गतिमान रहती हैं। इस धुरी का स्खलन जीवन को एकाकीपन और उदासी के रंगों से भरकर श्री हीन कर देता है। किसी अपने के प्रेम की नर्म-गर्म रोशनी से सार्थक है कवयित्री का जीवन:

सौभाग्य तिलक जो रच दिया

तुमने मेरे माथे पर अनायास ही

उसकी ऊष्मा से अब तक

घिरा हुआ है मेरा जीवन।

उस सौभाग्य को

अपने प्रशस्त भाल पर

विजय पताका सी धारे हुए

सपनों के संसार में विचर रही हूँ मैं।

 

बसंत की मादक बयार की तरह प्रेम सांँस-सांँस को महका देता है। प्यार की ताजा सुवास व्यक्ति के पोर-पोर में घुल जाती है। असीम संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं। जीवन को एक मकसद मिल जाता है। प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य को पीने के लिए प्रिय का स्मरण कितना स्वाभाविक होता है :

इस अद्भुत अप्रतिम सौंदर्य को निहारते हुए

जाती है

अनायास तुम्हारी याद।....

इस सौंदर्य को संजो पाना

बटोर पाना

अकेले मेरे वश की बात भी तो नहीं।

 

प्यार का रंग सुरक्षित रहे तो दुनिया बेनूर नहीं होती। पर आधुनिक समय में मनुष्य पर स्वार्थ इतना हावी हो गया है कि वह अपनी जिंदगी की ताल को बिखेरने पर आमादा हो गया है।प्रेम के शाश्वत पाठ को पढ़ने के लिए मनुष्य को प्रेम के प्रतीक मधुपुर के पास लौटना ही होगा:

मधुपुर

ऐसे ही रहना आबाद

अपने अंतर में समेटे

प्रेम का शाश्वत राग।

 हम आएंगे

फिर -फिर तुम्हारे पास

सीखने प्रेम का अद्भुत अनूठा पाठ।

 

मन की धरती पर विचरने वाली इस संग्रह की ढेरों कविताएंँ मानवीय संवेदनाओं को बड़े जीवंत रूप में उकेरती हैं। इन कविताओं में अभिव्यक्त व्यक्तिगत पीड़ा, थकान, विचलन,विराग ,विश्वास, आश्वस्ति पाठक को स्पंदित करते हैं :

ऐसा क्यों होता है

कभी-कभी मन बादल हो जाता है

जरा सी ठेस लगी तो टप टप झड़ जाता है

.....

कतरा कतरा लहू जिगर का

बर्फ  सा जम जाता है।

 

लाजवंती के पौधे सा दुख हद से गुजर जाता है और :

 जो दर्द से दवा बनने की तैयारी में घुट रहा था

भीतर ही भीतर

भीतर ही भीतर।

 

इश्तिहार, काश, मन की धरती, दुख, प्रतिकार स्वीकारोक्ति, ऐसा क्यों होता है आदि कविताएंँ बहुत ही मर्मस्पर्शी हैं।

 

प्रकृति के विभिन्न उपादानों के रूप- सौंदर्य से कवयित्री आंदोलित होती है ।कभी चांँद चिरकालिक शाश्वत मैसेंजर की तरह आज भी संदेश पहुंँचाता सा प्रतीत होता है। कभी कवयित्री को रुमानियत का प्रतीक चाँद नहीं चाहिए, वह तो अपनी हथेली पर सूरज को उतार लाने की कामना करती है। तो कभी उसे दुलारता हुआ जंगल पास बुलाता है :

कहता है, आओ

सुनो जरा हमारी भी तान।

अनदेखे, अनछुए, अद्भुत सौंदर्य से घिरा

जंगल का जादुई परिवेश

बांँध लेता है मन को।

दूर हो जाता है

अजनबियत का अहसास।

 

कवयित्री पीड़ित है कि सभी फेसबुक और व्हाट्सएप पर व्यस्त हैं। किसी को नन्ही गौरैया की चिंता नहीं है। आधुनिक विकास और विनाश जुड़वाँ भाइयों जैसे एक साथ पल्लवित हो रहे हैं। मोबाइल, कंप्यूटर और अनेक इलेक्ट्रॉनिक उपादानों ने जीवन की रफ्तार कई गुना तेज कर दी है। पर मोबाइल टावरों का संजाल और इलेक्ट्रॉनिक कचरे का बेहिसाब जंगल विनाश-लीला रच रहा है। लाखों अवरोधों के बाद भी प्रकृति का वरदान नन्ही गौरैया दुगने जोश से अपने नए सृजन में जुट जाती है।

'घरबंदी' की चार कविताएंँ खाये-पीये-अघायों के सोशलाइजेशन की खोज-खबर लेती हुई भुखमरी के विकराल प्रश्न पर जा टिकती है। कोरोना काल में सरकारी फरमानों की बंदिशें भी दिहाड़ी मजदूरों के सैलाब को रोक नहीं पातीं। 'हथेली पर रख कर प्राण, पाने को सजा से त्राण'  वे निकल पड़ते हैं अपने घरों की ओर। जाने घर की चौखट कब नसीब होगी उन्हें। कब घर वालों के प्यार से सनी रूखी रोटी मिलेगी। घरबंदी के शिकार इन जैसे लोगों के प्रति ये कविताएंँ करुणा की धार बरसाती हैं। उनकी खुशहाली के लिए पाठकों के हाथ दुआओं में उठ जाते हैं।

 

शांतिनिकेतन, चंद्रा मैडम के साठवें जन्मदिन पर, सुकीर्ति दी की मृत्यु पर लिखी कविताएंँ अपने गुरुओं-साहित्यकारों के प्रति प्रणति-निवेदन है। यह स्मरण मन को तृप्त- शांत करता है :

आकुल हमारा मन

खोजता है समाधान

जब किसी समस्या का

शीष पर रख हाथ

वात्सल्य का

दुलार देती हैं आप

नन्हे छौने की तरह।

 

सच्चे मित्र शब्दों-दूरियों के मोहताज नहीं होते। वे हमारी प्राण-वायु होते हैं। बड़े मार्मिक अंदाज में 'गुइयां' कविता सख्य के अद्भुत संबंध को कलमबद्ध करती है :

दोनों हथेलियों पर अपना मासूम उजला चेहरा टिका

बड़े भोलेपन से पूछती तुम,

' गोंइयां बोलबू नाहीं ?'

इतना निश्चल होता तुम्हारा स्वर

कि बरबस हंँस पड़ती मैं

और फिर शुरू हो जाता किस्सों का अनंत सिलसिला।

 

विज्ञान और तकनीक ने हमारे आधुनिक जीवन में अकल्पनीय परिवर्तन किया है। पर पुराने जीवन की कुछ रस्में आज भी हमारे दिलों में कसक पैदा करती हैं। आज :

प्रेम के संदेशे भी

जो कई बार

पढ़ लेने के तुरंत बाद

मिटा भी दिये जाते हैं।

जैसे डिलीट करने मात्र से

डिलीट हो जाती है

वह सूरत भी।

काश! फिर से लिखे जाते खत,

सहेजे जाते उम्र भर।

 

व्यंग्य का पैनापन सिंदूर, कवि गोष्ठी, राज़, न्याय, इंतजार, बाज़ार जैसी कविताओं के माध्यम से हमारे अंतर को भेदता चला जाता है। इंसानियत का गला घोंटता बाजार हमारी मूलभूत आवश्यकता बन गया है। आज के जीवन का शाश्वत सत्य है बेचना और खरीदना:

व्यापार हमारे खून में समा गया है

और हम मुग्ध हैं

अपने इस कौशल पर खुद ही

आखिर कुछ तो सीखा है

हमने अपने प्रभुओं, आकाओं

और तथाकथित लोकनायकों से,

जिन्होंने हमारी हर सांँस को गिरवी रख दिया है

देशी-विदेशी तिजोरियों में।

शरीर की नुमाइश में आत्ममुग्ध स्त्रियों को लताड़ने में कवयित्री कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती :

धड़काती रही तुम

सैकड़ों युवाओं के दिल

बनावटी सौंदर्य की मरीचिका में

भटककर खो बैठे

वे अपनी मंजिल।

 

आतंकवाद, एसिड फेंकने और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से कवयित्री विचलित होती है। वह आलोचक की भूमिका में उतर जाती है। सच्चे प्रेमी तो उदार होते हैं। उनमें अहंकार का लेश मात्र भी नहीं होता। बड़ी बेबाकी से वह कहती है :

 

फेंकते हैं जो एसिड

प्रेमिका के चेहरे पर

नहीं होते प्रेमी

होते हैं शिकारी

या फिर पागल,वहमी

.........

भला कैसा है यह प्यार

झुलसा कर, जला कर

अपनी ही प्रिया को

कर दे, उसका सर्वनाश।

यह तो है,

महज घातक अहंकार।

अहंकार, किसी का भी हो

पुरुष, जाति, देश या धर्म का

अपने साथ लाता है

सिर्फ और सिर्फ

विध्वंसक विनाश।

 

युग के तमाम उतार-चढ़ावों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती हुई कवयित्री आनेवाले उजियारे के प्रति आश्वस्त है:

जन चेतना का, होगा जब विस्तार

अंधेरा छंट जायेगा, छायेगा उजियार।

 

अतुकांत कविताओं के साथ, टेक लिए तुकबंद कविताएंँ, कुछ मुक्तक और गजलें प्रभावित करती हैं। इस संग्रह की भाषा बहते नीर सी है, संतरण करते मन में मिश्री सी घुल जाती है। अक्सर स्त्री सृजनात्मकता को स्त्री विमर्श के चश्मे से निहारने का चलन है। चश्मा उतार कर दीदार होना चाहिए, बात तो तब बने!



पुस्तक: मधेपुर आबाद रहे

रचनाकार: गीता दूबे

प्रकाशक: न्यु वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली

मूल्य: 175/-

1 comment:

Onkar said...

सुंदर सृजन