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Monday, April 8, 2013

दिल्ली :अवधेश कुमार की याद (३)

 
    (अवधेश कुमार की यह लघुकथा लगभग तीस वर्ष पूर्व लिखी गयी थी. आज के समय में इसकी प्रासंगिकता ध्यान खींचती है)
                                    दिल्ली

          उबले हुए अंडे की तरअह ठोस और मृत,गदराया हुआ और मूल्यवान यह शहर मिर्च और नमकदानियों के साथ हर किसी मेज पर सजा हुआ, हर समय उपलब्ध.
        यह शहर अपने से थोड़ा खिसका हुआ शहर है-झनझनाता हुआ एक शहर से चिपका दूसरा से चिपका तीसरा से चिपका चौथा.कैमरा हिल जाने से जैसे तस्वीर में कई एक जैसी तस्वीरें पैदा हो जायें.
        यह शहर हमारे चारों तरफ छिलके के खोल की तरह शामिल हमारी परछाईयों को हमारे शरीरों से नोंचकर उतार फेंकने की कोशिश में तिलमिलाता है और निराशा और भय से चेहरे की जर्दी काली पड़ जाती है.
       पूरे देश पर छाने की कोशिश में निरन्तर मग्न और पीड़ित यह शहर फूटे हुए अंडों के मलबे के ढेर में धँसा हुआ करवट तक लेने में असमर्थ है.
     आमीन.
 


Thursday, April 4, 2013

लिखे जाने से पहले शब्द कितने स्वतन्त्र थे:अवधेश कुमार की याद (२)

(अवधेश कुमार मूल रूप से कवि थे - हालाँकि कुछ लोग उन्हें मूलत: कलाकार मानते रहे. उनकी दो कवितायें प्रस्तुत हैं)



फूल काँच मुर्गा वगैरह

डाली से टूटने के बाद यह फूल
इतने दिन तक खिला रहा.

टूटने के बाद जरा भी नहीं खिला मैं.

काँच के ऊपर इतनी धूल जमने के बाद भी
चमक ज्यों की त्यों बनी रही काँच पर

अपनी धूल झाड़ने के बाद भी मैं रद्दी हो गया.

गर्दन कट जाने के बाद भी मुर्गा दौड़ता रहा
अकड़ के साथ-खून के फौव्वारे छोड़ता हुआ
इस बंद कमरे में.

लिखे जाने से पहले शब्द कितने स्वतन्त्र थे
लिखे जाने के तुरन्त बाद वे मेरी बात की मृत्यु हो गये.

चुपचाप मैं कोशिश करने लगा बनने की फूल
काँच,मुर्गा और शब्द वगैरह : कोई मरी हुई
चीज ताजी;आजाद रहे बहुत दैर तक

रहे बहुत देर तक मरने के बाद भी.


अब भी  

 


मुझे अब भी प्यार करना चाहिए.
मुझे अब भी प्यार करना चाहिए.
मैं अपने आप को कोंचता हूँ


मुझे अब भी अच्छी चीजों में यकीन
रखना चाहिए
मैं अब भी मानता हूँ कि
मुझे अब भी अच्छी चीजों में यकीन
रखना चाहिए

मुझे अब भी स्वप्न देखने चाहिए
मैं जानता हूँ कि
मुझे अब भी स्वप्न देखने चाहिए

मुझे अब भी कोशिश करनी चाहिए
मुझे याद है कि
मुझे अब भी कोशिश करने चाहिए.

मुझे अपने भविष्य को अब भी
ऐसे देखना चाहिए
जैसे कि मेरे पिता ने देखा था.


Wednesday, March 20, 2013

मैं हूँ उन सब भाषाओं का जोड़: अवधेश कुमार की याद (१)






अवधेश कुमार हिन्दी की कुछ विलक्षण प्रतिभाओं में थे.कवि, चित्रकार, कहानीकार,नाटक कार और रंगकर्मी  अवधेश के नाम हिन्दी की कितनी ही प्रसिद्ध /अप्रसिद्ध पुस्तकों के आवरण पृष्ठ भी दर्ज हैं .कितनी ही पत्रिकाओं में उनके रेखाचित्र बिखरे पडे हैं.१४ जनवरी १९९९में यह दुनिया छोड़ चले अवधेश पर ‘लिखो यहाँ-वहाँ’ की विशेष शृँखला में आज प्रस्तुत  हैं उनके दो गीत

मैं हूँ


      जितने सूरज उतनी ही छायाएँ
      मैं हूँ
     उनसब छायाओं का जोड़
    सूरज के भीतर का अँधियारा
    छोटे-छोटे
   अँधियारों का जोड़

   नंगे पाँव चली
  आहट उन्माद की
  पार जिसे करनी
  घाटी अवसाद की
   एक द्वन्द्व का भँवर
    समय की
   कोख में
  नाव जहाँ
  डूबी है
  यह संवाद की

  जितने द्वन्द्व कि
   उतनी ही भाषाएँ
  मैं हूँ उन सब भाषाओं का जोड़



   उग रही है घास


  उग रही है घास
   मौका है जहाँ
          चुपचाप
  जहाँ मिट्टी में जरा सी जान है
   जहाँ पानी का जरा सा नाम है
    जहाँ इच्छा है जरा-सी धूप में
    हवा का भी बस जरा-सा काम
    बन रहा आवास
     मौका है जहाँ
     चुपचाप

     पेड़ सी ऊँची नहीं ये बात है
    एक तिनका है बहुत छोटा
     बाढ़ में सब जल सहित उखड़े
    एक तिनका ये नहीं टूटा
     पल रहा विश्वास
     मौका है जहाँ चुपचाप





Monday, December 8, 2008

शहंशाही में है बालकनी नाम का ठेका

देहरादून की लेखक बिरादरी के, अपने शहर से बाहर, कुछ ही सामूहिक दोस्त हैं। कथाकर योगेन्द्र आहूजा उनमें से सबसे पहले याद किये जाने वालों में रहे हैं। बेशक योगेन्द्र कुछ ही वर्षों के लिए देहरादून आकर रहे पर सचमुच के देहरादूनिये हो गये। यह सच है कि पहल में प्रकाशित उनकी कहानी सिनेमा-सिनेमा को पढ़कर इस शहर केलिखने पढ़ने वाली बिरादरी के लोग उन्हें देहरादून में आने से पहले से ही जानने लगे थे। वे भी देहरादून को वैसे हीजानते रहे होंगे- उस वक्त भी, वरना सीधे टिप-टाप क्यों पहुंचते भला। ब्लाग में अवधेश जी की लघु कथाओं कोपढ़ने के बाद हमारे प्रिय मित्र ने अवधेश जी को याद किया है। उनका यह पत्र यहां प्रकाशित है। पत्र रोमन में था, उसे देवनागरी में हमारे द्वारा किया गया है।
अवधेश जी कविताएं कुछ समय पहले पोस्ट की गयीं थीं। पढने के लिए यहां जाएं

प्रिय विजय

बहुत समय के बाद अवधेश जी की रचनाएं देखने का अवसर मिला। इन्हें इतने समय के बाद दुबारा पढ़ कर शिद्दत से एहसास हुआ कि उनकी असमय मृत्यु हम सबके लिए कितनी बड़ी क्षति थी।

उनके साथ बिताये दिन फिर स्मृति में कौंध गये। शहंशाही में बालकनी नाम के ठेके पर उनके साथ बिताये पल विशेष रूप से याद आये। लगातार बरसात, तेज सर्दी, हवा में हल्की-सी धुंध और समकालीन कविता और कवियों के बारे में उनकी अनवरत और बेशुमार बातें।

वे दिन ना जाने कहां चले गये और अब कभी लौट कर नहीं आयेंगे।

आज इतने समय के बाद में उन दिनों को भावसिक्ता होकर याद कर रहा हूं। लेकिन क्या उन दिनों और पलों को मैंने पूरी तरह डूब कर और शिद्दत के साथ जिया था ? नहीं।

शायद यह इजराइल के कवि इमोस ओज का या पोलैण्ड की कवियत्री विस्सवा शिम्बोरस्का का कथन है कि चूंकि सब कुछ क्षणभंगुर है और एक दिन सब कुछ समाप्त हो जाने वाला है, हमें हर दिन का उत्सव मनाना चाहिए।

अवधेश जी को हिन्दी कविता में वह जगह और पहचान नहीं मिली जिसके वे हकदार थे, हालांकि विष्णु खरे जैसे विद्धान आलोचक उनकी कविताओं के प्रशंसक थे। उन्होंने जिप्सी लड़की पर एक समीक्षा भी लिखी थी जो उनकी किताब "आलोचना की पहली किताब" में संकलित है।

आभारी होऊंगा यदि उनकी कुछ प्रतिनिधि कविताएं (फोटो के साथ हों तो और भी बेहतर है) भी ब्लोग पर उपलब्ध करा सकें। और हां उनके कुछ गीत भी, विशेषकर धुंए में शहर है या शहर में धुंआ

वे बहुत अच्छे पेंटर और स्क्रेचर भी थे। कृप्या उनकी कुछ पेंटिग और स्केच भी उपलब्ध करवायें। संभव हो तो नवीन कुमार नैथानी जी का उन पर लिखा संस्मरण भी।


आपका


योगेन्द्र आहूजा

दिल टेबिल क्लॉथ की तरह नहीं कि उसे हर किसी के सामने बिछाते फिरो

यूं तो अवधेश कुमार अपनी कविताओं या अपने स्केच के लिए जाने जाते रहे। पर अवधेश कहानियां भी लिखतेथे। "उसकी भूमिका" उनकी कहानियों का संग्रह इस बात का गवाह है। उनकी कहानियों में उनकी कवि दृष्टिकितनी गद्यात्मक है इसे उनकी लघु कथाओं से जाना जा सकता है।

अवधेश कुमार

भूख की सीमा से बाहर



उन्होंने मुझे पहले तीन बातें बताईं-
एक: जब तक लोहा काम करता है उस पर जंग नहीं लगता।
दो: जब तक मछली पानी में है, उसे कोई नहीं खरीद सकता।
तीन: दिल टेबिल क्लॉथ की तरह नहीं है कि उसे हर किसी के सामने बिछाते फिरो।

यह कहते हुए मेरे दुनियादार और अनुभवी मेजबान ने खाने की मेज पर छुरी के साथ एक बहुत बड़ी भुनी हुई मछली रख दी और बोले, "आओ यार अब इसे खाते हैं और थोड़ी देर के लिए भूल जाओ वे बातें जो भूख की सीमा के अन्दर नहीं आतीं।"




बच्चे की मांग

बच्चे ने अपने पिता से चार चीजें मांगीं। एक चांद। एक शेर। और एक परिकथा में हिस्सेदारी। चौथी चीज अपने पिता के जूते।

पिता ने अपने जूते उसे दे दिये। बाकी तीन चीजों के बदले उस बच्चे को कहानी की एक किताब थमा दी गई।

बच्चा सोचता रहा कि अपने पैर किसमें डाले ? जूते में या उस किताब में।



बच्चों का सपना


बच्चा दिनभर अपने माता-पिता से ऐसी-ऐसी चीजों की मांग करता रहा जो कि उसे सपने में भी नहीं मिल सकती थीं।

खैर वे उसे नहीं मिलीं।

श्रात को ज बवह सो गया तो उसकी नींद के दौरान उसका सपना उससे वो-वो चीजें छीनकर अपने पास छुपाता रहा जो-जो उसे सपने में नहीं दे सकता था।