यूं तो अवधेश कुमार अपनी कविताओं या अपने स्केच के लिए जाने जाते रहे। पर अवधेश कहानियां भी लिखतेथे। "उसकी भूमिका" उनकी कहानियों का संग्रह इस बात का गवाह है। उनकी कहानियों में उनकी कवि दृष्टिकितनी गद्यात्मक है इसे उनकी लघु कथाओं से जाना जा सकता है।
अवधेश कुमार
भूख की सीमा से बाहर
उन्होंने मुझे पहले तीन बातें बताईं-
एक: जब तक लोहा काम करता है उस पर जंग नहीं लगता।
दो: जब तक मछली पानी में है, उसे कोई नहीं खरीद सकता।
तीन: दिल टेबिल क्लॉथ की तरह नहीं है कि उसे हर किसी के सामने बिछाते फिरो।
यह कहते हुए मेरे दुनियादार और अनुभवी मेजबान ने खाने की मेज पर छुरी के साथ एक बहुत बड़ी भुनी हुई मछली रख दी और बोले, "आओ यार अब इसे खाते हैं और थोड़ी देर के लिए भूल जाओ वे बातें जो भूख की सीमा के अन्दर नहीं आतीं।"
बच्चे की मांग
बच्चे ने अपने पिता से चार चीजें मांगीं। एक चांद। एक शेर। और एक परिकथा में हिस्सेदारी। चौथी चीज अपने पिता के जूते।
पिता ने अपने जूते उसे दे दिये। बाकी तीन चीजों के बदले उस बच्चे को कहानी की एक किताब थमा दी गई।
बच्चा सोचता रहा कि अपने पैर किसमें डाले ? जूते में या उस किताब में।
बच्चों का सपना
बच्चा दिनभर अपने माता-पिता से ऐसी-ऐसी चीजों की मांग करता रहा जो कि उसे सपने में भी नहीं मिल सकती थीं।
खैर वे उसे नहीं मिलीं।
श्रात को ज बवह सो गया तो उसकी नींद के दौरान उसका सपना उससे वो-वो चीजें छीनकर अपने पास छुपाता रहा जो-जो उसे सपने में नहीं दे सकता था।
6 comments:
मानवीय सरोकारों और सूक्षम संवेदनाओं से गुथी ये लघुकथाएं सच मन को छूती हैं ,अवधेश जी को हंस मैं देख और पढ़ते रहें हैं ,एक राजनेतिक पत्रिका मैं मेरे आग्रह पर उन्होंने कुछ कविता और स्केच भेजे थे ,बधाई
अद्भुत कथाएँ हैं...थोड़े से शब्दों में बहुत गहरी बात करती हुई...शब्द शब्द बोलता है...कमाल का लेखन.
नीरज
सिर्फ एक शब्द-
अद्भुत...
हमारा प्रणाम कहें लेखक जी को।
शुक्रिया आपका भी।
यह सराहनीय कार्य है. अवधेश जी का काम इस ब्लोग मे देर से ही सही लेकिन दुरुस्त आया है.
विजय भाई / ये सब पढ़कर बहुत भावुक हो गया हूँ अवधेश भाई के साहचर्य में कविताई और चित्रकारी के अंतर्संबंधों को जी सका --क्या खूबसूरत दिन थे वो ---
कमाल सच में! अद्भुत!
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