नवीन नैथानी
कोई कविता मुझे क्यों अच्छी लगती है?
इसके कई कारण हो सकते हैं- मसलन
कविता पढ़ने के मेरे संस्कार, मेरी अभिरुचियां, साहित्य पढ़ने की प्रक्रिया से उपजा मेरा मूल्य-बोध, दुनिया और समाज को देखने- जांचने की मेरी युक्ति-मेरी वैचारिक बुनावट, मेरे आग्रह और मेरी तात्कालिक मनःस्थिति.
इन में से कुछ कारण समय के साथ बदलते नहीं हैं (बचपन के संस्कार जिस तरह नहीं बदलते बल्कि उन्हेंप्रयत्नपूर्वक बदलना पद़ता है ) या उनके बदलाव की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है. कुछ चीजें परिवर्तनशील हैं. कुछ तेजी से बदलती हैं और कुछ जरा धीरे से.
तो किसी भी कविता के अच्छे लगने या न लगने का मामला नितान्त व्यक्तिगत होने के साथ ही एक विशिष्ट साहित्यिक पर्यावरण से भी जुडा़ हुआ है जिसमें हम पले बढे़ हैं. मुझे जब भी ब्लोग्स देखने का मौका मिलता है तो सुखद लगता है कि हिन्दी कविता के इतने प्रेमी हैं. लेकिन यह भी इतना ही सच है कि लगभग सारे प्रेमीजन कवि भी हैं या कविता लिखने का प्रयास कर रहे हैं. यहां कविता के प्रति एक रूमानी द्रष्टिकोण भी अक्सर नजर आता है. सामान्यतः देखा गया है कि या तो लोग कुछ तुकान्तों को कविता समझने लगते हैं या फिर किसी वाक्य से सहायक क्रियाओं को हटाकर ऊपर नीचे रख देने की प्रवृत्ति पायी जाती है.
मुझे य़ह बात समझ नहीं आती कि बिना छन्द को जाने आप उसे तोड़ने की युक्ति कैसे निकाल सकते हैं? आजकल की कविता हो सकता है कहे कि उसके संस्कार छन्द-मुक्ति के पर्यावरण में बने हैं इसलिये उसे छ्न्दों की तरफ जाने की जरूरत नहीं है.वहां संवेदना को काव्यात्मक पंक्तियों में व्यक्त कर देना भर पर्याप्त है. यह भी कह सकते हैं कि छ्न्दों को तोड़ने का दावा हम नहीं करते.
लेकिन सभी बडे़ कवि छन्दों को साधकर ही आगे बढे हैं. बडी़ कवितायें एक दिन में नहीं होतीं और रोज नहीं रची जाती हैं.
बल्कि कोई भी बडी़ साहित्यिक रचना हमेशा नहीं लिखी जाती. इसके लिये पाठकों को लम्बा इन्तजार करना पड़ता है और लेखक को जिन्दगी भर मेहनत करनी होती है फिर भी तय नहीं है कि कोई बडी़ रचना निकल ही आये.
जिस तरह दुनिया में हर व्यक्ति संत नहीं हो सकता उसी तरह हम साहित्यिक संसार से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि हर रचना महान हो. हां जब तक औसत रचनाओं की आमद है तब तक हम बडी़ रचनाओं की भी उम्मीद कर सकते है.
इस पृष्ठ्भूमि में जब मैं सोचता हूं कि मुझे कोई कविता क्यों अच्छी लगती है तो कई वजहें सामने आती हैं
असंदिग्ध रूप से वे शब्द होते हैं जिनका नया आविष्कार वह कविता कर लिया करती है. देखें -
वे हत्या को बदल देते हैं कौशल में (राजेश सकलानी)
यहां हत्या और कौशल के बीच का संबंध मनुष्य के तकनिकी विकास के साथ छिपे विनाश की स्तिथियों की तरफ तो है ही ,इस हत्यारे समय में जी रहे लोगों की नियति पर टिप्पणी भी है.
कोई साठ वर्ष पूर्व लिखी गयी ये छ्न्द- बद्ध पंक्तियां मुझे इतनी ज्यादा पसन्द हैं कि मैं इन्हे एक उद्बोधन की तरह अक्सर गुन्गुनाता हूं -
तुम ले लो अपने लता-कुंज,सब कलियां और सुमन ले लो
मैं नभ में नीड़ बना लूंगा तुम अपना नन्दन-वन ले लो
मेरा धन मेरी दो पांखें , उड़ कर अम्बर तक जाउंगा
तारों से नाता जोडू़गा, मेघों को मीत बनाउंगा
तुम ले लो अपने लता-कुंज,सब कलियां और सुमन ले लो
मैं नभ में नीड़ बना लूंगा तुम अपना नन्दन-वन ले लो
मेरा धन मेरी दो पांखें , उड़ कर अम्बर तक जाउंगा
तारों से नाता जोडू़गा, मेघों को मीत बनाउंगा
नभ का है विस्तार असीम और मेरे पंखों में शक्ति बहुत
तुम अपनी शाखा पर निर्मित तिनकों के क्षुद्र भवन ले लो
(शालिग्राम मिश्र)
और मेरी सर्वाधिक प्रिय कविता तो आलोक धन्वा की भागी हुई लड़्कियां है जो कोई बीस बरस बाद भी चेतना पर केस में रखे सन्तूर की तरह गूंजती रह्ती है.इस कविता का आवेग ,हाहाकारी व्याकुलता और पुरूषवादी वर्चस्व पर कठोर भर्त्सना इसे एक विलक्षण पाठ्यानुभव बना देते हैं.
अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।
2 comments:
नवीन जी ....मै कविता को दूसरे रूप में देखता हूं ....ऐसी रचना जिसे पढ़कर एक पाठक उससे जुडा हुआ महसूस करे .उसे लगे जैसे उसके भावो को अभिव्यक्ति हुई है ...जैसे अशोक वाजपायी की एक कविता है
मेरा सच बोलना है ऐसा है
जैसे किसी पर्वत पर
अकेले बीमार बच्चे का रोना .......
कभी कोई कविता आदमी के मूड पर भी निर्भर करती है......कुछ उसके तजुर्बे पर .मसलन १६ की उम्र में पढ़ी गयी कविताएं जब ३६ की उम्र में दुबारा पढ़ते है वे अपना दूसरा अर्थ तलाश चुकी होती है .....परसों ही संजीव की एक कविता "गाडीवान "पढ़ी .मुझे कोई बहुत ज्यादा अपील नहीं हुई .....दरअसल रचनाकार से ज्यादा महत्वपूर्ण उसके शब्द होते है ...
हमारे यहाँ दुर्भाग्य से रचनाकार को अधिक महत्त्व दिया जाता है .....फिर भी ढेरो अच्छी कविताये है .....जैसे बोधितिस्व की एक कविता .....तीन लड़किया मुझे बेहद प्रिय है .अच्छी लगी ...
सही कहा. मुझे भी कभी कबीर की झीनी चदरिया अच्छी लगती है, कभी उनके हिन्दू मुस्लिम टाईप दोहे.कॉलेज टाईम मे धूमिल और केदार प्रभावित करते थे, आज विजय्देव नारायण साही उन से आगे के कवि लग्ते हैं. शुरू मे अग्येय का दीवाना था, अब मुक्तिबोध के तनाव के साथ एकात्म होना अच्छा लगता है.
किसी भी कृति को ग्रहण करना बहुत कुछ आप के मन की कंडीशनिंग पर निर्भर करता है. इसी लिए निवेदन किया था कि किसी भी कविता को यों झट्के से खारिज नहीं किया जा सकता. चाहे वह साधारण हो य असाधारण . चाहे चीड़ हो या तीन कॉलमों वाली कविता.
लेकिन बचपन मे निराला की कुछ एक कविताएं पढी थी, जूही की कली, तोड़्ती पत्थर्. इन के सामने न तो उनकी सरोज स्मृति कहीं टिकती है, ना ही शक्ति पूजा .और कुकुर्मुत्ता , जो कभी महान कविता थी आज एक साधरण सी व्यंग्य कविता लगती है.
हो सकता है मेरी धारणाएं बहुत बायस्ड हों. लेकिन यही सच है, और यह कह्ते हुए मुझे कोई परेशानी नही हो रही.
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