कथाकार सुरेश उनियाल की कहानी किताब मौजूदा दुनिया का एक ऐसा रूपक है जिसमें पूंजीवाद लोकतंत्र के भीतर के उस झूठ और छद्म को जो एक सामान्य मनुष्य की स्वतंत्रता के विचार को गा-गाकर प्रचारित करने के बावजूद बेहद सीमित, जड़ और अमानवीय है, देखा जा सकता है। वह विचार जिसने, अभी तक की दुनिया की भ्रामकता के तमाम मानदण्डों को तोड़कर, दुनिया के सबसे धड़कते मध्यवर्ग को अपनी लपेट में लिया हुआ है। उस तंत्र की पूरी अमानवीयता को स्वतंत्रता मान अपनी पूरी निष्ठा और ईमानदारी से स्थापित करने को तत्पर और हर क्षण उसके लिए सचेत रहने वाला यह वर्ग ही उस किताब की रचना करना चाहता है जो व्यवस्था का रूपक बनकर पाठक को चौंकाने लगती है। दिलचस्प है कि वह खुद उस रचना रुपी किताब का हिस्सा होता चला जाता है और कसमसाने लगता है। यह एक जटिल किस्म का यथार्थ है। उसी व्यवस्था के भीतर उसकी कसमसाहट, जिसका संचालन वह स्वंय कर रहा है, जटिलता को सबसे आधुनिक तकनीक की बाईनरीपन में रची जाती भाषा का दिलचस्प इतिहास होने लगता है जो इतना उत्तर-आधुनिक है कि जिसे इतिहास मानने को भी हम तैयार नहीं हो सकते। ज्यादा से ज्यादा कुशल और अपने पैने जबड़ों वाला यह तंत्र कैसे अपना मुँह खोलता जाता है, इसे कहानी बहुत अच्छे से रखने में समर्थ है। कोई सपने और स्मृती की स्थिति नहीं। बस व्यवस्था के निराकार रुप का प्रशंसक उसे साकार रुप में महसूस करने लगता है। स्वतंत्रता, समानता और ऐसे ही दूसरे मानवीय मूल्यों को सिर्फ सिद्धांत के रुप में स्वीकारने वाली भाषा के प्रति आकर्षित होकर दुनिया में खुशहाली और अमनचैन को कायम करने वाली ललक के साथ जुटा व्यक्ति कैसे लम्पट और धोखेबाज दुनिया को रचता चला जा रहा, कहानी ने इस बारिक से धागे को बेहद मजबूती से उकेरा है।
दुनिया के विकास में रचे जाते छल-छद्म और विचारधाराओं के संकट का खुलासा जिस तरह से इस कहानी में होता है, मेरी सीमित जानकारी में मुझे हिन्दी की किसी दूसरी कहानी में दिखा नहीं। कहानी की किताब मात्र एक किताब नहीं रह जाती बल्कि व्यवस्था में तब्दील हो जाती है। क्या ही अच्छा होता यदि इस संग्रह का शीर्षक ही किताब होता।
विजय गौड़
मार्च 2010 की संवेदना गोष्ठी में कथाकार सुरेश उनियाल के कहानी संग्रह क्या सोचने लगे पर आयोजित चर्चा के दौरान संग्रह में मौजूद कहानी "किताब" पर की गई एक टिप्पणी।
1 comment:
यह 'किताब' पढ़ना चाहूंगा…
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