मेरी बहन डा.मधु मगध विश्वविद्यालय के एक कालेज में मनोविज्ञान पढ़ाती है और आजकल भारतीय समाज विज्ञान अनुसन्धान परिषद् (आई.सी.एस.एस.आर.)की फेलोशिप पर भारतीय मध्य वर्ग की सोच और बर्ताव पर एक शोधपूर्ण सर्वेक्षण कर रही है.उस से अबतक के प्रारंभिक नतीजों ( प्रश्नावली और सीधा साक्षात्कार) पर बात करते हुए बड़ी दिलचस्प बात सामने आयी कि जब हम अपने बारे में बताते हैं तो खुद को दूध के धुले और गऊ साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते पर जब उन्हीं मुद्दों की पृष्ठ भूमि में आस पास के तात्कालिक समाज की सोच और बर्ताव के बारे में पूछ जाता है तो हमें वहाँ सिर्फ और सिर्फ गन्दगी और अँधेरा दिखाई देता है...अभी इस सर्वेक्षण के नतीजे अंतिम और निर्णायक स्तर तक नहीं पहुंचे हैं पर समाज के चेहरे पर कुछ रौशनी तो जरुर पड़ती है.इसी सन्दर्भ में बात करते हुए मैंने उसको हाल में प्रकाशित हिंदी के रचनात्मक साहित्य से कुछ उदाहरण दिए जिसमें समाज के बहुमत बर्ताव और अल्पमत बर्ताव और उनको रेखांकित किये जाने के औचित्य पर सवाल उठे.यहाँ प्रस्तुत टिप्पणी उसी चर्चा का हिस्सा है. -यादवेन्द्र |
लखनऊ से अखिलेश के संपादन में निकालने वाली साहित्यिक पत्रिका तद्भव के जनवरी 2011 के 23वें अंक में काशीनाथ सिंह की दो कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं.दोनों कहानियों में एक बात साझा है कि दोनों बड़ी उद्दंड बेशर्मी से आदमी के मन के उजाले के बहुमत को नकारती हैं और अल्पमत अँधेरे को छत से चिल्ला चिल्ला कर उजागर करती हैं. अभी हम पहली कहानी खरोंच से बात शुरू करते हैं.
बनारस के कासी गुरु तो लगता है काशीनाथ सिंह के पेटेंटशुदा नायक हैं सो वो यहाँ भी अपनी पूरी सजधज और दबंगई के साथ मौजूद हैं...उनको अट्ठाईस साल की जवान उम्र में गाँव से बनारस आना पड़ता है नौकरी के लिए और अपनी नौकरी के साथ साथ कमाऊ पत्नी के साथ वे मस्ती से जीवन यापन करते हैं.गाँव से आते हुए लोगों ने बनारस शहर की शान में उन्हें जो कुछ बताया वो सिर्फ इसके लूट खसोट वाले अपराधी चरित्र के बारे में था मानों यह दुनिया का इकलौता पूरी तरह से एक लुटेरा शहर ही हो...हाँ,पिता ने जरुर चलते हुए बड़े उदात्त भाव से अपनी गठरी और लंगोटी सँभालने जैसी कोई हिदायत दिए बगैर उन्हें उनके बिरासत में मिले पारिवारिक और सामाजिक संस्कार याद दिलाये थे: गरीबी के दिन भूलना मत,दिन दुखियों की मदद करना,दूसरों के साथ सुख दुःख बाँटना, औरों की बरक्कत में ही अपनी बरक्कत समझना... शुरू में कासी गुरु साईकिल से अपने काम पर जाया करते थे पर देर सबेर हो जाने के कारण झिडकियां सुनने पर मोटरबाइक खरीद ली.उस से उनको इतना लगाव था कि हर दूसरे दिन साफ़ करते,हमेशा चकाचक रखते और उसपर किसी तरह की खरोंच लग जाने की आशंका से ही सिहर जाते. पर भयंकर गर्मी में एकदिन सुनसान पड़े एक चौराहे पर आखिर यह अनहोनी हो ही गयी...एक साईकिल पर सवार दो लड़के गली से निकल आए और भिडंत हो गयी...जाहिर है मोटरबाइक तो मजबूत और श्रेष्ठ साबित हुई और साईकिल और उसपर सवार दोनों लड़के घायल होकर धराशायी हो गए...एक सड़क पर तो दूसरा नाली में जा गिरा.मोटरबाइक की चमक दमक बिगाड़ने की जुर्रत करने के लिए उनको गालियाँ देते हुए एक पल को ठिठकने के बाद कासी गुरु आगे बढ़ गए..कुछ कदम बढ़ते ही उनको चिंता हुई कि मोटरबाइक को ठीक से निहार लें,कहीं कोई खरोंच न लग गयी हो...वे उतर कर मुआयना करते हैं और खुदा का शुक्र करते हैं कि बच्चे जियें या मरें,उनकी मोटरबाइक तो अनछुई सी बची रह गयी. दुबारा आगे बढ़ने से पहले ही उनके अंदर कहीं सनसनाहट हुई,कोई चीज कुनमुनाई,हिली डुली और आँखें खोल कर बैठ गयी-- दयावान थी,सह्रदय थी .करुणा कातर थी वो चीज...आत्मा शायद इसकी को कहते हैं.. वही आत्मा कासी गुरु को अपने आगोश में ले कर घायल बच्चों तक ले गयी और उनको जल्दी से जल्दी अस्पताल लेजाने के लिए प्रेरित करने लगी....कासी गुरु अपनी मोटरबाइक सड़क पर खड़ा करके आत्मा की आवाज सुनने लगे...पर हुआ यह कि घायल होने का स्वांग रचे दोनों बच्चे कासी गुरु को इधर उधर की बातों में फंसा कर उनकी मोटरबाइक ले कर फरार हो गए...कहानी का लेखक बड़े आश्चर्यजनक ढंग से कहानी के नायक के मन के अंदर से मोटरबाइक गायब होने का सदमा और गम धो देता है... उसकी मोटरबाइक गयी तो गयी,जीवन रहा तो एक गयी तो दूसरी आ जाएगी ...पर उसको बड़ी चिंता यह सताने लगी कि ये ससुरी आत्मा बीच में कहाँ से चली आई... अगर यह इसी तरह रह गयी तो अभी आगे जाने क्या क्या अनर्थ करेगी...काश,इनके बारे में कभी किसी ने चेताया होता...
यह छोटी सी कहानी दरअसल इसी ससुरी आत्मा के प्रति हल्ला बोलकर चेतावनी देने की मंशा से लिखी गयी है...मेरा बेचारा भोला नायक तो इसका शिकार हो ही गया पर ढिंढोरा पीट पीट कर समय रहते यदि यह दुनिया को बता दिया जाये तो लोग सचेत हो जायेंगे...मन से ससुरी आत्मा को जड़ सहित उखाड़ फेंकेंगे...और सुख चैन से जीवन यापन कर पाएंगे...धिक्कार है समाज के तमाम बड़े बुजुर्गों,ज्ञानियों और लोक नायकों को इतनी छोटी सी बात को लोगों के मानस पटल पर अबतक दर्ज नहीं कर पाए...परम ज्ञानी काशीनाथ सिंह जैसों को इसपर कहानी लिखने के लिए समय,कागज और स्याही बर्बाद करनी पड़ी...मोटरबाइक तो खरोंच से जैसे तैसे बच गयी पर मानवता के शरीर पर ससुरी आत्मा एक कुरूप से खरोंच की तरह दिखाई दे रही है...इसका उन्मूलन अनिवार्य है, अन्यथा यह आगे जाने क्या क्या और अनर्थ करेगी...इस शुद्धिकरण अभियान में यह भी जोड़ देना चाहिए कि पंडित सुदर्शन की अमर कहानी हार की जीत को खोज खोज कर जब्त कर लिया जाये, उसको मानवता के लिए खतरनाक घोषित किया जाये और उसकी जगह काशीनाथ सिंह की इस कहानी को स्थायी तौर पर चिपका दिया जाये.
हाँलाकि इस कहानी में सब कुछ शीशे जैसा साफ़ है फिर भी हमें यह सोच विचार करने का समय तो निकालना ही पड़ेगा कि समाज घायल और संकट में पड़े हुए लोगों की मदद के बहुतायद बर्ताव पर चलता है ...या घायल होने का स्वांग रचकर मदद्कर्ता को ही चूना लगा डालने वाले अल्पमत बर्ताव पर.... आंकड़े बताते हैं कि आज भी नदी में डूबने वाले ज्यादातर लोग किसी डूबते को बचाने के अभियान पर निकलने वाले लोग होते हैं...आंकड़े उनको न मालूम हों यह मान लेना मुश्किल है...
4 comments:
मनोवैज्ञानिक अध्ययन के नतीजों की प्रतीक्षा रहेगी ......
बाकी काशी के मानुष को कासी के बारे में का बताना
यहां निकाले गये निष्कर्षों से सहमत हूं! :)
behad gaurtalab teep .
Anonymous
8:13 PM (13 hours ago)
to me
Anonymous has left a new comment on your post "ससुरी आत्मा के खिलाफ चेतावनी":
Excellent blog post, I have been reading into this a bit recently. Good to hear some more info on this. Keep up the good work!
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