उत्तराखण्ड और इस ब्लाग के महत्वपूर्ण रचनाकार डा. शोभाराम शर्मा की पुस्तक "हुतात्मा" के प्रकाशन की सूचना आज प्राप्त होना एक संयोग ही है। २३ अप्रैल १९३० यानी आज ही के दिन पेशावर विद्रोह की वह ऎताहासिक गाथा रची गयी थी जिसमें आजादी के संघर्ष ने एक ऎसा मुकाम हासिल किया कि जिसकी रोशनी में एक सच्चे भारतीय नागरिक के चेहरे की पहचान साम्प्रदायिकता के खिलाफ़ खडे़ होने पर ही आकार लेती है। पेशावर का यह विद्रोह रायल गढ़वाल रायफ़ल के उन वीर सैनिको का विद्रोह था जो निहत्थे नागरिकों पर हथियार उठाने के कतई पक्ष में न थे। चंद्र सिंह गढ़वाली के नेत्रत्व में यह अपने तरह का सैनिक विद्रोह कहलाया। डा. शोभाराम शर्मा ने चंद्र सिंह गढ़वाली के जीवन पर आधारित महाकाव्य को रचा है और इस महत्वपूर्ण दिवस पर एक पुस्तक के रूप में उसका प्रकाशन एक बड़ी खबर जैसा है। प्रस्तुत है पुस्तक से ही एक छोटा-सा अंश। पुस्तक प्राप्ति के लिए इस मेल आई डी पर सम्पर्क किया जा सकता है: arvindshekar12@gmail.com
एक शहर था पेशावर जो, कभी हमारा अपना था।
जहाँ न कोई दीवारें थीं, एक हमारा सपना था।।
लेकिन गाथा शेष रही अब, दिल से कोसों दूर वही।
दिल की धड़कन एक नहीं जब, लगता सब कुछ सपना था।।
उस सपने को देख सके थे, अनपढ़ सैनिक गढ़वाली।
नया सवेरा आएगा फिर, मुक्त खिलेगी नभ लाली।।
परिचित था इतिहास न उनका, नहीं किसी ने प्रेरा था।
स्वप्न सुमन थे उनके अपने, रहे अपरिचित बन-माली।।
वन-फूलों से खिले झरे वे, सुरभि समाई धरती में।
बीज न उनके कहीं गिरे पर, बंजर-ऊसर परती में।।
आजादी के फूल खिले हम शीश उठाकर चलते हैं।
वन-फूलों का सौरभ अब भी, दबा पड़ा है धरती में।।
व्यक्ति मिटाया जाता है पर, भाव न मिटने पाता है।।
जालिम लाखों यत्न करें पर, त्याग-तपस्या फलती है।
वह तो ऐसा जादू है जो सिर पर चढ़कर गाता है।।
पेशावर में ज्योति जली जो, उसे बुझाना चाहा था।
खुली जगत की आँखों से ही, खुले छिपाना चाहा था।।
लेकिन उनके यत्न फले कब, फिरा सभी पर पानी था।
सैनिक थे पर रग-रग बहता, शोणित हिन्दुस्तानी था।।
रोमाँरोला1 रजनी-सुत2 ने, खुलकर उन्हें सराहा था।
अपने पण्डित मोहन3 ने भी, मूल्य समझकर थाहा था।।
मृत्यु-वेदना झेल रहे थे, भारत माँ के मोती जब।
पेशावर के गढ़वीरों का, त्याग वरद अवगाहा था।।
भूल न जाना कुर्बानी को, अन्तिम स्वर वे बोले थे।
कितनी पीड़ा थी उस मन में, कहते-कहते डोले थे।।
और जवानी भूल न पाई, पेशावर की भाषा को।
आग न सचमुच बुझने पाई, तोड़ा घ्ाोर निराशा को।।
पेशावर का बीज उगा फिर, सिंगापुर की धरती में।
गढ़वाली थे कफन उठाकर, प्रस्तुत पहले भरती थे।।
बीस हजारी कुल सेना4 में-तीन सहस्र थे गढ़वाली।
कब्र खुदी थी जालिम की, तब लाश पड़ी अब दफना ली।।
नौ सेना5 ने सागर-तट पर, तर्पण उसका कर डाला।
सत्ता ने संकेत समझकर, स्वयं समर्पण कर डाला।।
जमीं विदेशी सत्ता की जड़, सेना के बल-बूते पर।
जिसके बदले-बदले रुख ने, अन्त उसी का कर डाला।।
एक लड़ी सी विद्रोहों की, पेशावर से शुरू हुई।
जिसकी लहरें मणिपुर होती, मुम्बई तक भी पहुँच गई।।
अब न विदेशी सत्ता के हित, अपनी जड़ को खोदेंगे।
और गुलामी चुपके-भुपके, होंठ चबाती चली गई।।
आजादी का सूरज निकला, अपना परचम फहराया।
माँ की पावन गोदी में फिर, सिन्धु खुशी का लहराया।।
लेकिन खुशियाँ बाँट न पाए, भाई-भाई बिखर गए।
जो कुछ अपने पास रहा भी, श्रेय स्वयं का बतलाया।।
पेशावर के वन-फूलों का, सौरभ हमने झुठलाया।
उनकी सारी कुर्बानी को, जान-बूझकर बिसराया।।
उन फूलों की महक निराली, सत्ता की थी गन्ध नहीं।
देश कभी क्या भूल सकेगा, लाख किसी ने भुलवाया।।
1।फ्रांस के प्रसिद्ध विचारक
2।ब्रिटिश कम्युनिष्ट नेता रजनी पामदत्त
3।पंडित मदन मोहन मालवीय
4।आजाद हिन्द फौज
5।सन् 1947 में भारतीय नौसेना ने भी विद्रोह कर दिया था।