&a - महेश चंद्र पुनेठा
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जनपदीय चेतना और लोकधर्मी काव्य प्रवृतितयों के लिए इधर की हिंदी कविता में जिन युवा कवियों का नाम लिया जाता है उनमें आत्मारंजन का नाम उल्लेखनीय हैं। उनकी कविताओं की सबसे बड़ी खासियत है कि उनके यहाँ हिमाचल का पूरा जन-जीवन अपने भूगोल-इतिहास और संस्कृति के साथ उपसिथत होता है। प्रकृति अपनी विविध छटाओं के साथ दिखती है। वहाँ का श्रमशील जन जो पूरी मुस्तैदी के साथ सभ्यता-विकास के तमाम रास्ते अपनी देहों पर उठाए हुए है तथा समाज की अर्थव्यवस्था को 'डंगा की तरह ढहने नहीं देता है] उनकी कविताओं का नायक है। वे स्थानीयता को समकालीन समय की जटिलताओं के बीच रखकर देखते हैं। कवि की अनुभूति और संवेदना का साधारण ,वंचित और उपेक्षित से गहरा रिश्ता है। समाज का हर उपेक्षित और हाशिए में पड़ा उनकी कविता के केंद्र में आता है। वह किसान-मजदूर हो या फिर स्त्री व बच्चा। जो शुचिता के ऊँचे चबूतरे पर विराजमान नहीं है और जिसके पास न देव संस्कृति से जुड़े होने का गौरव है] न महान ग्रंथों में दर्ज मुग्धकारी इतिहास और जो न कोई महान धर्माचारी या महानायक हैं उनकी कविताओं में गौरव प्राप्त करता है। उनकी कविता इस बात की गवाही देती है कि है---- कि जो पूजा नहीं जाता/ नहीं होता इतिहास के गौरवमयी पन्नों में दर्ज वह भी अच्छा हो सकता है। वे लोक की रग-रग से वाकिफ हैं उसकी जीवन-गंध उनकी कविताओं में बसी है। वे पनिहारनों और घसियारनों से बतियाये हैं तथा उनके सुख-दुख के मर्म को समझते हैं। उनके सद्य प्रकाशित पहले कविता संग्रह पगडंडियाँ गवाह हैं की कविताएं इस बात की प्रमाण हैं।
प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में लोकगीतों की गूँज भी है और समूची मानवीय हलचल में डोलते-लहराते लोकवृक्ष की लय भी। यह कवि दूर महानगर में बैठा स्मृतियों के आधार पर अपने अंचल पर या छूटी चीजों पर कविता नहीं लिख रहा बलिक लहराते मकई के खेतों के छोर पर खड़ा सामने पसरे खेतों को देख कविता रच रहा है अर्थात अपनी जमीन पर रच-बस कर। वह पहले कसकती तान की गूँज को अपने भीतर महसूस करता है फिर अपनी कविता में उतारता है। खोती जा रही सामूहिकता की जीवन-संस्कृति के बारे में पूछता है- कहाँ है वह गाँव भर से जुटे बुआरों का दल
कहाँ है वह बाजों-गाजों के साथ चलती गुड़ार्इ का शोर.....युवक-युवतियों के टोलों के बीच
.....किसी का काम न छूटने पाएबारी-बारी सबके खेतों में उतरता सारा गाँव। आज कहाँ रह गयी यह चिंता। व्यकितवाद हावी हो गया है। धन के बढ़ते प्रभाव ने एक आदमी को दूसरे आदमी की जरूरत को ही समाप्त कर दिया है। भार्इ-बिरादर या पड़ोसी की अहमियत को कम कर दिया है। जिसके पास धन है उसे रिश्तों बोझ लगने लगे हैं। आज सिथति यह हो गयी है- खेतों में अपने-अपने जूझ रहे सब खामोशपड़ोसी को नीचा दिखातेखींच तान में लीनजीवन की आपाधापी में जाने कहाँ खो गयासंगीत के उत्सव का संगीत। जीवन का बदलना स्वाभाविक और जरूरी है पर उसके चलते जीवन के मानवीय-मूल्यों और सकारात्मक तत्वों का समाप्त होना अवश्य चिंता का विषय है। वही चिंता यत्र-तत्र इन कविताओं में आती है। बोलो जुलिफया रे कविता में कवि के लिए जुलिफया मात्र एक गायन शैली नहीं है जो बुआरा प्रथा में सामूहिक गुड़ार्इ के अवसर पर लोक वाधों की सुरताल के साथ गाया जाता है बलिक- मिटटी की कठोरता में उर्वरता औरजड़ता में जीवन फूँकतेकठोर जिस्म के भीतर उमड़तेझरने का नाम है जुलिफयाचू रहे पसीने का खारापन लिएकहीं रूह से टपकता प्रेमरागऐसे अनन्य लोकगीत तुम। कवि प्रश्न करता है- कैसे और किसने कियाश्रम के गौरव को अपदस्थक्यों और कैसे हुए पराजित तुम खामोशअपराजेय सामूहिक श्रम की। यह कविता पीड़ा है अपराजेय सामूहिक श्रम और श्रम के गौरव के अपदस्थ होने की एक लोकगायन शैली के लुप्त हो जाने की नहीं।
रंजन बदलते वर्तमान के आलोक में अपने लोक को देखते हैंं। वे पुनरुत्थानवादी या भावुकता भरा विलाप करने वाले कवि नहीं हैं। उनके लिए लोक की स्मृतियाँ या दृश्य सजावटी सामान की तरह नहीं हैं जैसा कि महानगरों में रहने वाले अभिजात्य लोगों के लिए होता है। वे लोक को भोक्ता की नजर से चित्रित करते हैं। पहाड़ के कठिन जीवन के संघर्षों और कष्टों को कभी नहीं भूलते हैं। जैसे उनके यहाँ बर्फवारी के सौंदर्य का जिक्र आता है तो उससे स्थानीय जनों को होने वाली परेशानी का भी....जाड़ा कृतार्थ कर जाता शिखरों कोपेड़ भी सहार लेते बर्फ लेकिन घास -मौत से जूझती हर बारकि जीने की शर्त है धूपदिनों हफतों कभी महीनों तकतरसती धूप कोओढे़ हुए छीजत-सी आशा और विश्वासमर-मर कर जीती है घास। इस कविता में घास आम-पहाड़ी की प्रतीक है जो बर्फवारी के कष्टों के बोझ को झेलता है। यहाँ एक है जो बर्फ से लड़ता है और दूसरा जो बर्फ से खेलता है। लड़ने वाला वह है जो बर्फ के आसपास या बीच रहता है और खेलने वाला जो दूर देश से बर्फवारी का आनंद लेने आता है-दौड़ आते दूर-दूर सेपर्यटकों के टोलेभर-भर गर्म कपड़े गर्म सामानदिन-भर पहाड़ों के पेड़ों का सौंदर्यकैद करते आयातित कैमरों मेंमोटे दस्ताने चढ़े हाथ मजे से खेलते बर्फ। एक ओर बर्फ पर चलने की मजबूरी ढोताआदमी है तो दूसरी ओर छकता हुआ बर्फ का विलास । बर्फ पर चलता हुआ आदमी कविता में कवि इन दोनों की चाल की भिन्नता को पकड़ता है। साथ ही सुनता है बर्फ में चलने के लिए मजबूर आदमी के बच्चों से लेकर मवेशियों तक के कट-कटाते दाँतों की आवाज ,बर्फानी हवाओं की सिहरन उससे भी अधिक पिछले वर्ष बर्फ में मिली लाशों की डरावनी स्मृतियों की सिहरन। जिनके लिए बर्फ आश्चर्य नहीं बलिक आफत है जिसके चलते वह बर्फ को सराहता नहीं कोसता है। कवि आम और खास के बीच के अंतर को अच्छी तरह जानता है।टहलते हुए आदमी और काम पर जाते या लौटते आदमी के अंतर को अच्छी तरह पहचानता हैं। दो अलग-अलग वर्गों की दुनिया के दृश्यों को आमने-सामने रखते हुए कवि उनके बीच के अंतर को बखूबी उभार देता है। अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
भागते हाँफते समय के बीचाेंबीच सारी भागमभाग को धता बताते हुए आत्मारंजन तमाम व्यस्तताओं को खूँटी पर टाँग कविता लिखने बैठते हैं तो पूरी तन्मयता और पूरी तल्लीनता से अपने जन और जनपद के सौंदर्य को नर्इ ऊँचाइयाँ प्रदान करते हैं और विद्रूपताओं को दाल के कंकड़ों की भाँति छाँट देते हैं। कुछ उसी तरह जैसे प्रस्तुत संग्रह की पहली कविता में कंकड़ छाँटती स्त्री। एक स्त्री की अन्न को निष्कंकर होने की गरिमा भरी अनुभूति और इस कवि की अपने जन के हर्ष-विषाद को स्वर देने की अनुभूति में बहुत अधिक समानता है। तभी तो कवि दाल में से कंकड़ छाँटती औरत के हाथ को इस रूप में देख पाता है-एक स्त्री का हाथ है यहजीवन के समूचे स्वाद में सेकंकड़ बीनता हुआ। वास्तव में एक स्त्री दाल से ही कंकड़ नहीं बीनती बलिक जीवन में आने वाले तमाम कंकड़ों को बीनकर जीवन को स्वादिष्ट बनाती है। पर दुखद है कि हमारे जीवन में इतनी महत्वपूर्ण स्थान रखने वाली स्त्री का जीवन हाँडी के जीवन से बहुत अलग नहीं है। कितनी समानता है इन दोनों में -तान देती है जो खुद को लपटों परऔर जलने कोबदल देती है पकने में। स्त्री खुद तमाम कष्ट सहन करते हुए अपने परिजनों के लिए सुख का संसार रचती है। उसका श्रम, महक ,स्वाद.....हाँडी की तरह है उसका जीवन जो खुद जलकर दूसरों को स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध कराती है। कवि प्रश्न करता है-सच-सच बताना क्या रिष्ता है तुम्हारा इस हाँडी से माँजती हो इसे रोजचमकाती हो गुनगुनाते हुएऔर छोड़ देती हो उसका एक हिस्साजलने की जागीर साखामोशी से। इस कविता में कब हाँडी स्त्री में बदल जाती है पता ही नहीं चलता है। स्त्री की सदियों की खामोशी और भरे मन की बेचैन कर देने वाली अभिव्यकित यहाँ दिखती है। यह आत्मारंजन का कवि-कौशल कहा जाएगा कि उन्होंने हमारे समाज में स्त्री की सिथति को बताने के लिए बहुत सटीक प्रतीक का प्रयोग किया है।
इधर युवा कवियों की एक बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि स्त्री को लेकर उनमें गहरी संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। वे उसके दु:ख-दर्द को शिददत से महसूस करते हैं। स्त्री के प्रति उनका रवैया पुरुषवादी नहीं है। वे उसकी बराबरी के पक्षधर हैं। उसके योगदान को मुक्तकंठ से स्वीकार करते हैं तथा उसके प्रति कृतज्ञता-भाव से भरे हैं। उन्हें औरत की आँच नंगे बदन में नहीं ,उसके प्रेम-स्नेह-ममता में महसूस होती है-जो पत्थर ,मिटटी ,सिमेंट को सेंकती हैबनाती है उन्हें एक घर। वे जानते हैं स्त्री-पूजने से जड़ हो जाएगीकैद होने पर तोड़ देगी दम। उसे तो चाहिए बस अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने की स्वतंत्रता और मानव की गरिमा। खुलकर हँसने की आजादी ताकि उसे हँसते हुए यह अपराधबोध न हो कि-ऐसे हँसना नहीं चाहिए था उसेवह एक लड़की है। आत्मारंजन अपनी कविताओं में औरत की इस विडंबना पर सटीक चोट करते हैं और उसकी पारदर्शी हँसी जो सुबह की ताजा धूप सीहवाओं में छिटकी है ,से हमारा परिचय कराते हैं। इतना सुंदर बिंब वही कवि रच सकता है जो स्त्री का सम्मान करता हो और सुविधा,लाभ या मनोरंजन केअर्थों से दूर हो । उसे ही एक स्त्री का होना एक सुखद उपसिथति लग सकती है।
कुछ ऐसा ही सम्मान कवि का श्रमसंलग्न लोगों के प्रति भी दिखार्इ देता है। वे श्रम से जुड़ी कि्रयाओं को एकदम अलग तरीके और उनके वास्तविक रूप में देखते हैं। उनकी तह में जाकर समझते हैं। उनमें गहरी अंतदर्ृषिट के दर्शन होते हैं। हममें से अनेक कवियों ने किसान-मजदूरों को श्रम करते हुए थक जाने पर सुस्ताने के लिए पृथ्वी पर लेटे हुए देखा होगा पर किसी ने उनकी तरह नहीं देखा। उन्हें पृथ्वी पर लेटना पृथ्वी को भेंटना लगता है। यह भेंटना पृथ्वी और उसके पुत्रों के बीच रिश्ते की आत्मीयता और प्रगाढ़ता को बताता है। वास्तव में धरती के लाडले बेटे का पृथ्वी पर लेटने का अंदाज ही उसे भेटने जैसा हो सकता है। पृथ्वी से उसका संबंध उसी तरह का हो सकता है जैसा एक बेटे का अपनी माँ की गोद से। यहाँ कवि ने श्रम करते हुए थकी हुर्इ देह का पृथ्वी में लेटने का जो चित्रण किया है वह अदभुत है। ऐसी अलट नींद से किसे ना र्इष्र्या हो उठे। इस नींद में कहीं ना कहीं श्रम का आनंद छुपा हुआ है। इस तरह पृथ्वी में लेटना वास्तव में-जिंदा देह के साथजिंदा पृथ्वी पर लेटना है। कवि इसमें जिस तरह का सुख देखता है वह उसकी शारीरिक श्रम के प्रति अगाध आस्था केा बताता है।एक कवि और मजदूर-किसान ही इस सुख का अनुभव कर सकता है। पृथ्वी से थोड़ा ऊपर जीने वाले इस सुख को नहीं अनुभव कर सकते और न वे मिटटी की महकधरती का स्वाद जान सकते हैं । एक कवि ही आलीशान गददों वाली चारपाइयों में सोने के सुख को इस तरह अंगूठा दिखा सकता है। इस कविता को पढ़ते हुए कबीर याद हो आते हैं-मिटटी से बेहतर कौन जानता हैकि कौन हो सका है मिटटी का विजेतारौंदने वाला बिल्कुल नहींजीतने के लिएगर्भ में उतरना पड़ता है पृथ्वी केगैंती की नोक,हल की फालया जल की बूँद की मानिंदछेड़ना पड़ता हैपृथ्वी की रगों में जीवन रागकि यहाँ जीतना और जोतना पर्यायवाची हैंकि जीतने की शर्तरौंदना नहीं रोपना हैअनंत-अनंत संभावनाओं कीअनन्य उर्वरताबनाए और बचाए रखना। यहाँ कविता मिटटी की महत्ता को भी बताती है और सृजन की भी। सही अथोर्ं में जीतना दूसरे को रौंदना नहीं है बलिक रोपना है अर्थात जीत ध्वंस करने में नहीं बलिक सृजन करने में है। इस कविता को पढ़ते हुए किसी भी शारीरिक श्रम करने वाले का मन एक अतिरिक्त गरिमा से भर उठेगा। उसे अपना काम दुनिया का सबसे बड़ा काम लगने लगेगा। यह संग्रह की बेहतरीन कविताओं में से एक है। कवि ने मिटटी में मिलाने तथा धूल चटाने जैसे मुहावरों की बहुत तर्कसंगत व्याख्या की है। निशिचत रूप से ये मुहावरे विजेताओं के दंभ की उपज और पृथ्वी की अवमानना हैं। उस आदमी की अवमानना है जो धूल-मिटटी में लेटा-लौटा रहता है। पृथ्वी और उसके बेटों से प्रेम करने वाला कवि ही उसके निहिताथोर्ं को इस तरह से पकड़ सकता है। खुद को जमीन से जुड़ा कहने वाला कवि भी न जाने कितनी बार इन मुहावरों का प्रयोग करता है। कुछ उसी तरह से जैसे स्त्री का सम्मान करने वाला भी जाने-अनजाने गुस्से में माँ-बहन की गाली दे देता है।
इसी तेवर की एक अन्य कविता है पत्थर चिनार्इ करने वाले। कविता को पढ़ते हुए बचपन के वे दिन याद हो आते हैं जब मिस्त्री को दीवार चिनते हुए देखते थे तो देर तक डिबिया की तरह पत्थर काटते-छाँटते-बैठाते हुए उसे देखते ही रहते थे। बहुत आनंद आता था। उस बात का बहुत हू-ब-हू चित्रण इन पंकितयों में मिलता है-कि डिबिया की तरहबैठने चाहिए पत्थरखुद बोलता है पत्थरकहाँ है उसकी जगहबस सुननी पड़ती है उसकी आवाजखूब समझता है वहपत्थर की जुबानपत्थर की भाषा में बतिया रहा हैसुन रहा गुन रहा बुन रहाएक-एक पत्थर। इस कविता में एक ओर श्रम का सौंदर्य है तो दूसरी ओर सृजन का सौंदर्य। यह महत्वपूर्ण बात है कि कवि कला को श्रम से अलग नहीं मानता है -आदिम कला है यहसदियों से संचित। बरसों से सधी हुर्इपहुँच रही है एक-एक पत्थर के पासर्इंट नहीं है यहसुविधाजनक साँचों में ढलकर निकली। इस कविता में स्थापत्य कला की बारीकियाँ उतर आयी हैं। यह कविता कवि की इन शिल्पकारों से निकटता को बताती है। उनकी एक-एक गतिविधि पर कवि की बारीक नजर है। कवि कितनी गहरार्इ से जुड़ा है चिनार्इ करने वालों से ये पंकितयां उसकी साक्ष्य हैं- पत्थर चुनता है वहपत्थर बुनता हैपत्थर गोड़ता हैतोड़ता है पत्थरपत्थर कमाता है पत्थर खाता हैपत्थर की रूलता पड़ताधूल मिटटी से नहाता हैपत्थर के हैं उसके हाथपत्थर का जिस्मबस नहीं है तो रूह नहीं है पत्थरपत्थरों के बीच गुनगुनाताएक पत्थर को सौंपता अपनी रूह। यहाँ उसकी कला ही नहीं बलिक उसका संघर्ष और संवेदनशीलता (भीतर-बाहर) भी कविता में व्यंजित होती है। पत्थरों के बीच रहने वाला खुद पत्थर नहीं है। उसकी रूह नहीं है पत्थर। यही उसकी सबसे बड़ी खासियत है जिसके चलते वह कविता की विषयवस्तु बना। कवि की यह पारखी नजर ही कही जाएगी जो लगभग उपयुक्त विकल्प पर ही टिकती है। यहाँ बस नहीं है तो रूह नहीं है पत्थर कहकर कवि बिना कहे यह बात कह देता है कि श्रम से दूर रहने वाले लोग किस तरह आज पत्थरहोते जा रहे हैं।
उनकी कविताओं की बनावट उतनी सरल नहीं है जितनी दिखती है। समाज में फैले बेढंगेपन और कठोरता के बीच से वे मजबूत कविता बुन लेते हैं। उनकी कविताओं में कब सजीव चीजें निर्जीव चीजों के भीतर और कब निर्जीव सजीव के भीतर प्रवेश कर जाती हैं पता ही नहीं चलता है। ये उनकी कविता की बहुत बड़ी खासियत है। रंजन की कलम में जादू है वह सामान्य काम को भी कला की ऊँचार्इ प्रदान कर देती है। समाज के बेकार कहलाने वाले उपेक्षित अंग को केंद्र में रखकर वे जिंदा कविता बनाते हैं,कुछ उसी तरह जैसे यह शिल्पी-बेकार हो चुके के भीतर खोजता रचता उसके होने के सबसे बड़े अर्थबेकार हो चुके के भीतर खोजता रचतापृथ्वी के प्राणपृथ्वी को चिनने की कला है यहटूटी-बिखरी पृथ्वी कोजोड़ने-सहेजने की कलारचने,जोड़ने,जिलाने कासौंदर्य और सुख! किसी कला की सार्थकता भी इसी में है। कविता पर भी यह बात पूरी तरह लागू होती है। ये वही मिस्त्री हैं जो तीखी ढलान की जानलेवा साजिशों के खिलाफ मजबूत डंगा का निर्माण करते हैं।
युवा कवि आत्मारंजन के कविता संसार में श्रम करने वालों से भरा-पूरा है। खुदार्इ-चिनार्इ करने वालों के बाद रंग पुतार्इ करने वालेउनकी कविता में दिखार्इ देते हैं। इनकी जीवन-प्राथमिकता,जीवन सिथतियाँ ,विडंबनाएं ,हुनर की बारीकियाँ आदि इस कविता में चित्रित हुर्इ हैं-रंगों से खेलते रहते हैं वे अपने पूरे कला-कौशल के साथपर कोर्इ नहीं मानता इन्हें कलाकारवे जीते हैं पुश्त दर पुश्त अनामहालांकि कम नहीं है इनकी भी रंगों की समझ.....कितना सधा है उनका हाथदो रंगों को मिलाती लतरमजाल है जरा भी भटके सूत से। इससे पता चलता है कि कवि हुनरमंद को ही नहीं बलिक उसके हुनर को भी जानता है। कैसी विडंबना है जिनके हाथों में जीवित हो उठते ब्रश और लकदक हो उठते हैं रंग , उनके हिस्से हमेशा बदरंग ही आते हैं। इसे कवि तमाम रंगों की साजिश मानता है। कितनी बड़ी बात है कि तमाम कठिनाइयों के बावजूद श्रम करने वाले ये लोग -करते हँसी-ठठा ,बतियातेदूर देहात का कोर्इ लोक-गीत गुनगुनातेरंग पुतार्इ कर रहे हैं वेकहाँ समझ सकता कोर्इखाया-अघाया कला समीक्षकउनके रंगों का मर्मकि छत की कठिन उल्टान मेंशामिल है उनकी पिराती पीठ का रंग। इस तरह रंजन अभिजात्य रूचि के कला समीक्षकों को चुनौती देते हैं। कवि यह कहते हुए कि-चटकीले रंगों में फूटती ये चमकएशियन पेंट के किसी महँगे फामर्ूले की नहींइनके माथे के पसीने पर पड़तीदोपहर की धूप की है। किसी ब्रांड की चमक से ऊपर श्रम की चमक को रखते हैं। वे बताते हैं कि एशियन पेंट लगाने से जो चमक दिखार्इ देती है वह तब तक नहीं होती जब तक श्रम का पसीने का रंग उसमें नहीं मिलता। बाजार की जो चमक-दमक है उसके पीछे भी श्रम की ही ताकत है- हमारी रोजमर्रा की दृश्यावलियों कोखूबसूरत बनाया है इनके रंगों ने। कवि जानता है पृथ्वी की सीलन यदि किसी से कम होती है तो इन्हीं श्रमजीवियों से-इन हाथों के पास हैंतमाम सीलन को पोंछने हरने का हुनर। खुरदुरे हाथ ही चमकीली और पत्थर-जिस्म ही कोमल दुनिया का निर्माण करते हैं।दुनिया को सीलन मुक्त करते हैं। श्रम करने वालों के प्रति ऐसी अगाथ श्रद्धा इधर के बहुत कम युवा कवियों में दिखार्इ देती है। शारीरिक श्रम को कला का दर्जा वही कवि दे सकता है जो जीवन में उसकी अहमियत को समझता है। नागरबोध के मध्यवर्गीय कवि इतनी गहरार्इ तक नहीं उतर सकते हैं। रंजन कदमों की ताकत को स्थापित करने वाले कवि हैं-पगडंडियाँ गवाह हैंकुदालियों ,गैंतियोंखुदार्इ मशीनों ने नहींकदमों ने ही बनाए हैंरास्ते। यह बहुत बड़ा सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता है। भले कितनी ही मशीनें बना ली जाएं पर आदमी की अहमियत समाप्त नहीं होगी।
आत्मरंजन की छोटी कविताएं अधिक मारक और बेधक हैं। सीधे मर्म पर चोट करती हैं। ऐसा लगता है जैसे उन्होंने समय की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। वह एक सुर्इ सी चुभा देते हैं जो देर तक अपनी चुभन का अहसास कराती रहती है। हादसे ,तमीज , देवदोष , रास्ते ,शकितपूजा,घर से दूर , आधुनिक घर आदि इसी तरह की कविताएं हैं। इन कविताओं में वे अपने समय और समाज की छोटी-छोटी सच्चाइयों को सूक्ष्मता से रेखांकित करते हैं। अंधविश्वासों-रूढि़यों पर तीखा व्यंग्य करते है। हर छोटी-बड़ी बात पर उनकी सूक्ष्म दृषिट रहती है। यह यथार्थ है कि हम अपनी लकीर को बड़ा करने के लिए दूसरे की लकीर को मिटाने के प्रयास में लगे हैं- लगातार-लगातारतलाश रहे हैं हमदूसरों की कमियाँकि हो सकेंताकतवर। हमारी राजनीति इसकी सबसे अधिक शिकार है। आधुनिक घर कविता के माध्यम से कवि आधुनिक सभ्यता में सिकुड़ती संवेदना पर करारा व्यंग्य करता है-आधुनिक घरों के पास नहीं हैं छज्जेकि लावारिस कोर्इ फुटपाथी बच्चाबचा सके अपना भीगता सर नहीं बची है इतनी जगहकि कोर्इ गौरैया जोड़ सके तिनकेसहेज परों की आँचबसा सके अपना घर संसार। वास्तव में नहीं बची है इतनी भर जगह जिसमें किसी गरीब-बंचित-उपेक्षित के लिए कोर्इ स्थान हो। यह संकट बाहर की अपेक्षा भीतरी-जगह का अधिक है। दुनिया छोटी होती जा रही हैंं जिसमें मानवीय मूल्यों और भावनाओं के लिए स्थान सिकुड़ता जा रहा है। यह कविता उन लोगों की आँख खोलती है जो यह कहते नहीं थकते हैं कि समाज में यदि किसी भी वर्ग के हिस्से समृद्धि आती है तो उसका लाभ अंतत: समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठे व्यकित तक पहुँचता है। जबकि वास्तविकता यह है कि एक वर्ग विशेष की सम्पन्नता दूसरे वर्ग के सिर की छत भी छीन लेती है।
आत्मारंजन पेशे से शिक्षक हैं। ऐसे में भला बच्चे उनकी दृषिट से ओझल कैसे रह सकते हैं। प्रस्तुत संग्रह में बच्चों को लेकर कुछ बहुत सुंदर और प्यारी कविताएं हैं। बच्चों की सहजवृतित और बाल लीलाएं यहाँ बेहतरीन ढंग से चित्रित हुर्इ हैं। उन्हें बच्चों की जरूरत का पता भी है और उनके बचपन छिनने की चिंता भी। वे मानते हैं कि अभिभावकों की महत्वाकांक्षाएं बच्चों पर बहुत बड़ा बोझ हैंं। हर माँ-बाप चाहते हैं कि उनका लाडला पढ़ने-लिखने में सबसे अब्बल रहे। हर विषय में अच्छे अंक लाए और रहे टाप। खेलकूद में समय बरबाद ना करे। इस बोझ तले बच्चों का बचपन कैसे रौंदा जा रहा है ? उसकी रचनात्मकता को कैसे सुखाया जा रहा है? कैसे उसकी कल्पनाशीलता के पंख कतरे जा रहे हंैं? इसे आत्मारंजन बहुत अच्छी तरह व्यक्त करते हैं। कैसी बिडंबना है कि आज का अभिभावक अपने बच्चे से तो बहुत कुछ चाहता है पर नर्इ सदी में टहलते हुए इसके पास उसके लिए समय नहीं है। वह अपनी ही दुनिया में मग्न है। यहाँ तक कि घुमाने ले गए बच्चे से बात करने का भी उसके पास समय नहीं है चिपकाए हुए है कान में मोबाइल। बच्चों को लेकर कवि की चिंता जायज है-यह खुशी की नहीं ,ंिचंता की बात है दोस्तकि उम्र से पहले बड़े हो रहे हैं बच्चे। यह हर संवेदनशील व्यकित की चिंता है। ऐसे में कुछ तसल्ली देता है बच्चों का मौसम,विष ,तनाव और चिंता को धता बताकर खेलना- खेलते हैं बच्चेतब भीजब खेलने लायक नहीं होता है मौसम.....जब दुरस्त नहीं होता शरीर का तापमान.....तब भी जब वक्त नहीं होता खेलने का.....तब भी जब सर पर होती हैं परीक्षाएं (खेलते हैं बच्चे-एक) बच्चों का इस तरह खेलना कहीं ना कहीं बचपन को छीनने की साजिश का प्रतिकार है। लाख कोशिश कर ले जमाना बच्चों से उनका खेलना नहीं छीन सकता है। इस कविता में कवि साफ-साफ बच्चों के पक्ष में खड़ा दिखार्इ देता है विशेषरूप से उन बच्चों के ,जिनसे उनका बचपन भी खुद आँख मिचौली खेलता है- खेलते हैं बच्चेवे भी ,जिनके पास नहीं होते खिलौने....बड़ों की दुनिया का खुरदरापनअंकित है जिनकी नन्हीं हथेलियों में। बचपन के पक्ष में खड़ा कवि ही यह कह सकता है-वे लगते हैं बहुत अच्छेजब उनके बच्चा होने के खिलाफबड़ों की तमाम साजिशों कीखिल्ली उड़ाते हुएखेलते हुए बच्चे! आत्मारंजन इन कविताओं में न केवल बच्चों का पक्ष लेते हैं बलिक बलिक बच्चों की मासूमियत , खरेपन ,निष्कलुषता और निर्दोषता को रेखांकित कर बड़ों की हृदयहीनता और खुरदुरेपन पर भी गहरी चोट करते हैं-जैसे होते हैं बच्चेबड़े कहाँ होते हैं वैसे। बिल्कुल सही कहते हैं- दरअसल हमारा बड़ा हो जाना बच्चा होने के खिलाफएक समझौता हैबाहर बढ़तेंअंदर बौना होते जाने कोदृढ़ता से अनदेखा करजो जितनी कुशलता से इसे ढोता हैदुनिया में उतना ही सफल होता है। ये पंकितयाँ बच्चों की निर्मलता और खरेपन को ही नहीं बताती बलिक बड़ों की दुनिया से खत्म होते मानवीय मूल्यों की गाथा को भी कहती हैं। कवि इस दुनिया की सुंदरता के लिए हम सब से बच्चों सी निर्मलता एवं निष्कपटता की कामना करता है। कवि आडंबरी दुनिया से प्रश्न करता है यदि बच्चे भगवान के रूप होते हैं तो फिर बदहाल क्यों हैं? कवि की चाहत है कि- बहुत जरूरी है कि कुछ ऐसा करेंकि बना रहे यहअंगुलियों का स्नेहिल स्पर्शऔर जड़ होती सदी परयह नन्हीं सिनग्ध पकड़कि इतनी ही नर्म उष्मबची रहे यह पृथ्वी। कवि बच्चों की जरूरत को कितनी शिददत से महसूस करता है इसका पता इन पंकितयों से चलता है- उनके खेलने के लिए स्कूल प्रांगण तो क्याछोटी पड़ती हैपूरी की पूरी पृथ्वी । बाल हृदय की गहराइयों को जानने वाला कवि ही ऐसा कह सकता है।
जो नहीं है खेल कविता खेलों में घुस आए छल-छदम का प्रतिरोध और खेल भावना को बचाने की अपील करती है। यह सच है आज खेल, खेल न रहकर युद्ध में तब्दील हो गए हैं। यह दुखद है। वास्तव में जो नहीं है खेल वहीं बचे हैं खेल। कवि कि्रकेट ,हाकी ,फुटबाल ,टेनिस जैसे लोकप्रिय खेलों के बरक्स गली-मुहल्लों में खेले जाने वाले गिल्ली-डंडा ,पिटठू ,लुका-छुपी ,चोर-सिपाही जैसे खेलों को रखकर कहता है-ओलमिपयाड ,एशियाड या राष्ट्रीय खेलों कीकिसी भी किताब में नहीं है इनका जिक्रखेल वालों के लिए नहीं है येकिसी भी श्रेणी के खेल। यह कविता सोचने को प्रेरित करती है कि आखिर क्यों गल्ली-मुहल्लों के ये खेल जो सदियों से खेले जा रहे हैं खेल की श्रेणी में शामिल नहीं हो पाए? इस तरह खेलों के साथ जुड़ी राजनीति और बाजार के गणित की ओर यह कविता पाठकों का ध्यान खींचती हैं। यह कविता बताती है कि हम जिन्हें खालिस खेल समझते हैं दरअसल वे मात्र खेल नहीं हैं उनके पीछे बहुत कुछ ढका-छुपा है। इस बाजार समय में खेलों को निर्दोष तरीके से नहीं देखा जा सकता है। जब चमक विज्ञापन और व्याख्या परलगार्इ जा रहीसारी की सारी ऊर्जा और मेधा खेल भला उससे कैसे बच सकते हैं। गनीमत है कि बाजार की चमक की चकाचौंध जिन स्थानों तक अभी नहीं पहँुच पायी है वहीं बचे हैं विशु़द्ध खेल जिनका उददेश्य पूरी तरह मनोरंजन की प्रापित है। वहीं बचपन भी बचा है और स्वाभाविकता भी। अन्यथा तो चारों ओर स्मार्ट लोग ही दिखार्इ देते हैं जो अपनी ही दुनिया में खोए हुए हैं जिन्हें धूल और पसीने से गहरी एलर्जी है। जिन्हें बड़ी साजिशों की कोर्इ खबर नहीं है । उन पर कृत्रिम रूप-रंग-गंध का जादू छाया हुआ है । यह जादू चलाने में ओलमिपक ,एशियाड या राष्ट्रीय खेलों की खास भूमिका है। इन स्मार्ट लोगों की दुनिया में-कहीं दबता जा रहा है घरकिताबें नहीं नजर आती हैं कहीं भी , न लाइब्रेरी। इस तरह आत्मारंजन अपनी कविताओं में अपने समय को दर्ज करने की सफल कोशिश करते हैं। कवि की कसौटी मानी जाती है कि वह अपने समय और समाज की गति को पकड़ने में कितना सफल रहा है। इस दृषिट से इस संग्रह की कविताएं हमें संतुष्ट करती हैंं। बाजार समय को कवि पूरी कुशलता से पकड़ता एवं चित्रित करता है। अपने समय की गहरी पहचान इन कविताओं में दिखार्इ देती है। इन कुछ पंकितयों में ही बाजार-समय का चेहरा झलक उठता है-सब कुछ आकर्षक-मोहकनयनाभिरामकैसी मोहक रसीली जुबानसत्कार भरे संबोधन......कहीं भी हो सकता है वह मोहक छलियाबाजार से लेकर घर तक......हमारे समय का सबसे बड़ा जादूगर है वह......किसी भी रूप में हो सकता हैवह बहुरूपियाहमारे आचार-व्यवहार में घुसता........जहाँ लटका है तराजूतोल में ठगे जाने कीसबसे अधिक संभावना भी रहती है वहीं। ......विश्वास बहेलिए की आड़ की तरह किया जा रहा हो इस्तेमाल।........रिश्तों की भीड़ का एकाकीपन.....चुपिपयों का चीत्कार। लेकिन एक प्रतिबद्ध कवि की खासियत होती है कि समय चाहे कितना ही बुरा और कठिन हो वह निराश-हताश नहीं होता है। वह अपनी कविताओं में एक खूबसूरत दुनिया की सृषिट करना नहीं छोड़ता। मनुष्य को उसकी ताकत का अहसास करता है। आत्मरंजन भी यही काम करते हैं। एक ओर जब बाजार अपनी चमक-दमक से हर कम चमकीली चीज को हाशिए में धकेल रहा है वे हाशिए में उपेक्षित पड़ी चीजों को कविता के केंद्र में लाकर सबका ध्यान आकृष्ट कर रहे हंै और अहसास करा रहे हंै कि उनके बिना आधी-अधूरी और हवार्इ है यह दुनिया। खास के समानांतर आम को खड़ा कर एक नर्इ दुनिया की सृषिट कर रहे हंै। उनके लिए पुराना डिब्बा भी बेकार नहीं होता है रोप दिया जाय उसमें एक फूल का पौंधा फिर जी उठता है पुराना वह। वे र्इश्वर को मानव का रचा बता कर मानव की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं और कहते हैं-तुम्हारी ऊँगली थामे ही तय होता हैघने से घने अंधेरे काअथाह सफर। वे अपील करते हैं-उदास मत हो मेरे दोस्तबहेलियों की कुटिल कालिमा के खिलाफ यूँ ही झिलमिलाते रहो यूँ ही टिमटिमाते कि बची रहे बनी रहेबहती रहे यह सृषिट अविरत अविरल।
कुल मिलाकर समीक्ष्य संग्रह की कविताएं जीवन के लिए संघर्ष करती सांसों और राहत की भीख माँगती कातर आँखों में जीवन रस की मिठास घोलती और उम्मीद की किरण जगाती हैं। जीवन की आपाधापी में खोती कोमल संवेदनाओं को बचाने और श्रम के गौरव को स्थापित करने की कोशिश करती हैं। यह बहुत अच्छी बात है कि कवि की दृषिट में सबसे जरूरी है मानवीय होना। कोर्इ कितना ही बड़ा हो यदि मानवीय नहीं है तो उसकी कोर्इ अहमियत नहीं है। कवि की यह दृषिट लोकधर्मी कविता के भविष्य के प्रति हमें आश्वस्त करती है।
पगडंडियाँ गवाह हैं( कविता संग्रह% आत्मरंजन
प्रकाशक- अंतिका प्रकाशन सी- यू जी एफ- शालीमार गार्डन एक्सटेंशन- गाजियाबाद-201005
मूल्य- दो सौ रुपए।
punetha.mahesh@gmail.com
प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में लोकगीतों की गूँज भी है और समूची मानवीय हलचल में डोलते-लहराते लोकवृक्ष की लय भी। यह कवि दूर महानगर में बैठा स्मृतियों के आधार पर अपने अंचल पर या छूटी चीजों पर कविता नहीं लिख रहा बलिक लहराते मकई के खेतों के छोर पर खड़ा सामने पसरे खेतों को देख कविता रच रहा है अर्थात अपनी जमीन पर रच-बस कर। वह पहले कसकती तान की गूँज को अपने भीतर महसूस करता है फिर अपनी कविता में उतारता है। खोती जा रही सामूहिकता की जीवन-संस्कृति के बारे में पूछता है- कहाँ है वह गाँव भर से जुटे बुआरों का दल
कहाँ है वह बाजों-गाजों के साथ चलती गुड़ार्इ का शोर.....युवक-युवतियों के टोलों के बीच
.....किसी का काम न छूटने पाएबारी-बारी सबके खेतों में उतरता सारा गाँव। आज कहाँ रह गयी यह चिंता। व्यकितवाद हावी हो गया है। धन के बढ़ते प्रभाव ने एक आदमी को दूसरे आदमी की जरूरत को ही समाप्त कर दिया है। भार्इ-बिरादर या पड़ोसी की अहमियत को कम कर दिया है। जिसके पास धन है उसे रिश्तों बोझ लगने लगे हैं। आज सिथति यह हो गयी है- खेतों में अपने-अपने जूझ रहे सब खामोशपड़ोसी को नीचा दिखातेखींच तान में लीनजीवन की आपाधापी में जाने कहाँ खो गयासंगीत के उत्सव का संगीत। जीवन का बदलना स्वाभाविक और जरूरी है पर उसके चलते जीवन के मानवीय-मूल्यों और सकारात्मक तत्वों का समाप्त होना अवश्य चिंता का विषय है। वही चिंता यत्र-तत्र इन कविताओं में आती है। बोलो जुलिफया रे कविता में कवि के लिए जुलिफया मात्र एक गायन शैली नहीं है जो बुआरा प्रथा में सामूहिक गुड़ार्इ के अवसर पर लोक वाधों की सुरताल के साथ गाया जाता है बलिक- मिटटी की कठोरता में उर्वरता औरजड़ता में जीवन फूँकतेकठोर जिस्म के भीतर उमड़तेझरने का नाम है जुलिफयाचू रहे पसीने का खारापन लिएकहीं रूह से टपकता प्रेमरागऐसे अनन्य लोकगीत तुम। कवि प्रश्न करता है- कैसे और किसने कियाश्रम के गौरव को अपदस्थक्यों और कैसे हुए पराजित तुम खामोशअपराजेय सामूहिक श्रम की। यह कविता पीड़ा है अपराजेय सामूहिक श्रम और श्रम के गौरव के अपदस्थ होने की एक लोकगायन शैली के लुप्त हो जाने की नहीं।
रंजन बदलते वर्तमान के आलोक में अपने लोक को देखते हैंं। वे पुनरुत्थानवादी या भावुकता भरा विलाप करने वाले कवि नहीं हैं। उनके लिए लोक की स्मृतियाँ या दृश्य सजावटी सामान की तरह नहीं हैं जैसा कि महानगरों में रहने वाले अभिजात्य लोगों के लिए होता है। वे लोक को भोक्ता की नजर से चित्रित करते हैं। पहाड़ के कठिन जीवन के संघर्षों और कष्टों को कभी नहीं भूलते हैं। जैसे उनके यहाँ बर्फवारी के सौंदर्य का जिक्र आता है तो उससे स्थानीय जनों को होने वाली परेशानी का भी....जाड़ा कृतार्थ कर जाता शिखरों कोपेड़ भी सहार लेते बर्फ लेकिन घास -मौत से जूझती हर बारकि जीने की शर्त है धूपदिनों हफतों कभी महीनों तकतरसती धूप कोओढे़ हुए छीजत-सी आशा और विश्वासमर-मर कर जीती है घास। इस कविता में घास आम-पहाड़ी की प्रतीक है जो बर्फवारी के कष्टों के बोझ को झेलता है। यहाँ एक है जो बर्फ से लड़ता है और दूसरा जो बर्फ से खेलता है। लड़ने वाला वह है जो बर्फ के आसपास या बीच रहता है और खेलने वाला जो दूर देश से बर्फवारी का आनंद लेने आता है-दौड़ आते दूर-दूर सेपर्यटकों के टोलेभर-भर गर्म कपड़े गर्म सामानदिन-भर पहाड़ों के पेड़ों का सौंदर्यकैद करते आयातित कैमरों मेंमोटे दस्ताने चढ़े हाथ मजे से खेलते बर्फ। एक ओर बर्फ पर चलने की मजबूरी ढोताआदमी है तो दूसरी ओर छकता हुआ बर्फ का विलास । बर्फ पर चलता हुआ आदमी कविता में कवि इन दोनों की चाल की भिन्नता को पकड़ता है। साथ ही सुनता है बर्फ में चलने के लिए मजबूर आदमी के बच्चों से लेकर मवेशियों तक के कट-कटाते दाँतों की आवाज ,बर्फानी हवाओं की सिहरन उससे भी अधिक पिछले वर्ष बर्फ में मिली लाशों की डरावनी स्मृतियों की सिहरन। जिनके लिए बर्फ आश्चर्य नहीं बलिक आफत है जिसके चलते वह बर्फ को सराहता नहीं कोसता है। कवि आम और खास के बीच के अंतर को अच्छी तरह जानता है।टहलते हुए आदमी और काम पर जाते या लौटते आदमी के अंतर को अच्छी तरह पहचानता हैं। दो अलग-अलग वर्गों की दुनिया के दृश्यों को आमने-सामने रखते हुए कवि उनके बीच के अंतर को बखूबी उभार देता है। अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
भागते हाँफते समय के बीचाेंबीच सारी भागमभाग को धता बताते हुए आत्मारंजन तमाम व्यस्तताओं को खूँटी पर टाँग कविता लिखने बैठते हैं तो पूरी तन्मयता और पूरी तल्लीनता से अपने जन और जनपद के सौंदर्य को नर्इ ऊँचाइयाँ प्रदान करते हैं और विद्रूपताओं को दाल के कंकड़ों की भाँति छाँट देते हैं। कुछ उसी तरह जैसे प्रस्तुत संग्रह की पहली कविता में कंकड़ छाँटती स्त्री। एक स्त्री की अन्न को निष्कंकर होने की गरिमा भरी अनुभूति और इस कवि की अपने जन के हर्ष-विषाद को स्वर देने की अनुभूति में बहुत अधिक समानता है। तभी तो कवि दाल में से कंकड़ छाँटती औरत के हाथ को इस रूप में देख पाता है-एक स्त्री का हाथ है यहजीवन के समूचे स्वाद में सेकंकड़ बीनता हुआ। वास्तव में एक स्त्री दाल से ही कंकड़ नहीं बीनती बलिक जीवन में आने वाले तमाम कंकड़ों को बीनकर जीवन को स्वादिष्ट बनाती है। पर दुखद है कि हमारे जीवन में इतनी महत्वपूर्ण स्थान रखने वाली स्त्री का जीवन हाँडी के जीवन से बहुत अलग नहीं है। कितनी समानता है इन दोनों में -तान देती है जो खुद को लपटों परऔर जलने कोबदल देती है पकने में। स्त्री खुद तमाम कष्ट सहन करते हुए अपने परिजनों के लिए सुख का संसार रचती है। उसका श्रम, महक ,स्वाद.....हाँडी की तरह है उसका जीवन जो खुद जलकर दूसरों को स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध कराती है। कवि प्रश्न करता है-सच-सच बताना क्या रिष्ता है तुम्हारा इस हाँडी से माँजती हो इसे रोजचमकाती हो गुनगुनाते हुएऔर छोड़ देती हो उसका एक हिस्साजलने की जागीर साखामोशी से। इस कविता में कब हाँडी स्त्री में बदल जाती है पता ही नहीं चलता है। स्त्री की सदियों की खामोशी और भरे मन की बेचैन कर देने वाली अभिव्यकित यहाँ दिखती है। यह आत्मारंजन का कवि-कौशल कहा जाएगा कि उन्होंने हमारे समाज में स्त्री की सिथति को बताने के लिए बहुत सटीक प्रतीक का प्रयोग किया है।
इधर युवा कवियों की एक बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि स्त्री को लेकर उनमें गहरी संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। वे उसके दु:ख-दर्द को शिददत से महसूस करते हैं। स्त्री के प्रति उनका रवैया पुरुषवादी नहीं है। वे उसकी बराबरी के पक्षधर हैं। उसके योगदान को मुक्तकंठ से स्वीकार करते हैं तथा उसके प्रति कृतज्ञता-भाव से भरे हैं। उन्हें औरत की आँच नंगे बदन में नहीं ,उसके प्रेम-स्नेह-ममता में महसूस होती है-जो पत्थर ,मिटटी ,सिमेंट को सेंकती हैबनाती है उन्हें एक घर। वे जानते हैं स्त्री-पूजने से जड़ हो जाएगीकैद होने पर तोड़ देगी दम। उसे तो चाहिए बस अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने की स्वतंत्रता और मानव की गरिमा। खुलकर हँसने की आजादी ताकि उसे हँसते हुए यह अपराधबोध न हो कि-ऐसे हँसना नहीं चाहिए था उसेवह एक लड़की है। आत्मारंजन अपनी कविताओं में औरत की इस विडंबना पर सटीक चोट करते हैं और उसकी पारदर्शी हँसी जो सुबह की ताजा धूप सीहवाओं में छिटकी है ,से हमारा परिचय कराते हैं। इतना सुंदर बिंब वही कवि रच सकता है जो स्त्री का सम्मान करता हो और सुविधा,लाभ या मनोरंजन केअर्थों से दूर हो । उसे ही एक स्त्री का होना एक सुखद उपसिथति लग सकती है।
कुछ ऐसा ही सम्मान कवि का श्रमसंलग्न लोगों के प्रति भी दिखार्इ देता है। वे श्रम से जुड़ी कि्रयाओं को एकदम अलग तरीके और उनके वास्तविक रूप में देखते हैं। उनकी तह में जाकर समझते हैं। उनमें गहरी अंतदर्ृषिट के दर्शन होते हैं। हममें से अनेक कवियों ने किसान-मजदूरों को श्रम करते हुए थक जाने पर सुस्ताने के लिए पृथ्वी पर लेटे हुए देखा होगा पर किसी ने उनकी तरह नहीं देखा। उन्हें पृथ्वी पर लेटना पृथ्वी को भेंटना लगता है। यह भेंटना पृथ्वी और उसके पुत्रों के बीच रिश्ते की आत्मीयता और प्रगाढ़ता को बताता है। वास्तव में धरती के लाडले बेटे का पृथ्वी पर लेटने का अंदाज ही उसे भेटने जैसा हो सकता है। पृथ्वी से उसका संबंध उसी तरह का हो सकता है जैसा एक बेटे का अपनी माँ की गोद से। यहाँ कवि ने श्रम करते हुए थकी हुर्इ देह का पृथ्वी में लेटने का जो चित्रण किया है वह अदभुत है। ऐसी अलट नींद से किसे ना र्इष्र्या हो उठे। इस नींद में कहीं ना कहीं श्रम का आनंद छुपा हुआ है। इस तरह पृथ्वी में लेटना वास्तव में-जिंदा देह के साथजिंदा पृथ्वी पर लेटना है। कवि इसमें जिस तरह का सुख देखता है वह उसकी शारीरिक श्रम के प्रति अगाध आस्था केा बताता है।एक कवि और मजदूर-किसान ही इस सुख का अनुभव कर सकता है। पृथ्वी से थोड़ा ऊपर जीने वाले इस सुख को नहीं अनुभव कर सकते और न वे मिटटी की महकधरती का स्वाद जान सकते हैं । एक कवि ही आलीशान गददों वाली चारपाइयों में सोने के सुख को इस तरह अंगूठा दिखा सकता है। इस कविता को पढ़ते हुए कबीर याद हो आते हैं-मिटटी से बेहतर कौन जानता हैकि कौन हो सका है मिटटी का विजेतारौंदने वाला बिल्कुल नहींजीतने के लिएगर्भ में उतरना पड़ता है पृथ्वी केगैंती की नोक,हल की फालया जल की बूँद की मानिंदछेड़ना पड़ता हैपृथ्वी की रगों में जीवन रागकि यहाँ जीतना और जोतना पर्यायवाची हैंकि जीतने की शर्तरौंदना नहीं रोपना हैअनंत-अनंत संभावनाओं कीअनन्य उर्वरताबनाए और बचाए रखना। यहाँ कविता मिटटी की महत्ता को भी बताती है और सृजन की भी। सही अथोर्ं में जीतना दूसरे को रौंदना नहीं है बलिक रोपना है अर्थात जीत ध्वंस करने में नहीं बलिक सृजन करने में है। इस कविता को पढ़ते हुए किसी भी शारीरिक श्रम करने वाले का मन एक अतिरिक्त गरिमा से भर उठेगा। उसे अपना काम दुनिया का सबसे बड़ा काम लगने लगेगा। यह संग्रह की बेहतरीन कविताओं में से एक है। कवि ने मिटटी में मिलाने तथा धूल चटाने जैसे मुहावरों की बहुत तर्कसंगत व्याख्या की है। निशिचत रूप से ये मुहावरे विजेताओं के दंभ की उपज और पृथ्वी की अवमानना हैं। उस आदमी की अवमानना है जो धूल-मिटटी में लेटा-लौटा रहता है। पृथ्वी और उसके बेटों से प्रेम करने वाला कवि ही उसके निहिताथोर्ं को इस तरह से पकड़ सकता है। खुद को जमीन से जुड़ा कहने वाला कवि भी न जाने कितनी बार इन मुहावरों का प्रयोग करता है। कुछ उसी तरह से जैसे स्त्री का सम्मान करने वाला भी जाने-अनजाने गुस्से में माँ-बहन की गाली दे देता है।
इसी तेवर की एक अन्य कविता है पत्थर चिनार्इ करने वाले। कविता को पढ़ते हुए बचपन के वे दिन याद हो आते हैं जब मिस्त्री को दीवार चिनते हुए देखते थे तो देर तक डिबिया की तरह पत्थर काटते-छाँटते-बैठाते हुए उसे देखते ही रहते थे। बहुत आनंद आता था। उस बात का बहुत हू-ब-हू चित्रण इन पंकितयों में मिलता है-कि डिबिया की तरहबैठने चाहिए पत्थरखुद बोलता है पत्थरकहाँ है उसकी जगहबस सुननी पड़ती है उसकी आवाजखूब समझता है वहपत्थर की जुबानपत्थर की भाषा में बतिया रहा हैसुन रहा गुन रहा बुन रहाएक-एक पत्थर। इस कविता में एक ओर श्रम का सौंदर्य है तो दूसरी ओर सृजन का सौंदर्य। यह महत्वपूर्ण बात है कि कवि कला को श्रम से अलग नहीं मानता है -आदिम कला है यहसदियों से संचित। बरसों से सधी हुर्इपहुँच रही है एक-एक पत्थर के पासर्इंट नहीं है यहसुविधाजनक साँचों में ढलकर निकली। इस कविता में स्थापत्य कला की बारीकियाँ उतर आयी हैं। यह कविता कवि की इन शिल्पकारों से निकटता को बताती है। उनकी एक-एक गतिविधि पर कवि की बारीक नजर है। कवि कितनी गहरार्इ से जुड़ा है चिनार्इ करने वालों से ये पंकितयां उसकी साक्ष्य हैं- पत्थर चुनता है वहपत्थर बुनता हैपत्थर गोड़ता हैतोड़ता है पत्थरपत्थर कमाता है पत्थर खाता हैपत्थर की रूलता पड़ताधूल मिटटी से नहाता हैपत्थर के हैं उसके हाथपत्थर का जिस्मबस नहीं है तो रूह नहीं है पत्थरपत्थरों के बीच गुनगुनाताएक पत्थर को सौंपता अपनी रूह। यहाँ उसकी कला ही नहीं बलिक उसका संघर्ष और संवेदनशीलता (भीतर-बाहर) भी कविता में व्यंजित होती है। पत्थरों के बीच रहने वाला खुद पत्थर नहीं है। उसकी रूह नहीं है पत्थर। यही उसकी सबसे बड़ी खासियत है जिसके चलते वह कविता की विषयवस्तु बना। कवि की यह पारखी नजर ही कही जाएगी जो लगभग उपयुक्त विकल्प पर ही टिकती है। यहाँ बस नहीं है तो रूह नहीं है पत्थर कहकर कवि बिना कहे यह बात कह देता है कि श्रम से दूर रहने वाले लोग किस तरह आज पत्थरहोते जा रहे हैं।
उनकी कविताओं की बनावट उतनी सरल नहीं है जितनी दिखती है। समाज में फैले बेढंगेपन और कठोरता के बीच से वे मजबूत कविता बुन लेते हैं। उनकी कविताओं में कब सजीव चीजें निर्जीव चीजों के भीतर और कब निर्जीव सजीव के भीतर प्रवेश कर जाती हैं पता ही नहीं चलता है। ये उनकी कविता की बहुत बड़ी खासियत है। रंजन की कलम में जादू है वह सामान्य काम को भी कला की ऊँचार्इ प्रदान कर देती है। समाज के बेकार कहलाने वाले उपेक्षित अंग को केंद्र में रखकर वे जिंदा कविता बनाते हैं,कुछ उसी तरह जैसे यह शिल्पी-बेकार हो चुके के भीतर खोजता रचता उसके होने के सबसे बड़े अर्थबेकार हो चुके के भीतर खोजता रचतापृथ्वी के प्राणपृथ्वी को चिनने की कला है यहटूटी-बिखरी पृथ्वी कोजोड़ने-सहेजने की कलारचने,जोड़ने,जिलाने कासौंदर्य और सुख! किसी कला की सार्थकता भी इसी में है। कविता पर भी यह बात पूरी तरह लागू होती है। ये वही मिस्त्री हैं जो तीखी ढलान की जानलेवा साजिशों के खिलाफ मजबूत डंगा का निर्माण करते हैं।
युवा कवि आत्मारंजन के कविता संसार में श्रम करने वालों से भरा-पूरा है। खुदार्इ-चिनार्इ करने वालों के बाद रंग पुतार्इ करने वालेउनकी कविता में दिखार्इ देते हैं। इनकी जीवन-प्राथमिकता,जीवन सिथतियाँ ,विडंबनाएं ,हुनर की बारीकियाँ आदि इस कविता में चित्रित हुर्इ हैं-रंगों से खेलते रहते हैं वे अपने पूरे कला-कौशल के साथपर कोर्इ नहीं मानता इन्हें कलाकारवे जीते हैं पुश्त दर पुश्त अनामहालांकि कम नहीं है इनकी भी रंगों की समझ.....कितना सधा है उनका हाथदो रंगों को मिलाती लतरमजाल है जरा भी भटके सूत से। इससे पता चलता है कि कवि हुनरमंद को ही नहीं बलिक उसके हुनर को भी जानता है। कैसी विडंबना है जिनके हाथों में जीवित हो उठते ब्रश और लकदक हो उठते हैं रंग , उनके हिस्से हमेशा बदरंग ही आते हैं। इसे कवि तमाम रंगों की साजिश मानता है। कितनी बड़ी बात है कि तमाम कठिनाइयों के बावजूद श्रम करने वाले ये लोग -करते हँसी-ठठा ,बतियातेदूर देहात का कोर्इ लोक-गीत गुनगुनातेरंग पुतार्इ कर रहे हैं वेकहाँ समझ सकता कोर्इखाया-अघाया कला समीक्षकउनके रंगों का मर्मकि छत की कठिन उल्टान मेंशामिल है उनकी पिराती पीठ का रंग। इस तरह रंजन अभिजात्य रूचि के कला समीक्षकों को चुनौती देते हैं। कवि यह कहते हुए कि-चटकीले रंगों में फूटती ये चमकएशियन पेंट के किसी महँगे फामर्ूले की नहींइनके माथे के पसीने पर पड़तीदोपहर की धूप की है। किसी ब्रांड की चमक से ऊपर श्रम की चमक को रखते हैं। वे बताते हैं कि एशियन पेंट लगाने से जो चमक दिखार्इ देती है वह तब तक नहीं होती जब तक श्रम का पसीने का रंग उसमें नहीं मिलता। बाजार की जो चमक-दमक है उसके पीछे भी श्रम की ही ताकत है- हमारी रोजमर्रा की दृश्यावलियों कोखूबसूरत बनाया है इनके रंगों ने। कवि जानता है पृथ्वी की सीलन यदि किसी से कम होती है तो इन्हीं श्रमजीवियों से-इन हाथों के पास हैंतमाम सीलन को पोंछने हरने का हुनर। खुरदुरे हाथ ही चमकीली और पत्थर-जिस्म ही कोमल दुनिया का निर्माण करते हैं।दुनिया को सीलन मुक्त करते हैं। श्रम करने वालों के प्रति ऐसी अगाथ श्रद्धा इधर के बहुत कम युवा कवियों में दिखार्इ देती है। शारीरिक श्रम को कला का दर्जा वही कवि दे सकता है जो जीवन में उसकी अहमियत को समझता है। नागरबोध के मध्यवर्गीय कवि इतनी गहरार्इ तक नहीं उतर सकते हैं। रंजन कदमों की ताकत को स्थापित करने वाले कवि हैं-पगडंडियाँ गवाह हैंकुदालियों ,गैंतियोंखुदार्इ मशीनों ने नहींकदमों ने ही बनाए हैंरास्ते। यह बहुत बड़ा सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता है। भले कितनी ही मशीनें बना ली जाएं पर आदमी की अहमियत समाप्त नहीं होगी।
आत्मरंजन की छोटी कविताएं अधिक मारक और बेधक हैं। सीधे मर्म पर चोट करती हैं। ऐसा लगता है जैसे उन्होंने समय की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। वह एक सुर्इ सी चुभा देते हैं जो देर तक अपनी चुभन का अहसास कराती रहती है। हादसे ,तमीज , देवदोष , रास्ते ,शकितपूजा,घर से दूर , आधुनिक घर आदि इसी तरह की कविताएं हैं। इन कविताओं में वे अपने समय और समाज की छोटी-छोटी सच्चाइयों को सूक्ष्मता से रेखांकित करते हैं। अंधविश्वासों-रूढि़यों पर तीखा व्यंग्य करते है। हर छोटी-बड़ी बात पर उनकी सूक्ष्म दृषिट रहती है। यह यथार्थ है कि हम अपनी लकीर को बड़ा करने के लिए दूसरे की लकीर को मिटाने के प्रयास में लगे हैं- लगातार-लगातारतलाश रहे हैं हमदूसरों की कमियाँकि हो सकेंताकतवर। हमारी राजनीति इसकी सबसे अधिक शिकार है। आधुनिक घर कविता के माध्यम से कवि आधुनिक सभ्यता में सिकुड़ती संवेदना पर करारा व्यंग्य करता है-आधुनिक घरों के पास नहीं हैं छज्जेकि लावारिस कोर्इ फुटपाथी बच्चाबचा सके अपना भीगता सर नहीं बची है इतनी जगहकि कोर्इ गौरैया जोड़ सके तिनकेसहेज परों की आँचबसा सके अपना घर संसार। वास्तव में नहीं बची है इतनी भर जगह जिसमें किसी गरीब-बंचित-उपेक्षित के लिए कोर्इ स्थान हो। यह संकट बाहर की अपेक्षा भीतरी-जगह का अधिक है। दुनिया छोटी होती जा रही हैंं जिसमें मानवीय मूल्यों और भावनाओं के लिए स्थान सिकुड़ता जा रहा है। यह कविता उन लोगों की आँख खोलती है जो यह कहते नहीं थकते हैं कि समाज में यदि किसी भी वर्ग के हिस्से समृद्धि आती है तो उसका लाभ अंतत: समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठे व्यकित तक पहुँचता है। जबकि वास्तविकता यह है कि एक वर्ग विशेष की सम्पन्नता दूसरे वर्ग के सिर की छत भी छीन लेती है।
आत्मारंजन पेशे से शिक्षक हैं। ऐसे में भला बच्चे उनकी दृषिट से ओझल कैसे रह सकते हैं। प्रस्तुत संग्रह में बच्चों को लेकर कुछ बहुत सुंदर और प्यारी कविताएं हैं। बच्चों की सहजवृतित और बाल लीलाएं यहाँ बेहतरीन ढंग से चित्रित हुर्इ हैं। उन्हें बच्चों की जरूरत का पता भी है और उनके बचपन छिनने की चिंता भी। वे मानते हैं कि अभिभावकों की महत्वाकांक्षाएं बच्चों पर बहुत बड़ा बोझ हैंं। हर माँ-बाप चाहते हैं कि उनका लाडला पढ़ने-लिखने में सबसे अब्बल रहे। हर विषय में अच्छे अंक लाए और रहे टाप। खेलकूद में समय बरबाद ना करे। इस बोझ तले बच्चों का बचपन कैसे रौंदा जा रहा है ? उसकी रचनात्मकता को कैसे सुखाया जा रहा है? कैसे उसकी कल्पनाशीलता के पंख कतरे जा रहे हंैं? इसे आत्मारंजन बहुत अच्छी तरह व्यक्त करते हैं। कैसी बिडंबना है कि आज का अभिभावक अपने बच्चे से तो बहुत कुछ चाहता है पर नर्इ सदी में टहलते हुए इसके पास उसके लिए समय नहीं है। वह अपनी ही दुनिया में मग्न है। यहाँ तक कि घुमाने ले गए बच्चे से बात करने का भी उसके पास समय नहीं है चिपकाए हुए है कान में मोबाइल। बच्चों को लेकर कवि की चिंता जायज है-यह खुशी की नहीं ,ंिचंता की बात है दोस्तकि उम्र से पहले बड़े हो रहे हैं बच्चे। यह हर संवेदनशील व्यकित की चिंता है। ऐसे में कुछ तसल्ली देता है बच्चों का मौसम,विष ,तनाव और चिंता को धता बताकर खेलना- खेलते हैं बच्चेतब भीजब खेलने लायक नहीं होता है मौसम.....जब दुरस्त नहीं होता शरीर का तापमान.....तब भी जब वक्त नहीं होता खेलने का.....तब भी जब सर पर होती हैं परीक्षाएं (खेलते हैं बच्चे-एक) बच्चों का इस तरह खेलना कहीं ना कहीं बचपन को छीनने की साजिश का प्रतिकार है। लाख कोशिश कर ले जमाना बच्चों से उनका खेलना नहीं छीन सकता है। इस कविता में कवि साफ-साफ बच्चों के पक्ष में खड़ा दिखार्इ देता है विशेषरूप से उन बच्चों के ,जिनसे उनका बचपन भी खुद आँख मिचौली खेलता है- खेलते हैं बच्चेवे भी ,जिनके पास नहीं होते खिलौने....बड़ों की दुनिया का खुरदरापनअंकित है जिनकी नन्हीं हथेलियों में। बचपन के पक्ष में खड़ा कवि ही यह कह सकता है-वे लगते हैं बहुत अच्छेजब उनके बच्चा होने के खिलाफबड़ों की तमाम साजिशों कीखिल्ली उड़ाते हुएखेलते हुए बच्चे! आत्मारंजन इन कविताओं में न केवल बच्चों का पक्ष लेते हैं बलिक बलिक बच्चों की मासूमियत , खरेपन ,निष्कलुषता और निर्दोषता को रेखांकित कर बड़ों की हृदयहीनता और खुरदुरेपन पर भी गहरी चोट करते हैं-जैसे होते हैं बच्चेबड़े कहाँ होते हैं वैसे। बिल्कुल सही कहते हैं- दरअसल हमारा बड़ा हो जाना बच्चा होने के खिलाफएक समझौता हैबाहर बढ़तेंअंदर बौना होते जाने कोदृढ़ता से अनदेखा करजो जितनी कुशलता से इसे ढोता हैदुनिया में उतना ही सफल होता है। ये पंकितयाँ बच्चों की निर्मलता और खरेपन को ही नहीं बताती बलिक बड़ों की दुनिया से खत्म होते मानवीय मूल्यों की गाथा को भी कहती हैं। कवि इस दुनिया की सुंदरता के लिए हम सब से बच्चों सी निर्मलता एवं निष्कपटता की कामना करता है। कवि आडंबरी दुनिया से प्रश्न करता है यदि बच्चे भगवान के रूप होते हैं तो फिर बदहाल क्यों हैं? कवि की चाहत है कि- बहुत जरूरी है कि कुछ ऐसा करेंकि बना रहे यहअंगुलियों का स्नेहिल स्पर्शऔर जड़ होती सदी परयह नन्हीं सिनग्ध पकड़कि इतनी ही नर्म उष्मबची रहे यह पृथ्वी। कवि बच्चों की जरूरत को कितनी शिददत से महसूस करता है इसका पता इन पंकितयों से चलता है- उनके खेलने के लिए स्कूल प्रांगण तो क्याछोटी पड़ती हैपूरी की पूरी पृथ्वी । बाल हृदय की गहराइयों को जानने वाला कवि ही ऐसा कह सकता है।
जो नहीं है खेल कविता खेलों में घुस आए छल-छदम का प्रतिरोध और खेल भावना को बचाने की अपील करती है। यह सच है आज खेल, खेल न रहकर युद्ध में तब्दील हो गए हैं। यह दुखद है। वास्तव में जो नहीं है खेल वहीं बचे हैं खेल। कवि कि्रकेट ,हाकी ,फुटबाल ,टेनिस जैसे लोकप्रिय खेलों के बरक्स गली-मुहल्लों में खेले जाने वाले गिल्ली-डंडा ,पिटठू ,लुका-छुपी ,चोर-सिपाही जैसे खेलों को रखकर कहता है-ओलमिपयाड ,एशियाड या राष्ट्रीय खेलों कीकिसी भी किताब में नहीं है इनका जिक्रखेल वालों के लिए नहीं है येकिसी भी श्रेणी के खेल। यह कविता सोचने को प्रेरित करती है कि आखिर क्यों गल्ली-मुहल्लों के ये खेल जो सदियों से खेले जा रहे हैं खेल की श्रेणी में शामिल नहीं हो पाए? इस तरह खेलों के साथ जुड़ी राजनीति और बाजार के गणित की ओर यह कविता पाठकों का ध्यान खींचती हैं। यह कविता बताती है कि हम जिन्हें खालिस खेल समझते हैं दरअसल वे मात्र खेल नहीं हैं उनके पीछे बहुत कुछ ढका-छुपा है। इस बाजार समय में खेलों को निर्दोष तरीके से नहीं देखा जा सकता है। जब चमक विज्ञापन और व्याख्या परलगार्इ जा रहीसारी की सारी ऊर्जा और मेधा खेल भला उससे कैसे बच सकते हैं। गनीमत है कि बाजार की चमक की चकाचौंध जिन स्थानों तक अभी नहीं पहँुच पायी है वहीं बचे हैं विशु़द्ध खेल जिनका उददेश्य पूरी तरह मनोरंजन की प्रापित है। वहीं बचपन भी बचा है और स्वाभाविकता भी। अन्यथा तो चारों ओर स्मार्ट लोग ही दिखार्इ देते हैं जो अपनी ही दुनिया में खोए हुए हैं जिन्हें धूल और पसीने से गहरी एलर्जी है। जिन्हें बड़ी साजिशों की कोर्इ खबर नहीं है । उन पर कृत्रिम रूप-रंग-गंध का जादू छाया हुआ है । यह जादू चलाने में ओलमिपक ,एशियाड या राष्ट्रीय खेलों की खास भूमिका है। इन स्मार्ट लोगों की दुनिया में-कहीं दबता जा रहा है घरकिताबें नहीं नजर आती हैं कहीं भी , न लाइब्रेरी। इस तरह आत्मारंजन अपनी कविताओं में अपने समय को दर्ज करने की सफल कोशिश करते हैं। कवि की कसौटी मानी जाती है कि वह अपने समय और समाज की गति को पकड़ने में कितना सफल रहा है। इस दृषिट से इस संग्रह की कविताएं हमें संतुष्ट करती हैंं। बाजार समय को कवि पूरी कुशलता से पकड़ता एवं चित्रित करता है। अपने समय की गहरी पहचान इन कविताओं में दिखार्इ देती है। इन कुछ पंकितयों में ही बाजार-समय का चेहरा झलक उठता है-सब कुछ आकर्षक-मोहकनयनाभिरामकैसी मोहक रसीली जुबानसत्कार भरे संबोधन......कहीं भी हो सकता है वह मोहक छलियाबाजार से लेकर घर तक......हमारे समय का सबसे बड़ा जादूगर है वह......किसी भी रूप में हो सकता हैवह बहुरूपियाहमारे आचार-व्यवहार में घुसता........जहाँ लटका है तराजूतोल में ठगे जाने कीसबसे अधिक संभावना भी रहती है वहीं। ......विश्वास बहेलिए की आड़ की तरह किया जा रहा हो इस्तेमाल।........रिश्तों की भीड़ का एकाकीपन.....चुपिपयों का चीत्कार। लेकिन एक प्रतिबद्ध कवि की खासियत होती है कि समय चाहे कितना ही बुरा और कठिन हो वह निराश-हताश नहीं होता है। वह अपनी कविताओं में एक खूबसूरत दुनिया की सृषिट करना नहीं छोड़ता। मनुष्य को उसकी ताकत का अहसास करता है। आत्मरंजन भी यही काम करते हैं। एक ओर जब बाजार अपनी चमक-दमक से हर कम चमकीली चीज को हाशिए में धकेल रहा है वे हाशिए में उपेक्षित पड़ी चीजों को कविता के केंद्र में लाकर सबका ध्यान आकृष्ट कर रहे हंै और अहसास करा रहे हंै कि उनके बिना आधी-अधूरी और हवार्इ है यह दुनिया। खास के समानांतर आम को खड़ा कर एक नर्इ दुनिया की सृषिट कर रहे हंै। उनके लिए पुराना डिब्बा भी बेकार नहीं होता है रोप दिया जाय उसमें एक फूल का पौंधा फिर जी उठता है पुराना वह। वे र्इश्वर को मानव का रचा बता कर मानव की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं और कहते हैं-तुम्हारी ऊँगली थामे ही तय होता हैघने से घने अंधेरे काअथाह सफर। वे अपील करते हैं-उदास मत हो मेरे दोस्तबहेलियों की कुटिल कालिमा के खिलाफ यूँ ही झिलमिलाते रहो यूँ ही टिमटिमाते कि बची रहे बनी रहेबहती रहे यह सृषिट अविरत अविरल।
कुल मिलाकर समीक्ष्य संग्रह की कविताएं जीवन के लिए संघर्ष करती सांसों और राहत की भीख माँगती कातर आँखों में जीवन रस की मिठास घोलती और उम्मीद की किरण जगाती हैं। जीवन की आपाधापी में खोती कोमल संवेदनाओं को बचाने और श्रम के गौरव को स्थापित करने की कोशिश करती हैं। यह बहुत अच्छी बात है कि कवि की दृषिट में सबसे जरूरी है मानवीय होना। कोर्इ कितना ही बड़ा हो यदि मानवीय नहीं है तो उसकी कोर्इ अहमियत नहीं है। कवि की यह दृषिट लोकधर्मी कविता के भविष्य के प्रति हमें आश्वस्त करती है।
पगडंडियाँ गवाह हैं( कविता संग्रह% आत्मरंजन
प्रकाशक- अंतिका प्रकाशन सी- यू जी एफ- शालीमार गार्डन एक्सटेंशन- गाजियाबाद-201005
मूल्य- दो सौ रुपए।
7 comments:
"ताक़तवर हो सकने के लिए सामने वाले की कमज़ोरी खोजना "
हमारे समाज का केन्द्रीय मिशन (?) भी यही है . इस लिए इस समाज को लिप्तं हो कर नही , तटस्थ हो कर देखने की ज़रूरत है . कि इस की "कुंठाओं" को निर्लिप्त नज़र से पहचान सकें .
यह आत्मा की सब से महत्वपूर्ण कविता है.
भाई आत्म्रंजन जी की किताब पर महेश भाई ने जिस तरह गहराई से लिखा है .....मज़ा आ गया ......यह लेख पढ़ कर मैंने किताब को दुबारा पढ़ा ........ जिसमे कई यादगार कवितायेँ हैं ......ये सौभाग्य है मेरा कि मैंने उनमे से बहुत सारी आत्म्रंजन भाई से सुनी हुई हैं ................ महेश भाई के पास कविता की गहरी समझ है और वे जिस तरह कवि के सरोकार की शिनाख्त करते हैं .......... वह काबिले तारीफ़ है |
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