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यादवेन्द्र
मध्य प्रदेश के साँची में लगभग दो सौ करोड़ रु. की लागत से सौ एकड़ भूमि में
बनने वाले बौद्ध विश्वविद्यालय का शिलान्यास श्री लंका के राष्ट्रपति महिंद
राजपक्ष ने 21सितम्बर को किया जिसमें प्रमुख रूप में बौद्ध दर्शन,सनातन धर्म और
विभिन्न धर्मों ,परम्पराओं ,साहित्य और कलाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाना प्रस्तावित है.इस अवसर पर
उन्होंने विश्व शांति और सहिष्णुता का रटा रटाया उद्बोधन भी किया जिसके सन्दर्भ
में खलील जिब्रान की यह उक्ति बेहद समीचीन होगी : "जिनपर जबरन कब्ज़ा कर लिया
गया हो उनको यदि विजेता खुद संबोधित करे तो ऐसे भाषण को सुनने को मैं कभी नहीं
तैयार हो सकता." मानव स्मृति कितनी भी अल्पजीवी क्यों न हो इन्हीं महाशय के
नेतृत्व में श्रीलंका के जातीय नरसंहार को भूलना इतना सहज और आसान नहीं है.
पर भारत में एक विश्वविद्यालय की नींव रखने वाले राजपक्ष के श्रीलंका में
जुलाई से सरकारी विश्वविद्यालय पढ़ाई नहीं करवा रहे हैं और हर रोज सरकार तानाशाही
फ़रमान जारी कर स्थिति को और बिगाड़ रही है....इस बीच गैर सरकारी विश्वविद्यालय
धड़ल्ले से बन रहे हैं.
दक्षिण दिशा में अपने निकटतम पड़ोसी श्रीलंका हमारे मानस पटल
से बिलकुल अनुपस्थित रहता यदि जयललिता ने हाल में वहाँ से फुटबॉल खेलने और
तीर्थयात्रा करने के लिए तमिलनाडु आने वाले श्रीलंकाई नागरिकों को वापस न भेज दिया
होता.थोड़ी और रियायत करें तो जब जब कथित रामसेतु का मामला सुप्रीम कोर्ट में
सुनवाई के लिए आता है तब परोक्ष रूप में श्रीलंका की याद आती है.पर अपनी भौगोलिक
विशालता के गुरुर में हम इतना खो जाते हैं कि पड़ोसी देशों के समाज को गहरे तौर पर
प्रभावित करने वाली बड़ी घटनाएं भी हमें छू नहीं पातीं.
इसी तरह का एक मामला श्रीलंका में जुलाई से चल रही यूनिवर्सिटी
शिक्षकों की हड़ताल का है. वहाँ के शिक्षा मंत्री कभी कहते हैं कि इस आन्दोलन का
कोई ख़ास असर नहीं है और उनको इसकी परवाह नहीं.फिर अचानक पिछले महीने की 21 तारीख को उन्होंने
देश की सभी पंद्रह सरकारी यूनिवर्सिटी को अनिश्चित कालीन अवधि के लिए बंद कर
दिया.इस महीने उनको खोल तो दिया गया पर शिक्षकों की हड़ताल अब भी जारी है और धीरे
धीरे इस हड़ताल के लिए जान समर्थन बढ़ रहा है.
हड़ताली शिक्षकों की मुख्य माँग है कि उनका वेतन बीस फीसदी बढाया जाये और
शिक्षा के लिए देश के कुल जी.डी.पी. का छह फीसदी खर्च किया जाये.उनकी अन्य मांगों
में शिक्षा के निजीकरण और राजनैतिक हस्तक्षेप और येन केन प्रकारेण चोर दरवाजे से
सैन्य प्रशिक्षण को थोपने को बंद करना शामिल है.पूरा प्रकरण तब ज्यादा प्रासंगिक
हो गया जब छात्रों का एक बड़ा वर्ग शिक्षकों की मांग के खुले समर्थन में आ खड़ा
हुआ. जब सभी तरफ से इस अड़ियल रवैय्ये को लेकर दबाव बढ़ने लगा तो सरकार को बंद
यूनिवर्सिटीयों को खोलने का फैसला करना पड़ा पर हड़ताली शिक्षक बिना माँग माने
अपने आन्दोलन को स्थगित करने को तैयार नहीं हैं.सरकार आन्दोलनकारियों की तख्ता पलट
की षड़यंत्रकारी मंशा की ओर इशारा करती है तो आन्दोलनकारी हड़ताल को लम्बा खींचने के
पीछे उच्च शिक्षा के निजीकरण की कुटिल राजनीति का हवाला देते हैं.
सरकार बार बार यूनिवर्सिटी कैम्पस से उठने वाली सत्ता विरोधी राजनीति का हवाला
देती है और इसको जड़ से कुचलने का दम भरती है.इसीलिए शिक्षकों द्वारा उठाई गयी
बड़े नीतिगत फैसलों की माँग भी नक्कार खाने में तूती बनकर दबती जा रही है
.शिक्षकों की यूनियन के अध्यक्ष डा. निर्मल रंजीथ देवासिरी का कहना है कि उनकी माँग
ने देश में शिक्षा की वर्तमान दशा की ओर व्यापक स्तर पर जनता का ध्यान खींचा है तभी
तो लाखों की संख्या में उनको समर्थन में लोगों के हस्ताक्षर मिले हैं.अनेक बैठकों के
बाद सरकार ने उनकी मांगों की पृष्ठभूमि में एक सरकारी नीति प्रपत्र लेने की बात पर
सहमति जताई है पर वेतन वृद्धि को लेकर दोनों पक्षों के बीच की खाई अभी भी उतनी ही
चौड़ी है.सरकार ने छात्रों के लिए प्रस्तावित नए प्रशिक्षण कार्यक्रम भी फ़िलहाल रोक
देने का आश्वासन दिया है.
सरकार ने बातचीत के बाद जो सरकारी नीति प्रपत्र प्रस्तुत किया उसमें आर्थिक
संसाधनों का रोना रोते हुए शिक्षा के लिए जी.डी.पी. का छह फीसदी हिस्सा उपलब्ध
कराने में असमर्थता जताई है.जमीनी हकीकत यह है कि 1970 में जहाँ सरकार
शिक्षा के लिए 3.98 फीसदी खर्च किया करती थी वह 2005 में घट कर 2.9 फीसदी रह गया और अब
तो घटते घटते यह हिस्सा दो फीसदी से भी कम रह गया है.श्रीलंका के पड़ोसी देश मालदीव
और मलेशिया जहाँ इस इस मद में 11 और 8 फीसदी खर्च करते हैं वहीँ भारत और पाकिस्तान 3.85 और 2.7 फीसदी खर्च करते
हैं.
बांग्लादेश में भी पिछले कई महीनों से
यूनिवर्सिटी शिक्षा देशव्यापी आंदोलनों की वजह से ठप है और प्रधानमंत्री शेख हसीना इस
अव्यवस्था से निबटने के लिए सख्त होने तक की धमकी दे चुकी हैं.देश में 34 सरकारी और 62 गैर सरकारी यूनिवर्सिटी हैं
और इनमें से अधिकांश सरकारी संस्थानों में वाईस चांसलरों और शीर्ष अधिकारियों को
हटाने की माँग की जा रही है. कहीं कहीं तो
सेना को भी बीच में लाया जा रहा है इसी लिए सेना को सभी उच्च शिक्षा संस्थानों से
बाहर करने की मांग भी छात्र करने लगे हैं.अधिकांश मामलों
में अध्यापकों का समर्थन छात्रों के साथ है हांलाकि हाई कोर्ट ने उन्हें ऐसा करने से मना किया
है पर आन्दोलन की औपचारिक घोषणा न करके वे छात्रों के साथ मिलकर वैकल्पिक आन्दोलन
चला रहे हैं.कहा जाता है कि
इस शैक्षणिक असंतोष के लिए मुख्यतः शीर्ष पदों पर राजनैतिक नियुक्तियाँ और छात्र तथा शिक्षक यूनियनों का दलगत संघर्ष जिम्मेवार है.शिक्षाविदों में निजी
शिक्षण संस्थानों को बढ़ावा देने की नीति को लेकर भी गहरा असंतोष है और सरकार एक के
बाद दूसरी कमिटी बना कर आपने हाथ झाड़ लेती है.करीब सवा लाख
छात्रों वाली बांग्लादेश की नेशनल यूनिवर्सिटी दुनिया की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी
मानी जाती है और उच्च शिक्षा के
इच्छुक देश के करीब सत्तर फीसदी छात्र इस से सम्बद्ध हैं पर अव्यवस्था का आलम यह
है कि चार साल का डिग्री कोर्स दुगुने समय में पूरा हो पा रहा है.बांग्लादेश यूनिवर्सिटी ऑफ
इंजीनियरिंग एंड टेक्नालाजी देश के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित तकनीकी संस्थानों में
शुमार किया जाता है और पिछले दिनों यहाँ के आन्दोलनकारी छात्र अपना लहू एकत्र करके वाईस चांसलर
के दफ्तर के सामने बिखेरते हुए देखे गये.
ब्रिटेन पंद्रह साल पहले हांगकांग को चीन के हवाले कर गया था तबसे
पश्चिमी तर्ज की आज़ादी का स्वाद चख चुके इस विशेष दर्जाधारी राज्य में चीनीकरण की
प्रक्रिया जोरशोर से चलायी जा रही है.कहने को एक हजार वर्ग किलोमीटर से थोड़ा
ज्यादा रकबे वाला सत्तर लाख आबादी वाला यह इलाका बहुत छोटा है पर एक दलीय चीनी शासन व्यवस्था
थोपने का कदम कदम पर विरोध हो रहा है.नया शैक्षिक सत्र लागू होते ही इसबार हांगकांग
के छात्र नए प्रस्तावित नेशनल एजुकेशन करिकुलम (खास तौर पर इसके अंतर्गत दिए गये
मोरल एंड नेशनल पॅकेज) का विरोध करते हुए सड़कों पर उतर आये और उन्हें अभिभावकों,आम नागरिकों और शिक्षकों का अपार समर्थन मिला.खबरें आ
रही हैं कि लाखों की संख्या में रात दिन लोग इस में शामिल होते गये जिसमें
यूनिवर्सिटी के छात्रों पर नैतिक शिक्षा के नाम पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का गुणगान
करने वाले एकतरफ़ा इतिहास और पाठ्यक्रम को थोपने का विरोध किया गया.शासन ने पहले तो
देशभक्ति की भावना बढ़ाने का हवाला देते हुए काफी सख्त रुख अपनाया पर धीरे धीरे
आन्दोलनकारियों के निशाने पर जब भ्रष्टाचार और एकदलीय शासन प्रणाली आने लगे,यहाँ तक कि आन्दोलनकारियों ने स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी की
तर्ज पर लोकतंत्र की देवी की मूर्ति तक बना डाली तो स्थानीय चुनावों के मद्देनजर
शासकों का रवैय्या नरम पड़ा और अंततः 8 सितम्बर को पाठ्यक्रम को फ़िलहाल स्वैच्छिक घोषित कर दिया गया पर 2015 में अनिवार्य तौर पर लागू करने पर अब भी यथास्थिति
बनी हुई है.जुलाई में शुरू हुआ स्कूली छात्रों का यह स्वतःस्फूर्त आन्दोलन समाज के
प्रबुद्ध तबके को इस कदर झगझोड़ गया कि एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी के वाईस चांसलर
सार्वजनिक तौर पर बोल पड़े कि हम छात्रों के साथ हैं और उनकी मदद में जो भी बन
पड़ेगा हम करने को तैयार हैं.
2 comments:
सार्थक प्रस्तुति!
यादवेन्द्र जी न सिर्फ हमारे आसपास बल्कि पूरे ग्लोब पर सधी और सावधान वैचारिक दृष्टि रखते हैं। मुझ जैसे व्यक्ति की अनभिज्ञताओं, अज्ञान और असावधानियों में उनका लिखना और मेरे सम्पर्क में उनका होना.... मुझमें हमेशा ही कुछ समझ का आना है। ये समाचार हम सभी ने पढ़ा पर यादवेन्द्र जी की निगाह अचूक है....कोई सानी नहीं उनका।
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