डॉ नूतन डिमरी गैरोला को 90 के दौर से पढ़ रहा हूं ।
इधर उनको थोड़ा करीब से जानना और पढ़ना हुआ। पेशे से डॉक्टर नूतन डिमरी गैरोला अपने भीतर की उस स्त्री के साथ हैं जो सामाजिक नैतिकताओं के ताने बाने में जीने को मजबूर हैं लेकिन तब भी अपने ऊपर होने वाले प्रहारों से मुक्त नहीं। उनकी कविताओं में एक ऐसी अकुलाहट है जो रह रह कर उन स्थितियों को सवालों के घेरे में लाती है जिनका वास्ता जीत और हार की निर्मिति को रचने में संलग्न रहता है। जहां प्रेम उम्मीदों का वसंत होकर नहीं आता बल्कि हांफ हांफ कर पछाड़ खाता है और हत्यारी जंग से निपटने के लिए मामूली सा सहारा भी नहीं बन पाता। बेशक उनके इस स्वर से आप पूरी तरह सहमत नहीं हो सकते लेकिन इस सवाल पर थोड़ी देर ठहरना तो चाहिए कि ऐसे निर्मम और जड़ समय में एक स्त्री की कातर पुकार क्या इससे भिन्न कोई दूसरा स्वर गुनगुना सकती है-
कितना मैं अपनी ज़िद पर अड़ी/जिंदगी को हर दिन गुलदान में/सजा देती हूँ /ताकि महकता रहे घर भर...।
वि गौ
इधर उनको थोड़ा करीब से जानना और पढ़ना हुआ। पेशे से डॉक्टर नूतन डिमरी गैरोला अपने भीतर की उस स्त्री के साथ हैं जो सामाजिक नैतिकताओं के ताने बाने में जीने को मजबूर हैं लेकिन तब भी अपने ऊपर होने वाले प्रहारों से मुक्त नहीं। उनकी कविताओं में एक ऐसी अकुलाहट है जो रह रह कर उन स्थितियों को सवालों के घेरे में लाती है जिनका वास्ता जीत और हार की निर्मिति को रचने में संलग्न रहता है। जहां प्रेम उम्मीदों का वसंत होकर नहीं आता बल्कि हांफ हांफ कर पछाड़ खाता है और हत्यारी जंग से निपटने के लिए मामूली सा सहारा भी नहीं बन पाता। बेशक उनके इस स्वर से आप पूरी तरह सहमत नहीं हो सकते लेकिन इस सवाल पर थोड़ी देर ठहरना तो चाहिए कि ऐसे निर्मम और जड़ समय में एक स्त्री की कातर पुकार क्या इससे भिन्न कोई दूसरा स्वर गुनगुना सकती है-
कितना मैं अपनी ज़िद पर अड़ी/जिंदगी को हर दिन गुलदान में/सजा देती हूँ /ताकि महकता रहे घर भर...।
वि गौ
प्रेम जैसे पहाड़ का सबसे ऊँचा शिखर
प्रेम जैसे
पहाड़ का सबसे ऊँचा शिखर
एक अजीब खिंचाव
पहाड़ को फ़तेह करने को आतुर
एक प्रेमी मन विभोर हो जाता है|
खड़ी अडचने,
उनको, पस्त हो हांफ हांफ कर करता पार
पहुँचता है शिखर
पर |
जहां
कठिन होता है ठहराव
अविश्वास, अहंकार, असहमतियों की बारिश,
शिखर पर जब बरसती है जोर से
तब पहाड़ पर होता है भूस्खलन
ऐसे में वह मन चोटी से फिसल कर
लुढक जाता है
बहुत तीखी ढलानों पर
और चकनाचूर हो जाता है|
नीचे बहती है एक उदास, तन्हा, नदी|
अपनी ह्त्या के खिलाफ
मुझे इस्तेमाल करना है जिंदगी को
अपने ही हाथों
अपनी ह्त्या के खिलाफ|
रोज़ उम्मीदों की देह पर उमगते नासूर
ह्त्या की साजिश करते हैं
अपने ही हाथों
अपनी ह्त्या के खिलाफ|
रोज़ उम्मीदों की देह पर उमगते नासूर
ह्त्या की साजिश करते हैं
और नीम अँधेरी रातों में
सुर्ख़ उगते सूरज के विचार
विचलित होते मन की पीठ पर
हाथ धरते हैं|
मैं अपनी ज़िद पर अड़ी
जिंदगी को हर दिन गुलदान में
सजा देती हूँ
ताकि महकता रहे घर भर ……
विचलित होते मन की पीठ पर
हाथ धरते हैं|
मैं अपनी ज़िद पर अड़ी
जिंदगी को हर दिन गुलदान में
सजा देती हूँ
ताकि महकता रहे घर भर ……
उसके साथ मुस्कुराता है बसंत
उसने देखी थी तस्वीर
अपनी ही सखी की
जिसमे स्त्री हो जाती है
जंगली
जिसके तन पर उग आती है पत्तियाँ
बलखाती बेलें अनावृत सी
कुछ टीले टापू और ढलानें
और
जंगल के बीच अलमस्त बैठी वह
स्त्री
सारा जंगल समेटे हुए
प्रशंसक हैं कि टकटकी बाँध घेरे
हुए तस्वीर को
और चितेरे अपने मन के रंग भरते
हुए ..........
अपनी ही सखी की
जिसमे स्त्री हो जाती है
जंगली
जिसके तन पर उग आती है पत्तियाँ
बलखाती बेलें अनावृत सी
कुछ टीले टापू और ढलानें
और
जंगल के बीच अलमस्त बैठी वह
स्त्री
सारा जंगल समेटे हुए
प्रशंसक हैं कि टकटकी बाँध घेरे
हुए तस्वीर को
और चितेरे अपने मन के रंग भरते
हुए ..........
तब धिक्कारती है वह अपने
भीतर की स्त्री को
कि जिसने
देह के सजीले पुष्प और महक को
छुपा कर रखा बरसों
किसी तहखाने में जन्मों से
कितने ही मौसमों तक
और तंग आ चुकती है वह तब
दुनिया
भर के आवरण और लाग लपेटों से.................
वह कुत्ते की दुम को सीधा
करना चाहती है
ठीक वैसे ही जैसे वह चाहती
है जंगली हो जाना
लेकिन उसके भीतर का जंगल
जिधर खुलता है
उधर बहती है एक नदी
तथाकथित संस्कारों की
जिसके पानी के ऊपर हरहरा
रहा है बेमौसमी जंगल
और वह देखती है एक मछली में खुद को
जो तैर रही है उस पानी में.....................
वह कुढती है खुद से
वह उठाती है कलम
और कागज में खींचना चाहती
है एक जंगल बेतरतीब सा
पर शब्द भी ऐसे हैं उसके कि जंगली
हो नहीं पाते
ईमानदारी से जानने लगी
है वह
जंगली हो पाना कितना कठिन है
असंभव
ही नहीं उसके लिए नामुमकिन है
वह छटपटाती है
हाथ पैर मारती है
वह मन के विषम जंगल से बाहर
निकल पड़ती है ......
................................................
और जिधर से गुजरती है वह
उसके मन के जंगल से गिर जाता है
सहज हरा धरती पर
प्रकृति खिल उठती है
हरियाली लहलहाने लगती है
प्युली खिल उठती है पहाड़ों में
कोयल गीत गाती है
और बसंत मुस्कुराता है
देह के सजीले पुष्प और महक को
छुपा कर रखा बरसों
किसी तहखाने में जन्मों से
कितने ही मौसमों तक
और तंग आ चुकती है वह तब
दुनिया
भर के आवरण और लाग लपेटों से.................
वह कुत्ते की दुम को सीधा
करना चाहती है
ठीक वैसे ही जैसे वह चाहती
है जंगली हो जाना
लेकिन उसके भीतर का जंगल
जिधर खुलता है
उधर बहती है एक नदी
तथाकथित संस्कारों की
जिसके पानी के ऊपर हरहरा
रहा है बेमौसमी जंगल
और वह देखती है एक मछली में खुद को
जो तैर रही है उस पानी में.....................
वह कुढती है खुद से
वह उठाती है कलम
और कागज में खींचना चाहती
है एक जंगल बेतरतीब सा
पर शब्द भी ऐसे हैं उसके कि जंगली
हो नहीं पाते
ईमानदारी से जानने लगी
है वह
जंगली हो पाना कितना कठिन है
असंभव
ही नहीं उसके लिए नामुमकिन है
वह छटपटाती है
हाथ पैर मारती है
वह मन के विषम जंगल से बाहर
निकल पड़ती है ......
................................................
और जिधर से गुजरती है वह
उसके मन के जंगल से गिर जाता है
सहज हरा धरती पर
प्रकृति खिल उठती है
हरियाली लहलहाने लगती है
प्युली खिल उठती है पहाड़ों में
कोयल गीत गाती है
और बसंत मुस्कुराता है
स्त्री में तितली
स्त्री करती है प्यार
कोमलता से
रंगों से
खुश्बू से
इस तरह वह बनाए रखना चाहती है
प्रेममयी पुष्प को
अपने ह्रदय में
अपने आँगन में
.......
स्त्री हो जाना चाहती है तितली
---------------------------
वर्जानाओं की जद में
तिलमिलाती वह
दीपक की लौ में
अंतिम लपलपाहट देखती है
तो मुस्कुराती है..
कोमलता से
रंगों से
खुश्बू से
इस तरह वह बनाए रखना चाहती है
प्रेममयी पुष्प को
अपने ह्रदय में
अपने आँगन में
.......
स्त्री हो जाना चाहती है तितली
---------------------------
वर्जानाओं की जद में
तिलमिलाती वह
दीपक की लौ में
अंतिम लपलपाहट देखती है
तो मुस्कुराती है..
स्त्रियाँ
गुजर जाती हैं अजनबी से जंगलों से
जानवरों के भरोसे
जिनका सत्य वे जानती हैं.
सड़क के किनारे तख्ती पे लिखा होता है
सावधान, आगे हाथियों से खतरा है
जानवरों के भरोसे
जिनका सत्य वे जानती हैं.
सड़क के किनारे तख्ती पे लिखा होता है
सावधान, आगे हाथियों से खतरा है
.
और वे पार कर चुकी होती हैं जंगल सारा .......
फिर भी गुजर नहीं पातीं
स्याह रात में सड़कों और बस्तियों से
कांपती है रूह उनकी
कि
तख्तियां
उनके विश्वास की सड़क पर
लाल रंग से जड़ी जा चुकी हैं
और वे पार कर चुकी होती हैं जंगल सारा .......
फिर भी गुजर नहीं पातीं
स्याह रात में सड़कों और बस्तियों से
कांपती है रूह उनकी
कि
तख्तियां
उनके विश्वास की सड़क पर
लाल रंग से जड़ी जा चुकी हैं
कि
सावधान! यहाँ आदमियों से खतरा है.............
सावधान! यहाँ आदमियों से खतरा है.............
चेताती है स्त्री
मेरी
हदों को पार कर
मत
आना तुम यहाँ
मुझमे
छिपे हैं शूल और
विषदंश
भी जहाँ |
फूल
है तो खुश्बू मिलेगी
तोड़ने
के ख्वाब न रखना|
सीमा
का गर उलंघन होगा
कांटो
की चुभन मिलेगी …
सुनिश्चित
है मेरी हद
मैं
नहीं
मकरंद
मीठा शहद ..
हलाहल
हूँ मेरा पान न करना |
याद
रखना
मर्यादाओं
का उलंघन न करना ||