7-8 मई 2016 को कुशीनगर में जोगिया
जनूबी पट्टी में संपन्न हुआ लोक उत्सव इस बात की बानगी है कि लोक नाट्य, लोकगीत,
जनगीत और समाज, साहित्य, संस्कृति के साथ साथ अभिव्यक्ति की आजादी की बातें कैसे
गांव वालों की बतकही का हिस्सा बनायी जा सकती है। आनंद स्वरूपा वर्मा, रविभूषण,
मदनमोहन सरीखे हिन्दी के बुद्धिजीवि, आलोचक, रचनाकारों के साथ साथ देश भर के भिन्न
भिन्न भागेां से आये लोक कलाकारों का सामूहिक जमावड़ा दो दिनों तक वहां लोक को
समझने ओर समृद्ध करने की उस औपचारिक कार्यवाही का हिस्सेदार रहा जो पिछले नौ
वर्षों से जोगिया जनूबी पट्टी की हलचल बना हुआ है। कुशीनगर का यह लोक उत्सव जनभागीदारी
की एक सहज और स्वाभाविक गतिविधि के रूप में जाना जाने लगा है। इस बार का
कार्यक्रम हिन्दी के जन कवि विद्रोही जी को समर्पित था, और उस मूल विचार के
अनुकूल था जिसका लक्ष्य मानवता के दुश्मनों को पहचानने और उनसे टकराने के लिए
जनसमूहों के बीच व्यापक एकता के सूत्र बनाते रहने में यकीन रखने वाला होता है।
कुशीनगर में हर वर्ष आयोजित होने वाला
यह लोक उत्सव पूर्वांचल की उस हवा का का एक कतरा कहा जा सकता है, जिसका लगातार बहाव
पिछले कुछ वर्षों से इस भूगोल में मौजूद है। हिन्दी भाषा का विशाल क्षेत्र, जिसे
अक्सर हिन्दी पट्टी कह दिया जाता है, पश्चिम में राजस्थान से लेकर पूरब में
बिहार, झारखण्ड तक एवं उत्तर में उत्तर-पश्चिम हिमालय क्षेत्र के राज्य हिमाचल
और उत्तराखण्ड से लेकर मध्यभारत तक फैला हुआ है। विविध सांस्कृतिक
विशिष्टिताओं वाले जनसमाजों के बावजूद इस पूरे भू भाग में संयुक्त रूप से होने
वाली किसी भी सांस्कृतिक गतिविधि की कोई बड़ी गूंज सुनायी नहीं देती है। इसे
सांस्कृतिक शून्यता तो इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि हिन्दी की रचनात्मक
दुनिया का जो कुछ भी है वह ज्यादतर इन जगहों से ही आता है। तो भी एक प्रकार से यहां के माहौल सांस्कृतिक जड़ता की व्याप्ति तो दिखायी
देता ही है। कारणों को खोजे राजनैतिक, सामाजिक आंदोलन का आभाव मूल वजह के रूप में
दिखता है। जिसकी वजह से रचनात्मक लोगों के बीच भी एकजुटता बनने का कोई रास्ता
बनता हुआ नहीं दिखता है।
लेकिन यह उल्लेखनीय है कि पिछले पच्चीस
तीस सालों में पूर्वांचल यह भूभाग बीच बीच में कुछ ऐसी गतिविधियां का हिस्सा रहा
जिनका उद्देश्य चारों ओर फैली हुई सांस्कृतिक जड़ता को तोड़ना रहा। एक समय में
गोरखपुर एवं उसके आस पास के क्षेत्रों में पैदा हुआ जनचेतना का आंदोलन जो राहुल
फाउण्डेशन की शक्ल लेता हुआ बाद में लखनऊ तक विस्तार किया। लगभग उसी दौर के आस
पास आजमगढ़ के जोकहरा गांव में स्थापित हुआ श्री रामानान्द सरस्वती पुस्तकालय।
लगभग पिछले दस वर्षों से जारी प्रतिरोध का सिनेमा कार्यक्रम जो अन्य नगरों तक
विस्तार लेता हुआ है।
जनचेतना एवं राहुल फाउण्डेशन और प्रतिरोध
का सिनेमा जैसे कायर्क्रमों का चरित्र जहां आरम्भ से सांगठनिक गतिविधियों का हिस्सा
रहा, वहीं कुशीनगर का लोक उत्सव और जोकहरा गांव का श्री रामानन्द सरस्वती पुस्तकालय
अपनी अपनी में हिन्दी के दो लेखकों की स्वतंत्र-स्वतंत्र परिकलपानायें कही जा
सकती हैं। गांव के हालातों पर अपने पैनी निगाह रखने वाले हिन्दी के महत्वपूर्ण
कथाकार सुभाष चंद्र कुशवाह ने अपने गृहगांव जोगिया जबूनी पट्टी में लोकरंग उत्सव
की शुरूआत की तो कथाकार विभूति नारायण राय ने अपने पैतृक गांव जोकहरा के विकास को
अपनी सामाजिक जिम्मेदारी मानते हुए पुस्तकालय की नींव रखी। विकास नारायण राय
सरीखे प्रखर रचनाकारों का भी रचनात्मक सहयोग पुस्तकालय को मिलता रहा।
दिलचस्प है कि दो दिनों के लोक उत्सव
का रंग पूरे गांव में साल भर तक बनी रहने वाली उस अमिट छाप के रूप में मौजूद रहता
है जो प्रत्यक्ष तौर पर रंगों में उभरती आकृति होती हैं, लेकिन अप्रत्यक्ष तौर
पर जिसके अक्श गांव के नौनिहालों के बचपन को एक बेहतर नागरिक बनाने वाले प्रभावों
में दर्ज होते जा रहे हैं। ठीक इसी तर्ज पर पर 1993 में आजमगढ़ के जोकहरा गांव में
की गयी पुस्तक संस्कृति के विकास की पहल आज ऐसे पुस्तकालय के रूप में है जिसके
कामों का दायरा महिला हिंसा और जाति हिंसा सवालों के प्रति नागरिक चेतना के विकास
में गांव भर के लोगों से रोज का संवाद होना भी हुआ है। पुस्तकालय अपनी एक ऐसी बिल्डिंग के साथ खड़ा है
जिसमें हिन्दी की तमाम लघु पत्रिकाओं के अनुपलब्ध अंक सुरक्षित रखे हैं। लघु
पत्रिकाओं का ऐसा संग्रह मेरे जानकारी में तो देश के किसी अन्य पुस्तकालय में
नहीं है। इस लिहाज से देखें तो शोधार्थियों के लिए यह एक महतवपूर्ण पुस्तकालय है
जहां तथ्य की उपलब्धता संपादित होकर प्राकाशित हो चुकी पुस्तकों की बजाय समय
काल की जीवन्त बहसों के रूप में है। हंस, कथादेश, सारिका ही नहीं, पहल, कल्पना,
पूर्वग्रह, कहानी, कहानीकार, अणिमा आदि बहुत सी विलुप्त हो चुकी पत्रिकाएं भी यहां
सुरक्षित ही नहीं है, अपितु जिनकी व्यवस्था के लिए नियमितता का तंत्र मौजूद है। पुस्तकालय
की सेवाओं को प्राप्त करने के लिए आने जाने वाले अध्येताओं और अतिथियों की आवास
और भोजन सुविधा को भी यहां अपने सीमित साधनों में निपटा लिया जाता है।
व्यक्तिगत प्रयासों से शुरू होने
वाली ये दोनों ही गतिविधियां लगातार सामूहिकता की ओर बढ़ती हुई हैं जिनके असर में
आयोजन स्थलों के आस पास का भूगोल आंदोलित होता हुआ है और सामाजिक माहौल को
परिमार्जित, परिष्कृत करता हुआ है।
1 comment:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (20-05-2016) को "राजशाही से लोकतंत्र तक" (चर्चा अंक-2348) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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