स्त्री को तो सदा से उसके मन को समझने वाला, उसके क्रियाकलापों से साझा करने वाले साथी की जरूरत
रही है। पता नहीं किसके लिए अतिरिक्त प्रोटीन ले कर जिम जा कर कुछ पुरुष ‘माचौ’
मैन बनने, मसल्स बनाने में
लगे रहते हैं। समझना चाहिए कि शारीरिक बल व्यक्तित्व का निर्धारक तत्व नहीं है, व्यक्तित्व का समूचा विकास अधिक महत्वपूर्ण है। लड़कियों
का जीरो फिगर और लड़कों का सिक्स पैक्स दोनों अतिचार है, जिसकी भविष्य में कोई जरूरत नहीं रहने वाली है। अपने
आस-पास निगाह डालें तो दिखाई देगा कि पिछले पाँच-सात सालों से शिशु को गोदी में
लिए पिता मेट्रो या बस में दिखने लगे हैं। पहले एक वर्ष तक के बच्चे के साथ माँ का
होना अवश्यम्भावी लगता था। किंतु अब पूरे आत्मविश्वास से पुरुष बच्चे को, उसके सामान को सम्भालते, भीड़ में जगह बनाते दिखते हैं। उनके लिए सीट खाली
करना, उनका सहज भाव से
लेना ...बहुत सुंदर लगते हैं ऐसे पुरुष। गोद में बच्चा लिया हुआ पुरुष किसी के लिए
खतरा नहीं हो सकता। उनकी उपस्थिति में तो बोतल फोड़ बाहर आई हँसी की खनखनाहट भी
कुंठित नहीं होगी। बल्कि ऐसे दृश्य अपने कोमल संस्पर्श से परिवेश में मुलामियत ला
देते हैं।
सामाजिक गतिकी पर उसके प्रभाव को परखने के लिए अपने
आस-पास के परिवेश पर नजर डालें तो कुछ सुख विभोर करने वाली अनुगूँजें सुनायी दे सकती
हैं। कुछ साल पहले तक लड़कियों का खुल कर हँसना भी सहज सम्भव नहीं था। महानगरों
में मेट्रो के लेडीज कोच में, कैंटीन या कहीं भी जहाँ लड़कियाँ बहुसंख्य हों। ‘हँसी तो फँसी’ जैसे शब्द-युग्म अपना अर्थ खो बैठे हैं। लड़कियों की
हँसी की खनक से पूरा डिब्बा ऐसे गुलजार रहता है जैसे किसी ने हँसी की बोतल का डाट
खोल दिया। आस-पास के माहौल से बेखबर बेबात पर ऐसी चहचहाहट, खिलखिलाहट अक्सर सुनाई पड़ती है, ये बेपरवाही, ये बेवजह का खिलंदड़पन, खुशनुमाई अकुंठ व्यक्तित्व में ही सम्भव है। संतोष
होता है कि कहीं तक तो पहुँचा कारवाँ।
बदलते समय के साथ विकसित जिन नवीन अध्ययन दृष्टियों
ने ज्ञान की एकांगी प्रणाली पर सवाल उठाए हैं, स्त्री-विमर्श सहित अन्य अस्मिता
मूलक विमर्श उनकी बानगी भर हैं। स्त्री विमर्श के उभार के बाद से दुनिया भर में
जेंडर अध्ययन केंद्र विकसित हुए हैं। नयी समावेशी दृष्टि से खंगाली गई वास्तविकता
से ज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़ी शिफ्ट आई है। स्त्री-पुरुष दोनों समान रूप से
ज्ञान के लक्ष्य एवं केंद्र हैं। दलित, आदिवासी जैसी अन्य हाशियाकृत अस्मिताएँ भी अपने नजरिए से दुनिया को देखने और
उसमें अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही हैं। स्त्री समाज ऐसा समाज है जो वर्ग, नस्ल राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पार जाता है और
वंचनाग्रस्त समाज से ममता और स्नेह का मानवीय सम्बंध स्थापित करता है। वरना सभ्यता
के अब तक के इतिहास ने दुनिया को स्त्री-पुरुष, देह-मस्तिष्क, प्रकृति-संस्कृति के विलोम द्वय में विभाजित करके
ग्रहण करने की ज्ञान-सरणियाँ ही विकसित की हुई थी। यदि वे सरणियां यूंही कायम रहें
तो निश्चित ही जीवन-जगत में कई तरह की विसंगतियाँ जन्म लेंगी। द्वित्व बोध से
देखा गया सत्य कभी पूरा नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि विलोम की मानसिकता से
उत्पन्न सत्य केवल खंडित ही नहीं होता अपितु एक पक्ष को महत्वपूर्ण आयामों से
वंचित कर देता है। पुरुष को केंद्र में रख कर पुरुष के नजरिए से विकसित समाज में
स्त्री की स्थिति तो दोयम नागरिक की ही रही है। इतिहास एवं ज्ञान के अन्य
अनुशासनों का निर्माता पुरुष ही बना रहा है।
यूं भी स्त्री-पुरुष का सम्बंध एक ऐसा अनिवार्य
सम्बंध है जिसके बिना समाज एक कदम भी नहीं चल सकता। इसमें फाँक सम्बंध को बेहद जटिल
बना देती है।
गत कुछ दशकों में शेष आधी दुनिया का नजरिया और आधी
दुनिया का यथार्थ पत्र-पत्रिकाओं, गोष्ठियों, वाद-विवादों, साहित्य-सिनेमा, सोशल मीडिया, सामाजिक संगठनों से लेकर गली-गली ..हर जगह फैले
नुक्कड़ नाटकों, रैलियों सब जगह
अपनी पैठ बनाता भी गया है।
दुनियावी बदलावों के ऐसे प्रयोगों के परिणाम बताते
हैं कि संवादधर्मिता से मानवीय गुणों का प्रशिक्षण सम्भव हो सकता है। प्रतीकात्मक
रूप से यही संकेतित होता है कि उदात्त मानवीय गुणों की उच्च भूमि में आसीन होने के
लिए स्त्री जैसी सह्दयता, संवेदनशीलता, वर्तमानता होनी जरूरी है। रोजमर्रा के जीवन में भी निर्णायक भूमिका में इन
गुणों का समायोजन आवश्यक है।
किसी भी तरह के अतिरेकों से युक्त समाज स्वस्थ और
सुंदर नहीं हो सकता। परम्परा के अनुसार वीरता, शौर्य, नियंत्रण, दमन, न्याय प्रिय, सबल, समर्थ इत्यादि गुण पुरुषोचित माने गए। स्नेह, ममता, सहनशीलता, क्षमा, करुणा, संवेदनशीलता आदि गुण स्त्रियोचित माने गए।
इस सत्य से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि स्त्रीवाद
के विभिन्न उभारों में स्त्रीत्व के उत्सव मनाने की प्रवृत्ति भी देखी गई। यह
प्रतिक्रिया अब तक दबाई गई स्प्रिंग का उछाल ही प्रतीत होती है और आशंका उत्पन्न
होती है कि नई तरह की अति से ग्रस्त न हो जाए। स्त्री में पुरूषोचित ‘विशिष्ट
गुणों’ के अभाव की बात को चुनौती देते हुए सिद्ध करने की कोशिश भी अक्सर होती है
कि स्त्री भी उन सब गुणों से लैस है। स्त्री में उन गुणों का अभाव नहीं है। स्त्री
अनन्या नहीं है। बाज दफे तो शारीरिक, जैविक, मानसिक विशिष्टता
के कारण उसे पुरुष से बेहतर भी मान लिये जाने वाली बातें सामने आती हैं। इस तरह के
दावे किये जाते हैं कि स्त्रियोचित ‘उत्कृष्ट गुण’ केवल स्त्रियों में हो सकते
हैं।
जबकि एक मुकम्मल मनुष्य होने के लिए दोनों तरह के
गुणों का होना आवश्यक है।
एकांगी गुणों से संचालित सभ्यता ने तो घर और बाहर
हिंसा और अत्याचार के अनंत सिलसिले रचे हैं। यहां तक कि जब कोई स्त्री सफल , सबल हो कर समाज में सशक्त भूमिका में आती है तो वह भी
इन्हीं शक्तिशाली समझे जाने वाले गुणों को अपना लेती है और अपने सहज स्वाभाविक,वअधिक जीवंत गुणों को छोड़ती जाती है।
मानवीय गुणों को बड़े-छोटे, महान-सामान्य, भाव-अभाव की श्रेणियों में विभक्त कर देने वाली
शिक्षा सिर्फ महान करार दिये गए गुणों के गुणगान का ही पाठ पढ़ाती है। सत्ता से उसका
सीधा सम्बंध है। सत्ता का वह रूप आज बाजार के रूप में दिखता है, सूचना तंत्र के
सहारे चौतरफा आक्रामक तेवर के जरिये जो सम्पूर्ण मानवता को पूरी तरह अपनी गिरफ्त
में ले लेने को ललायित है। सब पहचानें गला-तपा कर व्यक्ति उपभोक्ता में तब्दील होता जा रहा है।
इस्मत चुगताई ने अपनी आत्मकथा में एक ऐसी घटना का
जिक्र किया जब एक पुलिस वाला उनके हस्ताक्षर लेने घर आया तो वे अपनी दस महीने की
बच्ची को दूध पिला रही थी। पेन पकड़ने के लिए हाथ खाली करने उन्होंने चंद सेकंड के
लिए दूध की बोतल उसे पकड़ानी चाही तो वह इतनी बुरी तरह बिदक के कई कदम पीछे हो गया
जैसे कि बोतल न हो कर बंदूक हो।
आज बच्चे की दूध की बोतल के साथ सहज रिश्ता पुरुषों
का बनने लगा है। स्त्री विमर्श का एक पाठ और जरूरी पाठ यह हो सकता है कि प्राणों
को सींचने के काम में जब पुरुष सहभागी होंगे तो जिंदगी का मूल्य तो खुद ब खुद
उन्हें समझ आने लगेगा। ऐसी प्राणशीलता जिसके भीतर कुलबुला रही हो, उसके हाथ चाकू नहीं चला सकते, उसकी वाणी आक्रामक नहीं हो सकती। कसक होती है कि
हमारा परिवेश इस अकुंठ आनंद उत्सव का लुत्फ लेना क्यों नहीं सीख लेता। स्वस्थ सौंदर्य
बोध, स्वस्थ आनंद बोध।
जैसे कोई सूर्योदय का, प्रकृति की लीलाओं का आनंद लेता है बिना किसी अधिकार भाव के, बिना किसी अधीनस्थ बनाने की लालसा के। प्रकृति के
सुंदरतम प्राणि के सौंदर्य को, चंचलता को क्यों नहीं ऐसे निहारा जा सकता जैसे चिड़िया की चहचहाहट या नदी की
चंचल लहरों को। प्रकृति के साथ स्वस्थ सम्बंध के सूत्र आदिवासी साहित्य से भी सीखे
जा सकते हैं।
मध्य काल की एक कवयित्री ने आपसदारी की भावना इस तरह
से अभिव्यक्त की थी कि ईश्वर करे इस घर में आग लग जाए और फिर पति मेरे साथ मिल कर
आग बुझाएगा।
दरअसल यह चाहना एक तरह से मानवीय गुणों की चाहना है। करुणा, संवेदनशीलता, ममता, प्रेम, स्नेह, सहिष्णुता जैसे भाव, मानवीय गुण हैं। स्त्री हो या
पुरुष सभी को इन गुणों को व्यक्तित्व का प्रमुख अंश बनाना चाहिए। आवश्यकता है कि
वर्तमान समाज इन्हीं गुणों से प्रधानतः संचालित हो। भारतीय परम्परा में प्रेम से
लोकमंगल की धारा बहाने वाले महात्मा बुद्ध, रामकृष्ण परमहंस जैसे अनेक महानुभावों का व्यक्तित्व
करुणा से सम्बलित गुणों से ही संरचित था।
बहुत जरूरी है कि स्नेह, प्रेम, करुणा, मधुरभाषिता, कोमलता, संवेदनशीलता, सहिष्णुता, विश्वास, परस्परता, आपसदारी इत्यादि जीवन-ऊष्मा से भरपूर तरल गुणों को समाज में अधिक से अधिक
महत्व मिले।
अर्धनारीश्वर की अवधारणा दोनों तरह के गुणों के
समायोजन को उच्च मानवीयता के लिए जरूरी मानती हैं। भारतीय समाज का अवचेतन मन इन
गुणों के महत्व को भली-भाँति समझता है। देवता की भूमिका में आसीन राम-कृष्ण जैसे
मिथकीय चरित्र हों अथवा बुद्ध, महावीर जैन, 24 तीर्थंकर जैसे
ऐतिहासिक चरित्र, उनकी छवि को हमेशा कोमल कांत किशोर ही दिखाया जाता है। दाड़ी-मूँछ नहीं। न ही
बुढ़ापे के चिह्न।
1 comment:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (24-06-2018) को "तालाबों की पंक" (चर्चा अंक-3011) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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