Saturday, February 23, 2019

मुक्तिबोध की कहानियों के कथ्य वैचारिक संघर्षों की झलक ही हैं


हिन्दी आलोचना में आलोचकीय विवेक की एक नयी तस्वीर इधर उभरती हुई दिख रही है। उसका चेहरा इस कारण भी आश्वस्तकारी है कि तथ्य, अनुसंधान के अकादमिक सलीके की बजाय पुन:निरीक्षण पर आधारित विश्ले्षण की पद्धति को प्राथमिकता के साथ बरतने की कोशिशें वहां स्पष्ट नजर आ रही हैं। स्थापित मान्यताओं तक से टकराने की यह कोशिश स्वा‍गत योग्य है। इस निगाहबानी के बाद ही यहां गीता दूबे और रश्मि रावत के आलेख पूर्व में प्रस्तुतत किये गये थे। हाल ही में ‘वाक’(30-31) में प्रकाशित डॉ भारती सिंह का आलेख जिसमें मुक्तिबोध के कहानीकार रूप की चर्चा है, उस कड़ी के हिस्से के तौर पर ही पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है। दस्ता‍वेज, वागर्थ, साखी आदि पत्रिकाओं में प्राकशित डॉ भारती सिंह के आलेखों से पाठक पहले से परिचित हैं।



डा. भारती सिंह
शैक्षणिक योग्यता - एम. ए., बर्दवान विश्वविद्यालय (प. बं.) , पी.एच.डी.  राँची विश्वविद्यालय,
संपर्क - नेहरू नगर,  चिनिया रोड,  गढ़वा , झारखंड .822114
मोबाइल नं.- 9955660054
साहित्यिक गतिविधि- दस्तावेज़ , वागर्थ,  पाखी , लहक,  सापेक्ष, सुबह की धूप,  वाक,  साखी आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित ।



डॉ भारती सिंह

हर सिम्त में इक सहरा बसर है ,  साग़र के क़फ़स में इक क़तरा नज़र है




यूँ तो साहित्य के भीतर भी  मौजूद समंदर की तरह  असीमित आवेश एवं आवेग को किसी एक विधा के प्रकोष्ठ में बाँध लेने की क्षमता नहीं होती। लेकिन फिर भी प्रत्येक विधा का साहित्य हर युग में  समय सापेक्ष होता है, और उस कालखंड के क्रियाकलापों, घटनाओं को स्वयं में समादृत कर उसे दस्तावेज़ की तरह आनेवाली पीढ़ियों का दिशानिर्देश करना एक कालजयी रचना की नैतिक ज़िम्मेदारी बन जाती है। और ये रचनाकार के व्यक्तित्व और उसकी संवेदनशीलता के आयतन का पता देती है। नि:संदेह  हिन्दी साहित्य के इतिहास में मुक्तिबोध एक युगपुरुष के रूप में चिन्हित किए जा चुके हैं एवं उनकी रचनाएँ सूक्ष्म अनुभूतियों का जीवंत चित्रण हैं। मुक्तिबोध की कहानियाँ भी उनकी कविताओं की तरह मानवतावादी सरोकार से जुड़ी दस्तावेज़ के रूप में ही स्वीकार की जानी चाहिए। लेकिन उनकी कहानियों पर बहुत कम चर्चा हुई, बहुत कम लिखा गया है। मुक्तिबोध की समग्रता को समझने और उसे परिभाषित करने के लिए ज़रूरी हो जाता है उनकी कहानियों का पुनर्पाठ। उन कहानियों पर चर्चा-परिचर्चा। कहानियों को छोड़कर सिर्फ कविताओं की बात एक तरह से मुक्तिबोध को अधूरेपन के साथ स्वीकार करना होगा, जो एक तरह से न्यायोचित नहीं है। एक ओर जहाँ 'अँधेरे मेंकविता उनकी अन्य रचनाओं का रचना-प्रक्रिया का पड़ाव है, वहीं उनकी कहानियाँ एवं अन्य रचनाएँ उस पड़ाव तक पहुँचने की एक यात्रा है। बल्कि यूँ कहा जाए कि मुक्तिबोध की जो संवेदनाएँ अपनी कहन में अधूरी रह गईं उसकी अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने साहित्य के अलग -अलग विधाओं में गुंजाइश को तलाशा और अभिव्यक्ति के सफलतम मकाम को हासिल किया। ग़ालिब को भी अभिव्यक्ति की इस पीड़ा से रू-ब-रू होना पड़ा था "- बकद्र- ए शौक नहीं ज़र्क तंगना -ए-ग़ज़ल /कुछ और चाहिए बुसअत मेरे बयाँ के लिए । " मुक्तिबोध ने अपनी रचनात्मकता में कई अभिनव प्रयोग किया है। कहानियों में कई लेयर हैं जो बार -बार सूक्ष्म समझ एवं अनुभूतियों की माँग करती हैं। एक अनूठे शिल्प का प्रयोग करते हैं। कविताएँ अद्भुत हैं। जो बातें कविताओं में अधूरी रह गयी , वह उन्हें निबंधो में लेकर आते हैं और जो अधूरापन वहाँ रहा वह डायरी में सिमटी और जो डायरी में अभिव्यक्त न हो सकी, वह कहानियों की जानिब पाठकों तक पहुँची । और मुमकीन है यही एक खास वजह रही कि रचनाओं के शीर्षक में दुहराव भी हुआ है ।


मुक्तिबोध की ज़्यादातर कहानियाँ चरित्र-प्रधान नहीं रही हैं। उनके पात्र सामूहिक रूप से अपनी पूरी मौजूदगी के साथ कहानी की रवानगी को बनाए रखते हैं और अपने-अपने स्तर पर मुक्तिबोध के विचारों को उद्घाटित करते हैं। कारण स्पष्ट है कि उनकी कहानियाँ नायक प्रधान नहीं हुआ करती हैं, बल्कि समाज के भीतर ही रहनेवाला आम इंसान रहा है, जो जीवन मूल्यों के सैद्धान्तिकता को जीता हुआ पाठकों के समक्ष यथार्थ की सतह पर खड़ा मिलता है। हाँ, कहानियों में भी अभिव्यक्ति के लिए उन सारी सामग्रियों का सहारा लिया गया है जिनसे ‘अँधेरे में’ कविता गढ़ी गई है, जो हिन्दी साहित्य में एक क्लासिक है।


मुक्तिबोध के जीवन के केन्द्र में संघर्ष ही अधिक प्रबल रहा है। और संघर्षजनित त्रासदियाँ जीवनदृष्टि को अधिक धारदार बनाती गई । दृष्टि की यही धार सृजनात्मकता की पृष्ठभूमि को अधिक मजबूती देता गया। उनका संघर्ष पारिवारिक चौखटे को तोड़ता हुआ, सामाजिक दायरे को लाँघता हुआ देशान्तर पार विश्‍वव्यापी हो उठा। व्यक्ति और समाज के केन्द्र रहीं समस्याएँ दोनों के बीच एक टकराव की स्थिति उत्पन्न करने में अधिक सहायक रहीं। और इनसे रू-ब-रू कराना और मुक्ति का मार्ग तलाशना मुक्तिबोधीय लेखनी का कर्मसूत्र बन गया। उनकी कहानियों की पृष्ठभूमि में जिन सामाजिक चेतना एवं मूल्यों की बात उठाई गई है उसके लिए चार कहानियों में उन संदर्भों को उल्लेखित करने की यहाँ कोशिश की गई है। ये कहानियाँ हैं- समझौता’, ‘ज़िन्दगी की कतरन’, ‘क्लॉड ईथरलीऔर एक दाखिल दफ्तर साँझ। ये कहानियाँ खास समझ और सूझबूझ के साथ लिखी गयी हैं ।यहाँ मौजूद बेचैनियाँ कोरी आत्माभिव्यक्ति या फिर आत्मसंघर्ष की नहीं हैं , बल्कि इनमें इन दोनों के साथ -साथ जनमानस के भीतर भी ये गहरी पीड़ा बनकर संप्रेषित हों , मुक्तिबोध की सृजन की यही प्रतिबद्धता रही है । मुक्तिबोध की  कहानियाँ अपने आकार में छोटी भले ही हों , किन्तु सुगठित एवं विशिष्ठ शैली में गढ़ी गयी ये कहानियाँ प्रभावशाली तथा दूरदृष्टि सम्पन्न नज़र आती हैं ।जो बात बिहारीलाल के दोहो के लिए कही गयी है , वह मुक्तिबोध की कहानियों पर भी सटीक लगती है -" देखन में छोटन लगै घाव करै गंभीर"।                      

मुक्तिबोध की ज़्यादातर कहानियाँ चरित्र-प्रधान नहीं रही हैं। उनके पात्र सामूहिक रूप से अपनी पूरी मौजूदगी के साथ कहानी की रवानगी को बनाए रखते हैं और अपने-अपने स्तर पर मुक्तिबोध के विचारों को उद्घाटित करते हैं। कारण स्पष्ट है कि उनकी कहानियाँ नायक प्रधान नहीं हुआ करती हैं, बल्कि समाज के भीतर ही रहनेवाला आम इंसान रहा है, जो जीवन मूल्यों के सैद्धान्तिकता को जीता हुआ पाठकों के समक्ष यथार्थ की सतह पर खड़ा मिलता है। हाँ, कहानियों में भी अभिव्यक्ति के लिए उन सारी सामग्रियों का सहारा लिया गया है जिनसे अँधेरे मेंकविता गढ़ी गई है, जो हिन्दी साहित्य में एक क्लासिक है। वही तनाव, वही बेचैनी, वही आक्रोश, वही तल्ख़ी, वही विद्रोह, वही व्याकुलता- कुल मिलाकर एक बग़ावती तेवर और अभिव्यक्ति की बेचैनी- मेरे पास एक पिस्तौल है, और मान लीजिए मैं उस व्यक्ति का, जो मेरा अफसर है, मित्र है, बंधु है- अब खून कर डालता हूँ। लेकिन पिस्तौल अच्छी है, गोली भी अच्छी है; पर काम - काम बुरा है।’ (समझौता)

कहानी में पात्र एक ऐसी भाव-भूमि पर खड़ा है जहाँ ऐसे आपराधिक विचारधाराएँ पनपती हैं। हालाँकि उसका विवेकशील मन यह स्वीकारता है कि यह ठीक नहीं है। कई जगहों पर कहानी में फैंटेसी के सहारे कथानक को गति देने के साथ उसे प्रभावशाली बनाया गया है। वह फैंटेसी किशोरवय की भावुकता में गढ़ी गई फैंटेसी नहीं है, बल्कि आत्म-संघर्ष और जीवन-मूल्यों की चरम परिणति के लिए गढ़ी गई फैंटेसी है। ताकि अभिव्यक्ति को पूरी जटीलता एवं परिवेश के स्याहपन के साथ प्रस्तुत किया जा सके। मुक्तिबोध का समूचा साहित्य ही फिक्शन और फैंटेसी के सहारे अभिव्यक्ति के चरम तक पहुँच सका है। क्योंकि जीवन में अगर कल्पनाएँ न हों तो उसकी गतिशीलता अवरुद्ध हो जाएगी। इस बात की पुष्टि मुक्तिबोध की अति प्रसिद्ध उक्ति से की जा सकती है- फैंटेसी अनुभूति की कन्या है और अनुभूति का जन्म कहाँ से होता है, जब इस सवाल पर आते हैं तब उत्तर आता है कि जीवन-यथार्थ से। कल्पना का काम इस जीवन-यथार्थ को अधिक मूर्तता और रंगीनी प्रदान करना है। यही कल्पना की भरोसेमंदी है।इसीलिए इस कल्पना का सहारा लेते हुए कहानी को गति देते हुए  कल्पना की भरोसेमंदी को यहाँ साबित किया है - सबसे अच्छा है कि एकाएक आसमान से हवाईजहाज मँडराए, बमबारी हो, और यह कमरा ढह पड़े, जिससे मैं और वह दोनों खत्म हो जाएँ। अलबत्ता, भूकंप भी यह काम कर सकता है।’ (समझौता)  मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय सोच ही उन्हें कई समस्याओं से जकड़े रहता है। और ये स्थितियाँ कहीं न कहीं अमानवीयता की हद तक पहुँच जाती हैं। समस्याओं से घिरा व्यक्ति मुक्ति का कोई मार्ग न पा कर वह मुक्ति का  मार्ग आत्महत्या में ही तलाशता है। बेचैनियों की बीहड़ता में फँसा आदमी बार-बार गिरता है, उठता है, हाथों से उम्मीद की रौशनी को थामना चाहता है। लेकिन अंततः ऐसा नहीं होता। उसे अपनी आत्मा का ही कायान्तरण करने को बाध्य होना पड़ता है, क्योंकि समाज में उसे सर्वाइव करना है। -" किन्तु भावनात्मक रूप से अपनी निस्सहायता को पुनः अनुभव कर वह कहने लगा, ' नौकरी में , वर्मा साहबकोई किसी का न दोस्त है, न दुश्मन । जब किसी पर आ बनती है तब कौन अपनी गरदन फँसाकर दूसरों की मदद करता है।" ( एक दाखिल दफ़्तर साँझ )। 

कहानी में कथाकार मुक्तिबोध ने पात्रों के जरिए एक ऐसा मनोविश्‍लेषणात्मक परिवेश रचा है जिसमें साफ़  इशारा किया है कि सैद्धान्तिक लड़ाइयों में व्यक्ति सामाजिक स्तर पर ही नहीं लड़ता है, बल्कि वह अपने भीतर भी मानसिक स्तर पर एक लड़ाई लड़ता है। और वहाँ अपने मानवीय गुणों को कटघरे में खड़ा कर उससे जिरह करता है। उचित-अनुचित का, नैतिक-अनैतिक का। -कौन नहीं जानता कि क्लॉड ईथरली अणु-युद्ध का विरोध करनेवाली आत्मा की आवाज़ का दूसरा नाम है। हाँ! ईथरली मानसिक रोगी नहीं है। आध्यात्मिक अशांति का आध्यात्मिक उद्विग्नता का ज्वलंत प्रतीक है। क्या इससे तुम इनकार करते हो।’ (क्लॉड ईथरली)

छठे दशक में लिखी गई मुक्तिबोध की कहानी क्लाड ईथरलीतत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक बदलाव के परिदृश्य को छूती हुई लिखी गई है। विश्‍व फलक पर उपनिवेशवाद की पकड़ मजबूत हो रही थी। देश लम्बे समय तक गुलामी के दंश को झेल कर आज़ाद हो चुका था। विश्‍व पटल पर आर्थिक-सामाजिक एवं राजनीतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना का दबाव झेलता हुआ देश संघर्ष के एक और गलियारे से गुजर रहा था। अमेरिका सरीखे शक्तिशाली देश पूर्वोत्तर विकास के साथ विश्‍व में अपनी प्रभुता के प्रदर्शन में तल्लीन हो चुका था। जिसका खामियाजा जापान को भी भुगतना पड़ा था। शायद इसीलिए वाल्टर बेंजामिन ने लिखा है- विकास का हर नया सोपान बर्बरता के नए रूपों को जन्म देता है।

युद्ध के पीछे कई परिस्थितियाँ वाहक होती हैं अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए। कभी शक्ति प्रदर्शन तो कभी खुद का बचाव भी युद्ध की ओर ढकेलता है। क्लॉड ईथरली में प्रभुता, शक्ति की सम्पन्नता पूरी दुनिया में खुद को स्थापित करने का दंभ जहाँ दिखता है वहीं उसके बाद पश्‍चाताप का घोर विषाद भी नज़र आया है, जो इस बात की ओर इशारा करता है कि विनाश किसी भी सूरत में मानसिक सुख या संतोष का वायस नहीं हो सकता। भले ही यह पछतावा प्रभुता की दावेदारी करनेवाली अमरीकी शासन का नहीं हो पर इस काम में यूज़किया गया एक साधारण नागरिक का है, जिसे वार हीरोअमेरिका घोषित करता है। वह वार हीरोहो गया, लेकिन उसकी आत्मा कहती थी कि उसने पाप किया है, जघन्य पाप किया है। ...उसने नौकरी छोड़ दी। मामूली से मामूली काम किया। लेकिन, फिर भी वह वार हीरोथा, महान था। क्लॉड ईथरली महानता नहीं, दंड चाहता था, दंड।

मानवीय मूल्यों का हनन कर निज अहं की तुष्टि की खातिर विनाश का कोई भी मार्ग किसी भी इंसान को संतोष के शिखर तक नहीं ले जा सकता। इतिहास गवाह रहा है कि सम्राट अशोक जैसा महान शासक भी विश्‍वविजेता के शीर्ष तक पहुँचकर अंततः पश्‍चाताप एवं आत्मग्लानि से भर उठा था। अपराधबोध उसकी आत्मा पर एक शिलापट की तरह जम गया था। युद्ध भूमि के दृश्य ने अशोक के मस्तिष्क पर हावी सत्ता का चतुर्दिक कामना को ध्वस्त कर हृदय में कोमल स्वच्छ करुणाश्रोत को खोल दिया और वह विश्‍व में शांति का अग्रदूत बन बैठा। अतिशयता किसी भी वस्तु का या भाव का अहितकर ही साबित हुआ है। चाहे पद का, पूँजी का, शक्ति का या फिर विशिष्टता का। क्लॉड ईथरली में ऐसी ही अतिशयता का परिणाम और परिमाण देखने को मिलता है। पूँजीवादी स्वायत्तता का चरम और चरम तक पहुँचकर दुनिया को तल में पाना और अपनी विशिष्टता के अट्टाहास में बाकियों की चीखों में सुकून को तलाशना, कुंठित व्यक्तित्व एवं संकीर्ण सोच को ही अभिव्यक्त करता है। परन्तु वार हीरोआत्मग्लानि से भर उठता है। संवेदनाएँ उसके अन्दर जीवित हैं, क्योंकि वह एक आम नागरिक है। वह कहता गया, ‘इस आध्यात्मिक अशांति, इस आध्यात्मिक उद्विग्नता को समझनेवाले लोग कितने हैं! उन्हें विचित्र-विलक्षण विक्षिप्त कहकर पागलखाने में डालने की इच्छा रखने वाले लोग न जाने कितने हैं! इसलिए पुराने जमाने में हमारे बहुतेरी विद्रोही सन्तों को भी पागल कहा गया। आज भी बहुतों को पागल कहा जाता है। अगर वह बहुत तुच्छ हुए तो सिर्फ उनकी उपेक्षा की जाती है। जिससे कि उनकी बात प्रकट न हो और फैल न जाए।मुक्तिबोध की संवेदना को मुक्तिबोधीय संवेदना कहा गया है, क्योंकि कटुता एवं कठोरता के पर्याय में उन्होंने मानवीय संवेदना को संभावित किया है। ये संवेदना ही मनुष्यता एवं पाश्‍विकता के अंतर को परिभाषित करता है। मुक्तिबोध अपनी कहन, अभिव्यक्ति एवं विषय में समय सापेक्ष तो रहे किन्तु फिर भी अपने समकालीन रचनाकारों की तुलना में उनकी दूरदर्शिता उन्हें समय से आगे ले गई है। समय की नब्ज को सीधा पकड़ते हैं। साथ ही आनेवाले दिनों में उसकी भयावहता से भी आगाह करते हैं। इसलिए उनकी कहानियाँ अपने समकालीन रचनाकारों में  उन्हें एक अलग मुकाम पर ले जाती हैं। परम्परागत ढाँचे को नकारती ये कहानियाँ नितांत एक नयी शैली में सजी-बँधी , सामाजिक पृष्ठभूमि में अपनी नैतिक जिम्मेदारियों की गठरी लिए पूरी कर्मठता के साथ अपने समय में प्रवेश करतीं हैं ।एक पूरी साहित्यक जिम्मेदारी के साथ समय से मुठभेड़ करने के लिए ।

मुक्तिबोध की कहानियाँ देश और समाज में फैलती, बल्कि तेजी से जड़ें जमाती जा रही असमानता का, विद्रूपता का जो परिदृश्य खड़ा करती हैं, वह मात्र सोचने विचारने का विषयभर नहीं रह गयी हैं, बल्कि गहन चिन्तन के साथ उन्हें विच्छिन्न करने की सिफ़ारिश करती नज़र आती हैं। कहानियों के रेशे-रेशे को खंगाला जाए तो उनकी ज़िन्दगी की विसंगतियाँ वहाँ पूरे विद्रूपता एवं विदीर्णता के साथ मौजूद मिलती हैं। और सृजनात्मकता में उसकी अभिव्यक्ति मुक्तिबोध की अपनी जवाबदेही रही है। शब्दों, परिवेशों का बार-बार दुहराव मुक्तिबोध का ज़िन्दगी से घुमा फिर कर टकराना ही दिखाता है, क्योंकि कठिनाइयाँ चाहे पारिवारिक रहीं या आर्थिक या फिर अभिव्यक्ति की, बार-बार उनके समक्ष  चुनौती बनकर आन खड़ी हुईं। -"आख़िरकार उसने जोकर बनने का बीड़ा उठाया। भूख ने उसे काफी निर्लज्ज भी बना दिया था।" (समझौता) 

परत-दर-परत कहानियों में ज़िन्दगी की दारुण मर्म ने अभिव्यक्ति पाई है और इन कहानियों को पढ़ते समय कहीं पर भी चेतना शिथिल नहीं होती, बल्कि पाठक एक तरह से दिमागी तनाव और बेचैनी से गुजरता है, जो इन कहानियों के कहन की बड़ी सफलता एवं सार्थकता है। इन्हें एक बार पढ़ लेने के बाद अवचेतन के हाशिए पर नहीं फेंका जा सकता।  कहानियों का आद्योपान्त पठन बेहद सजगता और बौद्धिक समझ की माँग करता है ।  ज़िन्दगी में आती मुश्किलों के दरम्यान ये कहानियाँ अपनी पूरी रचनात्मक-संवेदना के साथ पाठकों के स्मरण में बनी रहती हैं। 'ज़िन्दगी की कतरन' में  बढ़ती पूँजीवादी व्यवस्था, तथाकथित कथित आधुनिकता की लुभावनी दलदल में धीरे-धीरे अपने अस्तित्व को खोती कई ज़िन्दगियाँ अन्जाने ही मौत को दावत दे जाती हैं। कारण स्पष्ट है, अकेलापन, भूख की मारबढ़ती मंहगाईबाज़ारवाद और इनसे उबरने के लिए रात-दिन मशीन की तरह मेहनत में जुटे रहना -"इस तालाब में जान देने वे आएँ हैं जिन्हें एक श्रेणी में रखा जा सकता है। ज़िन्दगी से उकताए और घबराए पर ग्लानि के लम्बे काल में उस व्यक्ति ने न मालूम क्या-क्या सोचा होगा!" (ज़िन्दगी की कतरन)। मुक्तिबोध की कहानियों में ज़िन्दगी का स्याह रंग अधिक गाढ़ेपन के साथ उभरा है। कारण है, कहानियाँ रूमानीयत के फ्रेम में फिट कर नहीं लिखी गयीं, ये कहानीकार के गहन चिन्तन और उससे उपजी बेचैनी से बाहर निकलकर आई हैं।


शहर के बीच में वह तालाब और उसके किनारे बैठकर किसी रूमानीयत के भँवर में बह जाने का खयाल नहीं आता, बल्कि उसके स्याह जल को देख और उसके विवादास्पद कहानी को याद कर आत्महत्या का विचार तो ज़रूर उभरता है-"तालाब के इस श्याम दृश्य का विस्तार इतनी अजीब-सी भावना भर देता है कि उसके किनारे बैठकर मुझे उदासमलिन भाव ही व्यक्त करने की इच्छा होती आई है ।" (ज़िन्दगी की कतरन)

मुक्तिबोध का चिन्तन भी एक प्रकार से द्वंद्व का चिन्तन है। और यह द्वंद्व मानसिक यंत्रणा का परिणाम था । उनके अंतस की बेचैनियाँ मुक्ति का आसरा  टटोलती फिरती रहीं, परन्तु कई जगह पूरी तरह मुक्त होने की कोशिश में भी नहीं जुटीँ- "हमारे अपने-अपने मन-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलखाना है जहाँ हम उन उच्च पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं, जिससे कि धीरे-धीरे या तो वह खुद बदलकर समझौतावादी पोशाक पहनकर सभ्य, भद्र हो जाए यानी दुरुस्त हो जाए या उसी पागलखाने में पड़ा रहे!" (क्लाड ईथरली)


अंतस के द्वन्द्व को बेहद कलात्मक एवं सहानुभूतिपूर्वक दिखाते हैं, जो आरोपित नहीं बल्कि कहानियों के सौन्दर्यतत्व के रूप में उभरी हैं और यह सौन्दर्यतत्व उनके पात्रों के नैसर्गिक रूप में ही है। लादी गयी आधुनिकता को वह खतरे के रूप में देखते थे, जो मौलिकता को नष्ट करते हैं।उनकी तलस्पर्शिनी दृष्टि आगामी भयावहता से आक्रान्त थी । मानवतावादी मूल्यों के लिए इसे जबरदस्त ख़तरा मानते थे- "भारत के हर बड़े नगर में एक- एक अमेरिका है! विकास के नाम पर अपनी-अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को दरकिनार कर खोखली जमीन पर जड़ जमाने की महत् एक अहमकाना ज़िद ही तो है जो सतत् मानवीय मूल्यों को एक-एक कर खोता जा रहा है।" (क्लाड ईथरली)

अपने मूल जड़ से कटता आदमी परिस्थितियों का गुलाम बनता जाता है। और उसका विद्रोही तेवर निस्तेज होने लगता है। "मैं उस शब्द से नहीं डरता, क्योंकि एक समय था जब उस शब्द को मैं अपना विशेषण मानता था।" (एक दाखिल दफ़्तर साँझ) कहानियों के इन संवादों में मुक्तिबोध खुद को ही ध्वनित करते हैं। "मैं किसी शब्द से नहीं डरता। लेकिन अब मैं सरकारी नौकर हूँ। पेट की ग़ुलामी कर रहा हूँ, आत्मा को बेचकर।" (एक दाखिल दफ़्तर साँझ)

आत्महत्या के खयाल के जटिल द्वन्द्व से आदमी बाहर आकर समझौतावादी रुख अख्तियार करता है- "अच्छा, मैं अपने-आपको करैक्ट कर लेता हूँ, अवसर प्राप्त क्रांतिकारी। वर्मा क्रुरतापूर्वक ज़ोर से हँस पड़ा।" (एक दाखिल दफ़्तर साँझ) हालाँकि इन संवादों में दोनों शोषित हैं। दोनों के शोषण के पीछे अफ़सरशाही नीतियाँ ही हैं। और अगला व्यक्ति के पास सब कुछ जानते-समझते हुए भी कोई विकल्प शेष न रह जाए तो वह 'समझौता' करना ही मुनासीब समझता है- "उसने मौखिक व्यायाम-सा करते हुए कहा, "मैं हर शर्त मानने के लिए तैयार हूँ। झाड़ू दूँगा। पानी भरूँगा। जो कहेंगे सो करूँगा।" " ज़िन्दगी का एक ढर्रा तो शुरू हो जाएगा' के लिए वह अपने सिद्धांतों, अपने आदर्शों और यहाँ तक कि अपने ज़मीर तक को गिरवी रख देता है और कुछ शब्दों, कुछ वाक्यों के जरिए उसे दार्शनिक भाव से सान्त्वना की कीमत चुका दी जाती है। ऐसा करना आम भाषा में तथाकथित व्यावहारिक समझ कही जाती है। "भाईसमझौता करके चलना पड़ता है ज़िन्दगी में, कभी-कभी जान-बूझकर अपने सिर बुराई भी मोल लेनी पड़ती है। लेकिन उससे फ़ायदा भी होता है। सिर सलामत तो टोपी हज़ार।" (समझौता)

दोनों ही पात्र मुक्तिबोध के विचारों और उससे उपजे द्वन्द्व को ही संप्रेषित करते हैं, भले ही इसके पीछे परिस्थितियाँ वाहक रहीं हों। किन्तु दोनों के हालात एक-से हैं- "अबे डरता क्या है, मैं भी तेरे ही सरीखा हूँ, मुझे भी पशु बनाया गया है, सिर्फ़ मैं शेर की खाल पहने हुए हूँ, तू रीछ की!" (समझौता)। दोनों अपने हालात से वाक़िफ हैं। दोनों हिंसक बनने की क़वायद करते हैं, धोखा देने को विवश होते हैं, ताकि वह जिंदा रह सके। जिंदा रहने की इस क़वायद में उन्हें क़दम-क़दम पर मरना पड़ता है- "यह तो सोचो कि वह कौन मैनेजर है जो हमें तुम्हें सबको रीछ-शेर-भालू-चीता-हाथी बनाए हुए है!" (समझौता)। कहानी में जो शोषक है उसे भी एक लोककथा याद आती है और जो शोषित है उसे भी। क्योंकि वह दोनों किसी तीसरे द्वारा शोषित हैं। किस प्रकार समाज में एक वर्ग शोषक की भूमिका निभाता है। ऐसा करना कभी-कभी परिस्थितिवश भी होता है और प्रायः रूग्ण मानसिकता भी वज़ह बनती है। इसके बीच पिसता व्यक्ति आक्रोश से भर जाता है और सोचने को बाध्य होता है कि आदमी या तो हर जगह है। मैंने ही इंसानियत का अकेले ठेका तो नहीं ले रखा है। और उसे ज़िन्दगी 'बड़ा लम्बा, बड़ा भारी संघर्ष है' लगती है। 'समझौता', 'ज़िन्दगी की कतरन' , 'क्लाड ईथरली' , 'एक दाखिल दफ़्तर साँझ' इन सभी कहानियों के पात्र मध्यमवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज के अभिशप्त वर्ग हैं और इनमें से अधिकांश पात्र अलग-अलग चरित्रों का वहन करते हुए मुक्तिबोध का ही प्रतिनिधित्व करते हैं- ''पता नहीं क्यों मैं बहुत ईमानदारी की ज़िन्दगी जीता हूँ, झूठ नहीं बोला करता, पर-स्त्री को नहीं देखता, रिश्वत नहीं लेता, भ्रष्टाचारी नहीं हूँ; दंगा या फरेब नहीं करता; अलबत्ता कर्ज़ मुझ पर ज़रूर है जो मैं चुका नहीं पाता। फिर भी कमाई की रकम कर्ज़ में जाती है। इस पर भी मैं यह सोचता हूँ कि बुनियादी तौर से बेईमान हूँ। इसीलिए, मैंने अपने को पुलिस की जबान में उठाईगिरा कहा। मैं लेखक हूँ।'' (क्लॉड ईथरली)

कई कहानियों में मुक्तिबोध ने अपने अस्तित्व के दबे-कुचले रूप को दिखाया है, जो आदर्शवाद का बोझ कंधे पर उठाए फिरता है और उसकी मेरुदंड उस बोझ से झुकने लगी है। वह हँस पड़ा! बोला, ''यह एक लोककथा है। इसके कई रूप प्रचलित हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वह रीछ  बी. ए. नहीं था हिन्दी में एम. ए. था।'' (समझौता) 

इसमें छिपे गहरे व्यंग्य एवं दंश को महसूस किया जा सकता है। दो पात्रों के भीतर आपसी संवादों में कहीं न कहीं पाठक भी तीसरे पात्र की तरह कहानी मे दाखिल रहता है और उन चरित्रों से तर्क वितर्क करता उन कहानियों का हिस्सा बना रहता है और उसकी ये उपस्थिति लंबे अंतराल तक बनी रहती है , जब तक ये कहानियाँ अंतस में जड़े जमाए रहती हैं ।बल्कि जब -जब इन कहानियों पर जिरह होती है , पाठक भी संवाद की स्थिति में बना रहता है।आधुनिक हिन्दी कहानियों की परम्परा में अपनी मजबूत पकड़ बनाती मुक्तिबोध की ये कहानियाँ मनोविज्ञान का व्यापक प्रभाव से गुथी हुई मिलती हैं  ।अपनी उम्र के बहुत कम समय को मुक्तिबोध ने अपने जीवन में कठोर यथार्थ और झंझावातों को सहा और ये झंझावातें क्रांतिकारी चेतना के रूप में उनमें गहरे पैठती गईं, रचना-कर्म को और प्रखरता देती गईं। श्रीकांत वर्मा ने उनकी कहानी 'सतह से उठता आदमी' के एक पात्र की व्याख्या करते हुए लिखा है- ''वे भारतीय इतिहास के सर्वनाश के जीवित प्रतीक हैं; जिन्हें परिभाषित करने की अनिवार्यता ने मुक्तिबोध को इन कहानियों की रचना के लिए विवश किया।''

महान दार्शनिक अरस्तू ने लिखा है कि 'साहित्य में व्यक्तियों के नामों और घटनाओं के अलावा सब कुछ सच ही हुआ करता है।'' लेकिन यहाँ मुक्तिबोध के मामले में व्यक्तियों के नाम बदले हो सकते हैं किंतु घटनाएँ अधिकांश उनके 'भोगे हुए यथार्थ' की ही बानगी है। श्रीकांत वर्मा को मुक्तिबोध की कहानियाँ सार्त्र के नाटक 'नो एक्ज़िट' की याद दिलाती हैं। वास्तव में देखा जाए तो इन कहानियों का सरफेस खुरदरा है। इसका खुरदुरापन रूमानीयत का ख्वाब नहीं बुनने देती, बल्कि पल भर के आलसपन में आई झपकी से भी चोंकन्ना कर देती हैं। परिवेश का चित्रण एवं उनमें तत्त्वों का चरित्रांकन कहानी को घनत्व देता है- ''रात में बुरे बासते पानी के विस्तार की गहराई सियाह हो उठती है, और, ऊपरी सतह पर बिजली की पीली रोशनी के बल्बों का रेखाबद्ध निष्कम्प, प्रतिबिम्ब वर्तमान मानवी सभ्यता को सूखेपन और वीरानी का ही इज़हार करते से प्रतीत होते हैं।'' (ज़िन्दगी की कतरन) ''लेकिन प्रकाश नाराज़-नाराज़-सा, उकताया-उकताया-सा फैला'', ''अफ़सर के चेहरे पर गहरा कड़वा ख़याल जग गया था'' -जैसी पंक्तियाँ मुक्तिबोध के विचारों का प्रतिनिधित्व करने  लगती हैं। मुक्तिबोध ने कहानी में लिखा है- ''मध्यवर्गीय समाज की साँवली गहराइयों की रूँधी हवा की गन्ध से मैं इस तरह वाकिफ़ हूँ जैसे मल्लाह समुन्दर की नमकीन दवा से।''  इन कहानियों के गढ़न के लिए जिस परिवेश को उठाया है एवं परिवेशजनित जिन-जिन समसामयिक घटनाओं को कहानी में दर्शाया है उनके यथार्थपरक चित्रण के लिए शब्दों का चुनाव बेहद संजीदगी और वैचारिक संघर्षों के बाद किया है । कालान्तर मे जब-जब इन  कहानियों पर चर्चा की जाएगी इनमें परत-दर-परत नये सूत्रों एवं तथ्यों को उजागर होने की निश्चित संभावनाएँ हैं । 

जार्ज लुकाज ने टॉमस मान के उपन्यासों के लिए- 'आलोचनात्मक बुर्जुआ यथार्थवाद' शब्द के विशेषण से नवाजा था, श्रीकांत वर्मा को यही विशेषण बिलकुल सटीक लगता है मुक्तिबोध के लिए। वहीं दूधनाथ सिंह ने कहा है- ''मुक्तिबोध की बेहतरीन कहानियों में तो चिलचिलाती दुपहरिया है, बंजर-वीरान में बिजली के खम्भे में टिकाई एक सीढ़ी है, जेल की  लगातार चलती जाती दीवार है, एक ठूँठ पेड़ है जिसमें हरे-हरे नये कंछे निकल रहे हैं।'' मुक्तिबोध की उम्दा कहानियों के ये 'हरे-हरे नये कंछे' एक उम्मीद की तरह ही हैं। जिन्हें अभी पल्लवितपुष्पित होना बाकी है, क्योंकि अंधेरा अभी कम नहीं हुआ है , स्थितियाँ अभी भयावह ही हैं, परिवेश अभी भी साँवला और स्याह ही है । बावड़ी के भीतर अब भी सभ्यता का विकास एवं मानवीय मूल्यों का अस्थि-पंजर पड़ा हुआ है । उनकी  समस्या किसी वर्ग या श्रेणी की समस्या नहीं है बल्कि समूची मानवजाति की है ।मनुष्य -विरोधी परिवेश ही चारों ओर बनता जा रहा है ।निरंतर बढ़ती जा रही संवेदनहीनता मौजूदा दौर की मूल समस्या बन गयी है ।अतः मुक्तिबोध का  विरोध किसी खास विचारधारा या व्यक्ति विशेष का  नहीं है वरन् सिस्टम का विरोध है । उनका साहित्य व्यवस्था के खिलाफ जन आन्दोलन की पूरजोर सिफारिश करता हुआ  चेतना को झकझोरता है । 

मार्क्सवाद का पूँजीवादी-विरोधी सूत्रउपभोक्ता वादी संस्कृति, व्यक्तित्व का द्वन्द्व एवं मानवीय मूल्यों का बचाव मुक्तिबोध के विचारों का, उनके चिन्तन का मुख्य हिस्सा बनती हैं। आज भले ही मुक्तिबोध की रचनाओं का वितान जितना भी व्यापक हो, किन्तु अपने समय में मुक्तिबोध को जीवन और रचना की अभिव्यक्ति में  भी जोखिम उठाना पड़ा था । निर्वासन की पीड़ा को सहना पड़ा था। बावजूद इसके, न तो उन्होंने अपनी जीवन दृष्टि बदली और न ही रचनात्मक कथ्य को। कई बार मुक्तिबोध का लेखन अन्योक्ति और अमूर्तता की हद को भी पार करते दिखाई देता है। फिर भी सृजनात्मकता के उस विषय को नकारते हुए आगे नहीं बढ़ा जा सकता, बल्कि पाठक सोचने पर मजबूर होता है और भविष्य को अंधकार की ओर क्रमशः बढ़ते हुए देख विचलित होता है। "किन्तु कल रात का उसका सपना, दु:स्वप्न  के भीतर का एक भीषण दुःस्वप्न रहा है।" (समझौता)

सामाजिक बंदिशें टूटती हैं तो टूट जाएँ, लेकिन व्यक्ति के मुक्ति के मार्ग को अवरुद्ध कर,  उसे कुंठित कर तथाकथित रूढ़िवादी परम्पराओं का निर्वहन होता रहे, मुक्तिबोध इसकी मुखालफत करते नज़र आते हैं। व्यक्ति की अस्मिता, उसके अस्तित्व की रक्षा मुक्तिबोधीय-संवेदना की अनिवार्य शर्त है। उन्हें कुचलकर,  दबा कर उनकी स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता का हनन कर किसी भी स्वस्थ समाज का निर्माण मुमकीन नहीं है। मुक्तिबोध समय और समाज में हो रहे परिवर्तनों को पूरी संवेदना एवं बेचैनियों के साथ परख रहे थे, उसे अनुभव कर रहे थे। उनकी 'बौद्धिकता' किसी ' एकेडेमिक कैम्पस' का ही हिस्सा नहीं रही थी, बल्कि जन-साधारण के बीज अधिक क्रियाशील रही। उनकी कार्यशाला समूचा विश्व रहा है। उनकी दृष्टि चेतना-सम्पन्न रही। क्योंकि अपने समय के तनावों और जटिलताओं से बखूबी वाकिफ़ रहे। इसलिए अपने समाज के प्रति नैतिक जिम्मेदारियों से सदैव सतर्क रहे। इन सबके लिए जीवटता, साहस और आत्मविश्वास मुक्तिबोध जीवन के यथार्थ से ग्रहण करते हैं।

मुक्तिबोध पर मार्क्सवादी विचारों का एक निश्चित प्रभाव रहा, किन्तु जीवन-दृष्टि मानवीय-मूल्यों से अधिक सम्पन्न रही। रचनात्मकता में भी द्वन्द्व रहा, और यह द्वन्द्व कहानियों के पात्रों में भी दिखा है। पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों में सिद्धान्तवादी विचारों का ही विनिमय होता दिखा है। एक तरह से वैचारिकता का द्वन्द्व भी उनके पात्रों की अभिव्यक्ति से समझा जा सकता है। इसलिए कहानियों की बुनावट जटिलता एवं दुरुहता के साथ संपन्न हुई है।वैसे देखा जाय तो उनकी अलग -अलग कहानियों में मुक्तिबोध का वैचारिक संघर्षों की झलक है और एक एक कहानियों की पृष्ठभूमि में मुक्तिबोध की बेचैनी , ईमानदारी , सच्चाईअधीरता , अकुलाहट सभी कुछ पाठकों के समझ और दुनिया के सामने सकुचाई हुई सी ही  आई हैं । फिर भी इन सभी कहानियों की एक ख़ासीयत रही है कि ये सारी कहानियाँ अलग -अलग पृष्ठभूमि को छूती हुई  भी एक दूसरे में विलय होती महसूस होती हैं । ये कहानियाँ जिन्दगी के विभिन्न रंगों एवं आयोजनों की तरह एक दूसरे से गहरा सरोकार रखी हुईं हैं । एक कहानी एक परिदृश्य को चित्राकित करती हुई जिस छोर पर खत्म होती है , वहीं से दूसरी कहानी बुनियाद रखी जा चुकी होती है । इसीलिए मुक्तिबोध की सभी कहानियाँ एक दूसरे की सीमांत को छूती हुई एक दूसरे से पूरी तरह संपृक्त हैं ।एक दूसरे की पूरक हैं ।हिन्दी कथा-साहित्य में मुक्तिबोध की ये कहानियाँ अपने आप में एक उपलब्धि हैं ।उनका सर्जनात्मक कौशल कहा जा सकता है कि सामान्य परिवेशसाधारण पात्र और समसामयिक घटनाओं के सहारे विशिष्ट एवं व्यापक कहानी का सृजन कर लेते हैं । संभवतः इसीलिए शमशेर बहादुर सिंह के अनुसार मुक्तिबोध की कहानियाँ सहज ही हर स्थिति के अतिसामान्य में असामान्य और अद्भुत का भरम पैदा कर देती हैं। इसे हम तटस्थ-सी काव्यकर्मी कल्पना-शक्ति का कमाल कह सकते हैं। ये कहानियाँ जीवन के ठहरे नैतिक मूल्यों पर सोचने के लिए पाठक को विवश करतीं हैं। 
माना जाता है कि आर्थिक दबाव में आकर कहानियाँ लिखी ।किन्तु उनकी कहानियाँ आर्थिक संकट एवं संघर्ष से मुक्ति पाने के लिए धनोपार्जन निमित्त नहीं लिखी गयी , बल्कि रूढ़िवादी नैतिकता को विखंडित करती , मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना की पैरोकार बनकर बौद्धिक उत्कृष्टता की बेजोड़ उदाहरण प्रस्तुत करती नज़र आती हैं ।साथ ही अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति पूरी तरह सजग एवं तत्पर दिखती हैं ।

मुक्तिबोध का जीवन-यथार्थ और सामाजिक-सरोकार के प्रति गहरा जुड़ाव रहा है और विज़न इतना स्पष्ट रहा है कि सारी सीमाओं और तमाम भाषायी बाधाओं के बावजूद कहानियों का कथ्य या कहन की शैली अपने पूरे प्रभावों के साथ प्रस्तुति पाई है। ज़िन्दगी की ये संवेदनाएँ मुक्तिबोध के समूचे साहित्य का मूल तत्व हैं और इन्हें पाठकों तक संप्रेषित कर ही मुक्तिबोध सच्चे मायने में जनसरोकार से जुड़े आत्मा के शिल्पीकार हैं।

नि:संदेह साहित्यकार युगीन परिस्थितियों से तटस्थ होकर साहित्य-सृजन नहीं कर सकता। युग विशेष की परिस्थितियों में सामाजिक और राजनीतिक स्थितियाँ विशेष रूप से चिन्हित की जाती हैं और रचनाकार इन परिस्थितियों के मद्देनजर ही अपनी सृजनात्मकता को आयाम देता है और उसका साहित्य समय-परिधि तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि अपने समय की नब्ज पर उँगली रखते हुए समय के पार जाकर भी मूल्यांकित होता है और कालजयी रचना सिद्ध होता है। मुक्तिबोध की ये कहानियाँ किसी सत्ता तक पहुँचने की सोपान नहीं रहीं बल्कि उनका साहित्य जन-चेतना का समुच्चय और जन-जागरण का व्यापक अभियान है।


4 comments:

गीता दूबे, कोलकाता said...

गंभीरतापूर्वक लिखा गया आलेख जो मुक्तिबोध के कहानीकार रूप को समझने में मददगार है। लेखिका को बधाई।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-02-2019) को "अपने घर में सम्भल कर रहिए" (चर्चा अंक-3259) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

AjayKM said...

lifestyle matters
lifestyle matters

Anonymous said...


Very Useful Content
Keep us motivate with your skills

Haldi Rasam Meaning in English