विजय गौड़
कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों को पढ़ते हुए मुझे देहरादून में आयोजित हुए संगमन कार्यक्रम की याद अनायास ही आ गई। कार्यक्रम के दौरान उठे बहुत से प्रसंगों की याद। संगमन का वह कार्याक्रम इस सदी के शुरूआती दिनों में हुआ था। ध्यान रहे कि उसी दौरान ‘पहल’ का मार्क्सवादी आलोचना विशेषांक भी प्रकाशित हुआ था। दलित राजनीति के तीव्र उभार ने भी उस दौरान जनवादी राजनैतिक धारा के भीतर भी उथल-पुथल मचायी हुई थी। भारतीय राजनीति में अस्थिर सरकारों के उस दौर में धार्मिक आधार पर समाज को बांटने वाली राजनीति भी अपने नम्बर बढ़ाने में सफल होती जा रही थी। दूसरी ओर हिंदी में दलित विमर्श एंव स्त्री विमर्श का वह किशोर होता दौर था। कार्यक्रम के दौरान कविता पोस्टर की प्रदर्शनी भी लगी थी। एक पोस्टर में कवि धूमिल की कविता का वह मुहावरा- 80 के दशक में जिसे खूब सराहना मिली थी, लिखा हुआ था- ‘’जिसकी पूंछ उठाकर देखी, वही मादा निकला’’। धूमिल की कविता पंक्तियों की तीखी आलोचना वहां कई साथियों ने एक स्वर में की थी। आयोजकों को इस बात के लिए घेरा था और सवाल उठाए थे कि स्त्री विरोधी ऐसी कविता को पोस्टर पर देने का क्या अैचित्य ? वे धूमिल के दौर की उस आधुनिकता को प्रश्नांकित कर रहे थे जिसका वास्ता उस गंवईपन से था जो भाषा के स्तर पर भी व्याप्त रहती ही है। इसी तरह का एक अन्य वाकया 'वर्तमान साहित्य' एवं 'समकालीन जनमत' में चली बहस का जिसमें प्रेमचंद की कहानी 'कफन' को लेकर दलित रचनाकारों ने बहस छेड़ी कि कहानी दलित विरोधी है। क्योंकि कहानी के पात्र घीसू और माधव को दलित वर्ग का दर्शाया गया है। यह बहस विवाद के रूप तक भी पहुंची। इन दोनों संदर्भों के आधार पर ही यह कह सकने का साहस बटोरा जा पा रहा है कि जब हिंदी में दलित साहित्य की आवाज सुनाई देने लगती है, सामाजिक मुक्ति के स्वर में स्त्री विमर्श शामिल होना शुरू होता है, उसी वक्त धूमिल की कविता पंक्ति प्रशनांकित होती है। दरअसल अमानवीयता की हद तक पहुंचा देने वाले कारणों ने ही मुक्ति की राह को दलित एवं स्त्री चेतना संपन्न होने की सीख दी है। धूमिल हो चाहे प्रेमचंद, उन्होंने दलित शोषित के पक्ष को अपना पक्ष माना है लेकिन जो चूक फिर भी चिह्नित हुई हैं, उन्हें अनसुना नहीं किया जा सकता।
अपने पक्ष को
रखने में यह कहना उचित लग रहा है कि सामाजिक यथार्थ को चित्रित करने में रचनाओं की
भूमिका क्या हो ? दरअसल इस प्रश्न का जवाब तलाशना इसलिए जरूरी लग रहा है, क्योंकि
उपरोक्त दोनों घटनाएं सदाचार/व्यवहार(ethic) एवं नैतिकता (morality) के बीच स्पष्ट
विभेद की मांग करते हुए हैं। समझने के लिए इस पहलू को देखना जरूरी है कि निरीह,
दारूण और सताए हुए लोगों के किस रूप को और किस तरह से रचना में जगह मिली है।
दुनिया भर के लोगों के जीवन को दारूण स्थितियों में पहुंचा देने वाले कारकों को
किस तरह से चिह्नित किया गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जीवन संघर्ष में उलझे लोगों
को ही, उनके द्वारा ही अमानवीयता का वरण कर लेने वाली मजबूरी को, जो बेशक सहज जैसा
व्यवहार भी हो गई हो, निशाने पर लिया जा रहा है ? प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ पर
एतराज उठाती दलित आवाज को इस रूप में ही सुना जाना चाहिए। कहानी में घीसू-माधव के
चित्रण में जाति विशेष का जिक्र हो जाना एक चूक मानी जानी चाहिए। इस बिना पर कि लगातार
के गलीच जीवन में रहने वाला कोई भी व्यक्ति संवेदन शून्यता का वैसा शिकार हो
सकता है, जिसने घीसू-माधव को एक ऐसे व्यवहार में लपेटा जो निश्चित ही क्रूर है। यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि प्रेमचंद
की कहानी ‘कफन’ का यह पाठ भी वही दलित चेतना उठा पा रही थी, जिसे अपनी बात कहने का
कुछ मौका उस वक्त तक मिलने लगा था। मोहन थपलियाल की कहानियों पर बात करने से
पूर्व इन दोनों प्रसंगों और उनसे उठते सवाल को रखने का औचित्य सिर्फ इतना ही है
कि मोहन थपलियाल की कुछ कहानियों में आधुनिकता का गंवईपन यदि झलक जाता है तो वह भी
प्रश्नांकित होना जरूरी है। साथ ही हिंदी आलोचना के उस पहलू को भी तलाशा जा सके
कि जिसके चलते किस तरह की कहानियों को गंवई आधुनिक आलोचना ने महत्वपूर्ण माना और
उनका ही जिक्र किया। क्यों ऐसी कहानियां, जो उनसे इतर बात तरह से यथार्थ को रखने
में सक्षम रही, आलोचना के दायरे बाहर रह गईं। यह कहना कतई असंगत नहीं कि सिर्फ मोहन
थपलियाल ही नहीं अन्य रचनाकारों की भी बहुत-सी वैसी और महत्वपूर्ण रचनाएं आलोचना
के दायरे से बाहर रहीं हैं।
हिंदी कहानी
आलोचना के यदा-कदा जिक्र में मोहन थपलियाल की जिन कहानियों को प्रमुखता से याद
किया गया है, उनमें - ‘छज्जूराम दिनमणि’, ‘पमपम बैंड मास्टर की बारात’, 'शवासन'
एवं 'सालोमान ग्रुंडे' आदि हैं। परिस्थितियों की विकटता और ऊब से मुक्ति की इच्छाओं
में रची गई कहानी ‘’पमपम बैण्ड मास्टर की बारात’’ में जो भूगोल पुन:सृजित होता
हुआ है, साफ हो जाता है कि रचनाकार उसकी स्मृतियों में राहत महसूस कर रहा है।
लेकिन दूसरे ही क्षण वह उबाऊ और थकाऊ परिस्थितियां हैं जो अनायास ही लौट लौट आती
हैं, ‘’बहरहाल क्योंकि पमपम बैंड मास्टर अपनी बारात में शामिल नहीं है, लौटते
हुए तमाली की इस बारात में डमाऊ की डंग-डंग के साथ तमाली के पांवों में बंधे खांदी
के झिंवरों की छपाक शामिल हो गई है। बाकी सब कुछ वैसा ही सन्नाटा-भरा और एकरस है,
ठक-ठक बजती लाठी, छतरी और चढ़ाई पर गले से निकल रही खुम-खुम खांसी की आवाज के साथ-
नौ आदमियों की छोटी-सी कतार।‘’ पहाड़ी प्रदेशों को ‘देवभूमि’ में बदलने वालों ने
पहाड़ी जनमानस के संघर्ष को अनदेखा किया है और करने की ठानी हुई है। संस्कृति का
झूठ और संसाधनों की लूट मचाने वाले लगातार ऐसे षड़यंत्र जारी रखे हैं कि आम जन के
लिए यह अनुमान लगाना मुश्किल ही हो जाता है कि पुरातनपंथी मान्यताओं का महिमा मण्डन
करने वालों को अपना दोस्त माने या दुश्मन। क्योंकि एक ओर उनकी सीख है, दूसरी ओर
उनका अपना जीवन व्यवहार है। कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों का विश्लेषण इस
दृष्टि से भी जरूरी है कि उसमें उत्तराखण्ड का भूगोल और समाज स्वत: प्रविष्ट
होता हुआ है। जीवन में रचे बसे सीमित भूगोल के बावजूद कथाकार मोहन थपलियाल का
अनुभव विशाल भूगौलिक क्षेत्र के उस समाज से है जहां आपाधापी, मारकाट, शोषण,
प्रताड़ना की स्थितियां कुछ भिन्न है और उस भिन्नता ने ही पहाड़ी जन मानस की सी
सरलता, ईमानदारी भरे व्यवहार वाले मनुष्य से भिन्न थोड़े चालाक आदमी को गढ़ा
है। शुरू की कहानियों में जो कच्चापन-सा दिखता है, उसका एक कारण यह भी हो सकता है
कि रचनात्मक सौन्दर्य की बजाय जीवन अनुभवों का संसार कथाकार के भीतर ज्यादा सघन
बैचेनी पैदा करता हुआ रहा हो और जिसको खुद से परखने एवं व्याख्यायित करने के लिए
प्रभावी राजनैतिक औजार उतने पैने नहीं हो पाए हों। लेकिन संबंधों की कसावट की
समूचित पड़ताल में एक रचनाकार अपनी यात्रा शुरू कर चुका हो। यदि कोई ठीक-ठाक राह
बनी हुई होती तो आधुनिकता के लक्ष्य को पहचान लेना आसान होता। लेकिन वैसा न होने
की स्थिति में भटकाव की पगडंडियों पर पांवों का पड़ जाना लाजिमी है। फिर भी उन
पगडंडियों के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता जिन पर बढ़ते हुए ही एक रचनाकार
दिशा ज्ञान को हांसिल करता गया। मोहन थपलियाल की बाद के दौर की कहानियां आधुनिकता
के लक्ष्यों तक पहुंचने में मदद करने से तो चूक जाती हैं लेकिन हिंदी कहानियों की
भटकी हुई राह- ‘भ्रष्ट आधुनिकता’ से छिटक कर अपना रास्ता खोज लेने की प्रेरणा तो
देती रहती हैं।
परिभाषाओं के
दायरे में फिट न हो पाना आधुनिकता की पहली शर्त है। समय के प्रवाह की तरह गतिमान
तार्किक प्रणाली का निर्बाध प्रवाह- यहां तर्क का अभिप्राय ज्ञात ज्ञान-विज्ञान के
साक्ष्य हैं। यानी आज जो तर्क-सत्य है जरूरी नहीं कि कल भी वह सत्य ही बना रहे।
प्रकृति के नये स्रोतों और अव्याख्यायित घटनाओं के कारणों को जान चुका मनुष्य
नये साक्ष्यों के साथ जैसे ही सामने हो तो अप्रसांगिक हो जा रहे पुरातन को छोड़कर
नये एवं प्रासंगिक सत्य को स्वीकारना ही आधुनिकता है। यूं गंवई आधुनिकता को इसके
उलट तो नहीं कहा जा सकता। बल्कि कई बार तो वह भी इतनी समानांतर दिखती है कि बहुत
दूर जा कर पुरातन से मिलने वाले उसके कौनों को किसी एक जगह की स्थिरता पर पहचानना
ही मुश्किल होता है। मोहन थपलियाल की कहानियों की यह समानंतरता ही चौंकाती है।
उनकी कहानियां पूरी तरह से गंवई आधुनिकता का वरण तो नहीं करती हैं लेकिन अपने
अंदाज में उससे मुक्त भी नहीं दिखती हैं। यद्यपि यह बात भी उतनी ही सही है कि
गंवई आधुनिकता की मुख्य प्रवृत्ति, संवेदना के जागरण, से मुक्त होने की राह की
ओर बढ़ती हैं। यानी, गंवई आधुनिकता और निश्छ्ल आधुनिकता के संक्रमण की राह बनाती
हैं। इतना ही नहीं चालाकी से जगह बनाती जा रही भ्रष्ट आधुनिकता से दूरी भी बनाती
चलती है। 'शवासन' की चर्चा यहां समीचीन होगी। यह एक ऐसी कहानी है जिसमें कोई
घटनाक्रम केन्द्रीय नहीं है। केन्द्र में समय है और उस समय में घटती अनेक घटनाएं
हैं। कथापात्र ऋषिकेश के एक घाट पर चल रहे घटनाक्रम के मार्फत स्थितियों को बयां
करता जाता है। इस पाये की एक अन्य खूबसूरत कहानी है- 'सिद्धहस्त'। कथाकार का
उददेश्य साफ है- उभार लेता वह बाजार जिसने खेती किसानी को चौपट करना शुरू किया है
और उसके साथ कदमताल मिलाता एक ऐसा मध्यवर्ग जिसने गैर जरूरी चीजों ग्राहक होकर
गैर जिम्मेदार बाजार को स्थापित होने में मदद की है। भैंस पाल कर जैसे तैसे अपना
जीवन यापन करने वाला मेहनतकश और विदेशी प्रजाती के कुत्ते का व्यवसाय करके आराम
की जिन्दगी जीने वाले व्यक्ति के मार्फत कहानी बुनने की यह अनूठी कोशिश ही कहानी
को महत्वपूर्ण बना दे रही है।
गंवईपन से मुक्त
हुए बगैर आधुनिकता का वरण करने वाली प्रवृत्ति को पहचानना हो तो ‘’लौटते हुए’’ और
‘’छज्जूराम दीनमणि’’ जैसी कहानियों के पाठों से फिर फिर भी गुजरा जा सकता है।
फतेसिंह के पोस्टर भरे यथार्थ पर काल्पनिक रूप से उभर आने वाला आजादी के संघर्ष
के नायक सुभाष चंद बोस का चेहरा और नारा जयहिंद, कथाकार के भीतर बैठी कोरी
भावुकता के प्रति अतिशय मोह का कारण बनता है। अतिशय भावुकता से मुक्ति की राह
बनाता यथार्थ यहां अनुपस्थित है और फतेसिंह के पोस्टर पर उभरती इबारत के साथ ही
काल्पनिक यथार्थ जन्म लेता हुआ है। कल्पना के विन्यास में वहां एक अपने तरह की
लाचारी भी उभार लेती है, ‘’इससे ज्यादा मैं कर ही क्या सकता हूं।‘’ निरीहता का
बयान करती यह कहानी गंवई आधुनिक कहानी है।
उपरोक्त जिक्र
की गई आलोचना की प्रिय कहानियों के आधार पर ही बात की जाए तो कहा जा सकता है कि
कथाकार मोहन थपलियाल की इन कहानियों के कथानक भी हिंदी की गंवई आधुनिक कहानियों की
संगत सरीखे हैं। यहां यह मानने में कोई संकोच नहीं कि समय समय पर शुरू हुए
विमर्शों का पाठ होती बहुत से दूसरे रचनाकारों की कहानियां भी इस दायरे में ही रही
हैं। लेकिन मोहन थपलियाल के सम्पूर्ण रचनात्मक लेखन से गुजरें तो पाएंगे कि वे
मूल रूप से उस मिजाज के रचनाकार नहीं हैं जिनके कारण आज वे जाने जाते हैं। उपरोक्त
कहानियों के प्रकाशन वर्ष स्पष्ट है कि
ये कहानियां उनके अंतिम दौर की कहानियां है। ऐसी कहानियों में संवेदना के जागरण
करता कहानियों का अंत रचनाकार के गंवई आधुनिक मिजाज की तरफदारी करता है। एक ही
रचनाकार की लेखानी से उतरी इन दो भिन्न तरह की कहानियों के संदर्भ से यह सवाल
उठना लाजिमी है कि एक संतुलित कहानी को कैसा होना चाहिए ? यहां संतुलित कहानी से
आशय है, ऐसी कहानी जो जमाने की रंगत को तार्किकता के आधार पर पकड़े- ऐसा हो सकता
है कि अभी तक अज्ञात रह गए प्रकृति के रहस्यों की स्थितियां आने पर कथाकार बेशक
किसी अकल्पनीय घटना का सृजन करने लगे, फैंटेसी का वरण कर ले, लेकिन तब भी तर्क की
स्वाभाविकता पर कायम रहे। इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए पहले कथाकार मोहन थलियाल
की उन शुरूआती कहानियों से गुजर लेना जरूरी लग रहा है जो आलोचना और उसके कारण ही
लोकप्रियता के दायरे बाहर छूट-सी गई हैं।
उन छूटी हुई
कहानियां का एक प्रबल पक्ष है कि तर्क की स्वभाविकता यहां अनवरत बनी रहती है।
कविता के से अंदाज में बहुआयामी भाषा के सहारे बढ़ती मोहन थपलियाल की ऐसी कहानियों
के घटनाक्रमों से यह अनुमान लगाना मुश्किल रहता है कि वे किस मोड़ से किधर मुड़
जाएंगी। यूं तो उनकी ज्यादतर कहानियों के अंत एक तरह से मुक्कमिल जैसे नहीं ही
है। वे जहां समाप्त हो रही होती हैं, उन्हें वहीं पर समाप्त मान लिया जाना
मुश्किल बना रहता है। उनकी खूबी है कि वे वहीं से एक नयी कथा के उदय होने की
संभावना लिए अंत की कहानियां हैं। उनके पाठ यह अनुमान लगा सकने के अवसर देते है कि
क्षण विशेष में रचनाकार के भीतर कौंधि कोई स्थिति ही रचना के उदभव का कारण रही
होगी और उस स्थिति को कहने के लिए कथाकार को कथा गढ़नी पड़ी है। इस तरह से देखें
तो उनकी कहानियां एक रचनाकार के विस्तृत अनुभवों के दायरे की भी गवाह बनती हैं।
यूं तो यह तत्व उनकी लोकप्रिय कहानियों में भी दिखता है लेकिन वैसा प्रभावी नहीं
बना रहता है। आलोचना के लोकप्रिय दायरे में समाई ‘सालोमन ग्रुंडे’ को उस संतुलित
कहानी के रूप में देखा जा सकता है, जिसकी अपेक्षा इस आलोचना की चिंताओं का स्वर
मानी जा सकती है। मात्र पांच दिनों के अल्प जीवनकाल को प्राप्त एक नवजात शिशु
‘सालोमन ग्रुंडे’ का कथा नायक हो जाना इस बात की पुष्टि करता है। यह कहानी सालोमन
के इस परिचय के साथ शुरू होती है, ‘’बच्चों को पढ़ाई जाने वाली एक अंग्रेजी
पाठ्य-पुस्तक के अनुसार सालोमन ग्रुंडे का जन्म सोमवार को हुआ था और नामकरण
मंगलवार को। सालोमन ग्रुंडे की हालत बुधवार को नाशाद थी और गुरूवार को वह बीमार
पड़ गया। शुक्रवार को उसकी हालत एकदम पस्त हुई और शनिवार को वह मर गया। इतवार को
सालोमन ग्रुंडे को दफना दिया गया और उसकी कहानी बस यहीं पर खत्म हो गयी।‘’ यह उस
सालोमन ग्रुंडे की कहानी है जो मुक्ति की चाह में पीढि़यों पहले ईसाइ हो गए जाति
से डोम लेकिन ईसाइ धर्म धारण कर चुके अपने पिता एडवर्ड का पुत्र है। कहानी में
भाषायी सवाल और अस्मिता के प्रश्न हैं लेकिन वे पूरे कथानक में उस तरह से कहीं
दिखाई नहीं देते जिसे कहानी अंत में प्रकट करती है, ‘’इस आजादी ने, जिसने बहुत
सारे रंगीन ख्वाबों की दिलासा एडवर्ड को दिलाई थी, उसे दी थी- सिर्फ एक बच्चे की
उदास नीले रंग की मौत । यह दुख बहुत बड़ा था, लेकिन इससे भी ज्यादा दुख एडवर्ड को
तब हुआ जब उसने कान में किसी ने एक दिन यह बताया कि तुम्हारे बच्चे की मौत पर
मोटी तोंद वालों ने अपने बच्चों को अंग्रेजी के दिन रटाने के लिए सुंदर राइम बना
डाली है, जिसे बचचे मक्खन-चुपड़ी रोटियां चुबलाते हुए तोते की तरह रटते रहते
हैं।‘’
मोहन थपलियाल ने
बहुत-सी ऐसी कहानियां भी लिखी हैं जिनमें न सिर्फ वह फ्रेम टूटता है अपितु, वे
संवेदना के जागरण की मुख्य प्रवृत्ति का निषेध करते हुए अंत की कहानियां हो जाती
हैं। लेकिन कहानी का फ्रेम तोड़ती ये कहानियां मोहन थपलियाल के शुरूआती लेखन की
है, जैसे ‘जकड़न’, ‘छद्म’, ‘खाका’ आदि। बाद के दौर में लिखी गई कहानियों से इनके
पाठ थोड़ा भिन्न हैं। भारतीय मध्यवर्ग के भीतर जमी खूबियों और खामियों की बर्फ
किस तरह से ठोस है उसे समझने के लिए मोहन थपलियाल की शुरूआती कहानियां ज्यादा
कारगर हैं। धार्मिक बाने में कसी मानसिकता के बीच उछाल लेता क्रांतिकारिता का उभार
किस तरह से रोमांटिसिज्म में जकड़े रहता है, ज्यादातर कहानियों में दिख जाता है।
क्रांति के प्रति झुकाव के बावजूद सामंती अहंकार ने आज ही नहीं बल्कि अपने उदभव के
दौर में विकसित होते भारतीय मध्यवर्ग को किस तरह से बांधें रखा, ‘’मांस खाने की
इच्छा’’ से लेकर ‘’घेरे’’ तक में ऐसी ही सामाजिक स्थितियों के प्रति लेखकीय टिप्पणियां
जगह पाती हैं। लेखक का आलोचनात्मक तेवर इन कहानियों का प्रस्थान बिन्दु बना
रहता है। स्त्री स्वतंत्रता का हल्ला पीटती वर्तमान मध्यवर्गीय मानसिकता का वह
सच जिसमें बलात्कार, हत्या और दुत्कारों की आवाजें बहुत तेज सुनाई दे रही हैं,
‘’मांस की इच्छा’’ की कथावस्तु बनी रहती है। एक तरफ आधुनिकताबोध की हिमायत और
दूसरी तरफ वैश्यालय में वापिस लौटकर जिस्म को ही सब कुछ मानने वाली मानसिकता का
खुलासा करती कहानी ‘’मांस की इच्छा’’ इस कारण से एक महत्वपूर्ण कहानी है।
यथार्थ के नाम पर
अतियथार्थ जुगुप्सा जनित होता है। उसका वरण करती गंवई आधुनिकता के लिए यह जरूरी
हुआ कि इस तरह से पैदा हो रही जुगुप्सा से निपटा जाए। संवेदना के जागरण के जरिये
उस जुगुप्सा को मिटाने की नीति ने सुखद अंत, या दमित, शोषित मनुष्य की जीत के
संकेतों के प्रगतिशील दिखने की युक्ति के साथ शोषण के तरीकों का समूचित विश्लेषण
प्रभावित हुआ और चलताऊ नजरिये का जगह मिली। किसी तार्किक संगति को तलाशने की बजाय
गैरबराबरी को व्याख्यायित करने में मनोगतवादी रूझान को प्रश्रय मिला। फलस्वरूप
जमाने में गैर बराबरी और अन्य तरह से भी समाज को बांटे रखने के षड़यंत्र और उन
षड़यंत्रों को अंजाम देने वालों के खिलाफ किसी सामूहिक कार्रवाई की चेतना का
ढ़ांचा विकसित होना असंभव हुआ। साहित्य की जनपक्ष भूमिका, जो निर्बल, असहाय, हार
और प्रताड़ना को झेल रहे मानव समूहों के भीतर आत्मविश्वास पैदा करने वाली होनी
चाहिए थी, सक्षम साबित नहीं हो पाई। जैसे तैसे खुद को बचा लेने की जुगत लगाने को
मजबूर रचनाकार का जीवन भी समाज को प्रेरित करने में विफल हुआ। फलस्वरूप ऐसे मध्यवर्गीय
वातावरण का निर्माण हुआ जिसकी नैतिकता और आदर्श बुरे के प्रति खामोश रहने और भले
भले दिखने को ही नागरिक गुण मानने वाले हुए। यदि आग्रह-दुराग्रह मुक्त होकर अपने
प्रिय रचनाकारों की रचनाओं के पाठ किये जाएं और तटस्थ विश्लेषण भी तो निश्चित ही
ऐसी रचना को तलाश जा सकता है जो एक रचनाकार के उत्स एवं उसके विस्तार को जान
समझने में सहायक हो सकती है।
दो भिन्न तरह के
मिजाज में रची मोहन थपलियाल की कहानियों को ठीक से परिभाषित करने के लिए
‘’त्रिकोण’’ उनके कथाकार मन को जानने के लिए सबसे उपयुक्त कहानी हो सकती है। यह
इत्तिफाक है कि इस कहानी का रचनाकाल 1982 का वह वर्ष है जब 1970-71 के आस-पास अपने
लेखन की शुरूआत करने वाला कहानीकार अपने रचनात्मक जीवन के लगभग मध्य में है। यह
कहानी भारतीय समाज व्यवस्था और आर्थिक
ढ़ांचे के विस्तार के बाबत लेखकीय समझदारी का सबसे स्पष्ट प्रमाण बनती है।
रचनाकार की राजनैतिक दिशा और सरोकार का पता भी यहां सहजता से मिल जाता है।
‘’त्रिकोण’’ कहानी के जज पिता का न चाहते हुए भी मॉडलिंग की ओर बढ़ रही पुत्री की
सफलता को देखना किस तरह से एक मूल्य की तरह है, कहानी में वह साफ दिखता है। इतना
ही नहीं सत्ता को ही सर्वशक्तिमान मान लेने की स्थितियां किस तरह से कामगार तबकों
को भी जैसे तैसे उन स्थितियों को लपक लेने के लिए प्रेरित करती हैं, यह भी कहानी
स्पष्ट करती जाती है। खुले बदन के साथ गैर जरूरीर उत्पादों पर उंगली फिराती
लड़कियां माल बेचने को ही जब स्वतंत्रता का पर्याय मान रही हो तो पैसे वाले
घरानों के लिए अनुकूल स्थिति बनती है। वे उन्हें खूब पैसे देते हैं ताकि लड़कियां
अपने जिस्म के गोपनीय से गोपनीय अंगों पर आंख मिचौली को आमंत्रित करते हुए तमाम
गैर जरूरी उत्पादों को बेचने में ही अपनी मुक्ति तलाशती रहें। संदर्भित कहानी का
एक अन्य पात्र विक्रमदास जो शहर की एक वीरानी सड़क के किनारे एक नीम के पेड़ के
नीचे साइकिलों की मरम्मत करते हुए जीवन संघर्ष में जुटा है। साइकिल के पंक्चर
लगाने से मिलने वाले मेहनातने के बावजूद रुतबेदारर लोगों गाडि़यों के टायरों में
हवा भरने से मिलने वाली बख्शीश उसको लुभाती है। उन बड़े लोगों की कृपा का पात्र
हो जाने पर ही वह अपने मामूली जीवन से छलांग लगाकर ऐसा ‘महान’ बन जाता है कि देखते
ही देखते सांसद और मंत्री बनकर राज करने की स्थिति में नजर आता है और ता उम्र उन
‘कृपालू’ पूंजीपतियों के हितों को साधने
वाले कायदे कानूनों को पास करनवाने में अहम भूमिका निभाना शुरू कर देता है।
गंवई आधुनिकता की
जकड़न सामाजिक मुक्ति के रास्ते तलाशने में हमेशा बाधा बनती रही है। उन जकड़नों
के उत्स को ठीक से पहचाने बिना रचना में उनकी उपस्थिति के जरिये उसे तोड़ने की
कोशिशें गंवई आधुनिक हिंदी कहानी में हमेशा होती रही हैं। आलोचना में प्रगतिशीलता
के मानक ऐसी आधी अधूरी कोशिशों तक ही बहुधा केंद्रित रहे हैं। मोहन थपलियाल की
कहानियों में चूंकि यह कोशिश उन तय मानदण्डों से थोड़ा ज्यादा हैं और आधुनिकता
की ओर संक्रमण करती हुई हैं, इसीलिए नाम गिनाऊं आलोचना से उनका बाहर रह जाना स्वभाविक-सी
बात है। ‘’मांस खाने की इच्छा’’, अस्सी के दशक में लिखी गई उनकी यह कहानी मध्यवर्गीय
खीझ, बोझिल और सुस्त-सुस्त से जीवन की तरावट को स्त्री देह में ढूंढ़ने की
कोशिश करती मर्द मानसिकता से साक्षात्कार करने का अवसर देती है। अपनी नाकमयाबी के
चेहरे को स्त्री देह में धंसा कर सकुन ढूंढ़ता पुरूष जंगली जानवर की तरह संभोगरत
होना चाहता है। इस कहानी की खूबी है कि दयनीय और असहाय स्त्री जीवन को स्थापित
करने की बजाय ललकार और गुर्राहट यहां सुनने को मिलती है। अपने दौर में ऐसी
स्थितियों पर लिखी जा रही कहानियों से अलग यह कहानी इस बात की गवाह है कि जो मूल्य,
नैतिकता और आदर्श गढ़े जा रहे, कहानी का रचनाकार उनसे असहमत है। रचनाकार की असहमति
उस भौंडेपन से भी साफ है जिसमें उसी दौर में सिगरेट पीती लड़की को आधुनिक मान लिये
जाने का मुगालता पाल लिया जा रहा है। इसके लिए जेएनयू की पृष्ठभूमि में लिखी गई
कहानी ‘घेरे’ को देखा जा सकता है। यहां
जेएनयू की आलोचना को उस स्वर से भिन्न माना जाये जो शिक्षा, स्वास्थय और
राजेगार से आंख मींच लेने वालों के प्रति भक्तवत्सल होकर जेएनयू जैसे
महाविद्यालय को उजाड़ देना चाहते है। मोहन थपलियाल जेएनयू के छात्र रहे और उनके
करीबी जानते हैं कि जेएनयू का यह छात्र किस कदर अपने विद्यालय से प्रेम करता है।
जेएनयू संस्कृति में जन्म लेता स्त्री विमर्श इसीलिए मोहन थपलियाल की कहानी में
आलोचनात्मक तरह से जगह पाता है। दिलचस्प है कि क्रांति के सवाल पर दो लाइनों के
संघर्ष पर बात करने वाली कथा नायिका और सिगरेट के धुएं को आधुनिकता के प्रतीक के
रूप में देखने वाली असहजता कहानी में अनायास नहीं है। अन्तत: देश की नौकरशाही के
रंग में रंग जाने वाली यह आधुनिकता जेएनयू की विरासत रही है।
मोहन थपलियाल हिंदी
के ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने वैसे बहुत ज्यादा कहानियां नहीं लिखी। हाल ही में ‘समय
साक्ष्य’ देहरादून से प्रकाशित उनकी सम्पूर्ण कहानियों की किताब में कुल 20
कहानियां हैं। उपरोक्त वर्णित जिन कहानियों से हिंदी समाज कथाकार मोहन थपलियाल की
कहानियों से परिचति होता रहा है, कमोबेश हिंदी कहानियों की उस प्रचलित धारा के साथ
नजर आती हैं जिनका उददेश्य आधुनिक होने की चाह से तो भरा रहता है लेकिन आधुनिकता
का अर्थ जहां नूतन पर ही अटक जाता है। आलोचना की अभी तक की स्थिति की यह सीमा रही
है कि उसने उन कहानियों को ही छुआ है जिनमें नूतन से नूतन कथानक भी तय फ्रेम का
निर्वाह करता रहा है और करता रहता है। आलोचना का यह पक्ष कहानी के फ्रेम को यथावत
बना रहने देने की दृढ़ता का इस हद तक समर्थन करता है कि चाहे जटिल सामाजिक यथार्थ
को व्यक्त करने के लिए कथाकार को असंगत कथानक और अतार्किक विस्तार तक जाना पड़
जाए। यानी एक फार्मूलाबद्ध कहानी। तर्क के अभाव में भी लेखकीय मंशाएं ऐसी कहानियों
की ताकत तो होती है लेकिन यही इनकी कमजोरी भी है। ऐसी कहानियां, जिनकी प्रकृति
थोड़ा भिन्न किस्म की है, उनके बारे में आलेचना की खामोशी के कारणों को तलाशा
जाए तो दिखाई देगा कि हिंदी में गंवई आधुनिकता के बने रहने देने में आलोचना की
भूमिका महत्वपूर्ण रही है। क्योंकि उसने उन्हीं कहानियों पर बात करने में सहजता
महसूस की है जिनमें कथानकों के घटनाक्रम या तो एक रैखीय रहे या जिनमें स्पष्ट
रूप से दिखाई देते किसी एक रैखीय घटनाक्रम को ही प्रमुख मान लिया गया। वे कहानियां
जो अपने पाठ में बहुस्तरीय हुई, उन्हें कथारस की अनुपस्थिति का हवाला देते हुए
मुक्कमिल कहानी मानने से ही परहेज किया गया। किसी रचना और रचनाकार का इकहरा पाठ
करती ऐसी आलोचना में ही निहित गंवई आधुनिकता ने हिंदी कहानी को काफी हद तक
प्रभावित किया है। ध्यान रहे इस आलेख के लेखक की निगाह में, गंवई आधुनिक कहानियों
की सबसे प्रबल प्रवृत्ति संवेदना का जागरण है- वे कहानियां जिनके कथानक विभिन्न
पड़ावों से गुजरते हुए, सामाजिक अंतरद्वंद्व के सहारे आगे तो बढ़ते हैं, लेकिन संवेदना
के जागरण पर विश्राम पा जाते हैं।
मेरा मानना है कि
कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों पर बात करना आसान है भी नहीं। क्योंकि समकालीन
यथार्थ वहां बेहद गझिन है, इस कदर गझिन कि जिसको समूचित रूप से पकड़ना मुश्किल है-
किसी एक घटना को केन्द्र बनाकर लिखी गई कहानी में तो संभव ही नहीं। फिर यथार्थ की
जटिलता को रेशे दर रेशे पकड़ने के लिए उस वक्त तक इधर के दौर में लिखी गई लम्बी
कहानियों का विन्यास भी प्रचलन में नहीं हो जब। मोहन थलियाल की कहानियों के पाठ
इस बात को पुख्ता करते हैं कि वस्तुगत यथार्थ एक रैखीय नहीं होता। जटिल
स्थितियों में उलझे उसके तारों को बहुत मेहनत से और सधे हुए हाथों से खोलने की
जरूरत है। वरना सफलता की सीढि़यों पर विराजमान हो चुके व्यक्ति के काले कारनामों
को पहचानना मुश्किल हो जाए। सिर्फ जय जय कार में खुद भी हाथ उठायी भीड़ का हिस्सा
हो जाने वाले कितने ही असंतुष्ट आपको अपने आस पास नजर आ सकते हैं। उनकी कहानी
'चालाक लोमडि़यों के बिना' का यह पाठ ही सर्वथा उपयुक्त पाठ है।
मोहन थपलियाल का
कौशल चमत्कृत करता है कि वे प्रचलित प्रारूप के भीतर ही उसे पकड़ने का प्रयास
करते हैं। उनकी एक अन्य कहानी ‘छद्म’, सामाजिक राजनैतिक वातावरण और उसके साथ उभार
ले रहे सांस्कृतिक वातावरण का जिस तरह से बयां करती है उसमें न सिर्फ पीढि़यों के
अन्तरविरोध पर पाठक का ध्यान खुद ब खुद जाता है अपितु निरर्थक और फालतू किस्म
की चीजों के बारे में दिलचस्पी पैदा करते इश्तहारी वातावरण की चालाकियां उघड़ने
लगती हैं। दिखावटी चीजों से बुने जाने वाली नेहरूवियन सांस्कृतिकता का छद्म पूरी
कहानी में बहुत बारीक विवरणों के साथ उभरता रहता है। बेरोजगारी की भीड़ को झूठी
दिलासा देते एवं निरर्थक साक्षात्कार की पोल पट्टी खोलती यह एक राजनैतिक कहानी
है। दिलचस्प है कि सीधे तौर पर राजनैतिक स्थितियों का जिक्र कहानी में कहीं नहीं
किया गया है। हिंदी की यदि ऐसी कहानियों को चुना जाए जो अभी तक आलोचना के सामने
चुनौति खड़ी करती है तो ‘छद्म’ उनमें बेहद महत्वपूर्ण कहानी की तरह ही दिखाई
देगी। इस आलेख की सीमा है कि यहां मोहन थलियाल की कहानियों की प्रवृत्तियों पर बात
करन के लिए उनकी अन्य कहानियों को भी आधार बनाया जा रहा है। इसलिए ‘छद्म’ के पाठ
के संबंध में सिर्फ यह इशारा भर छोड़ दिया जा रहा है कि बिना वाचाल हुए राजनैतिक
पक्ष को संभाले रहने वाली कहानियां हिंदी आलोचना की निगाह से बाहर बनी रही हैं। एक अन्य कहानी है, ‘’जकड़न’’, लम्बी कविता के से
अंदाज में लिखी गई यह ऐसी कहानी है जिसमें यूं तो कोई घटना साक्षात नहीं है लेकिन
पाएंगे कि घटना वहां ऐसा फल है जो गुच्छों में लगा होता है। चाहकर भी चाहत का
सिर्फ एक ही दाना जिससे अलग करना मुश्किल होता है। अनचाहा भी टूट कर गिरने को
उतावला रहता है। गहन काव्य संवेदना से रची गई यह अदभुत कहानी है। आपाधापी और हुल्लड़
मचाकर दौड़ते समय में भी यह कहानी गहुत धैर्य से किए जाने वाले पाठ की आस जगाती
है। 1979 में लिखी गई कहानी ‘’खाका’’ इस बात का अदभुत साक्ष्य
है।
1857 के सिपाही
विद्रोह को भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में माना जाए या नहीं, यह
बहस का विषय हो सकता है। इतिहास की भिन्न–भिन्न व्याख्याओं की संगति रचनात्मक
साहित्य में भी अवधारणा विशेष पर यकीन करते रचनाकारों की दृष्टि से भिन्न नहीं
रही है। लेकिन मोहन थपलियाल की कहानी ‘’युद्ध और प्रेम’’ में वह सिपाही विद्रोह कुछ भिन्न तरह से प्रकट
होता है और राजनैतिक रूप से ज्यादा जरूरी पक्ष की पुष्टि करता है। यह तथ्य उल्लेखनीय
है कि कहानी में 1857 के सिपाही विद्रोह का वाकया 5 अगस्त 1993 को याद किया जा
रहा है। स्पष्ट सुना जा सकता है कि कहानी में उस घटना को अंग्रेजो के खिलाफ
हिंदू-मस्लिम बागियों की पहली भीषण घटना की तरह याद किया जा रहा है। याद करने वाले
दो करीबी मित्र हैं- सौमित्र और शाहीन। अपने करीबी मित्र के साथ शाहीन उस खण्डहर
में गई है जहां कभी युद्ध हुआ था। 1857 का खूनी गदर। 1992 के विध्वंस का घटनाक्रम
गुजर चुका है और भाईचारे से गुंथा सामाजिक ताना-बाना एक हद तक जख्मी किया जा चुका
है। शाहीन के छोटे भाई अकबर की टांग में लचक आ गई है। जाने कोई छर्रा उसकी टांग को
बेध गया है। मां-बाप के पास घायल बेटे की टांग का इलाज कराने के लिए पैसे नहीं
हैं।
सौमित्र बताता
है, उसी खण्डहर में, जो कभी रेजीडेंसी हुआ करता था, 86 दिनों तक बागियों का कब्जा
रहा। वे तोप के गोलों की बौछार करते रहे। इमारतों के भीतर रूदन गूंजता था और बाहर
आकाश में तोप के गोलों का अट्टाहास। बागी पूरी तरह से हावी थे। 86 दिनों तक
रेजीडेंसी के सुरक्षा कवच का एक-एक तार उन्होंने ढीला कर दिया था। रेजीडेंसी में
मौत ही मौत थी। गिरते-पड़ते, कटते शरीर थे और था खून ही खून। रेजीडेंसी में रहने
वाले दो हजार नौ सौ चौरानबे लोगों की नींद बागियों ने हराम कर दी। उनकी संख्या
घटकर सिर्फ नौ सौ नवासी रह गई थी। बाद में अंग्रेजो का एक कमांडर रेजीडेंसी को
मुक्त करवा पाने में सफल हुआ था। लेकिन जीतने के बाद भी रेजीडेंसी के निवासी पस्त
थे। उनमें जान फूंकने के लिए लार्ड टेनीसन ने कविता लिखी थी। खण्डहर के, एक कमरे
में ही पहली जुलाई 1857 को 19 साल की युवा सूसाना पामेर तोप का गोला फटने से मर गई
थी। सूसाना लार्ड टेनीसन की बेटी थी। एक तरफ घायल भाई की चिंता और दूसरी ओर सूसाना
के मौत की दर्दनाक सूचना शाहीन को जिस तरह से नितांत अपने भीतर ले जाती है, वहां
जीत और हार, शत्रु और मित्र जैसे सभी सवाल बेमानी हो जा रहे हैं। सिर्फ युद्ध और
उसकी छाया में फैलती जा रही उदासी पाठक को बेचैन करती है। आश्वस्ति की स्थिति फिर
भी बनी रहती है, क्योंकि उस खामोश उदासी का प्रतिकार दोनों मित्र कुछ इस तरह से
करते हैं कि मनुष्य और मनुष्य के बीच विभेद करने वाली लक्षित होने लगती है। खण्डहर
के बाहर की दीवार पर जहां टेनीसन की कविता टंगी थी, उसी के ठीक नीचे कुछ फासले पर
दोनों करीबी मित्र मेंसिल से अपने दस्तखत बनाकर ‘प्लस’ के निशान से उसे जोड़
देते हैं और दर्ज करते है 5 अगस्त 1993 जो 6 दिसंबर 1992 के बाद की तिथी को
चुनौति देती हुई है।
मोहन थपलियाल के लेखन की शुरूआती कहानियों में जो आंच है, देखेंगे कि कविता और कहानी का भेद वहां मिटता हुआ है। लेखकीय संवेदनाएं भाषा और शिल्प को वहां मारक बनाये हैं। विधाओं के विभेद को दरकिनार करती ये कहानियां एक कहानीकार के भीतर मौजूद रचनात्मक स्रोत तक पहुंचने को मजबूर करती हैं। इन कहानियों के पाठ इस बात को भी यहां संदिग्ध बना दिया जा रहा है कि रचनाकार की कलात्मक भूख ही उसे कुछ रचने को मजबूर करती होगी। उदासी भी कोहराम मचाने वाली होती है। सामाजिक, आर्थिक विभाजन का वाचाल संगीत विसंगति की ऐसी ही दीवार खड़ी करता है। मोहन थपलियाल की कहानियां उस दीवार पर की गई लिपाई-पुताई के बीच खप गए चूने की तरह हैं। यात्रा विवरण का सा आनंद देता उनका विन्यास जिस जगह विश्राम पाता है, वहां तक पहुंचा पाठक, जो उछलते-कूदते हुए कथा विस्तार के साथ आगे बढ़ता जा रहा था, खुद को गहरी उदासी में डूबा हुआ पाने लगता है। ‘मछकुंड’ को देखने की उत्सुकता से भरा- पिरमू ऊर्फ पम पम बैंड मास्टर की दुल्हन तमाली के छोटे भाई की तरह। तमाली जिस तरह अपने छोटे भाई को मछकुंड के बारे में सही-सही और ठीक-ठीक कुछ भी नहीं बताना चाहती, कथाकार भी कुछ-कुछ उसी तरह पेश आता है। उसका कारण भी स्पष्ट है कि मछकुंड की गहराई में जाने कितने दुख छुपे पड़े हैं। किसी सुखद अंत के झूठ को रखने की बजाय दुख और उदासी के वातवरण को अभिव्यकत करने की यह निराली तकनीक कथाकार मोहन थपलियाल की कहानियों को विशिष्ट बनाती है। पाठक को खुद से अनुभव करने का मौका देती है कि मछकुंड के रहस्य को जान सके। मछकुंड के उस गहरे नीलेपन वाली गहराई में जब-तब जान गंवा चुकी किसी स्त्री के शव को बाहर निकाल लेने वाली व्यवस्था के उस कुचक्र को समझ सकें जो मुसीबतों की मार झेलते आत्मीयों को ही प्रताडि़त करना चाहती है।
2 comments:
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