जब झूठ की कोई भी बात लिख देना सोशल मीडिया में हलचल मचा देने वाला हो रहा हो, ऐसे में इतिहास की उस धारा को सामने लेकर आना, दुनिया को खुशहाल बनाने के लिए जिसकी बेचैनी बेशक कभी संदेह के दायरे में न रही हो लेकिन शासन-प्रशासन एवं अधिकारिक संस्थायें जिसका जिक्र करने तक से कन्नी काटती हो, जब उस इतिहास को सामने लाने का उद्यम सामने दिखे तो उसका उल्लेख होना ही चाहिए। इतिहास की ऐसी घटना का जिक्र करने वाली संस्था बेशक क्षेत्रिय अस्मिता को संतुष्ट करने वाली कोई भी संस्था हो चाहे। वर्तमान का घटनाक्रम ही तो भविष्य में इतिहास है। नाट्य संस्था वातायन के साथ मिलकर गढ़वाल महासभा, देहरादून जब नागेन्द्र सकलानी और मोलाराम भरदारी की शहादत और तिलाड़ी के नर संहार को कौथिग 2022 के विषय के रूप में प्रस्तुत करें तो वह साधारण बात नहीं थी। इतिहास की एक क्रांतिधर्मा घटना को अपने कार्यक्रम का हिस्सा बनाते हुए गढ़वाल महासभा, देहरादून ने निश्चित ही भविष्य के उस सवाल को भी ताक पर रखा होगा कि बडे बजट के ऐसे कौथिग कार्यक्रम का आयोजन करने में मुश्किल आ सकती है। खाता -पीते मध्यवर्गीय पहाडी समाज के सहयोगियों से तो धन फिर भी जुटाया जा सकता है, क्योंकि संस्कृति के प्रति पिलपिले आग्रह में उस मानसिकता में डूबे व्यक्ति की मासूमियत तो डोली नाचे चाहे बिगुल बजे, उसकी अस्मिता को तुष्ट करती ही रहती है, इस बात से उसे खास फर्क नहीं पडता कि घटना का मर्म क्या था, लेकिन राजनीति की धारा से बह कर आते धन का पतनाला जरूर पतला हो सकता है।
गढ़वाल महासभा, देहरादून की स्थापना का इतिहास, रोजी-रोटी की तलाश में गढवाल छोडकर शहरों में आ बसने वाले उन गढवालियों की एकजुटता के साथ शक्ल लेता है, शहरों के छल छद्म से निपटने के लिए जिन्हें उस वक्त सांस्कृतिक और भोगोलिक पहचान के साथ एकजुट होना हौंसला देता था। अपनी स्थापना के दौर में बेशक ऐसा जरूरी रहा हो लेकिन आज जब देहरादून गढ़वाल वासियों की तादाद से भरा है तो उसकी उपस्थिति एकजुटता की सांस्कृतिक आवाज तक सीमित नहीं रह सकती, यह बिल्कुल तय बात है। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ऐसी संस्थाओं की राजनीति '' मुख्यधारा'' की राजनीति के साथ गलबहियां करने में परहेज नहीं करती। बल्कि, बहुत बचते-बचाते हुए भी शासन-प्रशासन की मद्द पा जाने की कामना उन्हें ऐसे रास्तों को चुनने का ''नैतिक'' आधार भी दे रही होती है।
बावजूद इसके कौथिग-2022 के समाप्ति वाले दिन (कौथिग 2022 11 से 20 नवम्बर 2022) को कौथिग के मंच पर जो नजारा था, वह उस प्रवृत्ति से भिन्न था और नागेंद्र सकलानी और मोलाराम भरदारी की शहादत की कथा को आधार बनाकर रची गई डॉक्टर सुनील कैंथोला की कृति ''मुखजात्रा'' नाटक का मंचन हुआ। नाटक का निर्देशन राष्ट्रीय नाट्य विद्यायाल से शिक्षित रंगकर्मी सुवर्ण रावत ने किया। वातयान द्वारा आयोजित नाट्यशाला में तैयार किये गये इस नाटक में अभिनय करने वाले सभी कालाकार बधाई के पात्र हैं जिन्होंने न सिर्फ अपनी अभिनय क्षमता बल्कि दफन कर दी जा रही इतिहास गाथाओं को साकार करने के लिए उत्तराखण्ड के एक सीमित क्षेत्र ही सुनायी देने वाली रंवाई भाषा को भी मंच पर उतारने की सफल कोशिश की। मेरी जानकारी में यह पहला ही अवसर होगा जब हिंदी नाटक के मंच पर रंवाई का इतना खूबसूरत प्रयोग किया गया हो। कलाकार जिस वक्त अपने अपने तरह से सुरीली रंवाई बोल रहे थे, बेशक उसको हूबहू अर्थों में समझना इतना आसान नहीं था, लेकिन तिलाड़ी नरसंहार की वह घटना, जिसे रंवाई का ढंडक के नाम से जाना गया ; टिहरी राजशाही के अमानवीय फरमानों की मुखालफत से उपजा विद्रोह, सुंदर ढंग से बयां हो रही थी। मेले-ठेले के बीच इतिहास की बात करना, वह भी इस गंभीरता से, कोई सामान्य बात नहीं। न सिर्फ भाषाई उपस्थिति के लिए, बल्कि चाट पकोडों के स्वाद के लिए मेले में पहुंंचे खाते पीते मध्यवर्ग और मस्ती के लिए एक स्टाल से दूसरे स्टाल पर पहुंचते युवाओं से संवाद का माहौल बना देना कोई सरल बात नहीं, निर्देशक सुवर्ण रावत की कल्पना और उसका मंचीय प्रयोग एक यादगार क्षण है।
1947 में भारत तो आजाद हुआ लेकिन टिहरी की जनता को तो राजशाही के शिकंजे से आजादी उस वक्त भी नहीं मिली। प्रजामंडल का आंदोलन, कम्युनिस्टों का आंदोलन टिहरी की जनता की उस आजादी का ही आंदोलन था जिसने राजशाही के उस क्रूर चेहरे को एक बार फिर सामने रख दिया जो 1930 में तिलाडी के ढंडकियों के नरसंंहार से गंदलाये अपने चेहरे के साथ था। 84 दिन जेल में रखने के बाद श्री देव सुमन की हत्या कर दी जाती है और हत्या का बदला लेने की इच्छाएं रखते हुए टिहरी राजसत्ता का खात्मा कर उसे भारत में विलय कर देने की आकांक्षा के साथ नागेंद्र सकलानी के नेतृत्व में जब टिहरी का जनसैलाब फिर से ढंडक रूप धरने लगता है तो हत्यारी सत्ता नागेंद्र सकलानी और माेलूू भरदारी की हत्या कर देने से नहीं चूकती। लेकिन अपने नेताओं की शहादत की मुखजात्रा के साथ परचम लहराती जनता को रोकना उसके लिए संभव नहीं रहता और टिहरी पर तिरंगा फहरने लगता है। यह ऐसा मंचन था जो मेले की रोल-धौल के बीच भी अपनी बात कहने में सक्षम था।
इसी नाटक का एक दूसरा पाठ 26 एवं 27 नवंबर देहरादून नगर निगम के टाउन हॉल में हुए प्रदर्शित हुआ। इसे दूसरा पाठ कहने के पीछे आशय स्पष्ट है; कौथिग में प्रदर्शित नाटक यहां अपने संपादित रूप में था। संपादित रूप नाट्य संस्था वातायन उसकी अहम भूमिका की बानगी बन रहा था जिससे डॉक्टर सुनील कैंथोला की कृति ''मुखजात्रा'' मंचित होने वाले हिंदी नाटकों की सूचि का विस्तार कर रही थी। यही कारण है कि कोथिग में हुए मंचन
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