Sunday, June 16, 2024

यह कागज की कतरनों का खेल है

यूं तो अरविंद शर्मा की पहचान एक फोटोग्राफर की ही रही। साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियां ही नहीं, रैली, जूलूस, धरने प्रदर्शन के फोटो खींचना ही उसका शौक भी रहा और रोजगार भी। उसके द्वारा खींची गई फोटो की खूबी रही कि फोटो में दिखाई दे रहे चेहरे को पहचानने के लिए आपको आंखों में जोर नहीं डालना पड़ेगा। चाहे तस्वीर किसी भीड़ की ही हो। अरविंद को भीड़ के बीच भी जिस किसी की तस्वीर खींचनी होती रही, उसे खींचने में शायद ही कभी चूका हो। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौर में इसीलिए जब वह अपना कैमरा कंधे पर लिये दिख जाता था तो पिछले दिन की तस्वीरों में अपना चेहरा छांट लेने वालों की भीड़ उसे थैला खोलकर तस्वीरें उनके हवाले कर देने के लिए मजबूर कर देती थी। अरविंद जानता था कि जिसे अपनी तस्वीर दिख जाएगी, ले ही लेगा। पैसे भी मिल ही जाएंगे। लेकिन कई बार ऐसा भी होता था कि तस्वीर वाले ने अपने से सम्बंधित तस्वीर तो रख ली लेकिन पैसे नहीं दिये। अरविंद के लिए लेकिन इस बात के कोई मायने नहीं रहे। वह तो उस वक्त भी फोटो खींचने में ही लगा रहता था। यानि नफे नुकसान की चिंता किये बगैर ही वह अपने काम में मशगूल रहता था। यह जानना दिल्चस्प है कि अरविंद को कैमरे के आईपीस में आंख धंसाकर फोटो लेने में असुविधा होती थी। क्योंकि उस तरह से ओबजेक्ट को फोकस करने में उसकी आंखें साथ नहीं दे पाती। उसका हुनर तो इसी बात का रहा कि दूरी का सही सही अंदाजा लगा वह कैमरे को सिर से भी ऊपर उठाकर एक दुरुस्त फोटो खींच लेता रहा।

अब कैमरा तो छोड़ दिया अरविंद भाई ने लेकिन भीतर बसी मानवीय आकृतियों को उकेरने के लिये कोलाज बनाये हैं। आप चाहें तो इन कोलाजों को फ्रेम करके अपने घर में लगा सकते हैं। अरविंद भाई को फोन करें, वे आपको कोलाज की डिजीटल कॉपी भेज देंगे। अरविंद भाई को मालूम है, पैसे मिल ही जाएंगे। न भी मिलें तो वे कोलाज बनाना बंद करने से तो रहे।         

यह कागज की कतरनों का खेल है, आप इन्हें पेंटिग भी मान सकते हैं। 






 

1 comment:

Onkar said...

बहुत सुंदर