अरविंद शेखर युवा हैं। एक प्रतिबद्ध पत्रकार हैं। नेपाल में जिन दिनों जनता का एक निर्णायक संघर्ष जारी था, उस दौरान अरविन्द ने नेपाल की स्थिति पर पैनी निगाह रखते हुए कुछ महत्वपूर्ण आलेख लिखे। उसी दौरान अरविन्द को उमेश डोभाल स्म्रति सम्मान से भी सम्मानित किया गया। वर्तमान में अरविंद शेखर दैनिक जागरण, देहरादून मे काम कर रहे हैं। भाषा के सवाल पर उनकी यह रिपोर्ट पिछले दिनों दैनिक जागरण में प्रकाशित हुई थी। यहां प्रस्तुत करने का खास कारण यह है कि भाषा को लेकर ऎसी ही चिन्ता इससे पूर्व हमारे वरिष्ट साथी यादवेन्द्र जी रख चुके है। अरविन्द ने हमारे बिल्कुल आस पास उन स्थितियों को पकडते हुए अपनी चिन्ताओं को रखा है।
गढ़वाली, कुमाऊंनी और रोंगपो समेत उत्तराखंड की दस बोलियां भी खतरे में है। इनमें से दो बोलियां तोल्चा व रंग्कस तो विलुप्त भी हो चुकी हैं। यूनेस्को ने अपने एटलस आफ दि वल्र्ड्स लैंग्यूएजेज इन डेंजर में सूबे की इन भाषाओं को शामिल किया है। यूनाइटेड नेशंस एजुकेशनल, साइंटिफक एंड कल्चरल ऑर्गेनाइजेशन (यूनेस्को)के एटलस के मुताबिक उत्तराखंड की पिथौरागढ़ जिले में बोली जाने वाली रंग्कस और तोल्चा बोलियां विलुप्त हो चुकी हैं। इसके अलावा उत्तरकाशी के बंगाण क्षेत्र की बंगाणी बोली को लगभग 12000 लोग बोलते हैं। यह भी विलुप्ति के कगार पर है। पिथौरागढ़ की ही दारमा और ब्यांसी, उत्तरकाशी की जाड और देहरादून की जौनसारी बोलियों पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। एटलस के मुताबिक दारमा बोली को 1761 लोग, ब्यांसी को 1734 , जाड को 2000 और जौनसारी को अनुमानत: 114,733 लोग ही बोलते समझते हैं। एटलस के मुताबिक गढ़वाली, कुमाऊंनी और रोंगपो बोलियां पर भी खतरा मंडरा रहा है। इन्हें असुरक्षित वर्ग में रखा गया है। यूनेस्को के मुताबिक अनुमानत: दुनिया में 279500 लोग गढ़वाली, 2003783 लोग कुमाऊंनी और 8000 लोग रोंगपो बोली के क्षेत्र में रहते हैं मगर इसका मतलब यह नहींकि इन क्षेत्रों में रहने वाले सभी लोग ये बोलियां जानते ही हों। मालूम हो कि 30 भाषाविदों के अध्ययन पर आधारित यह भाषा एटलस शुक्रवार को जारी हुआ है। यूनेस्को के मुताबिक विश्व में 200 भाषाएं पिछली तीन पीढि़यों के साथ विलुप्त हो गईं। दुनिया में 199 भाषा-बोलियां ऐसी हैं जिन्हें महज 10-10 लोग ही बोलते हैं। 178 को 10 से 50 लोग ही बोलते समझते हैं। राजी बोली पर देश में पहली पीएचडी करने वाले भाषाविद डॉ. शोभाराम शर्मा का कहना है हालंाकि यूनेस्को ने पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों की राजी जनजाति की बोली को एटलस मे शामिल नहीं किया है मगर यह भाषा भी विलुप्ति की कगार पर है। 2001 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड में राजी या वनरावत जनजाति के महज 517 लोग ही बचे हैं। डॉ. शर्मा के मुताबिक उत्तराखंड की बोलियां उन पर हिंदी-अंग्रेजी के वर्चस्व, असंतुलित विकास पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन, विकास परियोजनाओं की वजह से विस्थापन व बढ़ते शहरीकरण की मार झेल रही हैं। मानव विज्ञान सर्वेक्षण के अधीक्षक डॉ.एसएनएच रिजवी के मुताबिक खतरे में पड़ी इन भाषा बोलियों का संरक्षण बहुत जरूरी है अन्यथा मानव समाज अपनी बहुमूल्य विरासत को खो देगा।