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Saturday, March 16, 2013
Thursday, March 14, 2013
Monday, January 28, 2013
हमन है इश्क़ मस्ताना
(नया ज्ञानोदय का
ग़ज़ल महाविशेषांक इस लोकप्रिय विधा के इतिहास की झलक दिखाने में कामयाब रहा है. यहां प्रस्तुत है
इस विशेषांक में प्रकाशित कबीर की रचना)
हमन है इश्क़ मस्ताना हमन को होशियारी क्या?
रहें आज़ाद या जग से हमन दुनिया से यारी क्या?
जो बिछुड़े हैं पियारे से भटाकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम मेम हमन को इन्तज़ारी क्या?
ख़लक सब नाम अपने को बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम सांचा है हमन दुनिया से यारी क्या?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछुड़े पियारे से
उन्हीं से नेह लागी है हमन को बेकरारी क्या?
कबीरा इश्क़ का माता,दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है
हमन सिर बोझ भारी क्या?
Friday, November 9, 2012
मुझेसे मेरी आज़ादी छीन ली गयी है
48
वर्षीय नसरीन सतूदेह इरान की बेहद लोकप्रिय मानव अधिकार वकील और
कार्यकर्ता हैं जो अपने कट्टर पंथी शासन विरोधी विचारों के लिए सरकार की
आंख की किरकिरी बनी हुई हैं.अपने छात्र जीवन में खूब अच्छे नंबरों से पास
होने के बाद उन्होंने कानून की पढाई की पर वकालत करने के लाइसेंस के लिए
उन्हें आठ साल का लम्बा इंतजार करना पड़ा.उन्होंने सरकारी महकमों और बैंक
में भी नौकरी की पर इरान के पुरुष वर्चस्व वाले समाज में आततायी पिताओं के
सताए हुए बच्चों और शासन के बर्बर कोप का भाजन बने राजनैतिक कार्यकर्ताओं
के लिए क़ानूनी सहायता प्रदान करने के कारण उन्हें दुनिया भर में खूब सम्मान
मिला.पिछले राष्ट्रपति चुनाव की कथित धांधलियों में उन्होंने खुल कर
विरोधी पक्ष का साथ दिया...नतीजा सितम्बर 2010 में उनकी गिरफ़्तारी और अंततः
जनवरी 2011 में ग्यारह साल की एकाकी जेल की सजा... कैद की सजा के साथ साथ
उनके अगले बीस सालों तक वकालत करने पर भी पाबन्दी लगा दी गयी जो बाद में
अपील करने पर छह साल (कैद) और दस साल (वकालत से मनाही) कर दी गयी। जेल में
रहते हुए उन्हें अपने परिवार से भी नहीं मिलने दिया जाता इसलिए कई बार
उन्होंने विरोध स्वरुप अन्न जल ग्रहण करने से इंकार कर दिया...इन दिनों भी
वे अन्य कैदियों की तरह खुले में परिवार से मिलने के हक़ के लिए भूख हड़ताल
पर हैं और उनकी सेहत निरंतर बिगडती जा रही है.दुनिया में मानव अधिकारों के
लिए आवाज उठाने वाले अनेक लोगों और संगठनों ने उनकी रिहाई की माँग की
है.जेल की अपनी एकाकी कोठरी से उन्होंने अपने बेटे के लिए जो चिट्ठी
लिखी,उसका अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है:
मई 2011 में एविन जेल में 9 महीने तक बंद रहने के बाद नसरीन सोतुदेह ने
अपने तीन साल के बेटे नीमा को यह मार्मिक ख़त लिखा। प्रसुत है नीमा का लिखा खत-
प्रस्तुति एवं अनुवाद: यादवेन्द्र
तुम्हें ख़त लिखना ...मेरे प्यारे...बेहद मुश्किल काम है...मैं तुम्हें
कैसे बताऊँ कि मैं कहाँ हूँ, इतने छोटे और नादान हो तुम कि कैद, गिरफ़्तारी,
सजा, मुकदमा, सेंसरशिप, अन्याय, दमन , आज़ादी, मुक्ति , न्याय और बराबरी
जैसे शब्दों के मायने कैसे समझ पाओगे.
मैं इसका भरोसा खुद को कैसे दिलाऊं कि जो मैं तुम्हें बताउंगी उसको
तुम्हारे स्तर पर जा कर सही ढंग से तुम तक पहुंचा और समझा भी पाऊँगी...
बड़ी बात है कि मैं आज के सन्दर्भ में बात कर रही हूँ...आगे आने वाले सालों
के बारे में कल्पना नहीं कर रही हूँ.मैं कैसे तुम्हें समझाऊं मेरे प्यारे
कि अभी घर लौट कर आ जाना मेरे लिए मुमकिन नहीं..मुझेसे मेरी यह आज़ादी छीन
ली गयी है. मुझतक यह खबर पहुंची है कि तुमने अब्बा से कहा है कि अम्मी से
अपना काम जल्दी ख़तम करने और घर लौट आने को कह दो...मैं कैसे तुम्हें
समझाऊं मेरे बच्चे कि दुनिया का कोई भी काम इतना जरुरी नहीं है कि मुझे
इतने लम्बे अरसे तक तुमसे जुदा रख सके...किसी का मेरे ऊपर ऐसा इख्तियार
नहीं है कि मुझे मेरे बच्चों के हकों से बेफिक्र कर दे.मैं कैसे तुम्हें
समझाऊं कि पिछले छह महीनों के दौरान मुझे सब मिला कर एक घंटा भी तुमसे
मुलाकात का नहीं दिया गया.
अब मैं तुमसे क्या कहूँ मेरे बेटे? पिछले हफ्ते की ही तो बात है जब तुमने
मुझसे पूछा था: आज शाम का अपने काम निबटा के हमारे पास घर आ रही हो ना
अम्मी?इसका जवाब मुझे मज़बूरी में जेल के गार्डों के सामने ही देना पड़ा था:
बच्चे, मेरा काम थोड़ा और बाकी है, जैसे ही ख़तम होगा मैं फ़ौरन घर आ
जाउंगी. मुझे लगा था जैसे तुम सारी असलियत समझ गये हो और फिर महसूस हुआ
जैसे तुमने मेरा हाथ प्यार से थामा और मुँह तक लाकर अपने नन्हें नन्हें
होंठों से उसको चूम लिया हो.
मेरे प्यारे नीमा, पिछले छह महीनों में सिर्फ दो मौके ऐसे आये जब मैं पूरी
कोशिश के बाद भी अपनी रुलाई नहीं रोक पाई...पहली बार जब मेरे अब्बा का
इन्तिकाल होने की खबर मुझे मिली थी पर मुझे उनके लिए अफ़सोस करने का और उनके
जनाजे में शामिल होने की इजाज़त की अर्जी ठुकरा दी गयी थी....दूसरा वाकया
उस दिन का है जब तुमने मुझे अपने साथ साथ घर चलने की गुजारिश की थी और मैं
उसको पूरा कर पाने से लाचार थी...तुम्हारे उदास होकर चले जाने के बाद मैं
जेल की अपनी कोठरी में वापिस आ गयी...उसके बाद मेरा खुद पर से सारा
नियंत्रण ख़तम हो गया.... बहुत देर तक मेरी सिसकियाँ रुक ही नहीं पा रही
थीं.
मेरे सबसे प्यारे नीमा, बच्चों के मामले में एक के बाद एक अनेक फैसलों में
कोर्टों ने कहा है कि तीन साल के बच्चों को पूरे पूरे दिन ( चौबीस
घंटे)सिर्फ उनके पिताओं के साथ नहीं छोड़ा जा सकता..बार बार कोर्टों ने यह
बात इसलिए दुहराने की दरकार समझी है क्योंकि उनको लगता है कि छोटे बच्चों
को उनकी माँ से पूरे पूरे दिन के लिए दूर रखना बच्चों की मानसिक सेहत के
लिए वाजिब नहीं होगा.
विडम्बना है कि वही कोर्ट आज एक तीन साल के बच्चे के कुदरती हक़ की परवाह
नहीं करती...बहाना यह है कि उसकी माँ देश की सुरक्षा के खिलाफ काम करने की
कोशिश कर रही है.
मुझे मेरे बेटे तुम्हें यह सफाई देने की जरुरत नहीं समझ आती...मुझे यह
लिखते हुए बेहद पीड़ा भी हो रही है कि मैंने किसी भी सूरत में "उनकी
"राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ जा कर कोई भी काम कभी नहीं किया...हाँ, एक
वकील होने के नाते मेरे सामने हरदम सबसे बड़ा लक्ष्य यही रहा कि अपने
मुवक्किलों की कानून में दिए हुए प्रावधानों के मुताबिक हिफाजत करूँ.मुझे
तुम्हें उदाहरण देकर समझाने की दरकार नहीं जिस इंटरव्यू को मुझे यातना देने
के लिए आधार बनाया जा रहा है वो आम जनता के लिए पूरा का पूरा उपलब्ध
है...कोई भी उसको पढ़ सकता है....वकील की भूमिका में मैंने कुछ फैसलों की
आलोचना जरुर की है पर मेरा वकील होना मुझे इसकी इजाज़त देता है.इसी को आधार
बना कर अब मुझे ग्यारह साल तक बेड़ियों में जकड़ कर रखने का फ़रमान सुनाया
गया है.
मेरे प्यारे बेटे...पहली बात, मैं चाहती हूँ कि तुम्हारे मन में यह मुगालता
बिलकुल नहीं रहना चाहिए कि देश में पहला इंसान मैं ही हूँ जिसको इतनी कठिन
और बेबुनियाद सजा दी गयी हो...और न ही मुझे इसका कोई औचित्यपूर्ण आधार
दिखाई दे रहा है कि तुमसे कहूँ कि मेरे बाद कोई इस ज्यादती का शिकार नहीं
होगा.
दूसरी बात, मुझे यह देख जान का ख़ुशी हो रही है...ख़ुशी न भी कहो तो इसको
संतोष और शांति कहा जा सकता है कि मुझे उसी जगह कैद किया गया है जिस जगह
मेरे बहुत सारे मुवक्किल रखे गये हैं...इनमें से तो कई वो लोग हैं जिनका
मुकदमा मैं जीत के अंजाम तक पहुँचाने में नाकाम रही...आज वो सब भी इस देश
की अन्यायपूर्ण क़ानूनी व्यवस्था के कारण इसी जेल में बंद हैं.
तीसरी बात, मेरी ख्वाहिश कि तुमको जरुर पता चलनी चाहिए कि बतौर एक स्त्री
मुझे दी गयी कठिन सजा का मुझे गुमान है...मुझे इसका भी नाज है कि इन सबकी
परवाह न करते हुए मैंने पिछले चुनावों की गड़बड़ियों का विरोध करने वाले
अनेक कार्यकर्ताओं का क़ानूनी बचाव किया.मुझे इस बात की भी ख़ुशी है कि और
चाहे कुछ हो मुझे उनकी तुलना में ज्यादा कड़ी सजा दी गयी है क्योंकि मैंने
उनके वकील की हैसियत से उनका मुक़दमा पूरी निष्ठा से लड़ा था.
इस पूरे मामले में यह तो पूरी तरह से साबित हो गया कि औरतों की निरंतर चल
रही लड़ाई आखिर में रंग लायी...आप आज की तारीख में इसका समर्थन करें या
विरोध करें, एक बात तय है कि औरतों को अब नजर अंदाज करना मुमकिन नहीं रहा.
मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि तुमसे किस ढंग से कहूँ मेरे प्यारे नीमा...तुम
मुझे सजा देने वाले जज के लिए भी खुदा से दुआ माँगना...उनके लिए भी
जिन्होंने मुझसे लम्बी लम्बी जिरह की...और इस पूरी न्यायपालिका के लिए भी.
मेरे बेटे खुदा से उनके लिए इबादत करो कि उनके दिलों के अंदर भी शांति और
न्याय का बास हो जिस से उन्हें जीवन में कोई न कोई दिन ऐसा जरुर नसीब हो जब
दुनिया के अनेक अन्य देशों के लोगों की तरह वे चैन का जीवन बसर कर सकें.
मेरे सबसे प्यारे बच्चे, ऐसे मामलों में यह बहुत मायने नहीं रखता कि जीत
किसकी हुई...क्योंकि फैसले का पक्ष या विपक्ष के लिए की गयी कोशिशों और
दलीलों के साथ कोई अर्थपूर्ण ताल्लुक नहीं होता...और इस से भी कि मेरे
वकीलों ने मुझे बचाने की कोशिशों में कोई कोताही तो नहीं बरती..दरअसल असल
मुद्दा यहाँ तो ये है कि अजीबोगरीब खयालातों को आधार बना कर निर्दोष लोगों
को परेशान जलील और नेस्तनाबूद किया जा रहा है.मुझे फिर से यहाँ यह दुहराने
की जरुरत नहीं मेरे प्यारे कि आदिम समय से चलते आ रहे जीवन के इस खेल में
उन्ही लोगों को अंतिम तौर पर जीत हासिल होगी जिनका दमन पाक साफ़ है...जो
वाकई निर्दोष हैं ... इसी लिए मेरे प्यारे नीमा तुमसे मेरी यही गुजारिश है
कि जब खुदा से दुआ माँगना तो बाल सुलभ मासूमियत को बरकरार रखते हुए सिर्फ
राजनैतिक कैदियों की रिहाई की दुआ मत माँगना...खुदा से उन सबकी आजादी की
दुआ मांगना मेरे बेटे जो निर्दोष और मासूम लोग हैं.
बेहतर दिनों की आस में...
नसरीन सोतुदेह
Sunday, November 4, 2012
फिल्मकार की दुनिया वास्तविकता और स्वप्नों के बीच के अंतर संबंधों से निर्मित होती है
फिल्मकार की दुनिया वास्तविकता और स्वप्नों के बीच के अंतर संबंधों से
निर्मित होती है.यह आस पास बिखरी सच्चाइयों को फिल्म निर्माण के लिए
प्रेरणा के तौर पर ग्रहण करता है, फिर अपनी कल्पना शक्ति से इनमें रंग भरता
है और उम्मीदों और स्वप्नों को अच्छी तरह से मिला कर फिल्म को जन्म देता
है.
सच्चाई ये है कि मुझे पिछले पाँच सालों से फिल्म निर्माण से वंचित रखा गया
है और अब तो आधिकारिक तौर पर आने वाले अगले बीस सालों तक मुझे फिल्मों को
भूल जाने का फ़रमान जारी किया गया है.पर मुझे मालूम है कि अपनी कल्पना में
मैं अपने स्वप्नों को फिल्म की शक्ल देता रहूँगा.सामाजिक रूप में चैतन्य
फिल्मकार होने के नाते मैं अपने आस पास के लोगों के दैनिक जीवन और उनकी
चिंताओं को फिल्म की विधा में चित्रित नहीं कर पाऊंगा पर मैं ऐसे स्वप्नों
को अपने से परे क्यों धकेलूं कि आने वाले बीस सालों में आज के दौर की तमाम
समस्याएं सुलझ जायेंगी और इसके बाद मुझे फिर से फिल्म बनाने का अवसर मिला
तो अपने देश में व्याप्त अमन और तरक्की के बारे में फिल्म बनाऊंगा.
सच्चाई ये है कि उन्होंने मुझे बीस सालों के लिए सोचने और लिखने से मना कर
दिया पर इन बीस सालों में वे मुझे स्वप्न देखने से कैसे रोक सकते हैं--- इन
बीस सालों में ऐसी पाबंदियाँ और धमकियाँ काल के गर्त में समा जायेंगी और
इनकी जगह आज़ादी और मुक्त चिंतन की बयार बहने लगेगी.
उन्होंने मुझे अगले बीस सालों तक दुनिया की ओर नजर उठा कर देखने की मनाही
कर दी.मुझे पूरी उम्मीद है कि जब मैं इसके बाद खुली हवा में साँस लूँगा तो
ऐसी दुनिया में विचरण कर सकूँगा जहाँ भौगोलिक,जातीय और वैचारिक आधार पर कोई
भेदभाव नहीं किया जायेगा और लोगबाग अपने विश्वासों और मान्यताओं को
संरक्षित रखते हुए मिलजुल कर अमन और आज़ादी से जीवन बसर कर रहे होंगे.
उन्होंने मुझे बीस सालों तक चुप रहने की सजा सुनाई है.फिर भी अपने स्वप्नों
में मैं उस समय तक शोर मचाता ही रहूँगा जब तक कि निजी तौर पर एक दूसरे को
और उनके नजरियों को धीरज और सम्मान से सुना नहीं जाता.
अंततः मेरे फैसले की सच्चाई यही है कि मुझे छह साल जेल में बिताने
पड़ेंगे.अगले छह साल तो मैं इस उम्मीद में जियूँगा ही कि मेरे सपने
वास्तविकता के धरातल पर खरे उतरेंगे.मेरे अरमान हैं कि दुनिया के हर कोने
में बसने वाले फिल्कार ऐसी महान फिल्म रचना करेंगे कि जब मैं सजा पूरी होने
के बाद बाहर निकलूं तो मैं उस दुनिया में साँस और प्रेरणा लूँ जिसके बनाने
के स्वप्न उन्होंने अपनी फिल्मों में देखे थे.
अब से लेकर आगामी बीस सालों तक मुझे जुबान न खोलने का फ़रमान सुनाया गया
है...मुझे न देखने का फ़रमान सुनाया गया है...मुझे न सोचने का फ़रमान
सुनाया गया है...फ़िल्में न बनाने का फ़रमान तो सुनाया ही गया है.
बंदिश और मुझे बंदी करने वाले हुक्मरानों की सच्चाई से मेरा सामना हो रहा
है.अपने स्वप्नों को जीवित रखने के संकल्प के साथ मैं आपकी फिल्मों में
इनके फलीभूत होने की कामना करता हूँ--- इनमें वो सब मंजर दिखाई दे जिसको
देखने से मुझे वंचित कर दिया गया है
यूरोपीय संसद द्वारा स्थापित विचारों की आज़ादी के लिए प्रदान किया जाने वाला सखारोव पुरस्कार इसबार ईरान के दो ऐसे जुझारू और दुर्दमनीय लोकतान्त्रिक योद्धाओं को दिया गया है जिन्होंने अपने सामाजिक सरोकारों की रक्षा के लिए देश की बदनाम जेलों में सर्वाधिक अमानवीय यातनाएं सहीं पर टस से मस नहीं हुए।पुरस्कारों की घोषणा करते हुए यूरोपीय संसद के अध्यक्ष मार्टिन शुल्ज ने इनके बारे में कहा कि सरकारी दमन और धमकी के आगे झुकने से इनकार करते हुए इन निर्भीक नायकों ने अपने देश के भविष्य का अपनी किस्मत से ज्यादा ध्यान रखा।अपने कामों से घनघोर निराशा और दमन के वातावरण में भी सकारात्मक आशावाद की ज्योति जलाये रखने वाले ये दोनों नायक हैं: विश्व प्रसिद्द फ़िल्मकार जफ़र पनाही और मानवाधिकार एक्टिविस्ट और वकील नसरीन सोतुदेह। 52 वर्षीय विश्वप्रसिद्ध फ़िल्मकार जफ़र पनाही ईरान में शांतिपूर्ण ढंग से अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए अनुकरणीय संघर्ष करने वाले लोगों की फेहरिस्त में अग्रणी हैं जिन्हें छः साल की कैद (अभी वे अपने घर में नजरबन्द हैं पर उनकी सजा माफ़ नहीं हुई है और कभी भी उनको जेल में डाला जा सकता है) और बीस सालों तक फिल्म निर्माण,निर्देशन,लेखन न करने का फरमान सुनाया गया है साथ ही किसी भी तरह का इंटरव्यू देने और विदेश यात्रा करने से रोक दिया गया है।पिछले दिनों दुनिया के एक बेहद प्रतिष्ठित फिल्म समारोह के जूरी का सदस्य बनने पर उनकी अनुपस्थिति पर एक कुर्सी खाली छोड़ कर उनके प्रति सम्मान प्रकट किया गया था। उनकी सभी फ़िल्में विभिन्न समारोहों में प्रशंसित और पुरस्कृत हुई हैं पर अपने देश में आधिकारिक तौर पर प्रतिबंधित हैं। फिल्म बनाने से बीस सालों तक दूर रहने की सजा सुनाये जाने के बाद जफ़र पनाही की प्रतिक्रिया-
-यादवेन्द्रमानवाधिकार एक्टिविस्ट और वकील नसरीन सोतुदेह के अनुदित खत को अगली पोस्ट में प्रस्तुत किया जायेग।
Friday, October 26, 2012
गाय पर निबंध लिखो
गाय: जीवन में उपेक्षित पर मरने पर महान माँ
यादवेन्द्र
9411100294
राजनैतिक नजरिये से देखें
तो गाय को लेकर अभी प्रकाश सिंह बादल ने मृत गाय की आत्मा की शांति के लिए
विधान सभा में शोक प्रस्ताव रखने और गाय के भव्य स्मारक के निर्माण के लिए
करोड़ों रु.स्वीकृत करने जैसे अप्रत्याशित कारनामे पंजाब में किये तो
दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी ने जन्माष्टमी पर अपने ब्लॉग में कांग्रेस की
सरकार पर गोमांस का निर्यात करने का बहाना बना कर हल्ला बोला.पर गऊ माता का
दिनरात माला जपने वाली भाजपा बादल के निर्णय का स्वागत करने के बदले
चुनावी नफे नुक्सान को देखते हुए कभी हाँ तो कभी ना करने की मुद्रा में आ
गयी पर सबसे हास्यास्पद स्थिति विधान सभा सचिवालय की हो गयी कि इस शोक
प्रस्ताव का लिफाफा किस पते ठिकाने पर पहुँचाया जाये यह किसी को समझ नहीं आ
रहा था.इसी तरह गुजरात में गोहत्या को भाजपा को बड़ा मुद्दा बनाते देख
कांग्रेस ने नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा दस हजार एकड़ से ज्यादा
सुरक्षित गोचर भूमि उद्योगों को कारखाने लगाने को दे डालने का आरोप लगाया
और सत्ता में आने पर उस भूमि को वापस लेने का आश्वासन दिया.इन सबके बीच
केरल के थुम्बा रॉकेट प्रक्षेपण केंद्र के पचास साल पूरे होने पर इसके
प्रथम निदेशक डा.बसंत गौरीकर ने याद दिलाया कि रॉकेट प्रक्षेपण की उनकी
पहली प्रयोगशाला एक गौशाला में बनायी गयी थी.
पर गाय क्या आज के समय में सचमुच इस पाले से उस पाले में
धकेली जाने वाली राजनैतिक गेंद नहीं रह गयी है?देश के अधिकांश भू भाग में
दैनिक जीवन में दूध की बात जब की जाती है तो वह दूध गाय का नहीं बल्कि भैंस
इरान के नए सिनेमा के शिखर पुरुष दरियुश मेहरजुई की युगांतकारी फिल्म द काऊ (1969
) दुनिया की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार की जाने वाली कृति है और आज
के हर बड़े फिल्म समारोह में धूम मचाने वाले इरानी फ़िल्मकार इस फिल्म को
अपनी प्रेरणा का स्रोत मानते हैं.एक गोमांसभक्षी इस्लामी समाज में किसी
निःसंतान व्यक्ति को अपनी गाय को बच्चे जैसा दर्जा देना आसानी से हजम नहीं
होता पर यह इतिहास में दर्ज है कि दुनिया भर में इस्लामी अभ्युदय की पताका
फहराने वाले अयातोल्ला खोमैनी
की यह पसंदीदा फिल्म थी और कहा तो
यहाँ तक जाता है कि यही वो फिल्म थी जिसने कट्टरपंथी इस्लामी क्रांति के
बाद फिल्म संस्कृति को नेस्तनाबूद करने के निर्णय को बदलकर शासन को फिल्मों
के सकारात्मक पक्षों के समाज निर्माण में भूमिका की सम्भावना के प्रति
सहिष्णु बनाया.
का या डेरी का मिश्रित दूध होता है.अब यह अलग बात है कि स्वामी रामदेव जब
जन स्वास्थ्य को सँवारने के नाम पर अपने व्यवसाय की बात करते हैं तो उनमें
गोमूत्र के उत्पादों का नाम तो प्रमुखता से लिया जाता है पर गाय के दूध का
सेवन बढ़ाने की बात कम सुनाई देती है.ओलम्पिक में देश का मान ऊँचा उठाने
वाले पहलवानों सुशील और योगेश्वर का जब दिल्ली के चाँदनी चौक में पारंपरिक
शैली में स्वागत किया गया तो उन्हें रोहतक से 82 हजार रु.प्रति भैंस की
लागत से खरीदी गयी भैंसें(गाय नहीं) थमाई गयीं...तस्वीरों में आज के युग के
दोनों पहलवान उनके रस्से थामते हुए संकोच करते हुए दिखते हैं.यहाँ यह
प्रसंग विषयेतर नहीं होना चाहिए कि ओलम्पिक में श्रेष्ठ प्रदर्शन करने के
बाद टीम जब दक्षिण अफ्रीका लौटी तो वहाँ के एक बड़े उद्यमी ने विजेता
खिलाडियों को अच्छे नस्ल की गायें देने की घोषणा की पर कुछ खिलाड़ियों ने
जीवित गाय स्वीकार करने की बजाय उनके मांस से बने पकवान गरीब बच्चों के बीच
बाँट देने का अनुरोध किया. अमेरिकी डेयरी उद्योग में साफ़ सफाई के नाम पर
गायों की पूँछ काट डालने की परिपाटी पर दुनिया भर के पशुप्रेमी सवाल उठाते
रहे हैं.यूँ अमेरिका के कई राज्यों में
भी पशुओं के प्रति क्रूर बर्ताव का विरोध करने वाले कुछ संगठन सड़क किनारे
उन गायों का स्मारक बनाने की माँग कर रहे हैं जो गाड़ियों की ठोकर से असमय
जान गँवा बैठीं.
जब मेरी पीढ़ी के लोगों ने स्कूल में हिंदी में निबंध
लिखना शुरू किया था तो सबसे पहले विषय के रूप में गाय ने ही पदार्पण किया
था और इसके चौपाये होने जैसे परिचय के साथ इसका श्रीगणेश हुआ करता था.बाद
में स्व.रघुवीर सहाय ने दिनमान में एकबार गाय पर लिखे लेख
आमंत्रित करके अभिजात पाठकों को चौंका दिया था.बदलते हुए भारत
के आदर्शवादी व्याख्याकार प्रेमचंद के गोदान का पूरा ताना बाना ही एक
दुधारू गाय और उस से होने वाले अल्प आय से भविष्य सँवर जाने के स्वप्न के
इर्द गिर्द बुना गया था..पर देश के नवनिर्माण के स्वप्न सरीखे इस
गो स्वप्न के बिखरने में समय नहीं लगा.लोकमानस में गाय की छवियाँ बदलती
सामाजिक सचाइयों और अर्थव्यवस्था के साथ धूमिल जरुर पड़ रहीं हैं और गाय को
लेकर अब सारा मामला इसके वध और मांस बेचने /निर्यात करने तक सिमट कर रह गया
है.स्व.करतार सिंह दुग्गल की एक गाय और उसके बछड़े को लेकर लिखी गयी
अद्भुत पंजाबी कहानी अब इतिहास की बात रह गयी.
सांप्रदायिक चश्में से समाज को देखने वाले गोवध की बात
करते हुए हमेशा मुसलमानों की ओर ऊँगली उठाते हैं पर पिछले दिनों कुछ
प्रमुख विश्वविद्यालयों में छात्रों के मेस में विभिन्न जीवन शैलियों को
बराबरी का दर्जा देने के साथ गोमांस का प्रयोग करने की माँग तक हुई
है.दिल्ली के जे.एन.यू. में तो गो और सूअर मांस फ़ूड फेस्टिवल आयोजित करने
को लेकर मामला हाई कोर्ट तक जा पहुंचा है. दलित विमर्श में भी गोमांस के
निषेध के ब्राह्मणवादी डंडे को नकारने के स्वर उठते रहे हैं और इसको
व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन कहा जा रहा है.पर देवबंद के दारुल उलूम
की हिन्दुओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए मुसलमानों से गोवध से परहेज
करने की और गोहत्या के सम्बन्ध में देश के नियम का सम्मान और पालन करने की
गुजारिश(फतवे की शक्ल में) का पूरा पन्ना ही दैनिक विमर्श की किताब से फाड़
लेने का षड्यंत्र जोर शोर से जारी है.
इरान के नए सिनेमा के शिखर पुरुष दरियुश मेहरजुई की युगांतकारी फिल्म द काऊ(1969
) दुनिया की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार की जाने वाली कृति है और आज
के हर बड़े फिल्म समारोह में धूम मचाने वाले इरानी फ़िल्मकार इस फिल्म को
अपनी प्रेरणा का स्रोत मानते हैं.एक गोमांसभक्षी इस्लामी समाज में किसी
निःसंतान व्यक्ति को अपनी गाय को बच्चे जैसा दर्जा देना आसानी से हजम नहीं
होता पर यह इतिहास में दर्ज है कि दुनिया भर में इस्लामी अभ्युदय की पताका
फहराने वाले अयातोल्ला खोमैनी की यह पसंदीदा फिल्म थी और कहा तो
यहाँ तक जाता है कि यही वो फिल्म थी जिसने कट्टरपंथी इस्लामी क्रांति के
बाद फिल्म संस्कृति को नेस्तनाबूद करने के निर्णय को बदलकर शासन को फिल्मों
के सकारात्मक पक्षों के समाज निर्माण में भूमिका की सम्भावना के प्रति
सहिष्णु बनाया. फिल्म के नायक हसन का अधिकांश समय गाय(पूरे गाँव में इकलौती
गाय) को नहलाने धुलाने,खिलने पिलाने,बतियाने और हिफाजत करने में ही जाता
है...यहाँ तक कि साबुन से मलमल कर नहलाने के बाद वो उसको अपने कोट से
पोंछता है .अपनी गाय की वजह से उसकी गाँव में बहुत इज्जत है और जब उसको पता
चलता है कि वो गर्भवती है तो हसन को एक से दो गायों का स्वामी हो जाने का
गुमान भी होने लगता है.एकदिन किसी काम से जब हसन को बाहर जाना पड़ता है तो
उसी बीच में उसकी गर्भवती गाय की मृत्यु हो जाती है.उसकी पत्नी और सभी गाँव
वाले गाय को एक गड्ढे में दफना तो देते हैं पर मिलकर यह फैसला करते हैं कि
हसन के लौटने पर उसकी कोमल भावनाओं का ख्याल रखते हुए गाय के अपने आप
कहीं चले जाने की बात कहेंगे.हसन को लोगों की बात पर भरोसा नहीं होता पर
गाय से बिछुड़ जाने की बात उसके लिए ग्राह्य नहीं होती.उसकी याद में वह
इतना तल्लीन और एकाकार हो जाता है कि खुद को हसन नहीं हसन की गाय
मानने लगता है. अपना कमरा छोड़ कर वो गाय के झोंपड़े में रहने लगता है,पुआल
खाने लगता है और गाय की आवाज में बोलने भी लगता है.फिल्म का सबसे मार्मिक
व् धारदार वह दृष्य है जब उसकी यह दशा देख कर गाँव वाले गाय के लौट आने का
झूठा दिलासा देते हैं तो गाय बना हसन चारों दिशाओं में असली हसन को ढूँढने
लगता है.उसको जबरदस्ती जब लोग अस्पताल ले जाने की कोशिश करते हैं तो वह
बिलकुल अड़ियल जानवर जैसा सलूक करता है...फिर उसकी डंडे से जानवरों जैसी
पिटाई की जाती है और अंततः तंग आकर बारिश में खुले आकाश के नीचे छोड़ कर लोग
चले जाते हैं.अंत में हसन एक पहाड़ी से फिसल कर गिर जाता है और अपना दम तोड़
देता है.
हसन रूपी गाय को इरानी फिल्म व्याख्याकारों ने सीधी सादी
जनता के रूप में देखा और लोकतान्त्रिक आजादी के खात्मे के बाद होने वाली
दुर्दशा का सशक्त प्रतीक बताया...क्या भारत में भी गाय संकीर्ण दलगत और
जातिवादी राजनीति से ऊपर उठकर एकबार फिर विनाश न करने वाली उत्पादन पद्धति
,सामाजिक भाईचारे और सहिष्णुता का प्रतीक बनेगी?
Thursday, October 11, 2012
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
---
यादवेन्द्र
मध्य प्रदेश के साँची में लगभग दो सौ करोड़ रु. की लागत से सौ एकड़ भूमि में
बनने वाले बौद्ध विश्वविद्यालय का शिलान्यास श्री लंका के राष्ट्रपति महिंद
राजपक्ष ने 21सितम्बर को किया जिसमें प्रमुख रूप में बौद्ध दर्शन,सनातन धर्म और
विभिन्न धर्मों ,परम्पराओं ,साहित्य और कलाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाना प्रस्तावित है.इस अवसर पर
उन्होंने विश्व शांति और सहिष्णुता का रटा रटाया उद्बोधन भी किया जिसके सन्दर्भ
में खलील जिब्रान की यह उक्ति बेहद समीचीन होगी : "जिनपर जबरन कब्ज़ा कर लिया
गया हो उनको यदि विजेता खुद संबोधित करे तो ऐसे भाषण को सुनने को मैं कभी नहीं
तैयार हो सकता." मानव स्मृति कितनी भी अल्पजीवी क्यों न हो इन्हीं महाशय के
नेतृत्व में श्रीलंका के जातीय नरसंहार को भूलना इतना सहज और आसान नहीं है.
पर भारत में एक विश्वविद्यालय की नींव रखने वाले राजपक्ष के श्रीलंका में
जुलाई से सरकारी विश्वविद्यालय पढ़ाई नहीं करवा रहे हैं और हर रोज सरकार तानाशाही
फ़रमान जारी कर स्थिति को और बिगाड़ रही है....इस बीच गैर सरकारी विश्वविद्यालय
धड़ल्ले से बन रहे हैं.
दक्षिण दिशा में अपने निकटतम पड़ोसी श्रीलंका हमारे मानस पटल
से बिलकुल अनुपस्थित रहता यदि जयललिता ने हाल में वहाँ से फुटबॉल खेलने और
तीर्थयात्रा करने के लिए तमिलनाडु आने वाले श्रीलंकाई नागरिकों को वापस न भेज दिया
होता.थोड़ी और रियायत करें तो जब जब कथित रामसेतु का मामला सुप्रीम कोर्ट में
सुनवाई के लिए आता है तब परोक्ष रूप में श्रीलंका की याद आती है.पर अपनी भौगोलिक
विशालता के गुरुर में हम इतना खो जाते हैं कि पड़ोसी देशों के समाज को गहरे तौर पर
प्रभावित करने वाली बड़ी घटनाएं भी हमें छू नहीं पातीं.
इसी तरह का एक मामला श्रीलंका में जुलाई से चल रही यूनिवर्सिटी
शिक्षकों की हड़ताल का है. वहाँ के शिक्षा मंत्री कभी कहते हैं कि इस आन्दोलन का
कोई ख़ास असर नहीं है और उनको इसकी परवाह नहीं.फिर अचानक पिछले महीने की 21 तारीख को उन्होंने
देश की सभी पंद्रह सरकारी यूनिवर्सिटी को अनिश्चित कालीन अवधि के लिए बंद कर
दिया.इस महीने उनको खोल तो दिया गया पर शिक्षकों की हड़ताल अब भी जारी है और धीरे
धीरे इस हड़ताल के लिए जान समर्थन बढ़ रहा है.
हड़ताली शिक्षकों की मुख्य माँग है कि उनका वेतन बीस फीसदी बढाया जाये और
शिक्षा के लिए देश के कुल जी.डी.पी. का छह फीसदी खर्च किया जाये.उनकी अन्य मांगों
में शिक्षा के निजीकरण और राजनैतिक हस्तक्षेप और येन केन प्रकारेण चोर दरवाजे से
सैन्य प्रशिक्षण को थोपने को बंद करना शामिल है.पूरा प्रकरण तब ज्यादा प्रासंगिक
हो गया जब छात्रों का एक बड़ा वर्ग शिक्षकों की मांग के खुले समर्थन में आ खड़ा
हुआ. जब सभी तरफ से इस अड़ियल रवैय्ये को लेकर दबाव बढ़ने लगा तो सरकार को बंद
यूनिवर्सिटीयों को खोलने का फैसला करना पड़ा पर हड़ताली शिक्षक बिना माँग माने
अपने आन्दोलन को स्थगित करने को तैयार नहीं हैं.सरकार आन्दोलनकारियों की तख्ता पलट
की षड़यंत्रकारी मंशा की ओर इशारा करती है तो आन्दोलनकारी हड़ताल को लम्बा खींचने के
पीछे उच्च शिक्षा के निजीकरण की कुटिल राजनीति का हवाला देते हैं.
सरकार बार बार यूनिवर्सिटी कैम्पस से उठने वाली सत्ता विरोधी राजनीति का हवाला
देती है और इसको जड़ से कुचलने का दम भरती है.इसीलिए शिक्षकों द्वारा उठाई गयी
बड़े नीतिगत फैसलों की माँग भी नक्कार खाने में तूती बनकर दबती जा रही है
.शिक्षकों की यूनियन के अध्यक्ष डा. निर्मल रंजीथ देवासिरी का कहना है कि उनकी माँग
ने देश में शिक्षा की वर्तमान दशा की ओर व्यापक स्तर पर जनता का ध्यान खींचा है तभी
तो लाखों की संख्या में उनको समर्थन में लोगों के हस्ताक्षर मिले हैं.अनेक बैठकों के
बाद सरकार ने उनकी मांगों की पृष्ठभूमि में एक सरकारी नीति प्रपत्र लेने की बात पर
सहमति जताई है पर वेतन वृद्धि को लेकर दोनों पक्षों के बीच की खाई अभी भी उतनी ही
चौड़ी है.सरकार ने छात्रों के लिए प्रस्तावित नए प्रशिक्षण कार्यक्रम भी फ़िलहाल रोक
देने का आश्वासन दिया है.
सरकार ने बातचीत के बाद जो सरकारी नीति प्रपत्र प्रस्तुत किया उसमें आर्थिक
संसाधनों का रोना रोते हुए शिक्षा के लिए जी.डी.पी. का छह फीसदी हिस्सा उपलब्ध
कराने में असमर्थता जताई है.जमीनी हकीकत यह है कि 1970 में जहाँ सरकार
शिक्षा के लिए 3.98 फीसदी खर्च किया करती थी वह 2005 में घट कर 2.9 फीसदी रह गया और अब
तो घटते घटते यह हिस्सा दो फीसदी से भी कम रह गया है.श्रीलंका के पड़ोसी देश मालदीव
और मलेशिया जहाँ इस इस मद में 11 और 8 फीसदी खर्च करते हैं वहीँ भारत और पाकिस्तान 3.85 और 2.7 फीसदी खर्च करते
हैं.
बांग्लादेश में भी पिछले कई महीनों से
यूनिवर्सिटी शिक्षा देशव्यापी आंदोलनों की वजह से ठप है और प्रधानमंत्री शेख हसीना इस
अव्यवस्था से निबटने के लिए सख्त होने तक की धमकी दे चुकी हैं.देश में 34 सरकारी और 62 गैर सरकारी यूनिवर्सिटी हैं
और इनमें से अधिकांश सरकारी संस्थानों में वाईस चांसलरों और शीर्ष अधिकारियों को
हटाने की माँग की जा रही है. कहीं कहीं तो
सेना को भी बीच में लाया जा रहा है इसी लिए सेना को सभी उच्च शिक्षा संस्थानों से
बाहर करने की मांग भी छात्र करने लगे हैं.अधिकांश मामलों
में अध्यापकों का समर्थन छात्रों के साथ है हांलाकि हाई कोर्ट ने उन्हें ऐसा करने से मना किया
है पर आन्दोलन की औपचारिक घोषणा न करके वे छात्रों के साथ मिलकर वैकल्पिक आन्दोलन
चला रहे हैं.कहा जाता है कि
इस शैक्षणिक असंतोष के लिए मुख्यतः शीर्ष पदों पर राजनैतिक नियुक्तियाँ और छात्र तथा शिक्षक यूनियनों का दलगत संघर्ष जिम्मेवार है.शिक्षाविदों में निजी
शिक्षण संस्थानों को बढ़ावा देने की नीति को लेकर भी गहरा असंतोष है और सरकार एक के
बाद दूसरी कमिटी बना कर आपने हाथ झाड़ लेती है.करीब सवा लाख
छात्रों वाली बांग्लादेश की नेशनल यूनिवर्सिटी दुनिया की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी
मानी जाती है और उच्च शिक्षा के
इच्छुक देश के करीब सत्तर फीसदी छात्र इस से सम्बद्ध हैं पर अव्यवस्था का आलम यह
है कि चार साल का डिग्री कोर्स दुगुने समय में पूरा हो पा रहा है.बांग्लादेश यूनिवर्सिटी ऑफ
इंजीनियरिंग एंड टेक्नालाजी देश के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित तकनीकी संस्थानों में
शुमार किया जाता है और पिछले दिनों यहाँ के आन्दोलनकारी छात्र अपना लहू एकत्र करके वाईस चांसलर
के दफ्तर के सामने बिखेरते हुए देखे गये.
ब्रिटेन पंद्रह साल पहले हांगकांग को चीन के हवाले कर गया था तबसे
पश्चिमी तर्ज की आज़ादी का स्वाद चख चुके इस विशेष दर्जाधारी राज्य में चीनीकरण की
प्रक्रिया जोरशोर से चलायी जा रही है.कहने को एक हजार वर्ग किलोमीटर से थोड़ा
ज्यादा रकबे वाला सत्तर लाख आबादी वाला यह इलाका बहुत छोटा है पर एक दलीय चीनी शासन व्यवस्था
थोपने का कदम कदम पर विरोध हो रहा है.नया शैक्षिक सत्र लागू होते ही इसबार हांगकांग
के छात्र नए प्रस्तावित नेशनल एजुकेशन करिकुलम (खास तौर पर इसके अंतर्गत दिए गये
मोरल एंड नेशनल पॅकेज) का विरोध करते हुए सड़कों पर उतर आये और उन्हें अभिभावकों,आम नागरिकों और शिक्षकों का अपार समर्थन मिला.खबरें आ
रही हैं कि लाखों की संख्या में रात दिन लोग इस में शामिल होते गये जिसमें
यूनिवर्सिटी के छात्रों पर नैतिक शिक्षा के नाम पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का गुणगान
करने वाले एकतरफ़ा इतिहास और पाठ्यक्रम को थोपने का विरोध किया गया.शासन ने पहले तो
देशभक्ति की भावना बढ़ाने का हवाला देते हुए काफी सख्त रुख अपनाया पर धीरे धीरे
आन्दोलनकारियों के निशाने पर जब भ्रष्टाचार और एकदलीय शासन प्रणाली आने लगे,यहाँ तक कि आन्दोलनकारियों ने स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी की
तर्ज पर लोकतंत्र की देवी की मूर्ति तक बना डाली तो स्थानीय चुनावों के मद्देनजर
शासकों का रवैय्या नरम पड़ा और अंततः 8 सितम्बर को पाठ्यक्रम को फ़िलहाल स्वैच्छिक घोषित कर दिया गया पर 2015 में अनिवार्य तौर पर लागू करने पर अब भी यथास्थिति
बनी हुई है.जुलाई में शुरू हुआ स्कूली छात्रों का यह स्वतःस्फूर्त आन्दोलन समाज के
प्रबुद्ध तबके को इस कदर झगझोड़ गया कि एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी के वाईस चांसलर
सार्वजनिक तौर पर बोल पड़े कि हम छात्रों के साथ हैं और उनकी मदद में जो भी बन
पड़ेगा हम करने को तैयार हैं.
Tuesday, July 10, 2012
जिन्दगी से रची सरगम
पेशे से डाक्टर डा. जितेन्द्र भारती साहित्य के अध्येता हैं। कहानियां लिखते हैं। वैसे सच कहूं तो लिखते कम हैं सुनाते ज्यादा हैं। घटनाओं को कथा के रूप में सुनाने का उनका अंदाज निराला होता है। यकीकन वे किस्सागो हैं। उन सभी किस्सों को यदि वे लिख ले तो बेहतरीन कहानियां हैं। लेकिन वे लिखते कम ही हैं। कुछ ही कहानियां लिखी हैं। वैसे भी उनसे कुछ लिखवा लेना बड़ा मुश्किल होता है। लेकिन पेरिन दाजी पर लिखी संस्मरणात्मक किताब के बाबत उन्होंने अपनी खुद की प्रेरणा से लिखा है। डा. भारती की यह खूबी है कि उनका मन जिस बाबत खुद से होता है, वही लिखते हैं और मनोयोग से लिखते हैं। उनके लिखे को यहां प्रस्तुत कर पाना हमारे लिए उपलब्धि से कम नहीं।
वि.गौ. |
डा. जितेन्द्र भारती
बेशक पेरिनदाजी और होमीदाजी ने प्रेम किया, विवाह किया और साठ वर्षो का एक लम्बा पारिवारिक जीवन जिया। अपनी आंखों कें सामने अपने जवान बच्चो को एक के बाद एक केंसर व अन्य जान लेवा बिमारियों मे जाते देखा। होमी दाजी ने स्वयं भी कई सारी तकलीफदेह बिमारियों को झेला। सेहत छिनी। सुख-चैन छिना। जिन्दगी के हालात भी बद से बदतर होते रहे लेकिन इन दोनों दाजियो के बीच इनका प्रेम उत्तरोतर समृद्ध ही होता गया। एक र्साथक प्रेम की सरगम थी इन की जिन्दगी। पेरिन दाजी ने बात तो अपनी और होमी दाजी की कही, मगर नहीं, उन्होने जमाने की नब्ज पकडी और जमाने की ही बात कही। इन्दौर के औधोगिक राजधानी बनने, उसके शहरीकरण, उसके सर्वहाराकरण, राजनितिक सत्ताओं के गठजोड, चुनाव की उत्सवधर्मिता की बातें और बाकी तमाम बातों मे ही होमी दाजी, बतौर कामरेड, बतौर इसान हर कहीं मौजूद हैं। उन दोनो का प्रेम उनकी सीमाओं से बाहर-बाहर तक फैला हुआ। यह पेरिन दाजी की निर्दोष लेखनी का कमाल है जो अनजाने मे इतना कुछ कह गयी है जे सधे हुए लेखको के लिए सीखने लायक है। एक तरफ बांहें फैलाता पेरिन दाजी और होमी दाजी का प्रेम है। दूसरी तरफ लेखन के कथित विश्वास से भरे सुधी जनो के साहित्य जगत मे इस बीच प्रेम को लेकर कई सारे विशेषांक निकले। जिनमे दर्जनो कहानियां, बिसियों लेख और सैंकडो कविताएं साथ ही ढेर सारी टिप्पणियां पाठको ने देखी। प्रेम ही प्रेम था हर तरफ। शायद नहीं था। हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने अपने सम्पादकीय में प्रेम भावों का जायजा लिया। उन्होने अफसोस जनक सिथतियों और उनकी अभिव्यकितयों में हस्तक्षेप किया और रुटीन प्रेम को सन्देह से देखते हुए बलिक अपर्याप्त सा मानते हुए लिखा कि पिछले पचास सालों मे पति-पत्नी के बीच प्रेम की कोई रचना उन्होने नहीं देखी। बात यूंही और महज छेडखानी भी नही थी। पति-पत्नी के बीच का प्रेम या कहा जाय उनका प्रेम कब और कहां बिला जाता है यह शायद उन्हें भी पता नही चलता। उसकी ऊष्मा और उद्वेग क्या सिथति ग्रहण कर लेते हैं? या उनहे चिह्नित नहीं किया जा सकता या मुशिकल हो जाता है, बहर हाल! मामला आसान तो नही रह जाता।
नैतिक व उपदेशात्मक कथित ज्ञान आमतौर पर द्वन्दात्मक और अनतर तनावों को संप्रेषित न करके एकतरफियत के संवाहक होते हैं, लिहाजा काम नही करते। इनका नाकाम रह जाना ही यह भी बता जाता है कि वें स्थितियां उतनी समान और सामान्यता से गुंथी नही हैं बलिक असामान्य व असमानता उनकी हकीकत है। अब उस असामान्य सिथतियों को देखने, समझने और उनमे हस्तक्षेप के दृषिटकोणों का संम्बन्ध और अन्तर-सम्बन्धों का तादात्मय से एक नया उत्कर्ष पैदा होगा। जो उन्हे महज पति-पत्नी न रहने देकर, उन्हें साथ ही एक कार्मिक भी बनाता है। यहां भी एक अपनापा और प्रेम का उन्मेष उपजता है जिसमे एक आर्कषण भी होगा। बेशक वे मौजूदा अर्थों वाले पति-पत्नी रह भी नहीं जायेगें। ये अन्तर्विरोधी और द्वन्दात्मक तनावों से ओत-प्रोत परिवेश, उनमें ठहराव आने ही नही देगा। यह वस्तुगत यथार्थ है जो गतिशील है, और इससे उपजा प्रेम भी।
पेरिन दाजी और होमी दाजी का यह प्रेम प्रेरणादायक है। जो पति-पत्नी को उस सम्बंध से बाहर असीमता और विस्तार में ले जाता है जहां उनका व्यकितत्व और भी खुलता और खिलता है।
कामरेड होमी दाजी किसी भी पार्टी मे होते तो भी वे कामरेड ही होते। अगर वे ऐसा संघर्ष कर रहे होते तो। बेशक वे कम्युसिट पार्टी मे प्रतिबद्धता के साथ रहे।
कामरेडस इन आर्म्स। इसका भावार्थ ही-सकारात्मक और रचनात्मक आयामों मे-साथी और साझीपना है। वे अच्छे कामरेड थे, इसलिए एक अच्छे कम्युनिस्ट थे।
पेरिन दाजी द्वारा 'अपने कामरेड को यूं याद किया जाना, जिन्दगी की एक सरगम जैसा ही है। पेरिन दाजी ने अपने अनजाने ही यादो की रोशनी के माघ्यम से एक बेहतरीन रचना-कथा संस्मरण हिन्दी के साहित्य और समाज को दिया है जिसमे सीखने को काफी कुछ है उसे पढा और पढवाया जाना चाहिए ,
-और, पेरिन दाजी को ? होमी दाजी तक पहुंचने वाला-लाल सलाम ।
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