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Friday, October 19, 2012

करतब दिखाती लड़की





फांस २०११ में प्रकाशित मेरा पहला उपन्यास है। आज (१९/१०/२०१२) सड़क से गुजरते हुए उपन्यास के पात्रों से नये सिरे से मुलाकात हुई। कुछ तस्वीरें हैं जो नायिका की हैं। नायिका से संबंधित उपन्यास का एक छोटा सा हिस्सा यहां शेयर कर रहा हूं। तस्वीरें आज शाम की हैं।
तब से आज तक जीने के लिए जान को जोखिम में डालने वाली यह लड़की देखो तो कैसे इतरा रही है न!!
जब से साइकिल वाले ने मजमा लगाया, छोटे ने वहीं अपना अड्डा जमा दिया। सुबह और शाम के वक्त जब दर्शकों की बेतहाशा भीड़ होती और साइकिल वाला तरह-तरह के करतब दिखाता तो छोटे को बड़ा मजा आता।  
अनवरत, सात दिनों तक साइकिल चलाने वाला वह शख्स इसी कारण छोटे का प्रेरणा स्रोत बनता जा रहा था। स्कूल जाने की बजाय वह दिन भर ही वहीं मण्डराता रहता। सुबह घ्ार से निकल जाता और देर रात को, जब साइकिल वाला स्वंय, बड़े प्यार से-अपने अजीज छोटे और सागर को खुद घर के लिए रवाना करता, तब ही घर पहुँचता। शाम के वक्त जब साइकिल वाला करतब दिखा रहा होता तो उस वक्त साइकिल पर सवार उसकी बेटी रीना भी साथ-साथ होती। अपने पिता के जैसे वह भी तरह-तरह के करतब दिखाती। उस छोटी सी लडकी के करतब तो छोटे को आश्चर्य से भर देते और उकसाने लगते- 'जब इतनी पुच्ची-सी यह।।।ये सब कर सकती है।।। तो मैं क्यों नहीं ?"
लोहे के गाल रिंग को वह गले में डालती और मुश्किलों से, गर्दन भर की गोलाई बराबर, रिंग के घेरे को नीचे पाँवों तक पहुँचा देती। छोटा ही नहीं हर कोई अचम्भित होता। तनी हुई रस्सी पर संतुलन बनाकर चलते हुए उसके चेहरे पर जो मुस्कान बिखर रही होती, छोटा उसमें नहाने लगता। देखने वाले तालियां पीटते। पर तनी हुई रस्सी पर करतब दिखाती रीना को साक्षात देखना तो छोटे के लिए संभव ही न होता। यदि देख पाता और हाथ खुले होते तो खूब तालियां पीटता। वह तो उस वक्त कंधे का पूरा जोर लगाते हुए खम्बे को थामे हुए होता। निगाहें जमीन की ओर झुकी होतीं। शरीर की पूरी ताकत कंधें पर सिमट आने की वजह से माथे पर तनाव उभर आता। भौहों पर एकाएक उठ आया माँस ऊपर कुछ दिख जाने की संभावना को भी खत्म कर देता। उस वक्त तो  सिर्पफ दर्शकों की तालियों को से ही महसूस कर सकता था कि रस्सी पर छाता ताने चलती रीना गजब की खूबसूरत दिख रही होगी। 
खम्बा कंधे के जोर पर टिका होता और दोनों हाथ खम्बे को कसकर पकड़े होते।
रस्सी जिन खम्बों पर बंधी होती उन खम्बों को पकड़ने के लिए दो मजबूत आदमियों की जरूरत थी। मजबूती ऐसी कि जिनकी पकड़ में कसे हुए खम्बों पर जो रस्सी तनती, उस पर ही वह अदाकारा लड़की एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ती, ठुमके लगाती। खम्बे जमीन में गाड़े नहींं जा सकते थे। करतब दर करतबों की श्रंृखला को स्थायी तौर पर गड़े खम्बों के साथ जारी रखना संभव न था। गड़े हुए खम्बों को जल्दी से हटाना संभव नहीं। और हटा भी दें तो छुट जाने वाले गड्ढों को कैसे भरें !  मजबूत, बलिष्ठ कंधें के जोर पर ही करतब को संभव किया जा सकता था। साइकिल वाले ने साइकिल पर चढ़े-चढ़े ही गोल घ्ोरे में घ्ाूमते हुए गुहार लगायी।

- मेहरबानों, कद्रदानों ।।।! ।।।।मैं।।।अपना आज का खेल शुरू करने से पहले।।।आप लोगों की दाद चाहता हूं।।।।

दर्शकों की करतल ध्वनि  गूँज गई।

-।।।मित्रों आज दूसरा दिन है।।।।कल आपने मेरी बेटी रीना को रिंग से पार होते देखा। ।।।आज भी देखोगे।

साथ-साथ चलती रीना के चेहरे पर उल्लास की रेखा खिंचती रही। छोटा नहाता रहा

- रीना आज आपके सामने वो करतब दिखायेगी।।।जिसे देखते हुए ।।। आपकी निगाह रुकी की रुकी रह जाएगीं।

दर्शकों की करतल ए"वनि के साथ-साथ गोल घेरे में चल रही रीना ने झटका देकर अपनी साइकिल के अगले पहिए को उसी तरह उठाया जिस तरह अक्सर, किशोर उठाता। पर वह उतनी कुशल नहीं थी कि पिता की तरह एक ही पहिये पर पूरा गोल चर काट सकती थी। बस एक सीमित दूरी तक ही साइकिल को साध् पाई। लड़खड़ाते हुए संभलने की कोशिश का वह क्षण ऐसा रोमंचकारी था कि पाँव जमीन पर टिकने की बजाय साइकिल के अगले रिम की किनारियों में पँफस गए। ठीक वैसे ही जैसे किशोर दोनों पाँवों को मात्रा एक इंच की चौड़ाई वाले रिम में में फंसा देता और एक हाथ से हैण्डल को थाम कर दूसरे हाथ से अगले पहिए को ढकेल कर आगे बढ़ा रहा होता। उसकी उम्र के घेरे में मौजूद दर्शकों की हथेलियां अनूठे अंदाज में करतब दिखाती अदाकारा के लिए यकायक खुल गईं। असपफलता का नहीं सफलता का वह बेहद मासूम क्षण था जिसने रीना को उत्साह से भर दिया। किशोर के चेहरे पर भी एक आश्चर्यजनक मुस्कराहट थी।

- हाँ तो दोस्तो।।।रीना जो करतब दिखायेगी ।।। उसके लिए मैं।।।दो मजबूत, बलिष्ठ आदमियों से दरखास्त करता हूँ ।।। वे आएं और मजबूती से इन खम्बों को पकड़क़र खड़े हो जाएं ।।। एक इध्र।।।और।।।दूसरा उध्र। ।।। अपने कंधें की ताकत पर यकीन हो तो चले आओ दोस्त। ।।। खम्बों पर तनी रस्सी पर ही रीना चलकर दिखायेगी।

कोई आगे न बढ़ा। मैदान के बीच जाकर, खम्बा पकड़ लेने का साहस, संकोच की चादरों में लिपटा रहा साइकिल वाले ने दूसरी बार गुहार लगायी। कोई सुगबुगाहट नहीं। हर कोई खेल देखना चाहता था, खेल का हिस्सा होना नहीं चाहता था। कंधें के जोर पर यकीन कैसे करें, सवाल मुश्किल था। कहीं भसक ही न जाए कंध ! क्यों बैठे ठाले ले लें पंगा। आशंकाएं चुप्पी की भाषा में तब्दील हो चुकी थी।
संकोच के लबादे को एक ओर पेंफक, छोटा आगे बढ़ा और अपने हर अच्छे-बुरे वक्त के साथी, सागर को भी खींच लिया था। सागर की देह ऐसी कि कमीज के टूटे हुए बटन से झांकता छाती का पिंजर। मनुष्य के शरीर की भीतरी संरचना के पाठ को पढ़ाने में भी उसकी मदद ली जा सकती थी। साइकिल वाला दोनों ही बालकों की कद काठी के कारण उनकी शारीरिक क्षमता का आकलन नहीं कर पाया। बल्कि उनको देखकर तो कुछ दर्शक भी खिलखिलाने लगे। लिहाजा साइकिल वाले ने एक बार पिफर गुहार लगायी।

- देखिए भाई लोगों ।।। इन दो होनहार बालकों ने अपना साहस दिखाया है।।।।।।। मैं दोनों ही बच्चों का सम्मान करता ।।।इनकी हिम्मत की दाद देता  ।।। पर भाईयों ये बच्चे इतने छोटे हैं कि खम्बे को अपने शरीर के जोर पर रोक न पायें।।।शायद ।।। मेरी गुजारिश है ।।। मजबूत कद-काठी के मेरे भाई ।।। अपने संकोच को छोड़कर ।।। आगे बढ़े ।।। और देखें कि मेरी बेटी रीना कैसे तनी हुई रस्सी पर।।।एक सीरे से दूसरे सीरे तक चलकर ।।।। आप लोगों को कैसे आनन्दित करेगी।

अपनी जाँघों के दम पर साइकिल के हैण्डल को थामे, आदमकद लम्बाई के बावजूद किशोर की आवाज में एक दयनीय पुकार थी-दर्शकों से की जा रही गुहार। कहीं कोई प्रतिक्रिया न हुई। खामोशी चारों ओर व्याप्त हो गई। पिता के साथ गोल घेरे में चक्कर काट रही रीना की आँखों में करतब दिखाने की चंचलता थी। साइकिल वाला वैसे ही गोल चर लगाता जा रहा था, जैसे उसे अगले पांच दिनों तक अनवरत लगाने थे।
साइकिल वाले की बार-बार लगायी गई गुहार पर भी कोई आगे न बढ़ा। साइकिल वाला सागर और छोटे के कंधें की ताकत और खम्बों पर उनकी पकड़ पर अपना विश्वास जमा नहीं पा रहा था। उसकी हर अगली गुहार पर छोटा अपने को और छोटा महसूस करने लगा। उसे साइकिल वाले का व्यवहार बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। गुस्सा उसके भीतर था पर मन ही मन वह बड़बड़ाता रहा- 'एक बार मौका तो दे के देख ।।। मजाल है खम्बा अपनी जगह से एक सूत भी खिसक जाए।'
अनेकों पुकारों के बाद भी जब कोई आगे न बढ़ा तो छोटा और सागर ही विकल्प के रूप में बचे रह गए। करतब तो दिखाना ही था। दोनो ही बच्चों की मदद से साइकिल वाले ने करतब दिखाने की ठान ली। लेकिन एक आवश्यक सावधनी उसने ले लेनी चाही, जो वैसे भी उसे लेनी ही थी। छोटे और सागर को एक पफासले पर आमने-सामने खड़ा होने की हिदायत देते हुए उसने जमीन पर उन जगहों को चिहि्नत कर-जहाँ लकड़ी के खूँटे गाड़े जाने थे, निशान मार देने को कहाँ

- मेरे बहादुर बच्चों।।।वहाँ दो लकड़ी के खूंटे रखे हैं ।।। उठा लाओ।

गोल घेरे के बाहर, जहाँ साइकिल वाले का सामान रखा था, छोटे और सागर वहाँ उलझे सामानों के बीच रखे, एक ओर से नुकीले, लकड़ी के दो भारी-भारी खूंटे उठा लाए।

- बहादुर बच्चों।।।जहाँ तुमने निशान लगाये हैं।।।वहीं पर दोनों को गाड़ दो। ।।। लकड़ी के इन खूँटों के सहारे ही तुम्हे खम्बे को टिकाना है और अपने कंधें के जोर पर उन्हें थामना है ।।। यह खूँटे तुम्हे मदद पहुँचायंेगे।।।।

सागर दौड़ कर गया और सामानों के साथ ही रखे एक भारी भरकम हथौडे को उठा लाया और खूँटों को ठोकने लगा। दोनों का ही उत्साह देखने लायक था। किसी प्रकार का संकोच उनके भीतर न था। लकड़ी के खूँटों को मजबूती से गाड़ दिया गया। मजबूती ऐसी कि भैंसे को बांध् दिया जाए तो पूरे जोर लगाने के बाद वह भी न उखाड़ सके। करतब के लिए मैदान तैयार हो गया। छोटे और सागर ने अपने-अपने खम्बों को खूँटों के सहारे टिका दिया। दोनों खम्बों के शीर्ष पर बंधी रस्सी खम्बों के एकदम सीधे होते ही खिंच गई। खूँटों के सहारे खम्बों को टिका दिया गया। दोनों ने ही अपनी पकड़ को मजबूत किया। जाँघ से लेकर कंधे तक का जोर लगाकर खम्बों को सीध किया। खम्बों के शीर्ष पर बंधी रस्सी पूरी तरह से तन गयी। अब किसी प्रकार का भी झोल उसमें दिखायी नहीं दे रहा था। रस्सी पर करतब दिखाने से पहले रीना ने उसके तनाव और खम्बों पर सागर और छोटे की पकड़ की मजबूती जांचनी चाही। साइकिल पर चलते हुए ही उसने दूसरी रस्सी में लंगड़ बांध् ऊपर को उछाल दिया। तनी हुई रस्सी पर फंदा डालने का उसका अंदाज निराला था। सागर और छोटे बेखबर थे। उनका सारा ध्यान तो इसी पर टिका था कि कब और कैसे रीना तनी हुई रस्सी पर चढ़ती है। तनी हुई रस्सी के दूसरी ओर निकल आए लंगड़ का पंफदा बना उसने जोर का झटका दिया। झटके के साथ ही कांप रस्सी ने दोनों ही ओर के खम्बों समेत छोटे और सागर भी लड़खड़ा दिया। हँसी का ऐसा फव्वारा छूटा, जिसमें रीना की हँसी की खनक भी शामिल थी। साइकिल वाला भी मुस्कराने लगा।

- कोई बात नहीं जवानों।।।कोई बात नहीं । बस ।।।एकदम सावधन रहो मेरे बच्चों ।।। तुम्हारे कंधें की ताकत पर ही मेरी बेटी रीना।।।या तो हुनरमंद करतबबाज कहलायेगी।।।या अनाड़ी। चलो अबकी बार पिफर से तय्यार हो जाओ ।।।। खम्बों को मजबूती से पकड़ लो ।।। कीलड़ों का सहारा नहीं हटना चाहिए ।।। रीना एक बार फिर से रस्सी को खींचकर देखेगी। खम्बे जरा भी हिले ।।। या झुके ।।। तो रस्सी का तनाव कम हो जाएगा। ।।। बस।।।समझ लो मेरे बहादुर बच्चों।।।वही क्षण हवा में झूलती रीना को नीचे पटक देगा ।।। तुम्हारे हाथों में मेरी इज्जत है मेरे बच्चों।।।!! ।।। चलो एक बार पिफर तय्यार हो जाओ और अपने शरीर के जोर पर रोको खम्बें।

रीना ने एक बार पिफर वैसे ही जोर का झटका दिया। छोटे और सागर अबकी बार मुस्तैद थे। अपने जिस्म की पूरी चेतना के साथ खम्बों को उन्होंने थामा हुआ था। कैसा भी झटका उनकी पकड़ को ढीला नहींं कर सकता था। रस्सी का तनाव ज्यों का त्यों बना रहा तालियों की जोरदार आवाज स्वाभाविक ही थी। छोटा भीतर ही भीतर गर्व से भर गया। सागर भी। रीना ने एक और अप्रत्याशित प्रयास थोड़े अंतराल में पिफर किया, यह जांचने के लिए कि कहीं सागर और उसका साथी छोटा पिफर से लापरवाह तो नहीं हो गए। पर खम्बों पर पकड़ पहले से भी मजबूत थी। आश्वस्त हो जाने के बाद साइकिल को एक ओर छोड़, लम्बे-लम्बे बाँस के डण्डों में बने कुंडों में दोनों पाँव पँफसा रीना डण्डों के सहारे खड़ी होने लगी। छटांक भर की लड़की पलक झपकते ही आसमान को छूने लगी। लम्बे-लम्बे बाँसों पर खड़ी वह हवा में चलती हुई सी लग रही थी। उसके चेहरे पर उल्लास था। दर्शकों को उसका चेहरा देखने के लिए अपनी-अपनी गर्दन को इस कदर उठाना पड़ रहा था कि एक बार को भ्रम हो सकता था कि वे तो आकाश को ताक रहे हैं। छोटे और सागर चाहकर भी गर्दन नहींं उठा सकते थे। खम्बों के लचक जाने का भय उन्हें छूट नहीं दे रहा था। वे तो बाँसों पर चढ़ी आदमकद ऊँचाई को छूती रीना का होना, बस गोल घेरे में चक्कर काटती दो बल्लियों के रूप में ही महसूस कर सकते थे- वह भी तब, जब वह साइकिल पर चर लगाते अपने पिता के साथ-साथ बाँसों के सहारे चलती हुई उनके एकदम नजदीक से गुजर रही थी।
बाँस के डण्डे जो उसके पाँवों में पँफसे थे, न जाने कब हटे कि वह तनी हुई रस्सी पर खड़ी हो गयी। हाथों को शरीर से बाहर की ओर पूरा खोलकर एक कुशल करतब बाज की तरह वह तनी हुई रस्सी पर चल रही थी। दर्शक झूम रहे थे और जिनकी करतल ध्वनियों से पूरा माहौल गूँज रहा था। लड़की अपना संतुलन बनाये हुए जितनी एकाग्र थी, छोटे और सागर की एकाग्रता को उससे उन्नीस नहीं कहा जा सकता था। हवा में उछलकर जब लड़की जमीन पर कूद गई तो छोटे और सागर की तनी हुई माँस-पेशियाँ अपनी सामान्य स्थितियों में लौटने लगी। उनके शरीर पसीने से भीग चुके थे। साइकिल वाला दोनों ही लड़कों के प्रति कृतज्ञ हो रहा था। लड़की फिर से साइकिल पर चढ़कर अपने पिता के साथ-साथ गोल चर काटने लगी। उसके करतब से प्रभावित हुए पहले से ही ढीली जेबों वाले दर्शक, अपनी उन जेबों को पूरी तरह से उलट कर ढीला कर देना चाहते थे। लड़की के हुनर का सम्मान करने के लिए अपनी भावनाओं का प्रदर्शन वे इसी तरह कर सकते थे। भारी जेब वालों की उंगलियां उनकी जेबों में फंसकर रह जा रही थी। 
(उपन्यास अंश- फांस)

 

Friday, August 7, 2009

जब व्हेल पलायन करते है



संवाद प्रकाशन से
यूरी रित्ख्यू के प्रकाशनाधीन उपन्यास जब व्हेल पलायन करते हैं का हिन्दी अनुवाद कथाकार डॉ शोभराम शर्मा ने किया है।डॉ शोभाराम शर्मा की रचनाओं को इस ब्लाग पत्रिका में अन्यत्र भी पढ़ा जा सकता है।

उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल में 6 जुलाई 1933 को जन्मे डॉ। शोभाराम शर्मा 1992 में राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से हिंदी विभागाध्यक्ष के पदसेसेवानिवृत्त हुए हैं। 50 के दशक में डा।शोभाराम शर्मा ने अपना पहलालघुउपन्यास "धुमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा। शर्मा नेअपनी रचनात्मकता का ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, मानक हिंदी मुहावराकोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी मुहावराकोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी लोकोक्तिकोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं।
पूर्वी कुमांऊ तथा पश्चिमी नेपाल की राजी जनजाति (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध् प्रबंध) उनका एक महत्वपूर्ण काम है।क्रांतिदूतचे ग्वेरा" (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी) एक ऐसी कृति है जो बुनियादी बदलावों के संघर्ष में उनकी आस्था और प्रतिबद्धता को रखती है। पिछलों दिनोंउन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेंगे। इसी कड़ी में "जब व्हेल पलायन करते हैं" एक महत्वपूर्ण कृति है। इसके साथ-साथ डॉ। शोभारामशर्मा ने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिसमें उत्तराखंड का जनजीवन और इस समाज के अंतर्विरोध बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में प्रस्तुत हुए हैं। वनरावतों परलिखा उनका उपन्यास "काली वार-काली पार" जो प्रकाशनाधीन है नेपाल के बदले हुए हालात और उसके ऐसा होने की अवश्यमभाविता को समझने में मददगार है। उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिकऔर सामंतवाद के विरोध् की परंपरा परलिखी उनकीकहानियां पाठकों मेंलोकप्रिय हैं।
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पता: डी-21, ज्योति विहार, पोस्टऑपिफस- नेहरू ग्राम, देहरादून-248001, उत्तराखंड। फोन: 0135-2671476





डॉ. शोभाराम शर्मा


चुक्ची लोग परंपरा से कुल या गोत्र नाम का उपयोग नहीं करते थे। लेकिन जब सरकारी दस्तावेज में नाम अंकित करने का मौका आया तो यूरी ने एक परिचित गोत्र रूसी भू-वैज्ञानिक का गोत्र नाम अपना लिया और इस तरह "यूरी" यूरी रित्ख्यू हो गए।




यूरी रित्ख्यू का जन्म 8 मार्च 1930 को चुकोत्का की ऊएलेन नामक बस्ती में अल्पसंख्यक शिकारी चुक्ची जनजाति में हुआ। उनके परिवार का मुख्य पेशा रेनडियर पालना था। रेनडियर की खालों से बने तंबू-घर (यारांगा) में जन्मे यूरी रित्ख्यू ने बचपन में शामानों को जादू-टोना करते देखा, सोवियत स्कूल में प्रवेश लेकर रूसी भाषा सीखी, विशाल सोवियत देश के एक छोर से दूसरे छोर की यात्रा करके लेनिनग्राद पहुंचे, उत्तर की जातियों के संकाय में उच्च शिक्षा प्राप्त की और लेखक बने, चुक्ची जनजाति के पहले लेखक। यूरी वह पहले चुक्ची लेखक हैं जिसने हिमाच्छादित, ठंडे, निष्ठुर साइबेरिया प्रदेश की लंबी ध्रुवीय रातों और उत्तरी प्रकाश से दुनिया का परिचय कराया।
अनादिर तकनीकी विद्यालय में पढ़ने के दौरान ही "सोवियत चुकोत्का" पत्रिका में उनकी कविताएं व लेख छपने शुरू हो गए थे। 1949 में लेनिनग्राद स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान उनकी कुछ लघु कथाएं "ओगोन्योक" और "नोवी-मीर" पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। 1953 में उनका पहला लघु कथा-संग्रह "हमारे तट के लोग" सामने आया। 24 साल की उम्र में ही वह सोवियत लेखक संघ के सदस्य बन गए। यूरी या जूरी रित्ख्यू की रचनाओं का अंग्रेजी, जापानी, फ़िनिश, डेनिश, जर्मन और फ़्रैंच आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। "जब व्हेल पलायन करते हैं", "ध्रुवीय कोहरे का एक सपना", "जब बर्फ पिघलती है", "अचेतन मन का आईना" और "अंतिम संख्या की खोज" उनके सर्वोत्तम उपन्यासों में गिने जाते हैं। "जब बर्फ पिघलती है" उपन्यास 20वीं सदी में चुक्ची जनजाति के जीवन में आए वाले बदलावों का लेखा-जोखा है। एक रचनाकार के रूप में यूरी रित्ख्यू पर मैक्सिम गोर्की का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। "जब व्हेल पलायन करते हैं" पर गोर्की की आरंभिक भावुकता की छाप है तो "जब बर्फ पिघलती है" पर गोर्की की उपन्यास त्रयी "मेरा बचपन", "जीवन की राहों में" और "मेरे विश्वविद्यालय" का प्रभाव साफ झलकता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका से प्रकाशित "ध्रुवीय कोहरे का एक सपना" में ध्रुवीय जीवन और प्रकृति का ऐसा हृदयस्पर्शी विवरण है जो दूसरे रचनाकारों की कृतियों में कम ही मिलता है। यूरी की कृतियों में चुक्ची जाति के लोगों के आत्मत्यागी जीवन, कठोर श्रम, उनकी भोली दंत-कथाओं, प्राचीन परंपराओं-धरणाओं के साथ आधुनिकता और 20वीं सदी के विज्ञान एवं संस्कृति के विचि्त्र मिलाप और चुकोत्का के ग्राम्य-जीवन का अत्यंत काव्यमय एवं अभिव्यंजनात्मक भाषा में वर्णन किया गया है। "अंतिम संख्या की खोज" उपन्यास में रित्ख्यू ने खुद को कुछ नए ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है। इस उपन्यास में पश्चिमी संस्कृति, चुक्ची लोगों के भोले विश्वासों और महान बोल्शेविक विचारों का अंतर्द्वंद्व चित्रित है। 1918 में अमंडसेन नामक अन्वेषक का उत्तरी ध्रुव अभियान इस उपन्यास की केंद्रीय घटना है। जहाज के बर्फ में फंसने और जम जाने से अमंडसेन को पूरा कठिन ध्रुवीय शीतकाल वहां के स्थानीय लोगों के साथ बिताने पर मजबूर होना पड़ता है। उसे लगता है कि सदियों पुराने तौर-तरीकों के कारण ध्रुवीय लोगों का सभ्य होना संभव नहीं है। लेकिन "जियो और जीने दो" के अपने दृष्टिकोण की वजह से वह चुक्ची लोगों का विश्वास जीतने में सपफल रहता है। उसी साल लेनिन के महान विचारों से प्रेरित एक बोल्शेविक नौजवान अलेक्जेई पेर्शिन भी वहां पहुंचता है। वह वर्ग-संघर्ष के जरिए चुकोत्का में सोवियत-व्यवस्था की नींव डालना चाहता है। दैनंदिन जीवन संघर्ष से जूझते लोगों पर उसके भाषणों का कम ही असर होता है। वह लोगों को रूसी भाषा सिखाता है और अपनी ही एक शिष्या उमकेन्यू से शादी कर लेता है। उमकेन्यू खुद को उससे भी बड़ी बोल्शेविक दिखाने की कोशिश करती रहती है। उमकेन्यू का अंध पिता गैमिसिन भी बोल्शेविक सपनों की ओर खिंचता है और पेर्शिन के इस वादे पर विश्वास करने लगता है कि एक दिन कोई रूसी डॉक्टर आकर उसे अंधेपन से मुक्त कर देगा।
उपन्यास का केंद्रीय पात्रा चुक्ची शामान (ओझा) कागोट है जो अपने जनजातीय कर्त्तव्यों से विमुख हो चुका है। एक अमरीकी स्कूनर पर काम करते हुए अमंडसेन कागोट को रसोइया रख लेता है। अमंडसेन स्वयं कागोट के कामों की निगरानी करता है और प्रारंभिक नतीजों से खुश होता है। खोजी जहाज पर शामान कागोट व्यक्तिगत स्वच्छता का पाठ पढ़ता है जबकि चुक्ची सर्दियों में नहाते नहीं थे ताकि मैल की परत ध्रुवीय ठंड से उनकी रक्षा करती रहे। कागोट कलेवे के यूरोपियन परंपरा के मुट्ठे बनाने की कला में पारंगत हो जाता है। लेकिन जब उसे गणित का ज्ञान दिया जाता है तो अमंडसेन का प्रयोग गड़बड़ा जाता है। अनन्तता का विचार कागोट की समझ में नहीं आता। वह अंतिम संख्या को जादुई शक्ति का स्रोत समझ बैठता है और उसकी प्राप्ति के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देता है। उसकी अपनी दुनियां तो परिमित थी। हर चीज यहां तक कि आकाश के सितारे भी गिने जा सकते थे बशर्ते कोई हार न माने तो। अमंडसेन के दल द्वारा दी गई कापियों पर वह संख्या पर संख्या लिखता चला जाता है। अंतिम संख्या के लिए इस हठध्रमिता के कारण जब कागोट अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाता है तो अमंडसेन को उसकी मूर्खता का अनुभव होता है और वह शामान कागोट को निकाल बाहर करता है।
वस्तुत: कागोट की हठध्रमिता अमंडसेन से कुछ कम नहीं है जो दुसाध्य उत्तरी ध्रुव तक पहुंचने के प्रयास में नष्ट हो जाता है या पेर्शिन जैसे बोल्शेविकों का अपना परिमित विश्व-दृष्टिकोण जो अंतत: गुलाम और व्यक्ति पूजा की भेंट चढ़ जाता है। अपने इस उपन्यास में रित्ख्यू ने यह भी दिखाया है कि विज्ञान के सर्वग्रासी हमले के आगे चुक्ची संस्कृति अपने अस्तित्व की रक्षा में कितनी असुरक्षित सिद्ध हुई। अपनी सभी कृतियों में लेखक अपने सुदूर अतीत के पूर्वजों की संस्कृति को अपने कथांनक में इस तरह संयोजित करता है कि पाठक उस छोटे-से राष्ट्र की दुर्दशा से अभिभूत हो जाते हैं। वह रित्ख्यू द्वारा वर्णित किसी स्वर्ग का विनाश न होकर जीवन की उस पद्ध्ति की समाप्ति है जिसके द्वारा दुनियां के उस कठोरतम वातावरण में वे लोग अपने को बचा पाने में समर्थ हो सके थे।
यूरी रित्ख्यू की पिछली कृतियां समाजवादी और यर्थाथवादी कही जा सकती हैं। उनमें मुख्यत: सोवियत-व्यवस्था की सपफलताओं का चित्राण ही अधिक है। लेकिन "अंतिम संख्या की खोज" में बोल्शेविक प्रशासन के प्रारंभिक दिनों में चुक्ची समाज की जटिलताओं को ही संतुलित रूप में उकेरा गया है।
रित्ख्यू ने सोवियत-व्यवस्था के समय पूरब से पश्चिम तक संपूर्ण सोवियत संघ की यात्रा की थी। पिछले दशक में उन्होंने अमरीका के अनेक विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिए। बीसियों बार पेरिस की यात्रा की। उष्णकटिबंधीय जंगलों का भ्रमण किया। अनेक साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित यूरी रित्ख्यू की कृतियां सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस में छपनी बंद हो गई थीं। लेकिन यूनियन स्वेलाग नामक स्विट्जरलैंड निवासी प्रकाशक ने जर्मन और दूसरी यूरोपीय भाषाओं में उनकी रचनाओं की ढाई लाख प्रतियां छाप डालीं। इध्र यूरी रित्ख्यू साइबेरिया की अनादिर नदी के किनारे बसे अनादिर कस्बे में रह रहे थे। अनादिर चुकोत्का स्वायत्त क्षेत्रा का प्रशासनिक केंद्र है। रूस के धुर पूर्वी छोर पर बसी इस बस्ती की स्थापना 3 अगस्त 1889 को नोवोमारीइन्स्क के नाम से हुई थी। 5 अगस्त 1923 को इसका नया नाम अनादिर रख दिया गया। 12 जनवरी 1965 को अनादिर को नगर की मान्यता प्राप्त हुई। सोवियत-व्यवस्था में पले-बढ़े चुक्ची जनजाति के इस पहले उपन्यासकार यूरी रित्ख्यू का 20 मई 2008 को देहावसान हो गया। यूरी की गणना आज भी अत्यदधिक प्रसिद्दध व लोकप्रिय सोवियत लेखकों में की जाती है।

Wednesday, April 9, 2008

गुरुदीप खुराना का उपन्यास: उजाले अपने-अपने


मौजूदा समय की पड़ताल करते हुए पूरन चन्द्र जोशी कहते हैं- ''मैंने अपने समय को और उसकी सीमाओं में जिए अपने जीवन को आस्था, अवधारणा और अनुभव के अन्तर्सम्बंध और अन्तर्द्वन्द्व के रूप में महसूस किया है और समझा है, मेरे समय को वैज्ञानिक युग की संज्ञा दी गयी है जिसने हमारे बहिर्जगत में दूरगामी और गम्भीर महत्व के परिवर्तन तो किए हैं, लेकिन हमारे अन्तर्जगत को भी गहराई और विस्तार में उद्वेलित किया और परिवर्तित किया है।"" परिवर्तन की इस दिशा को जानने समझने के लिए गुरुदीप खुराना के रचना संसार की ओर झांके तो सदी के आखरी दशक में शुरू हुए भूमण्डलीकरण की धमक को उनके उपन्यास 'उजाले अपने-अपने" में सुना जा सकता है। इससे पहले प्रकाशित उनके उपन्यास 'बागडोर" ने भी ऐसे ही समय को एक दूसरे कोण से सामने रखा था जिसमें उस नौकरशाही के भ्रष्टतंत्र को निशाना बनाया गया था जो पिछले पचास वर्षों में अपनी जकड़न को मजबूत करती हुई बढ़ी है और आर्थिक नीतियों की दूसरी खेप के रूप में शुरू हुई विनिवेशीकरण की प्रक्रिया को जिसने तार्किकता प्रदान की। विनिवेशीकरण और भूमण्डलीकरण के समानान्तर सस्वर मंत्र गायन से गुंजित होता पूंजी का विभत्स पाठ ही 'उजाले अपने-अपने' की कथा में सुनायी देता है।
इलैक्ट्रानिक्स डिवाईसों से 'ईश्वरीय" तरंगों का प्रक्षेपण और स्टॉक एक्सचेंज रूपी 'ईश्वर" की साक्षात उपस्थिति ने ऐसा दृश्यलोक गढ़ा है जिसने संचार माध्यमों की सामाजिक भूमिका पर भी सवालिया निशान लगाया है।
बेशक उपन्यास ऐसे कोनो की ओर ईशारा नहीं करता लेकिन उसकी पृष्ठभूमि में जो समय है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि लेखक के अवचेतन में समय का यह दबाव ही रचना की शक्ल में उभरा है। समय का यह दबाव ही है जो लेखक को प्रेरित और रचनात्मक रूप से क्रियाशील करता है। 'उजाले अपने-अपने" का कथानक घटना के प्रवाह को उस निश्चित समय के भीतर रखने का प्रयास है जिसमें अध्यात्म और योग साधना के दम पर न सिर्फ बाजार पर कब्जा करने की होड़ जारी है बल्कि धर्म का 'वैज्ञानिक" (?) विश्लेषण करते हुए और एक खास वर्ग (मध्य वर्ग) को वैचारिक रूप से इस लपेट में लेते दौर की कार्यवाही का सिलसिला चालू है।
पूरन चन्द्र जोशी को ही आधार बनाकर कहा जा सकता है कि उपनिवेशवाद ने भारत को 'अध्यात्म प्रधान" और भौतिक जगत को नकारने वाला बताकर इस त्रासदी को और भी गहरा और स्थायी बनाया। अध्यात्म की इस चौधराहट ने जहां धार्मिक पोंगा-पण्डितों के सीने में गुब्बारे फुलाये हैं वहीं भूमण्डलीकरण के आक्रमणों के खिलाफ जन-मानस की लामबंदी में सेंध लगाने का काम भी किया है। साथ ही साथ तीसरी दुनिया (विशेष तौर पर भारत में) के भीतर स्थानीय पूंजी ने विश्व पूंजी के आक्रमण से तात्कालिक बचाव के रूप में भी ऐसे ही कवच को धारण करना शुरु किया है। आये दिन पैदा हो रहे नये-नये चमत्कारिक बाबाओं का उदय स्थानीय पूंजीपति (देशी) की हताशा और निराशा से उपजी स्थितियों का ही परिणाम है।
भूमण्डलीकरण की प्रक्र्रिया ने जहां एक ओर व्यापक जन समुदाय पर प्रहार किया वहीं सीमित पूंजी की लघु औद्योगिक इकाईयों और देशी पूंजीपति को भी ध्वस्त करना शुरू किया है। जीवन मरण का प्रश्न आज पूरी दुनिया के सामने है और दुनियाभर के शासक वर्ग आज विश्व पूंजी के हितों को साधने या उसकी पैरोकारी करने में मशगूल हैं। खुद को बचाये रखने और अपनी पूंजी के संरक्षण के लिए एक अद्द बाजार की आवश्यकता ने भौगोलिक आधार पर बाजार को संगठित करने में अक्षम पाने पर स्थानीय पूंजीपतियों को धर्म के बाजार में बाबाओं के आगे दण्डवत होकर पहुंचने का रास्ता सुझाया है। आये दिन शहर दर शहर सम्मेलनों और प्रवचनों के लिए लगने वाले तम्बूओं को प्रायोजित करते हुए अपने उत्पादों को एक निश्चित लेबल देकर बेचने की उनकी इस तात्कालिक (जो कि वर्तमान दौर के चलते भविष्य में असफल हो जाने वाली है) कोशिश ने बाबाओं की, योगसाधकों की फौज खड़ी कर दी है। योगयाधकों और शरीर सौष्ठव को बनाये रखने वाले नुस्खे बहुराष्ट्रीय निगमों के उत्पादों के लिए भी एक खास तरह का बाजार तैयार करने में सहायक हो रहे हैं।
दृश्य तरंगों ने इलेक्ट्रानिक्स चकाचौध का ऐसा वातावरण बुना है कि सूचना, पुनरुत्थान और किसी भी तरह की चिन्ता से मुक्त एवं पूंजी की चौपड़ में उलझे समाज की कथायें ही चैनलों पर जगह पा रही है। अट्टहास लगाते राक्षस और अवतारों का दृश्यलोक ईश्वर और धर्म की नयी से नयी परिभाषा गढ़ रहा है। ईश्वर और धर्म की इस आधुनिक परिभाषा का पाठ और उसका निषेध ही 'उजाले अपने-अपने" का मूल कथ्य है जिसे उपन्यास की नायिका शीला अवस्थी के मार्फत भी जाना जा सकता है- ''मतलब यह कि जब हमें कुछ दिखायी नहीं देता तो एक अद्द लाठी की जरुरत महसूस होती है, रास्ता टटोलने को। जो जितना डरा हुआ था, घबराया हुआ है उसे उतनी ही ज्यादा जरुरत महसूस होती है इस सहारे की। हर किसी के ईश्वर की धारणा उसकी जरुरत के मुताबिक बनती।''
आधुनिकता की चकाचौंध में भारतीयता की गंध को खोजता 'उजाले अपने-अपन्ो" का कथानक और उसके पात्र कुतुहल पैदा करते हैं। लेकिन भारतीयता के प्रति उनका रूमानी आकर्षण भी यहां देखने को मिलता ही है। आधुनिकता के रंग में घुली मिली सभ्य-सुशील, पतिव्रता, धर्मिक विश्वासों में रमने वाली पारम्परिक भारतीय नारी की छवी ही शीला अवस्थी के व्यक्तित्व की विशेषता है जो काफी हद तक विवेक को भी भाती है।
बावजूद इसके कि भारतीयता की वह शक्ल जिसे शीला अवस्थी प्रस्तुत करना चाहती है और जिसके लिए लगातार प्रयत्नशील है, कथा नायक विवेक की उससे असहमति है। विवेक के व्यवहार में असहमतियों को जाहिर न कर पाने का ठंडापन जरुर अखरने वाला है लेकिन यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शीला अवस्थी का व्यक्तित्व, उसका सौन्दर्य और विवेक के प्रति उसका प्यार भी विवेक को कभी अपने मार्ग से विचलित नहीं कर पाते। हां असहमति को जाहिर न करने का मध्यवर्गीय व्यवहार यहां उसके व्यक्तित्व के कमजोर पक्ष को जरुर उजागर करता है।
आदिल के बेटे के नामकरण वाला प्रसंग हो चाहे स्वंय के विवाह के वक्त पहली बार शीला अवस्थी के साथ घर पहुंचने पर वर-वधु की देहरी पर आरती उतारने और तेल चुहाने की रस्म (बेशक चाहे सादगी से हुई हो) पर विवेक की उससे एक प्रकार की असहमति होते हुए भी वह उसको जाहिर करने कोई जरुरत नहीं समझता। यही वजह है कि जनतांत्रिक-सा दिखने वाला यह प्रेम संबंध जिसमें एक दूसरे की 'स्पेश" में अनाधिकार हस्तक्षेप से बचने का प्रण और उसको निर्वाह करने की ललक, असहमति पर ठंडेपन के कारण बरकरार नहीं रह पाती। शीला अवस्थी का फरमान ''घास पर चलना मना है।"" बावजूद दूसरे की स्पेश में 'एन्क्रोंच" नहीं तो और क्या है? अपनी असहमति को न रख पाने का द्वंद्व ही विवेक को एक प्रकार से आत्म केन्द्रित बनाये देता है, यदि कहीं उसके भीतर का उच्छवास फूटता भी है तो उसमें निराशा और हताशा की अनुगूंज ही सुनायी देती है।
धर्म रूपी 'इन्लाइटमेंट" को बिखेरती शीला अवस्थी की कार्यवाही के विश्लेषण में भी वह अपनी उस समझ तक को नहीं रख पाता जिसको कि वह स्वंय जान रहा होता है- ''आत्म विश्वास की कमी मेन्टल ब्लॉक्स बनाती है- अब चाहे वह गणपति हो या हनुमान या कोई और------" ऐसे ही एकालापों को बड़-बड़ाता विवेक सिंह इस तरह की बहस भी कभी अपनी प्रिया और जीवन संगनी शीला अवस्थी से नहीं कर पाता। ऐसे वक्त पर खिलंदड़ आदिल ही उसका हम सफर होता है- ''यार चलो इन तमाम फिरको और मतों से हटकर एक ऐसी जमात तैयार की जाए जिसमें सिर्फ इंसान हो।"" समाज की मुक्ति धर्म से इतर मनुष्यता की पहचान और उसकी स्थापना पर ही संभव है, जैसे विचार ही विवेक सिंह और आदिल की दोस्ती का कारण है। पर अपने इस विचार को मजबूती के साथ रख पाने में भी वे असमर्थ दिखायी देते हैं।
खास तौर से शीला के सामने तो विवेक एक कमजोर चरित्र ही लगता है जो अपनी सकारात्मकता के बावजूद प्रेरित नहीं कर पाता। शीला अवस्थी विवेक की इस स्थिति से वाकिफ है, तभी तो अपनी बातचीत में वह विवेक को एक सिद्ध पुरुष बनाये हुए है। झूठमूठ की महानता का एक ऐसा आभा मण्डल विवेक सिंह को घ्ोरे हुए है जिसकी धुंध में शीला अवस्थी के कमजोर पक्ष पर उसका कभी ध्यान जा ही नहीं सकता। तमाम आधुनिकता के बावजूद विवेक सिंह की इस चारित्रिक कमजोरी को उसके वर्गीय आधार और पृष्ठभूमि से समझा जा सकता है।
एंथनी गिडेंस के मार्फत अभय कुमार दुबे ने 'वसुधा" के स्त्री विशेषंाक में पूंजीवादी समाज में प्रेम की तीन श्रैणियों की चर्चा की है। प्रेम की इन तीन श्रैणियों को रुमानी प्रेम, उत्कट प्रेम और इयता केंद्रित प्रेम के रूप में व्याख्यायित किया गया है। उनके मतानुसार ये तीनों ही रूप आधुनिकता की देन हैं और पूंजीवादी विकास में तरह-तरह की भूमिकाऐं निभाते दिख सकते हैं।
रोमानी प्रेम आजादी की कामना से जुड़ा हुआ है। यहां पूंजी अपने प्रभुत्व के शुरुआती दौर में उत्पादक शक्तियों के विकास का नियामक होते हुए भी प्रेम को डराती है। यहां प्रेम ऐलान करके कहता है कि वह स्थापित संरचनाओं द्वारा आरोपित रिश्तों को मान्यता नहीं देता। ऐसे प्रेम में दोनों पार्टनर एक दूसरे को स्पेशल समझते हैं और यह स्पेशलिटी उसी समय स्थापित हो जाती है जब पहली बार नजरें चार होती हैं। दोनों एक दूसरे के सामने अपना हृदय खोलते चले जाते हैं। दोनों की इयताऍ मिलकर एक हो जाती है। रोमानी प्रेम की यह घटना अपने प्रारम्भ और परिणाम में अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग ढंग से घटती है। प्रेम की इस संस्कृति में विशिष्ट किस्म का तीव्र और सार्वभौम रूप उत्कट प्रेम है। इस प्रेम में राज सिंहासन त्याग दिये जाते हैं, वर्ग, जाति की सीमाऐं तोड़ दी जाती है और एक दूसरे को पाने के लिए रेडिकल तरीके अख्तियार करने में भी कोई हिचक दिखायी नहीं देती। रोमानी प्रेम में व्यवस्था विरोध के तत्व होते हैं, पर उत्कट प्रेम व्यवस्था को अपने सामने पूरी तरह से झुका देना चाहता है। वह मरने-मारने पर उतारु रहता है। व्यवस्था इन दोनेां प्रेमों की अस्थिरकारी प्रवृति से चौंकती है।पूंजीवादी समाज लगातार एक तीसरी तरह के प्रेम की तलाश करता रहता है। जिसकी सिफारिश करने से उसे किसी जोखिम का सामना न करना पड़े। यह इयता आधारित प्रेम है। इसमें दोनों पक्ष आगा-पीछा सोच-समझ कर प्रेम में पड़ते हैं। पहली नजर में किसी का किसी को भा जाना प्रेम की शुरुआत कर सकता है, इससे मन में प्रेम का विचार पैदा हो सकता है, लेकिन बुद्धिसंगत कसौटियों पर कसने से यह आकर्षण मस्तिष्क द्वारा खारिज भी कर दिया जाता है। इस प्रेम में प्रेमीजन अपने परिवेश को कोई चुनौती नहीं देना चाहते। वे भविष्य, सामाजिक हैसियत, आर्थिक हैसियत और अपनी इयता की पूरी रक्षा का बंदोबस्त करके प्रेम के मैदान में उतरते हैं। यह प्रेम प्रेम-विवाह 'स्वनियोजित" विवाह में बदल जाता है. जिसमें दोनों पक्षों के परिजन भागीदारी करते हैं।
खास बात यह है कि इस प्रेम में दोनों पक्ष अपनी इयता एक दूसरे के समक्ष उतनी ही प्रकट करते हैं जितनी संबंधों को जारी रहने के लिए जरुरत होती है। दोनों किसी न किसी रूप में अपनी प्राइवेसी सुरक्षित रखने का निर्णय ले सकते हैं। कुछ-कुछ इस तीसरे तरह के प्रेम के ही दर्शन 'उजाले अपने-अपने" में हो जाते हैं। कुछ-कुछ इसलिए, क्योकि यह प्रेम जिस भू-खण्ड में पनपा है वहां पूंजीवाद उस अवस्था तक पूरी तरह से तक पहुंचा ही नहीं है, जिसके आधार पर गिडेंस ने व्याख्या की है।
चूंकि यह दौर भूमण्डलीकरण का दौर है जिसने आर्थिक मोर्चे पर तो तीसरी दुनिया को तोड़ा ही है साथ ही सांस्कृतिक स्तर पर भी घुसपैठ की है। यही वजह है कि इयता आधारित प्रेम की वे सारी शर्ते विवेक और शीला के प्रेम में लागू हो ही नहीं पाती। यानी शाश्वत प्रेम के आग्रह से मुक्त रहने वाला इयता प्रेम 'उजाले अपने-अपने" में शावत्ता के रुप को ही पकड़ने के लिए उत्सुक दिखायी देता है। यही वजह है कि 'मिलन और तलाक" की परिघटना वाला समाज हम यहां नहीं देख पाते बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी संबंधों में आरम्भिक दौर का उत्तेजक आकर्षण ठंडेपन के साथ ता उम्र कायम रहता है। साथ ही रुमानियत की जगह असहमतियों को जाहिर न कर पाने वाले ठंडेपन का वातावरण अपने-अपने स्पेश में सुरक्षित बने रहने देने का अहसास देने के लिए कुछ हल्की-फुल्की चुहलबाजी (ह्यूमर) के रूप में दिखायी देता है।
निश्चित तौर पर यह सच है कि वैश्वीकरण के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई का एक मजबूत प्ाक्ष राष्ट्रीयता का उभार हो सकता है। यहां एक बार फिर पूरन चन्द जोशी को ही आधार बना कर कहा जा सकता है- ''औपनिवेशिक युग में स्थानीयता की आशा और राष्ट्रीयता की धारा एक दूसरे की पूरक बन कर उभरी। आज वह एक दूसरे की विरोधी बन कर क्यों उभर रही है। साथ ही स्थानीयता का उभार क्यो पुनरुत्थानवादी शक्तियों को मद्द दे रहा है। विकासमान प्रगतिशील शक्तियों को नहीं।"
इस जवाब को यदि गुरुदीप खुराना के उपन्यास से खोजना चाहे तो पीढ़ी दर पीढ़ी भारतीयता की पहचान के लिए दौड़ते उस वर्ग पर निगाह जाना स्वाभाविक है जिसका प्रतिनिधित्व उपन्यास के पात्र करते हैं। तो पाते है कि गणेश और दैविय बिम्बों में अटका यह वर्ग भारतीयता की उस सीमित परिभाषा से एक हद प्रभावित दिखायी देता है जो पुनरुत्थानवादी शक्तियों को मद्द पहुंचाने वाली है, भारतीयता की वह परिभाषा जो श्रमजीवी और शिल्पी समुदाय की रचनात्मक क्रियाशीलता को ही सांस्कृतिक पहचान के रूप में देखती है, से इस वर्ग का कोइ परिचय दिखायी नहीं देता। विवेक और शीला का व्यक्तित्व भी ऐसी ही पृष्ठभूमि में गढ़ा गया है। यही वजह है कि ऊपरी तौर पर दो अलग धराओं का प्रतिनिधित्व करते यह दोनों पात्र कहीं न कहीं एक अन्तर्धारा के साथ हैं। जहां शीला भारतीय संस्कृति को सिर्फ हिन्दू संस्कृति तक सीमित करना चाहती है वही विवेक अपने प्रगतिशील विचार के लिए सचेत रूप से क्रियाशील होने की बजाय नितांत व्यक्तिगत बना रहता है. उसकी निष्क्रियता का आलम यह है कि घर में क्या-क्या तब्दीलियां हो रही हैं इससे उसे कोई दिलचस्पी नहीं। वह अपने रंगों में ही मस्त रहना चाहता है। विवेक परिणति को अवस्थी सहाब के उस रुप में देखना लाजिमी हो जाता है जहां अवस्थी सहाब स्वंय और उनकी शौर्य गाथाऐं महफिलों का किस्सा भर है। कहा जा सकता है कि मौजूदा समय की संगति में रचे गये 'उजाले अपने-अपने" का यह एक पाठ है जबकि इसकी प्रासंगिकता की पड़ताल के लिए इसके अन्य पाठ भी संभव है।

पुस्तक: उजाले अपने अपने
लेखक: गुरुदीप खुराना
प्रकाशक: मेधा प्रकाशन, नई दिल्ली।