Wednesday, April 9, 2008

गुरुदीप खुराना का उपन्यास: उजाले अपने-अपने


मौजूदा समय की पड़ताल करते हुए पूरन चन्द्र जोशी कहते हैं- ''मैंने अपने समय को और उसकी सीमाओं में जिए अपने जीवन को आस्था, अवधारणा और अनुभव के अन्तर्सम्बंध और अन्तर्द्वन्द्व के रूप में महसूस किया है और समझा है, मेरे समय को वैज्ञानिक युग की संज्ञा दी गयी है जिसने हमारे बहिर्जगत में दूरगामी और गम्भीर महत्व के परिवर्तन तो किए हैं, लेकिन हमारे अन्तर्जगत को भी गहराई और विस्तार में उद्वेलित किया और परिवर्तित किया है।"" परिवर्तन की इस दिशा को जानने समझने के लिए गुरुदीप खुराना के रचना संसार की ओर झांके तो सदी के आखरी दशक में शुरू हुए भूमण्डलीकरण की धमक को उनके उपन्यास 'उजाले अपने-अपने" में सुना जा सकता है। इससे पहले प्रकाशित उनके उपन्यास 'बागडोर" ने भी ऐसे ही समय को एक दूसरे कोण से सामने रखा था जिसमें उस नौकरशाही के भ्रष्टतंत्र को निशाना बनाया गया था जो पिछले पचास वर्षों में अपनी जकड़न को मजबूत करती हुई बढ़ी है और आर्थिक नीतियों की दूसरी खेप के रूप में शुरू हुई विनिवेशीकरण की प्रक्रिया को जिसने तार्किकता प्रदान की। विनिवेशीकरण और भूमण्डलीकरण के समानान्तर सस्वर मंत्र गायन से गुंजित होता पूंजी का विभत्स पाठ ही 'उजाले अपने-अपने' की कथा में सुनायी देता है।
इलैक्ट्रानिक्स डिवाईसों से 'ईश्वरीय" तरंगों का प्रक्षेपण और स्टॉक एक्सचेंज रूपी 'ईश्वर" की साक्षात उपस्थिति ने ऐसा दृश्यलोक गढ़ा है जिसने संचार माध्यमों की सामाजिक भूमिका पर भी सवालिया निशान लगाया है।
बेशक उपन्यास ऐसे कोनो की ओर ईशारा नहीं करता लेकिन उसकी पृष्ठभूमि में जो समय है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि लेखक के अवचेतन में समय का यह दबाव ही रचना की शक्ल में उभरा है। समय का यह दबाव ही है जो लेखक को प्रेरित और रचनात्मक रूप से क्रियाशील करता है। 'उजाले अपने-अपने" का कथानक घटना के प्रवाह को उस निश्चित समय के भीतर रखने का प्रयास है जिसमें अध्यात्म और योग साधना के दम पर न सिर्फ बाजार पर कब्जा करने की होड़ जारी है बल्कि धर्म का 'वैज्ञानिक" (?) विश्लेषण करते हुए और एक खास वर्ग (मध्य वर्ग) को वैचारिक रूप से इस लपेट में लेते दौर की कार्यवाही का सिलसिला चालू है।
पूरन चन्द्र जोशी को ही आधार बनाकर कहा जा सकता है कि उपनिवेशवाद ने भारत को 'अध्यात्म प्रधान" और भौतिक जगत को नकारने वाला बताकर इस त्रासदी को और भी गहरा और स्थायी बनाया। अध्यात्म की इस चौधराहट ने जहां धार्मिक पोंगा-पण्डितों के सीने में गुब्बारे फुलाये हैं वहीं भूमण्डलीकरण के आक्रमणों के खिलाफ जन-मानस की लामबंदी में सेंध लगाने का काम भी किया है। साथ ही साथ तीसरी दुनिया (विशेष तौर पर भारत में) के भीतर स्थानीय पूंजी ने विश्व पूंजी के आक्रमण से तात्कालिक बचाव के रूप में भी ऐसे ही कवच को धारण करना शुरु किया है। आये दिन पैदा हो रहे नये-नये चमत्कारिक बाबाओं का उदय स्थानीय पूंजीपति (देशी) की हताशा और निराशा से उपजी स्थितियों का ही परिणाम है।
भूमण्डलीकरण की प्रक्र्रिया ने जहां एक ओर व्यापक जन समुदाय पर प्रहार किया वहीं सीमित पूंजी की लघु औद्योगिक इकाईयों और देशी पूंजीपति को भी ध्वस्त करना शुरू किया है। जीवन मरण का प्रश्न आज पूरी दुनिया के सामने है और दुनियाभर के शासक वर्ग आज विश्व पूंजी के हितों को साधने या उसकी पैरोकारी करने में मशगूल हैं। खुद को बचाये रखने और अपनी पूंजी के संरक्षण के लिए एक अद्द बाजार की आवश्यकता ने भौगोलिक आधार पर बाजार को संगठित करने में अक्षम पाने पर स्थानीय पूंजीपतियों को धर्म के बाजार में बाबाओं के आगे दण्डवत होकर पहुंचने का रास्ता सुझाया है। आये दिन शहर दर शहर सम्मेलनों और प्रवचनों के लिए लगने वाले तम्बूओं को प्रायोजित करते हुए अपने उत्पादों को एक निश्चित लेबल देकर बेचने की उनकी इस तात्कालिक (जो कि वर्तमान दौर के चलते भविष्य में असफल हो जाने वाली है) कोशिश ने बाबाओं की, योगसाधकों की फौज खड़ी कर दी है। योगयाधकों और शरीर सौष्ठव को बनाये रखने वाले नुस्खे बहुराष्ट्रीय निगमों के उत्पादों के लिए भी एक खास तरह का बाजार तैयार करने में सहायक हो रहे हैं।
दृश्य तरंगों ने इलेक्ट्रानिक्स चकाचौध का ऐसा वातावरण बुना है कि सूचना, पुनरुत्थान और किसी भी तरह की चिन्ता से मुक्त एवं पूंजी की चौपड़ में उलझे समाज की कथायें ही चैनलों पर जगह पा रही है। अट्टहास लगाते राक्षस और अवतारों का दृश्यलोक ईश्वर और धर्म की नयी से नयी परिभाषा गढ़ रहा है। ईश्वर और धर्म की इस आधुनिक परिभाषा का पाठ और उसका निषेध ही 'उजाले अपने-अपने" का मूल कथ्य है जिसे उपन्यास की नायिका शीला अवस्थी के मार्फत भी जाना जा सकता है- ''मतलब यह कि जब हमें कुछ दिखायी नहीं देता तो एक अद्द लाठी की जरुरत महसूस होती है, रास्ता टटोलने को। जो जितना डरा हुआ था, घबराया हुआ है उसे उतनी ही ज्यादा जरुरत महसूस होती है इस सहारे की। हर किसी के ईश्वर की धारणा उसकी जरुरत के मुताबिक बनती।''
आधुनिकता की चकाचौंध में भारतीयता की गंध को खोजता 'उजाले अपने-अपन्ो" का कथानक और उसके पात्र कुतुहल पैदा करते हैं। लेकिन भारतीयता के प्रति उनका रूमानी आकर्षण भी यहां देखने को मिलता ही है। आधुनिकता के रंग में घुली मिली सभ्य-सुशील, पतिव्रता, धर्मिक विश्वासों में रमने वाली पारम्परिक भारतीय नारी की छवी ही शीला अवस्थी के व्यक्तित्व की विशेषता है जो काफी हद तक विवेक को भी भाती है।
बावजूद इसके कि भारतीयता की वह शक्ल जिसे शीला अवस्थी प्रस्तुत करना चाहती है और जिसके लिए लगातार प्रयत्नशील है, कथा नायक विवेक की उससे असहमति है। विवेक के व्यवहार में असहमतियों को जाहिर न कर पाने का ठंडापन जरुर अखरने वाला है लेकिन यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शीला अवस्थी का व्यक्तित्व, उसका सौन्दर्य और विवेक के प्रति उसका प्यार भी विवेक को कभी अपने मार्ग से विचलित नहीं कर पाते। हां असहमति को जाहिर न करने का मध्यवर्गीय व्यवहार यहां उसके व्यक्तित्व के कमजोर पक्ष को जरुर उजागर करता है।
आदिल के बेटे के नामकरण वाला प्रसंग हो चाहे स्वंय के विवाह के वक्त पहली बार शीला अवस्थी के साथ घर पहुंचने पर वर-वधु की देहरी पर आरती उतारने और तेल चुहाने की रस्म (बेशक चाहे सादगी से हुई हो) पर विवेक की उससे एक प्रकार की असहमति होते हुए भी वह उसको जाहिर करने कोई जरुरत नहीं समझता। यही वजह है कि जनतांत्रिक-सा दिखने वाला यह प्रेम संबंध जिसमें एक दूसरे की 'स्पेश" में अनाधिकार हस्तक्षेप से बचने का प्रण और उसको निर्वाह करने की ललक, असहमति पर ठंडेपन के कारण बरकरार नहीं रह पाती। शीला अवस्थी का फरमान ''घास पर चलना मना है।"" बावजूद दूसरे की स्पेश में 'एन्क्रोंच" नहीं तो और क्या है? अपनी असहमति को न रख पाने का द्वंद्व ही विवेक को एक प्रकार से आत्म केन्द्रित बनाये देता है, यदि कहीं उसके भीतर का उच्छवास फूटता भी है तो उसमें निराशा और हताशा की अनुगूंज ही सुनायी देती है।
धर्म रूपी 'इन्लाइटमेंट" को बिखेरती शीला अवस्थी की कार्यवाही के विश्लेषण में भी वह अपनी उस समझ तक को नहीं रख पाता जिसको कि वह स्वंय जान रहा होता है- ''आत्म विश्वास की कमी मेन्टल ब्लॉक्स बनाती है- अब चाहे वह गणपति हो या हनुमान या कोई और------" ऐसे ही एकालापों को बड़-बड़ाता विवेक सिंह इस तरह की बहस भी कभी अपनी प्रिया और जीवन संगनी शीला अवस्थी से नहीं कर पाता। ऐसे वक्त पर खिलंदड़ आदिल ही उसका हम सफर होता है- ''यार चलो इन तमाम फिरको और मतों से हटकर एक ऐसी जमात तैयार की जाए जिसमें सिर्फ इंसान हो।"" समाज की मुक्ति धर्म से इतर मनुष्यता की पहचान और उसकी स्थापना पर ही संभव है, जैसे विचार ही विवेक सिंह और आदिल की दोस्ती का कारण है। पर अपने इस विचार को मजबूती के साथ रख पाने में भी वे असमर्थ दिखायी देते हैं।
खास तौर से शीला के सामने तो विवेक एक कमजोर चरित्र ही लगता है जो अपनी सकारात्मकता के बावजूद प्रेरित नहीं कर पाता। शीला अवस्थी विवेक की इस स्थिति से वाकिफ है, तभी तो अपनी बातचीत में वह विवेक को एक सिद्ध पुरुष बनाये हुए है। झूठमूठ की महानता का एक ऐसा आभा मण्डल विवेक सिंह को घ्ोरे हुए है जिसकी धुंध में शीला अवस्थी के कमजोर पक्ष पर उसका कभी ध्यान जा ही नहीं सकता। तमाम आधुनिकता के बावजूद विवेक सिंह की इस चारित्रिक कमजोरी को उसके वर्गीय आधार और पृष्ठभूमि से समझा जा सकता है।
एंथनी गिडेंस के मार्फत अभय कुमार दुबे ने 'वसुधा" के स्त्री विशेषंाक में पूंजीवादी समाज में प्रेम की तीन श्रैणियों की चर्चा की है। प्रेम की इन तीन श्रैणियों को रुमानी प्रेम, उत्कट प्रेम और इयता केंद्रित प्रेम के रूप में व्याख्यायित किया गया है। उनके मतानुसार ये तीनों ही रूप आधुनिकता की देन हैं और पूंजीवादी विकास में तरह-तरह की भूमिकाऐं निभाते दिख सकते हैं।
रोमानी प्रेम आजादी की कामना से जुड़ा हुआ है। यहां पूंजी अपने प्रभुत्व के शुरुआती दौर में उत्पादक शक्तियों के विकास का नियामक होते हुए भी प्रेम को डराती है। यहां प्रेम ऐलान करके कहता है कि वह स्थापित संरचनाओं द्वारा आरोपित रिश्तों को मान्यता नहीं देता। ऐसे प्रेम में दोनों पार्टनर एक दूसरे को स्पेशल समझते हैं और यह स्पेशलिटी उसी समय स्थापित हो जाती है जब पहली बार नजरें चार होती हैं। दोनों एक दूसरे के सामने अपना हृदय खोलते चले जाते हैं। दोनों की इयताऍ मिलकर एक हो जाती है। रोमानी प्रेम की यह घटना अपने प्रारम्भ और परिणाम में अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग ढंग से घटती है। प्रेम की इस संस्कृति में विशिष्ट किस्म का तीव्र और सार्वभौम रूप उत्कट प्रेम है। इस प्रेम में राज सिंहासन त्याग दिये जाते हैं, वर्ग, जाति की सीमाऐं तोड़ दी जाती है और एक दूसरे को पाने के लिए रेडिकल तरीके अख्तियार करने में भी कोई हिचक दिखायी नहीं देती। रोमानी प्रेम में व्यवस्था विरोध के तत्व होते हैं, पर उत्कट प्रेम व्यवस्था को अपने सामने पूरी तरह से झुका देना चाहता है। वह मरने-मारने पर उतारु रहता है। व्यवस्था इन दोनेां प्रेमों की अस्थिरकारी प्रवृति से चौंकती है।पूंजीवादी समाज लगातार एक तीसरी तरह के प्रेम की तलाश करता रहता है। जिसकी सिफारिश करने से उसे किसी जोखिम का सामना न करना पड़े। यह इयता आधारित प्रेम है। इसमें दोनों पक्ष आगा-पीछा सोच-समझ कर प्रेम में पड़ते हैं। पहली नजर में किसी का किसी को भा जाना प्रेम की शुरुआत कर सकता है, इससे मन में प्रेम का विचार पैदा हो सकता है, लेकिन बुद्धिसंगत कसौटियों पर कसने से यह आकर्षण मस्तिष्क द्वारा खारिज भी कर दिया जाता है। इस प्रेम में प्रेमीजन अपने परिवेश को कोई चुनौती नहीं देना चाहते। वे भविष्य, सामाजिक हैसियत, आर्थिक हैसियत और अपनी इयता की पूरी रक्षा का बंदोबस्त करके प्रेम के मैदान में उतरते हैं। यह प्रेम प्रेम-विवाह 'स्वनियोजित" विवाह में बदल जाता है. जिसमें दोनों पक्षों के परिजन भागीदारी करते हैं।
खास बात यह है कि इस प्रेम में दोनों पक्ष अपनी इयता एक दूसरे के समक्ष उतनी ही प्रकट करते हैं जितनी संबंधों को जारी रहने के लिए जरुरत होती है। दोनों किसी न किसी रूप में अपनी प्राइवेसी सुरक्षित रखने का निर्णय ले सकते हैं। कुछ-कुछ इस तीसरे तरह के प्रेम के ही दर्शन 'उजाले अपने-अपने" में हो जाते हैं। कुछ-कुछ इसलिए, क्योकि यह प्रेम जिस भू-खण्ड में पनपा है वहां पूंजीवाद उस अवस्था तक पूरी तरह से तक पहुंचा ही नहीं है, जिसके आधार पर गिडेंस ने व्याख्या की है।
चूंकि यह दौर भूमण्डलीकरण का दौर है जिसने आर्थिक मोर्चे पर तो तीसरी दुनिया को तोड़ा ही है साथ ही सांस्कृतिक स्तर पर भी घुसपैठ की है। यही वजह है कि इयता आधारित प्रेम की वे सारी शर्ते विवेक और शीला के प्रेम में लागू हो ही नहीं पाती। यानी शाश्वत प्रेम के आग्रह से मुक्त रहने वाला इयता प्रेम 'उजाले अपने-अपने" में शावत्ता के रुप को ही पकड़ने के लिए उत्सुक दिखायी देता है। यही वजह है कि 'मिलन और तलाक" की परिघटना वाला समाज हम यहां नहीं देख पाते बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी संबंधों में आरम्भिक दौर का उत्तेजक आकर्षण ठंडेपन के साथ ता उम्र कायम रहता है। साथ ही रुमानियत की जगह असहमतियों को जाहिर न कर पाने वाले ठंडेपन का वातावरण अपने-अपने स्पेश में सुरक्षित बने रहने देने का अहसास देने के लिए कुछ हल्की-फुल्की चुहलबाजी (ह्यूमर) के रूप में दिखायी देता है।
निश्चित तौर पर यह सच है कि वैश्वीकरण के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई का एक मजबूत प्ाक्ष राष्ट्रीयता का उभार हो सकता है। यहां एक बार फिर पूरन चन्द जोशी को ही आधार बना कर कहा जा सकता है- ''औपनिवेशिक युग में स्थानीयता की आशा और राष्ट्रीयता की धारा एक दूसरे की पूरक बन कर उभरी। आज वह एक दूसरे की विरोधी बन कर क्यों उभर रही है। साथ ही स्थानीयता का उभार क्यो पुनरुत्थानवादी शक्तियों को मद्द दे रहा है। विकासमान प्रगतिशील शक्तियों को नहीं।"
इस जवाब को यदि गुरुदीप खुराना के उपन्यास से खोजना चाहे तो पीढ़ी दर पीढ़ी भारतीयता की पहचान के लिए दौड़ते उस वर्ग पर निगाह जाना स्वाभाविक है जिसका प्रतिनिधित्व उपन्यास के पात्र करते हैं। तो पाते है कि गणेश और दैविय बिम्बों में अटका यह वर्ग भारतीयता की उस सीमित परिभाषा से एक हद प्रभावित दिखायी देता है जो पुनरुत्थानवादी शक्तियों को मद्द पहुंचाने वाली है, भारतीयता की वह परिभाषा जो श्रमजीवी और शिल्पी समुदाय की रचनात्मक क्रियाशीलता को ही सांस्कृतिक पहचान के रूप में देखती है, से इस वर्ग का कोइ परिचय दिखायी नहीं देता। विवेक और शीला का व्यक्तित्व भी ऐसी ही पृष्ठभूमि में गढ़ा गया है। यही वजह है कि ऊपरी तौर पर दो अलग धराओं का प्रतिनिधित्व करते यह दोनों पात्र कहीं न कहीं एक अन्तर्धारा के साथ हैं। जहां शीला भारतीय संस्कृति को सिर्फ हिन्दू संस्कृति तक सीमित करना चाहती है वही विवेक अपने प्रगतिशील विचार के लिए सचेत रूप से क्रियाशील होने की बजाय नितांत व्यक्तिगत बना रहता है. उसकी निष्क्रियता का आलम यह है कि घर में क्या-क्या तब्दीलियां हो रही हैं इससे उसे कोई दिलचस्पी नहीं। वह अपने रंगों में ही मस्त रहना चाहता है। विवेक परिणति को अवस्थी सहाब के उस रुप में देखना लाजिमी हो जाता है जहां अवस्थी सहाब स्वंय और उनकी शौर्य गाथाऐं महफिलों का किस्सा भर है। कहा जा सकता है कि मौजूदा समय की संगति में रचे गये 'उजाले अपने-अपने" का यह एक पाठ है जबकि इसकी प्रासंगिकता की पड़ताल के लिए इसके अन्य पाठ भी संभव है।

पुस्तक: उजाले अपने अपने
लेखक: गुरुदीप खुराना
प्रकाशक: मेधा प्रकाशन, नई दिल्ली।

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