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Saturday, September 20, 2008

उसे रवि शंकर का कैसेट चाहिए

हमारे दौर की महत्वपूर्ण लेखिका, जिन्होंने अपने लेखन से हिन्दी जगत में स्त्री विमर्श की धारा को एक खास मुकाम तक पहुंचाने मे पहलकदमी की, प्रभा खेतान, कल रात हृदय आघात के कारण हमसे विदा हो गयी हैं। यह खबर कवि एकांत श्रीवास्तव के मार्फत मिली है। प्रभा जी को याद करते हुए इतना ही कह पा रहा हूं कि उनके लेखन ने मुझे काफी हद तक प्रभावित किया है। युवा कथाकार नवीन नैथानी भी अपनी प्रिय लेखिका को याद कर रहे हैं -

उनका लिखा छिनमस्त्ता याद है, उसे रवि शंकर का कैसेट चाहिए भी एक यादगार रचना है। हंस के प्रकाशन के साथ ही प्रभा खेतान हिन्दी के प्रबुद्ध घराने में अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दिखा चुकी थीं। सार्त्र : शब्दों का मसीहा संभवत: हिन्दी में अस्तित्ववाद पर पहला गम्भीर एकेडमिक ग्रन्थ है। स्त्री उपेक्षिता के द्वारा तो प्रभा खेतान हिन्दी जगत में फेमिनिज़म की बहस को बहुत मजबूत डगर पर ले आयीं। उनकी आत्मकथा भी अपने बेबाक कहन के लिए हमेशा याद की जायेगी। उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजली। -नवीन नैथानी



दलित धारा के चर्चित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्म्रतियों में कुछ ऐसे दर्ज हैं प्रभा खेतान :

प्रभा खेतान के दु:खद निधन के समाचार से एक पल के लिए तो मैं अवाक रह गया था। एक लेखिका के तौर पर छिनमस्ता या फिर अहिल्या जैसी रचनाओं की लेखिका और सिमोन की पुस्तक The Second Sex को हिन्दी में प्रस्तुत करने वाली लेखिका का अचानक हमारे बीच से चले जाना, एक तकलीफदेह घटना है। एक रचनाकार से ज्यादा मुझे उनका व्यक्तित्व हमेशा आकर्षित करता रहा। उनकी आत्मकथा अनन्या--- के माध्यम से एक ऐसी महिला से परिचय होता है जो परंपरावादी समाज से विद्राह करके अपने जीवन को अपने ही ढंग से जीती है और सामाजिक नैतिकताओं के खोखले आडम्बरों को उतार फेंकने में देर नहीं करती। अपने ही बल बूते पर एक बड़ा बिजनैश खड़ा करती हैं, प्रभा खेतान का यह रूप मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा। वे अहिल्या की तरह शापित जीवन नहीं जीना चाहती थी। बल्कि मानवीय स्वतंत्रता की पक्षधर बनकर खड़ा होना, उनके जीवन का एक अहम हिस्सा था। यह उनकी रचनाओं में दृष्टिगाचर होता है और जीवन में भी। यानि कहीं भी कुछ ऐसा नहीं जिसे छिपा कर रखा जाये या फिर उस पर शर्मिंदा होना पड़े। प्रभा खेतान सिर्फ एक बड़ी रचनाकार ही न हीं एक बेहतर इन्सान के रूप में भी सामने आती हैं।
वे एक खाते-पीते समपन्न परिवार से थी। लेकिन जिस तरह से वे अपना जीवन जी उसमें कहीं भी इसकी झलक दिखायी नहीं देती। जिस समय हंस में छिनमस्ता धारावाहिक के रूप में छप रहा था, वह हिन्दी पाठकों के लिए एक अलग अनुभव लेकर आया था। प्रभा खेतान के अपने अनुभव और पारिवारिक सन्दर्भ इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में स्पष्ट दिखायी दे रहे थे, जो आगे चलकर उनकी आत्मकथा में भी दिखायी दिये। एक स्त्री के मन की आंतरिक उलझनों, वेदनाओं की अभिव्यक्ति जिस रूप्ा में प्रभा खेतान की रचनाओं से सामने आयी वह अपने आप में उल्लेखनीय हैं। सबसे ज्यादा वह इतना पारदर्शिता के साथ अभिव्यक्त हुआ कि हिन्दी पाठकों को अविश्वसनीय तक लगता है। क्योंकि हिन्दी पाठक की अभिरूचि में यह सब अकल्पनीय था। जीवन की गुत्थियों को कोई लेखिका इस रूप में भी प्रस्तुत कर सकती है, इसका विश्वास हिन्दी पाठक नहीं कर पा रहा था। ऐसी लेखिका और एक अच्छी इन्सान का इस तरह चुपके से चले जाना, दुखद है। अविश्वसनीय भी। मेरे लिए प्रभा खेतान की स्मृतियां कभी शेष नहीं होंगी।।। क्योंकि उनकी स्मृतियां, उनके अनुभव, उनकी रचना धर्मिता हमारे पास है, जो हमेशा रहेगी।


-ओमप्रकाश वाल्मीकि

Friday, May 23, 2008

टीआरपी और भाषा

(टीआरपी का भाषा से क्या लेना देना है ? यह सवाल कई दिनों से कोंध रहा है। ब्लाग की दुनिया भी क्या टीआरपी की दुनिया है? टीआरपी बढ़ानी है तो जो कुछ लिखा जाये क्या उसमें भाषा भी कोई भूमिका निभा सकती है ? यदि नहीं तो फिर एक स्वस्थ बहस की बजाय व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप की भाषा में एक झूठा विवाद क्यों खड़ा हो जाता है। बहस बेशक उत्तेजक हो लेकिन तार्किक परिणिति तो होनी ही चाहिए।

भाषा को लेकर मोहल्ले में चल रही बहस शायद समाप्त हो चुकी है। शायद इसलिए कि आज जो पोस्ट लगी है पिछले कुछ दिनों पहले शुरु हुई बहस की झलक उसमें दिखायी नहीं देती। अब यह तो मोहल्ले वाले ही बता सकते हैं कि बहस समाप्त हुई या स्थगित!

वैसे जिस तरह से बहस शुरु हुई थी उम्मीद की जा सकती थी कि कुछ ऐसे प्रश्न उठेगें और उन पर गम्भीरता से विचार भी होगा जो समकालीन दुनिया के पेचोखम को भाषा के माध्यम से खोल पाये। लेकिन जैसे जैसे बहस आगे बढ़ी तो दिखायी देता रहा कि नितांत व्यक्तिगत किस्म के आरोप और प्रत्यारोपो का सिलसिला शुरु हो चुका है।
हलांकि बहस में शामिल दोनों ही रचनाकारों ने शुरुआती दौर में एक संतुलित बातचीत को आगे बढाया था। पर बहुमत के रुप में समर्थकों की भीड़ के हमले आरम्भ से ही इतने तीखे और पैने थे कि बहस में शामिल रचनाकार भी एक हद तक उससे उद्वेलित (कुछ कुछ उत्तेजित भी) हो ही गये। अच्छा ही हुआ जो बहस को रोक कर आज मोहल्ले पर कुछ अलग पोस्ट किया गया। वैसे एक स्वस्थ बहस की निश्चित ही जरुरत है। खास तोर पर ऐसे मुद्दों पर जिनकी उपस्थिति बहुत इकहरी नहीं है।
अपने इतिहास में भी और समकालीन दुनिया में भी भाषा का मसला ऐसा ही एक विषय जो उतना इकहरा नहीं कि तुरत फुरत में किन्हीं नतीजों पर पहुंचा जा सके।
भाषा के सवाल पर दलित धारा के रचनाकार ओमप्राकद्ग्रा वाल्मीकि का एक आलेख यहां प्रस्तुत है। यह आलेख पिछले दो आलेखों (वरवर राव और नवीन नैथानी )का ही विस्तार है। माहोल्ले पर चली भाषा सम्बंधी बहस के प्रश्न भी इसमें स्वभाविक रुप से आये ही हैं। यह अलग बात है कि आलेख हमारे अनुरोध पर लिखा गया और मोहल्ले की बहस से ओम प्रकाश वाल्मीकि अपरिचित नही हैं। वसुधा के 1857 पर केन्द्रित अंक में ओमप्रकाश वाल्मीकि के प्रकाशित आलेख में इसकी हल्की झलक पाठक अलग से देख सकते हैं।
कोशिश रहनी चाहिए कि टीआरपी को ध्यान में न रखते हुए भाषा की सादगी को बचाया जा सके। इस सवाल के साथ ही भाषा पर विमर्श जारी रखने का प्रयास किया जा रहा है। भाषा के सवाल पर कवि वरवर राव के वक्तव्य के विस्तार में कथाकार नवीन नैथानी की प्रतिक्रिया के बाद हमें दो और आलेख प्राप्त हुए है। दलित धारा के रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि और युवा रचनाकार चंद्रिका ने हमारे अनुरोध पर जिन्हें लिखा है। चंद्रिका का आलेख आगे प्रस्तुत किया जायेगा। )


ओमप्रकाश वाल्मीकि - 094123319034, opvalmiki@yahoo.com

भारत में भाषा का मसला काफी गंभीर है। यहां एक ही राज्य में कई बोलियां है, जिन्हें भले ही हिन्दी या उस राज्य की विशेष भाषा का अंग माने। लेकिन इन बोलियों का अपना अस्तित्व है, अपनी सांस्कृतिक महत्ता है जिसे भाषा-विमर्श में अनदेखा नहीं कर सकते हैं।
हिन्दी राजभाषा कही जाती है लेकिन वर्चस्व अंग्रेजी का कायम है। ऐसा पहली बार हुआ है कि साधारण जन भाषा राजभाषा बनी है।

अभी तक राजसत्ता की भाषा को नीचे की ओर लाया जाता था। यानि राजसत्ता या उच्चवर्ग की भाषा ही राजभाषा राजभाषा होती थी। वह चाहे संस्कृत हो, फारसी या अंग्रेजी हो। सभी उच्चवर्ग की या सत्ताधारियों की भाषा रही है। कालिदास के साहित्य में राजा, ब्राहमण ही संस्कृत बोलते हैं। स्त्रियां, कर्मचारी, सैनिक, दास-दासियां प्राकृत बोलते हैं।
1857 के बाद भाषा को लेकर जो भी माहौल बना उसने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया है। इसके तथ्य साहित्य में मौजूद हैं।
नव जागरण के उस दोर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का श्रेय धार्मिक संस्थाओं को जाता है। डा। जगन्नाथ प्रसाद ने अपनी पुस्तक हिन्दी गद्य शैली का विकास में लिखा है - 'आर्य समाज के तत्कालीन धार्मिक एवं सांस्कृतिक आंदोलन के प्रसार के निमित जो व्याख्यानों और वक्ताओं की धूम मची, उससे हिन्दी गद्य को प्रोत्साहन मिला। दयानन्द ने राष्ट्रीयता के लिए हिन्दी की महत्ता को प्रतिपादित किया था। उन्होंने एक पत्र में लिखा था - 'मेरी आंखें उस दिन को देखने के लिए तरस रही हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब एक भाषा समझने और बोलने लगेगें।'
उत्तर पश्चिम भारत में आर्य समाज की भूमिका भी संदिग्ध मानी जा रही थी। रामगोपाल अपनी पुस्तक स्वतंत्रता पूर्व हिन्दी के संघर्ष का इतिहास में जिसे हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने प्रकाशित किया था, लिखते हैं - 'आर्य समाज की गणना भी वैमनस्य तथा विवादोत्पादक संस्थाओं में की जाती थी, उसे एक ओर मुसलमान अपना शत्रु समझते थे, तो दूसरी ओर हिन्दुओं का एक भाग प्राचीन हिन्दु धर्म को विकृत करने वाला घोषित करता था। संयोग से इन सभी विरोधात्मक तत्वों द्वारा हिन्दी को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला।'
उस काल में देवनागरी लिपि और फारसी लिपि को लेकर हिन्दू ओर मुसलिम उच्चवर्ग के शिक्षित वर्ग के मतभेद बढ़ गये थे। भाषा का मसला एक साम्प्रदायिक मसला बन गया था। धर्मिक संस्थाओं ने इसे हवा दी।
विरोध और प्रतिरोध ने हिन्दी-उर्दू के प्रश्न को हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न बना दिया था। जिसे ब्रिटिश शासकों ने और भी ज्यादा हवा दे दी थी। इसी नवजागरण के प्रमुख व्यक्तियों में राजा राम मोहन राय भी थे। राजा राम मोहन राय ब्रहम समाज के प्रचारक थे। ओर अपने विचारों के व्यापक प्रचार के लिए उन्होंने जो पुस्तके छपवायी थी, वे हिन्दी में थी। उनकी परम्राओं को आगे बढ़ाते हुए केशव चंद्र सेन, राजनारायण बोस, भूदेव मुखर्जी, नवीनचंद्र राय ने हिन्दी के माध्यम से समाज-सुधार के कार्य आगे बढ़ाये थे। पंजाब प्रांत में उर्दू-फ़ारसी का आधिपत्य था। लेकिन श्रद्धाराम फुल्लोरी जैसे लोगों ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। पंजाब में उर्दू विरोध ओर हिन्दी समर्थन से जो स्थितियां उत्पन्न हुई थी, वहां जोश ओर विरोध ने साम्प्रदायिक रुप ले लिया था, जिसे नवजागरण की चर्चा में हमेश अनदेखा किया गया। जिसकी परिणिति ने इतिहास में एक काला पृष्ठ जोड़ दिया।
महात्मा गांधी हिन्दी समर्थक थे। उन्होंने 'हिन्द स्वराज (1908) में लिखा था - 'भारत की सर्वग्राह भाषा हिन्दी होनी चाहिए और इच्छानुसार नागरी या फारसी अक्षरों में लिखी जाये।' उन्होंने भड़ौच में द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलन में सभापति पद से भाषण देते हुए कहा था - 'यह निश्चयी है कि मुसलमान अभी उर्दू की लिपि का प्रयोग करेंगे और अधिकांश हिन्दू हिन्दी का। मैंने अधिकांश इसलिए कहा कि आज भी हजारों हिन्दू उर्दू लिपि में लिखते हैं। कुछ तो ऐसे हैं, जो नागरी लिपि जानते ही नहीं हैं। अंत में, जब हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में लेश मात्र भी संदेह न रहेगा, जब अविश्वास के सब कारण दूर हो जायेगें, तब वह लिपि जो अधिक शक्तिशाली है, अधिक व्यापक प्रयोग में आ जायेगी और राष्ट्रीय लिपि बन जायेगी।'
एक तथ्य और भी है जिसका रूप आज हिन्दी के संस्कृत रूप में सामने आ रहा है। यह मसला उस समय भी गंभीर था। महात्मा गांधी ने उस समय (1917) में भी यह स्पष्ट किया था - 'शिक्षित हिन्दू अपनी हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ कर देते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि उसे मुसलमान समझ नहीं पाते हैं। इसी तरह लखनऊ के मुसलमान अपनी उर्दू का फारसीकरण कर देते हैं और वह हिन्दुओं के लिए अबोध हो जाती है।'
इन उद्धरणों से जो तसवीर बनती है, वहां भाषा को धर्म के साथ जोड़ने के प्रयास दिखायी देते हैं। जैसे संस्कृत को ब्राहमणों के साथ जोड़ कर देखना। नवजागरण में धर्म और संस्कृति को राष्ट्रवाद के साथ देखने की प्रवृत्ति भी स्पष्ट दिखायी पड़ती है। इसलिए नवजागरण सवर्ण हिन्दू नवजागरण है, जिसने भीतर छिपी साम्प्रदायिकता को खाद-पानी देकर मजबूत किया है, जो देश के हित में कतई नहीं है।
भाषा के विकास में किसी एक व्यक्ति का हाथ नहीं होता है। किसी भी समाज, राष्ट्र और देश की विकास यात्रा में भाषा की भूमिका सबसे महत्वपूण्र होती है। डा0 शम्भूनाथ ने एक जगह चार क्रान्तियों की चर्चा की थी - बुद्ध का संस्कृत की जगह पाली भाषा को अपनाना, अलवार, नयनार का शास्त्रीय भाषा को छोड़कर लोक भाषा को अपनाना, तुलसी का अवधी को अपनाना और नवजागरण के बाद अंग्रेजी की जगह अपनी भाषाओं को अपनाना। जैसे माइकल मधुसूदन दत्त का अंग्रेजी छोड़कर बंगला भाषा में साहित्य सृजन करना। ये तथ्य इस ओर संकेत करते हैं कि लोकभाषायें ही हमारी सांस्कृतिक पहचान बनाती है। हिन्दी भाषा का विकास भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है।
लेकिन नवजागरण काल के दौर में इसे जिस तरह से रूपांतरित किया गया, वह एक गंभीर समस्या का निर्माण करने में सहायक हुआ। हिन्दी-उर्दू को जो साम्प्रदायिक रूप दिया गया, वह भविष्य को कई और समस्याओं में उलझा गया। उस दौर में समाज की अग्रिम पंक्ति के लोग न तो अंग्रेजी का विरोध कर रहे थे,न दासता का।
नवजागरण काल में हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के लिए संघर्ष करने वाले साहित्यकारों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने आंदोलन को अभूतपूव्र शक्ति प्रदान की। 1882 के शिक्षा आयोग के प्रश्नों का उत्तर देते हुए भारतेन्दु ने कहा था- 'साहूकार और व्यापारी अपना हिसाब-किताब हिन्दी में रखते हैं। हिन्दुओं का निजी पत्र व्यवहार भी हिन्दी में होता है। स्त्रियां हिन्दी लिपि का प्रयोग करती हैं। पटवारी के कागजात हिन्दी में लिखे जाते हैं और ग्रामों के अधिकतर स्कूल हिन्दी में शिक्षा देते हैं।'
राधाचरण गोस्वामि द्वारा सम्पादित तथा मथुरा से प्रकाशित समाचार पत्र भारतेन्दु ने 8 अगस्त 1884 के अंक में लिखा - '---इन देशवासियों की हिन्दी स्वाभाविक भाषा है, उर्दू अस्वाभाविक है, फिर भला उसमें लोगों की प्रवृत्ति कैसे हो ?'
इन उद्धरणों से आभास होता है कि हिन्दी के लिए जी जान से संघर्ष करने वाले उर्दू का विरोध कर रहे थे, न कि अंग्रेजी का। क्योंकि हिन्दी हिन्दुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मान लिया गया था, जो एक गहरी साम्प्रदायिक सोच का परिणाम थी।

Friday, April 11, 2008

क्या है मुख्यधारा, कैसा है उसका यथार्थ


अस्मिता साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) : अध्यक्षीय भाषण (ओमप्रकाश वाल्मीकि)
(12 एवं 13 अप्रैल 2008 को 28 वां अस्मितादर्श साहिय सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में सम्पन्न होने जा रहा है। हिन्दी दलित धारा के रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि कार्यक्रम की अध्यक्ष है। उनके अध्यक्षीय भाषण को संपादित रुप में, हम अपनी पूर्व घोषणा के मुताबिक प्रस्तुत कर रहे है।)


प्रिय भाईयों और बहनों ,
अस्मितादर्श साहिय सम्मेलन, 2008 का अध्यक्षता पद देकर जो सम्मान और प्रेम, विश्वास आपने मेरे प्रति दिखाया है, उसके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूं। इस क्षण मुझे अपने दो ऐसे मित्रों की यादें आ रही हैं उनका साहित्य हमारी धरोहर बन कर रह गया है। अरुण काले की कविताओं का मैंने जिस अपनेपन से हिन्दी अनुवाद किया था, काश उसे पुस्तक रुप में वे देख पाते तो सबसे ज्यादा खुशी मुझे होती। दूसरा नाम है भुजंग आश्रम का। जिनमें मैं प्रत्यक्ष कभी मिला नहीं। सिर्फ फोन पर ही बातें होती थी। इन दोनों कवियों को मैं सलाम करता हूं।
अस्मितादर्श साहित्य का यह सम्मेलन चंद्र पुर में सम्पन्न हो रहा है। मेरे लिए यह दोहरी खुशी का दिन है। पहला यह कि अस्मितादर्श पत्रिका के माध्यम से मराठी दलित साहित्य ने जो एक मुकाम हांसिल किया और अपनी विशिष्टता स्थापित की वह ऐतिहासिक महत्ता रखती है। इस पत्रिका ने अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है। पत्रिका के विशिष्ट आयोजन की अध्यक्षता करना मेरे लिए गौरव की बात है।
आज इस मंच से बोलते हुए मैं अपने उत्तरदायित्व के प्रति और अधिक सजगता, जागरुकता, प्रतिबद्धता महसूस कर रहा हूं। दलित साहित्य और दलित आंदोलन की अनुगूंज आज सिर्फ महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं है। बल्कि ये चिंगारी जो महाराष्ट्र से शुरु हुई थी, अब आग बन चुकी है। हिन्दी प्रांतों से लेकर पंजाब, हरियाणा, गुजरात, दक्षिण भारत, दिल्ली, बंगाल में फैल चुकी है। आज दलित साहित्य पूरे विश््रव में मानवीय संवेदना का पक्षधर बनकर अपनी पक्षधर बनकर अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध कर चुका है। बाबा साहेब डा। अम्बेडकर के जीवन दर्शन से ऊर्जा लेकर दलित साहित्य भारतीय अस्मिता की पहचान बन चुका है।
अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन की रचनात्मकता भविष्य का निर्माण करेगी। सामाजिक और साहित्यिक दृष्टि को विकसित करने वाले कार्यक्रम लेखन, वाचन, व्याख्यान, समाज को एक नयी दृष्टि देगी। क्योंकि अस्मितादर्श हमेशा मनुष्य की अस्मिता को ही सर्वोपरि मानता है। उसके केन्द्र में मनुष्य है।
धार्मिक आडम्बरों, कर्मकाण्डों, अंधविश्वासों, अनैतिक जीवन मूल्यों के विरुद्ध संघर्ष का आगाज सुनायी पड़ता है। इस क्रांतियुग के हम साक्षी हैं। हमारा एक-एक शब्द विषमता, शोषण, प्रताड़ना की आग से तपकर निकला है। हमारी लड़ाई उससे कहीं आगे जाती है। दलित साहित्य ने साहित्य को कलावाद, तत्वज्ञान, दार्शनिकता जैसे छद्म और भ्रमित करने वाले साहित्यिक, शास्त्रीय, काव्य शास्त्र से बाहर निकाला है। जीवन मूल्यों और सौन्दर्यबोध को एक दूसरे से जोड़कर देखने की प्रवृत्ति विकसित की है। किसी भी कृति का मूल्यांकन और उसकी गुणवत्ता उसके आकार, उसकी शास्त्रीय भाषा, उसकी दार्शनिकता के आधार पर नहीं की जा सकती है। बल्कि उसकी अंत:चेतना, उसके आशय के आधार पर होनी चाहिये।
'जान डयुई" ने अपनी पुस्तक 'आर्ट एज एक्सपीरियंस" में ब्रेडले के एक निबंध का हवाला देते हुए कहा था कि 'विषय" साहित्य का बाहय तत्व है। जबकि 'अंतर्वस्तु" अंत:तत्व। विषय की व्यापकता पर जोर देते हुए डयुई ने इसे स्वीकार किया है। जो रचनाकार के अनुभवों से जुड़कर अंतर्वस्तु में रुपांतरित होती है।
अर्जुन डांगले के शब्दों में यदि कहें - 'कलाकृति की मूल प्रवृत्ति को न समझ सकें तो कलाकृति की लय, उसके अनुभवों, उसकी प्रवृत्ति, संरचना, अनुभवों की गहनता आदि को समझना सम्भव नहीं है।
जब भी हम किसी कलाकृति का मूल्यांकन करते हैं तो यह जानना बहुत जरुरी होता है कि उसकी पार्श्वभूमि में कौन से जीवन मूल्य हैं। जीवन मूल्यों के बगैर किसी भी कलाकृति या साहित्यिक कृति का कोई महत्तव नहीं होता। तथाकथित कलावादी किस्म के प्रगतिशील, जनवादी, मार्क्सवादी आलोचक दलित साहित्य को 'अतीत का रोना" कहकर कमतर दिखाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ऐसे लोग भूल जाते है कि दलित जीवन तो दुखों का पिटारा है। दलित जीवन की जो वेदना है, दग्धता है , उसे सिर्फ दलित ही जानता है। यह यातना हजारों साल पुरानी है। ये तथाकथित आलोचक एक दिन के लिए ही सही इसे जी करर देखें और फिर बतायें कि उन अनुभव के बाद वे सत्यं शिवं सुन्दरम लिखेगें या दलित साहित्य।
एक शब्द का इन दिनों बहुत प्रचलन है। साहित्य में, राजनीति में, विकास में, इस शब्द का प्रयोग कुछ इस तरह से किया जाता है मानो यह शब्द विकास और उन्नति का प्रतीक हो। वह शब्द है मुख्यधारा।
आखिर इस शब्द का आशय क्या है ? यह जानना जरुरी है।
भारतीय साहित्य के संदर्भ में देखें तो वह धारा जिसके साहित्यिक प्रयोजन 'आनंद", 'मोक्ष", 'अर्थ", और 'काम" हो। या ऐसे लोगों की धारा जिन्होंने 'वर्ण-व्यवस्था" का इस्तेमाल एक समूह विशेष को दासता की गिरफ्त में जकड़कर धारा से बाहर कर दिया और वापसी के तमाम रास्ते बंद कर दिये। धारा से बाहर धकेले गये ये लोग जिनकी अस्मिता, संस्कृति छिन्न-भिन्न कर दी गयी। क्या यही है मुख्यधारा जिसका इतना ढोल पीटा जा रहा है ? क्या यही है मुख्यधारा जिसके लिए बीस करोड़ लोगों को अपने मनुष्य होने की लड़ाई लड़नी पड़े। मुख्यधारा एक वर्ण-विशेष की इच्छा-अनिच्छा, आशा-आकांक्षाओं से उत्पन्न मानयताओं, स्थापनाओं की धारा है जिसके लिए एक दलित को अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ता है और यह धारा बेहद खूंखार और निर्दयी होकर अपने तमाम दांव-पेंचों, कलाबाजियों, बौद्धिक-विमर्शों, साहित्यिक शिल्पों के साथ दीवार की तरह सामने खड़ी हो जाती है और दलित के अस्तित्व को ही नकार देती है। मुख्यधारा दलित को एक मनुष्य मानने से इंकार करती है। उसे खारिज करती है। या फिर दोयम दरजे का मानकर उसे अपना पिछलग्गू बनाने की कोशिश करती है। इस मुख्यधारा का जोर-शोर से डंका पीटा जाता है। लेकिन सच तो यह है कि मुख्यधारा का साहित्य समय और समाज से कटा हुआ है। समाज में कुछ और हो रहा है, साहित्य किसी और दुनिया के किस्से सुना रहा है।
भक्तिकालीन संतों, कवियों ने भारतीय जीवन में रची-बसी जाति-व्यवस्था का विरोध तो किया, लेकिन जाति व्यवस्था पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। डा। अम्बेडकर लिखते हैं -
''जहां तक संतों का प्रश्न है, तो मानना पड़ेगा कि विद्धानों की तुलना में संतों के उपदेश कितने ही अलग और उच्च हों, वे सोचनीय रूप से निष्प्रभावी रहे हैं। वे निष्प्रभावी दो कारणों से रहे। उनमें से अधिकतर उसी जाति के होकर जिये और मरे, उसी जाति के जिसके वे थे। उन्होंने यह शिक्षा नहीं दी कि ईश्वर की सृष्टि में सारे मनुष्य समान हैं। दूसरा कारण यह था कि संतों की शिक्षा प्रभावहीन रही, क्योंकि लोगों को पढ़ाया गया कि संत जाति का बंधन तोड़ सकते हैं। लेकिन आम आदमी नहीं तोड़ सकता। इसीलिए संत अनुसरण करने का उदाहरण नहीं बन सके।""
जबकि दलित साहित्य में किसी भी प्रकार के भेदभाव के खिलाफ विद्रोह का भाव है। सामाजिक, धार्मिक जीवन की विसंगतियों और उससे उत्पन्न जीवन मूल्यों को खंडित करने की चेतना है। समाज में व्याप्त असमानता और घृणा इस तथाकथित मुख्यधारा की ही देन है, जिस मुख्यधारा से जोड़ने की इतनी जद्दोजहद हो रही है।एक दलित के लिए ऐसी किसी भी धारा से जुड़ने का अर्थ हैं - वर्ण-व्यवस्था के भयानक जबड़े में स्वंय को खुद ही ठूंस देना और मुख्यधारा के अलम्बरदार तो चाहते भी यही हैं कि समूचा दलित समाज, आदिवासी, अल्पसंख्यक उनकी धारा में आकर उनके अधीन रहें। ताकि उनका वर्चस्व बना रहे। हजारों सालों से यही तो हो रहा है। और भविष्य में कब तक चलता रहेगा कोई नहीं जानता।
इस मुख्यधारा के साहित्य में जहां बौद्धिक प्रलाप की बहुतायत होती है, वहीं समाज में घट रही तमाम स्थितियों के प्रति तटस्थ भाव रहता है। उस पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने की जगह चुप्पी साध लेते हैं। अपने समय की बड़ी से बड़ी घ्ाटना भी इन्हें प्रभावित नहीं करती। ये अतीत में जीना ज्यादा पसंद करते हैं। यह मुख्यधारा की सबसे बड़ी विशिष्टता है। साहित्य की मुख्यधारा समय के संघर्ष से बचकर निकलने का उपक्रम अपनी शास्त्रीय भाषा को मोहरा बनाकर करती है। मुगलकाल या उससे पूर्व मुस्लिम शासकों, सुल्तानों, खिलजी वंश, तुगलक वंश, अफगान आदि के काल में कहीं भी कोई विरोध या सामूहिक संघर्ष दिखायी नहीं पड़ता है। न राजनीति में, न साहित्य में, न समाज में, छिटपुट घटनायें होती हैं, जो सिर्फ निजी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होती है। जो वर्ण-व्यवस्था की देन है। क्योंकि वर्ण-व्यवस्था सिर्फ शुद्रों, अंत्यजों, अस्पृश्यों, को ही अलग-थलग नहीं करती, बल्कि द्विज कही जाने वाली जातियों को भी एक दूसरे से दूर रखने का कारण बनती है। जो किसी भी सामूहिक प्रयास के विरुद्ध जाती है। यही स्थिति मुगलकाल में दिखायी देती है। भारतीय क्षत्रप दूसरे क्षत्रपों को पराजित करने में मुगल शासकों का साथ देते हैं। चाहे वे राजस्थान के राजा हों या दक्षिण के।
मुख्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले कवि हमें यह बताने में असमर्थ रहते हैं कि उनके काल में भारत मुगलों के अधीन है। यह स्थिति किसी एक कवि की नहीं मुख्यधारा के तमाम रचनाकारों की है। जो समय से कटे रहकर भी स्वंय को मुख्यधारा के भ्रमित अहमभाव के साथ जीते हैं। इसीलिए आज जिसे मुख्यधारा कहा जा रहा है, वह हिन्दु वर्ण-व्यवस्था, सामंतवाद, ब्राहमणवाद की वह धारा है, जहां दलित और स्त्री के लिए कोई स्थान नहीं है। जो साहित्य और समाज दोनों में मौजूद है। संस्कृत साहित्य में राजवंशों की विरुदावली, राजाओं के देवत्व, उनकी प्रशस्ति करने वाले साहित्य की भरमार है। जो मुख्यधारा का केन्द्रीय भाव रहा हैं इसी धारा में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को जोड़ने की बात जोर शोर से की जाती है। जिसका उद्देश्य वर्चस्ववाद को स्थापित करना है। यही है मुख्यधारा का यथार्थ।
साथियों, दलित साहित्य सही मायनों में भारतीय साहित्य है। जो समूचे देश में प्रेम ओर समता, बंधुता का संदेश लेकर आया है। बुद्ध की मानव केन्द्रित दार्शनिकता, प्रेम और मानवीय विकास की बात करता है। जहां न भाषा के प्रति किसी प्रकार का भेद है, न क्षेत्रवाद के लिए कोई जगह है। न स्त्री के प्रति किसी भी प्रकार की कोई संकीर्णता है। अखिल भारतीय साहित्य है। यहां मैं एक बात जोर देकर कहना चाहता हूं कि देश को ब्राहमणीकरण की नहीं दलितीकरण की आवश्यकता है। तभी देश विकास के रास्ते पर चल सकता है। एक बार करके तो देखये। यह मेरा विश्वास है।

Wednesday, April 2, 2008

अतीत ने ही रचा है वर्तमान


ओम प्रकाश वाल्मीकि

भविष्य की कल्पना करने से पूर्व वर्तमान और बीते हुए कल का आकलन जरुरी लगता है। बीता हुआ यानि अतीत। हिन्दी कथा-साहित्य का शुरुआती दौर भारतीय संस्कृति की महानता के यशोगान का दौर था। जिससे अतीत के गौरवशाली पक्ष को पुन: स्थापित करने की चिन्ताऐं मौजूद थी। वहॉं जनतांत्रिक मूल्यों का कोई स्वरुप दृष्टिगोचर नहीं होता। बीच-बीच में राष्ट्रप्रेम, जिसे धर्म संस्कृति तक ही सीमित रखा गया था, को ऊंचे स्वर में बखाना गया हिन्दी कथा-साहित्य अनेक उतार चढ़ाव से होता हुआ आगे बढ़ा है। 'उसने कहा था' की लोकप्रियता से होते हुए प्रसाद प्रेमचंद, जैनेंद्र और नयी कहानी की महीन कताई बुनाई से होते हुए, अकहानी, जनवादी कहानी, समांतर कहानी, सेक्स बनाम जनवादी कहानी और फिर दलित कहानी आदि के रुपों में हमारे सामने आती है। कुछ विद्धानों का मानना है कि आठवें दशक और उसके बाद कहानी का क्षितिज काफी व्यापक हुआ है। समकालीन कहानी अपने समय और समाज की जटिलताओं को अधिक विश्वसनीय और सहज रुप में प्रस्तुत करने में सक्षम है। जो पाठकों के सामने जीवन अनुभवों को शब्दबद्ध कर रही है।
लेकिन एक प्रश्न बार-बार उठता है कि कथा-साहित्य के आलोचकों के पास कहानी के भीतर घुसकर उसे खंगालने, विश्लेषित, व्याख्यायित करने का समय नहीं है। वजह चाहे जो भी हो, सबके अपने-अपने तर्क हैं, सीमायें हैं, आरक्ष्सण हैं, गठबंधन हैं।
हिन्दी कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं - 'साहित्य की जनतांत्रिकता इस बात पर है कि वह विपक्षी को पराजित नहीं करती, वह उसकी वेदना को समझती, यथासंभव उसकी वेदना को उसी के भावबोध के ढांचे में चित्रित करती है।" (वसुधा, कहानी विशेषांक, अंक 33-34, दिस। 1995, रीवा, पृष्ठ -16)
1950 के आसपास आलोचकों ने एक सवाल उठाया था कि कहानी की संभावनायें समाप्त हो गयी हैं और प्रेमचंद्र पर भी कई तरह के आक्षेप लगाये थे। उनके साहित्य को द्वितीय कोटी का कहा गया था, यह भी कहा गया था कि कहानी ही नहीं बल्कि साहित्य की मुख्यधारा के सहज-स्वाभाविक विकास को कभी प्रयोग, कभी आधुनिकता, कभी अनुभववाद, कभी व्यक्ति स्वातंत्रय और कभी शिल्प-कला के नाम पर अवरुद्ध करने की कोशिशें भी जारी रही। यानि कुल मिलाकर कथा साहित्य के विकास में कई प्रकार के टोटके अपनाये गये। पश्चिमी पूंजीवादी देशों के साहित्यिक मूल्यों को हिन्दी कहानी में ज़्बरन स्थापित करने की कोशिशें की गयी। भारतीय जीवन के विषमतापूर्ण सामाजिक वर्चस्व को लगातार अनदेखा किया जाता रहा। साधारण जन-मानस की आशा-निराशा, आकांक्षा, सुख-दुख, चिन्तायें, सरोकार आदि को साहित्यक अभिव्यक्ति में शामिल करने की बजाये, आयातित जीवन मूल्यों को रुपायित करने की कोशिश की जाती रही। और कहानी का वस्तुगत ढांचा खड़ा करने की तमाम कोशिशें बिखरती रही। ये कोशिशें बदलते सामाजिक मूल्यों और संघर्ष की पेचीदिगियों को समझने के बजाये सम्वेदना का वाहय रूप ही अभिव्यक्त करती रहीं। इस संघर्षशील तबके की उदात्त भावनाओं, संघर्षों, प्रेम और भाई चारे की सम्भावनाओं को दरकिनार करके, बौद्धिकता और दार्शनिकता से लबरेज़ कहानियां सिर्फ कला और शिल्प की अभिव्यक्ति बनकर रह गयीं। जिसका आम आदमी के जीवन-संघर्ष से सीधे-सीधे कोई संबंध नहीं था। इसमें उस मध्यवर्गीय जीवन की अनेक अनछुई स्थितियां तो निर्मित हुई, लेकिन कहानी का जो सामाजिक परिदृश्य उभरना चाहिए था, वह कहीं गुम होता गया। इस दौर में साहित्यिक क्षितिज पर उभरे जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय आदि अलग-अलग घ्रुवों पर खड़े थे। प्रेमचंद्र की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले रचनाकारों में यशपाल का नाम आता है, जिन्होंने भारत विभाजन की त्रासदी पर 'झूठा-सच" जैसी कृति की रचना की और अपने समय की सच्चाई को बयान किया। जो भारतीय जीवन के एक दुखद अध्याय का जीवंत दस्तावेज बना, लेकिन प्रेमचंद्र की सामाजिक सम्वेदनां की जो गहनता थी, उसका यहां भी अभाव दिखायी देता है, इसके बावजूद भी यशपाल ने अपने समय और समाज के विघटनकारी तत्वों के साथ जो द्वंदात्मक टकराव किया, वह बेजोड़ हैं। उन्होंने वर्तमान को जिया। अतीत को वर्तमान से जोड़कर, जीवन-संदर्भों की गहरी पड़ताल की।
भारतीय जीवन में मौजूद साम्प्रदायिकता, जातिवाद, ब्राहमणवाद, सामंतवाद की छाया में हिन्दी कथा-साहित्य परवान चढ़ा है। इसीलिए आदर्शोन्मुखी है। और कथनी करनी का भेद मौजूद है। लेकिन इन विसंगतियों, अंतर्द्वंद्वों के बावजूद हिन्दी कथा-साहित्य ने स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियों को स्वीकार किया। नयी कहानी के दौर में राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, मार्कण्डेय, परसाई, मनु भण्डारी की कहानियों में जो भारतीय जीवन का फलक उभरा वह हिन्दी कहानी की विकास यात्रा का एक अहम पड़ाव था। जिसमें जीवन-संघर्ष था, विडम्बनाओं की त्रासदी थी।
बदलते जीवन की सच्चाई को पकड़ने की ललक ने हिन्दी कहानी को सामाजिक परिवर्तनों से जोड़ने के प्रयास किये। लेकिन इन प्रयासों में लुका-छिपी का खेल जैसी प्रवृत्ति भी दिखायी देती है। काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, स्वंयप्रकाश, रवींद्र कालिया, दूधनाथ सिंह, गिरिराज किशोर आदि ने हिन्दी कहानी को समय से जोड़ने, उसे गम्भीर सरोकारों के प्रति उत्तरदायी बनाने, अपने समय की गम्भीर ज्वलंत चिंताओं को विषयवस्तु में शामिल करने की कोशिशें की। इनमें से कुछ विचारधारा के समर्थक रहे तो कुछ बाहयतौर पर विशिष्ट धारा से जुड़ने का भ्रम दिखाते रहे, लेकिन उनकी कहानियों में विचार गायब था, सिर्फ स्थितियां थी।
यही स्थिति 'स्त्री-विमर्श" को लेकर भी रही है। आंतरिक द्वंद्वों से टकराने और वर्तमान की दारूण विसंगतियों को कथा-कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त करने में रचनाकार गहरे अंतर्द्वंद्वों में उलझे रहे। यह हिन्दी कथा साहित्य का एक पक्ष है जिसे शिल्प की , भाषा की तमाम उत्कृष्टताओं के बावजूद वैचारिक विचलन ही कहा जायेगा।
च्रित्रों की बौद्धिकता को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने की प्रवृत्ति भी रही है, 'शेखर-एक जीवनी" में साफ-साफ देखी जा सकती है। जो अपनी बौद्धिकता से लबरेज है। व्यक्ति की आंतरिकता को तात्विक ढंग से विश्लेषित तो किया जाता है, लेकिन द्वंद्व का यह खेल दार्शनिकता घेरे में बांधकर मानवीय अवधारणाओं को अमूर्तता प्रदान करता है।
इन तमाम विरोधाभासों के बीच कुछ ऐसे उपन्यास भी आये हैं, जो भारतीय ग्रामीण जीवन अल्पसंख्यक समुदाय की उन आंतरिक सच्चाईयों से परिचय कराते हैं, जिन्होंने जीवन की तमाम सम्भावनाओं, विश्वासों, मान्यताओं को जकड़ कर रखा हुआ था। श्री लाल शुक्ल का 'राग दरबारी" , राही मासूम रज़ा का 'आधा गांव" , रेणु का 'मैला आंचल" , ये तीनों ऐसे उपन्यास हैं , जो हिन्दी कथा-साहित्य को समय सापेक्ष ही नहीं बनाते बल्कि समाज की विषमताओं से भी टकराते हैं।

हिन्दी कहानी यदि अपने वर्तमान से बचकर, उसकी जटिलताओं को बाहय रूप में ही पकड़ती है, तो वह अपनी ज़िम्मेदारी से विमुख होती हैं। कहानी की सार्थकता भी इसी में है कि वह भविष्य के लिए अपनी भूमिका तय करे। अपने समाने खड़ी चुनौतियों और खतरों का समाना करे।
कहानी में समाज और चरित्र अधिक स्पष्ट और ठोस रूप में रेखांकित होते हैं। इसीलिए उसका उत्तरदायित्व भी ज्यादा गहरा होता है। उसकी आंतरिक चिंताऐं भी ज्यादा घनीभूत होनी चाहिये।

दुनिया के कथा-साहित्य पर एक दृष्टि डालें तो दक्षिण अमेरिका के कथा-साहित्य में गार्सिया मार्क्वेज, रिचर्ड राईट ने भविष्य निर्माण किया है, और कथा-साहित्य को गरिमा देकर भविष्य की महत्वपूर्ण विधा की विश्वसनीयता उसकी द्वंद्वात्मकता के कारण बनती है। जब हम भविष्य की बात करते हैं तो हमारे सामने वर्तमान ही होता है।
वर्तमान को जब साहित्य से जोड़कर देखते हैं तो एक शब्द बार-बार सामने आता है, जिसे सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक संदर्भों में 'मुख्यधारा" कहते हैं। मुख्यधारा का साहित्य, समाज की मुख्यधारा, राजनीति की मुख्यधारा या फिर राष्ट्र की मुख्यधारा, जो भी इस धारा से बाहर रहा उसे जबरन इस धारा में लाने के प्रयास हुए। मुख्यधारा यानि वर्चस्व की धारा। तो न हमारे वर्तमान को दिशा देती है, न भविष्य को। कुछ मुठ्ठी भर लोग जो सत्ता केन्द्रित वर्चस्व थामें हुए है। यह उनकी धारा है, जो न दूसरों को समझना चाहती है, न जानना। अपने ही निर्मित प्रभामण्डल में जीती है और परिधि में गोल-गोल चर काटती है। इस मुख्यधारा ने यथास्थिति बनाये रखने में अहम भूमिका निभायी है। जब भी भारतीय जीवन में कोई संकट आया, या कोई उथल-पुथल हुई, कोई सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन की सम्भावनायें बनी, तब-तब इस मुख्यधारा ने चुप्पी साध ली या फिर दर्शन, आध्यात्मिक या प्रकृति प्रेम या फिर धार्मिक नायको के यशोगान आदि में डूबे रहे या समय आने का इंतज़ार करना, चीजों को पकाने का इंतज़ार करना ही ज्यादा रहा। जबकि मुख्यधारा से बाहर छिटके लोगों ने ज्यादा तत्परता दिखायी। वे ज्यादा जागरुक और उत्तरदायित्व के साथ वर्तमान के निष्कर्षों के साथ भविष्य की सीमायें निर्धारित करने में जुटे रहे। उनका कथा सहित्य इस बात की जद्दोजहद करता है, न कि जड़ता की।
भविष्य का निर्माण वर्तमान से जुड़कर होता है, उससे तटस्थ रह कर नहीं। कथा-सात्यि के भविष्य पर चिन्ता करते समय वर्तमान और उससे जुड़े सरोकारों, सम्वेदनों पर विचार करना निहायत ही ज़रुरी है। कथा-साहित्य का भविष्य इसी तथ्य पर निर्भर करता है कि वह वर्तमान के संघर्षों में कितनी हिस्सेदारी निभाता है।
कथा-साहित्य में वर्तमान की मात्र छाया या संकेत, या प्रतीक ही काफी नहीं है, उसकी सम्वेदना संघर्ष, जिजीविषा, उसकी वेदना का आकलन जरुरी लगता है। इसलिए मुख्यधारा के तथाकथित कथा-साहित्य को अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, स्त्रियों, दलितों, कमज़ोर पिछड़े, दबे-कुचले लोगों की और ध्यान देना होगा उन्हें मुख्यधारा के दिशाहीन भुलावे में खींच कर लाने के विमर्श की जगह, उन्हें समझने-जानने के विमर्श को तरज़ीह देने की आवश्यकता है। क्योंकि वे ही इस देश की अस्मिता की लड़ाई लड़ हैं। इस लड़ाई में मुख्यधारा को उनके साथ जुड़ना होगा। तभी हिन्दी कथा-साहित्य का भविष्य ठोस रूप में और अधिक सुदृढ़ होगा।
आज हिन्दी प्रांतों में कहीं भी कोई ऐसा आंदोलन दिखाई नहीं पड़ता जो मानवीय गरिमा को बचाये रखने की चिंता कर रहा हो। साम्प्रदायिकता, अलगाववाद, आतंकवाद, अमेरिकावाद, बाज़ारवाद के विरुद्ध खड़ा हो। जो यह विश्वास जगाये कि सामाजिक जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने की कोई जद्दोजहद जारी है। हमारी आस्थायें, मूल्य किस रूप में और कैसे एक बेहतर इन्सान बनने में हमारी मद्द कर सकती है, इस तरह की चिंतायें नयी कहानी के दौर में भी उठीं थी। जब भोगा हुआ यथार्थ, अनुभव की प्रामाणिकता जैसे मुहावरे बहुत जोर शोर से उठे थे। आज दलित साहित्य भी कुछ इसी तरह की चिंताओं के साथ बदलाव की कामना करता है, और अतीत को वर्तमान के साथ जोड़कर एक रास्ता चुनने की प्रक्रिया से गुजर रहा है। कुछ आलोचक दलित साहित्य पर आरोप लगाते हैं कि बीती बातों का रोना रोते रहना ही साहित्य नहीं है। आज कहां है जातिवाद, उत्पीड़न शोषण, लेकिन ये आरोप लगाते समय वे भूल जाते हैं कि 'मील का पत्थर" बनी हिन्दी कृतियां अतीत पर ही रची गयी हैं। वर्तमान की सच्चाई को वे शिल्प के आवरण में ढंक कर रास्ता बदल लेते हैं। बौद्धिक विवरण, आध्यात्मिक, दार्शनिक नुक्ते उनकी मद्द नहीं करते।
इन स्थितियों में हिन्दी कथा-साहित्य को आत्म्श्लाघा से बाहर आकर आत्म्विश्लेष्ण की जरूरत है, ताकि भविष्य की ओर जाते-जाते कही अन्धेरे काल्खन्ड मे ही तो चक्कर नही काट रहे है. वर्तमान से पलायन और कलात्मक शिल्प, समकालीनता के साथ बौदधिक विमर्श हिन्दी कथा-साहित्य के भविष्य के निर्माण में कितनी मद्द कर पायेगें, इस पर विचार भी ज़रुरी लगता है। वरना कथा-साहित्य की भी वही स्थिति होगी - 'अंधा बांचे बहरा सुने" ।


(हिन्दी दलित धारा के रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि ने यह आलेख उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान एवं कथाक्रम, लखनऊ द्वारा आयेजित संगोष्ठी - हिन्दी कथा-साहित्य, दिनांक 11 फरवरी 2008, में प्रस्तुत किया था। आज हिन्दी की दलित धारा समकालीन रचना जगत को न सिर्फ अपनी रचनाओं से बल्कि आलोचना से भी समृद्ध कर रही है। यह आलेख उसकी एक बानगी है। अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन 2008, जो कि 11 अप्रैल 2008 को चंद्रपुर, महाराष्ट्र में होने जा रहा है, ओम प्रकाश वाल्मीकि वहां आमंत्रित है और कार्यक्रम की अध्यक्षता करेगें। इसी कड़ी में उनका अध्यक्षीय भाषण 11 अप्रैल को हमारे ब्लाग पर आप देख पायेगें।)

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अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली वे रचनायें जिनका प्रथम प्रकाशन इसी ब्लाग पर हो रहा है, अब से उनके लेबल में ब्लाग पर अंकित होगा। तकनीक की सीमित जानकारी के चलते पहले प्रस्तुत की जा चुकी रचनाओं पर ऐसा करना संभव नहीं रहा। पूर्व में प्रस्तुत ऐसी रचनाओं के शीर्षक यहां दिये जा रहे हैं - मजबूत घेरे की सघनता के विरुद्ध बेघर हा जाने की कथा, क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना, परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो, विजय गौड की लघु-कथा .