Friday, May 23, 2008

टीआरपी और भाषा

(टीआरपी का भाषा से क्या लेना देना है ? यह सवाल कई दिनों से कोंध रहा है। ब्लाग की दुनिया भी क्या टीआरपी की दुनिया है? टीआरपी बढ़ानी है तो जो कुछ लिखा जाये क्या उसमें भाषा भी कोई भूमिका निभा सकती है ? यदि नहीं तो फिर एक स्वस्थ बहस की बजाय व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप की भाषा में एक झूठा विवाद क्यों खड़ा हो जाता है। बहस बेशक उत्तेजक हो लेकिन तार्किक परिणिति तो होनी ही चाहिए।

भाषा को लेकर मोहल्ले में चल रही बहस शायद समाप्त हो चुकी है। शायद इसलिए कि आज जो पोस्ट लगी है पिछले कुछ दिनों पहले शुरु हुई बहस की झलक उसमें दिखायी नहीं देती। अब यह तो मोहल्ले वाले ही बता सकते हैं कि बहस समाप्त हुई या स्थगित!

वैसे जिस तरह से बहस शुरु हुई थी उम्मीद की जा सकती थी कि कुछ ऐसे प्रश्न उठेगें और उन पर गम्भीरता से विचार भी होगा जो समकालीन दुनिया के पेचोखम को भाषा के माध्यम से खोल पाये। लेकिन जैसे जैसे बहस आगे बढ़ी तो दिखायी देता रहा कि नितांत व्यक्तिगत किस्म के आरोप और प्रत्यारोपो का सिलसिला शुरु हो चुका है।
हलांकि बहस में शामिल दोनों ही रचनाकारों ने शुरुआती दौर में एक संतुलित बातचीत को आगे बढाया था। पर बहुमत के रुप में समर्थकों की भीड़ के हमले आरम्भ से ही इतने तीखे और पैने थे कि बहस में शामिल रचनाकार भी एक हद तक उससे उद्वेलित (कुछ कुछ उत्तेजित भी) हो ही गये। अच्छा ही हुआ जो बहस को रोक कर आज मोहल्ले पर कुछ अलग पोस्ट किया गया। वैसे एक स्वस्थ बहस की निश्चित ही जरुरत है। खास तोर पर ऐसे मुद्दों पर जिनकी उपस्थिति बहुत इकहरी नहीं है।
अपने इतिहास में भी और समकालीन दुनिया में भी भाषा का मसला ऐसा ही एक विषय जो उतना इकहरा नहीं कि तुरत फुरत में किन्हीं नतीजों पर पहुंचा जा सके।
भाषा के सवाल पर दलित धारा के रचनाकार ओमप्राकद्ग्रा वाल्मीकि का एक आलेख यहां प्रस्तुत है। यह आलेख पिछले दो आलेखों (वरवर राव और नवीन नैथानी )का ही विस्तार है। माहोल्ले पर चली भाषा सम्बंधी बहस के प्रश्न भी इसमें स्वभाविक रुप से आये ही हैं। यह अलग बात है कि आलेख हमारे अनुरोध पर लिखा गया और मोहल्ले की बहस से ओम प्रकाश वाल्मीकि अपरिचित नही हैं। वसुधा के 1857 पर केन्द्रित अंक में ओमप्रकाश वाल्मीकि के प्रकाशित आलेख में इसकी हल्की झलक पाठक अलग से देख सकते हैं।
कोशिश रहनी चाहिए कि टीआरपी को ध्यान में न रखते हुए भाषा की सादगी को बचाया जा सके। इस सवाल के साथ ही भाषा पर विमर्श जारी रखने का प्रयास किया जा रहा है। भाषा के सवाल पर कवि वरवर राव के वक्तव्य के विस्तार में कथाकार नवीन नैथानी की प्रतिक्रिया के बाद हमें दो और आलेख प्राप्त हुए है। दलित धारा के रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि और युवा रचनाकार चंद्रिका ने हमारे अनुरोध पर जिन्हें लिखा है। चंद्रिका का आलेख आगे प्रस्तुत किया जायेगा। )


ओमप्रकाश वाल्मीकि - 094123319034, opvalmiki@yahoo.com

भारत में भाषा का मसला काफी गंभीर है। यहां एक ही राज्य में कई बोलियां है, जिन्हें भले ही हिन्दी या उस राज्य की विशेष भाषा का अंग माने। लेकिन इन बोलियों का अपना अस्तित्व है, अपनी सांस्कृतिक महत्ता है जिसे भाषा-विमर्श में अनदेखा नहीं कर सकते हैं।
हिन्दी राजभाषा कही जाती है लेकिन वर्चस्व अंग्रेजी का कायम है। ऐसा पहली बार हुआ है कि साधारण जन भाषा राजभाषा बनी है।

अभी तक राजसत्ता की भाषा को नीचे की ओर लाया जाता था। यानि राजसत्ता या उच्चवर्ग की भाषा ही राजभाषा राजभाषा होती थी। वह चाहे संस्कृत हो, फारसी या अंग्रेजी हो। सभी उच्चवर्ग की या सत्ताधारियों की भाषा रही है। कालिदास के साहित्य में राजा, ब्राहमण ही संस्कृत बोलते हैं। स्त्रियां, कर्मचारी, सैनिक, दास-दासियां प्राकृत बोलते हैं।
1857 के बाद भाषा को लेकर जो भी माहौल बना उसने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया है। इसके तथ्य साहित्य में मौजूद हैं।
नव जागरण के उस दोर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का श्रेय धार्मिक संस्थाओं को जाता है। डा। जगन्नाथ प्रसाद ने अपनी पुस्तक हिन्दी गद्य शैली का विकास में लिखा है - 'आर्य समाज के तत्कालीन धार्मिक एवं सांस्कृतिक आंदोलन के प्रसार के निमित जो व्याख्यानों और वक्ताओं की धूम मची, उससे हिन्दी गद्य को प्रोत्साहन मिला। दयानन्द ने राष्ट्रीयता के लिए हिन्दी की महत्ता को प्रतिपादित किया था। उन्होंने एक पत्र में लिखा था - 'मेरी आंखें उस दिन को देखने के लिए तरस रही हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब एक भाषा समझने और बोलने लगेगें।'
उत्तर पश्चिम भारत में आर्य समाज की भूमिका भी संदिग्ध मानी जा रही थी। रामगोपाल अपनी पुस्तक स्वतंत्रता पूर्व हिन्दी के संघर्ष का इतिहास में जिसे हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने प्रकाशित किया था, लिखते हैं - 'आर्य समाज की गणना भी वैमनस्य तथा विवादोत्पादक संस्थाओं में की जाती थी, उसे एक ओर मुसलमान अपना शत्रु समझते थे, तो दूसरी ओर हिन्दुओं का एक भाग प्राचीन हिन्दु धर्म को विकृत करने वाला घोषित करता था। संयोग से इन सभी विरोधात्मक तत्वों द्वारा हिन्दी को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला।'
उस काल में देवनागरी लिपि और फारसी लिपि को लेकर हिन्दू ओर मुसलिम उच्चवर्ग के शिक्षित वर्ग के मतभेद बढ़ गये थे। भाषा का मसला एक साम्प्रदायिक मसला बन गया था। धर्मिक संस्थाओं ने इसे हवा दी।
विरोध और प्रतिरोध ने हिन्दी-उर्दू के प्रश्न को हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न बना दिया था। जिसे ब्रिटिश शासकों ने और भी ज्यादा हवा दे दी थी। इसी नवजागरण के प्रमुख व्यक्तियों में राजा राम मोहन राय भी थे। राजा राम मोहन राय ब्रहम समाज के प्रचारक थे। ओर अपने विचारों के व्यापक प्रचार के लिए उन्होंने जो पुस्तके छपवायी थी, वे हिन्दी में थी। उनकी परम्राओं को आगे बढ़ाते हुए केशव चंद्र सेन, राजनारायण बोस, भूदेव मुखर्जी, नवीनचंद्र राय ने हिन्दी के माध्यम से समाज-सुधार के कार्य आगे बढ़ाये थे। पंजाब प्रांत में उर्दू-फ़ारसी का आधिपत्य था। लेकिन श्रद्धाराम फुल्लोरी जैसे लोगों ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। पंजाब में उर्दू विरोध ओर हिन्दी समर्थन से जो स्थितियां उत्पन्न हुई थी, वहां जोश ओर विरोध ने साम्प्रदायिक रुप ले लिया था, जिसे नवजागरण की चर्चा में हमेश अनदेखा किया गया। जिसकी परिणिति ने इतिहास में एक काला पृष्ठ जोड़ दिया।
महात्मा गांधी हिन्दी समर्थक थे। उन्होंने 'हिन्द स्वराज (1908) में लिखा था - 'भारत की सर्वग्राह भाषा हिन्दी होनी चाहिए और इच्छानुसार नागरी या फारसी अक्षरों में लिखी जाये।' उन्होंने भड़ौच में द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलन में सभापति पद से भाषण देते हुए कहा था - 'यह निश्चयी है कि मुसलमान अभी उर्दू की लिपि का प्रयोग करेंगे और अधिकांश हिन्दू हिन्दी का। मैंने अधिकांश इसलिए कहा कि आज भी हजारों हिन्दू उर्दू लिपि में लिखते हैं। कुछ तो ऐसे हैं, जो नागरी लिपि जानते ही नहीं हैं। अंत में, जब हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में लेश मात्र भी संदेह न रहेगा, जब अविश्वास के सब कारण दूर हो जायेगें, तब वह लिपि जो अधिक शक्तिशाली है, अधिक व्यापक प्रयोग में आ जायेगी और राष्ट्रीय लिपि बन जायेगी।'
एक तथ्य और भी है जिसका रूप आज हिन्दी के संस्कृत रूप में सामने आ रहा है। यह मसला उस समय भी गंभीर था। महात्मा गांधी ने उस समय (1917) में भी यह स्पष्ट किया था - 'शिक्षित हिन्दू अपनी हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ कर देते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि उसे मुसलमान समझ नहीं पाते हैं। इसी तरह लखनऊ के मुसलमान अपनी उर्दू का फारसीकरण कर देते हैं और वह हिन्दुओं के लिए अबोध हो जाती है।'
इन उद्धरणों से जो तसवीर बनती है, वहां भाषा को धर्म के साथ जोड़ने के प्रयास दिखायी देते हैं। जैसे संस्कृत को ब्राहमणों के साथ जोड़ कर देखना। नवजागरण में धर्म और संस्कृति को राष्ट्रवाद के साथ देखने की प्रवृत्ति भी स्पष्ट दिखायी पड़ती है। इसलिए नवजागरण सवर्ण हिन्दू नवजागरण है, जिसने भीतर छिपी साम्प्रदायिकता को खाद-पानी देकर मजबूत किया है, जो देश के हित में कतई नहीं है।
भाषा के विकास में किसी एक व्यक्ति का हाथ नहीं होता है। किसी भी समाज, राष्ट्र और देश की विकास यात्रा में भाषा की भूमिका सबसे महत्वपूण्र होती है। डा0 शम्भूनाथ ने एक जगह चार क्रान्तियों की चर्चा की थी - बुद्ध का संस्कृत की जगह पाली भाषा को अपनाना, अलवार, नयनार का शास्त्रीय भाषा को छोड़कर लोक भाषा को अपनाना, तुलसी का अवधी को अपनाना और नवजागरण के बाद अंग्रेजी की जगह अपनी भाषाओं को अपनाना। जैसे माइकल मधुसूदन दत्त का अंग्रेजी छोड़कर बंगला भाषा में साहित्य सृजन करना। ये तथ्य इस ओर संकेत करते हैं कि लोकभाषायें ही हमारी सांस्कृतिक पहचान बनाती है। हिन्दी भाषा का विकास भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है।
लेकिन नवजागरण काल के दौर में इसे जिस तरह से रूपांतरित किया गया, वह एक गंभीर समस्या का निर्माण करने में सहायक हुआ। हिन्दी-उर्दू को जो साम्प्रदायिक रूप दिया गया, वह भविष्य को कई और समस्याओं में उलझा गया। उस दौर में समाज की अग्रिम पंक्ति के लोग न तो अंग्रेजी का विरोध कर रहे थे,न दासता का।
नवजागरण काल में हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के लिए संघर्ष करने वाले साहित्यकारों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने आंदोलन को अभूतपूव्र शक्ति प्रदान की। 1882 के शिक्षा आयोग के प्रश्नों का उत्तर देते हुए भारतेन्दु ने कहा था- 'साहूकार और व्यापारी अपना हिसाब-किताब हिन्दी में रखते हैं। हिन्दुओं का निजी पत्र व्यवहार भी हिन्दी में होता है। स्त्रियां हिन्दी लिपि का प्रयोग करती हैं। पटवारी के कागजात हिन्दी में लिखे जाते हैं और ग्रामों के अधिकतर स्कूल हिन्दी में शिक्षा देते हैं।'
राधाचरण गोस्वामि द्वारा सम्पादित तथा मथुरा से प्रकाशित समाचार पत्र भारतेन्दु ने 8 अगस्त 1884 के अंक में लिखा - '---इन देशवासियों की हिन्दी स्वाभाविक भाषा है, उर्दू अस्वाभाविक है, फिर भला उसमें लोगों की प्रवृत्ति कैसे हो ?'
इन उद्धरणों से आभास होता है कि हिन्दी के लिए जी जान से संघर्ष करने वाले उर्दू का विरोध कर रहे थे, न कि अंग्रेजी का। क्योंकि हिन्दी हिन्दुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मान लिया गया था, जो एक गहरी साम्प्रदायिक सोच का परिणाम थी।

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