Sunday, March 16, 2008

कागज का नक्शाभर नहीं है देहरादून

कागज पर खींच दिये गये किसी नक्शे की शक्ल में देहरादून को दिखा पाना मेरे लिए असंभव है। रेखांकन करने का वो हुनर, जो हुबहू नहीं तो आभास जैसा कुछ गढ़ पाये, मेरे पास नहीं। एक ड्राफ्रट्समैन वाली समझ तो कतई भी नहीं। मौसम के बारे में कहूॅं तो हर बार के मौसम मुझे गये सालों के मौसम से ज्यादा तीखे ही दिखायी दिये और वही उक्ति दोहराने को मजबूर हॅंू - इस बार गर्मी बड़ी तीखी है बारिश भी हुई इस बार ज्यादा औ ठंड भी पड़ी पहले से अधिक ।इतिहास की पाठ्य पुस्तकें, जिन्हें पढ़कर प्राप्त हुआ सरकारी मोहर लगा कागज़, जिसे हर वक्त अपनी जान की तरह सुरक्षित रखने को विवश हॅंू, वह समझ दे ही नहीं पाया कि किसी भी जन-जीवन के विकास को क्रमवार विश्लेषित कर पांऊँ। फिर जिन पाठ्य पुस्तकों को मैंने पढ़ा, उनमें देहरादून तो क्या देश भर के कितने ही अनगिनत इलाके हैं, जिनका उनमें कोई जिक्र ही नहीं रहा।ऐसे में आये दिन तेज गति से बदल रहे देहरादून के भूगोल के साथ-साथ माहौल की बदल रही आबो हवा को समझ सकूं और आपके सामने रख पाऊँ, इसमें मैं अपने को अक्षम पाता हॅू। स्पष्ट है कि यह समझ सिर्फ किताबों को पढ़ लेने भर से हांसिल नहीं की जा सकती। उसे तो व्यवहार से जाना जा सकता है। व्यवहार का मामला तो यह है कि एक हद तक उसी मध्यवर्गीय शालीन मानसिकता में, जिसमें असहमति को खुलकर न रख पाने का दब्बूपन और उस दब्बूपन के भावों को छुपाये रखने की कला का कुशलता के साथ प्रयोग किया जाता है, अपने को जकड़ा हुआ पाता हॅूं - जो देहरादून के मिजाज की खासियत के तौर पर चारों ओर बिखरी हुई है। देहरादून के मिजाज में आयी ये व्यवाहारिक गड़बड़ रिटायर्ड नौकरशाहों और थैलीशाहों के लिए ऐशगाह बन जाने के कारण ही पनपी है। सरकारी मुलाजिमों के एक बहुत बड़े वर्ग ने, जिनका मासिक वेतन इस शहर की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, उसके चलते ही ऐसी मानसिकता न सिर्फ पनपी है बल्कि दनि प्रति दिन ज्यादा मजबूत होती जा रही है। पुश्त दर पुश्त बॅंटती गयी खेती की सीमित ज़मीन और अविकसित खेती की कंगाल व्यवस्था में खुद को जिन्दा रख सकने वाली रेढ़ी-ठेली वाली बाजार व्यवस्था को वैकल्पिक रूप्ा में जब देखा जाने लगा था उस वक्त के देहरादून और आज के देहरादून में जो एक खास अन्तर दिखायी दे रहा है, वह यही कि आज ज़मीनों की उछाल लेती कीमतों ने उस वैकल्पिक बाजार व्यवस्था को बेदखल करना शुरु कर दिया है। राजधानी बन चुके देहरादून के सौन्दर्य के नाम पर रेढ़ी-ठेली वाली व्यवस्था को पूरी तरह से बेदखल कर देने की कोशिश 'मॉल" संस्कृति को पनपाने का एक दूसरा पहलू है। राज्य बनने के बाद एकाएक आये ज़मीनों के इस उछाल में जहॉं एक ओर अपना काफी कुछ बेचकर 'आय" के उन तलाशे गये स्रोतों को अपनाने वाले उस दौर के युवा किसान अपने को ठगा-सा महसूस करने लगे हैं, वहीं आज के इस दौर में बिल्डरों-भूमाफियाओं की तेजी से बढ़ती आक्रमकता का नशा अपना जाल फैलाती दलाल संस्कृति मंें बाकी के बचे रह गये किसानों को अपनी अपनी ज़मीनों को बेचकर चमत्कृत दुनिया के सपने दिखाने लगा है। और इस सपने ने ही उस दौर के बाद बची रह गयी कुछ खेती योग्य भूमि को बीसवा, गज और फुटों की नाप जोख वाली संस्कृति में बदलकर रख दिया है। वर्तमान समय में देहरादून की अर्थ-व्यवस्था में 'उछाल" का यह मायावी खेल उत्पादकता के बेशक छोटे-छोटे, लेकिन स्थायी तंत्र को तहस-नहस कर उपभोक्तवाद की अंधि दौड़ में चकाचौंध पैदा कर रहा है। कोई भी सामान्य समझ से कह सकता है कि उत्पादकता के अभाव में फैलने वाली यह तात्कालिक चमक क्षणिक ही साबित होगी। रुपयों पैसों की वो गठरी जिसको संभालने में अभी बेशक अफरातफरी का एक माहौल दिखायी दे रहा हो पर उसका क्षरण होते ही स्थितियां एकदम साफ नजर आने लगेंगी। सरकारी महकमों के दम पर टिकी देहरादून की अर्थव्यवस्था को भविष्य तो पहले ही आये दिन बढ़ती जा रही निगमीकरण और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की चपेट में है। ऐसे में पारम्परिक खेती के बासमति चावल, गन्ना और चाय के एकड़ों खेतों पर उगते जा रहे कंक्रीट के जंगलों का यह आक्रमण जल्द ही युवाओं के भीतर हताशा पैदा करने लगेगा।दागिस्तान के तीन खजानों का जिक्र करते हुए रसूल हमजातोव द्वारा सुनाया गया किस्सा याद आ रहा है -''किसी पहाड़िये ने अपने खेत को जोतने का इरादा बनाया। उसका खेत गाूंव से दूर था। वह शाम को वहीं चला गया ताकि तड़के काम में जुट पाये। यह पहाड़ी आदमी वहॉं पहुॅंचा, उसने अपना लबादा वहॉं बिछाया और सो गया। वह सुबह ही जाग गया ताकि खेत जोतना शुरु कर सके, लेकिन खेत तो कहीं था ही नहीं। उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, मगर खेत कहीं दिखायी ही नहीं दिया। गुनाहों की सज़ा देने के लिए अल्लाह ने छीन लिया था या ईमानदार आदमी की खिल्ली उड़ाने के लिए शैतान ने उसे कहीें छिपा दिया। कोई चारा नहीं था। पहाड़ी आदमी म नही मन दुखी होता रहा और आखिर उसने घ्ार लौटने का फैसला किया। उसने ज़मीन पर से लबादा उठाया और - हे भगवान! यह रहा लबादे के नीचे उसका खेत।
देहरादून ही नहीं पूरे पहाड़ पर उगे रहे ऐसे नीरस कंक्रीट के जंगलों की खबर, लबादे के नीचे ढके इन खेतों पर टिकी गिद्ध निगाहों और उनके कारनामें का बेहतरनीन नमुना बनकर, ग्लोबल विज्ञापन जगत में छाती जा रही है। शिक्षा के मन्दिर के रुप में स्थापित देहरादून के बारे में मैं आज भी अपनी उसी राय पर कायम हूॅं, जो मैंने एक दौर में अपनी कविता 'बस यात्रा" में रखने की कोशिश की थी -बदलते ही जा रहे हैं ईटों के भट्ठे जगह-जगह खुले स्कूलों की तरह जबकि ताजा बनी दीवारें लगातार ढह रही हैं।
राजनीति की अखाड़ेबाजी ने उममीदों की बजाय निराशा का माहौल रचा है जिसकी परिधि में जीवन कार्यव्यापार के सभी क्षेत्र जकड़े हुए दिखायी देने लगे हैं। मैं कोई इतिहासविद्ध नहीं। समय दर समय की शिनाख्त तारीखों के रूप में नहीं बल्कि दौर के रूप्ा में मेरे भीतर अंगड़ाई लेती है। वैसे भी समय की नपी तुली तथ्यात्मकता शायद ही मुझे अपनी बात रखने में मद्द पहुॅंचाये। दौर के हिसाब से कहॅंू तो साहित्यिक, सांस्कृतिक वातावरण में 'टिप-टाप' की टंटा समिति पूरी तरह से उखड़ चुकी है। टंटाधीश, टंटाधिपति, टंटा शिरोमणि की उपाधियों से नवाज़े जाने का वक्त समाप्त हो चुका है। आत्मीयता और एकजुटता का बचा खुचा, बेहद झीना पर्दा ही 'संवेदना" की प्रासंगिकता के रूप्ा में दर्ज किया जा सकता है। नाटकों के क्षेत्र में भी एक दौर में संलग्न संस्थाऍं और रंगकर्मी लूप्तप्राय: से हो गये हैं। ज़मीनों की खरीद-फ़रोख्त और मल्टीस्टोरिज ईमारतों की अवधारणा ने भी एक हद तक इसमें अपना रंग दिखाया है। एक दौर में रंगकर्मियों का अड्डा रही वह बिल्डिंग, नेहरुयुवा केन्द्र के नाम से जिसे जाना जाता था, उजड़ चुकी है। अभ्यास के लिए स्थान की अनुपलब्धता एक तर्क के रूप्ा में स्थापित होती चली गयी है। माहौल में फैली निराशा और हताशा ने ज्यादातर को घ्ार, परिवार और बच्चों में उलझा दिया है। जिनमें थोड़ी बहुत ऊर्जा या उत्साह बाकि है, वे मेले-ठेलों के खेल में जुटे हैं या बड़े पर्दे के कल्पनालोक में गोते लगा रहे हैं। कुछ उत्साही युवा रंगकर्मियों की ज़मात है जो अनुभवहीनता के चलते या तो दोहराव की राह पर है या फिर सरकार और गैर सरकारी तंत्र के तंत्र के द्वारा तय किये जा रहे एजेन्डे के तहत अपनी रचनाधर्मिता में संलग्न है।खेलों के क्षेत में अखबारी उपलब्धियों के बावजूद भी माहौल में उल्लास की वो चमक नहीं है जो सचमुच की जीत की खुशी देती है। हॉं, देहरादून का फुटबॉल कुछ-कुछ ज़िन्दा होता हुआ सा दिख रहा है। एक दौर में खॅंूटियों पर टंग चुके जूते फिर से फुटबॉल खिलाड़ियों के पॉंवों में चरमराने लगे हैं और चमड़े को पीटने के लिए कुछ बेताब भी नज़र आने लगे हैं। उत्तेजना और उल्लास की यह चमक कायम रहे। नहीं जानता कि जो कुछ भी मैंने अभी तक कहा, उससे देहरादून की कोई छवी बनी भी या नहीं। पर यह तो कहना ही पड़ रहा है कि पहाड़ी समाज के सामूहिक विकास की स्वाभाविक जीवन शैली के खिलाफ़ दलाल किस्म की गतिविधियों ने व्यक्तिवाद को चरम पर पहुॅंचाया है और असंवेदनशील समाज के सर्जन एवं विकास का बीज बोया है। देहरादून के चरित्र को जानने और समझने के लिए, अतीत के एक हिस्से पर, मैं भी देहरादून जनपद के कवि राजेश सकलानी की इस बात से इत्तिफाक रखता हॅूं कि एक दौर था जब पहाड़ का भागा हुआ कोई नवयुवक पहले से भाग आये अपने किसी साथी, नाते-रिश्तेदार के सहॉं शरण पाता था और महीनो-महीनों दर7दर की ठोकरें खाता हुआ अपने लिए अपनी कही जा सकने वाली ऐसी ही किसी शरणगाह का जुगाड़ कर लेता था, जो बाद में दूसरे किसी वैसे के लिए ही शरणगाह बन जाती। ऐसी ही सामूहिक कार्यवाहियों ने देहरादून के चरित्र को गढ़ा है। लेकिन आज किसी के पास इतनी फुर्सत या इतनी अनुकूल स्थिति नहीं बची ि कवह मद्द के नाम पर भी ऐसा कुछ कर पाये। आज का देहरादून, एक दौर में रोजगार के वास्ते पहाड़ से भाग-भाग कर आये ऐसे ही तमाम लोगों की सामूहिक गतिविधियों का प्रमाण है। पहाड़ के लोगों के लिए वे दिन उनके अपने जीवन के स्वर्णिम दिन भी कहे जा सकते हैं। उन्हीं पहाड़ी बुजुर्गो को, आज की युवा पीढ़ी, चौंधियाते माहौल में शायद याद भी नहीं करना चाहती। उस अतीत से उसका कोई लेना देना नहीं जो सहयोगात्मक तरह से दूसरे को भी आगे बढ़ाने की जगह बनाता है। वह तो गला काटू प्रतियोगिता में सिर्फ और सिर्फ अपने लिए ही सब कुछ बटौर लेना चाहती है।कथाकार सुभाष पंत की कहानियां देहरादून के ऐसे ही अतीत को पुन:सर्जित करती हैं। अरुण कुमार 'असफल" अपनी कहानियों में उसी छद्म की पड़ताल करते हैं जो दलाल संस्कृति का संवाहक है। नवीन नैथनी की कल्पनाओं में उछाल लेता देहरादून का एक दूसरा क्षेत्र ''सौरी"" के रूप्ा में ज़िन्दा होता है। कथाकार विद्यासागर नौटियाल की रचनाऐं जिनमें टिहरी बार7बार अपने इतिहास को सुना रहा होता है, हमें देहरादून के इतिहास में झांकने को मज़बूर करता है। पूरब से पहाड़ तक, तमाम स्त्रियों के जीवन में अवसाद के क्षणों की पड़ताल और उनको बदलने की चाह अल्पना मिश्र की रचनाओं का ताना-बाना है। अवधेश, हरतीज और सुखबीर विश्वकर्मा (कवि जी) ऐसे ही देहरादून का पुन:सर्जन करते हुए हमसे विदा हो चुके हैं। हिन्दी में दलित विमर्श की गूॅंज देहरादून से ही उठी - यह एक तथ्य के रुप में रखा जा सकता है। 'सदियों का संताप" दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह है, जिसकी खोज में दलित साहित्य का पाठ्क आज भी उस कविता संग्रह पर छपे उस पते को खड़खड़ाता है जो इसी देहरादून की एक बेहद मरियल सी गली में कहीं हैं। हिन्दी साहित्य के केन्द्र में दलित विमर्श जब स्वीकार्य हुआ, तब तक कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) वैसी ही न जाने कितनी ही रचनाऐं जैसी बाद में दलित चेतना कीसंवाहक हुई, लिखते-लिखते ही विदा हो गये। मिथ और इतिहास के वे प्रश्न जिनसे हिन्दी दलित चेतना का आरम्भिक दौर टकराता रहा उनकी रचनाओं का मुख्य विषय था। अग्नि परीक्षा के लिए अभिशप्त सीता की कराह वेदना बनकर उनकी रचनाओं में बिखरती रही। पेड़ के पीछे छुप कर बाली का वध करने वाला राम उनकी रचनाओं में शर्मसार होता रहा। देहरादून की तस्वीर को रख पाऊँ, मैं पहले भी कह चुका हॅूं, असमर्थ हॅंू। मैं तो साहित्य से बाहर ही नहीं निकल पा रहा हूॅं। जबकि स्पष्ट कहूॅं कि देहरादून को आकार और पहचान देने में फुटबॉलर श्याम थापा जैसे ढेरों नामी गिरामी खिलाड़ी, दंगल के उस्ताद शर्मा जी और एक दौर के वे नामी पहलवान लियाकत अली और फकीरा, राजनैतिक कार्यकर्ता समर भण्डारी और उन जैसे ही अन्य क्षेत्रों में संलग्न प्रतिबद्ध साथी जगदीश कुकरेती, स्वाध्यायी राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता, मिचमिची ऑंखों वाला वह बूढा पत्रकार - चारु चन्द्र चंदोला। जिसकी ऑंखों की रोशनी आज भी 'युगवाणी" के रुप में निखर-बिखर रही है। जगमोहन रौतेला, अरविन्द शेखर, राजू गुंसाई, अशोक मिश्रा आदि न जाने कितने लोगों के नाम लिये जा सकते हैं। ऐसे बहुत से लोग जिन तक मेरी पहुॅंच नहीं या जो बहुत चुपचाप सत्त कार्यवाहियों को अंजाम तक पहुॅंचाने में जुटे हैं वे सारे के सारे ही देहरादून कहे जा सकते हैं। उनसे ही बनती है पहचान देहरादून की।कुछ के नाम जो मुझे याद पड़ रहे हैं यहॉं लिए गये हैं पर अनेकों हैं जो छूट गये हैं। वे छूटे हुए नाम पाठक ले लेगें। पाठक हम लिखने वालों से ज्यादा दुनियादार हैं। हम तो निश्चित ही एक सीमित दुनिया के बीच में हैं। फिर जैसा मेरा मानना है भी है और यही सच भी कि किसी भी भू-भाग को आकार देने में जहॉं एक ओर सचेत कार्यवाहियों में जुटे लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, वहीं नैतिक ईमानदार और कर्तव्यबोध के तहत अपने-अपने विशेष क्षेत में जुटे लोगों की भूमिका को भी नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसे सामान्य लोगों ने फुॅटबॉल, खो-खो, शतरंज, तीरअंदाजी जैसे खेलों में अपनी उपस्थिति दर्ज कर देहरादून की जो तस्वीर गढ़ी है, उससे मॅंुह फेरा जा सकता है क्या ? देहरादून के धावकों को याद करने का मन किसका नहीं होगा। ये वे क्षेत्र हैं, कमोबेश जिनसे मेरा वास्ता रहा। जबकि जीवन के कार्यव्यापार के न जाने ऐसे कितने ही क्षेत्र हैं जिनके बारे में न तो मेरी जानकारी है और न जिन्हें जान पाने की मेरी क्षमता। ण्ेसे हीसामान्य लोग आज भी बेचैन स्थिति में हैं। आये दिन सड़कों पर उतरने वाली महिलाऐं, हर गलत पर चौकन्नी निगाह रखने वाले छात्र-नौजवान और मेहनतकशों की छोटी-छोटी कोशिशे ही इस बेचैनी को तोड़ेगीं। उम्मीदों के पौधे हमारे खेतों में ऐसे ही सामान्य लोगों के प्रयासों से लह-लहायेगें। उन सबसे सीख और समझ लेकर ही मैं देहरादून की तस्वीर शायद रख पाऊँगा। यह जो कुछ भी कहा गया देहरादून के बारे में, नितांत मेरी व्यक्तिगत राय का अक्श है, जो मेरी स्मृतियों में दर्ज घ्ाटनाओं और मेरे निजी अनुभवों के आकाश से उपजा है। बहुतों की राय इससे भिन्न हो सकती है। मैं उस भिन्नता का सम्मान करता हॅूं। वैसे भी इसे हीअन्तिम माना जाये, यह तो मैं इसलिए भी नहीं कह सकता क्योंकि मेरे ही भीतर दर्ज स्मृतियों के कोनों में अभी और भीकई बातें हैं जिन्हें पूरी तरह से नहीं रख पाया हॅूं। फिर कैसे मान लूं कि यही एक मात्र और माकूल छवी हो सकती है देहरादून की। रतन और ली पतंगबाज, कुसम्बरी का मांजा, भरतू और बारु की दोस्ती-दुश्मनियों के किस्से, देहरादून की रामलीलाऐं, गुरुबचन तांगे वाले का जीवन, रोशन हलवाई के रसगुल्ले, मैंगा राम के समोसे, देहरादून का कबाड़ी बाजार, कागज के लिफाफे बनाने वाले लोग, सड़के पर पड़े हुए गोबर को इक्टठा करके कंउे थापने वाली लड़कियां, पॉंच पैसे - दस पैसे वाली लाटरी के पत्ते को फाड़कर हर क्षण भाग्य आजमाने वाले लोग, गोली वाली सोडे की बोतल का पानी बेचता वह बूढ़ा सिक्ख - देश के विभाजन ने जिसको पूरी तरह से तोड़ देने के बाद भी जीवन के संघ्ार्ष में जुटे रहने की ताकत दी। ऐसे ढेरों लोगों की बाते मेरे भीतर स्मृतियों के रुप में अब तक जिन्दा है। अभी तो नुडत्र नाटक आंदोलन में 'दृष्टि" की भूमिका 'दादा" अशोक चक्रवर्ती और अरुण विक्रम राणा सरीखे अपने न जाने कितने अग्रजों के माध्यम से मैं और भी बहुत कुछ कहने को बेचैन हॅूं। अभी देहरादून का लघ्ाु उद्योग - बल्ब फैक्ट्री का जिक्र करना बाकी है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन का खदबदाता हुआ समय फिर से वैसे ही हुज़ूम को सड़क पर उतर आने का समना दिखा रहा है। छात्राों का आंदोलन, जो बी।एड के संदर्भ में शिक्षा के निजीकरण की मुखालफ़त को लेकर शुरु हुआ। छात्र आंदोलन का वह दौर भी जब विवेकानन्द खण्डूरी निर्विवाद रुप से छात्र नेता के रुप में स्थापित था। उसके बाद के दौर में वेदिका वेद सरीखे छात्र नेताओं की भूमिकादमदार रही। जिनके रहते एस एफ आई ने अपना परचम लहराया। कामरेड सुनिल चंद्र दत्ता के दौर के देहरादून,जिसे मैंने कारखाने में जाने के बाद अपने वरिष्ठ साथी कामगारों और ट्रेड यूनियन साथियों से जाना। मुझे लगता है, देहरादून की तस्वीर जो अभी और आगे भी, लगातार मेरे भीतर दर्ज होने वाली है, उसको भी कहना होगा।

4 comments:

Arun Aditya said...

एक शहर के बहने पूरे देश की बात कह दी। अच्छा लिख रहे हो। शुभकामनाएं।

KAMLABHANDARI said...

bilkul sahi baat kahi hai aapne .ek sahar ke dushre se judne se hi to desh banta hai isliye har jagha ki apni ahmiyat hai.
waishe i will try to write my blog in hindi.

Anonymous said...

vah! vijay bhai, tumahara blog nayab hai! naveen ka alakehn vigyan aur sathiya ka i jugalbandi per gahari anterdristhi dalta hai1 bahut bahut badhi.

dinesh chandra joshi said...

vah! vijay bhai, tumahara blog nayab hai! naveen ka alakehn vigyan aur sathiya ka i jugalbandi per gahari anterdristhi dalta hai1 bahut bahut badhi