देहरादून के रचनात्मक जगत पर और महिला रचनाकरों पर जब भी बात की जाएगी तो कथाकार कुसुम चतुर्वेदी और शशिप्रभा शास्त्री का जिक्र किये बगैर बात नहीं की जा सकती। यह संयोग ही कहा जा सकता है कि दोनों ही रचनाकार महादेवी कन्या (पी जी) कॉलेज में अध्यापनरत रहीं। उन्हीं कुसुम चतुर्वेदी को याद करते हुए आज हमारे सम्मुख हैं कथाकार विद्या सिंह। कुसुम जी की शोधा छात्रा रहते हुए विद्या सिंह जी को न सिर्फ उनके निजी जीवन से साक्षात्कार करने का मौका मिला, अपितु उनकी रचनाओं को भी करीब से देखने का सुयोग प्राप्त हुआ। उनका यह संस्मरण इस बात का गवाह है जिसे उन्होंने हमारे आग्रह पर कुसुम की रचनाओं से गुजरते हुए बहुत ही आत्मीय तरह से लिखा है। |
स्मृतियों की परिधि में डॉ. कुसुम चतुर्वेदी
सुप्रसिद्ध कहानी लेखिका डॅा. कुसुम चतुर्वेदी, जिन्हें मैं हर
प्रकार की औपचारिकता को दर किनार करते हुए ‘दीदी‘ संज्ञा से संबोधित करती रही हूँ,
से प्रथम परिचय प्राप्त करने के सुयोग की पृष्ठभूमि में डॉ. पंजाबी लाल
शर्मा, तत्कालीन विभागाध्यक्ष हिन्दी, डी.
ए. वी. पी. जी. कॉलेज का वह पत्र था, जो उन्होंने मुझे
शोधछात्रा के रूप में, अपने निर्देशन में लेने का अनुरोध
करते हुए डा.चतुर्वेदी को लिखा था। उस समय मेरी दूसरी बेटी कोख मे पल रही थी।
’’उनके साथ आप अधिक सहजता अनुभव करेंगी‘‘ डॉ. शर्मा के शब्द थे।
आशंकित भाव
से गेट के भीतर घुसते ही संभावित कुत्ते का भय, हरे भरे वृक्षों के बीच, सुन्दर लॉन से सुसज्जित बंगला, कुल मिला कर एक
अभिजात्यपूर्ण वातावरण का असर तो था ही, डॉ. चतुर्वेदी ने
पत्र पढ़कर मुझे हतोत्साहित करते हुए जो प्रतिक्रिया व्यक्त की, मेरे लिए वह अकल्पनीय थी। ज्ञात नहीं वह अपने वक्तव्य में कितनी गंभीर थीं,
किंतु मैने उनके शब्दों को यथावत् ग्रहण किया। ’’अरे! दो-तीन बच्चे
पैदा करो और पैर पसार कर सोओ। क्या रखा है पी-एच.डी. में?‘‘ आई.
डी. पी. एल. ऋषिकिेश से मेरे बार-बार चक्कर लगाने पर संभवतः उन्हें मेरे निर्णय की
गंभीरता का बोध हुआ और वह काम कराने को सहमत हुईं। मेरी सिफ़ारिश उनके पति श्री
एस. सी. चतुर्वेदी ने भी की, जो मुझे डी. ए. वी. कॉलेज में
एम. ए. अंग्रजी की कक्षा में पढ़ा चुके थे।
दीदी से निरन्तर मुलाकातों के क्रम में उनकी
कहानियों पर भी बातें होतीं। मैं अब समझ सकती हूॅ कि वह मेरी मौखिक समीक्षा से
बहुत आश्वस्त नहीं होती थीं। उनकी रचना के बहुत से पक्ष मेरी समझ की परिधि में
समाने से रह जाते,
जिन पर वह प्रतिक्रिया जानना चाहतीं। यह बात सन् 1980 की है जब साहित्य को समझने की तमीज भी मेरे भीतर पैदा नहीं हुई थी।
शोधछात्रा के रूप में दीदी से जो मेरा जुड़ाव हुआ, मेरे प्रति
बरती गई उनकी उदारता वश, वह उत्तरोत्तर अधिक आत्मीय होता गया
और आगे चल कर विभागीय,पारिवारिक एवं अध्ययन-अध्यापन के
स्तरों पर निरंतर बना रहा। एम.के.पी. पी.जी. कॉलेज में प्राध्यापिका के रूप में
मेरे चयन में उनकी अविस्मरणीय भूमिका थी। विभाग की वरिष्ठ प्राध्यापिका डॉ. उषा
माथुर यूजीसी के किसी प्रोजेक्ट के तहत दीर्घ अवकाश लेकर दिल्ली चली गई थीं। दीदी
का पोस्टकार्ड मुझे प्राप्त हुआ कि 'यदि तुम पढ़ाने आ सकती
हो, तो आ जाओ। यहां अवकाश कालीन रिक्ति है। बाद में हो सकता है यह पूर्णकालिक भी हो जाए।'
ऋषिकेश से नौकरी
छूटने के बाद मैंने पी-एच.डी. की और अब मैं
इंटर के बच्चों को अंग्रेजी की ट्यूशन देती थी। पत्र पाकर मुझे बहुत
प्रसन्नता हुई। मैं देहरादून आई, मुश्किल से दो कक्षाएं लेनी होती थीं। मैं खा-
पीकर 10:30 बजे आई.डी.पी.एल. से निकलती थी और 12:30 तक देहरादून पहुंच जाती थी। 3:30 बजे फ्री हो जाती
थी और फिर वापस 5:15 से 5:30 तक आईपीएल
पहुंच जाती थी। एक डेढ़ साल मैंने इस व्यवस्था में पढ़ाया कि पूर्णकालिक शिक्षक की
रिक्ति निकली मुझे पूर्णकालिक नौकरी प्राप्त हो गई। इन सबके पीछे मेरे सिर पर दीदी
का वरदहस्त था।
उनके साथ
महाविद्यालय में काम करते हुए, उन्हें बहुत निकट से देखने का अवसर मिला। भाषा पर
उनकी अद्भुत पकड़ थी और शब्दों के हेर-फेर से चमत्कार पैदा कर देना उनका हुनर ।
अपनी वैदुष्यपूर्ण टिप्पणियों से वह मेरे शोधकार्य को स्तरीयता प्रदान करतीं,
अनावश्यक मीन-मेख कभी नहीं निकालतीं। वह भीतर-बाहर एक जैसी थीं। मैं उनके जीवन के
अन्यान्य मोड़ों की प्रत्यक्षदर्शी रही हूॅ और इन सभी सन्दर्भों में उनके
व्यक्तित्व ने मुझे प्रभावित किया। कहते हैं मन और आत्मा की स्वच्छता व विशदता तन
को स्वास्थ्य देती है,सुघड़ता देती है। दीदी के लिए यह कथन
सर्वांश रूप में सत्य है।
प्रसाद
जी की पंक्तियों का सहारा लूं तो ‘हृदय की अनुकृति वाह्य उदार, एक लंबी काया
उन्मुक्त‘ द्वारा उनके आकार- प्रकार का चित्रण किया जा सकता है। किन्तु अपने पति
के सुदर्शन व्यक्तित्व के सम्मुख वह हमेशा स्वयं को दूसरे पायदान पर रखती थीं। यह
उनकी निरभिमानता का प्रमाण है। प्रायः उनकी कहानियां पढ़ते हुए, उनसे बातें करने और बातें करते
हुए, कहानियां पढ़ने का भ्रम होता था। साहित्य व्यक्तित्व का
प्रतिफलन होता है, यह कथन उनके लेखन के संदर्भ में एकदम सटीक
बैठता है। परम्परा और आधुनिकता की संक्रान्ति के मध्य उभरती मूल्यचेतना से संपन्न
जिस स्त्री को उन्होंने अपने लेखन के केन्द्र में स्थापित किया है, उससे उनकी वैचारिक समानता प्रकट होती है।
अपने
निर्णय के मामले में वह किसी का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करती थीं। दिल्ली
विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के उपरांत शोध के लिए उनकी इकलौती बेटी नीरजा अमेरिका
जाने वाली थी। टिकट और वीसा, सब कुछ हो चुका था। इसी बीच चतुर्वेदी सर का
देहांत हो गया। बहुत से निकट के लोगों ने उन्हें समझाया कि बेटी को बाहर न जाने
दें किंतु उन्होंने अपने विवेक से काम किया और बेटी के मार्ग में कोई बाधा नहीं
डाली। बाद में बेटी ने वहीं अमेरिका में नौकरी ज्वाइन कर ली और उसने विवाह भी नहीं
किया। उसके विवाह की लालसा उनके दिल में ही रह गई।
पहले
शोधछात्रा और बाद में उन्हीं के विभाग में एक शिक्षिका के रूप में उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला। एक प्रसंग मैं
कभी नहीं भूल पाती और याद आने पर अधरों पर मुस्कान अपने आप फैल जाती है।
डिपार्टमेंट में मधु शर्मा मैडम की बेटी का विवाह था; मैं ऋषिकेश से
आई थी। वैवाहिक आयोजन से लौटने में रात हो गई और वापस ऋषिकेश जाने की कोई सूरत
नहीं रह गई थी। अतः मैं दीदी के घर पर रुक गई। उन्होंने ओढ़ने के लिए मुझे एक रजाई,
जो मेरे हिसाब से बहुत पतली थी,दी। रात में
बहुत ठंड लगी किंतु संकोच वश मैंने उन्हें नहीं जगाया। सुबह उठने पर उन्होंने पूछा
रात में तुम्हें गर्मी तो नहीं लगी? मैंने कहा,
"नहीं दीदी, गर्मी बिल्कुल नहीं
लगी।" जब मैं आई.डी.पी.एल. पहुंची तो हीटर ऑन करके तलवों में तेल लगा ,कर मैंने अपने को खूब सेंका।
उन दिनों उनकी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में। खूब प्रकाशित हो रही थीं।
उनकी कहानियां परिवार में घटने वाली उन छोटी- छोटी बातों को पूरे विवरण के साथ
प्रस्तुत करती हैं,जो महत्त्वपूर्ण तो हैं, किन्तु उनकी ओर हमारा ध्यान कम ही जाता है। उत्तरकालीन जीवन के तीसरे पड़ाव
पर नितान्त अकेली रह गई स्त्री की पीड़ा को उन्होंने अत्यन्त संवेदना पूर्वक उकेरा
है। आर्थिक रूप से सुदृढ़ होना ही सुखी जीवन की अनिवार्यता नहीं है। अच्छा वेतन
पाने वाली अनेक ऐसी स्त्रियों के चित्र उनकी कहानियों में मिलते हैं जो घरेलू
औरतों के प्रति इर्ष्यालु हो उठती हैं किंतु उनकीअधिकांश कहानियों की स्त्री
अत्यन्त संवेदनशील और अस्तित्व के प्रति सजग है। पति- पत्नी के बीच उभरते द्वन्द्व,
अपने-अपने व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास के लिए संघर्ष करते हुए पति- पत्नी के जीवन में व्याप्त तनाव,
पति के साथ एकरस और ऊब भरी जिन्दगी बिताने की नियति को नकार कर
स्वच्छन्द जीवन-यापन करने का साहस आदि भावों को व्यक्त करती हुई उनकी अनेक
कहानियां देखी जा सकती हैं। जीवन की विविध स्थितियों में घुटन भरी जिन्दगी जीती
स्त्री उस अपरिचित व्यक्ति के प्रति सहानुभूति से भर उठती है, जो उसके व्यक्तित्व को सम्मान देता है। सम्बंधहीन कहानी की नायिका सुनन्दा
का पति उसके लेखन को बिल्कुल महत्त्व नहीं देता, ऐसे में वह
उस पराए व्यक्ति को बहुत अपना समझती है, जो उसके लेखन की
कद्र करता है।उसकी मृत्यु उसे व्यक्तिगत हानि महसूस होती है।
संवेदनशील रचनाकार की दृष्टि
समाज में उपेक्षित उन समस्त वंचितों की ओर जाती है, जिनकी सहायता में कोई आगे नहीं आता।दीदी
की कहानियां इस सच्चाई का साक्ष्य हैं। इसके अतिरिक्त आपकी कहानियां समाज में
व्याप्त उन तमाम विडंबनाओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं, जो घुन की तरह समाज को खोखला कर रही हैं। पब्लिक स्कूलों में चल रहे
शिक्षा के व्यवसाय को प्रदर्शित करती कहानी ‘उपनिवेश' शिक्षक
शिक्षिकाओं के शोषण का अत्यन्त बारीकी से विवरण प्रस्तुत करती है।
कितने ही लोग भविष्य की
चिन्ता मे वर्तमान को नारकीय बना लेते हैं। ‘यक्ष’ एक ऐसेे दंपति की कहानी है,
जिसका पुरुष पात्र प्रकाश अत्यन्त कंजूस है। वह पूरा जीवन पैसे
जोड़ने के फेर में अभावग्रस्त होकर बिता देता है और अन्त में सब कुछ छोड़ स्वर्ग
सिधार जाता है। पत्नी को पति द्वारा बरती गई कंजूसी के स्मरण से क्षोभ होता है और
वह उन पैसों को अपने ऊपर भी व्यय नहीं कर पाती। मानव मनोविज्ञान की गहरी सूझबूझ के
साथ रची गई ये कहानियां पाठक पर सीधा प्रभाव डालती हैं।
स्त्री किसी भी उम्र की
हो अपने सौन्दर्य के प्रति की गई उपेक्षा उसे सहन नहीं होती।’अनदेखे बंधन‘ की
इन्द्रा को, पति द्वारा बरती गई लापरवाही, अपने प्रति सजग बना देती है। वह अपने सौन्दर्य को लेकर पर्याप्त चिन्तित
हो जाती है। वह अपना सौन्दर्य पारिवारिक
मित्र अजीत के उपर आजमाना चाहती है। चाय लेकर अजीत के कमरे में जाते हुए यह निश्चय
करती है कि वह अजीत के मन में अपने प्रति आकर्षण पैदा करेगी, किन्तु उसका विवेक उसे ऐसा करने से रोक देता है। नारी मनोविज्ञान की समझ से युक्त कहानियों में स्त्री के अनेक
रूपों का चित्रण हुआ है। कामकाजी महिला की दुविधा उसके दर्द और विवशता उनकी
कहानियों में व्याप्त हैं। कहीं अपने बच्चे को बहन को गोद देने की विवशता का चित्र
है तो कहीं अपने गरीब भाई- भाभी के लिए भरेपूरे ससुराल में कष्ट पाती स्त्री का
चित्र है। उनकी कहानियां जीवन की अनेक स्थितियों में घिरी हुई स्त्री के मन में चल
रहे द्वन्द्व को वाणी देती हैं।
दीदी की कहानियों के शीर्षक पर
बात न की जाए तो चर्चा अधूरी रह जाएगी। अपनी कहानियों के शीर्षर्कों का चुनाव
उन्होंने काफ़ी सोच समझ कर किया है।प्रायः शीर्षक प्रतीकात्मक हैं, कहानी के भीतर
छिपे मर्म की ओर संकेत करते हुए। ‘तीसरा यात्री’, ‘एकलव्य’,
‘कुबेर के प्रतिद्वन्द्वी’,‘उपनिवेश’ आदि अनेक
शीर्षक उदाहरण स्वरूप देखे जा सकते हैं।
आज वह पार्थिव रूप में भले
हमारे बीच नहीं हैं पर अपनी रचनाओं के माध्यम से वह सदैव हमारे मध्य बनी रहेंगी।
2 comments:
बहुत अच्छा किया। कुसुम चतुर्वेदी का ऋण तो देहरादून के ऊपर है ही।
बहुत सुंदर
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