19.08.2023 को प्रोफ़ेसर ओ.पी. मालवीय एवं भारती मालवीय स्मृति सम्मान 2023 से सम्मानित कथाकार नवीन कुमार नैैैैैैैथानी द्वारा सम्मान समारोह के अवसर पर दिया गया वक्तव्य |
Saturday, September 2, 2023
पहुँच से बाहर- पकड़ से बची हुई.किसी गह्वर में अटकी हुई है कहानी
Sunday, August 20, 2023
नवीन कुमार नैथानी को दिनांक 19.08.2023 को इलाहाबाद में चतुर्थ ‘श्रीमती भारती देवी एवं श्री ओमप्रकाश मालवीय स्मृति’ प्रदान किये जाने के अवसर पर कथाकार योगेंद्र आहूजा का वक्तव्य
हिंदी के अनूठे, अपनी तरह के अकेले और हम सबके प्रिय कथाकार, नवीन कुमार नैथानी को चतुर्थ ‘श्रीमती भारती देवी एवं श्री ओमप्रकाश मालवीय स्मृति’ पुरस्कार से सम्मानित किये जाने के अवसर पर उन्हें बहुत-बहुत बधाई । नवीन जी साहित्य के शक्ति-केन्द्रों या ग्लैमरस मंचों से दूर, बल्कि उनसे बेनियाज़ और बेपरवाह ... ‘अपनी ही धुन में मगन’ ... ‘उत्तराखंड’ में अपने गाँव भोगपुर और फिर डाक-पत्थर, तलवाड़ी और देहरादून जैसी जगहों पर रहते हुए, अपनी मौलिक, अन्तर्दर्शी निगाह से देश-दुनिया के लगातार बदलते हालात और हलचलों का मुतालया करते हुए, लगातार कहानियां लिखते रहे हैं । ‘सौरी’ नाम की एक विस्मयकारी जगह है, जो स्मृतियों-लोकाख्यानों-किंवदंतियों-जनश्रुतियों से बनी या उनमें फैली है, जहाँ किस्से और इतिहास आपस में उलझते रहते हैं - वे वहीं के बाशिंदे हैं । यह ‘सौरी’ जो उनकी कहानियों में बार-बार आती है - सिर्फ एक किस्सा या कोई ख्याली, अपार्थिव, या लापता या लुप्त जगह नहीं, उसका एक भूगोल भी है । वह उनकी ‘मनस-सृष्टि’ है, लेकिन वे स्वयं इसी ‘सौरी’ की उपज हैं । मैंने उन्हें ‘अपनी ही धुन में मगन’ कहा है लेकिन इससे यह न समझें कि वे दुनिया से गाफिल, गोशानशीनी के आदी, अपने-आप में बंद कोई ‘स्व-केन्द्रित’ या ‘आत्म-मुखी’ शख्स हैं, नहीं, वे तो जिंदगी से भरपूर एक आत्मीय, दोस्त-नवाज़ शख्स हैं और दोस्तों की महफ़िलों में सबसे ऊंचे ठहाके उन्हीं के होते हैं । वे अपनी किसी प्राइवेट दुनिया में नहीं, इसी संसार में रहते हैं अपनी बेचैनियोँ, चाहतों और सपनों - और ‘लिखने’ को लेकर अपनी अटूट प्रतिबद्धता के साथ । नियमित अंतराल से उनकी कहानियां पाठकों के सामने आती रही हैं जिनमें वे पहाड़ और पहाड़ी जीवन की छवियों के ज़रिये अपने समय को अपनी तरह से परिभाषित करने की कोशिश करते रहे हैं । उनकी कहानियों का लोकेल या परिवेश अधिकतर पहाड़ होता है - लेकिन उनके पाठक जानते हैं कि वह सिर्फ ‘लोकेल’ होता है, उनकी हदबंदी नहीं । पहाड़ उनकी कहानियों की बाहरी ‘हद’ है - लेकिन इस हद के भीतर उनकी कहानियां ‘बे-हद’ हैं । कहानियों की ‘अर्थ-व्यंजना’, या कहें, उनका ‘सत्य’ या ‘सार-तत्व’, वह इस हद में नहीं समाता । वह तो उसे तोड़ते हुए, अतिक्रमित करते हुए जिंदगी के किन्हीं बुनियादी, आधारभूत आशयों या मायनों की ओर चला जाता या चला जाना चाहता है । ‘पुल’, ‘चढ़ाई’, ‘पारस’, ‘चाँद-पत्थर’, ‘चोर-घटड़ा’, ‘हतवाक्’ और ‘लैंड-स्लाइड’ जैसी कितनी ही कहानियां इस बात की गवाह हैं । उनका एक संग्रह ‘सौरी की कहानियां’ प्रकाशित है और दूसरा जल्दी ही प्रकाशित होना संभावित है ।
नवीन जी के बारे में यह सब वह है जो आप शायद पहले से जानते हैं । मैं इसमें जोड़ सकता हूँ कि वे लेखक होने के साथ एक ‘विज्ञानविद’, विज्ञान के व्याख्याकार हैं । वे फिज़िक्स पढ़ाते हैं और साथ ही उस उत्तेजक, रोमांचक, विस्मयकारी ज्ञान-अनुशासन के भी बेहतरीन जानकार हैं – जिसे ‘विज्ञान का दर्शन” या “Philosophy of Science” कहा जाता है । आधुनिक भौतिकी और खगोलविज्ञान ने हमें प्रकृति के बारे में, परमाणु के भीतर के उप-परमाणविक कणों से लेकर अनगिनत आकाशगंगाओं और सितारों और समूचे यूनिवर्स की संरचना और विस्तार, स्पेस, टाइम, ग्रेविटी, एनर्जी, पार्टिकल्स और एंटी-पार्टिकल्स, सितारों के जन्म और मृत्यु और ब्लैक-होल्स आदि के बारे में बेशुमार और हैरतअंगेज़ जानकारियाँ दी हैं । यूनिवर्स के बारे में इतनी नयी जानकारियाँ जो दरअसल ‘जानकारियों का एक नया यूनिवर्स’ है । इन सबके बारे में इनकी समझ और जानकारियाँ बेजोड़ हैं, जिनसे मैं बीच-बीच में लाभान्वित होता रहता हूँ । अगर आपके मन में भी ऐसे सवाल आते हैं कि ... मसलन, सितारे कैसे वजूद में आते हैं और किस तरह सिकुड़ते हुए आखिर में एक बहुत बड़े धमाके के साथ ब्लैक-होल में तब्दील हो जाते हैं – या दिक् और काल में मरोड़ें कैसे पड़ती हैं, ‘बिग-बैंग’ क्या है, ‘फोटोन’ क्या है, ‘क्वार्क’ क्या है और ‘गॉड पार्टिकल’ क्या है – अगर ये जिज्ञासाएं आपकी भी हैं – तो आप इनका मोबाइल नंबर ले सकते हैं । इसके अलावा ... वे विश्व-साहित्य के, इस सदी और पिछली सदी और उससे पिछली सदी के क्लासिक लेखकों और कृतियों के भी एक अनन्य जानकार हैं । वे चेखव, पुश्किन, दोस्तोयेव्स्की, टॉलस्टॉय, हेमिंग्वे, मार्खेज, बोर्गेस, आइन्स्टीन, मैक्स प्लैंक, स्टीफेन हाकिंग, और प्रो. यशपाल जैसे उस्ताद लेखकों, वैज्ञानिकों और विज्ञान-चिंतकों की संगत में रहते हैं । लेकिन क्या इतने में इनका परिचय पूरा हो जाता है ?
.....
इस
मौके पर मेरी इच्छा वह कुछ कहने की है जो आप नहीं जानते, शायद नवीन जी खुद भी नहीं
जानते । और अगर जानते हैं तो यह तो नहीं ही जानते कि उनके बारे में यह मैं भी
जानता हूँ । पिछले तीन-चार दशकों से मुझे उनकी दोस्ती का फख्र हासिल है,
इसलिए मैं कुछ पर्सनल हो रहा हूँ – लेकिन जो कहना चाहता हूँ वह मित्रता निभाने के
लिए नहीं । मैं कहना चाहता हूँ कि इनकी कहानियां – एक खास तरह की उदास करुणा लिए इनकी
कहानियाँ - विषयवस्तु और कहन और गठन के स्तरों पर अजीम हैं – लेकिन यह शख्स खुद अपनी
कहानियों और किताबों से कहीं अजीमतर है । नवीन जी मेरे लिए सिर्फ कहानियों के या एक
किताब के लेखक नहीं हैं । मेरे लिए वे खुद एक किताब हैं, एक चलती-फिरती किताब ।
मैं बीच-बीच में इस किताब के पन्ने खोलकर पढ़ा करता हूँ । इसका अर्थ यह न समझें कि
वे कोई बंद किताब हैं, नहीं - वे तो मेरे ही नहीं, सबके लिए और हर वक्त एक खुली
किताब हैं । कैसी किताब ... इसके जवाब में प्रिय कवि नवारुण भट्टाचार्य की एक
कविता का सहारा लेकर कहना चाहूँगा - एक कीमती हार्ड-बाउंड किताब नहीं, जो शेल्फ के
ऊपरी खाने में धूल और कीड़ों के संग रखी रहती है और कभी भूले-भटके खोली जाती है ।
वे एक ‘पेपरबैक’ किताब हैं जो मित्रों के बीच बांटकर पढ़ी जाती है और उसके पन्ने खुल-खुल
जाते हैं । मैं समझता हूँ कि कोई भी लेखक, अगर दोनों में से एक ही चुनना संभव हो
तो, वही किताब होना चाहेगा । लेकिन एक खुली किताब में भी किसी एक समय जो पन्ना
खुला होता है, उसके अलावा पढ़ने के लिए कुछ पन्ने पलटने होते हैं । मैं चुपके-चुपके
उन्हें पलट लेता हूँ । इस किताब को पूरी तरह, अंत तक पढ़ सका हूँ, यह नहीं कह सकता ।
कोई भी कैसे कह सकता है ? जीवन नाम की किताब को पढ़ने के लिए भी तो एक पूरा जीवन चाहिए
होता है ।
यह
किताब किस बारे में है ? यह है लिखित शब्द की प्रकृति और गरिमा - और उनसे हमारे यानी
लेखक के रिश्ते के, लेखकीय आचार-संहिता और नैतिकता के, साहित्य के कुछ आधारभूत मूल्यों
के बारे में । ये नए सवाल नहीं हैं, लेकिन आज लेखकों के लिए नए सिरे से जिन्दा हो
गए हैं । यह सोशल मीडिया का वक्त है जिसमें, हमारी बौद्धिक-साहित्यिक दुनिया में, एक छोर पर ‘सर्वानुमति’ है और दूसरे
पर trolling और सर्वनिषेधवाद
। एक छोर पर सब कुछ की वाह-वाह, दूसरे पर सब कुछ पर कालिख
पोतने की कोशिश । एक ओर बेशुमार लोकप्रियता, फॉलोअर्स,
फैन्स, लाइक्स और तालियाँ और दूसरी ओर उतनी ही मात्रा में हिंसा, नफरत, एरोगेन्स और रक्तपात । नवीन
जी ऐसे माहौल में अपने को सप्रयत्न सस्ती तारीफों या तालियों के ज़हर से, ज़रूरत से ज्यादा
दृश्यवान होने से बचाते हैं । वे अपना अकेलापन और एकांत बचाते हैं ।
इसका यह अर्थ नहीं कि वे मानते हैं कि ‘लिखना’ एक निजी कर्म है या सन्नाटे में की
जाने वाली कोई निजी कार्रवाई है, नहीं, वे जानते और मानते हैं कि लिखना एक साथ
निजी और सामाजिक होता है । वह सिर्फ अपने से नहीं, अपने से परे जाकर ‘अन्य’ से संवाद है – एक साथ
‘अन्य’ से और ‘अपने’ से संवाद है । नवीन जी इस बात को बखूबी जानते हैं - लेकिन यह जानने और हर मंच
पर चमकने-दमकने या हर जगह दृष्टिगोचर होने में जो फर्क है, वह उसे भी जानते हैं ।
नवीन
जी एक चुप्पा लेखक हैं और उनके पाठक भी उन्हीं की तरह चुप्पा हैं । ये चुपके-चुपके
लिखते हैं और चुपके-चुपके ही पढ़े जाते हैं । उनके पाठकों, प्रशंसकों का एक तवील
दायरा है, फिर भी उनकी कहानियों के बारे में एक चुप्पी बरकरार रही है । इसे मैं
कोई साजिश नहीं कहना चाहूँगा - लेकिन एक ट्रेजेडी या दुर्भाग्य ज़रूर कहूँगा ।
दुर्भाग्य नवीन जी का नहीं, हमारी भाषा का, हिंदी आलोचना का । हमारी भाषा में प्रचलित
आलोचना - हमेशा नहीं लेकिन अधिकतर - ऐसी
है जो कृति की
कथ्यगत विशिष्टता या मौलिक बुनावट की अवहेलना कर, किन्हीं तयशुदा मानदंडों या धारणाओं को
यांत्रिक तरीके से रचनाओं पर लागू करना चाहती है । जो उन मानदंडों पर पर खरी न उतरें उन्हें
वह छोड़ देती है । वह रचना की अनन्यता को नकार कर, उनसे कुछ छीनकर, कुछ असंगत जोड़कर, उनमें जो कुछ कोमल, सुन्दर या त्रासद-दर्दीला हो,
उसकी उपेक्षा कर उन्हें किन्हीं वांछित अर्थों की दिशा में धकेलना
चाहती है । बहुत सी ‘आलोचना’ ऐसी भी है जो आलोचना कम, लेखकों को ‘निर्देशित’ करने
या नकेल कसने की कोशिश अधिक होती है । शायद इसीलिए चेखव और रिल्के
जैसे लेखक-कवि आलोचना को संदेह से देखते थे । ... बहरहाल, यह कोई नयी बात नहीं है ।
अनेक लेखक हैं जिनके बारे में जानबूझकर या अनजाने ऐसी चुप्पी बरती गयी है, बरती
जाती है । लेकिन फिर वे लेखक क्या करते हैं ? वे आग, खीझ और गुस्से से भरकर – या
फिर एक स्थायी उदासी के हवाले होकर - दुनिया से एक दुश्मनी का, अदावत का रिश्ता
बना लेते हैं । वे दुनिया के खिलाफ एक चार्ज-शीट जेब में रखकर चलते हैं, जो हर रोज
और लम्बी हो जाती है । वे अमर्ष से भर जाते हैं या उदास, अनमने या कटु और कटखने हो
जाते हैं । इसके बर-अक्स नवीन जी क्या करते हैं ? ... वे तो खुद उस चुप्पी में शामिल
हो जाते हैं, उस चुप्पी से ही पोषण लेने लगते हैं । वे इससे असम्पृक्त, अप्रभावित,
अविचलित रहकर चुपचाप अपने कामों को अंजाम देते रहते हैं - पहले की ही तरह अपने
मौलिक, उर्जावान तरीके से । एक ऐसे शख्स के रूप में, जो रचनात्मकता के सार और उसके चिरस्थायी तत्वों को जान चुका है, वे
जानते हैं कि बेशक आलोचना, एक सुचिंतित, विवेकवान आलोचना ज़रूरी होती है, वह लेखक
को ताकत और लिखित को एक शनाख्त देती है - लेकिन जैसे ... एक छलपूर्ण चुप्पी होती
है, वैसे ही छलपूर्ण तारीफें भी होती हैं । सहज और विनीत दिखने वाली लेकिन बिना
समझ या सौन्दर्यबोध के, लेखक को छलने वाली सस्ती तारीफें । ऐसी तारीफें, उनका
अतिरेक लेखक को नष्ट करता है - उपेक्षा से भी अधिक । ग़ालिब ने एक शेर में
अपने बारे में कहा है कि वे वह पौधा हैं जो ज़हर के पानी में, उसी से पोषण लेकर उगता
है । “हूँ मैं वह सब्ज़ा कि ज़हराब उगाता है मुझे” यह उनकी सुपरिचित लाइन है । लेकिन यह मुझे कहीं अधूरी
जान पड़ती है । असाधारण और चमत्कारी तो यह होगा कि पौधा ‘ज़हराब’ से पोषण ले, लेकिन खुद
एक ज़हरीला या जानलेवा पौधा न बने । उसके ज़हर का एक कतरा भी अपने भीतर न आने दे ।
ऐसा कोई पौधा प्रकृति में होता है या नहीं, मैं नहीं जानता । लेकिन इंसानों में
ज़रूर होता है ।
एक
कहानी लिखने और छपने के बाद, मुझे यह याद नहीं कि नवीन जी उस पर अलग से कुछ कहते
हुए या कोई दावा करते दिखे हों । वे मानते हैं कि लेखक को जो कहना है वह उसे रचना
में ही कहना चाहिए । अगर रचना वह नहीं कह पा रही तो लेखक के अलग से कहने का क्या
अर्थ है ? इस समय जबकि आत्मप्रचार, आत्म-अभिनंदन या कहें, अपना ‘भोंपू आप बजाना’ एक
आम चलन है – नवीन जी अपनी इसी आचार-संहिता पर टिके रहते हुए - पाठकों के, अपने
चुप्पा पाठकों के विवेक पर भरोसा करते हैं । वे जानते हैं कि एक सशक्त रचना को ऐसी
बैसाखियों की ज़रूरत नहीं - और अगर अल्पप्राण है तो उसे ऐसी तरकीबों से दीर्घजीवी
बनाने की कोई भी कोशिश फिजूल होगी ।
जर्मन
कवि रिल्के ने एक सदी पहले एक युवा कवि फ्रांज जेवियर काप्पुस को एक पत्र में यह लिखा
था - अपने भीतर जाइए और उस कारण को, उस आवेग को
ढूंढिए जो आपको लिखने पर विवश कर रहा है - और यह भी – एक रचनात्मक कलाकार को सब कुछ
अपने अन्दर ही प्राप्त होना चाहिए यानी उस प्रकृति में जिसे उसने अपना जीवनसाथी
बना लिया है । मुझे लगता है कि इस सूत्र को नवीन जी ने अपनी नसों में उतार
लिया है । एक लेखक को अगर
भीतर से कुछ प्राप्त नहीं होता तो बाहर से कुछ प्राप्त हो तो उसका मूल्य ही क्या
है ? और वह भीतर से ही कला की विशाल सम्पदा का एक छोटा सा हिस्सा, या उसकी
झलक ही पा लेता है तो ... बाहर से कुछ प्राप्त होता है या नहीं, इसका महत्त्व ही
क्या है ? नवीन जी की कहानियां मुझे उसी अंदरूनी इलाके, उसी अंतर्तम से, भीतरी अनिवार्यता
से जन्मी लगती हैं । यह ‘कलावाद’ या ‘अभिजनवाद’ या सामाजिक जिम्मेदारी से विमुख
होकर कला के एकांत रास्ते का वरण नहीं है, न ही यह
किसी ऐसे दर्शन की शरण में जाना है जिसके अनुसार संसार असार है या बाहर की दुनिया ‘मिथ्या’
या ‘माया’ है, और ‘सत्य’ तो हमारे भीतर पहले ही मौजूद है । इसके उलट, यही तो सृजनकर्म
का प्राथमिक, बुनियादी नियम है । जो कुछ ‘बाहर’ है, ‘अन्य’ है, लिखे जाने से पहले उसे
लेखक का आभ्यंतर, उसके ही ‘आत्म’ का अंश बनना होता है । एक मायने में लेखक किसी ‘अन्य’
के नहीं, अपने ही दर्द, अपनी ही व्यथा, वेदना या तड़प के बारे में लिखता है - इसलिए
कि एक सच्चे लेखक के लिए कोई ‘अन्य’ नहीं होता, हो नहीं सकता । अपने और दुनिया के
बीच की दीवार गिराकर, ‘अन्यत्व’ को मिटाकर, यानी ‘अन्य’ के दर्द को अपना बनाकर, उसे
अपनी त्वचा पर अपने ही दर्द की तरह महसूस कर ही कुछ ऐसा लिखा जा सकता है, जिसका
सचमुच मूल्य हो । ये तमाम ख्याल मुझे नवीन जी की कहानियां पढ़ते हुए ही आते हैं ।
लेकिन कहानियों की सविस्तार विवेचना से मैं अपने को रोकना चाहता हूँ ।
हममें
से अनेक आज यह देखकर हताश होते हैं कि दुनिया अधिकाधिक खून और कीचड़ में लिथडती जा
रही है । इस खून और कीचड़ के छींटे शब्दों की दुनिया में भी आते हैं, क्योकि शब्दों
की दुनिया भी इसी दुनिया में स्थित है, इसके बाहर नहीं । ऐसे पल अक्सर आते हैं जब इस
दुनिया में और शब्दों की दुनिया में आस्था टूटने लगती है । यकीन डूबता सा लगता है
। ऐसे पलों में मैं जिन चंद लोगों की ओर देखता हूँ, उनमें नवीन जी खास हैं । इन्हें
देखकर महसूस करता हूँ कि नहीं, सब कुछ नष्ट नहीं
हुआ और इतनी आसानी से नष्ट नहीं होगा । I feel that I can still have my faith in written word or ‘language’
or literature । इसके लिए इन्हें कभी शुक्रिया नहीं कहा, लेकिन आज
आप सबकी मौजूदगी में कहना चाहता हूँ ।
मैं नवीन जी के साथ पुरस्कार के संस्थापकों, आयोजकों को भी बधाई
देना चाहूँगा । आप सबका आभार कि आपने मेरी इन बातों को
ध्यान से सुना ।
Monday, March 27, 2023
समांतर कहानी आंदोलन और सुभाष पंत
सुभाष पंत की कहानियां
नवीन कुमार नैथानी
पांच दशक पूर्व लेखन की शुरुआत करने वाले सुभाष पंत समांतर कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे. उनके साथ लिखने वाले बहुत सारे लेखक समांतर आंदोलन के खत्म होने के बाद नेपथ्य में चले गए लेकिन सुभाष पंत अपवाद स्वरूप उन लेखकों में हैं जो आन्दोलनों की वजह से नहीं जाने जाते, बल्कि आन्दोलन को आज हम याद करते हैं तो उनके होने के कारण याद करते है.
सुभाष पंत आज जीवन के नवें दशक में भी निरंतर रचनाशील हैं. उनकी शुरुआती कहानियां आम आदमी और वंचित जन, बल्कि यूं कहें कि समाज के समाज के तलछट पर रहने वाले लोगों की कहानियां रही हैं. वे एक उम्मीद जगाने वाले और स्थितियों को बदलने की छटपटाहट से प्रेरित होकर लिखने वाले लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाते दिखायी देते हैं।
मनोहर श्याम जोशी ‘ट-टा, प्रोफेसर षष्टी बल्लभ पंत’ की शुरुआत करते हुए कहते हैं कि कथाकार को चालिस साल के बाद लिखना शुरू करना चाहिए. यह कहानी तो बहुत बाद में आई, लेकिन सुभाष पंत ने लेखन की दुनिया में उम्र के उस पड़ाव में कदम रखा जहां तक पहुंचते हुए अधिकांश लेखक स्थापित हो चुके होते हैं. उनकी कहानी ‘गाय का दूध’ छपते ही चर्चा में आ गयी और वे समांतर कहानी आंदोलन के प्रमुख लेखकों में गिने जाने लगे. जैसा कि आंदोलनों के साथ प्रायः होता आया है, समांतर आंदोलन की जिंदगी बहुत ज्यादा नहीं रही और उसके साथ उभरे अधिकांश लेखक साहित्य की दुनिया में देर तक नहीं टिक पाये. लेकिन सुभाष पंत उसी शिद्दत के साथ निरंतर सार्थक लेखन करते रहे हैं. उनके साथ कामतानाथ का नाम भी लिया जा सकता है.
यह देहरादून की मिट्टी की खासियत है कि यहां बहुत सारे लेखक उम्र के उत्तर सोपान में निरंतर और बेहतर लिखते चले आए हैं. हम इस बात को विद्यासागर नौटियाल के उदाहरण से बखूबी समझ सकते हैं. शुरुआती कहानियों के चर्चित हो जाने के बावजूद लगभग तीन दशकों के साहित्यिक अज्ञातवास में रहने वाले, विद्यासागर नौटियाल ने लेखन में जब पुनः प्रवेश किया तो वे आजीवन निरंतर रचना कर्म में संलग्न रहे. एक नई ऊर्जा और नई चमक के साथ उनकी कहानियां, संस्मरण और उपन्यास सामने आए. लेकिन सुभाष के लेखन में कोई व्यवधान नहीं आया नौटियाल जी की तरह वे अभी तक लेखन में सक्रिय हैं और उतरोत्तर बेहतर लिख रहे हैं.
वे अपनी कहानियों के विषय समाज की तलछट से उठाते है. रिक्शा-चालक, मजदूर, किसान उनकी कहानियों में अक्सर आते हैं .वे बदलती हुई वैश्विक आर्थिक राजनीति की परिस्थितियों के बीच अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष करते हुए उम्मीद की किरणों को जगाने का काम करते हुए दिखायी देते हैं.
इधर पिछले दशक में सुभाष पंत ने हिंदी को एक से एक नायाब कहानियां दी हैं. इनमें से कुछ कहानियां तो हिंदी की बेहतरीन कहानियों में शुमार की जाएंगी.‘अ स्टिच इन टाइम’ और ‘सिंगिंग बेल’ जैसी कहानियां इसका बेहतरीन उदाहरण है।
सिंगिंग बेल बदलते हुए समय के साथ मानवीय संबंधों में आए परिवर्तनों की कहानी तो है ही, नई बाजार व्यवस्था के साथ सामाजिक रिश्तों और राजनीति तथा अपराध के अंतर-संबंधों के साथ विकास की अवधारणा से उपजी विडंबनाओं से भी हमारा साक्षात्कार कराती है. इन दोनों कहानियों को एक तरह से सुभाष पंत की कहानी-कला के प्रोटोटाइप की तरह भी देखा जा सकता है. किसी भी कहानी की सफलता में उसकी सेटिंग का बहुत बड़ा योगदान होता है. अगर सही सेटिंग मिल जाये तो कहानी का आधा काम तो पूरा हो ही जाता है. शायद रंगमंच की पृष्ठभूमि ने पंत जी के अवचेतन में सेटिंग के महत्व को जरूरी जगह देने के लिए तैयार किया हो. उनकी कहानियों से गुजरते हुए एक और बात बार-बार ध्यान खींचती है - कहानियों का वातावरण.
‘सिंगिंग बेल’ कहानी जाड़े के मौसम में किसी पहाड़ी कस्बे में घटित होती है, जहां मारिया डिसूजा बहुत पुराना रेस्त्रां चला रही है. गिरती हुई बर्फ के बीच किसी ग्राहक का इंतजार कर रही है. कहानी के अंदर एक रहस्य भरा सन्नाटा है और उसके बीच ग्राहक का इन्तज़ार पाठक की जिज्ञासा को उभार देता है. ग्राहक का इंतजार जब खत्म होता है तो मालूम पड़ता है कि वह ग्राहक नहीं, बल्कि उसकी संपत्ति को हड़पने के लिए आए प्रॉपर्टी डीलर का प्रतिनिधि है.
‘अ स्टिच इन टाइम’ कहानी बाजार पर बड़ी पूंजी के कब्जे के साथ छोटे – छोटे धन्धों पर आये संकटों के बीच एक कारीगर के भीतर बची हुई संवेदनाओं को यथार्थ और फ़ैंटेसी के मिले जुले फार्म के बीच प्रस्तुत करती है.यहाँ भी मंच बिना किसी भूमिका के सीधे घटनाओं के बीच ले जाने के लिए तैयार है.
“लड़ाई के कई मुहाने थे.इस मुहाने का ताल्लुक लिबास से था.”
नैरेटर के जन्मदिन पर बेटी एक बड़े ब्राण्ड की कमीज उपहार में देने का फैसला करती है, जबकि वह ताउम्र दर्जी के हाथ से सिली कमीज ही पहनता आया है. वे दर्जी अब बाज़ार से गायब हो चुके हैं. कारीगर हैं, लेकिन उनका श्रम और पहचान बाज़ार में बिकते और स्थापित किये जा रहे ब्राण्ड के नाम के साथ लोगों के दिमाग से गायब हो चुके हैं. यथार्थ से फेंटेसी के बीच औचक छलांग लगाती हुई यह कहानी उन सूक्ष्म मनावीय संवेदनाओं और सौंदर्य को उद्घाटित करती है जो श्रमशील हाथों की कारीगरी से उत्पन्न होती हैं.
पंत जी की कहानियां स्थूल यथार्थ का अतिक्रमण करती हैं. वे ‘इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़’ संग्रह की भूमिका में कहते भी हैं, “कहानियों में प्रामाणिकता की खोज नहीं की जानी चाहिए. किसी भी घटना का हूबहू चित्रण करना पत्रकार का काम है. उसकी निष्ठा और दायित्व है कि वह उसका यथार्थ चित्रण करें. वह उसमें अपनी ओर से कुछ जोड़ता है घटाता है तो वह अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं माना जा सकता. लेकिन, अगर लेखक उस घटना को कहानी का लिबास पहनाता है तो उसके पास कल्पना और संवेदनशीलता के दो अतिरिक्त औजार और भाषा तथा शिल्प का खुला वितान है. इसके माध्यम से उस घटना को सीमित परिधि से बाहर निकालकर यथार्थाभास और यथार्थ बोध के व्यापक आयाम तक ले जाए”
जाहिर है कि वे भाषा के प्रयोग के प्रति बहुत सजग हैं. यहां बहुत छोटे वाक्यों के बीच कुछ चमकदार शब्दों की मौजूदगी ध्यान खींचती है. यह भाषा का अलंकारिक प्रयोग नहीं है, बल्कि शब्दों को सही हथियार की तरह धार देने का उपक्रम है, जो ठीक निशाने पर वार करता है. ‘अ स्टिच इन टाइम’ कहानी से यह अंश देखें
मैं दर्जी से मैं कपड़े सिलवा कर पहनता था. अमन टेलर्स के मास्टर नजर अहमद से. मेरी नजरों में वे सिर्फ दर्जी ही नहीं फनकार थे .कपड़े सिलते वक्त ऐसा लगता जैसे वे शहनाई बजा रहे हैं, या कोई कविता रच रहे हैं ...हालांकि उनका शहनाई या कविता से कोई ताल्लुक नहीं था .यह श्रम का कविता और संगीत हो जाना होता.
ठीक उस जगह जहां से यह कहानी स्थूल यथार्थ का अतिक्रमण करते हुए फेंटेसी की ओर जाने की तैयारी करती है, लेखक जैसे नैरेटर की आत्मा में प्रवेश करने लगता है. देखें-
भीतर तक अपनेपन के एहसास से मेरी आत्मा भीग गई .कुछ ऐसे ही जैसे बादल सिर्फ मेरे लिए बरस रहे हैं .कमीज के कंधे वैसे ही थे जैसे मेरे कंधे थे .आस्तीन के कफ ठीक वही थे जहां उन्हें मेरी आस्तीन के हिसाब से होना चाहिए था. कॉलर का ऊपरी बटन बंद करने पर वह न गले को दबा रहा था और न जगह छोड़ रहा था. सबसे बड़ी बात कि कमीज का दिल ठीक उस जगह धड़क रहा था जहां मेरा दिल धड़कता है.
उनकी कहानियों के जुमले और संवाद भी ध्यान आकृष्ट करते हैं. ‘सिंगिंग बेल’ कहानी में देखिये-
‘‘आदमी ही नहीं मौसम भी बेईमान हो गए ”, अनायास उसके मुंह से आह निकली और वह भाप बनकर हवा में थरथराती रही और घड़ी की टिकटिकाहट शुरू नहीं हुई लेकिन मारिया के भीतर कुछ टिकटिकाने लगा.
“तेरी काली आंखें मारिया जिनके पास जुबान है जो हर वक्त बोलती रहती है जो शोले भी है और शबनम भी .झुकती है तो आसमान नीचे झुक जाता है और उठती है तो धरती ऊपर जाती है”
‘ए स्टिच इन टाइम ’ में देखिये
विजय के आनंद की सघन अनुभूति में मैंने उत्ताल तरंग की तरह कमरे के चक्कर लगाए और सिगरेट से लगा कर धुंए के छल्ले उड़ाने लगा .मेरी आत्मा झकाझक और प्रसन्न थी.
यह कसे हुए जुमले पंत जी की कहानियों की विशेषता है.
पंत जी के रचना कौशल पर अभी ठीक से बात नहीं हुई है.उम्मीद है उन पर आगे गंभीरता के साथ काम होगा.
Tuesday, December 4, 2018
सबसे लंबा नदी का रास्ता, सबसे ठीक नदी का रास्ता
एक समय तक मैं नवीन की कहानियों का घनघोर आलोचक रहा। खासतौर पर ‘पारस’ कहानी के छपने से पहले तक। ‘पारस’ कहानी जब पहली बार पढ़ी तो एक बारगी मैं ठिठक गया। वह ऐसी कहानी है जिसने मुझे बहुत गहरे तक प्रभावित किया। उस दिन मुझे अपनी डायरी में दर्ज करना पड़ा, ‘शायद मैंने नवीन की कहानियों के पाठ गंभीरता से करने में कोताई बरती है।‘ हिंदी कहानियों में इतनी कल्पनाशीलता, बल्कि हिंदी में ही क्यों, किसी अन्य भाषा में भी इतनी कल्पनाशीलता की कहानी मैंने पहले कभी नहीं पढ़ी थी और सच कहूं तो उसके बाद भी आज तक नहीं पढ़ी। कहानी का पात्र खोजराम पारस पत्थर खोजने के लिए अपने पांव में घोड़े की नाल ठोक लेता है। वह पारस पत्थर से अनभिज्ञ है। सिर्फ इतना जानता है कि वह एक ऐसा पत्थर है जो छूने मात्र से लोहे को सोने बदल देता है। मेरे सामने सबसे पहला सवाल यह उभरा था कि आखिर नवीन अपने पात्र खोजराम की मार्फत पारस पत्थर क्यों खोजना चाहता है ? कहानी के पात्र खोजराम के भीतर तो सोने की वैसी चाहत का कोई संकेत भी नहीं कि वह दुनिया की समृद्धि का मालिक हो जाना चाहता हो। जबकि समकालीन दुनिया में सोना तो समृद्धि का प्रतीक है। उधर कहानी में जो संकेत है वे तो खोजराम को जिस चीज से समृद्धी का सुख पहुंचा सकते हैं, वहां तो प्रेम की चाह है। विवाह योग्य कन्या की तलाश है। फिर खोजराम पूंजी के विस्तार के से वैभव को पैदा कर सकने वाले पारस पत्थर की खोज में अपनी लंगड़ाहट के बावजूद ऊबड़-खाबड़ ढंगार की ऊंचाइयों को नापने के से नशे की गिरफ्त में क्यों चला गया आखिर ? नवीन की कहानी ‘पारस’ ने मुझे ही नहीं बहुतों को प्रभावित किया। बाद में उस कहानी को रमाकांत स्मृंति सम्मान से सम्मानित भी किया गया। ‘पारस’ के बाद ही नवीन ने ‘ढलान’ लिखी थी। 'हंस' में प्रकाशित नवीन की सबसे पहली कहानी का शीर्षक चढ़ाई था। ‘ढलान’ कहानी का पहला पाठ करने का अवसर मुझे मिला। मैंने कहानी को ‘पारस’ के पाठ की रोशनी में ही पढ़ा और कहानी पर अपनी राय देते हुए कहा कि नवीन भाई तुम तो गजब के कथाकार हो। यार तुम्हारी इस कहानी में पात्र एक नदी को खोजने जिस तरह से जा रहे हैं, लगभग निरुद्देश्यज से दिखते हुए, उस तरीके का खोजना हिंदी कहानियों में बहुधा दिखाई नहीं देता। दूसरी दिलचस्प बात है कि तुम भी उस खोजने को एक सहज मानवीय जिज्ञासा के तहत रख रहे हो। कहन की यह सादगी जो अर्थ खोल रही है उसे ‘पारस’ के पाठ के साथ ही जोड़कर समझा जा सकता है। यानी,एक नदी जिसका रास्ता सबसे लंबा रास्ताा होता है, तुम्हारी कहानी उस रास्ते की खोज में मिलने वाली असफलताओं के बावजूद बिना थके उसे खोजते रहने की प्रेरणा दे रही है। सच, तुमने दुनिया के बदलाव के रास्ते की खोज पर बहुत ही खूबसूरत ढंग से कहानी कही है। मेरी बातों को सुनने के बाद खुश होने की बजाय, कमबख्त नवीन सकपका गया। और अपने अंदाज में खिल खिला कर हंसते हुए कहने लगा। इसका मतलब मुझे इस कहानी को अपने लिखे हुए से हटा हुआ मान लेना चाहिए और ऐलानिया ढंग से कहा कि वह ऐसी कहानी को सुरक्षित नहीं रखेगा जो इतनी आसानी से खुल जा रही हो। मुझे नवीन भाई की घोषणा पर आश्चार्य तो नहीं हुआ लेकिन इस जिदद पर गुस्सा आया कि वह इतनी अच्छी कहानी को नष्ट क्यों कर देना चाहता है। मुझे अपने पर भी गुस्सा आया कि मैंने कहानी का ऐसा पाठ ही क्यों किया और यदि कर भी लिया था तो नवीन भाई के साथ शेयर क्यों किया। मुझे इस बात का ध्यान रखना ही चाहिए था कि वह तो उस तरह के फूल के स्वभाव का व्याक्ति नहीं जो अपनी तारीफ से खिल जाए, बल्कि छुई-मुई पत्तियों सा है जो तारीफ की छुअन भर से अपने को सिकोड़ लेने में माहिर हो। बार-बार की मेरी गुजारिशों के बावजूद नवीन भाई ने उस कहानी को कहीं नहीं भेजा छपने के लिए। यह भी सच है कि मेरी उस प्रतिक्रिया और नवीन की घोषणा के बाद कहानी का कोई दूसरा पाठक भी पैदा नहीं हो पाया, क्योंकि लिखी गई वह कहानी फिर कभी सामने नहीं आई। नवीन भाई ने कभी नहीं चाहा उनकी कहानियों के पाठ आसानी से खुल जाएं। वे कुछ अबूझ बनी रहें और आप उनके घोर आलोचक बने रहे तो नवीन सचमुच का सौरी रच सकते हैं। पर उनकी कहानियों के पाठ इतनी आसानी से खुल जाए जैसे पारस में खुल गया था और पाठकों ने नवीन के सौरी को किसी कल्पना के भूगोल में ही नहीं रहने दिया बल्कि उसे उस एक ऐसे गर्भ ग्रह में बदल दिया जहां एक स्त्री बच्चे की चाह कहानी में चमकती हुई दिखने लगी, तो नवीन को असुविधा होने लगती है। नवीन के पाठक जानते होंगे कि पारस के बाद नवीन ने बहुत ही कम कहानियां लिखी हैं। एक लम्बी खोमोशी में होने की वजह को तलाशने में बेशक वे खुद कोई वजह न तलाश पाएं लेकिन कहीं यह भी एक कारण तो नहीं कि पारस ने उनके भीतर को जिस तरह से समाने रख दिया है अब लाख चाहकर भी वे अपने लेखन में उसे छुपाए नहीं रख सकते। अब देखो न उस पहले ड्राफ्ट वाली ‘ढलान’ को इतने सालों बाद अंत में कुछ बदलाव सा कर देने के बाद भी वे कहां छुपे रह पा रहे हैं। मुझे खुशी है, नवीन अपने उन वर्षों पहले किए गए ऐलान के बाद ‘ढलान’ कहानी को फिर से लिख पाए। ‘प्रभात खबर’ के दीपावली विशेषांक-2018 में कहानी प्रकाशित भी हुई है। यहां कहानी अपने पहले ड्राफ्ट के बदले हुए रूप में है, आसानी से खुल नहीं रही है। लेकिन नवीन को जान लेना चाहिए कि खोलने वाले फिर भी खोल देंगे। क्यों कि नदी तक न पहुंच पाने की पहली कोशिश लड़के और लड़की को निराश नहीं कर पा रही है। वे निराशा के साथ नहीं बल्कि इस उम्मीद के साथ वापस लौट रहे हैं कि दोबारा रास्ता खोज पाएंगे। ‘लड़ना है भाई यह तो लंबी लड़ाई है’, भाई निरंजन सुयाल की कविता पंक्तियां याद आ रही है।
खैर, नवीन भाई से गुजारिश कि वे अब अपने भीतर को छुपाने की
चेष्टा करना छोड़कर सतत लिखना शुरु करें।
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