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Saturday, September 2, 2023

पहुँच से बाहर- पकड़ से बची हुई.किसी गह्वर में अटकी हुई है कहानी

19.08.2023 को प्रोफ़ेसर ओ.पी. मालवीय एवं भारती मालवीय स्मृति सम्मान 2023 से सम्मानित कथाकार नवीन कुमार नैैैैैैैथानी द्वारा सम्मान समारोह के अवसर पर दिया गया वक्तव्य



आदरणीय मंच तथा इस सभागार में उपस्थित विद्वानों एवम मित्रों को मेरा विनम्र अभिवादन. 

सबसे पहले तो मैं ‘प्रोफ़ेसर ओ.पी. मालवीय एवं भारती मालवीय स्मृति सम्मान 2023 ’ की आयोजन समिति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ जिन्होंने मुझे आयोजन में सम्मिलित होने का अवसर प्रदान किया.` मैं निर्णायक मण्डल का आभारी हूँ जिन्होंने मुझ जैसे अल्प-ज्ञात रचनाकार को खोज कर आपके सामने प्रस्तुत किया है.इस सम्मान को पाकर मुझे जो खुशी हुई है उसका वर्णन करना संभव नहीं.फिर भी मैं कुछ कहने की कोशिश करूँगा. 

मित्रों , 

यहाँ खड़े होकर मैं अपने आपको थोड़ा गर्वित महसूस कर रहा हूँ और यह भी सच है कि मुझे किंचित संकोच का भी अनुभव हो रहा है.गर्व होने का कारण है कि यह सम्मान इलाहाबाद की धरती पर मिल रहा है जहाँ साहित्य तथा संस्कृति की गंगा-यमुना एकाकार होकर सदियों से इस महादेश को एकता का सन्देश देती आयी हैं.साहित्य के विराट व्यक्तित्वों की इस कर्म-भूमि में खड़े होते हुए स्वाभाविक ही है कि आप उनके सामने नतमस्तक होकर संकोच का अनुभव करें कि आप इस योग्य हैं भी या नहीं. 

लेकिन जब अपने ही बीच के लेखक आप पर भरोसा जताते हैं तो अपने लिखने की सार्थकता का अनुभव होता है.मेरे लिये यह भी गर्व करने का क्षण है कि निर्णायक मण्डल में मेरे अत्यन्त प्रिय कथाकार सम्मिलित हैं. मैं इस सम्मान को इस तरह से भी देख रहा हूँ कि यह अपनों के द्वारा दिया जा रहा है और यह मेरे लिये बड़ी बात है क्योंकि अपनों के बीच सम्मान पाना आपको बाहर और भीतर दोनों तरह से देर तक भिगोता है.
मार्खेज़ के जादू की गिरफ्त में होते हुए भी आप कभी नहीं भूल सकते कि किसी भी कथाकार की अन्तिम कसौटी तो बोर्हेस ही है.शब्दों से खेलने और विषयों के अनूठेपन के लिये मनोहरश्याम जोशी की गिरफ्त में बहुत दिनों तक रहा. किनका नाम लूं और किनको छोड़ूं ? यह इस यात्रा के दौरान कहना संभव नहीं.हाँ, मगर एक बात को लेकर मुझे कतई संशय नहीं है कि मैंने मोहन राकेश को पढ़कर कहानियाँ लिखना सीखा है.वे अपने समय से बहुत आगे के कहानीकार थे. उनकी ‘मिस पाल’ जैसी कहानी इस बात की तस्दीक करती है.

यह मेरी दूसरी इलाहाबाद यात्रा है. पहली बार सन 2003 में इलाहाबाद आया था , अभिविन्यास कार्य-क्रम था- इलाहाबाद विश्व-विद्यालय में.लेकिन इलाहाबाद बहुत पहले से मेरे भीतर बसा हुआ था. दरअसल, लेखन के शुरुआती दौर में मुझे गिरिराज किशोर जी के संपर्क में आने का अवसर मिला.वे पिछली सदी में नौवे दशक के ढलते हुए साल थे. कुछ दिनों के लिये मैं आई आई टी कानपुर की रमन रिसर्च लैब में काम के सिलसिले में गया हुआ था. उस वक्त गिरिराज जी वहाँ रचनात्मक लेखन केन्द्र स्थापित कर उसकी गतिविधियां चला रहे थे. वहीं मेरा उनसे परिचय हुआ परिचय हुआ. वे इलाहाबाद का जिक्र करते हुए कहते थे कि लेखक को उपेक्षा सहने का अभ्यास होना चाहिए. और इस बात का उदाहरण देते हुए वे अपने इलाहाबाद के दिनों को याद करते हुए कहते थे , “ वहाँ लोगों ने मुझे तब तक लेखक नहीं माना जब तक कि मेरा उपन्यास ‘ लोग ’ नहीं छप गया” 

मैं आज गिरिराज जी को याद कर रहा हूं तो उसका एक दूसरा कारण भी है.जैसा कि मैंने अभी कहा है वे मेरे लिखने के शुरुआती दिन थे.गिरिराज जी से संपर्क लेकिन निरन्तर बना रहा.वे मेरी कहानियां पढ़ते और अपनी राय देते. उसी वक्त एक बार मुझे लगा कि मेरे लिये अब लिखना संभव नहीं रह जायेगा.हुआ यूँ था कि मैं काफ़्का की कहानी मेटामार्फोसिस पढ़कर उसके सम्मोहन में जकड़ा हुआ था.मुझे लगने लगा था कि मेरे लिये लिखना अब संभव नहीं होगा. अपना लिखा हर शब्द व्यर्थ लगने लगा था. तब मैंने इस बारे में गिरिराज जी को पत्र लिखा था.उनका जवाब मिला था- साहित्य तो एक समुद्र है,जो भी पत्थर उठाओगे, उसके नीचे एक अनमोल रत्न मिल जायेगा. उस पत्र ने मुझे न लिख पाने की स्थिति से उबार लिया था और आज मैं आपके बीच एक लेखक की हैसियत से मौजूद हूँ.यह बहुत सही अवसर है कि मैं गिरिराज जी के इस ॠण को विनम्रतापूर्वक याद करूं. 

किसी भी लेखक के होने के पीछे उसके पूर्ववर्ती और समकालीन लेखकों का योगदान होता है. लेखकों की इस बिरादरी में भाषा, राष्ट्र, भूगोल और संस्कृतियों की तमाम सरहदें मिट जाती हैं. यहाँ यह कहना भी बहुत मुश्किल होता है कि ठीक- ठीक कौन सी चीज किस लेखक के यहाँ से हमने सीखी. और कभी कभी तो यह सीखना एक छलावे की तरह होता है- जैसे बहुत सारी छायाएं एक दूसरे में घुली मिली हमारे सपनों के भीतर दाखिल हो गयी हों. शायद यह हर लेखक के साथ होता है. मेरे साथ भी हुआ है.लेखकों की इस बिरादरी में कुछ लेखकों को पढ़कर ऐसा लगा जैसे वे मेरे दिल के बहुत नज़दीक कहीं बसे हुए हैं. इस बसाहट में प्रिय लेखकों का आना जाना निरन्तर बना रहा है. जैसे कोई लेखक बहुत दिनों तक वहां बने रहे, फिर कोई दूसरे लेखक न जाने कौन सी सरहद लाँघ कर चले आये. कुछ ऐसे भी लेखक रहे जो बार- बार यहां लौट आये. लेकिन फिर भी चेखव के असर से कोई भी कहानीकार कहाँ बच सका है. मार्खेज़ के जादू की गिरफ्त में होते हुए भी आप कभी नहीं भूल सकते कि किसी भी कथाकार की अन्तिम कसौटी तो बोर्हेस ही है.शब्दों से खेलने और विषयों के अनूठेपन के लिये मनोहरश्याम जोशी की गिरफ्त में बहुत दिनों तक रहा. किनका नाम लूं और किनको छोड़ूं ? यह इस यात्रा के दौरान कहना संभव नहीं.हाँ, मगर एक बात को लेकर मुझे कतई संशय नहीं है कि मैंने मोहन राकेश को पढ़कर कहानियाँ लिखना सीखा है.वे अपने समय से बहुत आगे के कहानीकार थे. उनकी ‘मिस पाल’ जैसी कहानी इस बात की तस्दीक करती है. 

कहानी की बात करते हुए आप मुझे इजाजत दें कि मैं अपने बचपन की कुछ बातें आपके साथ साझा करूं क्योंकि इन बातों के भीतर जो शहर है वह बाहर से शायद काफी बदल चुका है लेकिन मेरे भीतर वह अभी भी वैसा ही है जैसा सन 1969 से 1971 के दरम्यान था.वह शहर है नैनीताल ! मेरे बचपन के लगभग ढाई साल नैनीताल में गुजरे हैं ! उन दिनों हम जिस इमारत में रहा करते थे उसका नाम ईटन हाउस था. वह इमारत शायद अब भी वहीं है. उसका वह नाम बचा रह गया है या बदल गया है यह मैं नहीं जानता. उम्मीद करता हूं कि शहरों के नाम बदलने की रवायतें अभी इमारतों तक नहीं पहुँची होंगी. और अगर बदल भी गया हो तो भी मेरी स्मृतियों में उस जगह की जो खुश्बुएं बसी हुई हैं वे ईटन हाउस नाम के साथ ही जागती हैं. और बरसात के दिनों की वे बारिश में नहायी गीली गन्ध- बिच्छू घास की झाड़ियों के पास उठती हुईं. वहाँ बच्चे एक खेल खेला करते थे- वह छुपम-छुपाई का खेल होता था. बादल जब भी इजाजत देते ,बच्चे घरों से बाहर निकल जाते और खेल शुरू हो जाता.इस खेल के लिए किसी गेंद की भी जरूरत न पड़ती. सड़क में पड़े किसी खाली डिब्बे से काम चल जाता. उस खाली डिब्बे को बीच में रख देते थे. कोई बलिष्ठ लड़का उस डब्बे को जितनी दूर तक संभव होता , लात मारकर पहुंचा देता .अब जिस लड़के की बारी होती , उसका काम होता कि वह उस डब्बे को ढूंढ कर लाये और तय स्थान पर रख दे.जितना समय उसे डिब्बे को खोज कर लाने में लगता उतनी देर में दूसरे सब बच्चे इधर-उधर छिप जाते.छिपने के इस खेल में सबसे अधिक मेरी नज़रों के बीच वह लड़का होता जो उस डिब्बे को खोज कर बाकी लोगों को ढूंढ रहा है. आज भी वह दृश्य मेरी आँखों के सामने है. ज्यादातर यह होता कि वह डिब्बा आसानी से हाथ नहीं आता. दिखायी तो देता , लेकिन थोड़ा छुपा- छुपा सा. कई बार तो वह बिच्छू घास के बीच दुबक जाता ! कई बार तो यह भी होता कि जब डब्बा हाथ में आता तो हाथ लहू-लुहान हो चुके होते. बिच्छू घास ही नहीं , वह डब्बा कई बार कंटीली झाड़ियों के बीच पाया जाता.बाद के वर्षों में जब भी मैं उस दृश्य को याद करता हूँ तो मुझे लगता है कि अभी तक वह लड़का मेरे भीतर है . बल्कि वह लड़का मैं ही हूं . मुझे लगता है कि मेरे लिये कहानी भी उस डिब्बे की तरह है . दिखती हुई लेकिन छुपी हुई पहुँच से बाहर- पकड़ से बची हुई.किसी गह्वर में अटकी हुई. 

उस कहानी को पकड़ने के लिए कई बार – बल्कि ज्यादातर –आप अपने भीतर भी उतर जाते हैं .अक्सर लगता है कि जिसे आप बाहर ढूँढ रहे थे वह कहीं भीतर तो नहीं है ?बाहर से भीतर की यह यात्रा कई बार कष्टप्रद हो उठती है. कई बार तो यह भी नहीं मालूम होता कि आप किसकी तलाश में निकले थे!मेरे लिये कहानी लिखना उस यात्रा में निकलने की तरह है जहाँ मौसम साफ नहीं है, रास्ते बने हुए नहीं हैं और गन्तव्य अनिश्चित है.. 

यह सवाल अक्सर लेखकों से पूछा जाता है कि वे क्यों लिखते हैं या उनके लिखने के क्या मायने हैं? मेरे लिये इस तरह के सवालों का जवाब देना मुश्किल है. एक बात यह समझ में आती है कि लिखना एक तरह से चीजों और स्मृतियों को दर्ज करना है.बल्गारियन लेखक जिओर्गी गोस्पोदिनोव ने बूढ़े होने के साथ विस्मृतियों को केन्द्र में रखकर एक उपन्यास लिखा है जिसका अंग्रेजी अनुवाद ‘टाइम शेल्टर’ नाम से छपा है. इसमें एक जगह वे कहते हैं, ‘अगर आप किसी की स्मृतियों में नहीं हैं तो आपका अस्तित्व नहीं है.’ 

मैं कहानी लिखता हूँ तो जाहिर है कि मुझे जो भी कुछ कहना होगा वह मैं कहानी लिखकर ही कहूँगा.मुझसे कई बार पूछा गया है कि तुम इस कहानी में क्या कहना चाहते हो? मेरा जवाब होता है- मैं नहीं जानता . अगर मैं जानता होता तो कोई लेख लिखता, कहानी नहीं लिखता. लेकिन फिर भी मैं अपने को सौभाग्यशाली समझता हूँ कि मुझे ऐसे संपादक मिले जिन्होंने जोखिम लेते हुए मेरी कहानियों पर भरोसा जताया.राजेन्द्र यादव तो नये लेखकों को उत्साहित करते ही थे .नये लेखकों पर भरोसा जताते हुए अप्रतिम कथाकार सत्येन कुमार ने ‘ कहानियाँ-मासिक चयन’ का प्रकाशन शुरू किया था. यहाँ मैं हरिनारायण जी की कथादेश का जिक्र विशेष सन्दर्भ में करना चाहूँगा. यह देखना आपके लिये भी दिलचस्प होगा कि एक संपादक और आलोचक किस तरह किसी लेखक की रचनात्मकता में सहायक हो सकते हैं.कथादेश में मेरी पहली कहानी छपी थी, ‘चोर-घटड़ा’. इसे छापते हुए पत्रिका ने एक स्तंभ शुरु किया था – गहरे पैठ. इसके साथ संपादकीय टिप्पणी इस तरह जाती थी कि कुछ कहानियाँ होती हैं जो सर के ऊपर से निकल जाती हैं. किसी कहानी लेखक के लिये यह कोई बहुत उत्साह- वर्धक स्थिति नहीं है कि उसकी कहानियाँ पाठक की समझ में नहीं आतीं. उस वक्त मैं मानता था – और आज भी मानता हूँ कि अगर कोई चीज मेरे भीतर है तो वह किसी दूसरे मनुष्य के भीतर भी होगी. खैर, उस स्तंभ की विशेषता थी कि अगले अंक में उस कहानी पर दो जिम्मेदार लेखकों की टिप्पणियां छपा करती थी. तो, ‘चोर-घटड़ा ’ कहानी पर सुरेश उनियाल और अर्चना वर्मा की टिप्पणियाँ छपीं. तब तक मैं सौरी को केन्द्र बनाकर चार-पाँच कहानियाँ लिख चुका था. अर्चना जी ने अपनी टिप्पणी में ध्यान दिलाया कि सौरी का एक अर्थ प्रसूति-गृह भी होता है.तब तक सौरी की परिकल्पना पूरी तरह से आकार नहीं ले सकी थी. अर्चना जी की टिप्पणी के बाद ‘पारस’ कहानी में सौरी अपने सही अर्थ को पा सकी. कई बार इस तरह से आलोचना भी रचना को मांझती है. लेकिन इसके लिये अर्चना वर्मा जैसे संवेदनशील आलोचक की जरूरत पड़ती है. अर्चना जी अब हमारे बीच नहीं हैं. मैं इस अवसर पर उनके योगदान को कृतज्ञतापूर्वक याद करता हूँ. 

यह मेरे लिये एक तरह का अपराध ही होगा अगर मैं अपने शहर देहरादून का जिक्र न करूँ जिसने मेरे भीतर के लेखक को गढ़ा.इस शहर में कही हरजीत और अवधेश भी रहते थे जिनके साथ अनगिन शामें साहित्य और कलाओं की चर्चा करते हुए अगली सुबह में बदल जाती थीं. देहरादून की एक विशेषता है- व्यक्तिगत स्तर पर पारस्परिक स्नेह और प्रेम का व्यवहार किया जाता है लेकिन मित्रों की रचनाओं की प्रशंसा से भरसक बचने की कोशिश की जाती है.विशेष रूप से सम्मुख – प्रशंसा. इसे हम चिरायता प्रेम कहा करते हैं. यह खाने में कड़वा होता है लेकिन स्वास्थ्य के लिये लाभदायक ही सिद्ध होता है. इस शहर के अनौपचारिक महौल में मैंने अपनी बहुत सी कहानियों का पहला पाठ किया और मित्रों की प्रतिक्रिया के बाद उनको फिर फिर लिखा. मैं देहरादून के अपने मित्रों को याद करते हुए यह सम्मान विनम्रतापूर्वक स्वीकार करता हूँ. 

एक बार पुनः आप सबका आभार.

Sunday, August 20, 2023

नवीन कुमार नैथानी को दिनांक 19.08.2023 को इलाहाबाद में चतुर्थ ‘श्रीमती भारती देवी एवं श्री ओमप्रकाश मालवीय स्मृति’ प्रदान किये जाने के अवसर पर कथाकार योगेंद्र आहूजा का वक्तव्य



हिंदी के अनूठे, अपनी तरह के अकेले और हम सबके प्रिय कथाकार, नवीन कुमार नैथानी को चतुर्थ ‘श्रीमती भारती देवी एवं श्री ओमप्रकाश मालवीय स्मृति’ पुरस्कार से सम्मानित किये जाने के अवसर पर उन्हें बहुत-बहुत बधाई । नवीन जी साहित्य के शक्ति-केन्द्रों या ग्लैमरस मंचों से दूर, बल्कि उनसे बेनियाज़ और बेपरवाह ... ‘अपनी ही धुन में मगन’ ... ‘उत्तराखंड’ में अपने गाँव भोगपुर और फिर डाक-पत्थर, तलवाड़ी और देहरादून जैसी जगहों पर रहते हुए, अपनी मौलिक, अन्तर्दर्शी निगाह से देश-दुनिया के लगातार बदलते हालात और हलचलों का मुतालया करते हुए, लगातार कहानियां लिखते रहे हैं । ‘सौरी’ नाम की एक विस्मयकारी जगह है, जो स्मृतियों-लोकाख्यानों-किंवदंतियों-जनश्रुतियों से बनी या उनमें फैली है, जहाँ किस्से और इतिहास आपस में उलझते रहते हैं - वे वहीं के बाशिंदे हैं । यह ‘सौरी’ जो उनकी कहानियों में बार-बार आती है - सिर्फ एक किस्सा या कोई ख्याली, अपार्थिव, या लापता या लुप्त जगह नहीं, उसका एक भूगोल भी है । वह उनकी ‘मनस-सृष्टि’ है, लेकिन वे स्वयं इसी ‘सौरी’ की उपज हैं । मैंने उन्हें ‘अपनी ही धुन में मगन’ कहा है लेकिन इससे यह न समझें कि वे दुनिया से गाफिल, गोशानशीनी के आदी, अपने-आप में बंद कोई ‘स्व-केन्द्रित’ या ‘आत्म-मुखी’ शख्स हैं, नहीं, वे तो जिंदगी से भरपूर एक आत्मीय, दोस्त-नवाज़ शख्स हैं और दोस्तों की महफ़िलों में सबसे ऊंचे ठहाके उन्हीं के होते हैं । वे अपनी किसी प्राइवेट दुनिया में नहीं, इसी संसार में रहते हैं अपनी बेचैनियोँ, चाहतों और सपनों - और ‘लिखने’ को लेकर अपनी अटूट प्रतिबद्धता के साथ । नियमित अंतराल से उनकी कहानियां पाठकों के सामने आती रही हैं जिनमें वे पहाड़ और पहाड़ी जीवन की छवियों के ज़रिये अपने समय को अपनी तरह से परिभाषित करने की कोशिश करते रहे हैं । उनकी कहानियों का लोकेल या परिवेश अधिकतर पहाड़ होता है - लेकिन उनके पाठक जानते हैं कि वह सिर्फ ‘लोकेल’ होता है, उनकी हदबंदी नहीं । पहाड़ उनकी कहानियों की बाहरी ‘हद’ है - लेकिन इस हद के भीतर उनकी कहानियां ‘बे-हद’ हैं । कहानियों की ‘अर्थ-व्यंजना’, या कहें, उनका ‘सत्य’ या ‘सार-तत्व’, वह इस हद में नहीं समाता । वह तो उसे तोड़ते हुए, अतिक्रमित करते हुए जिंदगी के किन्हीं बुनियादी, आधारभूत आशयों या मायनों की ओर चला जाता या चला जाना चाहता है । ‘पुल’, ‘चढ़ाई’, ‘पारस’, ‘चाँद-पत्थर’, ‘चोर-घटड़ा’, ‘हतवाक्’ और ‘लैंड-स्लाइड’ जैसी कितनी ही कहानियां इस बात की गवाह हैं । उनका एक संग्रह ‘सौरी की कहानियां’ प्रकाशित है और दूसरा जल्दी ही प्रकाशित होना संभावित है ।


नवीन जी के बारे में यह सब वह है जो आप शायद पहले से जानते हैं । मैं इसमें जोड़ सकता हूँ कि वे लेखक होने के साथ एक ‘विज्ञानविद’, विज्ञान के व्याख्याकार हैं । वे फिज़िक्स पढ़ाते हैं और साथ ही उस उत्तेजक, रोमांचक, विस्मयकारी ज्ञान-अनुशासन के भी बेहतरीन जानकार हैं – जिसे ‘विज्ञान का दर्शन” या “Philosophy of Science”  कहा जाता है । आधुनिक भौतिकी और खगोलविज्ञान ने हमें प्रकृति के बारे में, परमाणु के भीतर के उप-परमाणविक कणों से लेकर अनगिनत आकाशगंगाओं और सितारों और समूचे यूनिवर्स की संरचना और विस्तार, स्पेस, टाइम, ग्रेविटी, एनर्जी, पार्टिकल्स और एंटी-पार्टिकल्स, सितारों के जन्म और मृत्यु और ब्लैक-होल्स आदि के बारे में बेशुमार और हैरतअंगेज़ जानकारियाँ दी हैं । यूनिवर्स के बारे में इतनी नयी जानकारियाँ जो दरअसल जानकारियों का एक नया यूनिवर्स है । इन सबके बारे में इनकी समझ और जानकारियाँ बेजोड़ हैं, जिनसे मैं बीच-बीच में लाभान्वित होता रहता हूँ । अगर आपके मन में भी ऐसे सवाल आते हैं कि ... मसलन, सितारे कैसे वजूद में आते हैं और किस तरह सिकुड़ते हुए आखिर में एक बहुत बड़े धमाके के साथ ब्लैक-होल में तब्दील हो जाते हैं – या दिक् और काल में मरोड़ें कैसे पड़ती हैं, ‘बिग-बैंग’ क्या है, ‘फोटोन’ क्या है, ‘क्वार्क’ क्या है और ‘गॉड पार्टिकल’ क्या है – अगर ये जिज्ञासाएं आपकी भी हैं – तो आप इनका मोबाइल नंबर ले सकते हैं । इसके अलावा ... वे विश्व-साहित्य के, इस सदी और पिछली सदी और उससे पिछली सदी के क्लासिक लेखकों और कृतियों के भी एक अनन्य जानकार हैं । वे चेखव, पुश्किन, दोस्तोयेव्स्की, टॉलस्टॉय, हेमिंग्वे, मार्खेज, बोर्गेस, आइन्स्टीन, मैक्स प्लैंक, स्टीफेन हाकिंग, और प्रो. यशपाल जैसे उस्ताद लेखकों, वैज्ञानिकों और विज्ञान-चिंतकों की संगत में रहते हैं । लेकिन क्या इतने में इनका परिचय पूरा हो जाता है ?

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इस मौके पर मेरी इच्छा वह कुछ कहने की है जो आप नहीं जानते, शायद नवीन जी खुद भी नहीं जानते । और अगर जानते हैं तो यह तो नहीं ही जानते कि उनके बारे में यह मैं भी जानता हूँ पिछले तीन-चार दशकों से मुझे उनकी दोस्ती का फख्र हासिल है, इसलिए मैं कुछ पर्सनल हो रहा हूँ – लेकिन जो कहना चाहता हूँ वह मित्रता निभाने के लिए नहीं । मैं कहना चाहता हूँ कि इनकी कहानियां – एक खास तरह की उदास करुणा लिए इनकी कहानियाँ - विषयवस्तु और कहन और गठन के स्तरों पर अजीम हैं – लेकिन यह शख्स खुद अपनी कहानियों और किताबों से कहीं अजीमतर है । नवीन जी मेरे लिए सिर्फ कहानियों के या एक किताब के लेखक नहीं हैं । मेरे लिए वे खुद एक किताब हैं, एक चलती-फिरती किताब । मैं बीच-बीच में इस किताब के पन्ने खोलकर पढ़ा करता हूँ । इसका अर्थ यह न समझें कि वे कोई बंद किताब हैं, नहीं - वे तो मेरे ही नहीं, सबके लिए और हर वक्त एक खुली किताब हैं । कैसी किताब ... इसके जवाब में प्रिय कवि नवारुण भट्टाचार्य की एक कविता का सहारा लेकर कहना चाहूँगा - एक कीमती हार्ड-बाउंड किताब नहीं, जो शेल्फ के ऊपरी खाने में धूल और कीड़ों के संग रखी रहती है और कभी भूले-भटके खोली जाती है । वे एक ‘पेपरबैक’ किताब हैं जो मित्रों के बीच बांटकर पढ़ी जाती है और उसके पन्ने खुल-खुल जाते हैं । मैं समझता हूँ कि कोई भी लेखक, अगर दोनों में से एक ही चुनना संभव हो तो, वही किताब होना चाहेगा । लेकिन एक खुली किताब में भी किसी एक समय जो पन्ना खुला होता है, उसके अलावा पढ़ने के लिए कुछ पन्ने पलटने होते हैं । मैं चुपके-चुपके उन्हें पलट लेता हूँ । इस किताब को पूरी तरह, अंत तक पढ़ सका हूँ, यह नहीं कह सकता । कोई भी कैसे कह सकता है ? जीवन नाम की किताब को पढ़ने के लिए भी तो एक पूरा जीवन चाहिए होता है ।

यह किताब किस बारे में है ? यह है लिखित शब्द की प्रकृति और गरिमा - और उनसे हमारे यानी लेखक के रिश्ते के, लेखकीय आचार-संहिता और नैतिकता के, साहित्य के कुछ आधारभूत मूल्यों के बारे में । ये नए सवाल नहीं हैं, लेकिन आज लेखकों के लिए नए सिरे से जिन्दा हो गए हैं । यह सोशल मीडिया का वक्त है जिसमें, हमारी बौद्धिक-साहित्यिक दुनिया में, एक छोर पर ‘सर्वानुमति’ है और दूसरे पर trolling और सर्वनिषेधवाद । एक छोर पर सब कुछ की वाह-वाह, दूसरे पर सब कुछ पर कालिख पोतने की कोशिश । एक ओर बेशुमार लोकप्रियता, फॉलोअर्स, फैन्स, लाइक्स और तालियाँ और दूसरी ओर उतनी ही मात्रा में हिंसा, नफरत, एरोगेन्स और रक्तपात नवीन जी ऐसे माहौल में अपने को सप्रयत्न सस्ती तारीफों या तालियों के ज़हर से, ज़रूरत से ज्यादा दृश्यवान होने से बचाते हैं । वे अपना अकेलापन और एकांत बचाते हैं । इसका यह अर्थ नहीं कि वे मानते हैं कि ‘लिखना’ एक निजी कर्म है या सन्नाटे में की जाने वाली कोई निजी कार्रवाई है, नहीं, वे जानते और मानते हैं कि लिखना एक साथ निजी और सामाजिक होता है वह सिर्फ अपने से नहीं, अपने से परे जाकरअन्य’ से संवाद है – एक साथ ‘अन्य’ से और ‘अपने’ से संवाद है नवीन जी इस बात को बखूबी जानते हैं - लेकिन यह जानने और हर मंच पर चमकने-दमकने या हर जगह दृष्टिगोचर होने में जो फर्क है, वह उसे भी जानते हैं ।

नवीन जी एक चुप्पा लेखक हैं और उनके पाठक भी उन्हीं की तरह चुप्पा हैं । ये चुपके-चुपके लिखते हैं और चुपके-चुपके ही पढ़े जाते हैं । उनके पाठकों, प्रशंसकों का एक तवील दायरा है, फिर भी उनकी कहानियों के बारे में एक चुप्पी बरकरार रही है । इसे मैं कोई साजिश नहीं कहना चाहूँगा - लेकिन एक ट्रेजेडी या दुर्भाग्य ज़रूर कहूँगा । दुर्भाग्य नवीन जी का नहीं, हमारी भाषा का, हिंदी आलोचना का । हमारी भाषा में प्रचलित आलोचना - हमेशा नहीं लेकिन अधिकतर -  ऐसी है जो कृति की कथ्यगत विशिष्टता या मौलिक बुनावट की अवहेलना कर, किन्हीं तयशुदा मानदंडों या धारणाओं को यांत्रिक तरीके से रचनाओं पर लागू करना चाहती है । जो उन मानदंडों पर पर खरी न उतरें उन्हें वह छोड़ देती है । वह रचना की अनन्यता को नकार कर, उनसे कुछ छीनकर, कुछ असंगत जोड़कर, उनमें जो कुछ कोमल, सुन्दर या त्रासद-दर्दीला हो, उसकी उपेक्षा कर उन्हें किन्हीं वांछित अर्थों की दिशा में धकेलना चाहती है । बहुत सी ‘आलोचना’ ऐसी भी है जो आलोचना कम, लेखकों को ‘निर्देशित’ करने या नकेल कसने की कोशिश अधिक होती है । शायद इसीलिए चेखव और रिल्के जैसे लेखक-कवि आलोचना को संदेह से देखते थे । ... बहरहाल, यह कोई नयी बात नहीं है । अनेक लेखक हैं जिनके बारे में जानबूझकर या अनजाने ऐसी चुप्पी बरती गयी है, बरती जाती है । लेकिन फिर वे लेखक क्या करते हैं ? वे आग, खीझ और गुस्से से भरकर – या फिर एक स्थायी उदासी के हवाले होकर - दुनिया से एक दुश्मनी का, अदावत का रिश्ता बना लेते हैं । वे दुनिया के खिलाफ एक चार्ज-शीट जेब में रखकर चलते हैं, जो हर रोज और लम्बी हो जाती है । वे अमर्ष से भर जाते हैं या उदास, अनमने या कटु और कटखने हो जाते हैं । इसके बर-अक्स नवीन जी क्या करते हैं ? ... वे तो खुद उस चुप्पी में शामिल हो जाते हैं, उस चुप्पी से ही पोषण लेने लगते हैं । वे इससे असम्पृक्त, अप्रभावित, अविचलित रहकर चुपचाप अपने कामों को अंजाम देते रहते हैं - पहले की ही तरह अपने मौलिक, उर्जावान तरीके से । एक ऐसे शख्स के रूप में, जो रचनात्मकता के सार और उसके चिरस्थायी तत्वों को जान चुका है, वे जानते हैं कि बेशक आलोचना, एक सुचिंतित, विवेकवान आलोचना ज़रूरी होती है, वह लेखक को ताकत और लिखित को एक शनाख्त देती है - लेकिन जैसे ... एक छलपूर्ण चुप्पी होती है, वैसे ही छलपूर्ण तारीफें भी होती हैं । सहज और विनीत दिखने वाली लेकिन बिना समझ या सौन्दर्यबोध के, लेखक को छलने वाली सस्ती तारीफें । ऐसी तारीफें, उनका अतिरेक लेखक को नष्ट करता है - उपेक्षा से भी अधिक । ग़ालिब ने एक शेर में अपने बारे में कहा है कि वे वह पौधा हैं जो ज़हर के पानी में, उसी से पोषण लेकर उगता है । “हूँ मैं वह सब्ज़ा कि ज़हराब उगाता है मुझे”  यह उनकी सुपरिचित लाइन है । लेकिन यह मुझे कहीं अधूरी जान पड़ती है । असाधारण और चमत्कारी तो यह होगा कि पौधा ‘ज़हराब’ से पोषण ले, लेकिन खुद एक ज़हरीला या जानलेवा पौधा न बने । उसके ज़हर का एक कतरा भी अपने भीतर न आने दे । ऐसा कोई पौधा प्रकृति में होता है या नहीं, मैं नहीं जानता । लेकिन इंसानों में ज़रूर होता है ।

एक कहानी लिखने और छपने के बाद, मुझे यह याद नहीं कि नवीन जी उस पर अलग से कुछ कहते हुए या कोई दावा करते दिखे हों । वे मानते हैं कि लेखक को जो कहना है वह उसे रचना में ही कहना चाहिए । अगर रचना वह नहीं कह पा रही तो लेखक के अलग से कहने का क्या अर्थ है ? इस समय जबकि आत्मप्रचार, आत्म-अभिनंदन या कहें, अपना ‘भोंपू आप बजाना’ एक आम चलन है – नवीन जी अपनी इसी आचार-संहिता पर टिके रहते हुए - पाठकों के, अपने चुप्पा पाठकों के विवेक पर भरोसा करते हैं । वे जानते हैं कि एक सशक्त रचना को ऐसी बैसाखियों की ज़रूरत नहीं - और अगर अल्पप्राण है तो उसे ऐसी तरकीबों से दीर्घजीवी बनाने की कोई भी कोशिश फिजूल होगी ।

जर्मन कवि रिल्के ने एक सदी पहले एक युवा कवि फ्रांज जेवियर काप्पुस को एक पत्र में यह लिखा था - अपने भीतर जाइए और उस कारण को, उस आवेग को ढूंढिए जो आपको लिखने पर विवश कर रहा है - और यह भी – एक रचनात्मक कलाकार को सब कुछ अपने अन्दर ही प्राप्त होना चाहिए यानी उस प्रकृति में जिसे उसने अपना जीवनसाथी बना लिया है । मुझे लगता है कि इस सूत्र को नवीन जी ने अपनी नसों में उतार लिया है एक लेखक को अगर भीतर से कुछ प्राप्त नहीं होता तो बाहर से कुछ प्राप्त हो तो उसका मूल्य ही क्या है ? और वह भीतर से ही कला की विशाल सम्पदा का एक छोटा सा हिस्सा, या उसकी झलक ही पा लेता है तो ... बाहर से कुछ प्राप्त होता है या नहीं, इसका महत्त्व ही क्या है ? नवीन जी की कहानियां मुझे उसी अंदरूनी इलाके, उसी अंतर्तम से, भीतरी अनिवार्यता से जन्मी लगती हैं । यह ‘कलावाद’ या ‘अभिजनवाद’ या सामाजिक जिम्मेदारी से विमुख होकर कला के एकांत रास्ते का वरण नहीं है, न ही यह किसी ऐसे दर्शन की शरण में जाना है जिसके अनुसार संसार असार है या बाहर की दुनिया ‘मिथ्या’ या ‘माया’ है, और ‘सत्य’ तो हमारे भीतर पहले ही मौजूद है । इसके उलट, यही तो सृजनकर्म का प्राथमिक, बुनियादी नियम है । जो कुछ ‘बाहर’ है, ‘अन्य’ है, लिखे जाने से पहले उसे लेखक का आभ्यंतर, उसके ही ‘आत्म’ का अंश बनना होता है । एक मायने में लेखक किसी ‘अन्य’ के नहीं, अपने ही दर्द, अपनी ही व्यथा, वेदना या तड़प के बारे में लिखता है - इसलिए कि एक सच्चे लेखक के लिए कोई ‘अन्य’ नहीं होता, हो नहीं सकता । अपने और दुनिया के बीच की दीवार गिराकर, ‘अन्यत्व’ को मिटाकर, यानी ‘अन्य’ के दर्द को अपना बनाकर, उसे अपनी त्वचा पर अपने ही दर्द की तरह महसूस कर ही कुछ ऐसा लिखा जा सकता है, जिसका सचमुच मूल्य हो । ये तमाम ख्याल मुझे नवीन जी की कहानियां पढ़ते हुए ही आते हैं । लेकिन कहानियों की सविस्तार विवेचना से मैं अपने को रोकना चाहता हूँ ।      

हममें से अनेक आज यह देखकर हताश होते हैं कि दुनिया अधिकाधिक खून और कीचड़ में लिथडती जा रही है । इस खून और कीचड़ के छींटे शब्दों की दुनिया में भी आते हैं, क्योकि शब्दों की दुनिया भी इसी दुनिया में स्थित है, इसके बाहर नहीं । ऐसे पल अक्सर आते हैं जब इस दुनिया में और शब्दों की दुनिया में आस्था टूटने लगती है । यकीन डूबता सा लगता है । ऐसे पलों में मैं जिन चंद लोगों की ओर देखता हूँ, उनमें नवीन जी खास हैं । इन्हें देखकर महसूस करता हूँ कि नहीं, सब कुछ नष्ट नहीं हुआ और इतनी आसानी से नष्ट नहीं होगा   I feel that I can still have my faith in written word or ‘language’ or literature इसके लिए इन्हें कभी शुक्रिया नहीं कहा, लेकिन आज आप सबकी मौजूदगी में कहना चाहता हूँ ।

मैं नवीन जी के साथ पुरस्कार के संस्थापकों, आयोजकों को भी बधाई देना चाहूँगा । आप सबका आभार कि आपने मेरी इन बातों को ध्यान से सुना ।




Monday, March 27, 2023

समांतर कहानी आंदोलन और सुभाष पंत



सुभाष पंत की कहानियां

नवीन कुमार नैथानी



सुभाष पंत हमारे समय के महत्वपूर्ण कथाकार हैं। सुभाष पंत का होना हमें आश्वस्त करता है कि एक सक्रिय लेखक अपने समय का सचेत दृष्टा होता है. वह सार्थक रचनात्मक  हस्तक्षेप करके जीवन को एक खुशहाल और जीने लायक बनाने की बात करता है। 

पांच दशक पूर्व लेखन की शुरुआत करने वाले सुभाष पंत समांतर कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे.  उनके साथ लिखने वाले  बहुत सारे लेखक समांतर आंदोलन के खत्म होने के बाद नेपथ्य में चले गए लेकिन सुभाष पंत अपवाद स्वरूप उन लेखकों में हैं जो आन्दोलनों की वजह से नहीं जाने जाते, बल्कि आन्दोलन को आज हम याद करते हैं तो उनके होने के कारण याद करते है. 

सुभाष पंत आज जीवन के नवें दशक में  भी निरंतर रचनाशील हैं. उनकी शुरुआती कहानियां आम आदमी और वंचित जन, बल्कि यूं कहें कि समाज के समाज के तलछट  पर रहने वाले लोगों की कहानियां रही हैं. वे एक उम्मीद जगाने वाले और स्थितियों को बदलने की छटपटाहट से प्रेरित होकर लिखने वाले लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाते दिखायी देते हैं।

मनोहर श्याम जोशी ‘ट-टा, प्रोफेसर षष्टी बल्लभ पंत’ की शुरुआत करते हुए कहते हैं कि कथाकार को चालिस  साल के बाद लिखना शुरू करना चाहिए. यह कहानी तो बहुत बाद में आई, लेकिन सुभाष पंत ने लेखन की दुनिया में उम्र के उस पड़ाव में कदम रखा जहां तक पहुंचते हुए अधिकांश लेखक स्थापित हो चुके होते हैं. उनकी कहानी ‘गाय का दूध’ छपते ही चर्चा में आ गयी और वे समांतर कहानी आंदोलन के प्रमुख लेखकों में गिने जाने लगे. जैसा कि आंदोलनों के साथ प्रायः होता आया है, समांतर आंदोलन की जिंदगी बहुत ज्यादा नहीं रही और उसके साथ उभरे अधिकांश  लेखक साहित्य की दुनिया में देर तक नहीं टिक पाये. लेकिन सुभाष पंत  उसी शिद्दत के साथ निरंतर सार्थक लेखन करते रहे हैं. उनके साथ कामतानाथ का नाम भी लिया जा सकता है.

यह देहरादून की मिट्टी की खासियत है कि यहां बहुत सारे लेखक उम्र के उत्तर सोपान में निरंतर और बेहतर लिखते चले आए हैं. हम इस बात को विद्यासागर नौटियाल के उदाहरण से बखूबी समझ सकते हैं. शुरुआती कहानियों के चर्चित हो जाने के बावजूद लगभग तीन दशकों के साहित्यिक अज्ञातवास में रहने वाले, विद्यासागर नौटियाल ने  लेखन में जब पुनः प्रवेश किया तो वे आजीवन निरंतर रचना कर्म में संलग्न रहे. एक नई ऊर्जा और नई चमक के साथ उनकी कहानियां, संस्मरण और  उपन्यास सामने आए. लेकिन सुभाष के लेखन में कोई व्यवधान नहीं आया नौटियाल जी की तरह वे अभी तक लेखन में सक्रिय हैं और उतरोत्तर बेहतर लिख रहे हैं.

वे अपनी कहानियों के विषय समाज की तलछट से उठाते है. रिक्शा-चालक, मजदूर, किसान उनकी कहानियों में अक्सर आते हैं .वे बदलती हुई वैश्विक आर्थिक राजनीति की परिस्थितियों के बीच अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष करते हुए उम्मीद की किरणों को जगाने का काम करते हुए दिखायी देते हैं.

इधर पिछले दशक में सुभाष पंत ने  हिंदी को एक से एक नायाब  कहानियां दी हैं. इनमें से  कुछ कहानियां तो हिंदी की बेहतरीन कहानियों में शुमार की जाएंगी.‘अ स्टिच इन टाइम’ और ‘सिंगिंग बेल’ जैसी कहानियां इसका बेहतरीन उदाहरण है।

सिंगिंग बेल बदलते हुए समय के साथ मानवीय संबंधों में आए परिवर्तनों की कहानी तो है ही, नई बाजार व्यवस्था के साथ सामाजिक रिश्तों और राजनीति तथा अपराध के अंतर-संबंधों के साथ विकास की अवधारणा से उपजी विडंबनाओं से भी हमारा साक्षात्कार कराती है. इन दोनों कहानियों को एक तरह से  सुभाष पंत की कहानी-कला के प्रोटोटाइप की तरह भी देखा जा सकता है. किसी भी कहानी की सफलता में उसकी सेटिंग का बहुत बड़ा योगदान होता है. अगर सही सेटिंग मिल जाये तो कहानी का आधा काम तो पूरा हो ही जाता है. शायद रंगमंच की पृष्ठभूमि ने पंत जी के अवचेतन में सेटिंग के महत्व को जरूरी जगह देने के लिए तैयार किया हो. उनकी कहानियों से गुजरते  हुए एक और बात बार-बार ध्यान खींचती है - कहानियों का वातावरण.

‘सिंगिंग बेल’ कहानी जाड़े के मौसम में किसी पहाड़ी कस्बे में घटित होती है, जहां मारिया डिसूजा  बहुत पुराना रेस्त्रां चला रही है. गिरती हुई बर्फ के बीच किसी ग्राहक का इंतजार कर रही है. कहानी के अंदर एक रहस्य भरा  सन्नाटा है और उसके बीच ग्राहक का इन्तज़ार पाठक की जिज्ञासा को उभार देता है. ग्राहक का इंतजार जब खत्म होता है तो मालूम पड़ता है कि वह ग्राहक नहीं, बल्कि उसकी संपत्ति को हड़पने के लिए आए प्रॉपर्टी डीलर का प्रतिनिधि है.

‘अ स्टिच इन टाइम’ कहानी बाजार पर बड़ी पूंजी के कब्जे के साथ छोटे – छोटे धन्धों पर आये संकटों के बीच एक कारीगर के भीतर बची हुई संवेदनाओं को यथार्थ और फ़ैंटेसी के मिले जुले फार्म के बीच प्रस्तुत करती है.यहाँ भी मंच बिना किसी भूमिका के सीधे घटनाओं के बीच ले जाने के लिए तैयार है.

“लड़ाई के कई मुहाने थे.इस मुहाने का ताल्लुक लिबास से था.”

नैरेटर के जन्मदिन पर बेटी एक बड़े ब्राण्ड की कमीज उपहार में देने का फैसला करती है, जबकि वह ताउम्र दर्जी के हाथ से सिली कमीज ही पहनता आया है. वे दर्जी अब बाज़ार से गायब हो चुके हैं. कारीगर हैं, लेकिन उनका श्रम और पहचान बाज़ार में बिकते और स्थापित किये जा रहे ब्राण्ड के नाम के साथ लोगों के दिमाग से गायब हो चुके हैं. यथार्थ से फेंटेसी के बीच औचक छलांग लगाती हुई यह कहानी उन सूक्ष्म मनावीय संवेदनाओं और सौंदर्य को उद्घाटित करती है जो श्रमशील हाथों की कारीगरी से उत्पन्न होती हैं.

पंत  जी की कहानियां स्थूल यथार्थ का अतिक्रमण करती हैं. वे ‘इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़’ संग्रह की भूमिका में कहते भी हैं, “कहानियों में प्रामाणिकता की खोज नहीं की जानी चाहिए. किसी भी घटना का हूबहू चित्रण करना पत्रकार का काम है. उसकी निष्ठा और दायित्व है कि वह उसका यथार्थ चित्रण करें. वह उसमें अपनी ओर से कुछ जोड़ता है घटाता है तो वह अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं माना जा सकता. लेकिन, अगर लेखक उस घटना को कहानी का लिबास पहनाता है तो उसके पास कल्पना और संवेदनशीलता के दो अतिरिक्त औजार  और भाषा तथा शिल्प का खुला वितान है. इसके माध्यम से उस घटना को सीमित परिधि से बाहर निकालकर यथार्थाभास और यथार्थ बोध के व्यापक आयाम तक ले जाए”

जाहिर है कि वे भाषा के प्रयोग के प्रति बहुत सजग हैं. यहां बहुत छोटे वाक्यों के बीच कुछ चमकदार शब्दों की मौजूदगी ध्यान खींचती है. यह भाषा का अलंकारिक प्रयोग नहीं है, बल्कि शब्दों को सही हथियार की तरह धार देने का उपक्रम है, जो ठीक निशाने पर वार करता है. ‘अ स्टिच इन टाइम’ कहानी से यह अंश देखें

मैं दर्जी से मैं कपड़े सिलवा कर पहनता था. अमन टेलर्स के मास्टर नजर अहमद से. मेरी नजरों में वे सिर्फ दर्जी ही नहीं फनकार थे .कपड़े सिलते वक्त ऐसा लगता जैसे वे शहनाई बजा रहे हैं, या कोई कविता रच रहे हैं ...हालांकि उनका शहनाई या कविता से कोई ताल्लुक नहीं था .यह श्रम का कविता और संगीत हो जाना होता.

ठीक उस जगह जहां से यह कहानी स्थूल यथार्थ का अतिक्रमण करते हुए फेंटेसी की ओर जाने की तैयारी करती है, लेखक जैसे नैरेटर की आत्मा में प्रवेश करने लगता है. देखें-

भीतर तक अपनेपन के एहसास से मेरी आत्मा भीग गई .कुछ ऐसे ही जैसे बादल सिर्फ मेरे लिए बरस रहे हैं .कमीज के कंधे वैसे ही थे जैसे मेरे कंधे थे .आस्तीन के कफ ठीक वही थे जहां उन्हें मेरी आस्तीन के हिसाब से होना चाहिए था. कॉलर का ऊपरी बटन बंद करने पर वह न गले को दबा रहा था और न जगह छोड़ रहा था. सबसे बड़ी बात कि कमीज का दिल ठीक उस जगह धड़क रहा था जहां मेरा दिल धड़कता है. 

उनकी कहानियों के जुमले और संवाद भी ध्यान आकृष्ट करते हैं. ‘सिंगिंग बेल’  कहानी में देखिये-

‘‘आदमी ही नहीं मौसम भी बेईमान हो गए ”, अनायास उसके मुंह से आह निकली और वह भाप बनकर हवा में थरथराती रही और घड़ी की टिकटिकाहट शुरू नहीं हुई लेकिन मारिया के भीतर कुछ टिकटिकाने लगा.

“तेरी काली आंखें मारिया जिनके पास जुबान है जो हर वक्त बोलती रहती है जो शोले भी है और शबनम भी .झुकती है तो आसमान नीचे झुक जाता है और उठती है तो धरती ऊपर जाती है”

‘ए स्टिच इन टाइम ’ में देखिये

विजय  के आनंद की सघन अनुभूति में मैंने उत्ताल तरंग की तरह कमरे के चक्कर लगाए और सिगरेट से लगा कर धुंए के छल्ले उड़ाने लगा .मेरी आत्मा झकाझक और प्रसन्न थी.

यह कसे हुए जुमले पंत जी की कहानियों की विशेषता है.

पंत जी के रचना कौशल पर अभी ठीक से बात नहीं हुई है.उम्मीद है उन पर आगे गंभीरता के साथ काम होगा.

Tuesday, December 4, 2018

सबसे लंबा नदी का रास्ता, सबसे ठीक नदी का रास्ता

एक समय तक मैं नवीन की कहानियों का घनघोर आलोचक रहा। खासतौर पर ‘पारस’ कहानी के छपने से पहले तक। ‘पारस’ कहानी जब पहली बार पढ़ी तो एक बारगी मैं ठिठक गया। वह ऐसी कहानी है जिसने मुझे बहुत गहरे तक प्रभावित किया। उस दिन मुझे अपनी डायरी में दर्ज करना पड़ा, ‘शायद मैंने नवीन की कहानियों के पाठ गंभीरता से करने में कोताई बरती है।‘ हिंदी कहानियों में इतनी कल्पनाशीलता, बल्कि हिंदी में ही क्यों, किसी अन्य भाषा में भी इतनी कल्पनाशीलता की कहानी मैंने पहले कभी नहीं पढ़ी थी और सच कहूं तो उसके बाद भी आज तक नहीं पढ़ी। कहानी का पात्र खोजराम पारस पत्थर खोजने के लिए अपने पांव में घोड़े की नाल ठोक लेता है। वह पारस पत्थर से अनभिज्ञ है। सिर्फ इतना जानता है कि वह एक ऐसा पत्थर है जो छूने मात्र से लोहे को सोने बदल देता है।
मेरे सामने सबसे पहला सवाल यह उभरा था कि आखिर नवीन अपने पात्र खोजराम की मार्फत पारस पत्थर क्यों खोजना चाहता है ? कहानी के पात्र खोजराम के भीतर तो सोने की वैसी चाहत का कोई संकेत भी नहीं कि वह दुनिया की समृद्धि का मालिक हो जाना चाहता हो। जबकि समकालीन दुनिया में सोना तो समृद्धि का प्रतीक है। उधर कहानी में जो संकेत है वे तो खोजराम को जिस चीज से समृद्धी का सुख पहुंचा सकते हैं, वहां तो प्रेम की चाह है। विवाह योग्य कन्या की तलाश है। फिर खोजराम पूंजी के विस्तार के से वैभव को पैदा कर सकने वाले पारस पत्थर की खोज में अपनी लंगड़ाहट के बावजूद ऊबड़-खाबड़ ढंगार की ऊंचाइयों को नापने के से नशे की गिरफ्त में क्यों चला गया आखिर ?
नवीन की कहानी ‘पारस’ ने मुझे ही नहीं बहुतों को प्रभावित किया। बाद में उस कहानी को रमाकांत स्मृंति सम्‍मान से सम्मानित भी किया गया।
‘पारस’ के बाद ही नवीन ने ‘ढलान’ लिखी थी।
'हंस' में प्रकाशित नवीन की सबसे पहली कहानी का शीर्षक चढ़ाई था।
‘ढलान’ कहानी का पहला पाठ करने का अवसर मुझे मिला। मैंने कहानी को ‘पारस’ के पाठ की रोशनी में ही पढ़ा और कहानी पर अपनी राय देते हुए कहा कि नवीन भाई तुम तो गजब के कथाकार हो। यार तुम्हारी इस कहानी में पात्र एक नदी को खोजने जिस तरह से जा रहे हैं, लगभग निरुद्देश्यज से दिखते हुए, उस तरीके का खोजना हिंदी कहानियों में बहुधा दिखाई नहीं देता। दूसरी दिलचस्प बात है कि तुम भी उस खोजने को एक सहज मानवीय जिज्ञासा के तहत रख रहे हो। कहन की यह सादगी जो अर्थ खोल रही है उसे ‘पारस’ के पाठ के साथ ही जोड़कर समझा जा सकता है। यानी,एक नदी जिसका रास्ता सबसे लंबा रास्ताा होता है, तुम्हारी कहानी उस रास्ते की खोज में मिलने वाली असफलताओं के बावजूद बिना थके उसे खोजते रहने की प्रेरणा दे रही है। सच, तुमने दुनिया के बदलाव के रास्ते की खोज पर बहुत ही खूबसूरत ढंग से कहानी कही है।
मेरी बातों को सुनने के बाद खुश होने की बजाय, कमबख्त नवीन सकपका गया। और अपने अंदाज में खिल खिला कर हंसते हुए कहने लगा। इसका मतलब मुझे इस कहानी को अपने लिखे हुए से हटा हुआ मान लेना चाहिए और ऐलानिया ढंग से कहा कि वह ऐसी कहानी को सुरक्षित नहीं रखेगा जो इतनी आसानी से खुल जा रही हो। मुझे नवीन भाई की घोषणा पर आश्चार्य तो नहीं हुआ लेकिन इस जिदद पर गुस्सा आया कि वह इतनी अच्छी कहानी को नष्ट क्यों कर देना चाहता है। मुझे अपने पर भी गुस्सा आया कि मैंने कहानी का ऐसा पाठ ही क्यों किया और यदि कर भी लिया था तो नवीन भाई के साथ शेयर क्यों किया। मुझे इस बात का ध्यान रखना ही चाहिए था कि वह तो उस तरह के फूल के स्वभाव का व्याक्ति नहीं जो अपनी तारीफ से खिल जाए, बल्कि छुई-मुई पत्तियों सा है जो तारीफ की छुअन भर से अपने को सिकोड़ लेने में माहिर हो। बार-बार की मेरी गुजारिशों के बावजूद नवीन भाई ने उस कहानी को कहीं नहीं भेजा छपने के लिए। यह भी सच है कि मेरी उस प्रतिक्रिया और नवीन की घोषणा के बाद कहानी का कोई दूसरा पाठक भी पैदा नहीं हो पाया, क्योंकि लिखी गई वह कहानी फिर कभी सामने नहीं आई। नवीन भाई ने कभी नहीं चाहा उनकी कहानियों के पाठ आसानी से खुल जाएं। वे कुछ अबूझ बनी रहें और आप उनके घोर आलोचक बने रहे तो नवीन सचमुच का सौरी रच सकते हैं। पर उनकी कहानियों के पाठ इतनी आसानी से खुल जाए जैसे पारस में खुल गया था और पाठकों ने नवीन के सौरी को किसी कल्पना के भूगोल में ही नहीं रहने दिया बल्कि उसे उस एक ऐसे गर्भ ग्रह में बदल दिया जहां एक स्त्री बच्चे की चाह कहानी में चमकती हुई दिखने लगी, तो नवीन को असुविधा होने लगती है।
नवीन के पाठक जानते होंगे कि पारस के बाद नवीन ने बहुत ही कम कहानियां लिखी हैं। एक लम्बी खोमोशी में होने की वजह को तलाशने में बेशक वे खुद कोई वजह न तलाश पाएं लेकिन कहीं यह भी एक कारण तो नहीं कि पारस ने उनके भीतर को जिस तरह से समाने रख दिया है अब लाख चाहकर भी वे अपने लेखन में उसे छुपाए नहीं रख सकते। अब देखो न उस पहले ड्राफ्ट वाली ‘ढलान’ को इतने सालों बाद अंत में कुछ बदलाव सा कर देने के बाद भी वे कहां छुपे रह पा रहे हैं।
मुझे खुशी है, नवीन अपने उन वर्षों पहले किए गए ऐलान के बाद ‘ढलान’ कहानी को फिर से लिख पाए। ‘प्रभात खबर’ के दीपावली विशेषांक-2018 में कहानी प्रकाशित भी हुई है।
यहां कहानी अपने पहले ड्राफ्ट के बदले हुए रूप में है, आसानी से खुल नहीं रही है। लेकिन नवीन को जान लेना चाहिए कि खोलने वाले फिर भी खोल देंगे। क्यों कि नदी तक न पहुंच पाने की पहली कोशिश लड़के और लड़की को निराश नहीं कर पा रही है। वे निराशा के साथ नहीं बल्कि इस उम्मीद के साथ वापस लौट रहे हैं कि दोबारा रास्ता खोज पाएंगे। ‘लड़ना है भाई यह तो लंबी लड़ाई है’, भाई निरंजन सुयाल की कविता पंक्तियां याद आ रही है।
खैर, नवीन भाई से गुजारिश कि वे अब अपने भीतर को छुपाने की चेष्‍टा करना छोड़कर सतत लिखना शुरु करें। 

ढलान 

नवीन कुमार नैथानी


दी तक पहुँचने की हड़बड़ाहट में उन्होंने गलत पगडंडी पकड़ ली.यह संकरा रास्ता था और ढलान तेज थी.वे अगल-बगल नहीं चल सकते थे.उन्हें आगे-पीछे होना पड़ा.लड़का आगे निकल गया और लड़की पीछे रह गयी.
               तुम्हारे हर काम में जल्द-बाजी होती है.” इतना कहते ही लड़की रुक गयी. उसने सामने देखा-लड़का गायब था.
                 ढलान के दोनों तरफ झाड़ियाँ हवा के स्पर्श से बहुत सारे सुरों में बज रही थीं.उनका बजाना दिखायी पड़ता था.कभी वे तेजी से ऊपर की तरफ उठतीं और पस्त होकर नीचे लुढ़कने लगतीं.कभी वे एक ही जगह खड़ी होकर ऊपर-नीचे डोलने लगतीं-लड़की की तरह!
                कुछ देर तो लड़की समझ ही नहीं सकी कि वह क्या करे-तेजी से दौड़ते हुए लड़के को पकड़े या पीछे लौट जाये.लौटने के खयाल से उसे शर्मिन्दगी महसूस हुई.नदी तक जाने का प्रस्ताव उसी ने किया था.
                  वे पहले भी कई बार उस जगह पर थे.नदी वहाँ एक झील की तरह बहती है- आहिस्ता-आहिस्ता सरकती हुई झील की तरहअते ! बिगड़ते हुए मौसम को देखकर वे वापस लौटने  को थे कि लड़की के मन में एक बेचैन करने वाला खयाल उग आया.शायद नदी उस जगह झील सी न दिखायी दे.शायद बहुत छोटा समन्दर वहाँ भर गया होगा.उसने यह खयाल लड़के के कान में डाल दिया.
            ‘क्या तुम्हें यकीन है?’ लड़के को भरोसा नहीं हुआ.
            ‘चलो, चलकर देख लेते हैं’ लड़की ने कहा था.
             फिर वे वापस लौटना भूल गये थे.मौसम खराब होता जा रहा था और नदी तक पहुँचने की बेचैनी उन पर हावी होती जा रही थी.
            “रुको!” नज़रों से ओझल हो चुके लड़के को रोकने के लिये लड़की ने आवाज दी.
            तभी हवा बहुत तेजी से झाड़ियों को झिंझोड़ने लगी और ऊपर – बहुत छोटे आसमान में – बादल उमड़ घुमड़ करने लगे.लड़की घबरी गयी और वापस लौटने की बात भूलकर ढलान में तेजी से उतर ली.झाड़ियों के ठीक बाद , दोनों तरफ, चीड़ के लम्बे और पतले पेड़ सीटियाँ बजा रहे थे- भागो, भागो!
            लड़की की नज़र चीड़ के हिलते हुए नाज़ुक शरीरों पर पड़ी और उसके मन में लड़के के लिये चिन्ता घुमड़ने लगी – छोटे से आसमान में बादलों की तरह.उसके कदम बेकाबू हो तेज चलने लगे.
            “रुको!” मौसम के बिगड़ते सुरों के बीच उसे एक आवाज सुनायी दी.उसे लगा , शायद यह लड़के की आवाज है.
            वह रुक गयी.उसने सामने देखा.वहाँ ढलान नहीं थी.एक गहरी खाई थी.वह सिहर गयी.वहाँ रास्ता खत्म हो जाता था.लड़का वहाँ नहीं होगा.उसने पीछे मुड़कर देखा – बाँयी तरफ एक बड़ी चट्टान थी.वह उधर बढ़ गयी.नदी तक पहुँचने की बेचैनी में इतनी बड़ी चट्टान उसकी नज़रों से कैसे गुम हो गयी!पतझड़ की आँधी में पत्ते उसके चेहरे से टकरा रहे थे – बेचैन परिन्दों की छटपटाहट में टूटे पंखों की तरह.तभी एक सीटी उसके कानों में बजी – हवाओं में उड़ते पत्तों और महीन मिट्टी के कोलाहल को भेदती हुई.उसने दाहिनी ओर देखा – एक बड़े और चौड़े दरख्त के दरकने से हटी मिट्टी से बनी जगह पर वह दुबका हुआ था.
            लड़का.तीन कदमों के फासले पर.
            लड़की भी उस जगह में समा गयी.उसे अपनी ही साँस अपने सीने पर आसमानों से गिरती सुनायी दी.
            “मैंने तुम्हें नीचे जाते हुए देख लिया था.”लड़के की आवाज सुनते ही लड़की संशय की पिछली यातनाओं से बाहर निकल आयी.
            “तुमने मुझे पुकारा क्यों नहीं?” लड़की फुसफुसाहट के स्वर में बोली – हवा से उठती आवाजों के कारोबार में कुछ चोरी करती हुई.
            “पुकारा तो था,”लड़के ने जवाब दिया,“पर मेरी आवाज दब गयी.जहाँ से तुम लौटीं,मैं भी वहीं से लौटा था.”
            “सच!”लड़की ने लड़के का चेहरा थाम लिया और उसे चूमने लगी.खाई में गिरते पत्तों का दृश्य उसकी आँखों में कौंधता और वह कस कर लड़के का चेहरा थाम लेती.
            “आँधी अभी थम जायेगी.”लड़के ने उसके बालों को सहलाते हुए कहा,“तब हम चलेंगे.”
            “कहाँ?”लड़की अनजान बनी रही.
             “वहीं...नदी तक.”
             “नहीं”
            “क्यों?” लड़का इन्कार से चौंक गया.
             “कोई फायदा नहीं.तब नदी वह नहीं रहेगी जिसे देखने यहाँ तक उतरे.”लड़की की आवाज में गहरी हताशा थी.
             “वह तो अभी होगी.”लड़के की आवाज में थोड़ा संशय उतर आया.इसे दूर करने में उसने जरा वक्त लिया.
             लड़की असमंजस में उसकी आँखों में देखती रह गयी.
            “चलें.” लड़के ने अचानक कहा.वह आदेश का स्वर भी हो सकता था और अनुमोदन की प्रत्याशा भी.
            “चलो.”लड़की ने बहुत धीरे से कहा.शब्द उसके होंठों से बाद में निकले,आँखों से पहले फूट पड़े.
            अब लड़की आगे थी और लड़का पीछे.
            □□□
             खाई के पास पहुँच कर लड़की रुक गयी.
              “मैं भी यहीं से लौटा था.”लड़के ने उसके कन्धों को पीछे से पकड़ते हुए कहा.
             “यहीं से लौटे थे?”लड़की ने पलटकर पूछा.
             “हाँ”
               “अच्छा...”लड़की की आँखें शरारत से चमक उठीं,“तो तुम डर गये थे.”उसने लड़के को हलका धक्का दिया.
                “तुम खाई को देख रही हो?”
               “खाई तुम्हारी सूरत से भी ज्यादा अच्छी तरह दिखायी पड़ रही है.”
               “तुम क्या कह रही हो?”
               “तुम लौट क्यों गये थे?हम नदी तक चलने के लिये उतरे थे.”
               “हाँ”
              “तो!”
               “मैं अकेला था.”लड़के ने हताश आवाज में कहा.
               “आओ!”लड़की पलट गयी.
              अगले ही क्षण लड़की वहाँ नहीं थी.
             □□□
            वह खाई में थी.लड़के को काफी देर बाद दिखायी दी.वह खाई में कैसे पहुँच गयी?कुछ देर वह असमंजस में रहा. तो लड़की ने छलांग लगा ही दी.उसकी जिद के बारे में उसने बहुत सुना था.कुछ देर पहले जब वह इस जगह पहुँचा था तो  अपने पीछे दौड़ती लड़की लगातार उसके ध्यान में बनी  रही थी.लड़की ने खाई में कूदने से पहले उसके बारे में सोचा होगा क्या?फिर उसे लगा कि नहीं,वह खाई में कूदी नहीं है,फिसल गयी है.नहीं,वह फिसली नहीं है.अगर फिसलती तो उसकी चीख सुनायी पड़ती.उसे भरोसा हो गया कि वह एक छलांग थी!जोखिम से भरी हुई.लड़के का दिल जोर से धड़कने लगा.
              ‘‘तुम वहाँ क्यों खड़े हो?”उसे लड़की का उल्लास से भरा स्वर सुनायी दिया.
             “तुम वहाँ क्यों उतर गयीं?”लड़के ने अपनी हथेलियाँ मुँह के सामने कर लीं – आवाज को लड़की तक पहुँचाने के लिये.
               “इतना हैरान क्यों हो?”लड़की का प्रश्न जवाब में उठता हुआ आया.
               “आगे रास्ता कहाँ है?”लड़के ने कहा.
    “आओ!”लड़की का स्वर खीज से भर उठा,“यहाँ बहुत सारे रास्ते हैं.”
                “कहाँ?”लड़के ने फिर कहा,“बहुत खतरनाक ढलान है.”
                “तुम्हें नहीं पता”लड़की ने पुकार लगायी,“यहाँ आकर देखो.थोड़ी देर में आँधी रुक जायेगी.”उसकी आश्वस्त पुकार में चुनौती भरी दृढ़ता थी.
    “कैसे आऊँ?”लड़के को लगने लगा कि वहाँ तक पहुँचा जा सकता है.
    “सीधा छलांग लगा दो.”लड़की का स्वर आत्म-विश्वास से भरा था,“मैं तुम्हें थाम लूँगी.”
     लड़के ने छलांग लगा दी.पैरों के नीचे मिट्टी थी और महीन कंकर थे.क्षण भर को उसे महसूस हुआ कि वह संतुलन खो रहा है.दाहिनी तरफ एक गिरे हुए पेड़ की जड़ दिखायी दी.उसने सहारे के लिये जड़ की तरफ हाथ बढ़ाया.तभी उसे खतरा महसूस हुआ-शायद यह जड़ बहुत कमजोर हो.उसका बोझ न थाम सके और मिट्टी से बाहर निकल आये;तब वह पेड़ के बोझ से खिंचा हुआ नीचे जा गिरेगा.लड़की बहुत पास थी.उसने सहारे के लिये हाथ लड़की की तरफ बढ़ाया और तत्काल पीछे खींच लिया.उसकी चेतना ने ऐन वक्त पर उसे चेता दिया – लड़की मिट्टी में दबी जड़ नहीं है.वह मिट्टी से अलग एक समूची देह है.
                 □□□
     लड़का जब ढलान पर गिरा तो उसके दोनों हाथ और पैर मिट्टी में धंसे हुए थे.उसका चेहरा लड़की की हथेलियों में था.लड़के को अपनी हथेलियों में जलन का अहसास बाद में हुआ- राहत देने वाली नर्म हथेलियों के स्पर्श का अनुभव उसके चेहरे ने पहले किया.वह लड़की को बताना चाहता था कि उसके हाथ बेतरह जल रहे हैं.उसके होंठ लड़की की हथेलियों पर थरथरा कर रह गये-उनसे आवाज नहीं फूटी.
             लड़की  ने महसूस किया कि लड़का उससे कुछ कहना चाह रहा है. आसमान में बादल बज रहे थे और उनकी आवाजों के बीच वह लड़के के होंठों की थरथराहट को सुनने की कोशिश करने लगी.उसे महसूस हुआ कि लड़का उसकी हथेलियों पर होठों से कुछ लिख रहा है.क्षण भर को वह खुश हो गयी.उसकी हथेलियाँ लड़के के होंठों का संसार मापने लगी.वहाँ ताप बहुत ज्यादा था-पृथ्वी के गर्भ के तापमान से लड़की वाकिफ थी.यकायक उसे लगा कि वह लावे में बदल जायेगी.उसने अपनी हथेलियाँ हटा लीं.
                 अगले ही क्षण लड़का जमीन पर था-उसके सर के बाल लड़की के पैरों को छूने लगे.लड़की ने अपने  पैरों से उठती हुई सनसनाहट को महसूस किया.कुछ देर तक वह समझ ही नहीं सकी कि अचानक यह क्या हो गया है!स्थिति की भयावहता को समझ कर उसके भीतर से एक लम्बी चीख निकली-हवा में चीड़ के पेड़ों से निकली सीटियों को दबाती एक बेचैन चीख!समुद्र की लहरों में टूटते जहाज से जीवन के गुम हो जाने की आशंका में एक करुण पुकार!
      लड़के की जीभ यक-ब-यक मुँह में भर आयी मिट्टी के वजूद से चौकन्नी हो लड़ने की मुद्रा खोजने लगी.वह समझ गया कि पूरी तरह से गिर चुका है.हथेलियों की जलन को भूल गया. अब उसके होंठ चिरमिराने लगे.वह मिट्टी से चेहरा उठाने की कोशिश कर ही रहा था कि उसे लड़की की चीख सुनायी दी- उसके नजदीक और सर के ठीक ऊपर!उसका चेहरा मिट्टीसे बाहर निकल आया और आँखों के सामने लड़की की देह का धुंधला सा आकार उपस्थित हो उठा.
                 अपनी ही चीख से डरी हुई लड़की ने नीचे देखा-लड़के का चेहरा ऊपर उठ रहा था.पूरी तरह मिट्टी से पुता हुआ.उस धूसर चेहरे में, होंठों के ऊपर, लाल रंग की एक रेखा बन आयी जो धीरे-धीरे और ज्यादा सूर्ख होती जा रही थी.
     यह खून है!अचानक लड़की के दिमाग में कौंध हुई.
     “अरे!”लड़की के मुँह से एक शब्द फूटा और वह घुटनों के बल जमीन पर बैठ गयी.उसने लड़के के उठते हुए चेहरे को थाम लिया और वहाँ बैठ गयी मिट्टी को हटाने लगी.
    “मुझे उठाओ” लड़के ने कराहते हुए कहा.लड़की बेचैनी के साथ उसके चेहरे से मिट्टी हटाने में जुटी रही.
     “उफ!मुझे उठाओ.”लड़के ने फिर कहा.
     लड़की घबराहट में थी.अब वह असमंजस में पड़ गयी.लड़के को कैसे उठाये.चेहरे से मिट्टी हटाने में जुटी उसकी हथेलियां थम गयीं.बांये हाथ से वह लड़के के चेहरे को थामे रही.लड़के के चेहरे का बांया हिस्सा साफ हो गया था.उसकी आँख के नीचे छोटा तिल साफ दिखायी पड़ रहा था.उस तिल के दिखने से लड़की को लगा कि लड़के का चेहरा साफ हो गया है.वह उस तिल को चूमना चाहती थी.लड़के की कराह सुनकर वह उसे उठाने की युक्ति खोजने लगी.उसने घुटनों को थोड़ा पीछे किया जमीन पर लेट गयी.उसकी दूसरी हथेली भी लड़के के चेहरे पर आ लगी.उसकी हथेलियाँ लड़के के चेहरे का भार महसूस करते हुए थरथरा रही थीं.उसने कोहनियां गीली मिट्टी में धंसायीं,अपने शरीर को थोड़ा आगे बढ़ाया और उसका चेहरा लड़के के चेहरे के पास आ गया.लड़के की आँखों से एक करुण याचना झाँक रही थी.लड़की उसके चेहरे पर ,ठीक तिल के ऊपर बेतहाशा चूमने लगी.
     “मुझे उठाओ!”लड़का फिर कराहा.लड़के की कराह सुनकर लड़की फिर सहम गयी.वह लड़के को कैसे उठाये? इसके लिये उसे खुद उठना होगा.उसने अपनी हठेलियां लड़के के चेहरे से हटाकर जमीन पर टिका लीं. लड़के का चेहरा फिर से जमीन में जा गिरा-मिटी और कंकर के कर्कर स्पर्श में!
     “तुम कैसे गिर गये?”लड़की के मुँह से कुछ शब्द निकले जिन्हें सिर्फ वही सुन सकी.उसकी आवाज लड़के तक नहीं पहुउँच सकी-वह उसके होंठों में ही दब गयी.वह समझ नहीं पायी कि यह सब –इतनी जल्दी और अचानक-क्या हो गया है.तभी आसमान में बिजली देवदार की शाख की तरह कौंधी.लड़की ने अपनी हथेलियां कान पर रख लीं.हथेलियों का परदा नाकाफी था.एक गड़गड़ाहट वहाँ देर तक बनी रही.बिजली के चमकने पर लड़की चौंक जाया करती है.उसे पता भी नहीं चला कि कब और कैसे वह बैठ गयी थी.उसने लड़के के दोनों कन्धे पकड़ लिये.
                 वह लड़के को उठाने की कोशिश कर रही थी.लड़के के बदन का बोझ उसे भारी लगा.अपने कन्धों पर लड़की भारी बोझ उठाने की आदी थी.जंगल में लकड़ी और घास के बहुत भारी बोझ उसके कन्दों पर उठ जाते थे.तब उसकी देह के सभी अंग एक लय में गतिमान हो उठते.वह कन्धों पर बोझ को टिकाती-उसकी हथेलियाँ,घुटने और पैरों के पंजे एक साथ हरकत में आते.धरती उसकी मदद करती और बोझ उसके ऊपर एक मक्खी की तरह बैठ जाता.
    अगर लड़का घास के बोझ की तरह होता तो वह उसे अपने कन्धों पर रख लेती.लड़का घास नहीं है.
    “उठो.”लड़की ने कहा.
     “कैसे उठूँ”लड़के के चेहरे पर दर्द,बेचैनी और छटपटाहट के बादल उतर आये.
     लड़की ने उसे उठाने के लिये जोर लगाया.पैरों के नीचे जमीन का गीलापन बाधा बन रहा था.उसके पैर जमीन में धँस गये.लड़के के कन्धों से उसकी पकड़ ढीली हो गयी और लड़का फिर जमीन पर जा गिरा.
     “उफ!”लड़की जोर से चिल्लायी.उसकी आवाज में कातर प्रार्थना थी,‘‘हे भगवान!ये क्या हो गया!”उसकी आवाज गड़गड़ाहट में दब गयी.आसमान में फिर बिजली कौंधी थी.लड़की के मुँह से एक चीख निकल पड़ी.
               वह चीख लड़के को सुनायी दी.उसने मिट्टी से चेहरा उठाने की कोशिश की.दर्द की तेज लहर उसके बदन से गुजर गयी.अब उसे लगने लगा कि दर्द की अन्तिम सीमा वह झेल चुका है.इससे ज्यादा दर्द और क्या होगा!उसने अपनी हथेलियों को मिट्टी में धंसाया और ऊपर उठने की कोशिश करने लगा.दर्द की लहर उसे नीचे गिराये जा रही थी.उसने जबड़े कस लिये और दर्द को चुनौती देते हुए खड़ा होने का प्रयास किया.दर्द बढ़ गया.लड़के की कोशिश भी बढ़ गयी.तभी उसे महसूस हुआ कि दर्द अब सहन करने की तमाम सीमाओं को लाँघकर उसे नीचे गिराने वाला है.वह एक झटके के साथ उठ खड़ा हुआ.
                 लड़के ने देखा-सामने लड़की खड़ी है.उसकी आँखें बन्द हैं और हाथों से वह कानों को ढके है.लड़के को अब दर्द परेशान नहीं कर रहा था.उसके समूचे शरीर पर अनगिनत सुईयाँ छेद कर रही थीं.लड़की के सामने खुद को खड़ा पाकर उसे राहत महसूस हो रही थी.उसकी इच्छा हुई कि वह लड़की के कानों से हथेलियाँ हटाकर कुछ बात कहे.वह एक कदम आगे बढ़ा और उसकी नजरें लड़की के पीछे चली गयीं.
               वह स्तब्ध रह गया.
     □□□
                लड़की कगार के सिरे पर थी.उसके पीछे एक खड़ी चट्टान थी.लड़की एक कदम भी पीछे हटायेगी तो नीचे जा गिरेगी-वहाँ सहारे के लिये घास तक नहीं है.उसने लड़की को अपनी तरफ खींच लिया.
                किसी सम्मोहन में दो कदम आगे बढ़ने के बाद लड़की को अहसास हुआ कि वह लड़के की लहुलुहान बाहों की गिरफ्त में है.लड़के के धूसर चेहरे से निकलते लहू को लड़की ने बहुत करीब से देखा.लड़के को संभालने के लिये वह अपने पैर गीली जमीन पर मजबूती से टिकाना चाहती थी-तभी उसे अपने चेहरे पर मिट्टी का कंकरीला स्पर्श महसूस हुआ जिसमें खून की गरमी थी.
    “वहाँ देखो” हवा की नमी,मिट्टी की करकराहट और खून की गरमी के बीच उसे लड़के की आवाज सुनायी दी.उसने समझा कि लड़का नदी के पार-दूसरे पहाड़ पर बारिश की सूचना दे रहा है.
     “वहाँ नहीं.उधर...अपने पीछे.”
      लड़की ने थोड़ा खीज के साथ लड़के की तरफ देखा. वह अभी तक लड़के की गिरफ्त में थी.लड़के ने अपना दाहिना हाथ लड़की से अलग किया-उसके ठीक पीछे चट्टान की तरफ संकेत करते हुए.लड़की अब उसकी गिरफ्त से बाहर निकल आयी.
      लड़के की आँखों में भय था, आश्चर्य था और एक राहत थी.लड़की ने सबसे पहले उसकी आँखों में राहत को पढ़ा, फिर उसके मुक्त हाथ का अनुसरण करते हुए पीछे देखा.
               “हे भगवान!” पीछे देखते ही लड़की आश्चर्य और भय से चिल्ला उठी.
     लड़के ने तभी लड़की को अपनी ओर खींच लिया.
     “अब?”लड़के ने लड़की की अवाज को सुना.
     “अब?”लड़की ने लड़के की अवाज को सुना.
      दोनों ने उस दिशा में नहीं देखा जिधर चट्टान थी.दोनों ने उस दिशा में देखा जहाँ से उन्होंने एक दूसरे के पीछे छलांग लगायी थी.
             वह एक बड़ी दीवार थी-मिट्टी और दरकी हुई जमीन से बनी दीवार! उस पर चढ़ना असंभव था.
   एक शब्द भी कहे बिना दोनों जान गये कि अब वापस लौटना संभव न्हीं है.
             “उधर बारिश हो रही है” लड़की ने कहा.
            “अगर बादल फट गया तो?”
            “बादल ऐसे क्यों फटेगा?”
            “अगर फट गया तो?”
            “हम पानी और मिट्टी के रेले में बह जायेंगे.” लड़की ने भय से आँखें बन्द कर लीं.
            “अगर ऐसे ही रुके रहे तो भी मर जायेंगे.”लड़के ने कहा.लड़के को कहीं रास्ता नजर नहीं आया.लड़की के पीछे चट्टानी ढलान थी और बाँयी तरफ खाई.
            छलांग लगाने से पहले लड़की को वह खाई दिखायी नहीं दी थी.अगर दीख जाती तो छलांग नहीं लगाती.उसे तो उस ऊँचायी से वह  जगह दिखायी दी थी जहाँ से एक पगडंडी नदी की तरफ फूटती है.वह पगडंडी लड़के को भी दिखयी दी थी.उसका होना बहुत साफ नहीं दिखता था.वहाँ सिर्फ एक रास्ते का आभास था.किन्हीं ज़मानों में वहाँ से लोग गुजरते होंगे.तब वहाँ कोई रास्ता रहा होगा.
               “अब एक ही रास्ता है”लड़की ने बाँयी उंगली खाई के पार ढलान की तरफ उठायी,“वहाँ!”
              “हाँ.”लड़के ने कहा.
              “हमें वहीं चलना होगा.”लड़की अब शान्त थी.उसकी आवाज में धैर्य था,“हम अब ऊपर नहीं जा सकते”
               कुछ देर तक दोनों एक दूसरे की आँखें पढ़ते रहे.लड़के ने लड़की की आँखों में भय देखा.लड़की ने लड़के की आँखों में लापरवाही देखी.
              “नीचे मिट्टी गीली है” लड़के ने कहा.
                “हाँ गीली है.” लड़की की आंखें आश्चर्य से फैल गयी.लड़के ने खाई में छलांग लगा दी.
                 □□□
                  वह अनायास लगायी गयी छलांग थी.लड़के ने आँखें बन्द कर ली थीं.उसे अपना बदन बहुत हल्का लग रहा था.उसका पूरा शरीर गीली मिट्टी से नरम हो आयी जमीन के ऊपर था.उसने आँखें खोलीं तो नीचे वह पगडंडी दिखायी दे गयी.वहाँ वे फिसलते हुए पहुँच जायेंगे.तभी उसे लड़की का ध्यान आया.उसने ऊपर देखा.लड़की नहीं दिखायी दी.
                 उसे दिखायी दिया कि वह कितनी खतरनाक ऊँचाई से कूदा है!अगर थोड़ा भी इधर-उधर होता चट्टानों से टकराकर बिखर जाता.लड़की कहाँ है? अब वह लड़की के लिये चिन्तित हो गया.
                उस सीधी ऊँचाई के ऊपर कहीं होगी.
               “सुनो!” उसने जोर से आवाज लगायी,“तुम कहाँ हो?”
               थोड़ी देर तक वह जवाब की उम्मीद करता रहा.उसे लगा कि अभी लड़की की आवाज सुनायी दे जायेगी.कुछ क्षण वह टुक लगाकर सुनता रहा –हवा में वृक्षों की सरसराहट के सिवा कुछ सुनायी नहीं दिया.उसकी बेचैनी बढ़ गयी. हो सकता है लड़की ने आवाज न सुनी हो.उसकी आवाज बीच में पहुँचकर खत्म हो गयी हो.हो सकता है हवायें उसकी आवाज को नदी की तरफ ढलानों में खींच ले गयी हो.
               “सुनो!” उसने और ताकत से आवाज दी.एक बार फिर लड़की का नाम पुकारा.उसे चेहरे में मिर्च की तरह एक तीखी जलन महसूस हुई .उसने उंगलियां चेहरे पर लगायीं तो वहाँ एक गरम गीलापन आ टकराया.वह समझ गया, यह खून है.
     थोड़ी देर पहले की तमाम घटनायें उसकी चेतना में एक कौंध की तरह उसकी चेतना में चमक गयीं-उसे हवा में छटपटाते  दिखायी दिये,टूटे हुए रास्ते की ढलान दी,चट्टान से खाई की तरफ बढ़ती हुई लड़की दिखायी दी.भय से वह काँपने लगा.उसे अपने पास की जमीन घूमती दिखायी देने लगी.वह जमीन पर लेट गया और उसने आँखें बन्द कर लीं.
               धप्प!उसके पास कोई चीज गिरी.उसे आँखें खोलनी पड़ीं.ऊपर से मिट्टी सरक रही थी.एक पल वह गिरती हुई मिट्टी को देखता रहा.उसके गिरने में एक लय थी. अचानक यह लय बिगड़ गयी...मिट्टी मलबे की शक्ल में गिरने लगी.उसके गिरने में अजीब सी हड़बड़ाहट थी.आसन्न खतरे को देखकर लड़का उठ खड़ा हुआ.उसे अपने बचाव के लिये फैसला करना था और समय कम था.अब वह जल्दबाजी में छ्लांग नहीं लगायेगा.उसे किसी भी तरह पगडंडी तक पहुँच जाना है.उसने नीचे फिसलते हुए उतर जाने का फैसला किया.
                “ओ माँ!” यह लड़की की आवाज थी.उसके ठीक पीछे.लड़की मलबे के बीच नीचे गिर रही थी-मिट्टी के साथ.
                 लड़की के गिरने के बाद भी बहुत देर तक ऊपर से मिट्टी गिरती रही-बहुत बारीक पर्त के साथ.लड़का उसके नजदीक पहुँचा.वह बेहोश थी और उसका चेहरा मिट्टी से ढका था.वह उसे पुकारने के लिये कोई शब्द ढूँढने लगा.फिर रुक गया.शायद लड़की उसकी आवाज सुनकर डर जायेगी.
               खड़े-खड़े ,कुछ किये बिना-कुछ न कर पाने की बेचैनी के साथ-लड़के को गुस्सा आने लगा.खुद पर झुँझलाहट भी हो उठी.लड़की की बात पर, उसकी जिद के चलते, वे इस मुसीबत में कूद पड़े थे.अब उसे बेहोश लड़की पर गुस्सा आने लगा.वह ऊपर से क्यों कूद पड़ी?अगर मिट्टी के ऊपर कोई पत्थर होता तो उसके वजन तले वह उस ढेर मेम दब जाती.शायद लड़का भी उस मलबे की चपेट में आ जाता.
               हो सकता है लड़की कूदी ही न हो.वह फिसल गयी हो.यह विचार आते ही लड़के का गुस्सा फिसल गया.उसने लड़की के चेहरे पर लगी मिट्टी हटा दी.लड़की ने आँखें खोल लीं.
                “हे भगवान!”लड़के ने आसमान की तरफ देखते हुए एक लंबी सांस ली,फिर उसकी नजरें लड़की की आँखों पर टिक गयीं,“तुम ठीक हो?”
              लड़की कुछ नहीं बोली.वह लड़के के चेहरे को देखती रही.पहले उसे एक धुंधला चेहरा दिखायी दिया-मिट्टी और ताजा जमे खून के बीच झाँकती दो आँखें.चिन्ता और भय की सुरंग से बाहर निकलती हुई रौशनी के दो धब्बे.उस हलकी रौशनी के उजास में लड़के के चेहरे की आकृति पहचान में आयी.लड़की को वह सब एक सपने की तरह दिखायी दिया.
              “तुम ठीक हो?”लड़के ने फिर कहा.
                वह कुछ कह रहा है.लड़की ने सोचा.उसने आँखें बन्द कर लीं.अब लड़का उसके नजदीक है.दोनों एक दूसरे के साथ हैं.अब वे अकेले नहीं हैं.अब थोड़ी देर सो लिया जाये.लड़की की देह शिथिल पड़ गयी.
                 “उठो” लड़के ने फिर कहा.
                 लड़की एक गहरी और निश्चिन्त नींद में चली गयी थी.आसमान से पानी की कुछ बूंदें गिरीं.
                 “बारिश आने वाली है”लड़का ने जोर से कहा.उसका चेहरा आँखों के पास दुखने लगा.तभी बारिश उनके ऊपर गिरने लगी.मोटी-मोटी बूँदों में-धारासार!
                लड़की ने चेहरे पर पानी की आवाज सुनी.उसने आँखें खोलीं.बारिश की चादर के बीच उसे लड़के का धुंधलाया चेहरा दिखायी दिया.वह मुसकरायी.लड़के को वह मुसकराहट पहले दिखायी दी.उसकी खुली आँखों पर नजर बाद में गयी.वह क्या कहे? सोचने में उसने कुछ पल खो दिये.फिर कुछ कहने के लिये उसने होंठ खोले.
              “ओ मां!”लड़के के मुंह से चीख निकली.वह कहना चाहता था,‘जल्दी उठो और चलो.हमें अभी दौड़ना होगा.’ बारिश की मोटी और तेज बूँदें उसके चोट से सूजे चेहरे पर मिर्च की तरह जलने लगीं. लड़की ने उसके चेहरे को हथेलियों से ढक लिया.उसकी उंगलियाँ लड़के के चेहरे को छूने लगी.लड़का फिर दर्द से चीख उठा,“ओ माँ!”
             लड़की हँस दी.फिर खिलखिलाने लगी.मिट्टी पर गिरती बारिश की आवाज के बीच उसकी हँसी लकड़ी के फर्श में गिरते बर्तनों की तरह बजी.
              “पागल हो गयी हो” अब लड़का क्रोध में था.उसकी बेचैनी,झुंझलाहट,पीड़ा और दर्द लड़की की हँसी में एक साथ मिलकर उसकी चेतना में जा गिरे.लड़की की इसी जिद के चलते वह यहाँ तक चला आया था.अब वह लड़की का एक शब्द नहीं सुनेगा.वह मुड़ा और आगे बढ़ गया-उसके कदम दौड़ की हदों तक बढ़ने लगे.
             लड़की उसके पीछे चलने की कोशिश करने लगी.उसे महसूस हुआ कि कदम उसका साथ नहीं दे रहे हैं. उसे अब बैठ जाना चाहिये.बैठते हुए  लड़के को पुकारा,“रुक जाओ!”
            लड़के  ने लड़की की पुकार  सुन ली.लेकिन उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा.उसे लगा कि लड़की फिर शरारत कर रही है.अभी उसे रास्ता ढूँढना है.बारिश हलकी होने लगी थी.आगे का धुँधलापन कुछ साफ होता दिखने लगा.उसने आसमान की तरफ देखा.आकाश का बहुत छोटा टुकड़ा उसे दिखायी दिया.वहाँ बादलों का घनापन छितरा रहा था. लगता है थोड़ी देर में बादल चले जायेंगे और आँधियां थम जायेंगी.फिर उसे ध्यान आया कि हवाओं की तेजी तो बहुत पहले गुजर चुकी है!निराशा में उसने बाँयी तरफ देखा.उधर से एक पगडंडी का धुंधला आकार दिखायी दिया.
            “मिल गया.” वह खुशी से चिल्लाया.उसे लगा कि यह बात अभी लड़की को बता देनी चाहिये.फिर उसे ध्यान आया कि लड़की ने उससे रुकने को कहा था.वह पीछे मुड़ा.लड़की की धुंधली आकृति दिखायी दी.दोनों के दर्म्यान एक बड़ा फासला बन गया था. वह उससे बहुत दूर उतर आया था.शायद उसकी आवाज लड़की तक नहीं पहुँची.
            “सुनो”उसने एक बार फिर आवाज दी,“तुम मेरी आवाज सुन रही हो?”         
            लड़की ने उसकी आवाज सुन ली. लेकिन वह उसे जवाब देने की स्थिति में नहीं थी.लड़के की आवाज में रास्ता पाने की खुशी उसकी पकड़ में आ गयी .उसने उठने की नाकाम कोशिश की.
“हाँ...”लड़की कहना चाहती थी,“तुम आगे निकल जाओ.मैं तुम्हारे पीछे आ जाऊँगी”
दर्द भरी कराह उसके गले से निकली.वह उम्मीद करने लगी कि हवायें उसकी आवाज को लड़के तक ले जा लें.बेचैनी में वह उसी जगह बैठकर अपने हाथ हिलाने लगी.
            लड़के ने उसका हिलता हुआ हाथ देख लिया.लड़की शायद फिर किसी मुसीबत में पड़ गयी है.वह असमंजस में पड़ गया कि उसे क्या करना चाहिये?लड़की तक लौटे या पगडंडी तक पहुँचने का रास्ता खोजे...थोड़ी देर तक वह उसी जगह खड़ा रहा.बुत की तरह.अचानक उसे ध्यान आया कि वापस जाने का रास्ता उनके पास नहीं है.उसे पगडंडी तक पहुँचने का रास्ता खोजना होगा.
            “सुनो!”उसने लड़की की तरफ आवाज फेंकी,“वहीं रुकी रहो.हम बस पहुँच गये हैं.मैं रास्ता खोजकर वापस आ रहा हूँ.”
            लड़की तक आवाज पहुँची या नहीं;जानने का कोई जरिया उसके पास नहीं था. अब पगडंडी साफ दिखायी दे रही थी लेकिन उस तक पहुँचने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था.गीली मिट्टी के सहारे शायद फिसलते हुए कोई रास्ता मिल जाये.इस बार उसे छ्लांग नहीं लगानी है.बस फिसल लेना है.उसने अपना बदन पीठ के सहारे गीली मिट्टी को सौंपा और आहिस्ता से नीचे की तरफ फिसलने की कोशिश करने लगा.शुरू में उसका बदन उसी जगह स्थिर रह गया.उसके पांव मिट्टी को थामे हुए थे.उसे अभी पाँवों को आजाद करना होगा. उसने पाँवों को आसमान की तरफ उठा लिया.अब वह फिसल रहा था.शुरु में उसे अच्छा लगा.फिर उसके फिसलने की गति बढ़ने लगी.बढ़ती गति के साथ उसका डर भी बढ़ने लगा.उसने आँखें बन्द कर लीं. उसकी आँखें तभी खुलीं जब फिसलना थम गया और  पाँव किसी ठोस चीज से टकराये.
            वह एक टूटे हुए पेड़ के तने से टकराया था. वह उठ खड़ा हुआ .थोड़ा सा नीचे चलकर पगडंडी तक पहुँचा जा सकता था.यह पगडंडी उन्हें नदी तक ले जायेगी...वह थोड़ा पीछे हटा.ऊचाई की तरफ.नदी दिखायी दे रही थी.वह उस जगह के नजदीक था जहाँ नदी झील की तरह बहती है.वह वापस  मुड़ गया ऊपर चढ़ने लगा.अब नदी साफ दिखायी दे रही थी.उस जगह वह उसी झील की तरह दिखायी दे रही थी;आहिस्ता-आहिस्ता सरकती झील की तरह.उसका पानी मटमैला हो गया था.वहाँ कोई समन्दर नहीं था.
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 वह हताश था.उसे अभी वापस लड़की के पास जाना है और उसे लेकर एक बार फिर से इस ढलान पर उतरना है.बाहर निकलने का रास्ता यहीं से कहीं आगे मिलेगा.वह इस बात को लेकर परेशान था कि लड़की  इस जगह उसी तरह शान्त बहती नदी को देखकर निराश हो जायेगी.वह उम्मीद कर रही होगी कि नदी एक घुमड़ते हुए समुद्र की तरह दिखायी देगी.वह कह देगा कि अब हवायें थम गयी हैं.लेकिन हवाओं का क्या भरोसा?हो सकता है वे उस वक्त फिर वैसे ही शोर करती हुई बहने लगें.नहीं.उसे कुछ और कहना होगा.नहीं.वह कुछ नहीं कहेगा.लड़की अगर खड़ी नहीं होगी तो नदी नजर की हद के बाहर रहेगी. इस जगह वह लड़की को खड़ा नहीं होने देगा.यहाँ से वे फिसलते हुए नीचे चले जायेंगे.इस बात से उसे राहत मिली.उसने ऊपर चढ़ने के लिये निगाहें उठायीं.
तभी वह दिखायी दे गयी. लड़की!
वह उसी ढलान से उतर रही थी.धीमे-धीमे.सरकते हुए.नदी उसे जरूर दिखायी दे गयी होगी.
“देखो!”लड़की की आवाज सुनायी दी.वह बीच में रुक गयी थी.
“यह तो वैसे ही बह रही”लड़का निराशा छिपा नहीं सका.
“अभी आंधी आयेगी.”लड़की उसके सामने पहुँच गयी.सूजन भरे नीले चेहरे के बीच उसकी दर्द भरी मुसकराहट लड़के को अच्छी नहीं लगी.
“मौसम साफ हो गया है”लड़के ने कहा.
“अगली बार जरुर दिखेगा!”लड़की की आवाज  पुराने रंग में लौट आयी,“तब हम दूसरे रास्ते से आयेंगे”

नवीन कुमार नैथानी
ग्राम एवं पोस्ट –भोगपुर
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